________________
७०८
anadia
गौतमः पुनः पृच्छति - 'से मंते । किं माई विकुवर १' हे भदन्त । किं स भावितात्मा अनगारः मायी पायी विकुर्वति । तत्र अभियोगस्यापि विक्रियारूपतया अभियोगो विकुर्वणा इति स्वोकर्तव्यम् । 'अमाई वा त्रिकुत्रा' अमापोवा अरुपायोsपि विकुर्वति अश्वादिरूपानुप्रवेशेन व्यामियते । भगवानाह - 'गोपमा !' हे गौतम | 'माई fayees' मायी विकुर्वति आभियोगिकक्रियां करोति 'नो अमाई विकुव्त्र' नो अमायी विकुर्वति, अर्थात् मायिन एव हस्ती है, तो इसका उत्तर वह अनगार हस्ती नहीं है इत्यादि रीति से प्रत्येक प्रश्न और उनका उत्तर अपने आप समझ लेना चाहिये।
गोतम प्रभु से पुन: पूछते हैं कि-' से भंते । किं माई विकुव्व' हे भदन्त ! आप हमें यह तो समझाइये कि वह भावितात्मा अनगार मायी-कपायसहित होकर विकुर्वणा करता है। यहां कोई ऐसी आशंका कर सकता है कि प्रकरण तो यहां पर अभियोग का चल रहा है न कि विकुर्वणा का फिर सूत्रकारने यहां पर 'किं माइ विकुच्वह' ऐसा पाठ क्यों रखा 'अभिजुंजद्द' ऐसा पाठ रखनां धा-सो इसका उत्तर यह है कि अभियोग भी विक्रियारूप ही है, इसलिये विकुर्वणा से यहां अभियोग क्रिया का ही ग्रहण किया गया है ऐसा जानना चाहिये। भगवान इसका उत्तर देते हुए कहते हैं कि 'मायी विकुव्वs नो अमायी विकुब्वाइ' मायी-कपाय सहित आत्मा ही कपाय युक्त भावितात्मा अनगार ही विकुर्वणा करता है अमायी कषायપદથી હાથીરૂપ, સિંહરૂપ, વાધરૂપ, દીપડારૂપ, રીછરૂપ, અને તછરૂપ ગ્રહણ કરાયાં છે. તે દરેક રૂપવિષયક પ્રશ્નાત્તરા ઉપર મુજખ સમજવા.
प्रश्न-' से भंते 1 कि माई विकुन्त्र अमाई विकुन्नर - 1' डे भदन्त ! आवितात्मा भायी (प्रमत्त-उपाययुक्त) मधुगार विधुर्वा रे छे, हे संभायी (अप्रमत्त) आयुशार विदुर्वा ४२ ? हाथ अ सेवी शं. ४रे है. अत्यारे "अलायोग’नु अमर थाली रधुं हे विभुवानुं मा अशशु नथी छतां सूत्ररे 'अभिजुंजइ' -ने महसे 'चिकुबड़' पहनो प्रयोग भयो छे ? तो ते शहानु सभाधान नीचे પ્રમાણે ‘કરી શકાય-અભિયાગ પણ વૈક્રિયારૂપ જ હોય છે, તેથી વધુવા પઢ દ્વારા અહીં અભિયાગ’ જે શ્રેણ કરાયેલ છે.’
3.
G२ -- 'माई विकुव्वं नो अमाई विकु बड़' भायी-पाय युक्त आत्मा मेट કે માયી ભાવિતાત્મા અણુગાર જ વિકુવા કરે છે, અમાચી-પાય રહિંત ભાવિતામા