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भगवती
न्तम् महावीर' 'बंद' बन्दते, 'नमंस' नमस्यति, 'मंदिता नमसित्ता' वन्दिला नमस्यित्वा 'एच' वक्ष्यमाणप्रकारेण 'क्यासी' अवादीत् 'अहो ??? णं भंते ?' हे भगवन् ! अहो महदाश्रयै खलु 'ईसाणे' ईशानः 'देविंदे' देवेन्द्रः 'देवराय!' देवराजः 'महिडीए' महर्द्धिकः महर्द्धिशाली वर्तते । 'ईगाणस्स णं भंते । ईशानस्य खलु भदन्त ! 'दिव्या' दिव्या 'देव' देवदिः 'कहि' कुत्र ' गया' गता, 'कर्हि' कुत्र 'अणुविद्या !' अनुमविष्टा ? इति प्रश्नः । भगवान् उत्तरयति'गोयमा ! शरीर ं गया' त्ति । हे गौतम! वायुभूते । सा चैक्रियक्रियोद्भूता दिव्यदेवर्द्धिः शरीरं गता 'वैक्रियक्रिया मतिसंहरणेद्वारा निजशरीरमनुमष्टा इत्यर्थः । गौतमने प्रभुसे ऐसा पूछा- कि 'जामेव दिसि पाउए तामेव दिसिं परिगए' हे भदन्त । वह ईशानेन्द्र जिस दिशासे जिस रूपमें प्रकट हुआ था उसी दिशाकी ओर उसी रूपमें चला गया है । तात्पर्य कहने का यह है कि ईशानेन्द्रको पूर्ववर्णित दिव्य देवर्द्धिका अवलोकन कर गौतमने प्रभुसे पूछा कि 'हे भदंत ! यह बड़े आश्चर्य की बात है जो देवेन्द्र देवराज ईशान इतनी बडी ऋद्धिवाला हैं- परन्तु उसकी यह ऋद्धि कहां पर चली गई ? कहाँ पर समा गई ? तब भगवानने उन्हें समझाया 'गोयमा !' गौतम ! ईशान इन्द्रकी वह दिव्य देवर्द्धि उसके शरीर में ही ममा गई है । ईशानेन्द्रने जो अभी २ ऋद्धि दिखलाई थी वह बैक्रिय क्रिया द्वारा उसने प्रकट की थी, वैक्रिय क्रियाका उसने अब संहरण कर लिया है सो एकही क्षणमें उसकी दिव्य वह ऋद्धि भी संहृत हो गई है- अर्थात् जिस शरीरसे यह उत्पन्न विक्रिया क्रिया द्वारा हुई थी उसीमें यह प्रविष्ट होगई है । महर्द्धि भ्यां सभाएँ ग ? " जामेव दिसि पाउन्भूए तामेव दिसि पडिगए" હું ભઇન્ત ! ઈશાનેન્દ્ર જે દિશામાંથી પ્રકટ થયેા હતેા એ જ દિશામાં અદ્રશ્ય થઈ ગયા ! હું ભગવાન ! તેની મહદ્ધિ કર્યાં ચાલી ગઈ ? કયાં સમાઇ ગઈ ? ત્યારે ભગવાન गौतम स्वाभीने वाम आये छे ! "गोयमा !" हे गौतम !. ईशानेन्द्रनी ते हिव्य દેવદ્ધિ તેના શરીરમાં જ સમાઇ ગઈ. તેણે હમણાં જે ઋદ્ધિ બતાવી હતી તે વૈક્રિય ક્રિયા દ્વારા પ્રકટ કરી હતી, હવે તેણે વૈક્રિય ક્રિયાનું સહરણ કરી લીધુ છે. તેથી એક ક્ષણમાં જ તેની તે દિવ્ય ઋદ્ધિ સહત થઇ છે. એટલે કે જે શરીરમાંથી વૈક્રિય ક્રિયા દ્વારા તે ઉત્પન્ન થઇ હતી, એજ શરીરમાં તે પાછી ચાલી ગઇ છે.
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