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६२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०१३ / प्र० २
मेरुधीर, सर्वज्ञ, सर्वगुप्त, महीधर, धनपाल, महावीर, वीर, इन आचार्यों के इत्याद्यनेकसूरि कहकर नाम लिये हैं और फिर कुन्दकुन्दाचार्य की परम्परा दी है। "७६
सर्वगुप्त को दिगम्बर सिद्ध करनेवाले इन प्रमाणों की उपलब्धि से सिद्ध है कि उन्हें यापनीय सिद्ध करने के लिए प्रयुक्त उपर्युक्त हेतु हेतु नहीं, अपितु हेत्वाभास है। यतः निर्णायक हेतु हेत्वाभास है, अतः निर्णय भी आभासरूप अर्थात् भ्रान्तिपूर्ण है ।
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दिगम्बराचार्यों के भी नाम आर्यान्त और नन्द्यन्त
यापनीयपक्ष
डॉ० सागरमल जी ने एक नया तर्क यह दिया है कि " मुनि के नाम के साथ आर्य विशेषण का प्रयोग श्वेताम्बर और यापनीय परम्पराओं में लगभग छठीसातवीं सदी तक प्रचलित रहा है, जब कि दिगम्बरपरम्परा में इसका प्रयोग नहीं देखा जाता। शिवार्य के साथ लगे हुए 'आर्य' और 'पाणितलभोजी' विशेषण उन्हें यापनीयआर्यकुल से सम्बद्ध करते हैं। उनके गुरुओं के 'नन्दि' - नामान्तक नामों के आधार पर भी उनका सम्बन्ध यापनीयपरम्परा के नन्दिसंघ से माना जा सकता है।" (जै. ध. या.स./ पृ.१२१)।
दिगम्बरपक्ष
१. दिगम्बराचार्यों के भी नाम के अंत में 'आर्य' शब्द का प्रयोग मिलता है। भगवान् महावीर की शिष्य - परम्परा में द्वितीय केवली का नाम 'लोहार्य' (लोहाचार्य) था, जो 'सुधर्म' नाम से भी प्रसिद्ध थे। कहा भी गया है
तेण वि लोहज्जस्स य लोहज्जेण य सुधम्मणामेण । गणधर - सुधम्मणा खलु णिद्दिद्वं ॥
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जंबूणामस्स
७६. श्रीमान्कुम्भो विनीतो हलधरवसुदेवाचला सर्व्वज्ञः सर्व्वगुप्तो महिधरधनपालौ पदमुपेतेषु
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मेरुधीर :
महावीरवीरौ ।
इत्याद्यनेकसूरिष्वथ
दीव्यत्तपस्या
शास्त्राधारेषु पुण्यादजनि सजगतां कोण्डकुन्दो यतीन्द्रः ॥ १३ ॥ जै. शि. सं. / मा.च. / भा.१/ ले.क्र.१०५ (२५४) सिद्धरबस्ती में उत्तर की ओर एक स्तम्भ पर उत्कीर्ण (शक सं. १३२० ) । ७७. षट्खण्डागम-प्रस्तावना : डॉ० हीरालाल जैन / पुस्तक १/ पृ.१८ - १९ पर उद्धृत ।
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