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प्रमेयचन्द्रिकाटीका श. ३ उ. १ ईशानेन्द्रस्य देवऋद्धिवर्णनम्
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वायुभूति: त्रिकुर्वणाशच्या देवर्द्धिसंहरणम् पुनर्भगवन्तं पृच्छति' से केणद्वेणं' तत् केनार्थेन केनाभिप्रायेण 'एवं बुच्चड़' एवम् उच्यते - 'सरीरं गया' त्ति ! शरीरं गता ? इति । सा देवर्द्धिः शरीरं गता इति भवतः कथनस्य कोऽभिप्रायः ? को वा हेतुः ? भगवान् वायुभूति दृष्टान्तेन बोधयति - 'गोयमा ! से जहा ' - इत्यादि । हे गौतम! तथा 'नाम' नाम इति वाक्यालंकारे 'कूडागारसालाए' कूटाकारशाला, कूटस्य शिखरस्य आकार इव आकारी यस्याः सा चासौ शाला कूट्टाकारशाला 'सिया' स्यात् 'दुहओ' द्विधा उभयपार्श्वतः 'लित्ता' लिप्ता सर्वथा संवृता 'गुत्तदुवारा ' गुप्तद्वारा, संतद्वारा 'णिवाया' निर्वाता पचनस चाररहिता' शिवाय गंभीरा निर्वातगंभीरा पिहितद्वारगवाक्षतया सर्वथा पचनसंचार
अब वायुभूति इसी बातको विशेष रूप से समझने के लिये प्रभुसे पुनः प्रश्न करते है कि- ' से केणद्वेगं एवं बुचइ सरीरं गया ?' हे भदंत ! आप ऐसा किस अभिप्रायसे कहते है कि ईशानेन्द्र की वह दिव्य देवर्द्धि उसके शरीर में समा गई है ? तात्पर्य यह है कि वायुभूति श्रमण भगवान महावीर से पूछते हैं कि हे भदंत ! आपके इस कथन का अभिप्राय क्या है ? अथवा इस में हेतु क्या है ? वायुभूतिके इस कथनको सुनकर भगवानने उन्हें इस दृष्टान्त द्वारा समझाया- 'गोयमा' हे गौतम! ' से जहानामए कूडागारसाला सिया' इत्यादि, जैसे शैल [पर्वत ] शिखर के आकार के जैसे आकारवाली कोई एक शाला हो- अर्थात् एक ऐसा घर हो कि जिसकी बनावट पर्वत के शिखर जैसी हो, यह शाला दोनों ओर से गोमयादिसे लिप्त हो 'गुत्ता' सुरक्षित हो, इसका द्वार संवृत (ढका) हो, पवन के संचारसे यह रहित हो, ऐसी कूटाकारशाला का यहां दृष्टान्त लागू
त्यारे वायुभूति अगार महावीर अभुने पूछे छे " से केणणं एवं बुच्चइ सरीरं गया ?" डे लहन्त ! आप था अर मे हो छ। हे ईशानेन्द्रनी ते हिव्यु દેવદ્ધિ તેના શરીરમાં જ સમાઇ ગઇ છે.
વાયુભૂતિના પ્રશ્નને જવાખ આપવા માટે મહાવીર પ્રભુ તેમને એક દૃષ્ટાંત मापे - " से जहानामए कूडागारसाला सिया" पर्वतंना शिमरना भाधरनी એક શાલા હાય-- એટલે કે કાષ્ઠ એવું ઘર હેાય કે જેની ખનાવટ કોઇ પ°તના શિખર लेवी होय. ते धरने भन्ने तरी गार रेसी होय, "गुत्ता" सुरक्षित होय, तेनुं દ્વાર ખધ હાય, પવન પણ તેમાં પ્રવેશી શકતા ન હાય, એવી ટાકાર ચાલાનું