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विस्रसारूपोवोध्यः । यावत्करणात् पुरुषरूपं या हस्तिरूपं वा, यानरूपं वा, युग्य - गिल्लि थिल्लि शिविका' इवि संग्रादाम् । मंगवानाह हंता, पभू' हट, गौतम । ततदाकारेण विसाभावेन परिणति माप्य अनेकयोजनानि गन्तुम् । 'हंता पभू' दे गौतम । ममुः समर्थः पुनगौतमः पृच्छति पभ्रूणं भंते । प्रभुः समर्थः मेघः 'एगं महं' एक महत् 'इत्यवं' स्रीरूपं 'परिणामेता' परिणमध्य पारिणामिक निर्माय 'अणेगा' अनेकानि 'जोअणाई' योजनानि 'गमित्त ' परिणमन होता है वह उसमें स्वाभाविक होता है। वहां 'यावत्' पदसे 'पुरुषरूपं था, हस्तिरूपं या, ग्रानरूपं वा, युग्य, गिल्लि, थिल्लि, शिविका' इन पूर्वोक्त पदका संग्रह किया गया है । गौतमके इस प्रश्नका उत्तर देते हुए प्रभु कहते हैं कि- 'हंता पभू' हे गौतम ! मेघ स्वाभाविक रीतिसे उनर आकारोंके रूपमें परिणत हो सकता है। पुनः गौतम प्रभु से प्रश्न करते हैं कि ' भंते णं बलाहए एगं महं इत्थवं परिणामेता अणेगाई जोगणाई गमित्त पभू' हे भदन्त ! मेघ एक विशाल स्त्रीके रूप में परिणत होकर अनेक योजनों तक जानेके लिये समर्थ है क्या ? यह प्रश्न इसलिये किया गया है कि मेघमें भिन्न प्रकार के आकार जो दिखलाई देते हैं वे देखते २ ही नष्ट हो जाते हैं - अतः ऐसी स्थिति में वह उसका आकार अनेक ४२वाने महले 'परिणमित्तए' पहनो प्रयोग यो छे. भधमां ने मे पशिशुभन थाय થાય છે તે તેમાં સ્વાભાવિક રીતે જ થાય છે.
ઉપરના પ્રશ્નનમાં જે ધ્યાવત' પદને પ્રયાગ થયેા છે તેનાદ્વારા નીચેને સૂત્રપાઠ श्रद्धषु ४राये। धे-'पुरुपरूपं वय, हस्तिरूपं या, यानरूपं वा युग्य, गिल्लि, थिल्लि, शिविका' अनन! लावार्थ नीचे प्रमाणे छे-शु, भेद्यं भे४ विशाल स्त्री ३थे, परित थवाने समर्थ छे ! शुं भेघ मे विशाल पुरुष, हाथीइये, आडाइये, युग्म३ये, जिहि રૂપે, થિલિરૂપે, પાલખીરૂપે અને સ્વત્વમાનિકા (ખાદ્ઘત્શેિષ)રૂપે પરણત થવાને સમર્થ ૐ યાન, યુગ્ય વગેરે પદ્માના અથ પહેલાં આવી ગયા છે
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उत्तर- 'हंता पभु' से गौतम ! भेध स्वाभाविक रीते ते. ते भाभथे ३ये પરિણમી શકે છે.
प्रश्न- भंते ! णं बलाहए एवं मंई इथिरूवं परिणामेत्ता अणेगाई जोयणाई भित्तए पसू' के महन्त ! भे! मे महा स्त्रीभारे परिलाभीने अने 'યાજન પર્યંન્ત દૂર જવાને શુ સમ છે? આ પ્રશ્ન કરવાનું કારણ એ છે કે મેઘમાં ब्लुद्दा हा आहार हेथ्यांय छे 'ते' लेते लेताभां लय हे तो भु
नष्ट
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