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६६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०१३ / प्र०२ इस तरह प्रेमी जी के पूर्वलेख तथा उसमें उद्धृत पं० सुखलाल जी के वचनों एवं डॉ० उपाध्ये के उपर्युक्त शब्दों से यह ऐतिहासिक तथ्य सामने आता है कि न तो दिगम्बरों ने श्वेताम्बरग्रन्थों से कुछ लिया है, न श्वेताम्बरों ने दिगम्बरग्रन्थों से। दोनों को एक ही मूल स्रोत से अर्थात् विभाजनपूर्व के समान आचार्यों से, जो एकान्तअचेलमुक्तिवादी थे, वह सब प्राप्त हुआ है, जो दोनों सम्प्रदायों में एक जैसा है। उसे दोनों सम्प्रदायों ने स्वतन्त्ररूप से श्रुतिपरम्परा द्वारा अपने-अपने पास सुरक्षित रखा है, जैसे उपर्युक्त गाथाएँ, चौबीस तीर्थंकरों के नाम तथा कर्मसिद्धान्त, सात तत्त्व, षड् द्रव्य आदि से सम्बन्धित ज्ञान। इसलिए भगवती-आराधना में जो गाथाएँ श्वेताम्बरग्रन्थों की गाथाओं से साम्य रखती हैं, वे श्वेताम्बरग्रन्थों से गृहीत नहीं हैं, अपितु दिगम्बरों और श्वेताम्बरों की जो एकान्त-अचेलमार्गी समान आचार्य-परम्परा थी, उससे भगवतीआराधनाकार को प्राप्त हुई हैं। अतः भगवती-आराधना को यापनीयग्रन्थ सिद्ध करने के लिए जो श्वेताम्बरग्रन्थों से गाथाएँ ग्रहण किये जाने का हेतु बतलाया गया है, वह असत्य है। हेतु के असत्य होने से सिद्ध है कि भगवती-आराधना यापनीयग्रन्थ नहीं है। .
श्वेताम्बर-यापनीय-समानपूर्वपरम्परा कपोलकल्पित डॉ० सागरमल जी भी स्वीकार करते हैं कि उक्त समान गाथाएँ समान पूर्वपरम्परा से भगवती-आराधना में आयी हैं। किन्तु उन्होंने समान पूर्वपरम्परा के ही आधार पर भगवती-आराधना को यापनीयग्रन्थ सिद्ध करने के लिए एक कपोलकल्पित हेतु प्रस्तुत किया है। वह यह कि मूल निर्ग्रन्थसंघ के विभाजन से दिगम्बर और श्वेताम्बर सम्प्रदायों का नहीं, अपितु श्वेताम्बर और यापनीय सम्प्रदायों का उद्भव हुआ था। अतः इन दोनों सम्प्रदायों की ही समान पूर्वपरम्परा थी। इसलिए इन दोनों को ही समान पूर्वपरम्परा से समान तत्त्व प्राप्त हुए थे। फलस्वरूप श्वेताम्बरग्रन्थों की गाथाओं से साम्य रखनेवाली गाथाएँ जिन श्वेताम्बरेतर ग्रन्थों में हैं, वे यापनीय-सम्प्रदाय के ग्रन्थ हैं, दिगम्बर-सम्प्रदाय के नहीं। अपने इस मन्तव्य को व्यक्त करते हुए वे लिखते हैं- .
"यदि हम यह स्वीकार न भी करें कि ये गाथाएँ श्वेताम्बरसाहित्य से 'आराधना' में ली गई हैं, तो यह तो मानना ही होगा कि दोनों की कोई सामान्य पूर्वपरम्परा थी, जहाँ से दोनों ने ये गाथाएँ ली हैं और सामान्य पूर्वपरम्परा श्वेताम्बर और यापनीय (बोटिक) की थी, क्योंकि दोनों आगम, प्रकीर्णक और नियुक्ति-साहित्य के समानरूप से उत्तराधिकारी रहे हैं। अतः भगवती-आराधना में आउरपच्चक्खाण, भत्तपरिण्णा,
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