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प्रमेयचन्द्रिका टीका श ३उ ७ २ शक्रस्य सोमादिलोकपालस्वरूपनिरूपणम् ७९३ वनाशा. । उपसहरमाह-वमणन्भूया' व्यसनमूता दुखदायिन' 'अणारिया' मनार्या अधमा उत्पाता 'जे यावण्णे' ये चाप्यन्ये 'तहप्पगारा' तयामकारा' तस्सदृशा भवन्ति 'ण' ते न ते सर्वे 'सक्स्स देविंदस्स देवरण्णो' शक्रस्य देवेन्द्र स्य देवराजस्य 'सोमरस महारण्णो' सोमस्य महाराजम्य 'अण्णाया' अज्ञाता भर्यात् न केवल माणेक्षयादय एव, अपि ये चाप्यन्ये एव्यतिरिक्ता' माणसयादिसशा व्यसनभूता आपणा अनार्या पापात्मका ग्रहोपद्रवादिमन्या परिणामा भवति तेऽपि शक्लोक्पालसोमस्य भनाता नेति भावः । एव ते 'अदिट्ठा' अदृष्टो प्रत्यक्षाधविषयीभूता , 'अमुया' 'अश्रुता श्रवणगोचरा. भूया अणारिया' इन ग्रहदढ आदिकोंके होने पर प्राय प्राणोंका क्षय हेता है, उनके यलका क्षय होता है, जनक्षय-लोगोंका मरण होता है, धनका विनाश होता है वशका क्षय होता है, तथा व्यसनभूत-दुखदायी अघम 'जे यावण्णे' जो और भी दूसरे 'सहप्प गारा' इसी प्रकारके उत्पात होते है, वे सप 'सफस्स देविंदस्म दवरणो' देवेन्द्र देवराज शक्रके 'सोमस्स महारण्णो' लोकपाल सोम महारानको 'अण्णाया' अज्ञात नहीं है अर्यात्-ग्रादण्डादिकीके होने पर जो प्राणक्षय आदि अनिष्ट परिणाम होते है फेवल वे ही सोममहाराजसे अज्ञाप्त नहीं है किन्तु इनसे भी भिन्न जो इन्ही के जैसे भापचिरूप पापात्मक- अशुभ-अठोपद्रवादिजन्य परिणाम होते है वे भी शक्के लोकपाल मोमसे अज्ञात नहीं होते है । इसी तरह के 'अदिवा प्रत्यक्ष आदि के अविषयभूत, भी नहीं होते है । 'असुया'
'पाणक्खया, जणक्खया, धणक्खया, कुलक्खया, सणग्या अणारिया' એ બ્રહદડ આદિ ઉત્પાતે થવાથી પ્રાય પ્રાણીઓને નાશ થાય છે માણસોને નાશ થાય છે, ધનનો નાશ થાય છે, કળીને નાશ થાય છે અને નાશ થાય છે તથા અધમ વ્યસનત બીજા જે દ ખ દાયીપ્રક્ષય, જનક્ષય, આદિ કરનારા ઉત્પાતે 'जे यावण्णे तहप्पगारा' भने में मारना भी प २ मापापात! या समा अपात 'सफम्स देविदस्स देवरणो' हेवेन्द्र हे। शना 'सोमस्स महारणो ४५ie सोम महारापक्षी अण्णाया' अज्ञात होता नया मेट ४ & દ. આદિ થાય ત્યારે જે પ્રાક્ષય આદિ અનિષ્ટ પરિણામે આવે છે એ સોમ હેકપાલથી અજ્ઞાત હોતા નથી એટલું જ નહી પણ એથી જુદા જ પ્રકારના, એના જેવા જ આપત્તિ૨૫ પાપાત્મક અશુભ, બહાપદ્રવ આદિ જન્ય પરિણામે પણ સેમ કપાલવી मज्ञात हातानी 'अदिवा' भद्र-2-प्रत्यक्ष-२ २ हाता नथी 'अमुया'
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