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चंचाए रायहाणीए' चमरचश्चायाः राजधान्याः 'सभाए सुम्मा' समायाः सुधर्माया: 'चमरंसि सीहासणंसि' चमरे सिंहासने स्थितः 'ओहयमणसंकष्ये' अपहतमनः संकल्पः, अपहतः विनष्टो मनः संकल्पः पूर्वोक्तशकस्याज्ञातनाforest यस्य सः अतएव 'चितासोयसागरसंपविद्वे' चिन्ताशोकसागरसंपविष्टः मानसिक शोकसन्तापार्णवनिमग्नः 'करयलपवत्यमुद्दे ' करतलपर्यस्तमुखः करतले पर्यस्तं विन्यस्तं मुखं येन सः हस्ततलस्थापितनिजरू: 'अट्टज्झागोवगर' आर्तध्यानोपगतः भूमिगयाए ' भूमिगत्या पृथिव्यभिमुखपातितया 'ए' या अधः पश्यन 'झिपाई' ध्यायति- भार्तध्यानं करोति 'तए णं ततः खलु 'तं चमरं अनुरिदं असुरराये' चमरम् असुरेन्द्रम् अमरराजम् 'सामाणि वज्रके भयसे निर्मुक्त होने पर भी 'चमरचचाए रायहाणीए' चमरचंचा नामक अपनी राजधानी की 'सुहम्माए सभाए' सुधर्मा सभाके 'चमरंसि सोहाससि । चमर नामके सिंहासन पर बैठा तो उस समय उसके चेहरे पर प्रसन्नता की झलक भी नहीं थी 'ओहय मणसंकपे' शककी आशातना करनेका जो उसने पहिले संकल्प कि. या था वह पूरा नहीं हो सकने के कारण वह 'चिंतासोयसागरसंपfar' चिन्ता और शोक रूपी सागर में मग्न था मानसिक शोकरूप समुद्र में निमग्न बना हुआ था। उसने ' करयल पल्हत्थमुहे ' अपने मुख को करतल हथेली पर स्थापित कर रखा था- 'अट्टज्झागोवगए' और आर्त्तध्यान में पड़ा हुआ था । इसकी 'भूमिगयाए दिट्ठीए झियाह' दृष्टि भूमि की ओर लगी हुई थी- अर्थात् यह नीचे मुख किये हुए बैठा था और विचारमग्न बना था कि इतने में 'असुरिदं असुररा चमरं' उस असुरेन्द्र असुरराज चमर को 'ओह'arriere runणीए हत्याहि यमस्य या नामनी तेती राजधानी नी सुधर्भा સભામાં ચમર નામના સિંહાસન પર બેઠા ત્યારે પણ તેના ચહેરા પર પ્રસન્નતા દેખાતી न हती. 'ओहयमणसंकप्पे ' शहने अपमानित श्वानी तेनी अलिसाषा सक्ष्ण नहीं थवाथी ते 'चिंतासोय सागरसंपविट्टे' चिन्ता भने थे। इसी सागरभां डूमे ते भानसिष्ठ शोभां शराव थयो हतो. 'करयलपल्हत्थमुहे' तेन भुमी र व्यु तु' भने 'अट्टज्झाणो गए' ते यात ध्यानमा तीन तो भूमिमयांए दिट्टीए झियाइ' तेनी नगर कभीन तर थोटेली डी. मेटले मोदु नीथु ढाजाने इतो अपने विचारभां भग्न हतो. ' असुरिदं असुररायं चमरं ' सुरेन्द्र असुरशन भने, 'हयण संकष्पं जाव झियायमाण: ३५२ हशांच्या प्रमाणे मानसिद्ध
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