________________
प्रमेयचन्द्रिकाटीका श. ३ उ. १ ईशानेन्द्रस्य देवऋद्धिवर्णनम् १६३ - वायुभूतिः चिकुर्वणाशच्या देवद्धिसंहरणम् पुनर्भगवन्तं पृच्छति-'से के. गटेणं' तत् केनार्थेन केनाभिमायेण 'एवं पुच्चई' एवम्-उच्यते-'सरीरं गया' ति! शरीरं गता? इति । सा देवदिः शरीरं गता इति भवतः कथनस्य कोऽभिमायः ? को वा हेतुः ? भगवान् वायुभूति दृष्टान्तेन बोधयति-'गोयमा! से जहा'-इत्यादि। हे गौतम ! तपथा 'नाम' नाम इति वाक्यालंकारे 'कूडागारसालाए' कूटाकारशाला, कूटस्य शिखरस्य आकार इव आकारो यस्याः सा चासौ शाला कुटाकारशाला 'सिया' स्यात् 'दुहओ' द्विधा उभयपार्श्वत:-'लित्ता' लिप्ता सर्वथा संहता 'गुत्तदुवारा' गुप्तद्वारा, संतृतद्वारा 'णिवाया' निर्वाता पवनसञ्चाररहिता'गिवाय गंभीरा निर्वातगंभीरा पिहितद्वारगवाक्षतया सर्वथा पवनसंचार
अय वायुभूति इसी यातको विशेष रूपसे समझनेके लिये प्रभुसे पुनः प्रश्न करते है कि- 'से केण?णं एवं बुचइ सरीरं गया ?' हे भदंत ! आप ऐसा किस अभिप्रायसे कहते है कि ईशानेन्द्र की वह दिव्य देवद्धि उसके शरीरमें समा गई है ? तात्पर्य यह है कि वायुभूति श्रमण भगवान महावीरसे पूछते है कि हे भदंत ! आपके इस कथन का अभिप्राय क्या है? अथवा इस में हेतु क्या है ? वायुभूतिके इस कथनको सुनकर भगवानने उन्हें इस दृष्टान्त द्वारा समझाया- 'गोयमा' हे गौतम ! 'से जहानामए कडागारसाला सिया' इत्यादि, जैसे शैल[पर्वत]शिखरके आकारके जैसे आकारवाली कोई एक शाला हो- अर्थात् एक ऐसा घर हो कि जिसकी बनावट पर्वतके शिखर जैसी हो, यह शाला दोनों ओरसे गोमयादिसे लिप्त हो 'गुत्ता' सुरक्षित हो, इसका द्वार संवृत (ढका) हो, पवन के संचारसे यह रहित हो, ऐसी कुटाकारशाला का यहां दृष्टान्त लाग
त्यारे वायुभूति भएर महावीर प्रभुने छ है "से केणढणं एवं वुचइ सरीरं गया ?" महन्त ! मा५ । १२ मे है। छ। थानेन्द्रनी त हिव्य દેવદ્ધિ તેના શરીરમાં જ સમાઈ ગઈ છે.
વાયુભૂતિના પ્રશ્નનો જવાબ આપવા માટે મહાવીર પ્રભુ તેમને એક દષ્ટાંત भा-"से जहानामए कूडागारसाला सिया" ५'तन शिना मारना એક શાલા હાય- એટલે કે કોઈ એવું ઘર હોય કે જેની બનાવટ કઈ પર્વતના શિખર पीडाय. ते घरने मन्न १२५थी गार पुरेसी डाय, "गुत्ता" सुरक्षित स्य, तेर्नु દ્વાર બંધ હાય, પવન પણ તેમાં પ્રવેશી શકતા ન હોય, એવી કુટાકાર શાલીનું