Book Title: Samraicch Kaha Part 1
Author(s): Haribhadrasuri, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith
Catalog link: https://jainqq.org/explore/001881/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिभद्र सूरि विरचित समराइचकहा Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समराइच्चकहा आचार्य हरिभद्र सूरि की, प्राकृत गद्य भाषा में निबद्ध एक ऐसी आख्यानात्मक कृति, जिसकी तुलना महाकवि बाणभट्ट की 'कादम्बरी', जैन काव्य 'यशस्तिलकचम्पू' और 'वसुदेवहिण्डी' से की जाती है । प्रचलित भाषा में इसे नायक और प्रतिनायक के बीच जन्म-जन्मान्तरों के जीवन-संघर्षो की कथा का वर्णन करनेवाला प्राकृत का एक महान् उपन्यास कहा जा सकता है । मूल कथा के रूप इसमें उज्जयिन्नी के राजा समरादित्य और प्रतिनायक अग्निशर्मा के नौ जन्मों (भवों) का वर्णन है। एक-एक जन्म की कथा एक-एक परिच्छेद में समाप्त होने से इसमें नौ भव या परिच्छेद हैं । आज से पचास वर्ष पूर्व यह ग्रन्थ अहमदाबाद से संस्कृत छायानुवाद के साथ प्रकाशित हुआ था । पहली बार इस ग्रन्थ का सुन्दर एवं प्रामाणिक हिन्दी अनुवाद प्राकृत एवं संस्कृत के विद्वान् डॉ. रमेशचन्द्र जैन, बिजनौर ने किया है । इस प्रकार प्राकृत मूल, संस्कृत छाया के साथ इसके हिन्दी अनुवाद का प्रकाशन भारतीय ज्ञानपीठ की एक और महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है । ग्रन्थ के बृहद् आकार में होने से इसके पाँच भव 'पूर्वार्ध' के रूप में और अन्तिम चार भव 'उत्तरार्ध' के रूप में, इस तरह यह पूरा ग्रन्थ दो जिल्दों में नियोजित है । आशा है, प्राकृत के अध्येताओं, शोध छात्रों एवं प्राचीन भारतीय साहित्य के समीक्षकों के लिए यह कृति बहुत उपयोगी सिद्ध होगी । www.jalnelibrary.org. Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जानपीठ मूतिदेवी वन मन्चमाला : प्राकृत प्रथांक-२१ आचार्य हरिभद्र सूरि विरचित समराइच्चकहा [प्राकृत मूल, संस्कृत छाया एवं हिन्दी र नुवाद सहित] [पूर्वार्ध] सम्पादन-अनुवाद डॉ० रमेशचन्द्र जैन ___अध्यक्ष, संस्कृत विभाग, बर्द्धमान (स्नातकोत्तर) महाविद्यालय, बिजन र (उ० प्र०) i n -I - . .. .... . क्या भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन प्रथम संस्करण : १६६३ 0 मूल्य : १४० रुपये Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (स्व.) पुण्यश्लोका माता मूर्तिदेवी की पवित्र स्मृति में (स्व.) साहू शान्तिप्रसाद जैन द्वारा संस्थापित उनकी धर्मपत्नी (स्व.) श्रीमती रमा जैन द्वारा संपोषित ज्ञानपीठ मूर्तिदेवी जैन ग्रन्थमाला इस ग्रन्थमाला के अन्तर्गत प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, हिन्दी, कन्नड़, तमिल आदि प्राचीन भाषाओं में उपलब्ध आगमिक, दार्शनिक, पौराणिक, साहित्यिक, ऐतिहासिक आदि विविध-विषयक जैन-साहित्य का अनुसन्धानपूर्ण सम्पादन तथा उसके मूल और यथासम्भव अनुवाद आदि के साथ प्रकाशन हो रहा है। जैन-भण्डारों की सूचियां, शिलालेख-संग्रह, कला एवं स्थापत्य, विशिष्ट विद्वानों के अध्ययन-ग्रन्थ और लोकहितकारी जैन साहित्य-अन्य भी इसी प्रन्थमाला में प्रकाशित हो रहे हैं। प्रकाशक भारतीय ज्ञामपीठ १८, इन्स्टीट्यूशनल एरिया, लोदी रोड, नयी दिल्ली-११०००३ मुद्रक : ए० आर० प्रिण्टर्स, डी-१०२ न्यू सीलमपुर, दिल्ली-११००५३ स्थापना : फाल्गुन कृष्ण ६, वीर नि० २४१०, विक्रम सं० २०००, १८ फरवरी १९४४ सर्वाधिकार सुरक्षित Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ JNANPITH MURTIDEVI JAINA GRANTHAMALA PRAKRIT GRANTHA, NO. 21 SAMARAICHCHAKAHA of ACHARYA HARIBHADRA SURI [ Prakrit Text with Sanskrit Chhaya and Hindi Translation] [ VOL 1] Edited and Translated into Hindi by DR. RAMESH CHANDRA JAIN M.A., Ph. D., D. Litt. Head, Department of Sanskrit, Vardhaman (Post-graduate) College, Bijnor (U.P.) BHARATIYA JNANPITH PUBLICATION First Edition: 1993] O [ Rs. 140.00 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ JNANPITH MURIIDEVI JAINA GRANTHAMALA FOUNDED BY (LATE) SAH J SHANTI PRASAD JAIN IN MEMORY OF HIS (LATE) MOTHER SHRIMATI MURTIDEVI AND PROMOTED BY HIS BENEVOLENT WIFE (LATE) SHRIMAT: RAMA JAIN IN THIS GRANIHAMALA CRITICALLY EDITED JAINA AGAMIC, PHILOSOPHICAL, PURANIC, LITERARY, HISTORICAL AND OTHER ORIGINAL TEXTS AVAILABLE IN PRAKI IT, SANSKRIT, APABHRMSHA, HINDI, KANNADA, TAMI, ETC., ARE BEING PUBLISHED IN THE RESPECTIVE LANGUAGES WITH THEIR TRANSLATIONS IN MODERN LANGUAGES. ALSO BEING PUBLISHED ARE CATALOGUES OF JAINA BHANDARAS, INSCRIPTIONS, STUDIES ON ART AND ARCHITECTURE BY COMPETENTS SCHOLARS AND ALSO POPULAR JAINA LITERATURE. Published by Bharatiya Juanpith 18, Institutional Area Lodi Rood, New Delhi-110003 Printed at A.R. Printers, )-102, New Seelampur, Delhi-110053 Founded on Phalguna Krishna 9, Vira Sam. 2470, Vikrama Sam. 2000, 18th Feb. 1944 All Rights Reserved. Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय 'समराइच्चकहा' आचार्य हरिभद्र सूरि (आठवीं शती) की एक ऐसी आख्यानात्मक कृति है, प्राकृत गद्य भाषा में निबद्ध होने पर भी जिसकी तुलना संस्कृत में महाकवि बाणभट्ट की 'कादम्बरी' तथा जैन काव्य 'यस्तिलकचम्पू' और 'वसुदेवहिण्डी' से की जाती है। प्रचलित भाषा में हम इसे नायक और प्रतिनायक के बीच जन्म-जन्मान्तरों के संघर्ष की कथा का वर्णन करने वाला प्राकृत का एक महान् उपन्यास कह सकते हैं। आज से पचास वर्ष पूर्व यह ग्रन्थ अहमदाबाद से पं० भगवानदास कृत संस्कृत छायानुवाद के साथ प्रकाशित हुआ था। इसी ग्रन्थ को आधार मानकर पहली बार इस ग्रन्थ का सुन्दर एवं प्रामाणिक हिन्दी अनुवाद प्राकृत एवं संस्कृत के विद्वान् डॉ. रमेशचन्द्र जैन ने किया है। इस प्रकार प्राकृत मूल, संस्कृत छाया और हिन्दी अनुवाद के साथ इसका प्रकाशन भारतीय ज्ञानपीठ की एक और महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है । प्राकृत काव्य-रचना एवं दर्शन-चिन्तन-परक ग्रन्थ-लेखन की परम्परा में आचार्य हरिभद्र सूरि का स्थान सर्वोपरि है । वे काव्यकार तो थे ही, दार्शनिक, आचार-शास्त्री, योगद्रष्टा, योतिषाचार्य भी थे, और इन सबसे आगे थे वे अतिविशिष्ट टीकाकार । उनका मौलिक चिन्तन उनके मौलिक ग्रन्थों में निहित तो है ही, टीका-ग्रन्थों में भी अनुस्यूत है। 'समराइच्चकहा' में उज्जयिनी के राजा समरादित्य और प्रतिनायक अग्निशर्मा के नौ जन्मों (भवों) का वर्णन है। एक-एक जन्म की कथा एक-एक परिच्छेद में समाप्त होने से इसमें नौ भव यो परिच्छेद हैं । ग्रन्थ के वहद् आकार में होने से इसके पाँच भव 'पूर्वाध' के रूप में और अन्तिम चार भव 'उत्तरार्ध' के रूप में, इस तरह पूरा ग्रन्थ दो जिल्दों में प्रकाशनार्थ नियोजित है। वस्तुतः एक पौराणिक कथानक पर आधारित होकर भी 'समराइच्चकहा' इतिहास और संस्कृति के अनेक चित्र प्रस्तुत करती है। देश-काल और भाव-भंगिमा के चित्रण में यह चना अद्वितीय कही जा सकती है। जैन समष्टि के अनेक पक्ष इस रचना में अपनी यथार्थता साथ उभरे हैं। हिन्दी में इसके अनुवाद की महती आवश्यकता थी। इस दुस्साध्य एवं महत्त्वपूर्ण कार्य लिए हम डॉ. रमेशचन्द्र जैन के आभारी हैं। ज्ञानपीठ की मूर्तिदेवी ग्रन्थमाला के अन्तर्गत संस्कृति, साहित्य, कला, इतिहास आदि के साथ धर्म, दर्शन और न्याय के विविध पक्षों पर १५० से भी अधिक ऐसे ग्रन्थ प्रकाशित हो Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चुके हैं जो विलुप्तप्राय हो चले थे, अनुपलब्ध हो गये थे या तब तक अप्रकाशित । इनका अनुसन्धान तो हुआ ही है, इनका वैज्ञानिक दृष्टि से आधुनिक शैली में सम्पादन हुआ; हिन्दी; अंग्रेजी में अनुवाद, समीक्षा आदि भी करायी गयी । यहो कारण है कि सामान्य पाठकों के साथ विद्वज्जगत् ने भी इन प्रकाशनों का मुक्त हृदय से स्वागत किया है । इस पुनीत कार्य में आशातीत धनराशि अपेक्षित होने पर भो भारतीय ज्ञानपीठ के पथप्रदर्शक सदा ही तत्पर रहते हैं । उनको तत्परता को कार्य रूप में परिणत करते हैं हमारे सभी सहकर्मी । इन सबके हम कृतज्ञ हैं । प्रस्तुत रचना का महत्त्व साहित्य - रसिकों तक ही सीमित नहीं होना चाहिए। इसे विश्वविद्यालयों के समालोचक आचार्यों और ज्ञानपिपासु छात्रों को सहज सुलभ होना चाहिए । ऋषभ जयन्ती १६ मार्च, १९६३ गोकुल प्रसाद जैन उपनिदेशक Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समराइच्चकहा (पूर्वाध) Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका भारतीय कथा-साहित्य साहित्य के एक महत्त्वपूर्ण अंग कथा-साहित्य का प्राची तम रूप ऋग्वेद के यम-यमी संवाद, पुरुरवा उर्वशीवत्त, सरमा और पणि संवाद जैसे लाक्षणिक संवादों, ब्राह्मणों के सुपर्णकाद्रव जैसे रूपकात्मक आख्यानों, उपनिषदों के सनत्कुमार-नारद जैसे ब्रह्मर्षियों की भावमूलक आध्यात्मिक व्याख्याओं एवं महाभारत के गंगावतरण, शृंग, नहुष, ययाति, शकुन्तला, नल आदि जैसे उपा यानों में उपलब्ध होता है। आगे चलकर इनका क्रमिक विकास दृष्टिगोचर होता है । व्यवस्थित रूप में भारतीय कथा-साहित्य की सबसे प्रसिद्ध और प्राचीन पुस्तक पंचतन्त्र है । पंचतन्त्र का विश्व की अनेक भाषाओ में छठी शताब्दी से ही अनुवाद प्रारम्भ हो गया था। विश्व-साहित्य पर पंचतन्त्र का अत्यधिक प्रभाव प है। पंचतन्त्र के समान ही हितोपदेश की नीतिकथाएँ प्रसिद्ध हुई। लोककथाओं में पैशाची भाषा में लिखित बृहत्कथा ने भारतीय साहित्य को सर्वाधिक प्रभावित किया । बृहत्कथा के तीन संस्कृत रूपान्तर उप तब्ध होते हैं-(१) बुद्धस्वामीकृत बृहत्कथाश्लोकसंग्रह, (२) क्षेमेन्द्रकृत बृहत्कथामंजरी तथा (३) सोमदेव त