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प्र.टीका श.३ उ.२ सू. ८ शक्रस्य वज्रमोक्षण भगवच्छरणागमननिरूपणम् ४३५ अप्रार्थितमार्थिक ! अप्रार्थितस्य अनभीष्टस्य मृत्योः मार्थिकः, मरणेच्छुः ! 'जाव-हीणपुण्णचाउद्दसा' यावत् हीनपुण्यचातुर्दशः! हीनायां पुण्यचतुर्दश्यां जातः ! यावत्करणात् 'दुरंतपंतलक्खणे, हिरिसिरिपरिवन्जिए, दुरन्तप्रान्तलक्षणः ही श्रीपरिवर्जितः इति संग्राह्यम् । 'अन्ज न भवसि । अद्य न भवसि अद्य न भविष्यसि इहलोके न स्थास्यसि त्वम् अधुनैव मरिष्यसि इत्यर्थः 'नहि ते मुहमत्थि' नहि ते मुखमस्ति अधारभ्य तव जीवने मुखं नास्ति इति त्वं जानीहि 'त्तिक?' इति कृत्वा इत्यवधार्य 'तत्येव' तत्रैव सौधर्मकल्पे स्वस्थाने एवं 'सीहासणवरगए' सिंहासनवरगतः स्वासनस्थित एव 'वज्ज परामुसइ' वज्र परामशति गृह्णाति 'परामुसित्ता' परामृश्य गृहीत्वा 'तं जलंतं ' तं ज्वलन्तम् दीप्यमानम् तेरी इन बातों से मुझे मालूम देता है कि तू अपने मुँह से ही अपनो मृत्यु को घुला रहा है-अर्थात् उसका अभिलापी हो रहा है । 'हे' यह अहंकार को सूचनकरने वाला अव्ययपद है! 'जाव हीणपुण्ण चाउद्दसा' यावत् तू मुझे हीन पुण्यवाली कृष्णचतुर्दशी में जन्मा हुआ ज्ञान होता है । यहां यावत पद से 'दुरंतपंतलक्खणे हिरिसिरि परिवज्जिए' इन दो पदों का ग्रहण हुआ है। 'अज्ज न भवसि' तू याद रख आज इस लोक में इस वर्तमान पर्याय में नहीं रहेगा इसी समय मारा जायगा 'नहि ते सुहमत्थि' तेरे भाग्य में अब थोड़ा सा भी सुख नहीं है 'तिक?' ऐसा कहकर इन्द्र-शक्र ने 'तस्थेव अपने स्थानरूप सौधर्मकल्पमें ही 'सीहासणवरगए' अपने आसन पर बैठे २ 'वज्ज परामुसई' उस चमरको मारने के लिये वज्र को उठाया 'परामुसित्ता' और उठाकर उस 'जलंतं' दीप्यमान 'फुडतं' છે કે તું તારા મુખથી જ તારા મતને નિમંત્રી રહ્યો છે. હું અહંકાર સુચક ઉગાર पाय छे. 'जाव हिणपूण्णचाउदसामने वा छेता। भनिएय पाणीयो च्या . महा 'जाव' ५४था 'दुरंतपंतलक्खणे, हिरिसिरि परिवज्जिए' मा पह! हए ४२वामां माया छ, 'अज्ज न भवसि तु या राम! मा त मस्तित्व २७वार्नु नथी. तु मारे हाथे म१श्य भरवाना छे. 'नहि ते मुहमत्थि' त२ भाग्यमा हुने सडक ५५सुम ज्यु नया. 'त्तिक' मेम ४हीने 'तत्थेव' Mir (सीधभ६५zi) 'सीहासणवरग' पोताना श्रेष्ठ मासन ५२ Risi 'वज्ज परामुसई तो पतार्नु qn Siव्यु, 'परामसित्ता ने 8वीन 'चमररस अमुरिदस्स असुररण्णो वहाए निसिरह मसुरेन्द्र मसु२२।०१ यभरना ५ ४२पाने भाट छोउयु, ७३ सूत्र ते onर्नु न ४३ है-'जलंतं ' प्यमान, 'फुड'