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यमवती गौतमः पुनः पृच्छति-'से भंते ! कि माई विकृया है भदन्त ! कि स भावितात्मा अनगार: मायी सकायी विकृति ! तत्र अभियोगस्यापि विक्रियारूपतया अभियोगी विकुर्वणा इति स्वीकर्तव्यम् । 'अमाई चा विकुम्बा अमायीवा अपायोऽपि विकुर्वति अश्यादिरूपानुमवेशेन व्याभियते । भगवानाह-'गायमा ' हे गौतम ! 'माई विकुन्चइ' मायी विकुति आभियोगिक क्रियां करोति 'नो अमाई विकृन्यइ नो अमायी विकुर्वति, अर्थात् मायिन एवं हस्ती है, तो इसका उत्तर यह अनगार हस्ती नहीं है इत्यादि रीति से प्रत्येक प्रश्न और उनका उत्तर अपने आप समझ लेना चाहिये।
गौतम प्रभु से पुनः पूछते हैं कि-'से भंते। किमाई विकुबई' हे भदन्त ! आप हमें यह तो समझाइये कि वह भावितात्मा अनगार मायी-कपायसहित होकर विकुणा करता है ! यहां कोई ऐसी आशंका कर सकता है कि प्रकरण तो यहां पर अभियोग का चल रहा है न कि विकुर्वणा का-फिर सूत्रकारने यहां पर 'कि माइ वि. कुच्चई' ऐसा पाठ क्यों रखा 'अभिजुजह ऐसा पाठ रखना था-सो इसका उत्तर यह है कि अभियोग भी विक्रियारूप ही है, इसलिये विकुर्वणा से यहां अभियोग क्रिया का ही ग्रहण किया गया हैं ऐसा जानना चाहिये। भगवान इसका उत्तर देते हुए कहते हैं कि 'मायी विकुम्वइ नो अमायी विकुच्चई मायी-कपाय सहित आत्मा ही कपाय युक्त भावितात्मा अनगार ही-विकुर्वणा करता है अमायी कषायंપદથી હાથીપ, સિહરૂપ, વાઘરૂપ, દીપડારૂપ, રછ૩૫, અને તરછ૩૫ ગ્રહણ કરાયાં છે. તે દરેક રૂપવિષયક પ્રશ્નોત્તરે ઉપર મુજબ સમજવા
प्रश्न-'से भंते ! कि माई विकुबइ अमाई विकुब्बइ.13 RErd ! आदि તાત્મા મથી (પ્રમ-કાવ્યયુકત) અણગાર વિદુર્વણુ કરે છે, કે અમારો (અપ્રમ) અણગાર વિદુર્વણું કરે છે ? કદાચ કે એવી શંકા કરે કે અત્યારે અભાગનું अ यामी २ -
विपर्नु मा ४२१ नथी छत सूत्रधारे 'अभिजंज' महले 'चिकच्चंड पहने प्रयास भइया छ ? तो त र्नु समाधान नीय પ્રમાણે કરી શકાયઅભિગ પણ વૈક્રિયારૂપ જ હર્ય છે, તેથી વિફર્વ પદ દ્વારા महा ममियर ड रायस छे.' ' - २-'माई विकुव्वद नो अमाई विकुबइ' भाया-पाय धुत लाभ rea કે માયી ભાવિતામાં અણુગાર જ વિણ કરે છે, અમાયીન્કષાય રહિત ભાવિતાત્મા