कथासरित्सागर । वेतालपंचविंशतिका, सिंहासनद्वात्रिशिका, शुक्रसप्तति, अमितिभवप्रपंचकथा, त्रिषष्ठि ालाका चरित, बृहत्कथाकोष, इत्यादि अनेक कथा-ग्रन्थों ने भारतीय कथासाहित्य की श्रीवृद्धि में चार चांद लग ये। बौद्धकाल में भी जातक-कथाओं के रूप में कहानी-साहित्य का अच्छा विकास हुआ। जातक-कथाओं में सुन्दर कल्पना के द्वारा गम्भीर तत्त्वों को हृदयंगम कराया गया है। अतः कलात्मक दृष्टि से ये कथाएँ हमारे लिए महत्त्वपूर्ण देन हैं। अर्द्धमागधी आगम-ग्रन्थों में छोटी-बड़ी सभी प्रकार की सहस्रों कथाएँ प्राप्त हैं। प्राकृत आगम साहित्य में धार्मिक आचार, आध्यात्मिक तत्त्व-चिन्तन तथा नी त और कर्त्तव्य का प्रणयन कथाओं के माध्यम से किया गया है । सिद्धान्त-निरूपण, तत्त्वचिन्तन तथा नीति और कर्तव्य का प्रणयन कथाओं के माध्यम से किया गया है । गूढ़ से गूढ़ विचारों और गहन से ग न अनुभूतियों को सरलतम रूप में जन-मन तक पहुँचाने के लिए तीर्थंकरों, गणधरों एवं अन्य आचार्यों ने कथा का आधार ग्रहण किया है । तिलोयपण्णत्ति में तीर्थंकरों के माता-पिताओं के नाम, जन्मस्थान, आयु, तपस्थ न आदि का निरूपण है। चरितग्रन्थों के लिए इस प्रकार के सूत्ररूप उल्लेख ही आधार बनते हैं। ज्ञात धर्मकथा, उवासगदसा, आचारांग प्रभृति ग्रन्थों में रूपक और उपमानों के साथ घटनात्मक कथाएं भी आयी हैं, जिनके महत्त्वपूर्ण उपकरणों से कथाओं का निर्माण विस्तृत रूप में हुआ है । टीका, नियुक्ति और भाष्य ग्रन्थों में कथा-साहित्य का विकास बहुत १. डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री : हरिभद्र के प्राकृत कथा साहित्य का आलोचनात्मक परिशीलन, प.१। १. डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री : प्राकृत भाषा और साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास, पृ. ४३८-४३९. Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [समराइन्धकहा कुछ आगे बढ़ा हुआ दिखाई देता है। इनमें ऐतिहासिक, अर्द्धऐतिहासिक, धार्मिक, लौकिक आदि कई प्रकार की कथाएँ उपलब्ध हैं। __ कथाओं के भेद -प्राकृत कथाओं के लेखकों ने विभिन्न प्रकार से कथाओं का वर्गीकरण किया है, जिनमें विषय, पात्र, भाषा और स्थापत्य के आधार पर किये गये वर्गीकरण मूख्य हैं। विषय के आधार पर आचार्य हरिभद्र ने कथाओं को चार भागों में विभाजित किया है (१) अर्थकथा, (२) कामकथा, (३) धर्मकथा और (४) संकीर्ण कथा ।' दशवकालिक में संकीर्ण कथा को मिश्रित कथा कहा गया है। पात्रों के आधार पर कथाएँ तीन भागों में विभाजित हैं-१. दिव्य, २. मानुष, ३. दिव्यमानुष । भाषा के आधार पर कथाएँ तीन प्रकार की होती हैं-(१) संस्कृत, (२) प्राकृत और (३) मिश्र। स्थापत्य के आधार पर उद्योतन सूरि ने कथाओं के पाँच भेद किये हैं१. सकलकथा, २. खण्डकथा, ३. उल्लापकथा, ४. परिहासकथा और ५. संकीर्णकथा। सकलकथा. जिसके अन्त में समस्त फलों-अभीष्ट वस्तु की प्राप्ति हो जाय, ऐसी घटना का वर्णन सकलकथा में होता है । सकलकथा की शैली महाकाव्य की होती है । श्रृंगार, वीर और शान्त रसों में से किसी एक रस का प्राधान्य रहता है । यद्यपि अंग रूप में सभी रस निरूपित रहते हैं । नायक कोई अत्यन्त पुण्यात्मा, सहनशील और आदर्श चरित वाला व्यक्ति होता है । इसमें नायक के साथ प्रतिनायक का भी नियोजन रहता है तथा प्रतिनायक अपने क्रियाकलापों से सर्वदा नायक को कष्ट देता है । जन्मजन्मान्तर के संस्कार अत्यन्त सशक्त होते हैं। खण्डकथा--जिसका मुख्य इतिवृत्त रचना के मध्य में या अन्त के समीप में लिखा जाय, उसे खण्डकथा कहते हैं । खण्डकथा की कथावस्तु छोटी होती है। उसमें जीवन का लघु चित्र ही उपस्थित किया जाता है। उल्लापकथा-ये एक प्रकार की साहसिक कथाएं हैं, जिसमें समद्र-यात्रा या साहसपूर्वक किये गये कार्यों का निरूपण रहता है । इनमें असम्भव पौर दुर्घट कार्यों की व्याख्या प्रस्तुत की जाती है। उल्लापकथा का उद्देश्य नायक के महत्त्वपूर्ण कार्यों को उपस्थित कर पाठक को नायक के चरित्र की ओर इसकी शैली वैदर्भी रहती है। छोटी-छोटी ललित पदावली में कथा लिखी जाती है। परिहासकथा-यह हास्य-व्यंग्यात्मकता का सृजन करने में सहायक होती है। . संकीर्णकथा-इन कथाओं की शैली वैदर्भी होती है। इनमें अनेक तत्त्वों का मिश्रण होने से जनमानस को अनुरंजित करने की अधिक क्षमता होती है। रोमाण्टिक धर्मकथाएँ तथा प्रबन्धात्मक चरित इसी श्रेणी में आते हैं। यह कथा गद्य-पद्यमिश्रित शैली में ही लिखी जाती है। उपदेश को मध्य में इस १. 'एत्थ सामन्नमो चत्तारि कहाओ हवन्ति । तं जहा-अस्थकहा, कामकहा, धम्मकहा, संकिपण कहा य ।' समराइचवकहा, २. 'तस्य 'य निविहं कथावत्यु' इति पुवायरियावामी। तं जहा --दिवं, दिश्वमाणुसं, माणुसं च ।' वही, पृ. २. ३. अण्णं सक्कयपायय-संकिण्ण विहा सुवणा रइयाओ। सुव्वं ति महाकइ पुगवेहि विविहाउ सुकहाओ ॥३६॥--लीलावई ४, तं जहा-सयलकहा. खण्डकहा, उल्लावकहा, परिहासकहा तहावरा कहियत्ति संकिण्णकात्ति। वलयमाला.प. ४. Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका प्रकार निहित किया जाता है, जिससे पाटक के मन में जिज्ञासावृत्ति उत्तरोत्तर विकसित होती रहे। समराइच्चकहा : एक धर्मकथा हरिभद्र की समराइच्चकहा धर्मकथा है । धर्मकथा का लक्षण करते हुए स्वयं हरिभद्र ने कहा हैधर्म को ग्रहण करना ही जिसका विषय है, क्षमा, मार्दव, आर्जव, मुक्ति, तप, संयम, सत्य, शौच, आकिंचन्य (अपरिग्रह) तथा ब्रह्मचर्य की जिसमें प्रधानता है, अणुव्रत, दिग्त, देशव्रत, अनर्थदण्डविरति, सामायिक, प्रोषधोपवास, उपभोगपरिभोग व्रत तथा अतिथिसंविभाग छत से जो सम्पन्न है, अनुकम्पा, दया, अकामनिर्जरादि पदार्थों से जो सम्बद्ध हैं, वह धर्मकथा कही जाती है। अपनी अपनी रुचि के अनुसार लोग भिन-भिन्न कथाओं में अनुरक्त होते हैं। जो इहलोक तथा परलोक के प्रति अपेक्षायुक्त हैं, व्यवहारमार्ग में कुशल हैं, परमार्थरूप से सारभूत विज्ञान से रहित हैं, क्षुद्र भोगों को जो बहुत नहीं मानते हैं, भोगों के प्रति जिनकी लालसा नहीं है, वे कुछ सात्त्विक और मध्यम पुरुष ही आशयविशेष से सुगति और दुर्गति में ले जाने वाली, संसार के स्वभाव रूप चित्तभ्रम वाली, समस्त रसों के झरने से युक्त, अनेक प्रकार के पदार्थों (भावों) की उत्पत्ति के कारण संकीर्ण कथा में अनुरक्त होते हैं। जन्म, जरा, मरण के प्रति जिन्हें वैराग्य हो गया है, इतर जन्म में भी जिनकी बुद्धि में मंगल की भावना है, कामभोगों से जो विरक्त हैं, प्रायः पापों के संसर्ग से जो रहित हैं, जिन्होंने मोक्ष के स्वरूप को जान लिया है, जो सिद्धि-प्राप्ति के सम्मुख हैं, ऐसे सात्त्विक उत्तम पुरुष स्वर्ग और निर्वाणभूमि में आरोहण कराने वाली, ज्ञानी जनों के द्वारा प्रशंसनीय और समस्त कथाओं में सुन्दर, महापुरुषों के द्वारा सेवित धर्मकथा में अनुरागी होते हैं। धर्म के प्रति हरिभद्र का चित्त अत्यन्त आकृष्ट था। अनेक गाथाओं में उन्होंने धर्म की प्रशंसा की है। उनके कथानुसार-"जो व्यक्ति मध्यस्थ और पुण्यात्मा है, वह धर्म के प्रभाव को जानता हुआ सर्वज्ञ द्वारा उपदिष्ट धर्मकथा को जानता और सुनता है। आचार्य हेमचन्द्र ने समराइच्चकहा को सकलकथा कहा है । आचार्य उद्योतनसूरि के अनुसार समराइच्चकहा एक धर्मकथा है । धर्मकथा होते हुए भी समराइच्चकहा का यह वैशिष्ट्य है कि धार्मिक उपदेशों का कथा .. में समावेश होते हुए भी कथा धुंधली नहीं हुई है। कथा में धार्मिक उपदेशों के समावेश के कारण उसे धर्मकथा कहना अधिक उचित लगता है। पात्रों के आधार पर यह दिव्य-मानुष पात्रों से युक्त धर्मकथा है। धर्म कथाओं में धर्म, शील, संयम, तप, पुण्य और पाप के रहस्य के सूक्ष्म विवेचन के साथ मानवजीवन और प्रकृति की सम्पूर्ण विभूति के उज्ज्वल चित्र बड़े सुन्दर पाये जाते हैं। जिन धर्मकथाओं में शाश्वत सत्य का निरूपण रहता है, वे अधिक लोकप्रिय रहती हैं। इनका वातावरण भी एक विशेष प्रकार का होता है। यद्यपि सम्प्रदायों की विभिन्नता और देशकाल की विभिन्न ता के कारण धार्मिक कथा-साहित्य में जहाँतहाँ मानवता की खाई जैसी वस्तु दिखलाई पड़ेगी, पर यह सार्वजनीन सत्य नहीं है, क्योंकि प्राकृत धर्मकथा साहित्य में उन सार्वभौमिक और जीवनोपयोगी तथ्यों की अभिव्यंजना की गयी है, जिनसे मानवता का १. प्राकृत भाषा और साहित्य का पालोचनात्मक इतिहास, पृ. ४४८-४.९. २. जा उण धम्मोवायाणगोचरा खमामद्दवज्जवमुत्तितवसंजमसच्चसो यावि चण्णबंभचेर पहाणा अणुत्वयदिसिदेशाणत्थदंडविरई साबय पोसहोववासोवभोग परिभोगातिहि विभाग कलिया अण कंपाकामनिज्जराइपयत्थसंपउत्ता सा धम्मकहा त्ति। समराइचकहा, पृ. ३.. ३. समराइच्चकहा, पृ. ४. ४. वही। Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ [समराइच्चकहा पोषण होता है । धर्मकथा का प्रणेता धर्मोपदेशक से भिन्न है। वह शुष्क उपदेश नहीं देता और न वह किसी धर्मविशेष का आचरण करने की बात ही कहता है । अपनी कथा के माध्यम से कुछ ऐसे सिद्धान्त या उपदेश पाठक के सामने छोड़ देता है, जिससे पाठक स्वयं ही जीवनोत्थानकारी तथ्यों को पा लेता है। इसमें जनता की आध्यात्मिक आवश्यकताओं का निरूपण, भावना जगत् को ऊँचा उठाने का प्रयास एवं जीवन और जगत् के व्यापक सम्बन्धों की समीक्षा मार्मिक रूप में विद्यमान रहती है।' डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री का कथन है कि हरिभद्र ने यद्यपि समराइच्चकहा को धर्मकथा नाम दिया है, पर आद्योपान्त लक्षण मिलाने से वह संकीर्ण कथा ठहरती है। अर्थ और काम पुरुषार्थ की अभिव्यंजना प्रायः प्रत्येक भव की कथा में हुई है। धर्मतत्त्व के साथ अर्थ और कामतत्त्व का सम्मिश्रण भी दूध में चीनी के समान हुआ है । वर्णनात्मक शैली का निखार संकीर्ण कथा में ही सम्भव है । आचार्य हरिभद्र के अनुसार--- "जो धर्म, अर्थ तथा कामरूप त्रिवर्ग का ग्रहण करने से सम्बद्ध है, काव्यकथा रूप से ग्रन्थों में विस्तार से रची गयी है, लौकिक अथवा वैदिक शास्त्रों में जो प्रसिद्ध है, उदाहरण, हेतु तथा कारण से जो संयुक्त है, उसे संकीर्ण कथा कहते हैं। धर्म के साथ अर्थ और कामतत्त्व के सम्मिश्रण के कारण यद्यपि डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री ने इसे संकीर्णकथा माना है तथापि हरिभद्र का मूल उद्देश्य कथा के माध्यम से धर्मतत्त्व का समुपदेश देना ही था, अतः उनके द्वारा इसे धर्मकथा नाम दिया जाना उचित ही है। समराइच्चकहा का मूल स्रोत हरिभद्र ने अपनी प्राकृत कथाओं के सृजन में अपने से पूर्ववर्ती सभी परम्पराओं से कुछ-न-कुछ सामग्री ग्रहण की है । युगगुरु के रूप में पर्यटनजन्य भारतव्यापी अनुभव प्राप्त कर कथाओं में विभिन्न देशों के आचार-विचार और रीति-रिवाजों को स्थान दिया है । शंकर, कुमारिल, दिङ्नाग और धर्मकीति के दार्शनिक विचारों का प्रभाव भी हरिभद्र पर कम नहीं है । अतः यह मानना पड़ेगा कि हरिभद्र ने अपनी कथाओं के स्रोत मात्र प्राकृत साहित्य से ही ग्रहण नहीं किये हैं किन्तु संस्कृत साहित्य के विपुल और समृद्ध भण्डार से भी सहायता ग्रहण की है। कथा-स्रोतों के अन्वेषण के लिए निम्नांकित परम्पराओं का अवलम्बन करना आवश्यक है। इन आधार-ग्रन्थों से कथानक-सूत्रों के अतिरिक्त अनेक कल्पनाएँ, वर्णन और प्रसंग भी ग्रहण किये गये हैं १. पूर्ववर्ती प्राकृत साहित्य। २. महाभारत और पुराण । ३. जातक कथाएं। ४. गुणाढ्य की बृहत्कथा। ५. पंचतन्त्र । ६. प्रकरण ग्रन्थ और श्रीहर्ष के नाटक । ७. दण्डी, सुबन्धु और बाण के कथाग्रन्थ । १. हरिभद्र के प्राकृत कथा साहित्य का मालोचनात्मक परिशीलन, पृ. १०९ २. समराइचकहा, पृ. ३. Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका समराइच्चकहा के कथानक-स्रोत पर विचार करते समय दृष्टि 'गुरुवयण पंकयाओ सोऊण' (समराइच्चकहा) पर जाती है । इससे अवगत होता है कि हरिभद्र के पहले भी समराइच्चकहा की कथावस्तु का ज्ञान था और यह पहले से ही 'संग्गहणो गाहा' में अंकित थी। यह सत्य है कि समराइच्चकहा के कर्ता हरिभद्र ने समस्त आगमिक साहित्य का अध्ययन, अनुशीलन और अवगाहन कर अपनी कथाओं के लिए कल्पनाएँ, उपदेशतत्त्व एवं वर्णन प्रसंग ग्रहण किये हैं। परन्तु प्रधान रूप से उवासगदसाओ, विपाकसूत्र और भगवतीसूत्र से समराइच्चकहा के लिए अनेक कल्पनाएं और वर्णन-प्रसंग लिये गये हैं। इन गृहीत तत्त्वों को समराइच्चकहा में ज्यों के त्यों रूप में देखा जा सकता है। वसुदेवहिण्डी तो कथानक-योजना के लिए प्रधान स्रोत है । मुख्य कथा के लिए उपादानसूत्र यहीं से ग्रहण किया गया है । यह सत्य है कि हरिभद्र ने वसुदेवहिण्डी से कथासूत्र ग्रहण करने पर भी उसमें अपनी कल्पना का पूरा उपयोग किया है और कथा के ताने-बाने को पूरा विस्तार देकर नवीनता प्रदान की है । जिस प्रकार मणि खान से निकलने पर भद्दी और असुन्दर मालूम पड़ती है, पर वही जब खराद पर चढ़ा दी जाती है तो सुडौल और सुन्दर दिखाई पड़ने लगती है । यही तथ्य हरिभद्र के साथ लागू है, इन्होंने प्रधान कथासूत्र वसुदेवहिण्डी से ग्रहण किया है, किन्तु उसे इतने सुन्दर और कुशल ढंग से सजाया तथा विस्तृत किया है जिससे इनकी कथाशक्ति की निपुणता व्यक्त होती है।' समराइच्चकहा के साथ अन्य ग्रन्थों का तुलनात्मक अध्ययन करने पर निम्नलिखित जानकारी प्राप्त होती है १. समराइच्चकहा के प्रथम भव की कथा का स्रोत 'वसुदेवहिण्डी' का 'कंसस्स पुव्व भवो' कथानक है। २. समराइच्चकहा के द्वितीय भव में आया हुआ 'मधुबिन्दु' दृष्टान्त वसुदेवहिण्डी में 'विसयसुहोवमाए महुबिन्दुदिद्रुतं' नाम से आया है। ३. समराइच्चकहा के छठे भव का धरण और देवनन्दी का कथानक वसुदेवहिण्डी के 'इन्भदारयदुगकहा संबंधो' नामक कथा में ज्यों का त्यों मिलता है । धरण का चरित्र वसुदेवहिण्डी के नन्दिसेन के चरित्र से बहुत कुछ अंशों में मिलता है। कथा का उतार-चढ़ाव भी दोनों ग्रन्थों में समान है। ४. समराइच्चकहा में नवम भव में कालचक्र का वर्णन किया गया है । वसुदेवहिण्डी के 'उसभसामिचरियं' में यह कालचक्र ज्यों का त्यों मिलता है। ५. समराइच्चकहा में अनेक नगर तथा पात्रों के नाम भी वसुदेवहिण्डी से ग्रहण किये गये हैं। ६. समराइच्चकहा के द्वादश व्रत और अतिचारों का वर्णन हरिभद्र ने 'उवासगदसाओ' से ग्रहण किया है। ७. विपाकसूत्र में वणित विजयमित्र सार्थवाह की जलयात्रा समराइच्चकहा के धनसार्थवाह की जलयात्रा से समता रखती है। ८. समराइच्चकहा के चोर और पल्लीपतियों का वर्णन विपाकसूत्र के कुछ वर्णनों से प्रभावित है। ६. कर्म-परम्परा, पुनर्जन्मवाद और कर्मफल के निरूपण में हरिभद्र ने विपाकसूत्र से पूरी तरह सहायता ली है। १. हरिभद्र के प्राकृत कथा साहित्य का आलोचनात्मक परिशीलन पृ. १८७-१८८. समराइचचकहा के मूल स्रोत की विस्तृत जानकारी के लिए भी डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री का यही ग्रन्थ देखिए। Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ समराइचकहा १०. उत्तराध्ययन सूत्र का मृगापुत्र आख्यान हरिभद्र को अपने पात्रों को विरक्ति की ओर ले जाने में प्रेरक हुआ होगा। ११. समराइच्चकहा के नवम भव की कथा में समरादित्य अपने माता-पिता की प्रसन्नता के लिए विभ्रमवती और कामलता नामक दो युवतियों से विवाह कर लेता है पर उन दोनों को आध्यात्मिक उपदेश देकर आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत दे देता है । इस सन्दर्भ का स्रोत महाभारत के शान्तिपर्व में आये हुए श्वेतकेतु और सुवर्चला के विवाह को मान सकते हैं । श्वेतकेतु विवाह के अनन्तर सुवर्चला को आध्यात्मिक उपदेश देता है और इन्द्रियविजयी होने के लिए कहता है।। १२. समराइच्चकहा के नवें भव में कुमार समरादित्य बुढ़ापा, रोग और मृत्यु के दृश्य देखकर विरक्त हो जाता है । निदानकथा के अनुसार भगवान बुद्ध को भी कुमारावस्था में तीनों दृश्य दिखाई दिये थे, जिससे उनका मन संसार से विरक्त हो गया था । १३. हरिभद्र के नारिकेल वृक्ष के समान सोमदेव के कथासरित्सागर में (जो गुणाढ्य का बृहत्कथा का संस्कृत रूपान्तर है) एक विशाल वटवृक्ष का वर्णन आया है। इस वृक्ष की जड़ों में धननिधि के रहने की बात कही गयी है। १४. मृच्छकटिक के चारुदत्त और समराइच्चकहा के महेश्वरदत्त में पर्याप्त साम्य है। १५. समराइच्चकहा के एक प्रसंग में शान्तिमती अपने पति के वन में मिलने से दुःखी होकर अशोक वृक्ष में लताओं का पाश बनाकर फांसी लगाने का प्रयास करती है । उक्त कथानक का स्रोत रत्नावली में सागरिका द्वारा लतापाश से फांसी लगाकर मरने की तैयारी रूप घटना हो सकती है। १६. समराइच्चकहा के समुद्र, वन, नदी, पर्वत, नगर और प्रासादों के वर्णन की पद्धति का स्रोत कादम्बरी को माना जा सकता है। समराइच्च क हा के अनुसार आचार्य हरिभद्र' हरिभद्र को जन्म भूमि-भद्रेश्वर की कहावली (लगभग बारहवीं शती) में आचार्य हरिभद के जन्मस्थान का नाम 'पिवंगुई बभपुणी' कहा गया है । अन्य ग्रन्थों में उनका जन्म-स्थान चित्रकूट-चित्तौड़ कहा गया है। पं० सुखलाल जी संघवी ब्रह्मपुरी को चित्तौड़ के आसपास का ही एक कस्बा या नगर का ही एक भाग मानते हैं । चित्तौड़ की सूचना देने वाले ग्रन्थों में उपदेश पद की मुनि चन्द्रसूरिकृत टीका (वि० सं० ११७४), गणधरसार्धशतक की सुमतिगगिकृत वृत्ति (वि० सं० १२९५), प्रभाचन्द्रकृत प्रभावकचरित्र (वि० सं० १३३४) तथा राजेश्वरसूरिकृत प्रबन्धकोश (वि० सं० १४०५) इत्यादि ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं। माता-पिता-हरिभद्र के माता-पिता का नाम केवल 'कहावली' में ही उपलब्ध होता है। उसमें माता का नाम गंगा और पिता का नाम शंकरभट्ट कहा गया है । भट्ट शब्द ही सूचित करता है कि वह जाति से .. ब्राह्मण थे। समय --आचार्यश्री जिनविजय जी ने हरिभद्र का जीवनकाल वि० सं० ७५७ से ८२७ तक निर्धारित किया है । इस निर्णय पर आने के अनेक प्रमाणों में से एक विशेष उल्लेखनीय प्रमाण उद्योतनसूरि १. आचार्य हरिभद्र के सम्बन्ध में राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर से प्रकाशित 'समदर्शी प्राचार्य हरिभद्र' (ले, पं. सुखलाल जी संघवी) ग्रन्थ देखिए । Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका ] (उपनाम-दाक्ष्यचिह्न) कृत कुवलयमाला की प्रशस्ति गाथाएं हैं। उद्योतनसूरि ने अपनी कुवलयमाला की समाप्ति का समय एक दिवस न्यून शक संवत् ७०० अर्थात् शक संवत ७०० की चैत्र कृष्ण चतुर्दशी लिखा है और उन्होंने अपने प्रमाण-न्यायशास्त्र के विद्यागुरु के रूप में हरिभद्र का निर्देश किया है । इस समय के साथ पूरी तरह से मेल खाने वाले अनेक ग्रन्थ एवं ग्रन्थकारों के उल्लेख हरिभद्र के विविध ग्रन्थों में मिलते हैं और इससे हरिभद्र का उपरिनिर्दिष्ट सत्ता-समय निर्विवाद सिद्ध होता है।' . हरिभद्र का जीवन-कहावली में प्राप्त विवरण के अनुसार हरिभद्र एक ब्राह्मण-पूत्र थे। उन्होंने प्रतिज्ञा की थी कि वह जिसका कथन नहीं समझ सकेंगे, उसके शिष्य हो जायेंगे। एक समय हरिभद्र चित्तौड़ आये । वहाँ जिनदत्ताचार्य के संघ में याकिनी नाम की एक साध्वी रहती थी । एक दिन हरिभद्र ने उसके मुख से निम्नलिखित गाथा सुनी चक्किदुगं हरिपणगं पणगं चक्कोण केसवो चक्की। केसव चक्की केसव दु चक्की केसी अ चक्की अ॥ -आवश्यकनियुक्ति, गाथा ४२७ हरिभद्र उपर्युक्त गाथा का अर्थ न समझ सके । उन्होंने साध्वी से उस गाथा का अर्थ पूछा तो वह अपने गुरु के पास ले गयी। गुरु जिनदत्ताचार्य ने गाथा का अर्थ समझाया । हरिभद्र ने अपनी प्रतिज्ञा की बात कही। आचार्य ने साध्वी का धर्मपुत्र हो जाने के लिए कहा। हरिभद्र ने धर्म का फल पूछा । आचार्य ने कहा कि सकामवृत्ति वालों के लिए स्वर्ग-प्राप्ति और निष्काम कर्म वालों के लिए भवविरह धर्म का फल है । हरिभद्र ने भवविरह की इच्छा प्रकट की और जिनदत्ताचार्य ने उन्हें जिनदीक्षा दे दी । हरिभद्र के जिनभद्र और वीरभद्र नाम के दो शिष्य थे। उस समय चित्तौड़ में बौद्ध मत का प्राबल्य था और बौद्ध हरिभद्र से ईर्ष्या करते थे। एक दिन बौद्धों ने हरिभद्र के दोनों शिष्यों को एकान्त में मार डाला । यह सुनकर हरिभद्र को बहुत दुःख हुआ और उन्होंने अनशन करने का निश्चय किया। प्रभावक पुरुषों ने उन्हें ऐसा करने से रोका और हरिभद्र ने ग्रन्थराशि को ही अपना पुत्र मान उसकी रचना में चित्त लगाया। ग्रन्थ-निर्माण और लेखनकार्य में जिनभद्र वीरभद्र के काका लल्लिक ने बहुत सहायता की। हरिभद्र जब भोजन करते थे तब लल्लिक शंख बजाता था। उसे सुनकर बहुत से याचक एकत्र हो जाते थे। हरिभद्र उन्हें 'भवविरह करने में प्रयत्न करो' कहकर आशीर्वाद देते थे। इससे हरिभद्र सूरि भवविरहसूरि के नाम से प्रसिद्ध हो गये थे। अपनी कृतियों के अन्त में उन्होंने विरह मुद्रा का प्रयोग किया है। उदाहरणार्थ, समराइच्चकहा के अन्त में निम्नलिखित पंक्तियाँ हैं, जिनमें 'भवविरह' शब्द का प्रयोग किया गया है वक्खायं जं भणियं समराइच्चकहा गिरिसेण पाणो उ । एक्कस्स तओ मोक्खोऽणंतो वीयस्स संसारो ॥ गुरुवयणपंकयाओ सोऊण कहाणयानुराएण । अनिउणमइणा वि वढं बालाइ अणुग्गहट्ठाए । अविरहियनाणसणचरियगुणवरहस्स विरइयं एवं । जिनदत्तायरियस्स उ सोसाणवयवेण चरियं ति ॥ १. समदर्शी आचार्य हरिभद्र , पृ. ८-९ 2. न्यायकुमुदचन्द्र (प्रस्तावना) भाग-१, पृ. ३३. " Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ जं विरइऊण पुण्णं महाणुभावचरियं मए पसं तेण इहं भवविरहो होउ सया भवियलोयस्स ॥ मुनि कल्याणविजय ने हरिभद्र की दाशवैकालिक टीका, आवश्यकवृत्ति, प्रज्ञापनाप्रदेश, षड्दर्शनसमुच्चय और लोकतत्त्वनिर्णय को इस प्रकार की कृतियों में गिनाया है, जिनमें अन्त में विरहपद नहीं है। हरिभद्र का कार्यक्षेत्र गुजरात और राजपूताना रहा। कल्याणविजय जो के उल्लेखानुसार हरिभद्र ने पोरवाड़ जाति को जैन बनाया ।' हरिभद्र की रचनाएँ पं. सुखलाल जी संघवी ने अपने ग्रन्थ 'समदर्शी आचार्य हरिभद्र' के परिशिष्ट २ में हरिभद्र के ग्रन्थों की तालिका निम्नलिखित रूप से दी हैं [ समराइच्चकहा -- आगम ग्रन्थों को टीकाएँ १. अनुयोगद्वारविवृति, २. आवश्यक बृहत्टीका, ३. आवश्यक सूत्रविवृति, ४ चैत्रवन्दनसूत्रवृत्ति अथवा ललिता स्वित्तरा, ५. जीवाभिगमसूत्र लघुवृत्ति, ६. दशवैकालिक टीका, ७. न द्ययन टीका, ८. पिण्डनिर्युक्तिवृत्ति, ६. प्रज्ञापनाप्रदेश व्याख्या | आगमिक प्रकरण, आचार, उपदेश - १. अष्टक प्रकरण, २. उरदेश पद ( प्राकृत), ३. धर्मबिन्दु, ४. पंचवस्तु ( प्राकृत स्वोपज्ञ संस्कृत टीका युक्त), ५. पंचसूत्र व्याख्या, ६. पंचाशक (प्राकृत) ७. भावना सिद्धि, ८. लघुक्षेत्र समास या जम्बूद्वीप क्षेत्र समासवृत्ति, ६ वर्गकेवलिसूत्रवृत्ति १०. बीस विशिकाएं ( प्राकृत), ११. श्रावकधर्मविधिप्रकरण, १२. श्रावकप्रज्ञप्तिवृत्ति, १३. सम्बोधप्रकरण १४. हिंसाष्टक | दर्शन - १ अनेकान्त जर पताका (स्वोपज्ञ टीका युक्त), २. अनेकान्तवाद- प्रवेश, ३. अनेकान्तसिद्धि, ४. आ-मसिद्धि, ५. तत्त्वार्थसूत्र लघुवृत्ति, ६. द्विजवदन चपेटा, ७. धर्मसंग्रहणी ( प्राकृत), ८. न्यायप्रवेशटीका, ६. न्यायावतारवृत्ति, १०. लोकतत्त्वनिर्णय, ११. शास्त्र वार्तासमुच्चय (स्वोपज्ञ टीका युक्त) १२. षड्दर्शनसमुच्चय, १३. सर्वज्ञसिद्धि (स्वोपज्ञ टीका युक्त), १४ स्याद्वादकुचोद्यपरिहार । योग - १. योगदृष्टिसमुच्चय (स्वोपज्ञ टीका युक्त), २ योगबिन्दु, ३. योगविंशतिका [ ( प्राकृत ) affar के अन्तर्गत ], ४. योगशतक ( प्राकृत), ५. षोडशक प्रकरण । कथा - १ धूर्ताख्यान ( प्राकृत), २. समराइच्चकहा ( प्राकृत ) । ज्योतिष -- १. लग्नशुद्धि-लग्न कुण्डलिया ( प्राकृत) । स्तुति - १. वीर स्तव, २. संसारदावानल स्तुति । इसके अतिरिक्त निम्नलिखित ग्रन्थ आचार्य हरिभद्र के नाम से चढ़े हुए हैं। परन्तु इसके निर्णय के लिए अधिक प्रमाणों की अपेक्षा है १. अनेकान्तप्रघट्ट, २ अर्हच्चड़ामणि, ३. कथाकोष, ४. कर्मस्तववृत्ति, ५. चैत्यवन्दनभाष्य, ६ ज्ञानपंचक विवरण, ७. दर्शनसप्ततिका, ८. धर्मलाभसिद्धि, ६. धर्मसार, १०. नाणायत्तक ११. नामचित्तप्रकरण, १२. न्यायविनिश्चय, १३. परलोक सिद्धि, १४. पंचनियठी, १५ पंचलिंगी, १६ प्रतिष्ठा कल्प, १७. बुहन्मिथ्यात्वमंथन, १५. बोटिक प्रतिषेध, १६. यतिदिनकृत्य, २० यशोधरचरित्र, २९. वीरांगदकथा, २२. वेदबाह्यतानिराकरण, २३. संग्रहणिवृत्ति, २४. संपंचासित्तरी, २५. संस्कृतआत्मानुशासन, २६. व्यवहारकल्प | हरिभद्र की विद्वत्ता - हरिभद्र की रचनाओं की तालिका देखने पर ज्ञात होता है कि हरिभद्र बहुश्रुत १. धर्म संग्रहणी, प्रस्तावना, पू. ७ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका ] विद्वान् थे । हरिभद्र ने याकिनी महत्तरा को धर्ममाता के रूप में स्वीकार कर अपने को जैन साहित्य में प्रवीण बनाया। इस प्रकार अन्य धर्म के आचार्यों को पराजित करने का पूरा लाभ उन्हें प्राप्त हो गया। उन्होंने संस्कृत और प्राकृत दोनों भाषाओं में लिखा । आचार्य समन्तभद और सिद्धस्न के बाद अकलंक उन समर्थं आचार्यों में अग्रगण्य थे जिन्होंने संस्कृत को जैन धर्म की साहित्यिक भाषा बन ने में गति दी। हरिभद्र जैन सिद्धान्तों को सामने लाये और दूसरे दर्शनों के समक्ष उनकी सत्यता स्थापित की। उनकी साहित्यिक गति-विधि आश्चर्यजनक थी । आचार्य अभयदेव (१०६६ ई.) ने अपने ग्रन्थ पञ्चाशकटीका के अन्त में लिखा है"समाप्ता चेयं शिष्यहिता नाम्नासितपटल - प्रधानप्रावचनिकपुरुष प्रव रचतुर्दश शतसंख्या प्रकरण प्रबन्धप्रणायि सुगृहीतनामधेय श्रीहरिभद्रसूरिविरचित पञ्चाशकाख्य प्रकरणटीकेति । " प्रो. एम. सी. मोदी ने समराइच्चकहा ( प्रथम और द्वितीय भव) की अंग्रेजी प्रस्तावना में लिखा है "Haribhadra, however seems of have wandered for and wide in upper India with which he shows much acquaintance in his 'Sama aircakaha' though he does not seem to have crossed the Vindhya Mountains. There is ample ground to believe that he must have also travelled in Eastern India where Budhism still was flourishing. and it is there that he acquired sound knowledge of Buddhist Philosophy and Logic. He seems to have appreciated Buddhist Logic as is shown by his commentary on Dignaga's Nyaya. Pravesa and extensive quotation from and re pectfu mention of Dharmakirti. He also sawed महानिशीथ from being destroyed. To quote प्रभावकचरित -- "चिरविलिखितवर्णशीर्णभग्नप्रविवर पत्रसमूह स्तकस्थम् । कुशलमतिरिहोद्दधार जंनोपनिषदिकं स मह निशीथसूत्रम् ॥" अर्थात् हरिभद्र उत्तर भारत के विस्तृत क्षेत्र में घूमे प्रतीत होते हैं जैसा कि समराइच्चकहा में उनकी जानकारी से स्पष्ट होता है, फिर भी उन्होंने विन्ध्याचल को पार नहीं किया। इस बात पर विश्वास करने का बड़ा आधार है कि उन्होंने पूर्वी भारत की सैर की होगी, जहाँ पर बौद्ध धर्म अब भी फल-फूल रहा था और उन्होंने वहीं बौद्धदर्शन और न्याय का गम्भीर ज्ञानार्जन किया। उन्होंने बौद्धन्याय का मूल्यांकन किया प्रतीत होता है, जैसा कि उनकी दिङ्नाग की न्यायप्रवेश की रोका का और धर्मकीर्ति का सम्मानपूर्वक निर्देश करने से प्रकट है। उन्होंने महानिशीथसूत्र को नष्ट होने से बचाया। प्रभावकचरित में कहा गया है चिरविलिखितवर्णशीर्ण भग्न प्रविवरपत्रमा हपुस्तकस्थम । कुशलमतिरिहोद्दधार जैनोपनिषदकं स महानिशीथसूत्रम ॥' " हरिभद्र की यह विशेषता है कि उन्होंने अपने प्रतिपक्षी के प्रति जैसी हार्दिक बहुमानवृत्ति प्रदर्शित १, समराइचचकहा (भविवियं) - प्रस्तावना । १७ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ [ समराइज्यका की है, वैसी दार्शनिक क्षेत्र में किसी दूसरे विद्वान् ने, कम से कम उनके समय तक तो प्रदर्शित नहीं की' । शान्तरक्षित ने भिन्न-भिन्न स्थानों पर जैन मन्तथ्यों की परीक्षा की है तो हरिभद्र ने बौद्ध मन्तव्यों की, परन्तु दोनों के दृष्टिकोण भिन्न हैं । शान्तरक्षित मात्र खण्डनपटु हैं, किन्तु हरिभद्र तो विरोधी मत की समीक्षा करने पर भी, जहाँ तक सम्भव हो कुछ सार निकालकर उस मत के पुरस्कर्ता के प्रति सम्मानवृत्ति भी प्रदर्शित करते हैं । क्षणिकवाद, विज्ञानवाद और शून्यवाद - इन तीनों बौद्धवादों की समीक्षा करने पर भी हरिभद्र इन वादों के प्रेरक दृष्टि-बिन्दुओं को अपेक्षा - विशेष से न्याय्यस्थान देते हैं और स्वसम्प्रदाय के पुरस्कर्ता ऋषभ, महावीर आदि का जिन विशेषणों से वे निर्देश करते हैं, वैसे ही विशेषणों से उन्होंने बुद्ध का भी निर्देश किया है और कहा है कि बुद्ध जैसे महामुनि एवं अहंत की देशना, अर्थहीन नहीं हो सकती। ऐसा कहकर उन्होंने सूचित किया है कि क्षणिकत्व की एकांगी देशना आसक्ति की निवृत्ति के लिए ही हो सकती है । " इसी भाँति बाह्य पदार्थों में आसक्त रहनेवाले, आध्यात्मिक तत्त्व से नितान्त पराङ्मुख अधिकारियों को उद्देश्य करके ही बुद्ध ने विज्ञानवाद का उपदेश दिया है तथा शून्यवाद का उपदेश भी उन्होंने जिज्ञासु अधिकारी विशेष को लक्ष्य में रखकर ही दिया है, ऐसा मानना चाहिए। कई विज्ञानवादी और शून्यवादी बौद्ध आचार्यों के सामने इतर बौद्ध विद्वानों की ओर से प्रश्न उपस्थित किया गया है कि तुम विज्ञान और शून्यवाद की हो बातें करते हो, परन्तु बौद्ध पिटकों में जिन स्कन्ध, धातु, आयतन आदि बाह्य पदार्थों का उपदेश है, उनका क्या मतलब है ? इनके उत्तर में स्वयं विज्ञानवादियों और शून्यवादियों ने भी अपने सहबन्धु बौद्ध प्रतिपक्षियों से हरिभद्र के जैसे ही मतलब का कहा है कि बुद्ध की देशना अधिकार-भेद से है । जो व्यक्ति लौकिक स्थूल भूमिका में होते थे उन्हें वैसे ही और उन्हीं की भाषा में बुद्ध उपदेश देते थे । हरिभद्र बौद्ध नहीं हैं । फिर भी बौद्धवादों को अधिकार-भेद से योग्य स्थान देकर वे यहाँ तक कहते हैं कि बुद्ध कोई साधारण व्यक्ति नहीं हैं, वह तो एक महान् मुनि हैं और ऐसा होने से बुद्ध जब असत्य का आभास कराने वाला वचन कहें, तब वे सुवैद्य की भाँति विशेष प्रयोजन के बिना वैसा नहीं कह सकते । इस प्रकार हरिभद्र की यह महानुभावता दर्शन-परम्परा में एक विरल प्रदान है । " पं. दलसुख मालवणिया का कथन है कि हरिभद्र के दो रूप दिखाई पड़ते हैं - एक वह रूप जो धूर्ताख्यान जैसे ग्रन्थों के लेखक के रूप में तथा आगमों की टीका के लेखक के रूप में है । इसमें आचार्य हरिभद्र एक कट्टर साम्प्रदायिक लेखक के रूप में उपस्थित होते हैं। उनका दूसरा रूप वह है जो शास्त्रवार्तासमुच्चय आदि दार्शनिक ग्रन्थों में और उनके योगविषयक अनेक ग्रन्थों में दिखाई पड़ता है। इनमें विरोधी के साथ समाधानकर्ता के रूप में तथा विरोधी की भी ग्राह्य बातों के स्वीकर्ता के रूप में आचार्य १. पं. सुखलाल संघवी : समदर्शी आचार्य हरिभद्र, पृ. १०९ । २. न चतदपि न न्याय्यं यतो बुद्धो महामुनिः । सुवद्विना कार्य द्रव्यासत्यं न भाषते । शास्त्रवार्तासमुच्चय, ४६६ ३. अन्ये स्वभिदधत्येवमेतदास्यानिवृत्तये । क्षणिकं सर्वमेवेति बृद्धेनोक्तं न तत्वतः ।। वही, ४६४ ४. विज्ञानमात्रमप्येवं बाह्यसंगनिवृत्तये । विनेयान् कश्चिदाश्रित्य यद्वा तद्देशनार्हतः ॥ वही, ४६५ एवं च शून्यवादोऽपि तद्विनेयानुगुण्यतः । अभिप्रायत इत्युक्तो लक्ष्यते तत्ववेदिना । वही ४७६ ५. पं. पुखलाल संघवी : समदर्शी आचार्य हरिभद्र, पू. ५७,५९ । Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका ] हरिभद्र उपस्थित होते हैं। उनका यह दूसरा रूप सम्भवतः विद्यापरिपाक का फल है । अतएव वह उनके जीवनकाल की उत्तरावधि में ही सम्भव है । जैनधर्म के बाह्य आचार-विचार के समर्थक के रूप में उनकी प्राथमिक स्थिति है, जबकि तास्विक धर्म के समर्थक रूप में वे एक परिनिष्पन्न चिन्तक हैं। किसी भी अन्तर्मुख व्यक्ति के जीवन का ऐसा होना स्वाभाविक है । सम्भव है उन्होंने केवल योग के ग्रन्थ ही नहीं लिखे, कुछ योगसाधना भी की होगी । उसी का परिणाम है कि जीवन में धार्मिकता का स्थान उदारता ने ले लिया ।" हरिभद्र का षड्दर्शनसमुच्चय षड्दर्शनों के स्वरूप को समझने का उपयोगी ग्रन्थ है । इसकी रचना उन्होंने केवल उन दर्शनों के मान्य देव और तत्त्व को यथार्थ रूप में निरूपित करने की प्रतिपादनात्मक दृष्टि से की है, किसी का खण्डन करने की दृष्टि से नहीं । हरिभद्र ने षड्दर्शन के अन्तर्गत चार्वाक् को भी स्थान दिया है। न्याय एवं वैशेषिक दर्शन को वे भिन्न नहीं मानते हैं । योग ग्रन्थों के प्रणयन से पूर्व हरिभद्र ने एतद्विषयक अन्य भारतीय ग्रन्थों का गम्भीर आलोडन किया था । वे सांख्य-योग, शैव-पाशुपत और बौद्ध आदि परम्पराओं के योग-विषयक प्रस्थानों से विशेष परिचित थे | गीता के संन्यास शब्द को सर्वप्रथम हरिभद्र ने जैन-परम्परा में अपनाया । उन्होंने धर्मसंन्यास योगसंन्यास और सर्व संन्यास के रूप में त्रिविध संन्यास का निरूपण किया। वे सदाशिव, परब्रह्म, सिद्धात्मा तथा तथता आदि सभी नामों को एक निर्वाण तत्त्व के बोधक कहकर उस नाम से निर्वाण तत्त्व का निरूपण एवं अनुभव करने की शक्ति के बारे में विवाद करने का निषेध करते हैं । गीता में 'बुद्धिर्ज्ञानमसम्मोह:' पद आता है। हरिभद्र इस पद को लेकर बुद्धि की अपेक्षा ज्ञान की कक्षा और ज्ञान की अपेक्षा असम्मोह की कक्षा कैसी ऊँची है - यह रत्न की उपमा देकर समझाते हैं और अन्त में कहते हैं कि सदनुष्ठान में परिणत होने वाला आगम ज्ञान ही असम्मोह है । योगबिन्दु में हरिभद्र ने जैनदृष्टि से सर्वज्ञत्व का स्वरूप स्थापित किया है और कुमारिल, धर्मकीर्ति साक्षात् सर्वज्ञत्व विरोधी विचारों का प्रतिवाद किया है । जैसों के दर्शन और योग के समान सर्जनात्मक साहित्य के क्षेत्र में भी हरिभद्र की अबाध गति थी। उनकी व्यंग्यप्रधान रचना धूर्ताख्यान है । इसमें पुराणों में वर्णित असम्भव और अविश्वसनीय बातों का प्रत्याख्यान पाँच धूर्तों की कथाओं द्वारा किया गया है। भारतीय कथासाहित्य में शैली की दृष्टि से इस कथाग्रन्थ का मूर्धन्य स्थान है। लाक्षणिक शैली में इस प्रकार की अन्य रचना दिखलाई नहीं पड़ती । दृढ़तापूर्वक कहा जा सकता है कि व्यंग्योपहास की इतनी पुष्ट रचना अन्य किसी भाषा में सम्भवतः उपलब्ध नहीं है । धूर्तों का व्यंग्यप्रहार ध्वंसात्मक नहीं, निर्माणात्मक हैं । 3 इस प्रकार विविध क्षेत्रों में हरिभद्र ने जो वैदुष्य का परिचय दिया है, वह स्पृहणीय है । १. षड्दर्शनसमुच्चय, प्रस्तावना - पृ. १६ । २. इन्द्रियार्थाश्रया बुद्धिज्ञनिं स्वागमपूर्वकम् । सदनुष्ठानव चर्चेत दसम्मोहोऽभिधीयते ॥ रत्नोपलम्भतज्ज्ञानतत्प्राप्त्यादि यथाक्रमम् । दोदाहरणं साधु ज्ञेयं बुद्ध्यादिसिद्धये ॥ - योगदृष्टिसमुच्चय ११९-१२० ३. प्राकृत भाषा और साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास, पू. ४७४. १६ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०.. [ समराइचकहा समराइच्चकहा की संक्षिप्त कथावस्तु समराइच्चकहा में उज्जैन के राजा समरादित्य और प्रतिनायक अग्निशां के जन्मों (भवों) का वर्णन है। यद्यपि बीच में दोनों के अनेक जन्म हुए, किन्तु कथाकार ने नौ जन्मों को ही प्रमुखता देकर प्रत्येक जन्म की कथा एक-एक भाग में समाप्त की है। इस प्रकार इस ग्रन्थ में नो भव या परिच्छेद हैं। नवों भवों की कथाओं में जन्म की अपेक्षा अन्योन्य सम्बन्ध होते हुए भी प्रत्येक कथा अपने में पूर्ण स्वतन्त्र है। ना प्रतिनायक क्रमश: प्रथम भव में गुणसेन और अपि शर्मा, द्वितीय भव में सिंह और आनन्द के रूप में पिता-पुत्र, ततीय भव में शिखि और जालिनि के रूप में पुत्र तथा माता चौथे भव में धन तथा धनश्री के रूप में पतिपत्नी, पांचवें भव में जय-विजय के रूप से सहोदर भाई, छठे भव में धरण और लक्ष्मी के रूप में पति-पत्नी, सातवें भव में सेन और विसेन के रूप में चचेरे भाई, आठवें भव में गुणचन्द्र और वानमन्तर तथा नवें भव में समरादित्य तथा गिरिसेन चाण्डाल के रूप में उत्पन्न हुए। अनन्तर पहले (जीव) समरादित्य को तो मोक्ष की प्राप्ति हो गयी और दूसरे जीव) को असन्त संसार की प्राप्ति हुई। प्रथम भव की कथा जम्बद्वीप के अपरविदेह क्षेत्र में क्षितिप्रतिष्ठित नाम का नगर था। वहां का राजा नाम और गुणों से पूर्णचन्द्र था । अन्तःपुर में प्रधान उसकी कुमुदिनी नामक रानी थी। उन दोनों के गुणसेन नामक पुत्र था जो बाल्यावस्था से ही बालसुलभ चेष्टाओं से व्यन्तर देव के समान क्रीड़ाप्रिय था। उसी नगर में यज्ञदत्त नाम का पुरोहित था । यज्ञदत्त के अग्निशर्मा नामक पुत्र था । अग्निशर्मा कुरूप था। अतः कुमार गुणसेन कुतूहलवश उसका अनेक प्रकार से उपहास किया करता था। कभी वह उसे जोर से ढोल बजाकर, कभी मृदंग, बाँसुरी तथा मजीरे की ध्वनि की जिसमें प्रधानता होती थी, ऐसे बड़े-बड़े बाजों के साथ नगर के लोगों के बीच तालि बजा-बजाकर हँसता हुआ नाचता था, कभी गधे पर चढ़ाता और कभी हर्षित होकर बहुत से बच्चों से घिरवाता था। इस प्रकार प्रतिदिन मानो यम के द्वारा सताये गये उस अग्निशर्मा के अन्दर वैराग्यभावना उत्पन्न हो गयी। वह नगर से निकल पड़ा और एक मास में ही उस देश की सीमा पर स्थित सुपरितोष नामक तपोवन में पहुंचा। वहाँ कुछ दिन रहकर उसने कुलपति आर्जब कौण्डिन्य से दीक्षा ले ली। दीक्षा के दिन जब कि समस्त तापस गुरु के चारों ओर कठे थे, उसने एक बहुत बड़ी प्रतिज्ञा की कि मैं आजीवन माह में एक बार भोजन करूँगा। व्रतान्त भोजन के दिन सबसे पहले जिस घर में जाऊँगा, वहाँ आहार मिले तो ठीक, नहीं तो लौट जाऊँगा, भोजन के लिए दूसरे घर नहीं जाऊँगा। राजा पूर्णचन्द्र गुणसेन को राजपद पर भषिक्त कर। रानी कुमुदिनी के साथ तपोवनवासी हो गया । एक बार गुणसेन वसन्तपुर आया । वसन्तपुर के समीप सुपरितोष नामक तपोवन में उसने आर्जवकौण्डिन्य सहित समस्त ऋषियों के दर्शन किये और उन्हें भोजन हेतु निमन्त्रित किया। कुलपति ने राजा का निमन्त्रण स्वीकार कर लिया, साथ ही यह भी कहा कि अग्नि गर्मा मासोपवास व्रत पालने के कारण अभी भोजन नहीं कर सकेगा । गुणसेन अग्निशर्मा के पा गया। वह अग्निशर्मा को भूल चुका था। उसने अग्निशर्मा को भोजन हेतु निमन्त्रित किया। अग्निशम ने पाँच दिन बाद पारणा के दिन राजा के घर भोजन करना स्वीकार कर लिया। पाँच दिन बाद जब वह गुणसेन के महल में गया तो उसे ज्ञात हुआ कि राजा भयंकर शिरोवेदना से पीड़ित है, फलतः वह बिना आहार लिये ही वहाँ से लौट आया। राजा की जब शिरोवेदना शान्त हुई और अग्निशर्मा के लौटने का जब वृत्तान्त ज्ञात हुआ तो उसे Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका ] बड़ा पछतावा हुआ । उसने जाकर अग्निशर्मा से पुनः भोजन का निमन्त्रण स्वीकार करने की प्रार्थना की। अग्निशर्मा ने स्वीकृति दे दी। दूसरी बार अग्निशर्मा भोजन के लिए आया तो समीपवर्ती राजा मानभंग के आक्रमण के कारण उसने राजा के परिचारक वगैरह को घबड़ाहट में पाया। राजा को भी अग्निशर्मा के आने की बात ध्यान में नहीं रही । अन्त में किसी से भी कोई सरकार न पाकर अग्निशर्मा पुनः लौट गया। राजा ने तीसरी बार पुनः भोजन हेतु अग्निशर्मा को निमन्त्रित किया। अग्निशर्मा महल पर आया। उस दिन राजा के पुत्र का जन्म हुआ था, अतः बधाई देने वालों का तांता लगा था। राजभवन खुशियों से झूम उठा था । किसी को भी अग्निशर्मा को भोजन देने की सुधि नहीं रही। अत: अग्नि शर्मा तपोवन वापस आ गया । उसका मन राजा के प्रति द्वेष से भर गया । उसकी परलोक की इच्छा नष्ट हो गयी, धर्म के प्रति श्रद्धा जाती रही। समस्त दुःखों की बीजभूत शत्रुता आ गयी तथा क्षुधा-वेदना ने उसे आकर्षित कर लिया । अज्ञान और क्रोध के कारण उस मूढ़ हृदय ने यह घोर निदान (संकल्प) किया कि चिरकाल तक किये हुए इस व्रतविशेष का यदि कोई फल हो तो इस राजा के वध के लिए ही मेरा प्रत्येक दूसरा जन्म हो। उधर राजा बहुत दुःखी हुआ। उसे अग्निशर्मा के समी। जाकर पुनः