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रमेयचन्द्रिका टीका श. ३. उ.२ सू.७ चमरेन्द्रस्योत्पातक्रियानिरूपणम् ४१५ सम्बन्धः 'त्तिकटु' इति कृत्वा उक्तरीत्या मनसि विचिन्त्य 'एवं' उपर्युक्तरूपेण 'संपेहेई संप्रेक्षते समवधारयति 'संपेहित्ता' संपेक्ष्य समवधार्य 'सयणिजाओ' शयनीयात् देवशय्यातः 'अन्भुढेई' अभ्युत्तिष्ठति, 'अन्भुटेत्था' अभ्युत्याय 'देवदूसं देवदूप्यं वस्त्रं 'परिहेइ' परिदधाति तद्वस्त्रं परिधाय च 'उववायसभाए' उपपातसभायाः 'पुरिथिमिल्लेणं' पौरस्त्येन पूर्वदिग्भागे 'निग्गच्छति नि:सरति, निर्गत्य च 'जेणेन' यत्रैव यस्मिन्नेव प्रदेशे 'मुहम्मा' मुधर्मा सभाऽस्ति 'जेणेव' यत्रैव यस्मिन्नेव स्थाने 'चोप्पाले' चतुप्पालः चतुप्पालनामकाऽस्त्रागारं. अत्याशातना करनेके लिये उसे शोभा से भ्रष्ट करनेके लिये-जाना. 'मे सेयं खलु' मुझे कल्याणकर है-अर्थात में भगवान महावीरका सरणा लेकर जो इन्द्रको उसकी शोभा से भ्रष्ट करनेके लिये जाऊँ तो मुझे यह मौका बहुत ही अच्छा है । क्यों कि बडे पुरुषों के आसरे से किये कार्यमें सफलता प्राप्त अवश्य हो जाती है-ऐसा उस चमरने अपने मनमें विचार किया। 'त्तिकटु एवं संपेहेइ' इस सूत्रपाठ से सूत्रकार यहां यह प्रदर्शित करते है कि उस चमरने जो ऐसा विचार किया-वह इस निमित्तको श्रमण भगवान् महावीरके आश्रय लेने रूप निमित्तको लेकर ही किया । 'संपेहित्ता' ऐसा विचार कर-अच्छी तरहसे इस यातको अवधृत कर-वह 'सय. णिज्जाओ' देवशय्या से 'अन्भुटेइ' उठा और 'अन्भुद्वित्ता' उठकर उसने 'देवदूसं' देवदूष्य-वस्त्रको परिहेइ' पहिराऔर पहिर कर वह 'उववायसभाए' उपपात सभाके 'पुरथिमिल्लेणं' पौरस्त्यं 'दारेणं' दरवाजे से होकर 'निग्गच्छइ' निकला । निकल कर 'जेणेव' जहां-जिसस्थान 'मे सेयं खल' भारी मा छ मेले महावीर भगवानना आश्रय ना शन्द्रने અપમાનિત કરવાને આ સરસ મેકે આજે મને મળ્યો છે. ચમરે મનમાં એ વિચાર કર્યો તેનું કારણ એ હતું કે તે સમજતું હતું કે મહાન પુરુષને આશ્રય देवायी गमे भुश्त प्रयत्नमा पy साता भणे छ. 'त्ति कट्ट एवं संपेहेई' આ પ્રકારના વિચારથી પ્રેરાઈને ભગવાન મહાવીરનો આશ્રય લઈને તે કામ કરવાને ते ४५ ४या. 'संपेहिता' मा रन स४८५ ४शन 'सयणिज्जाओ अन्भुटेई' ते शय्या परथी यो'अभद्वित्ता देवदसं परिहेई' लहान तेरी य (4) परिधान ४. 'परिहेई' हेय धार ४शन. 'उचवायसभाए' यात समाना पुरथिमिल्लेणं दारेणं निगच्छई। पूर्व ना पाथी ते 8R HIxvl. त्यांची नजान