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प्रमेयचन्द्रिका टीका श. ३ उ. २ सू.७ चमरेन्द्रस्योत्पातक्रियानिरूपणम् ४०७ याद अभ्युत्तिष्ठति, अभ्युत्थाय देवदृष्यं परिदधाति, उपपातसभायाः पौरस्त्येन द्वारेण निर्गच्छति, यौव सभा सुधर्मा यशैव चतुप्पालः प्रहरणकोशः, तत्रैव उपागच्छति, उपागत्य परिघरत्नं परामशति-एकम् अद्वितीयं परिघरत्नमादाय महान्तम् अमर्पम् वहन् चमरचञ्चायाः राजधान्याः मध्यं मध्येन निर्गच्छति, सक्कं देविंदं देवरायं सयमेव अचासाइत्तए) में श्रमण भगवान् महावीरको आसरा लेकर देवेन्द्र देवराज शक्रको अकेला ही परास्त करने के लिये गमन करूं-तो इसी में मेरी भलाई हो सकती हैं। (त्तिकह एवं संपेहेइ) इस प्रकारकी भावना से प्रेरित होकर उसने ऐसा विचार किया । (संहिता) ऐसा विचार करके (सयणिज्जाओ अन्टेड) वह अपनी सेज से उठा, "अभृहत्ता' उठ करके (देवदसं परिहेह) देवदूष्यको उसने पहिरा (उपवायसभाए पुरथिमिल्लेणं दारेणं निग्गच्छई) पहिनकर बह उपपात सभाके पूर्वदार से होकर निकला । वहांसे निकलकर (जेणेव सभा सुहम्मा जेणेव चोप्पाले पहरणकोसे तेणेव उवागच्छद) जहां सुधर्मा सभा थी और जहां चोकोर-चार खंडका हथियारोंको रखे जानेका भंडार-शस्त्रागार था वहां वह गया (उवागच्छित्ता) वहां जाकर (फलिहरयणं परामुसइ) उसने परिघ नामक हथियारको उठाया-(एगे अपीए) उसे उठाकर वह अकेला ही किसी दूसरे साथीके विना (फलिहरयणमायाय) उस परिघ रत्नको लेकर (महया अमरिसंवहमाणे) बहुत ही अधिक क्रोध से भरा हुआ મહાવીરને આશ્રય લઇને, દેવેન્દ્ર દેવરાજ અને હું જાતે જ પરાસ્ત કરવા જઉં, એમાં ४ भाई श्रेय छे. (त्ति कह एवं संपेहेइ) मा प्रश्नी मान्यताथी प्रेशन तर S२ या प्रमाणेन स५ . (संहिता) में प्रारने वियार ४ीने त (सयणिज्जाओ अभूटेइ) पातानी शय्यामाथी यो. (अन्भूद्वेत्ता) हाने (देवदूस परिहेइ) तेणे हेपन्य विपनाने परिधान ४ो. (उववायसभाए पुरथिमि. ल्लेणं दारेणं निग्गच्छइ) त्या ते ५पात समाना पूर्व द्वारेथा नाvli. भन (जेणेव सभा सुहम्मा जेणेव चोप्पाले पहरणकोसे तेणेव उवागच्छइ) ત્યાંથી નીકળીને જ્યાં સુધર્મા સભા હતી, તેની અંદર જ્યાં ચાર ખાવાળું શસ્ત્રાગાર तु, त्यात गया. (उवागच्छित्ता) त्यां धन तेथे (फलिहरयणं परामसइ) पा२ध नामर्नु थियार बी. (गे अत्रीये) त्या२ मा ते 21 (पर साथ ll fail) (फलिहरयणमायाय) ते परीघ २त्नने धन (महया अमरिसं. वहमाणे) ते पेशमा भावी (चमरचंचाए रायहाणीए मज्झं मझेणं