आग्रह करने का साहस नहीं हुआ। उसने सोमदेव पुरोहित को जानकारी के लिए भेजा। सोनदेव ने सब समाचार प्राप्त कर राजा को निवेदित कर दिया। राजा पुनः अपने अन्तःपुर और परिजनों के साथ तपोवन में आया। उसने कुलपति के दर्शन किये । कुलपति अग्निशर्मा के भावों का अनुमान लगा चुके थे अतः उन्होंने राजा को अग्निशर्मा का दर्शन न करने की सलाह दी। अत्यन्त पश्चाताप से दुःखी-हृदय राजा वसन्तपुर आया और उसने वसन्तपुर को छोड़ने का निश्चय कर लिया । वह पुनः क्षितिप्रतिष्ठित नगर में आकर रहने लगा। क्षितिप्रतिष्ठित नगर में उसी दिन विजयनन नामक आचार्य आये। वे अशोकदत्त सेठ के द्वारा बनवाये हुए जिनायतन से मण्डित अशोकवन नामक उद्यान में ठहरे हुए थे। कल्याणक ने राजा को विजयसेन आचार्य के पधारने का समाचार कह सुनाया। राजा दूसरे दिन समस्त विघ्नों से निवृत होकर आचार्यश्री की वन्दना के लिए गया । जाकर वह सुखपूर्वक बैठा और आचार्य महाराज से निवेदन किया कि उन्होंने मुनिधर्म क्यों अंगीकार किया। प्रत्युत्तर में आचार्य ने निम्नलिखित कथा सुनायी विजयसेन-कथा-मैं गान्धारदेश के गान्धारपुर जनपद का निवासी हूँ। मेरे दूसरे हृदय के समान सोमवसु पुरोहित का पुत्र विभावसु मेरा मित्र था। ज्वर रोग से पीड़ित होकर वह मृत्यु को प्राप्त हो गया। उसी समय संयमानुसार विहार करते हुए वर्षावास के लिए चार साधु आये । वे नगर के समीप में ही महामहती नामक पर्वतीय गुफा में ठहर गये। समाचार प्राप्त कर मैं उनके दर्शन के लिए गया। हर्ष से प्रसन्न मुखकमल वाला होकर मैंने उनकी वन्दना की, अनन्तर उनसे धर्म मार्ग पूछा । मुनियों ने उपदेश दिया। प्रतिदिन उनकी सेवा करते हुए जब चार माह बीत गये, उनके गमन करने की अन्तिम रात्रि मैंने उन्हें केवलज्ञान से विभूषित पाया। उस समय आनन्द से उत्पन्न आँसुओं से मेरे नेत्र भर आये थे, रोमांच से अंग पुलकित हो रहा था, आश्चर्य से मेरे नेत्र विकसित हो गये थे। उस प्रकार की अनिर्वचनीय अवस्था का अनुभव कर वन्दना करके मैं उनके समक्ष बैठ गया। केवली ने कथा प्रस्तुत की । देव और मनुष्य अपने हृदय की इष्ट कथा पूछने लगे। तब मैंने भी भगवान् केवली से पूछा-यहाँ से कुछ समय पूर्व मेरा मित्र विभावसु मृत्यु को प्राप्त हो गया । अब वह कहाँ पर उत्पन्न हुआ होगा ? केवली ने कहा-'इसी गान्धारपुर में पुष्यदत्त नाम का धोबी है, उसकी मधुपिंगा नामक पालतू कुतिया है, उसके गर्भ में कुत्ते के रूप में उत्पन्न हुआ है । वह अत्यन्त कठोर रस्सी से बंधा हुआ, भूख से दुर्बल शरीर वाला, धोबिन के कुण्ड के पास, गधे के Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ समराइज्यकहा २२ बुर के प्रहार से भयभीत हुआ, इस समय यहीं दारुण अवस्था का अनुभव कर रहा है। दूसरे जन्म में आप पुष्करार्ध क्षेत्र के भरतखण्ड की कुसुमपुर नगरी में निवास करनेवाले कुसुमसार नामवाले सेठ के लड़के थे। विभावसु का जीव आपकी श्रीकान्ता नाम की अत्यन्त प्रिय पत्नी थी। इस कारण आपका वियोग से उत्पन्न दुःख शान्त नहीं हो रहा है।' मैंने कुत्ते को लाने के लिए आदमी भेजे। केवली ने कहा कि मेरे मित्र की यह वर्तमान दशा पिछले जन्म में जाति का अभिमान करने के कारण हुई। मदनमहोत्सव के साथ एक बार जब नाना वेश वाली नगर की संगीत मण्डलियाँ निकल रही थीं तब अनेक लोगों के द्वारा प्रशंसनीय वसन्त-क्रीड़ा का अनुभव करती हुई समीप में ही चलनेवाली वस्त्रशोधकों की मण्डली उसे दिखाई दी। इसे देखकर अज्ञान के दोष से जाति कुलादि से गर्वित होकर कैसे नीच संगीत मण्डली हमारी मण्डली के साथ चल रही है ? इस प्रकार धोबियों का तिरस्कार किया। पुष्यदत्त को प्रधान मानकर उसे सिपाही ले गये । मदनमहोत्सव के बाद लोगों ने पुष्यदत्त को छुड़ाया । अत्यधिक मान रूप परिणाम के वशवर्ती हो कुसुमसार ने दूसरे जन्म की आयु बाँध ली। अतः यह कुत्ते के रूप में उत्पन्न हुआ है। आयु पूरी कर इस कुत्ते के भव से निकलकर इसी पुष्यदत्त के घर में प्रसूत घोटघटिका नाम की गधी के गर्भ में गधे के रूप में उत्पन्न होगा। वहाँ से निकलकर पुष्यदत्त के समीपवर्ती मातृदत्त चाण्डाल की अनधिका नामक भार्या की कुक्षि से नपुंसक के रूप में उत्पन्न होगा । अन्त में सिंह द्वारा मरण प्राप्त कर उसी चाण्डाल स्त्री के गर्भ से लड़की के रूप में उत्पन्न होगा। गर्भ से निकलते ही बाल्यावस्था के प्रथम चरण में सर्प के द्वारा काटा । . जाकर वह पुष्यदत्त की दत्तिका नामक गुहदासी की कूख से नपुंसक रूप से उत्पन्न होगा। अन्त में नगरदाह होने पर शरीर भस्म होने से वह उसी गृहदासी के गर्भ में स्त्री के रूप में जन्म लेगा। उत्पन्न होकर वह लड़की पीठ से सरकने वाली हो जायेगी । तब इसी नगर के राजमार्ग पर जाते हुए गर्वीले मतवाले हाथी द्वारा मारी जाकर इसी पुष्यदत्त की कालांजनिका नामक स्त्री के गर्भ से कन्या के रूप में उत्पन्न होगी। पुष्यदत्त उसे पुष्यरक्षित नामक निर्धन पुरुष को देगा। अनन्तर गर्भवती हो वह गर्भं की महान् वेदना से अभिभूत हो मृत्यु प्राप्त कर अपनी माता के ही पुत्र के रूप में उत्पन्न होगी । उत्पन्न होकर गान्धार नदी के किनारे खेलती हुई पुष्यदत्त के चिलात नामक शत्रु द्वारा 'शत्रु का पुत्र है' ऐसा मानकर गर्दन पकड़कर बहुत बड़ी शिला बाँधकर तालाब में फेंक दी जायेगी। इसके निदान की यह समाप्ति है। यह भव्य और मोक्षगामी है। इसे सुनकर मुझे संसार से वैराग्य हो गया । अनन्तर गुणसेन ने शाश्वत स्थान (मोक्ष) के विषय में आचार्यश्री से प्रश्न किया। आचार्यश्री ने उपदेश दिया। गुणसेन माह भर विजयसेन आचार्य के पास जाता रहा विजयसेनाचार्य के दूसरी जगह चले जाने पर राजा ने एक शव को चिता पर ले जाते हुए देखा। इसे देखकर राजा को वैराग्य हो गया। उसने सुबुद्धि आदि मन्त्रियों को बुलाया और विजयसेन आचार्य के समीप दीक्षा लेने का अपना दृढ़ निश्चय कह सुनाया । सबने राजा का अनुमोदन किया । चन्द्रसेन नामक ज्येष्ठ पुत्र को राज्य देकर राजा ने भावपूर्वक दीक्षा धारण कर ली । कल विजयसेनाचार्य के पास जाऊँगा, ऐसा सोचकर वह एकान्त स्थान में रातभर प्रतिमायोग से स्थित रहा। अग्निशर्मा, जो कि मृत्यु के अनन्तर विद्युत्कुमारों में ढाई पत्य की स्थिति वाला देव हुआ था, अवधिज्ञान के द्वारा अपने पूर्वजन्म का वृत्तान्त जानकर गुणसेन के ऊपर क्रोधित हुआ। उसने नरकाग्नि की लपटों के समान अत्यन्त कठोर धूलि की वर्षा गुणसेन पर की गुणसेन ध्यान से किंचित् भी विचलित नहीं हुए जिनेन्द्र भगवान् के वचनों के अनुसार अग्निशर्मा के प्रति मन में मैत्री भाव रख उन्होंने देह त्याग किया और शुभ परिणामों से मरकर सौधर्मस्वर्ग के चन्द्रानन विमान में देव हुआ। Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका ] प्रथम भव की कथा का मूल स्रोत- प्रथम भव की मूल कथा का स्रोत वसुदेवहिण्डी की 'कंसस्स पुण्वभवो' कथा में आता है । तदनुसार कंस अपने पूर्वभव में तापसी था । इसने भी मासोपवास का नियम ग्रहण किया था। यह भ्रमण करता हुआ मथुरापुरी आया। महाराज उग्रसेन ने उसे अपने यहाँ पारणा का निमन्त्रण दिया। पारणा के दिन चिस विक्षिप्त रहने के कारण उग्रसेन को पारणा कराने की स्मृति न रही और वह तापसी राजप्रासाद में यों ही घूमकर पारणा किये बिना लौट गया। उसेन ने स्मृति आने पर पुनः उस तापसी को पारणा के लिए आमन्त्रण दिया, किन्तु दूसरी और तीसरी बार भी वह भूल गया । संयोगवश समस्त राजपरिवार भी ऐसे कार्यों में व्यस्त रहता था, जिससे पारणा कराना सम्भव नहीं हुआ। उस तापसी ने इसे उग्रसेन का कोई षड्यन्त्र समझा और निदान किया कि अगले भव में मैं इसका वध करूँगा । निदान के कारण वह उग्र तापसी उग्रसेन के यहाँ कंस के रूप में जन्मा ।' द्वितीय भव की कथा जम्बूद्वीप के अपरविदेह क्षेत्र में जयपुर नाम का नगर था वह अपरिमित गुणों का निधान था और श्रेष्ठ देवनगर के समान लगता था । वहाँ का राजा पुरुषदत्त था । उसकी समस्त अन्तःपुर में प्रधान श्रीकान्ता नामक देवी थी। वह चन्द्रानन विमान का अधिपति देव आयु पूर्ण कर वहाँ से च्युत हो श्रीकान्ता के गर्भ में आया। उसकी कुक्षि से वह पुत्र के रूप में उत्पन्न हुआ। उसका नाम सिंह रखा गया; क्योंकि उसकी माता ने अपने गर्भ में सिंह प्रवेश करते हुए देखा था अपने विशिष्ट पुण्यों का अखण्डित फल भोगते हुए अपने परिजनवृन्द के मनोरथों के अनुरूप प्रजा के सौभाग्य से उस राजकुमार ने, जिसकी ज्योत्सना बढ़ती जा रही है, जो लोगों के मन और नेत्रों के लिए आनन्दप्रद है उस चन्द्र की तरह क्रमशः यौवन प्राप्त किया। वह यौवन अनुपम शोभायुक्त कलाओं के कारण विशेष आकर्षक तथा जन-जन के मन व नयनों के लिए आनन्ददायी था । एक बार यौवन को प्राप्त हुए कामदेव के भी हृदय के अनुकूल तरुण पुरुषों के हृदय को आनन्द पहुँचाने वाला वसन्तकाल आया । उस समय उसने क्रीडासुन्दर उद्यान में अपने मामा की सुन्दर कन्या कुसुमावली को देखा । अनन्त भवों के रागरूपी अभ्यास के दोष से उसने अभिलाषा से युक्त होकर उसे देखा । उसने भी भ्रम से जल्दी-जल्दी पीछे हटते हुए उधर से उसकी ओर देखा । इसी बीच प्रियंकरा दासी ने कहा - 'स्वामिनि ! आगे मत बढ़ो, आगे मत बढ़ो । यह राजा पुरुषदत्त का आपके ही पिता की बहिन के गर्भ से उत्पन्न सिंह नाम का कुमार है। आप यहाँ पहले से आयी हुई हैं, आपको वापिस लौटते देखकर ये कहीं अशिष्टता न समझें। अतः यहीं ठहरिए और इन महानुभाव का राजकन्या के योग्य सत्कार कीजिए।' राजकुमारी लज्जाशील थी । दासी ने राजकुमार से उन दोनों के पास बैठने के लिए कहा। प्रियंकरा ने माधवी पुष्प की माला से युक्त पान को सोने की तस्तरी में भेंट किया। राजकुमार ने उसे प्रहण किया। इसी बीच कुसुमावली की माता द्वारा उसे बुलाने के लिए भेजा गया कन्याओं के अन्तःपुर का सम्भरायण नामक वृद्ध सेवक आ गया। उसने अर्द्धनिमीलित नयनों से कुमार, जो उधर नहीं देख रहा था, का अवलोकन करती हुई कुसुमावली को देखा । सम्भरायण ने सोचा - कामदेव का रति से समागम हो गया । अनन्तर सम्भरायण के निवेदन करने पर घबड़ाहट से कुमार को देखती हुई उद्यान से निकल गयी और कुमार के विषय में ही सोचती हुई अपने प्रासादगृह पहुँची। उसने अपनी समस्त सखियों को विदा कर दिया और प्रेम की । १. हरिभद्र के प्राकृत कथा साहित्य का आलोचनात्मक परिशीलन, पू. १८८ २३ " Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ [ समराइच्चकहा वेदना का अनुभव करते हुए स्वयं पलंग पर पड़ गयी । वह समस्त क्रीड़ाओं और प्रसाधन से घृणा करने लगी और प्रेम के कारण निराश्रित हो वहाँ लेट गयी। उसी समय उसी वृद्धा धाय ने अपनी पुत्री मदनलेखा को उसे आराम देने के लिए भेजा और उससे कहा कि राजकुमारी क्रीड़ासुन्दर उद्यान में घूमने के कारण थक गयी है। मदनलेखा ने जाकर निवेदन किया-'स्वामिनी उद्विग्न-सी क्यों मालूम पड़ रही हो?' तब कुसुमावली ने घबराहट से हाथ से बाल बाँधते हुए कहा-'क्या प्रिय सखी से भी न कहने योग्य बात है ? फूलों के चुनने के परिश्रम से मुझे कुछ ज्वरांश हो गया है, उससे उत्पन्न परिताप रूपी अग्नि मुझे जला रही है। आओ कदली-गृह में चलें । वहाँ मेरा बिस्तर बिछाओ, जिससे वहाँ जाने पर मेरी दुःख रूपी अग्नि बुझे ।' दोनों कदलीगृह में गयीं। वहाँ कुसुमावली लेट गयी। उसे कपूरवासित पान का बीड़ा दिया गया और हवा की जाने लगी। मदनलेखा ने कुसुमावली से पूछा-स्वामिनि ! इस तरुण जनों के विलास, उद्धत सागरस्वरूप वसन्त समय में तुमने क्रीड़ासुन्दर उद्यान में जाते समय अथवा जाकर क्या आश्चर्य देखा? तब काम की अवस्था में कुसुमावली ने कहा-सखी ! मैंने क्रीडासुन्दर उद्यान में रति से वियुक्त कामदेव के समान, रोहिणी से वियुक्त चन्द्रमा के समान कुमार सिंह को देखा । अधिक कहने से क्या, महाराज के पुत्र सिंह कुमार मानो रूपों के रूप, सौन्दर्यों के सौन्दर्य, यौवनों के यौवन तथा मनोरथों के मनोरथ हैं। मदनलेखा ने कहा-स्वामिनि ! वह कुमार गुणों के कारण सुन्दर हैं। जब मैं देवी द्वारा भेजी गयी थी तब सुबुद्धि को राजा के साथ विचार करते हुए-यदि वैसा होगा तो रति से युक्त कामदेव के समान कुसुमावली सहित राजकुमार सुन्दर स्थिति में होंगे। इसी समय उद्यान की रक्षिका पल्लविका नामक दासी आयी। उसने कुसुमावली से निवेदन किया कि महारानी ने आज्ञा दी है कि तुम दन्तवलभिका (शयनगह विशेष) में जाओ; क्योंकि महाराज ने आज्ञा दी है कि आज भवन के उद्यान को विशेष रूप से सुसज्जित किया जाय; क्योंकि यहाँ महाराज के पुत्र सिंह कुमार आयेंगे। राजकुमारी हर्षपूर्वक दन्तवलभिका में चली गयी। राजकुमार उद्यान में आया और माधवीलता के मण्डप में बैठा । उसी समय मदनलेखा ने राजकूमारी से राजकुमार का आवश्यक औपचारिकताओं के द्वारा स्वागत करने को कहा। मदनलेखा की सलाह पर राजकुमारी ने सखी के हाथ एक माला, फूल, फल और एक हंसी का चित्र भेजा जो कि अपने साथी से बिछड़ने के कारण शोकाकुल थी। उस चित्र के नीचे एक द्विपदी गाथा भी लिख दी। राजकुम को स्वीकार किया और एक राजहंस का चित्र एक पत्ते पर बनाया और उसे चित्रपट्ट पर चिपका दिया। उस पर एक प्रेमपद्य लिखकर कुसुमावली के पास भेज दिया। इस प्रकार प्रतिदिन कामदेव के बाणों के मार्ग में आये हुए लोगों के मन को आनन्द देनेवाले विद्याधरी, चकवा, भौंरा आदि प्रमुख चित्रों के सम्प्रेषण से जब उनका परस्पर अनुराग बढ़ रहा था तब कुछ दिन बीत जाने पर राजा पुरुषदत्त की बहुमूल्य प्रार्थना पर राजा लक्ष्मीकान्त ने सिंह कुमार को कुसुमावली दे दी। अनन्तर मंगल गीतों के समूहपूर्वक पाणिग्रहण प्रारम्भ हुआ। वह पाणिग्रहण पारस्परिक प्रेमयुक्त बान्धवों के हृदय को आनन्दित करने वाला था। आरम्भ से समय के विस्तार को न सहने वाले कन्या और वर के निर्मल नाखून रूपी चन्द्रमा की किरणों से युक्त हाय पहले ही परस्पर मिल चुके थे । राजकुमार के द्वारा राजकुमारी कोमल अनुरागयुक्त हृदय में पहले ही ग्रहण की जा चुकी थी। पश्चात् जिस पर पसीने की बूंदें बढ़ रही थीं, ऐसे हाथ से ग्रहण की गयी । अग्नि के चारों ओर फेरे हुए। कन्या के पिता ने दहेज दिया। ___ इस प्रकार विवाह समाप्त होने पर कालक्रम से उन दोनों का अनुराग बढ़ता गया । समस्त लोगों द्वारा प्रशंसनीय विषय-सुख का अनुभव करते हुए उनके अनेक वर्ष व्यतीत हो गये। एक बार घोड़े को Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमिका ] २५ चलाने के निमित्त नागदेव नामक उद्यान में गये हुए कुमार सिंह ने धर्मघोष नामक आचार्य को देखा। राजकुमार ने उनसे प्रश्न किया कि उन्होंने प्रव्रजित जीवन क्यों स्वीकार किया? उन्होंने वर्णन प्रारम्भ किया जब वह अपरविदेह क्षेत्र की राजपुर नगरी में रहते थे तब एक बार आचार्य अमरगुप्त आये, जिन्हें केवलशान था। राजा उनके पास गया और उनका धर्मोपदेश सुना । एक बार उससे अपने पूर्वजन्मों का वृत्तान्त पूछा, जिसे आचार्य अमरगुप्त ने इस प्रकार कहना प्रारम्भ किया अमरगुप्त की कथा-इसी देश में चम्पावास नामक नगर है । उसमें मैंने सुधन्वा नामक गृहस्थ और उसकी स्त्री धनश्री से पुत्री के रूप में जन्म लिया और यौवनावस्था प्राप्त होने पर उसी नगर के निवासी नन्द नाम के सार्थवाह (व्यापारी) के पुत्र रुद्रदेव को दी गयो । एक बार बालचन्द्रा नामक गणिनी से मेरा परिचय हुआ और उसके धार्मिक उपदेशों से प्रभावित होकर मैं सांसारिक विषय-भोगों से पराङ्मुख हो गयी। तब मेरा पति रुद्रदेव मुझसे द्वेष करने लगा। उसने नागदेव नामक व्यापारी की पुत्री नागश्री नामक कन्या की मांग की, किन्तु मेरे पिता के प्रति अत्यधिक सम्मान के कारण नागदेव व्यापारी ने उनकी इच्छा पूर्ण नहीं की । रुद्रदेव ने सोचा-इसके जीवित रहते हुए मैं इस कन्या को नहीं पा सकता, अतः मैं इसे मारता है । तब छलपूर्वक किसी भयंकर सर्प को घड़े के अन्दर करके उसे एक कोने में रख दिया। मुझे सौप मे फाट खाया और मैं तुरन्त मृत्यु को प्राप्त हो गयी। रुद्रदेव ने तब नागश्री से विवाह कर लिया और मृत्यु के पाप रत्मप्रभा नरक में जन्म लिया । मैं सौधर्म स्वर्ग के लीलावतंसक विमान में देव हुई। मैं यथावत् आयु पूरी कर वहां से च्युत होकर इसी देश के सुंसुमार नामक पर्वत पर हाथी के रूप में पैदा हुआ और मेरा विरोधी तोता हुआ । एक बार एक विद्याधर दूसरे विद्याधर की पुत्री को हर खाया और वन के निकुंज में छिप गया तथा तोते से प्रार्थना की कि वह उसवा पीछा करने वाले को भेद न थे । इसी बीच हथिनियों से घिरा मैं उस स्थान पर आया। तब मुझे देखकर तोते ने विचार किया, मेरे इष्ट कार्य यह अवसर है। तब छल की बहुलता से अपनी स्त्री से सलाह करते हुए मुझे सुनाई पड़ जाय, इस प्रकार कहा-सुन्दरी ! भगवान् वशिष्ठ महर्षि के पास मैंने सुना है कि इस सुंसुमार पर्वत पर सर्वकामित नाम का पत्तन (गिरने का स्थान) है। जो जिसकी अभिलाषा कर वहाँ से गिरता है, वह उसी क्षण वही वस्तु प्राप्त कर लेता है। तब मैंने पूछा-भगवन् ! वह स्थान कहाँ है ? उसने कहा-इस साल के वृक्ष के बायीं ओर है। यतः यह तियंचगति व्यर्थ है, आओ विद्याधर होवें, ऐसा ध्यान करके वहाँ से कूदें। पत्नी ने यह स्वीकार किया। वे दोनों उस स्थान पर गये, ध्यान दिया, पर्वतीय लतागृह से चल पड़े। कुछ समय बाद मैंने उस विद्याधर युगल को देखा, जो कि वहाँ पर छिपा था। पूरी तरह से छले गये मैंने अपनी पत्नी से बातचीत कर यह निश्चय किया कि हम दोनों चोटी पर ने देव बनने की अभिलाषा लेकर गिरें। गिरने पर मेरे अंगोपांग टूट गये और मैं बड़े कष्ट से मरा और व्यन्तर देव हुमा। मेरा शत्रु तोता मरकर रत्नप्रभा नरक में चला गया। तदनन्तर मैं विदेहक्षेत्र के द्वितीय विजय (देश) में चक्रवालपुर नगर में अप्रतिहतचक्र नामक व्यापारी की सुमंगला नामक पत्नी की कोख में पुत्र के रूप में आया । जन्म होने पर मेरा नाम चक्रदेव रखा गया। मैं बाल्यावस्था को प्राप्त हुआ। इसी बीच वह नरकगामी तोता नरक से निकलकर उसी नगर में सोमशमो नाम के राजा के पुरोहित की नन्दिवर्द्धन नामक पत्नी के गर्भ में पुत्र रूप में आया और कालकम से उत्पन्न हुआ। उसका नाम यज्ञदेव रखा गया। पूर्वजन्म के संस्कारवश उसमें अब भी मेरे प्रति घृणा की भावना थी। उसने मेरे प्रति छल से और Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ [ समराइज्यकहा मैंने उनके प्रति यथार्थ रूप से मित्रता कर ली। यज्ञदेव ने मुझे नष्ट करने का एक उपाय ढूढ़ा। एक बार उसने चन्दन व्यापारी के घर चोरी की और दूसरे दिन चोरी के माल को मेरे पास जमा करने आया। उसने बहाना किया कि यह उसकी निजी सम्पत्ति है और इसे वह अपने पिता की दृष्टि से दूर रखना चाहता है। इस प्रकार मेरा सन्देह शान्त हुआ। उसी समय चन्दन ने चोरी के विषय में राजा को सूचित किया और राजा ने उक्त चोरी के माल की घोषणा करायी कि जिसने भी यह माल चुराया हो उसने अपनी मृत्यु का कार्य किया है। पाँच दिनों बाद यज्ञदेव ने राजा से निवेदन किया कि चक्रदेव के पास चोरी का माल है और उसने अपील की कि हर स्थिति में चक्रदेव के घर की तलाशी होनी चाहिए। राजा ने अनिच्छापूर्वक तलाशी का आदेश दे दिया। सिपाहियों ने चन्दन के एक भण्डारी तथा नगर के पंचों के साथ मेरे घर का निरीक्षण किया। मैंने चोरी गयी सारी सम्पत्ति को मना किया, जिसे कि मेरे मित्र ने रखा था । अनन्तर उन्होंने तलाशी ली और सोने की वस्तुओं को बाहर निकाला। उन पर चन्दन नाम लिखा हुआ था। भण्डारी ने सूची के अनुसार वस्तुओं की पहिचान की और मुझे राजा के सामने ले जाया गया। मैं वहाँ फूटमटकर रोया और उनके प्रश्न का कोई उत्तर नहीं दिया। राजा बहुत पसोपेश में था। उसे मुझ पर आरोपित अपराध पर विश्वास नहीं था। जिस किसी प्रकार प्रत्यक्ष प्रमाणों के आधार पर उसने मुझे बाहर निकाल दिया। राजा के अधिकारी मुझे नगर के बाहर ले गये और नगरदेवी के उद्यान के समीप मुझे छोड़ दिया। इस अपमान को सहने में असमर्थ होने के कारण मैंने अपने आपको फाँसी पर चढ़ाने का निश्चय किया, किन्तु