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भगवती - आराधना / ५३
अ० १३ / प्र० १
गवेषणा न करे और कभी कोई देता है, तो कह दे कि ये वस्तुएँ मेरे लिए अकल्प्य हैं । ५९ और यह भी स्पष्ट है कि भिक्षु का उत्सर्गमार्ग तो यही है कि पिण्डैषणा के नियमों का यथावत् पालन करे । अर्थात् अपने लिए बनी कोई भी चीज न ग्रहण करे । तारतम्य का प्रश्न तो अपवादमार्ग में उपस्थित होता है कि जब अपवादमार्ग का अवलम्बन करना हो, तब क्या करे? क्या वह वस्तु को महत्त्व दे या नियमों को ? निशीथ में रात्रिभोजनसम्बन्धी अपवादों के वर्णन-प्रसंग में जो कहा गया है, वह प्रस्तुत में निर्णायक हो सकता है । अत एव यहाँ उसकी चर्चा की जाती है। कहा गया है कि द्वीन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक का मांस हो, तो अल्पेन्द्रिय जीवों का मांस लेने में कम दोष है और उत्तरोत्तर अधिकेन्द्रिय जीवों का मांस ग्रहण करने में उत्तरोत्तर अधिक दोष है। जहाँ के लोगों को यह पता हो कि 'जैनश्रमण मांस नहीं लेते' वहाँ आधाकर्मदूषित अन्य आहार लेने में कम दोष है और मांस लेने में अधिक दोष, क्योंकि परिचित जनों के यहाँ से मांस लेने पर निन्दा होती है । किन्तु जहाँ के लोगों को यह ज्ञान नहीं है कि 'जैन श्रमण मांस नहीं खाते' वहाँ मांस का ग्रहण करना अच्छा है और आधाकर्म- दूषित आहार लेना अधिक दोषावह है, क्योंकि आधाकर्मिक आहार लेने में जीवघात है। अतएव ऐसे प्रसंग में सर्वप्रथम द्वीन्द्रिय जीवों का मांस ले, उसके अभाव में क्रमशः त्रीन्द्रिय आदि का । इस विषय में स्वीकृत साधुवेश में ही लेना या वेष बदलकर इसकी भी चर्चा है । ६° उक्त समग्र चर्चा का सार यह है कि जहाँ अपनी आत्मसाक्षी से ही निर्णय करना है और लोकापवाद का कुछ भी डर नहीं है, वहाँ गोचरी-सम्बन्धी नियमों के पालन का ही अधिक महत्त्व है। अर्थात् औद्देशिक फलाहार की अपेक्षा मांस लेना, न्यूनदोषावह समझा जाता है - ऐसी स्थिति में साधक की अहिंसा कम दूषित होती है। यह भी स्पष्ट कर दिया गया है कि जब फासुग - अचित्त वस्तु मांसादि का सेवन भी अपने बलवीर्य की वृद्धि के निमित्त करना अप्रशस्त है, तो जो आधाकर्मादि दोष से दूषित अविशुद्ध भोजन करता है, उसका तो कहना ही क्या ? ६१ अर्थात् वह तो अप्रशस्त है ही। इससे यह भी सिद्ध होता है कि मांस को भी फासुग—अचित्त माना गया है ।" ६२
मालवणिया जी आगे लिखते हैं- " निशीथ सूत्र (११-८०) में, यदि भिक्षु मांसभोजन की लालसा से उपाश्रय बदलता है, तो उसके लिए प्रायश्चित्त का विधान है।
५९. दशवैकालिक ५.७३, ७४, गा. ७३ के ' पुग्गल' शब्द का अर्थ मांस है। इसका समर्थन निशीथचूर्णि से भी होता है - गाथा २३८, २८८, ६१०० । 'निशीथ : एक अध्ययन / पादटिप्पणी / पृष्ठ ६२ ।
६०. निशीथ / गाथा ४३६-३९, ४४३-४४७ ।
६१. निशीथ / चूर्णि गाथा ४६९ ।
६२. निशीथ : एक अध्ययन (निशीथसूत्र पीठिका) / पृष्ठ ६२-६३ ।
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