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मगरतीसरे 'मंते ! शि' मदन्त ! प्रमारांपतस्य पालु ममत्तस्प मोनीयादि कमोदक भगादसम्मानम्ग सतः संगताप अनगारस्य 'पमतगंममे माणस' लि, ममसंगमे पर्तमानस्य न भन्मम्मिन् संगमे इत्यर्थः 'समा वि य' सर्वा अपि च खलु सरकाल सम्मवाऽपि य ‘पमतदा' प्रमत्तादा प्रमत्तस्य अदा प्रमलादा प्रमशगुणस्तानफसामः फालगो' कालतः ममतादा काम समा लक्षणं फालमपेक्ष्य 'फेचिरं होई' किंगगिरं भवति, फिगन्तं कालं यावद् भवति? ममनसंपमं पालयतः ममासंयमिनः सः संमिल्य फियत् ममत्तसंयमकालो भवति इति प्रश्नः । भगगनाह-'मंठियपुत्ता इत्यादि । हे मण्डितपुत्र ! 'पगजीनं पगुच्च' पफनी प्रतीत्य आश्रित्य 'जहण्णेणं' नयन्येन 'पकं समय प्ररूपित करते है-मंडितपुत्र प्रभुसे प्रश्न करते हुए पूजते हैं कि 'भंते' हे भदन्त । 'पमत्तसंजयस्स' प्रमत्तसंयत के कि जो मोहनीय आदि कर्मों के वशवर्ती पना हुआ है और इस कारण से जो 'पमत्तसंजमे वहमाणस्स' प्रमत्तसंयम में वर्तमान है उसके वह प्रमत्तदशा कयतक रहती है यही यात 'सब्वा विय णं पमत्तद्धा कालओ केवचिरं होई' इस सूत्र पाठ द्वारा पूछी गई है अर्थात् छठे गुणस्थान में रहनेवाले प्रमत्तसंयमी का छठे गुणस्थानका जो समस्त काल है. उसमें से वह काल कालकी अपेक्षा कितना है ? अर्थात प्रमत्त संयतजीव कितने ममय तक प्रमत्त संयत्त रहता है.? तो इसका उत्तर देते हुए प्रभु मंडितपुत्र से कहते हैं कि 'मंडियपुत्ता.हे. मंडितपुत्र एगंजीवं पंडच एक जीवको अपेक्षा से जो इस घातका विचार किया जावे. तो वह .काल जघन्यरूप में एक समयं', अपेक्षा सा सूत्रमा प्र३५ श छ-भातपुत्र पूछ.छे-भते। मन्त!
प्रमत्तसंजयस्स.' मानीय, माहि-नाः यथा Gपये -प्रभाहन - अधीन मनाप्रमत्तसंजमे वट्टमाणस्म भुत्त ,संयममा पतता, :प्रमत्त संयतनी ते 'प्रभत्ता या सुधी या २९ छ, मेवात सूत्रधारे-नायना सूत्रा द्वारा
तापीछे-सव्वा,चि यणं पत्तद्धा कालओ केवचिरं होड १. पार्नु.तात्पर्य એ છે કે પ્રમત્તસંવત જીવ કેટલા સમય સુધી પ્રમત્ત રહે છે. અથવા. આ પ્રમાણે પણ સમજાવી શકાય છઠ્ઠા ગુણસ્થાનમાં રહેલા પ્રમતસંયમીને એ ગુણસ્થાનમાં કહેવાને જે સમસ્ત કાળ છે, તે કાળમાંથી મમરદશામાં રહેવાને કાળ કેટલા છે? तना.inमहावीर प्रसुतीय प्रभाव माछ--'मंडियपत्ता मतपत्र! एगं जीवं पडुच्च' मे नी अपेक्षा ते पिया२ ४२वामा आवेत.asia