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अ०१३ / प्र०२
भगवती-आराधना / ६१ ये समस्त हेतु इस बात के निर्णायक हैं कि किसी ग्रन्थकार का दिगम्बरपट्टावलियों में नाम न होना उसके यापनीय होने का हेतु नहीं है, अतः उसे यापनीय होने का हेतु मानना हेत्वाभास है। इसलिए प्रेमी जी का भगवती-आराधना को यापनीयग्रन्थ कहना मिथ्या है।
सर्वगुप्त के दिगम्बर होने का शिलालेखीय प्रमाण यापनीयपक्ष
प्रेमी जी लिखते हैं- "जिन तीन गुरुओं के चरणों में बैठकर उन्होंने (शिवार्य ने) आराधना रची है, उनमें से सर्वगुप्तगणी शायद वही हैं, जिनके विषय में शाकटायन की अमोघवृत्ति में लिखा है कि 'उपसर्वगुप्तं व्याख्यातारः' (१-३-१०४)। अर्थात् सारे व्याख्याता या टीकाकार सर्वगुप्त से नीचे हैं। चूँकि शाकटायन यापनीयसंघ के थे, इसलिए विशेष संभव यही है कि सर्वगुप्त यापनीयसंघ के ही सूत्रों या आगमों के व्याख्याता हों।"(जै.सा.इ./प्र.सं./पृ.५७)।
दिगम्बरपक्ष
१. शिवार्य के गुरु सर्वगुप्त और शाकटायन द्वारा उल्लिखित सर्वगुप्त में एकत्व सिद्ध करनेवाला प्रमाण उपलब्ध नहीं है।
२.यापनीयमत-विरुद्ध सिद्धान्तों का प्रतिपादक होने से भगवती-आराधना दिगम्बरग्रन्थ है, अतः उसके कर्ता शिवार्य और उनके गुरु सर्वगुप्त का दिगम्बर होना सिद्ध है। उदारदृष्टि होने के कारण यापनीय-शाकटायन के द्वारा दिगम्बर-सर्वगुप्त का उल्लेख किया जाना संभव है।
३. शिलालेखीय प्रमाण से सर्वगुप्त दिगम्बराचार्य ही सिद्ध होते हैं। पं० नाथूराम जी प्रेमी ने अपने एक पूर्व लेख ७५ में स्वयं लिखा है
"आर्य शिव ने अपने जिन तीन गुरुओं का उल्लेख किया है, उनमें से सर्वगुप्त का नाम श्रवणबेलगोला के १०५वें नम्बर के शिलालेख में मिलता है। इस शिलालेख में अंगधारी मुनियों का उल्लेख करके फिर, कुम्भ, विनीत, हलधर, वसुदेव, अचल,
७५. "भगवती आराधना और उसकी टीकाएँ"। अनेकान्त/वर्ष १/किरण ३/ माघ, वीर नि. सं.
२४५६ / पृ.१४९।
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