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मथमाधोनरव
पूछने के पान यावस्फरणात्
अमेयचन्द्रिका टीका श.३ उ.२ सू. १ भगवत्समवसरणम् चरमनिरुपणञ्च ३२९ नमस्यति 'वंदित्ता नमैसित्ता' वन्दित्वा नमस्यित्वा च एवं-वक्ष्यमाणप्रकारेण 'वयासी' अवादीत्-'अस्थिणं भंते !" अस्ति खलु भदन्त ! 'इमीसे स्यणप्पभाए' अस्याः रत्नमभायाः 'पुढवीए' पृथिव्याः 'अहे' अधो नरकलोके अमुरकुमारा देवाः परिवसन्ति ? इति प्रश्नः । भगवानाह-'गोयमा' हे गौतम ! 'नो इगटे समझे नायमर्थः समर्थः, नेतत्संभवति न तत्र परिवसन्ति ते असुरकुमारा देवाः इत्युत्तरम् , 'एवं जाव-' एवं यावत् 'अहे सत्तमाए पुढवीए' अधः सप्तम्याः पृथिव्याः, रत्नप्रभायाः प्रथमाधोनरकात सप्तमाधोनरकपर्यन्तमित्यर्थः, यावत्करणात् द्वितीय-तृतीय-चतुर्थ-पञ्चम-पष्ठपृथिव्यधो पूछने के पहिले 'समणं भगवं महावीरं वंदई' साधु आचार के अनुसार प्रभु गौतम ने श्रमण भगवान को वंदन किया उनके गुणो की स्तुति की-फिर अपने अष्टांगो को झुकाकर गौतमने प्रभुको 'नमंसति' नमस्कार किया 'वंदित्ता नमंसित्ता' वन्दना नमस्कार करके जो पूछा वह 'एवं वयासी' इन पदो द्वारा प्रकट किया गया है कि इस वक्ष्यमाण प्रकार से पूछा- 'अस्थिर्ण भंते' हे भदंत ! क्या 'इमीसे रयणप्पभाए' इसरत्न प्रभा 'पुढवीए' पृथिवी के 'अहे' नीचे नरकलोक में 'असुरकुमार देवा परिवसंति' ये असुरकुमार देव रहते हैं क्या? गौतम का इस प्रकार का प्रश्न सुनकर प्रभु ने उनसे 'नो इणहे सम?' इस सूत्रद्वारा उत्तर देते हुए कहा कि हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है- अर्थात्-ये असुरकुमार देव वहां नरक में नहीं रहते हैं। ‘एवं जाव अहे सत्तमाए पुढवीए' इसी प्रकार से अ. सुरकुमार देव यावत् सप्तम पृथिवी के नीचे भी नहीं रहते हैं। यहां यावत् पद से यह समझाया गया है कि ये असुरकुमार देव "समणं भगवं महावीरं वंदड" श्रम लगवान महावीरने व ४0-तमना ગુણની સ્તુતિ કરી. ત્યાર બાદ આઠે અંગને નમાવીને તેમણે ભગવાન મહાવીરને "नमंसति" नमः४॥२ ४ा. "वंदित्ता नमंसित्ता" ! नमः४२ ४३शन "एवं बयासी" मा प्रभारी प्रश्न पूछया
न-"इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए अहे" महन्त ! शुमा २लप्रमा पृथ्वीनी (पडली न२४ी) नाय "असरकमारा देवा परिवसंति" ते मसुरभा२हे। से? त्यारे भावीर प्रभुसे 20 प्रभार वाम माया--"नो इण सम?" ना, मेवु नया-तमा २नमा पृथ्वीनी नीय रहेता नथी. "एवं जाव अहे सत्तमाए पुढवीए" भने तेसो पील, श्रील, याथी, पांयमी, ७ही है सातभी न२४नी नीय