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अमेयचन्द्रिका टी. श. ३ उ.२ २.५ चमरेन्द्रस्योत्पातक्रियानिरूपणम् ३८५ संप्रेक्षते, संपेक्ष्य सामानिकपर्पदुपपन्नकान देवान् शब्दयति, एवम् अवादीतकः स एपः देवानुमियाः ? अपार्थितमार्थकः यावत्-भुचानो विहरति ? ततस्ते सामानिकपर्षदुपपन्नका देवाचमरेण अमुरेन्द्रेण अमुरराजेन एवमुक्ताः सन्तः हृष्ट-तुष्टाः यावत्-हृतहृदयाः करतलपरिगृहीतं दशनव शीवित मस्तके मेरे ऊपर होकर (अप्पुस्सुए दिव्याई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरइ) शान्ति के साथ दिव्य भोगने योग्य भोगों को भोगता हुआ आनन्दमग्न बना है (एवं संपेहेह) इस प्रकार उस चमर ने विचार किया। (संपेहिता) ऐसा विचार करके (सामाणियपरिसोवबन्नए देवे सद्दावेइ) उसने सामानिक परिपदा में उत्पन्न हुए देवोंको बुलाया (एवं क्यासी) बुलाकर उनसे ऐसा कहा-(देवाणुप्पिया !) हे देवानुप्रियो ! (अपत्थ. पत्थिय जान भुंजमाणे केस णं एस विहरइ) हमें यह तो बताओकि यह मृत्युकी आकांक्षा बाला यावत् दिव्य भोगने योग्य भोगोंको भोगनेवाला कौन है ? [तएणं ते सामाणिय परिसोववनगा देवो चमरेणं असुरिंदेणं असुररण्णा एवं वुत्ता समाणा हट्ठ तुट्ठ जाव हयहिथया करतलपरिग्गहियं दसनहं सिरसावत्तयं मत्थए अंजलिं कहा इस प्रकारसे असुरेन्द्र असुरराजचमरके द्वारा कहे गये उन सामानिक परिपदा में उत्पन्न हुए सामानिक देवाने, हर्पित एवं सन्तुष्ट यावत् हृतहृदय वाले होकर, दोनो हाथोंको जोडते हुए दसौ नखौ
य स्थाने (अप्पुस्सुए दिबाउं भोगभोगाई मुंजमाणे विहरइ) रहीन शान्तिथा ते हिव्य लोगान लगवी रह्यो छ ? भने थे शत मानभन मन छ ? (एवं संपेहेइ) यमरेन्द्र में प्रभारी पिया ध्या. (संहिता) व वियार ४शन (सागा. णिय परिसोचवन्नए देवे सदावेइ) त सामानि परिपहाभा पन्त थये। वेने मालाच्या मेट साभानि वनमालाव्या. (एवं क्यासी) अने तेभने मा प्रभा
यु-(देवाणुप्पिया !) देवानुप्रियो! [अपत्यपत्थिय जाव मुंजमाणे के स णं एस विहरइ] भने थे तो मताव मा मातनी छापामो [यावत् ] हिव्य सागाने नागना छ ? [तएणं ते सामाणियपरिसोववनगा देवा चमरेणं असुरिदेणं असुररण्णा एवंवुत्ता समाणा इह तद्र जाव हयहियया करतलपरिग्गहियं दसनह सिरसावत्तयं मत्थए अंजलि कट्टा क्यारे असुरेन्द्र मसु२२।०यम वा। સાભાનિક દેવને આ પ્રમાણે પૂછવામાં આવ્યું ત્યારે તેમના હૃદયમાં હર્ષ અને સંતોષ થયો. તેમનું હૃદય આનંદથી નાચી ઉઠયું. બન્ને હાથના દસે નખ એક બીજાને સ્પર્શ