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भगवतीमने शकेशानयोः प्रादुर्भावविषयिणी रीतिः पूर्व प्रतिपादिना तथा आलापमलाप विपयेऽपि सेव रीतिः विजया । पनायना शरः आहानपूर्वकमेवालापसंग कर्तुमईति, भानश्रीभगयापि इति भावः। 'अयि गं ! अग्नि ग्यान्टु भदन्न' हे भगवन ! नेमि' तयोः पूर्वोक्तयोः 'सरकापाणाणं' पक्रेगानाः 'देविंदाणं देवराईगं देवेन्द्रयोः देवरानीः परस्परं अतिषणं ' अस्ति म्बलु अतीनि अव्ययं विद्यमानतावाचक कृत्यादिविशेषणं बोध्यम नम्य विभक्तिप्रति रूपकाव्ययत्वादेन कृत्यादीनां यहचाननान्तत्येऽपि न विशेष्यविशेषणयोः निमिष वचनकत्यमयुक्तो दोषः। तयार विद्यन्ते इति तदर्थः 'पिचाई' कृत्यानि जैसी रीति प्रादुर्भवना (प्रकट होने) के विषय में कही गयी है-वैसी ही रीति इस यिपय में भी जाननाचाहिये अर्थात् शक इन्द्र ईशानके साथ आलाप संलाप आहानपूर्वक ही कर सकते है विना आहानपूर्वक नहीं। परन्तु जो ईशान है यह दोनों तरह से शक से ओलाप संलाप कर सकता है। आहानपूर्वक भी कर सकते है और विना आहान के भी कर सकता है । 'अस्थि गं भंते! तेसिं समीमाणाणं देवि दाणं देवराईणं किच्चाई करणिलाई समुपजाति' यहां पर 'अस्थि' यह पद अब्धयरूप है और विद्यमान अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। यह कृत्यादिकों का विशेपण है। 'अत्वि' पद विभक्तिप्रतिरूपक अध्यय है। इसी कारण कृत्यादिकों में यहृवचनान्तता होने पर भी इन दोनों में एक बचन बहुवचन को लेकर विशेप्य विशेषण भाव का अभाव नहीं आता है। तात्पर्य कहने का यह है कि यदि कोई यहां पर ऐसी आशंका करे कि 'अस्थि पद को आप 'किच्चाइ
उत्तर - "हंता गोयमा !" , गौतम! "जहापाउन्भवणा" प्रादुर्भाव (प्रट થવાની ક્રિયા) વિષે જે પ્રમાણે કહ્યું છે તે પ્રમાણે આ વિષયમાં પણ સમજવું એટલે કે જે ઈશાનેન્દ્ર બેલા ને જ શક્રેન્દ્ર તેની સાથે વાર્તાલાપ કરી શકે છે. પણ શકેદ્ર બોલાવે કે ન લાવે, તે પણ ઈશાને દ્ર તેની સાથે વાર્તાલાપ કરી શકે છે. "अस्थि णं भंते ! तेसिं सक्कीसाणाणं देविंदाणं देवराईणं किच्चाई करणिजाई समुपनंति ?" मही. "अत्थि" ५४ भव्यय३ १५रायु छ भने ते मय' "विधमान" थाय छे. 'मस्थि' ५६ इत्यानि विशेष छे "अत्थि" पर वित પ્રતિરૂપક અવ્યય છે. તે કારણે કૃત્યાદિકમાં બહુવચનાન્તતા હોવા છતાં પણ તે બનેમાં એક વચન બહુવચનની અપેક્ષાએ વિશેષ્ય-વિશેષણ ભાવને અભાવ જણાતે नधी. य शवी हा "अस्थि" पहने "किचाई" ना विशेष