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६८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०१३/प्र०२ किया है। जिन प्रकीर्णकों की गाथाएँ भगवती-आराधना में मिलती हैं उनमें आउरपच्चक्खाण, भत्तपरिण्णा, संथारग, मरणसमाही प्रमुख हैं। यद्यपि पण्डित जी गाथाओं की इस समानता को तो सूचित करते हैं, फिर भी वे स्पष्टरूप से यह नहीं कहते हैं कि इन ग्रन्थों से ये गाथाएँ ली गई हैं। वस्तुतः इन गाथाओं के आदान-प्रदान के सम्बन्ध में तीन विकल्प हो सकते हैं। या तो ये गाथाएँ भगवती-आराधना से इन ग्रन्थों में गई हों या फिर भगवती-आराधनाकार ने इन ग्रन्थों से ये गाथाएँ ली हों अथवा ये गाथाएँ दोनों की एक ही पूर्वपरम्परा से चली आ रही हों, जिन्हें दोनों ने लिया हो। इसमें प्रथम विकल्प है कि भगवती-आराधना से इन ग्रन्थकारों ने ये गाथाएँ ली हों. यह इसलिए सम्भव नहीं है कि ये ग्रन्थ भगवती-आराधना की अपेक्षा प्राचीन हैं। नन्दी, मूलाचार आदि में इनमें से कुछ ग्रन्थों के उल्लेख मिलते हैं। पुनः इन ग्रन्थों में गुणस्थान जैसे विकसित सिद्धान्त का भी निर्देश नहीं है, जबकि भगवती-आराधना में वह सिद्धान्त उपस्थित है। तीसरे यह स्पष्ट है कि ये ग्रन्थ आकार में लघु हैं, जबकि 'आराधना' एक विशालकाय ग्रन्थ है। यह सुनिश्चित है कि प्राचीन स्तर के ग्रन्थ प्रायः आकार में लघु होते हैं, क्योंकि उन्हें मौखिकरूप से याद रखना होता था, अत: वे 'आराधना' की अपेक्षा पूर्ववर्ती हैं।
"भगवती-आराधना में विजहना (मृतक के शरीर को जंगल में रख देने) की जो चर्चा है, वह प्रकीर्णकों में तो नहीं हैं, किन्तु भाष्य और चूर्णि में है। अतः प्रस्तुत 'आराधना' भाष्य-चूर्णियों के काल की रचना रही होगी। अतः यह प्रश्न तो उठता ही नहीं है कि ये गाथाएँ 'आराधना' से इन प्रकीर्णकों में गई हैं।
"--- यह बात तो अनेक दिगम्बर विद्वान् भी मान रहे हैं कि मूलाचार और आराधना में अनेकों गाथाएँ समान हैं और मूलाचार में वे गाथाएँ आउरपच्चक्खाण, महापच्चक्खाण, नियुक्ति आदि श्वेताम्बरपरम्परा में मान्य ग्रन्थों से ही उद्धृत हैं।" (जै.ध.या.स./पृ.१२९-१३०)।
इस वक्तव्य में डॉ० सागरमल जी ने भगवती-आराधना का रचनाकाल छठी शती ई० (भाष्य-चूर्णि का रचनाकाल) सिद्ध करने का प्रयत्न किया है, जो प्रकीर्णक ग्रन्थों और आवश्यकनियुक्ति के पश्चात् आता है। ऐसा करने के लिए उन्होंने जो हेतु उपस्थित किये हैं, वे कपोलकल्पित एवं अनैकान्तिकता आदि दोषों से युक्त हैं अर्थात् असत्य एवं हेत्वाभास हैं। इसके प्रमाण नीचे प्रस्तुत किये जा रहे हैं७.१. गुणस्थान-विकासवाद नितान्त कपोलकल्पित
डॉक्टर सा० के पूर्वोक्त वक्तव्य (जै.ध.या.स./पृ.१२९-१३०) से उनकी यह मान्यता प्रकट होती है कि "श्वेताम्बरीय प्रकीर्णकग्रन्थों में गुणस्थानों का उल्लेख नहीं है, जब
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