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६४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०१३ / प्र० है, जिससे सिद्ध है कि वे यापनीयपरम्परा के नहीं, अपितु दिगम्बरपरम्परा के आचार थे। इसका सप्रमाण विवेचन अगले अध्याय में द्रष्टव्य है।
२."अपराजित सूरि यदि यापनीयसंघ के थे" प्रेमी जी के इन उपर्युक्त वचन से स्पष्ट है कि अपराजित सूरि के यापनीयसंघी होने का उनके पास कोई प्रमा नहीं है।
___ इन दो कारणों से सिद्ध होता है कि यह हेतु असत्य है। हेतु के असत्य हो से निर्णय भी असत्य है। अर्थात् अपराजितसूरि को यापनीय मानना असत्य है, अत भगवती-आराधना को भी यापनीयसम्प्रदाय का ग्रन्थ कहना असत्य है।
भगवती-आराधना में श्वेताम्बरग्रन्थों की गाथाएँ नहीं यापनीयपक्ष
__पं. नाथूराम जी प्रेमी-"आराधना की गाथाएँ काफी तादाद में श्वेताम्बर सूत्र में मिलती हैं। इससे शिवार्य के इस कथन की पुष्टि होती है कि पूर्वाचार्यों की रर्च हुई गाथाएँ उनकी उपजीव्य हैं।" (जै.सां.इ./प्र.सं./पृ.५७)। अर्थात् शिवार्य श्वेताम्बराचार्य को अपना पूर्वाचार्य मानते थे, इसीलिए उनके द्वारा रचित गाथाएँ उन्होंने भगवतीआराधना में ग्रहण की हैं, जो उनके यापनीय होने का प्रमाण है। दिगम्बरपक्ष
प्रेमी जी ने उपर्युक्त विचार सन् १९३९ ई० में लिखे एक लेख में व्यक्त किये हैं। किन्तु इससे दस वर्ष पूर्व (सन् १९२९ ई० में) जो लेख उन्होंने लिखा था, उसमें इसके ठीक विपरीत विचार प्रकट किये थे। लेख का सम्बन्धित अंश नीचे उद्धृत किया जा रहा है
"आचार्य वट्टकेर का 'मूलाचार' और यह 'भगवती-आराधना', दोनों ग्रन्थ उस समय के हैं, जब मुनिसंघ और उसकी परम्परा अविच्छिन्नरूप से चली आ रही थी
और जैनधर्म की दिगम्बर और श्वेताम्बर नाम की मुख्य शाखाएँ एक-दूसरे से इतनी अधिक जुदा और कटुभावापन्न नहीं हो गई थीं, जितनी कि आगे चलकर हो गयीं। इन दोनों ही ग्रन्थों में ऐसी सैकड़ों गाथाएँ हैं, जो श्वेताम्बर-सम्प्रदाय के भी प्राचीन ग्रन्थों में मिलती हैं और जो दोनों सम्प्रदायों के जुदा होने के इतिहास की खोज करनेवालों को बहुत सहायता दे सकती हैं। पं० सुखलाल जी ने पंचप्रतिक्रमण नामक ग्रन्थ की विस्तृत भूमिका में एक गाथासूची देकर बतलाया है कि भद्रबाहु स्वामी की आवश्यक
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