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प्रमेयचन्द्रिका टीका श.३उ.६.२ अमायिनोऽनगारस्य विकुर्वणानिरूपणम् ७६१ सन्निवेशरूपं वा, 'विउव्चित्तए' विकुर्वितुम् 'पभू' प्रभुः समर्थः किम् ? यावत्पदेन निगमरूपमारभ्य आश्रमरूपपर्यन्तं संग्राह्यम् । भगवानाह–णो इणद्वे सम' नायमर्थः समर्थः, नैवं भवितुमर्हति, बाह्यपुद्गलपरिग्रहणमन्तरा विकुणा नैव सम्भवति, ‘एवं वितिओ वि आलावगो' एवम् उक्तरीत्या द्वितीयोऽपि आलापको विज्ञातव्यः, ‘णवरं' नवरम्-विशेपस्तु पुनरयम्-यत् 'बाहिरए पोग्गले' बाह्यान् पुदगलान् 'परियाइत्ता' पर्यादाय परिगृह्य 'पभू' प्रभुः समर्थः किल विकुर्वितम् । गौतमः पृच्छति-'अणगारे णं भंते !' हे रूव वा विउवित्तए पभू' एक विशाल ग्राम के रूपकी, अथवा नगर के रूपकी यावत् संनिवेश के रूपकी विकुर्वणा करनेके लिये समर्थ है क्या? यहां यावत् पदसे 'निगमरूप से लेकर आश्रमरूपतकका पाठ ग्रहण किया गया है । भगवान् इसका उत्तर देते हुए कहते हैं कि 'णा इण सम' हे गौतम! यह अर्थ समर्थ नहीं है अर्थात् बाह्यपुद्गलोंकों ग्रहण किये विना विकुर्वणा का होना संभवित नहीं होता है । 'एवं बितीओ वि आलावगो' इसी प्रकार से दूसरा आलोपका भी जानना चाहिये । 'नवर' परन्तु इस द्वितीय आलापक सत्र में 'बाहिरए पोग्गले परियाइत्ता पभू' ऐसा पाठ समझना चाहिये अर्थात वह भावितात्मा अमायी सम्यदृष्टि अनगार याद्यपुद्गलोंको ग्रहण करके ग्राम आदिकों के रूपकी विकुर्वणा करनेके लिये समर्थ है। गौतम इस पर पूछते हैं कि हे भदन्त ! यदि वह, अनगार बाह्यपुद्गलोको ग्रहण करके गामादिकोंके रूपोंकी विकुर्वणा करने में ગામના રૂપની અથવા નગરના રૂપની અથવા સંનિવેશ પર્યન્તના રૂપની વિકણા ४२वाने शु समय छ ? मही 'जाव' (यावत) ५४थी 'निगम' थी सधन 'आश्रम' પર્યન્તના રૂપે ગ્રહણ કરાયાં છે.
उत्तर-'णो इणढे समझे' के गौतम बुं मनी तु नथी. माघ yखाने अड या विना विभु! शती नथी. 'एवं वितीओ वि आलावगों' भात मासा५४ ५५१ मे प्रमाणे समन्या. 'नवरं' पडसा माता५४मा मा पुरता ને ગ્રહણ કર્યા વિના વિકર્ષણ કરવા વિષે પ્રશ્ન કર્યો છે, તેને બદલે બીજા આલાપકમાં 'वाहिरए पोग्गले परियाइत्ता पभू' मेम सभावानु छ तेममाया सभ्यदृष्टि અણુગાર બાહ્ય પુતલેને ગ્રહણ કરીને ગ્રામાદિ રૂપની વિમુર્વણ કરવાને સમર્થ છે.
પ્રમ–જે તે અણગાર બાદા પુદ્ગલેને ગ્રહણ કરીને ગ્રામાદિ રૂપની વિકર્ષણ 30 श छे, ते 'अणगारेणं भंते ! भावियप्पा केवइयाई गामरूवाई विकुन्धि