Book Title: Bhagwati Sutra Part 03
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 1198
________________ ९१० भगवती 1 टीका - लेश्याधिकारात् तदुविशेषपरिणामादीन् प्रतिपादयितुमाह से गुणं भंते ।" इत्यादि । गौतमः पृच्छति - हे भदन्त । तद् नूनं संभवति एतत् 'कण्डलेस्सा' कृष्णलेश्या, 'नीललेस्सं' नीललेश्याम् 'पप्प' प्राप्य 'वारूवतार' तंद्रूपतया नीललेश्या स्वरूपेण तदेव स्फुटयति- ' तावण्णता' तदवर्णतया तस्याः नीललेश्याया वर्ण इव वर्णो यस्याः सा तदूवणो तस्या भावस्तथा तया तद्वर्णतया परिणमति ? एवं वद्रसतया तद्गन्धतया, इत्यादि गौतमस्य प्रश्नाशयः स्वयमूहनीयः गइपरिणाम एसोगावग्गणाद्वाणमप्पपटु ) परिणाम, वर्ण, रस, गंध, शुद्ध, अप्रशस्त, संक्लिष्ट, उष्ण, गति, परिणाम, प्रदेश, अवगाहना, वर्गणा, स्थान और अल्पबहुत्व इस गाथा तक ग्रहण करना चाहिये । (सेवं भंते । सेयं भंते!) हे भदन्त ! जैसा, आप देवानुप्रियने कहा है वह ऐसा ही है भदन्त ! वह ऐसा ही है इस प्रकार कहकर गौतम अपने स्थान पर विराजमान हो गये || टीकार्य इस सूत्रद्वारा सूत्रकारने लेश्याका अधिकार होनेके कारण लेश्याके विशेष परिणाम आदिकोंका प्रतिपादन किया है । गौतमने प्रभुसे पूछा है कि हे भदन्त ! क्या यह घात संभव सकती है कि 'कण्हलेस्सा' कृष्णलेश्या' 'नीललेस्सं "नील लेश्याको प्राप्त करके 'तारूवत्ताए' नीललेश्या स्वरूप में बदलकर 'तावण्णत्ताए' नीललेश्याके वर्ण जैसे वर्णवाली हो जाती है ? उसके रस जैसे रसवाली हो जाती है ? संकि लिट्टु - पहा - गहू, परिणाम - परसोगाह-वग्गण्णाद्वाणमप्प बहुं भने मा शाधा पर्यन्तनुं ते उद्देश४नु उथन ग्रहयु ४२ लेभे- 'परिणाम, वर्ग, रस, गंध, शुद्ध, अप्रशस्त, संविष्ट, उष्य, गति, परिणाम, प्रदेश, संवगाहना, वर्ग, स्थान, शमने हमहुत्व' (सेवं भंते !: सेवं भंते . !) 'हे महन्त । अपनी वात सर्वथा સત્ય છે, હું બદન્ત ! આપની વાત ચથાય છે,' આ પ્રમાણે કહીને ગૌતમ સ્વામી તેમને સ્થાને બેસી ગયા. ટીકાથ— આ સૂત્રમાં સૂત્રકારે લેશ્યાના પરિણામ આદિનું પ્રતિપાદન કર્યુ` છે. ગૌતમ સ્વામી મહાવીર પ્રભુને પૂછે છે કે શું એવા. વાત સંભવી શકે છે કે 'कण्णलेस्सा' धृष्णुलेश्या 'नीललेस्सं पप्प' नीससेश्याना संयोग चाभीने 'तारुवत्ताए' नीससेश्याना स्व३पभां पसटाई रहने 'तावण्णत्ताए' नीलसेश्याना જેવાં જ વણુની ખની જાય છે ? અને તેના જેવાજ વાસ કે ગંધવાળી બની જાય છે ?

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