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भगवती - आराधना / ४१
अ० १३ / प्र० १
पुरुष, नपुंसक तीनों में रहती है। इस प्रकार पच्चीस कषायों में से यापनीयमत केवल तेईस कषायों को मान्य करता है। वेद के तीन भेद न मानने से वेदवैषम्य भी यापनीयमत में अमान्य किया गया है । यह दिगम्बरमत से यापनीयमत का एक महत्त्वपूर्ण भेद है । किन्तु भगवती - आराधना में तीनों वेद स्वीकार किये गये हैं। देखिए -
मिच्छत्तवेदरागा तहेव हासादिया य छद्दोसा । चत्तारि तह कसाया चउदस अब्धंतरा गंथा ॥
१११२ ॥
अनुवाद - " मिथ्यात्व, तीन प्रकार का वेदजनित राग, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा और चार कषाय ये चौदह अन्तरंग परिग्रह हैं । "
इसकी व्याख्या में अपराजित सूरि कहते हैं - "वेद- शब्द से स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद नाम के कर्मों का ग्रहण किया गया है। इनके उदय से स्त्री-पुरुष आदि में जो पारस्परिक आकर्षण उत्पन्न होता है, वह राग है । स्त्रियों का पुरुषों में राग होता है, पुरुषों का स्त्रियों में और नपुंसकों का दोनों में । ४०
कषायों के क्षयक्रम का वर्णन करते हुए शिवार्य भगवती - आराधना में कहते हैं-.
तत्तो
णवुंसगित्थीवेदं हासादिछक्कपुंवेदं।
कोधं माणं मायं लोभं च खवेदि सो कमसो ॥ २०९१ ॥
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अनुवाद- 'क्षपक नवम गुणस्थान में नपुंसकवेद और स्त्रीवेद तथा हास्यादि छह नोकषायों को पुरुषवेद में क्षेपण करके नष्ट करता है, पुरुषवेद का क्रोधसंज्वलन में क्षेपण करके क्षय करता है । इसी प्रकार क्रोधसंज्वलन का मानसंज्वलन में, मानसंज्वलन का मायासंज्वलन में और मायासंज्वलन का लोभसंज्वलन में क्षेपण करके क्षय करता है । अन्त में बादर कृष्टि के द्वारा लोभसंज्वलन को कृश करता है, जिससे सूक्ष्मलोभसंज्वलन कषाय शेष रहती है । "
यहाँ तीनों वेदों का अस्तित्व स्वीकार किया गया है। शिवार्य ने यह भी कहा है कि पुरुषों के ब्रह्मचर्य को दूषित करने वाले जो दोष स्त्रियों में होते हैं, वैसे दोष कुछ नीच पुरुषों में भी होते हैं
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महिलाणं जे दोसा ते पुरिसाणं पि हुंति णीयाणं । तत्तो अहियदरा वा तेसिं बलसत्तिजुत्ताणं ॥ ९८७ ॥
४०." वेदशब्देन स्त्रीपुन्नपुंसकवेदाख्यानां कर्मणां ग्रहणम् । तज्जनिताः स्त्र्यादीनामन्योन्यविषयरागाः । स्त्रियः पुंसि रागः, पुंसो युवतिषु, नपुंसकस्योभयत्र ।" विजयोदयाटीका / भ.आ./गा.१११२ ।
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