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प्रमेयंचन्द्रिकाटीका श. ३ उ.२ २.७ चमरेन्द्रस्योत्पातक्रियानिरूपणम् ४२५ भयम् आनीतं यया सो तां भयानिकां 'गंमीरं गम्भीराम विकीर्णावयवस्वाद् 'उत्तासणियं' उत्रासनिकाम् , अत्यन्त प्रासनिकाम् स्मरणेनापि उद्वेगोत्पादिकाम् ‘कालरत्तमांसरोसिसकांसं' कालाधरात्र-मापराशिसंकाशाम् तत्र कालरात्रि मध्यरात्रिवत् तथा मापराशिवचात्यन्तकृष्णवणी 'जोयणसयसाहस्सीय' योजनशंतसाहस्रिकाम् लक्षयोजनामाणदीर्याम् 'महायोंदि' महाबोब्दीम् विशालतनुम् 'विउव्वइ' विकुति वैक्रियसमुद्घातेन समुत्पादयति 'विउवित्ता' विकुवित्वा विकुर्वणया उपर्युक्तवैक्रियविशालशरीरं निर्माय 'अफफोडेइ' आस्फो. टयति करास्फोटं करोति - परस्परहस्तद्वयाघातेन विस्फोटध्वनिमुत्पादयति राल होने के कारण भयोत्पादक था-क्यों कि उसकी आकृति भय. जनक थी। 'भासुरं' भास्वर दीप्त था 'भयाणीयं' और भय जिससे जीवोंको प्राप्त हो ऐसा था अर्थात भयानक था 'गंभीर' विकीर्ण अवयवरूप होने से गंभीर था, 'उत्तासणिय' अत्यन्त प्रासजनक था स्मरण करने से भी उससे उद्वेग उत्पन्न होता धा-ऐसा था 'काल. रत्तमासरासिसंकासं' कालरात्रि की मध्यरात्रि के समान तथा माप-उडद-राशि के समान अत्यन्त कृष्णवर्ण वाला था, 'जोयणसयसाहस्सीय' एकलाख योजनं प्रमाणतक वह दीर्घ-लंया था, ऐसे 'महा योंदि' विशाल शरीर का उसने 'विउच्चई वैक्रिय समुदघात द्वारा निर्माण किया। 'विउव्बित्ता' चिकुर्वणासे उपयुक्त विशाल वैक्रियक शरीर का निर्माण करके 'अप्फोडेइ' उसने परस्पर दोनों हाथों के आघात से विस्फोटरूप ध्वनिको उत्पन्न किया-अर्थात् जिस प्रकार अखाड़े में उतरने पर पहिलवान लोग अपने दोनों हाथों की यांहों को भुजाओंको ठोकते हैं उसी प्रकार से इसने भी अपने दोनों 'भासुर' ते ॥२५२ हात हतु, 'भयाणीय' त भयान: स्तु, 'गंभीर.. a वि. वीर्ण अवय१३५ सापायी गली स्तु', 'उत्तासणीय' ते अत्यंत त्रासानं: - तेने या ४२वाथी भनभा २ मा मे सतु, 'कालरतमासरासिसंकास' त ? રાત્રિની મધ્યરાત્રિના જેવું તથા અડદના ઢગલા જેવું અતિશય શ્યામવર્ણનું કે'जोयणसयसाहस्मीय' मे atm योनी पाणु तु. मेवा 'महावादि' (१२।ट शरी२नु तेथे 'विउबई वैठिय समुधात नि स्यु'. 'विउधिना' मा विराट २५३५र्नु नि शने 'अप्फोटेड तथा अन्न साय 42 तनी जन्न ભુજાઓ પર થાપટે લગાવી. જેવી રીતે મલલેકે કુરતી કરતી વખતે તેમના અને હાથ વડે બને ભુજાઓ પર થાપટે લગાવે છે, એવી રીતે તેને પણ મને કાથવટે