________________
४८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०१३/प्र०१ ओर बढ़नेवाले सयोगकेवली जिन योगों का निरोध करते हैं। योगनिरोध का क्रम इस प्रकार है-स्थूलकाययोग में स्थित होकर बादरवचनयोग और बादरमनोयोग के रोकते हैं और सूक्ष्मकाययोग में स्थित होकर स्थूलकाययोग को रोकते हैं। इसी प्रकार सूक्ष्मकाययोग के द्वारा सूक्ष्म मनोयोग और सूक्ष्मवचनयोग को रोककर सयोगकेवर्ल जिन सूक्ष्मकाययोग में स्थित होते हैं। सूक्ष्मलेश्या के द्वारा सूक्ष्मकाययोग से वे सातावेदनीर कर्म का बन्ध करते हैं तथा सूक्ष्मक्रिय नामक तीसरे शुक्लध्यान को ध्याते हैं। उस शुक्लध्यान के द्वारा सूक्ष्मकाययोग का निरोध करके वे शैलेशी अवस्था प्राप्त कर ले हैं। तब आत्मा के प्रदेशों के निश्चल हो जाने से उन्हें कर्मबन्ध नहीं होता। उस समय अयोगकेवली होकर वे मनुष्यगति, पञ्चेन्द्रियजाति, पर्याप्ति, आदेय, सुभग, यश:कीर्ति साता या असातावेदनीय, त्रस, बादर, उच्चगोत्र और मनुष्यायु, इन ग्यारह कर्मप्रकृतियं के उदय का भोग करते हैं। यदि वे तीर्थंकर होते हैं तो तीर्थंकरप्रकृति-सहित बारा प्रकृतियों का अनुभव करते हैं।" (भ.आ./ गा.२१०७-१६)।
"तत्पश्चात् अयोगकेवली जिन परम-औदारिक, तैजस और कार्मण इन तीन शरीरं के बन्धन से छूटने के लिए समुच्छन्नक्रिय-अप्रतिपाती नामक चतुर्थ शुक्लध्यान कर हैं। इस ध्यान का काल 'अ इ उ ऋ लु' इन पाँच ह्रस्व मात्राओं के उच्चारणका के बराबर होता है। इसके द्वारा वे अयोगकेवली गुणस्थान के उपान्त्य समय में बिन उदीरणा के ७२ कर्मप्रकृतियों का क्षय कर देते हैं और अन्तिम समय में तीर्थंक केवली १२ प्रकृतियों का तथा सामान्य केवली ११ प्रकृतियों का क्षय करते हैं। नामकर का क्षय होने से तैजस-शरीरबन्ध का भी क्षय हो जाता है, और आयुकर्म का क्षर होने से औदारिक-शरीरबन्ध का भी क्षय हो जाता है। इस प्रकार बन्धन से मुत्त हुआ जीव बन्धनमुक्त एरण्ड-बीज के समान ऊपर की ओर जाता है।" (भ.आ. गा.२११७-२१)।
इस विस्तृत वर्णन में भगवती-आराधनाकार ने स्पष्ट किया है कि कर्मों क क्षय गुणस्थानक्रम से होता है और सम्पूर्ण कर्म अयोगकेवली नामक चौदहवें गुणस्थाके अन्त में क्षीण होते हैं। अन्यलिंगियों के मिथ्यादृष्टिगुणस्थान ही होता है और गृहस्थं के मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर संयतासंयत तक पाँच गुणस्थान होते हैं। तथा पुरुष ही संयतगुणस्थान को प्राप्त होता है, स्त्री नहीं। इस तरह गुणस्थानसिद्धान्त अन्यलिंगियों गृहिलिंगियों, सवस्त्रमुनियों तथा स्त्रियों की मुक्ति का निषेधक है, जो यापनीयमत वे विरुद्ध है। भगवती-आराधना में इस यापनीयमत-विरोधी गुणस्थान-सिद्धान्त की उपस्थिति से सिद्ध है कि यह यापनीयपरम्परा का ग्रन्थ नहीं है, अपितु दिगम्बरपरम्पर का ग्रन्थ है।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org