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भगतीस
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पुत्रो'णा' नाम 'अणगारे ' अनगारः 'पगइमदए' प्रकृतिभद्रकः मकत्या स्वभावेनैव भद्रः शोभनः सरलस्वभावः 'जाब- पज्जुवासमाणे' यावत् पर्युपासीनः 'एवं amit' एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण अवादीत् एामर्थः पूर्वे कथितः यावत् करणाव पगाजवते पगह पयणुकादमाणमायालोदे, मिउमदवसंपन्ने आलीणे, भदए, विणीए मकृत्युपशान्तः मकृतिमतनुकोधमानमायालोमः मृदुमा सम्पन्नः, आलीनः, भद्रकः, विनीत्तः, इतिसंप्राद्यम् ' तत्र- प्रकृत्युपशान्तः - मकृत्यैव उपशान्ता फारः, प्रकृतिमतनुक्रोधमानमायालोभः प्रकृत्यैव स्वभावे नैव मतनुक्रोधमानमायलोमसम्पन्नः, मृदुमार्दवसंपन्नः मृदु च तन्मादयश्च मृदु 'मंडियपुते नामं अणगारे' मंडितपुत्र नामक अनगार ने 'एवं वयासी' प्रभु से इस प्रकार पूछा, यहां 'जाव अंतेवासी' के साथ जो यावत् पद आया है-उससे श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य पष्टः गणधरः " इस पाठका संग्रह किया गया है । तात्पर्य यह है कि ये मंडितपुत्र श्रमण भगवान महावीर के छठे गणधर थे। और ये 'पगहभद्दए' प्रकृति से ही - स्वभावतः ही सरल स्वभाव के थे । 'जाव पज्जुवासमाणे' पदसे यह प्रकट किया गया है कि प्रभु से जो इन्होंने क्रिया विषयक प्रश्न किया है, वह प्रभुकी पर्युपासना करते हुए ही किया है । 'जाव पज्जुवासमाणे' के साथ जो यावत्पद आया है-उससे 'पगइ उचसंते, पगइपयणुको हमाणमायालोहे, मिउमद्दवसंपन्ने, आलीणे, भदए, विणीए,' इसपाठ का संग्रह किया गया है । इन पदोंका अर्थ पहिले लिखा जा चुका है । इससे यहां ऐसा जानना चाहिये कि इनका आकार स्वभाव से ही शान्त था स्वभाव से ही ये क्रोध, मान, माया और लोभकी मंदता से युक्त थे । अत्यन्त सरल थे । 'जाव अंतेवासी' पहनी साथै ? 'जाव' यह आव्यु छे तेना द्वारा नायेनेो सूत्र पाठ श्रडुत्यु ४रायो छे. 'श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य पष्ठः गणधरः' भेटले મતિપુત્ર મહાવીર ભગવાનના છઠ્ઠા ગણુધર હતા. તિપુત્ર અણુગારના ગુહ્યા નીચે अभावे इता. 'पगइ भद्दए' तेथे अद्रि (सरण स्वभावना) ता. 'जान पज्जुवासमाणे' भेडी' ? 'जान' ५६, आव्यु छे तेना द्वारा नार्थना सूत्रपाठ ग्रहषु रवाना छे 'पगइ उवसंते, पगइ पर्यणुको हमाणमायालोहे, मिउमद्दवसंपन्ने, आलीणे, भहए, વળી આ પદોના અર્થ આગળ આવી ગયા છે. મંડિતપુત્ર અણુગાર શાન્ત સ્વભાવના હતા, તેમનામાં દેધ, માન અને માયા અતિ અલ્પ પ્રમાણમાં જ હતા, તે अत्यन्त सरण इता, गुरुनी आज्ञाने, अनुसरता डता, तेथे ऋतु अमृतवाणा इता,
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