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भगवतीसरे 'विउविति या विकुर्वति या, 'विउविसति वा पिकुर्विष्यति वा कदाचित, पंचंपरिवाडीए' एवं परिपाटया उक्तरीत्या 'णेयब' ज्ञातव्यम् । 'जाव-संद माणिआ' यावत् स्पन्दमानिका, यावत्करणात् पुरुषरूपे, हस्तिरूपः, गिल्लिघिल्लि-शिविकारूपः, इति संग्रावाम् । गीतमःपुनः पृच्छति-'से नहा नामए' क्यों कि-'चिउब्बिसु था, विउव्विति वा, विउविस्संति वा न तो उसने भूतकाल में कभी ऐसी विकुर्वणा की है, न वर्तमान में वह ऐसी विकुर्वणा करता है और न वह भविष्यत् कालमें भी ऐसी विकुवंणा करेगा ही। 'एवं परिवाडीए नेयवं' इस प्रकार उक्तरीति से यह कथन जानना चाहिये । तात्पर्य कहने का यह है कि भावितात्मा अनगारने अपनी विक्रिया से इस प्रकार के अनेकरूपो को 'यनाकर केवलिकल्प इसजंदीप को पूर्णरूप से भरदिया हो ऐसी यात त्रिकाल में कभी भी हुई तो नहीं है-परन्तु यदि वह ऐसे२ रूप बनाकर पूरे जंबूदीप को भरना चाहे ता भर सकता है ऐसी उसमें शक्ति मौजूद अवश्य है परन्तु आजतक किसी भि कालमें उसने अपनी इस शक्तिका उपयोग नहीं किया है-न वर्तमान में करता है और न आगे भी वह ऐसा करेगा ही ऐसा जानना चाहिये। 'जाव संदमाणिया' इसी प्रकारका कथन स्यन्दमानिका के विकुर्वितरूपों तक जानना चाहिये । यहां जो यह 'यावत्' पद आया है उससे 'पुरुषरूप, यानरूप, हस्तिरूप, गिल्लिरूप, थिल्लिरूप, शिधिकारूप' चंति वा, विउविस्संति का' भरेर त भए भूनाभा ही पप मेवा विgg श नथा, वर्तमानमा ४२ता नथी मन भविष्यमा ४२ प नहा. 'एवं परिवाडीए રેશર એ પ્રકારની પરંપરા છે, એમ સમજવું. ઉપર્યુંકત સમસ્ત કથનનું તાત્પર્યા નીચે પ્રમાણે છે
ભાવિતાત્મા અણગારે પિતાની વિક્રિયા દ્વારા આ પ્રકારનાં અનેક રૂપનું નિર્માણ કરીને આ જંબુદ્વિીપને પૂરે પૂરે ભરી દીધા હોય એવું ત્રણે કાળમાં કદી બન્યું નથી. પણ જે તે ધારે તે એવાં રૂપ બનાવીને સમસ્ત જમ્બુદ્વીપને તે રૂપથી ભરી દેવાને અવશ્ય શકિતમાન છે. પણ તેણે ભૂતકાળમાં કદી પણ તેની તે શકિતને ઉપયોગ કર્યો नथा. तभानमा ४२ता नथा भने भविष्यमा ४२२ नडी. जाव संदमाणिया, શ્રીરની વિફર્વણાના વિષયમાં જે વર્ણન કરવામાં આવ્યું છે તે પુરુષરૂપ, ચાનરૂપે, રિપે, ગિલિરૂપે, શિહિલ, શિબિકા રૂપ અને ચન્દ્રમાનિકા શપના વિષયમાં ५१ सभा.,