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५८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०१३ / प्र०१ पण्डित परमानन्द जी शास्त्री लिखते हैं-"इसके सिवाय आचार्य पूज्यपाद ने सर्वार्थसिद्धि में इस आराधना-ग्रन्थ पर से और भी बहुत कुछ लिया है, जिसका एक नमूना नीचे दिया जाता है
__ "निक्षेपश्चतुर्विधः अप्रत्यक्षवेक्षितनिक्षेपाधिकरणं दुष्प्रमृष्टनिक्षेपाधिकरणं सहसानिक्षेपाधिकरणमनाभोगनिक्षेपाधिकरणं चेति। संयोगो द्विविधो भक्तपानसंयोगाधिकरणमुपकरणसंयोगाधिकरणं चेति। निसर्गस्त्रिविधः कायनिसर्गाधिकरणं वाग्निसर्गाधिकरणं मनोनिसर्गाधिकरणं चेति।" (स.सि./६/९)।
"यह सब व्याख्या भगवती-आराधना ग्रन्थ की निम्न गाथाओं पर से ली गई जान पड़ती है
सहसाणाभोगिय दुप्पमजिद अपच्चवेक्खणिक्खेवो। देहो व दुप्पउत्तो तहोवकरणं च णिव्वत्ति॥ ८०८॥ संजोयणमुवकरणाणं च तहा पाणभोयणाणं च।
दुट्ठणिसिट्ठा मणवचिकाया भेदा णिसग्गस्स॥ ८०९॥"७३ पूज्यपाद स्वामी द्वारा भगवती-आराधना को इस प्रकार प्रमाण माना जाना भी सिद्ध करता है कि यह दिगम्बरग्रन्थ ही है।
रचनाकाल यापनीय-संघोत्पत्तिपूर्व आचार्य कुन्दकुन्द का समय नामक दशम अध्याय में सिद्ध किया गया है कि 'भगवती-आराधना' की रचना प्रथम शताब्दी ई० के उत्तरार्ध में हुई थी, जबकि यापनीयसम्प्रदाय का उद्भव पाँचवी शताब्दी ई० के आरम्भ में हुआ था, यह 'यापनीयसंघ का इतिहास' नामक सप्तम अध्याय में सप्रमाण सिद्ध किया जा चुका है। अतः जो ग्रन्थ यापनीयसम्प्रदाय की उत्पत्ति के पूर्व लिखा गया हो, उसके यापनीयग्रन्थ होने की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती।
डॉ० सागरमल जी जब तत्त्वार्थाधिगमभाष्य को इस आधार पर यापनीयकृति मानने से इनकार करते हैं कि “भाष्य तीसरी-चौथी शती का है और यापनीयसम्प्रदाय का उद्भव चौथी-पाँचवी शताब्दी के बाद कभी हुआ था,"७४ तब वे प्रथम शताब्दी में रची गयी
७३. 'भगवती आराधना और शिवकोटि'/'अनेकान्त'/१ अप्रैल १९३९ / पृष्ठ ३७५ । ७४. जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय/ पृष्ठ ३५७।
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