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५६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ० १३ / प्र० १
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विजयोदयाटीका के कर्त्ता अपराजितसूरि अपरनाम श्रीविजयाचार्य दिगम्बर हीं थे, इसके प्रमाण 'अपराजितसूरि : दिगम्बराचार्य' नामक चतुर्दश अध्याय में द्रष्टव्य हैं । 'मूलाराधनादर्पण' टीका के लेखक पं० आशाधर जी (१३वीं शती ई०) दिगम्बर थे, यह सर्वविदित है। पं० नाथूराम जी प्रेमी ने पूना के भाण्डारकर प्राच्यविद्यासंशोधक मन्दिर में एक 'आराधनापञ्जिका' नामक टीका की प्रति देखी थी। इसके विषय में उन्होंने लिखा है - " मेरा अनुमान है कि शायद यह पञ्जिका प्रमेयकमलमार्त्तण्ड आदि के कर्त्ता आचार्य प्रभाचन्द्र की हो । उनके ग्रन्थों की सूची में एक 'आराधनापञ्जिका' का उल्लेख है ।' ये स्त्रीमुक्ति और केवलिभुक्ति आदि श्वेताम्बरीय और यापनीय- मतों का प्रबल युक्तियों से खण्डन करने वाले दिगम्बराचार्य थे, यह प्रसिद्ध ही है । 'भावार्थदीपिका' नामक टीका की प्रति भी पूना के भाण्डारकर प्राच्यविद्या - संशोधक मन्दिर में विद्यमान है, ऐसा प्रेमी जी ने लिखा है । ६८ इसके मंगलाचरण में टीकाकार ने कुन्दकुन्द मुनि को नमस्कार किया है, जिससे उनका दिगम्बर होना प्रमाणित है । ६९ माथुरसंघ के आचार्य अमितगति ने भगवती- आराधना का संस्कृतपद्यानुवाद किया है। माथुरसंघ भी स्त्रीमुक्ति, केवलिभुक्ति और सवस्त्रमुक्ति का विरोधी था, ये केवल पिच्छी को अनावश्यक मानते थे । ७० अतः अमितगति भी यापनीय नहीं थे, दिगम्बर ही थे। पं० सदासुखदास जी ने भी भगवती - आराधना पर भाषावचनिका लिखी है, जो कट्टर तेरापन्थी दिगम्बर जैन थे ।
इस प्रकार जब यापनीयसम्प्रदाय फल-फूल रहा था, उस काल में अपराजित सूरि, प्रभाचन्द्र एवं पं० आशाधर जी जैसे दिगम्बर मुनियों एवं विद्वानों के ही द्वारा भगवती-आराधना पर टीकाएँ लिखी गईं, किसी यापनीय आचार्य ने उस पर कोई टीका नहीं लिखी, यह तथ्य इस बात का प्रमाण है कि भगवती आराधना का पठनपाठन केवल दिगम्बरसम्प्रदाय में ही होता था और टीकाकार उस पर टीकाएँ लिखकर उसके पठन-पाठन को प्रोत्साहित करते थे । इससे यह सूचित होता है कि भगवती - आराधना का पठन-पाठन करनेवाले और उस पर टीकाएँ लिखनेवाले दिगम्बर आचार्यों
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६७. वही / पृ.३३ । ६८. वही / पृ.३४ ।
६९. क— घनघटितकर्मनाशं गुरुं च वंशाधिपं च कुन्दाह्वम् ।
वन्दे शिरसा तरसा ग्रन्थसमाप्तिं समीप्सुरहम् ॥ २ ॥ ख- महासंघे गच्छे गिरिगणबलात्कारपदके,
७०.
गुरौ नन्द्याम्नायेऽन्वयवरगुरौ कुन्दमुनिपे । भावार्थदीपिका टीका ।
पं० नाथूराम प्रेमी : जैन साहित्य और इतिहास / प्र.सं./ पृ.३४-३५ पर उद्धृत । षड्दर्शनसमुच्चय / त.र.दी. - गुणरत्नकृतटीका / चतुर्थ अधिकार / पृ.१६१ ।
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