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३४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०१३ / प्र०१ विकार उत्पन्न होने पर लजित होने की नौबत आ सकती है।३६ वस्तुतः मुनियों का वस्त्रधारण कामविकार को छिपाने और संरक्षण देने का साधन बन जाता है। ५.३. बाह्यपरिग्रह देहासक्ति का सूचक
भगवती-आराधनाकार आगे कहते हैं कि बाह्यपरिग्रह देह में आदरभाव (आसक्ति या ममत्व) होने का सूचक है
जम्हा णिग्गंथो सो वादादव-सीद-दंस-मसयाणं।
सहदि य विविधा बाधा तेण सदेहे अणादरदा॥ ११६६॥ अनुवाद-"यतः बाह्य परिग्रह का त्यागी निर्ग्रन्थ हवा, पानी, धूप, शीत, डाँस, मच्छर आदि के विविध कष्टों को सहता है, इससे शरीर में उसकी अनास्था (अनासक्ति, ममत्वाभाव) प्रकट होती है। और शरीर को सारभूत न समझनेवाला समस्त हिंसादि पापों को छोड़ देता है तथा शक्ति को न छिपाते हुए तप का प्रयत्न करता है"शरीरे अकृतादरश्च जहात्यशेषं हिंसादिकं, तपसि च स्वशक्त्यनिगृहनेन प्रयतते।" (वि.टी./भ.आ./गा.११६६)। ५.४. बाह्यपरिग्रह मूर्छा का निमित्त
आचेलक्यरूप अपरिग्रह महाव्रत की व्याख्या करते हुए अपराजित सूरि लिखते हैं कि परिग्रह छह प्रकार के जीवों की पीड़ा का मूल तथा मूर्छा का निमित्त है, इसलिए समस्त परिग्रह का त्याग पाँचवाँ अपरिग्रह महाव्रत है-"परिग्रहः षड्जीवनिकायपीडाया मूलं मूर्छानिमित्तं चेति सकलग्रन्थत्यागो भवति इति पञ्चमं व्रतम्।" (वि.टी./भ.आ./गा. 'आचेलक्कु' ४२३/पृ.३३१)।
__ अपराजित सूरि का यह कथन आचार्य कुन्दकुन्द के निम्नलिखित मत का अनुसरण करता है- किध तम्हि णत्थि मुच्छा आरंभो वा असंजमो तस्स। तध परदव्वमि रदो कधमप्पाणं पसाधयदि॥ ३/२१॥
प्रवचनसार। अनुवाद-"बाह्य परिग्रह के रहने पर मुनि मूर्छा, आरम्भ और असंयम से कैसे बच सकता है ? और जो परद्रव्य में आसक्त है, उसके लिए आत्मा की साधना कैसे संभव है?"
३६. "सर्पाकुले वने विद्यामन्त्रादिरहितो यथा पुमान् दृढप्रयत्नो भवति एवमिन्द्रियनियमने अचेलोऽपि
प्रयतते। अन्यथा शरीरविकारो लज्जनीयो भवेदिति।" विजयोदयाटीका/भ.आ./गा.४२३/ पृ.३२१ ।
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