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भगवतीस पुण्यः हीनपुण्यश्वासी चातुर्दशिको हीनपुण्यचातुई शिकः इति । पुण्यवान हि
शुक्लचतुर्दश्यां जायते अयं तु पुण्यरहितः । 'जणं' यत् खलु 'मम' मम _ 'इमाए' अस्याम् 'एयाख्वाए' एतदूपायाम् सम्पति अभिधास्यमानस्वरूपायाम 'दिवाए' दिव्यायाम् 'देवीए' देवद्रों देवद्युतौ च लव्यायां सत्याम् 'जावदिन्वे' यावत्-दिव्ये 'देवाणुभागे' देवानुभावे लढे पत्ते' लब्धे प्राप्ते 'अमिसमण्णागए' अभिसमन्वागते परिभुक्ते सत्यपि 'उप्पि' उपरि मम मस्तकोपरि चरणयुगलं निधाय 'अपुस्मए' अल्पोत्सुकाः अनुत्कण्ठः शान्तो भूत्वेत्यर्थः 'दिव्याई' दिव्यान् 'भोगभोगाई भोगमोगान 'भुजमाणे' भुजानो विहरइ जिसका हीन-क्रम हैं वह हीनपुण्य है. हिनपुण्याला जो चातुर्दशिक हैं वह हीनपुण्यचातुर्दशिक हैं क्यों कि पुण्यशाली जोय शुक्लचतुदशीके दिन उत्पन्न होता है । परन्तु यह ऐसा नहीं है अतः हीनपुण्यचातुर्दशिक है । जो यह ऐसा नहीं होता तो क्यों मेरे मस्तक ऊपर अपने पैरों को रखकर शांतिरूप से दिव्यभोगोंके भोगने में लगा होता । वही पात 'जं णं मम' इत्यादि-सूत्र पाठ द्वारा सूत्र. कार प्रदर्शित करते है-कि वह चमरेंन्द्र अपने मनमें इस प्रकार विचार कर रहा है कि मैंने यह इस प्रकारकी दिव्य देवद्धि लब्ध की है माप्तकी है और उसे अपने भोग के योग्य बनाया है, यावत् दिव्य देवानुभाव भी लब्ध किया है, प्राप्त किया है, और उसे मैं इस समय भोग भी रहा हूं-ऐसी मेरी पुण्य परिस्थिति बन रही है तो फिर यह कौन हैं जो 'अप्पस्सए निःशंक होकर 'उपि मेरे मस्तक पर अपने दोनों पैरोंको जमाकर दिव्य भोगोंके भोगने में જેનું પુણ્ય જૂન છે તેને હપુચ કહે છે. આ રીતે હિનપુણ્યવાળા ચાતર્દશિકને હીનપુણ્યચાતુર્દશિક’ કહે છે કારણ કે પુણયશાળી જીવ તે શુકલપક્ષની ચૌદશ જન્મ લે છે. જે તે ઉપરોકત વિશેષાવાળે ન હોત તે મારા મસ્તક પગ રાખીને દિવ્ય लागाने लागवानी हिंमत शनी ४२ जी ते विन्यार ४२
मम ઇટિ પણ એવી જ દિવ્ય દેવદ્ધિ પ્રાપ્ત કરી છે અને તે દેવદ્ધિ અહિંને મારે અધીન બનાવી છે અને તેને મારે માટે ભાગ્ય બનાવી છે. મેં પણ દિવ્ય દેવઘતિ દિવ્ય દેવબળ અને દિવ્ય દેવપ્રભાવ પ્રાપ્ત કરેલા છે, અને અત્યારે હું તેને ઉપગ પણ કરી
ही : सा प्रभारी पुश्य परिस्थिति पाभ्योgaing 'अप्पस्सए' नि मना-निर्भय मनीन 'उप्पि' भारा भरत ५२ पन्ने पाने सभी रियाणा