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४० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०१३/प्र०१ भगवती-आराधनाकार के इस विवेचन से सिद्ध है कि उनके मतानुसार वस्त्रधारण करनेवाला सदा मूर्छाग्रस्त रहता है, अतः वह कभी मुक्त नहीं हो सकता। मुक्ति के लिए वस्त्रादि सम्पूर्ण बाह्यपरिग्रह का त्याग अनिवार्य है। इससे सवस्त्र मुनि, स्त्री, गृहस्थ एवं परलिंगी, सभी की मुक्ति का निषेध हो जाता है। इस प्रकार भगवती-आराधना में परिग्रह की जो परिभाषा की गई है, वह यापनीयमत के सर्वथा विरुद्ध है, अतः यह ग्रन्थ किसी भी हालत में यापनीय कृति नहीं है।
डॉ० सागरमल जी ने भी स्वीकार किया है कि जहाँ मूर्छारूप भावपरिग्रह के साथ वस्त्रपात्रादि द्रव्यपरिग्रह का भी पूर्णत्याग मोक्ष के लिए आवश्यक माना गया हो, वहाँ स्त्रीमुक्ति के साथ गृहस्थों और अन्यतैर्थिकों की मुक्ति का निषेध स्वतः हो जाता है। उनके शब्द इस प्रकार हैं
"किन्तु जब अचेलता को ही एकमात्र मोक्षमार्ग स्वीकार करके मूर्छादि भावपरिग्रह के साथ-साथ वस्त्रपात्रादि द्रव्यपरिग्रह का भी पूर्ण त्याग आवश्यक मान लिया गया, तो यह स्वाभाविक ही था कि स्त्रीमुक्ति के निषेध के साथ ही साथ अन्यतैर्थिकों और गृहस्थों की मुक्ति का भी निषेध कर दिया जाय।" (जै.ध.या.स./ पृ.४१२)।
"अब्भंतरबाहिरए सव्वे गंथे तुमं विवजेहि" इस गाथा (११११) से स्पष्ट है कि भगवती-आराधना में मोक्ष के लिए भावपरिग्रह और द्रव्यपरिग्रह दोनों का त्याग आवश्यक बतलाया गया है। अतः इस प्रमाण से तो स्वयं डॉ० सागरमल जी के वचनों के अनुसार भगवती-आराधना में सवस्त्रमुनि, स्त्री, गृहस्थ एवं अन्यतीर्थिक की मुक्ति का निषेध सिद्ध है। ५.१४. अपरिग्रह-महाव्रत की वैकल्पिक परिभाषा नहीं
सम्पूर्ण भगवती-आराधना में अपरिग्रहमहाव्रत में उक्त दोनों परिग्रहों का त्याग प्रत्येक मुमुक्षु के लिए आवश्यक बतलाया गया है, स्त्रियों और असमर्थ पुरुषों के लिए अपरिग्रह-महाव्रत की कोई वैकल्पिक परिभाषा नहीं दी गई है।
वेदत्रय एवं वेदवैषम्य की स्वीकृति षट्खण्डागम नामक ११वें अध्याय में सप्रमाण दर्शाया गया है कि यापनीयमत में वेदकषाय के पुरुषवेद, स्त्रीवेद, और नपुंसकवेद ये तीन भेद नहीं माने गये हैं, अपितु एक ही वेदसामान्य (कामभाव-सामान्य) माना गया है, जो उक्त मत के अनुसार पुरुष, स्त्री और नपुंसक में समानरूप से रहता है, जैसे एक ही क्रोध-कषाय स्त्री,
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