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भगवतीय 'सरके देविदे देवराया' शको देवेन्द्रः, देवराजः 'वन पडिसारित्ता' वज्र मति सदस्य 'ममं मम 'तिपयुत्तो' निकत्वः वारत्रयम् 'आयारिणपयाडिणं फरेइ' आदक्षिणमदक्षिणं दक्षिणावर्तमदक्षिणं करोति 'वंदर, नमसइ,' वन्दते नमस्यति, पन्दित्या नमस्थित्या च एवम् वस्यमाणमकारेण 'वयासी अबादी ‘एवं खल भंते एवं खलु भदन्त । अहं 'तुम नीसाए' त्वां निश्रया आश्रित्य तवाश्रयेण 'चमरेणं अरिदेणं' · चमरेण अनुरेन्द्रेण 'अमुररष्णा' अमुर. राजेन 'सयमेव' स्वयमेव 'अचासाइए' अत्याशातितः अपमानितः 'तएणं ततः अपमानोनन्तरम् खल 'मए' मया परिकुत्रिएणं समाणेणं' परिकुपितेन अत्यन्त कोपाविप्टेन सता 'चमरस्स' चमरस्य 'अमरिंदस्स' अमरेन्द्रस्य 'भमुररणो' कंपित हो गये तात्पर्य यह है कि बज्रको पकड़ते समय जब उसने --पकड़कर पड़े जोर से मुहि बंद की तो अंगुलियों के आपस में एकदम वेग से मिल जाने के कारण उसने वायुका संचार हुआ-सो उससे मेरे केशाग्र कंपित हो उठे 'तए णं' चजको पकड लेने के बाद से सक्के देविदे देवराया' उस शक देवेन्द्र देवराजने 'वज्ज पडिसाहरिता' वज्र को संकुचित करके प्रतिसंहरण करके 'ममं मेरी 'तिरखुत्तो' तीन पार 'आयाहिणपयाहिणं फरेई' आदक्षिण प्रदक्षिण पूर्वक 'वंदा नमंसई चंदना की नमस्कार किया । वन्दना नमस्कार करके फिर 'एवं वयासी' उसने इस प्रकार कहा 'एवं खलु भंते ! अहं तुभं नीसाए' हे भदन्त ! मैं आपकी निश्रा लेकर 'सयमेव असुरिदेणं असुररण्णा चमरेणं' स्वयं ही असुरेन्द्र असुरराज चमर के द्वारा 'अचासाइए' अपमानित किया गया हूं।'तए णं मए कुविएणं समाणेणं' अतःमुझे अत्यंत क्रोध आ गया और इस कारण मैंने 'असु. આંગળા અતિ વેગથી સંમિલિત થવાથી તેમાંથી છૂટેલા વાયુથી મહાવીર પ્રભુના
शायी थी 41. 'तएणं परने ५४ी दीधा पछी, 'से सक्के देविदे देवराया' तेवेन्द्र १२०१ 'वनं पडिसाहरिता' १००d प्रतिY ४शन 'मम' भारी "तिक्खुत्तो' र वार 'आयाहिणपयाहिणं करेइ' माक्षिए प्रक्षिा पूर्व 'वंदइ नमसइ' ! ४२१, नमा२ . are नभ७४२४शन तो भने एवं वयासी' मा प्रमाणे :-.
खल भंते महन्त ! 'अहं तुभं नीसाए सयमेव असरिंदेणं असररणा चमरेणं' मापना माश्रय राधा छ वा असुरेन्द्र ससु२२१४ यभर पास अचासाइए' भाई अपमान २ छ, 'तएणं मए कुविएणं समाणे'