________________
५५८
भगवतीचे
?
वैयधिकरण्येन प्रतिपाद्यते 'आरंगे वह' इत्यादि । तत्र आरम्मे उपद्रवात्मकफियाव्यापारे वर्तसे ततः 'सार' मे छ' संरम्भे माण्युपमर्दनसंकल्पे वर्तते भवर्तते ततः समारंभ व समारम्भे तेषां पीटने वर्तते इत्यर्थः इति द्विanantaम् । अथ उपर्युक्तमेव महावाक्यद्वयं क्रमशोऽनुवदति- आरंभमाणे इत्यदि । तत्र मयममहा वाक्यानुवादमाद- 'आरंभमाणे' इत्यादि । आरममाणः तेपाम् उपद्रवं कर्तु चेष्टमानः : सारंभमाणे संरममाणः हन्तुं संकल्पं कुर्वाणः 'समारंभमाणे' समारभमाणः समारम्भं कुर्वाणः तान् हिंसान् तिष्ठति, द्वितीय महावाक्यानुवादमाह - 'आरंभ माणे' इत्यादि । आरम्भे वर्तमानः 'सारं
1
माणे' संरम्भे वर्तमानः वर्तमानः 'समारंभे वमाणे' समारम्भे इनने . तब इनमें समानाधिकरणता रहती नहीं है, भिन्नाधिकरणता आजाती है - इसलिये अब सूत्रकार भिन्नाधिकरणता को लेकर 'आरंभ वह' इत्यादिरूपसे प्रतिपादन करते हैं कि एजनादि क्रिया विशिष्ट जीव आरंभ में प्राणी आदि के उपद्रवात्मक क्रिया व्यापार में - प्रवर्तित होता है, बाद में 'सार' भे वह' प्राण्युपमर्दनरूप संकल्प में प्रवृत्ति करता है, इसके बाद वह 'समारभे वह' उन्हें पीडा पहुंचाने लगता है । इस प्रकार यह द्वितीय वाक्य है । इन्हीं दो महावाक्यों का अनुवाद करने के निमित्त प्रथम महावाक्य का अनुवाद करते हुए प्रभु कहते हैं कि इस प्रकार 'आरंभमाणे' एजनादिक्रियाविशिष्ट बना हुआ जीव जीवों प्रति उपद्रव करने के लिये चेष्टा करता हुआ, 'सार' भमाणे' उन्हें मारने के लिये संकल्प युक्त होता हुआ, 'समारमेमाणे' उनकी हिंसा में प्रवृत्तियुक्त होता हुआ तथा द्वितीयवाक्य के अनुसार- 'आरंभे वट्टमाणे' आरंभ में वर्तमान हुआ, 'सारभे वह
તેમનામાં સમાધિકરણતા રહેતી નથીપણુ ભિન્નાધિકરણુતા જ આવો જાય છે. તેથી सूत्रार भिन्नाधिश्णुतानी अपेक्षा 'आरंभे वह ' धत्याहि यही द्वारा प्रतियाहन रे છે—અજનાદિક ક્રિયાયુક્ત જીવ આરમમાં પ્રવૃત્ત રહે છે, (પ્રાણી આદિને ઉપદ્રવ થાય शेवी प्रवृत्ति ४२तो रहे छे, 'सारंभे वह' सरलभां प्रवृत्त रडे छे. (प्राणीमाना उपभर्हनश्च स ंस्थमां प्रवृत्त र छे' समारंभे वह सभारंभां प्रवृत्त रहे छे, (तेने पीडा чtient 3). 241 flà “animaro” zur'u. szed, ''minmo ' a'r'a seût भने 'समारंभे माणे' समारंभ उरतो तथा 'आरंभे वट्टमाणे ' आरंभ प्रवृत्त रहेतेा, 'सारंभे वट्टमाणे' सरलमां प्रवृत्त रडेतो, अने ' समारभे बट्टमाणे ' सभारंभभा