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४२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०१३ / प्र०१ अनुवाद-"स्त्रियों में जो दोष होते हैं, वे नीच पुरुषों में भी होते हैं अथवा मनुष्यों में जो बल और शक्ति से युक्त हैं, उनमें स्त्रियों से भी अधिक दोष होते हैं।"
इसका भावार्थ बतलाते हुए पं० सदासुखदास जी लिखते हैं-"कितने पुरुषनि का तो परिणाम ही नपुंसकनितें अधिक नीच है, नित्य ही भण्डवचन बोलनेवाले, अतिहास्य स्वभाव के धारक हैं, रात्रिदिन काम की तीव्रताकू धारे हैं। तथा पुरुषपणा में हू कितने ऐसे हैं, जे स्त्री के से आभरण, केशभार, दन्तनि के मसी, कज्जल-कुंकुमादिक, हावभाव, विलास-विभ्रम, गान, स्पर्शन, वचनकू धारण करिके अर आपकू धन्य माने हैं। स्त्रीनि की नाईं अंग की चेष्टा, केशनि का संस्कार करे हैं, ते पुरुषपर्याय में हूं नीच आचरण के धारक, तिनि की संगति कू व्यभिचारिणी स्त्री का संग की नाईं त्याग करि उच्च आचरण करना योग्य है।"४१ ।।
इसका अभिप्राय यह है कि किसी-किसी पुरुष में भी पुरुषों के साथ रमण करने की इच्छा होती है। अतः साधुओं को ब्रह्मचर्यव्रत की रक्षा करने हेतु स्त्रियों के समान स्त्रैण पुरुषों से भी दूर रहने के लिए भगवती-आराधनाकार ने सावधान किया है। यह भगवती-आराधनाकार द्वारा वैदवैषम्य की स्वीकृति है। भगवती-आराधना में वेदत्रय और वेदवैषम्य की स्वीकृति यापनीयमत के विरुद्ध है। कोई आचार्य अपने ही मत का विरोध करनेवाला ग्रन्थ नहीं रच सकता। अतः सिद्ध है कि 'भगवतीआराधना' दिगम्बराचार्य की ही कृति है।
मायाचार के परिणाम के विषय में मतभेद श्वेताम्बर आगम ज्ञातृधर्मकथाङ्ग के अनुसार मल्ली तीर्थंकर के उपान्त्य पूर्वभव का जीव राजकुमार महाबल अपने छह मित्रों के साथ अनगार हुआ और सातों मित्रों ने यह प्रतिज्ञा की, कि वे एक ही बराबर तप करेंगे, कोई ज्यादा, कोई कम नहीं। किन्तु प्रतिज्ञा करके महाबल मित्रों से छिपाकर उनसे अधिक तप करने लगा। इस मायाचार के फलस्वरूप उसने स्त्रीगोत्रनामकर्म का बन्ध किया।२ बीस भावनाओं के
४१. भगवती आराधना/प्रकाशक-विशम्बरदास महावीरप्रसाद जैन सर्राफ, देहली/ गाथा ९९९ / पृष्ठ
३८८ (जैन संस्कृति संरक्षक संघ शोलापुर एवं हीरालाल खुशालचंद दोशी फलटण द्वारा
प्रकाशित संस्करणों में इस गाथा का क्रमांक ९८७ है)। ४२. "तए णं से महब्बले अणगारे इमेण कारणेणं इत्थियणामगोयं कम्मं निव्वत्तिंसु ---।"
ज्ञाताधर्मकथाङ्ग । अध्याय ८/पृष्ठ २१७ / आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, १९८१ ।
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