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भगवतीसूत्रे
साहाय्येन माश्रयेन 'उ' ऊर्ध्वम् 'उप्परत्ता' उत्पस्य 'जान - सोहम्मो कप्पो' यावत् सौधर्म: कल्पः गमनसामध्ये न सौधर्मपर्यन्तं स्वयमुत्पश्य तस्य चमरस्य गमनसामध्ये नास्ति इति शक्रः स्वयं विचारयति इत्यर्थः, अपवादमाह - 'णष्णस्थ' इत्यादि । नान्पत्र, वक्ष्यमाणादादित्रयं विद्यायान्यं यं कमपि आश्रित्य ऊर्ध्वं नैव कथमपि गन्तुं समर्थो भवति इत्याह- 'अरिहंते चा', अई तो वा, 'अरिहंतचेहयाणि या ' अर्हच्चेत्यानि वा छद्मस्थ तीर्थ करान् वा, 'अणगारे या भाविअप्पणी' अनगारान् वा भावितात्मनो विहा की शक्ति की सहायता से 'उड्ड ऊपर 'उप्पइसा ' उड़कर 'जाव सोहम्मो कप्पो' यावत् सौधर्मकल्पतक जा सके इस प्रकार शक्रने चमर के यावत्सौधर्मकल्पतक जाने के विषय में विधिमार्गका विचार किया - साथमें उसने यह भी विचार किया कि चमर के इस प्रकार से यावत्सौधर्मकल्पतक जानेमें जो अपवाद मार्ग है वह इस प्रकार से है- 'गणत्थ' इत्यादि - इसमें यह प्रकट किया गया है कि अहदादित्रय को छोड़कर चाहे वह और किसी की भी सहायता क्यों न ले तो भी वह ऊपर सौधर्मकल्पतक किसी भी तरह से नहीं जा सकता है - यही विषय 'अरिहंते वा अरिहंत चेहयाणि वा अणगारे वा भावि अप्पणो णीसाए उड्ड उप्पयह जाय सोहम्मो कप्पो' इस सूत्र - पाठ से पुष्ट किया है- 'णण्णत्थ' की संस्कृत छाया नान्यत्र ऐसी है इसमें अन्यत्र का तात्पर्य है - इनके बिना । किनके बिना तो इसके लिये कहा गया है कि 'अरिहंते वा' अरिहंतों को 'अरिहंत चेइयाणि इत्ता जाव सोहम्मो कप्पो' असुरेन्द्र असुररान यभरभां भेवी पोतानी अर्ध चायु યોગ્યતા નથી, કે જેને આશ્રય લઈને-તે સૌધમ કલ્પ દેવલાક પન્ત જઈ શકે. આ રીતે શક્રેન્દ્રે ચમરેન્દ્રના સૌધર્માં૯૫ સુધીના આગમન વિષે વિધિમાના વિચાર કર્યાં. સાથે. સાથે તેણે તે માટેના અપવાદ માના પણ વિચાર કર્યાં. તેણે અપવાદ માના વિચાર ठेवी शते यों, ते नीयेनां सूत्रों द्वारा अष्ट थयो छे'गणस्थ' छत्याहि तेभां मे वात પ્રકટ કરવામાં આવી છે કે અહંતાદિના આશ્રયથી જ એવું ખની શકે છે—ખીજા ફાઈની પણ સહાયથી તે સૌધર્મ દેવલેાક સુધી આવી શકવાને સમર્થાં નથી. એજ વાત नीथेनां सूत्रो द्वारा 2 री छे - 'अरिहंते वा अरिहंत चेइयाणि वा अणगारे वा भावि अप्पणो णीसाए उड्ड उप्पयइ जाव सोहम्मो कप्पो "गणत्थ'नी संस्कृत छाया 'नान्यत्र' छे भेटते हे 'तेभना विना' होना विना ? मे मतावना भाटे मधु छे અહતા અથવા મહતઐયો છદ્મસ્થ તીર્થંકરા, અથવા ભાવિતાત્મા અણગારાના