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प्रमेयचन्द्रिका टीका श.३३.६५. २ अमायिनोऽनगारस्य विकुर्वणानिरूपणम् ७४५ खलु अमायिनोऽनगारस्य एवम् अविपरीतज्ञानं भवति यत्-‘एवं खलु अह' 'रायगिह नयरं समोहए' राजगृह नगरं समवहतः 'समोहणित्ता' समवहत्य च 'वाणारसीए नयरीए' वाराणस्या नगा स्थितः 'ख्वाई' राजगृह गतानि चैक्रियरूपाणि 'जाणामि, पासामि' जानामि, पश्यामि, इत्येवम् ‘से से दंसणे' तत्त तस्य अमायिनोऽनगारस्य दर्शने 'अविवच्चासे' अविपर्यासो भवति, उपसंहरति'से तेणटेणं' तत्तेनार्थेन 'गायमा !' हे गौतम ! 'एवं बुचई' एवम् उक्तरीत्या उच्यते, 'बीओ आलायगो एवंचेव' द्वितीयः आलापकः, एवमेव, उप'तस्स णं एवं भवइ-एवं खलु अहं रायगिहे नयरे समोहए' उस भावितात्मा अमायी सम्यग्दृष्टि अनगार के मन में ऐसा अविपरीत विचार रहता है कि मैंने राजगृहनगरकी विकुर्वणा को है और 'ममो. हणित्ता' विकुर्वणा करके चाणारसीए नयरीए' वाणारसो नगरीमें 'ख्वाई जाणामि पासामि' राजगृहनगरके विकुर्वित मनुष्यादि रूपों को मैं जान देख रहा हैं। 'से इस कारण से उसके 'दसणे' दर्शन-देखने में 'अविचच्चासे भवई' अविपर्यासपना अविपरीतपना होता है। 'से तेणटेणं' इस कारण 'गोयमा' हे गौतम ! 'एवं बुचड़ मैंने ऐसा कहा है कि वह तथाभावसे जानता देखता हैं, अन्यथाभाव से जानता देखता नहीं है।
'पीओ आलावगो एवं चेव' द्वितीय आलापक भी इसी तरह से जानना चाहिये अर्थात् जैसा ऊपरमें प्रथम आलापक के विपयमें यह कथन किया गया है-इमी प्रकारका कथन द्वितीय आलापकके विषय में समझलेना चाहिये 'नवरं' परन्तु प्रथम आलापक
उत्तर-'गोयमा ! गौतम ! ' तुस्सणं एवं भवड तन मनमा मेरो मविपरीत विचार मचाय छ' एवं खलु अहं रायगिहे नयरे समोहए' मैं रा नानी विवाश छ, भने 'समोहणित्ता, विभु शन 'वाणारसीए नयरीए' पारसी नाभा नहi हवाई जाणामि पासामि' हु २२०४२ नाना मनुष्या १६५३पाने onel मा २ छु. 'से' ते १२ 'से दंसणे तेना शनमा 'अविवचासे भव:' भविपरीत हाय है-विपर्यासमा डतो नथी. 'से तेगट्टेणं गोयमा ! एवं वृञ्चड हे गौतम ! ते री में से કહ્યું છે કે તે અણગાર તે રૂપને યર્થાથરૂપે જાણે દેખે છે, અયથાર્થભાવે જાણતો हेमतो नयी. 'वीओ आलावगो एवं चेव मासे माला५४ पात्र में प्रभार સમજ એટલે કે પહેલા આલાપકના વિષયમાં જે કથન ઉપર કરાયું છે, એવું જ કથન