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प्रमेयचन्द्रिकाटीका श.३ उ.६.१ मिथ्यादृष्टेरनगारस्य विकुर्वणानिरूपणम् ७२३.
टीका-विकुर्व णाधिकारादाह-'अणगारेणं भंते !' इत्यादि । गौतमः पृच्छति-हे भदन्त ! अनंगारः खलु ‘भावियप्पा' भावितात्मा 'माई' मायी मायी सकपायः 'मिच्छदिट्ठी' मिथ्यादृष्टिः तत्वश्रद्धानविकलः तथाचात्र गृहवास मात्रपरित्यागात् तस्यानगारत्वं, स्वसिद्धान्तानुसारिपशमादिभिश्च भावितात्मत्वं बोध्यम्, सकपायस्य सम्यग्दृप्टेः परिहाराय 'मिथ्यादृष्टि' रित्युक्तम्, एतादृशः सः 'वीरियलद्धीए' वीर्यलब्ध्या करणभूतया 'वेउन्वियलद्धीए' वैक्रियलव्ध्या, 'विभंगणाणलद्धीए, विभङ्गज्ञानलन्ध्या च 'वाराणसी नगरी' वाराणसी नगरी नगरी है, यह राजगृह नगर है, तथा इन दोनों के बीचमें आया हुआ यह एक विशाल जनपद वर्ग है। यह मेरी वीर्यलब्धि नहीं है वैक्रियलब्धि नहीं है तथा विभंगज्ञानलब्धि नहीं है। न मैंने ऋद्धि, द्युति, यश, बल वीर्य एवं पुरुपकार पराक्रम; लब्ध किया है' पाप्त किया है, और न अभिसमन्वागत किया है । इस तरह से उसके दर्शन में विपर्यास भाव होता है इस कारण वह यावत् देखता है ॥
टीकार्थ-विकुर्वणा का अधिकार होने से गौतम इसी विषयमें प्रभुसे पूछते हैं कि-'अणगारे णं भंते !' इत्यादि 'अणगारे णं भंते!' हे भदन्त ! जो अनगार 'भावियप्पा' भावितात्मा होकर 'माई मिच्छदिट्ठी' माची-कपायसहित है और मिथ्यादृष्टि है-अतत्त्वश्रद्धानी है वह 'बीरियलद्धीए' वीर्यवन्धिद्वारा 'वेउप्वियलवीएं' वैक्रियलन्धिद्वारा, 'विभंगणाणलद्धीए' तथा विभंगज्ञानलब्धिद्वारा यदि 'वाणारसी समो. નગરી છે, આ રાજગૃહ નગર છે, અને તે બનેની વચ્ચે આવેલા આ એક વિશાળ જનપદસમૂહ છે. આ મારી વીર્ય લબ્ધિ નથી, વૈક્રિયલબ્ધિ નથી, વિભાગજ્ઞાન લબ્ધિ नथी. में द्धि, धुति, यश, मण, वीर्य भने पुरु५४२ प२४भ प्राप्त या नथी, ઉપાર્જિત કર્યા નથી અને અભિસમન્વાગત કર્યા નથી. આ રીતે તેના દર્શનમાં દિખવામાં] વિપર્યાસ ભાવ આવી જાય છે. તે કારણે તે તેને અન્યથાભાવે [અયથાર્થરૂપે] જાણે અને દેખે છે. એ સૂ૦ ૧
ટીકાઈ—વિકવણને અધિકાર આવી રહ્યો છે. તેથી ગૌતમ સ્વામી મહાવીર प्रभुने मे विषयमा पूछे छे । 'अणगारेणं भंते ! भावियप्पा माई मिच्छदिट्टी' है महन्त ! भायी [पाययुत] भिथ्याइष्टि, मावितात्मा मसार 'वीरियलद्धीए' वीय धारा, 'वेउब्धियलद्धीए' वैश्यिसघिद्वारा 'विभंगणाणलद्धीए' तथा विज्ञान 'वाणारसी समोहए' पारसी नगरानी विवा ४२ तो
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