देवी ने कृपालुता के कारण अपने आत्मिक प्रभाव से राजा की माँ से कहा कि मेरी रक्षा की जानी चाहिए, क्योंकि मुझे कुछ ज्ञात नहीं है और यज्ञदेव को गिरफ्तार करना चाहिए। राजा शीघ्र ही उस स्थान पर आया और उसने मेरी गांठ को ढीला कर दिया तथा मुझे नगर ले गया। चूकि राजा को यज्ञदेव का सारा वृत्तान्त ज्ञात था, अत: उसने आज्ञा दी कि यज्ञदेव की आँखें बाहर निकाल ली जाये और जीभ काट ली जाय तथा वह अपने अपराध पर मुझसे क्षमा याचना करे। मैने यज्ञदेव की रक्षा के लिए राजा से आग्रह किया: क्योंकि पहले मेरी उसकी मित्रता थी। राजा ने मेरी प्रार्थना मान ली। अपने मित्र का वि घात देखकर मुझे इस संसार से विरक्ति हो गयी। उसी समय अग्निभूति गणधर आये। उनसे मैंने यथार्थज्ञान प्राप्त किया और दीक्षा ले ली। मृत्यु के बाद मैं ब्रह्मलोक में वैमानिक देव हुआ, जब कि मेरा प्रतिद्वन्द्वी शार्क राप्रभा नरक में नारकी हुआ। ___ इसके बाद मैं आयु पूर्ण कर स्वर्गलोक से च्युत, होकर इसी विदेह क्षेत्र के गन्धिलावती देश के रत्नपुर नामक नगर में रत्नसागर सेठ की श्रीमती नामकी पत्नी के गर्भ में पुत्र के रूप में आया। दूसरा भी नरक से निकलकर शिकारी का कुत्ता हो र पुनः मरकर तीन सागर की आयु वाले उसी नरक में उत्पन्न हुआ। वहाँ से निकलकर तिर्यंच योनियों में भ्रमण कर उसी रत्नपुर नगर में पिता जी की गृहदासी, जिसका नाम नर्मदा था, के पुत्र रूप में आया। उचित समय पर हम दोनों उत्पन्न हुए, बाल्यावस्था को प्राप्त हए। दोनों का नाम रखा गया-- मेरा 'चन्दनसार' और दूसरे का 'अनघक'। दोनों यौवनावस्था को प्राप्त हुए। दोनों ने विवाह किये और इस प्रकार विषयासक्ति में रहे । पूर्वभव के अभ्यासवश मेरे प्रति छल-कपट करने का (इसका) भाव दूर नहीं हुआ था। एक बार जब कि अनघक और मैं दूसरी जगह गये हुए थे और जब कि राजा नगर में नहीं था, शबरों में प्रधान विन्ध्यकेतु ने नगर पर पढ़ाई कर दी और बहुत से लोगों को भगा ले गया, जिनमें मेरी पत्नी भी थी। जब हम वापिस लौटे तब एक ब्राह्मण ने हमें सलाह दी कि शबर भगाये हर व्यक्ति को रखकर उसके उपलक्ष्य में धन चाहते हैं। अत: अनघक और मैं शबरों के डेरे में गये और पत्नी को छुड़ाने के लिए धन तथा खाने की सामग्री Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ , भूमिका ] ले गये । शबरों ने नगर पर चढ़ाई के बाद एक गांव के समीप कुएं के किनारे डेरा डाला था। मेरी पत्नी बलात्कार के भय से कुएँ में गिर गयी । अनन्तर वह तैरकर कुएं' की एक खोह में बैठ गयी थी। उसी समय अनघक और मैं कुए के किनारे गये। अनघक के पास धन की थैली थी; जब कि मेरे पास खाद्य सामग्री थी। उसके मन में धोखा देने की इच्छा उत्पन्न हुई। उसने मुझे कुएं में पानी है या नहीं, यह जानने के लिए उसमें झाँकने को कहा। जैसे ही मैं कुएं पर झुका, उसने मुझे धकेल दिया और धन लेकर भाग गया । मैं घबराहट से कुए के एक किनारे · आ लगा । स्त्रीस्वभाव के कारण दुःख एवं भय से जिसके अंग विह्वल हो रहे थे, ऐसी चन्द्रकान्ता ने मुझे थाम लिया। आवाज से दोनों ने एक-दूसरे को पहचान लिया । हम दोनों उस खाद्य पर कुछ दिन जीवित रहे, जो कि मेरे पास थी। कुछ समय बाद वहाँ एक सार्थ आया जो कि रत्नपुर को जा रहा था। उसने हमें बाहर निकालकर बचाया। हम दोनों सार्थ के साथ चल पड़े। हमने सिंह द्वारा मारे गये एक आदमी का कंकाल देखा। धन की प्राप्ति से हम दोनों ने यह पहिचाना कि यह अनघक ही था। तब उसके फल को उस प्रकार देखकर मुझे विवेक उत्पन्न हुआ। मैं उसी प्रकार भावों के प्रकर्ष को प्राप्त होता हुआ अपने नगर आया और विजयवर्द्धन नामक आचार्य के पास विधिपूर्वक दीक्षा ले ली। आयु पूरी कर विधिपूर्वक शरीर त्यागकर सोलह सागर की आयु वाले महाशूक स्वर्ग में वैमानिक देव के रूप में उत्पन्न हुआ। दूसरा अनधक भी सिंह के द्वारा मारा जाकर सात सागर की स्थिति वाला बालुकाप्रभा नरक में उत्पन्न हुआ। अनन्तर मैं आयु पूर्ण कर स्वर्गलोक से च्युत होकर इसी जम्बूद्वीप के भारतवर्ष के 'रथवीरपुर' नगर में नन्दिवर्द्धन गहस्थ (गाथापति) की सुरसुन्दरी नामक पत्नी के गर्भ में पुत्र के रूप में आया। दूसर भी नरक से निकलकर विन्ध्यगिरि पर्वत पर अनेक प्राणियों को मारने वाले सिंह के रूप में उत्पन्न हआ। सिंह के रूप में उत्पन्न होकर पुन: मरकर सात सागर की आयु वाले उसी बालुकाप्रभा नरक में उत्पन्न होकर वहाँ से निकलकर नाना तिर्यच-योनियों में भ्रमण कर, उसी नगर के सोम व्यापारी की नन्दिमतो स्त्री के पुत्र के रूप में उत्पन्न हुआ। मेरा नाम अनंगदेव और दूसरे का धनदेव रखा गया। बाल्यावस्था से उसके प्रति मेरी प्रोति सद्भाव से और मेरे प्रति उसकी छलकपट से हुई। रत्नद्वीप में रत्नों का अर्जन कर एक बार दोनों अपने देश आने को प्रवृत्त हुए । मुझे अपने लाभ से वंचित रखने के लिए उसने लड्डू बनवाये और उसमें से एक में मुझे देने के लिए तेज विष डाल दिया, परन्तु भूल से वह स्वयं ही उस लड्डू को खा गया और मर गया । मैंने संसार से विरक्त हो देवसेनाचार्य के समीप दीक्षा ले ली। आयु पूरी कर विधिपूर्वक शरीर छोड़कर प्राणत स्वर्ग में उन्नीस सागर की आयुवाला देव हुआ। दूसरा भी विष से मरण होने के बाद पंकप्रभा पृथ्वी में नव सागर की आयुवाला नारकी हुआ। ___अनन्तर मैं आयुकर्म के अनुसार आयु पूर्ण कर च्युत हो इसी जम्बद्वीप के ऐरावत क्षेत्र के हस्तिनापुर नगर में हरिनन्द गाथापति की लक्ष्मीमती नामक भार्या के गर्भ में पुत्र के रूप में आया। दूसरा भी नरक से निकलकर सर्पयोनि प्राप्त कर अनेक प्राणियों के मारने में रत हो दावानल से जलकर मरने के बाद, उसी पंकप्रभा पृथ्वी में कुछ कम दश सागर की आयुवाला नारकी हुआ। वहाँ से निकलकर तियंचगति में भ्रमण कर उसी हस्तिनापुर नगर में इन्द्र नामक वृद्ध सेठ की नन्दिमती नामक स्त्री के गर्भ में पुत्र के रूप में आया। उचित समय पर हम दोनों उत्पन्न हुए। मेरा नाम वीरदेव और दूसरे का नाम द्रोणक रखा गया। मैं उसका सद्भाव से और वह मेरा छल से मित्र हो गया। मेरी पूजी से व्यापार कर उसने बड़ा लाभ प्राप्त किया। वह मुझे एक साझीदार के नाते लाभ से वंचित रखने के लिए मारना चाहता था। उसने एक अस्थिर छज्जे पर बड़ा विनोद-स्थान बनवाया और मुझे आमन्त्रित किया ताकि छज्जे पर पहले मुझे जाने Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ समराई मकहा के लिए फुसला सके । लेकिन हुआ यह कि कुछ भ्रमवश पहिले वह छज्जे पर जा पहुंचा। शीघ्र ही वह छज्जा गिर गया और उसके साथ द्रोणक भी गिरकर मर गया। इस घटना के प्रकट होने पर मैंने नियम लिये । मृत्यु के बाद मैं एक प्रैवेयक विमान में देव हुआ और दूसरा धूमप्रभा नरक में नारकी हुआ । अनन्तर मैं देवायु भोगकर च्युत हो जम्बूद्वीप के इसी देश की चम्पा नगरी में मणिभद्र सेठ की स्त्री धारिणी के गर्भ में आया और उचित समय पर उत्पन्न हुआ। मेरा नाम पूर्णभद्र रखा गया। शब्दोच्चारण करते हुए प्रथम मैंने अमर शब्द का उच्चारण किया अतः मेरा दूसरा नाम अमरगुप्त भी रखा गया । श्रावक के घर उत्पन्न होने के कारण मैंने जिनेन्द्रदेव द्वारा प्रणीत धर्म पाया । इसी बीच दूसरा भी उस नरक से निकलकर स्वयम्भूरमण समुद्र में महामत्स्य होकर अत्यन्त पाप दृष्टिवाला होने के कारण मरकर उसी धूमप्रभा में बारह सागर की आयुवाला नारकी हुआ । वहाँ से निकल कर अनेक तिर्यंच योनियों में भटकता हुआ उसी नगर में नन्द्यावर्त सेठ की श्रीनन्दा पत्नी के गर्भ में पुत्री के रूप में आया। उचित समय पर वह उत्पन्न हुई । उसका नाम नन्दयन्ती रखा गया । वह यौवनावस्था को प्राप्त हुई और मुझे ब्याह दी गयी । पूर्वकृत कर्मदोष के कारण उसका मेरे प्रति छल-कपट का भाव दूर नहीं हुआ, जिससे वह मेरे प्रति माया का आचरण करने लगी। एक बार उसने अपने कर्णफल खो जाने का बहाना किया। सान्त्वना देने के लिए मैंने उसको दूसरा जोड़ा लाकर दे दिया। एक बार जब मैं स्नान करने जा रहा था, मैंने उसे अपनी अंगूठी दे दी । उसने अंगूठी सन्दूक में रख दी। जब मैंने सन्दूक खोला तो मुझे वह कर्णफूल का जोड़ा नजर आया, जिसे उसने खोने का बहाना किया था। उसी समय मेरी पत्नी आयी और अंगूठी को मेरे हाथ में देखा और सारी घटना से अवगत हो गयी। उसने मुझे मारने के लिए मारक द्रव्यों के संयोग से मिश्रण तैयार किया। जब वह उसे एक स्थान पर रख रही थी कि एक साँप ने उसे काट खाया। वह मर गयी। उस घटना से मुझे वैराग्य हो गया, मेरा धर्मानुराग बढ़ा । संसार की असारता सोचकर मैंने दीक्षा ले ली। वह बेचारी मरकर तमःप्रभा नामक नरक की पृथ्वी में उत्पन्न हुई । यह मेरा चरित है। मुख्य कमा-सिंहकुमार ने धर्मघोष मुनि से संसार की प्रकृति, सुख-दुख तथा यथार्थ धर्म का स्वरूप पूछा । धर्मघोष ने गतियों का निरूपण किया, सुख-दुःख के लिए मधु बिन्दु का दृष्टान्त दिया तथा दस धर्मों का निरूपण किया । जो व्यक्ति दस धर्मों का पूर्ण पालन नहीं कर सकता उसे गृहस्थ के व्रत का पालन करना चाहिए। अनन्तर राजा पुरुषदत्त मृत्यु को प्राप्त हुआ और सिंह राजा हुआ। इसी बीच वह अग्निशर्मा तापस उस विद्युत्कुमार के शरीर से च्युत होकर संसार में भ्रमण करता हुआ अनन्तर भव में कुछ अज्ञानतप तपकर उस देह को छोड़ कर पूर्वकों के संस्कारों के फलरूप दोष से कुसुमावली के गर्भ में आया। कुसुमावली ने स्वप्न में देखा कि उसके उदर में सर्प प्रवेश कर रहा है । उसने निकलकर राजा को डस लिया । राजा सिंहासन से गिर पड़ा। यह देखकर कुसुमावली जाग उठी। अमंगल मानकर उसने पति से नहीं कहा । एक बार गर्भकाल में उसे राजा की आँते खाने की इच्छा हुई। इस भयानक इच्छा ने उसे अनुत्पन्न शिशु के प्रति भी घृणा पैदा कर दी। उसने गर्भपात का प्रयत्न किया, किन्तु व्यर्थ हुआ। वह प्रतिदिन दुर्बल होती गयी। राजा को किसी प्रकार जब रानी के दोहले का पता चला तब उसने कृत्रिम आँतें लगवाकर, उनको बाहर निकालकर रानी को दे दी. रानी स्वस्थ हो गयी । मन्त्री की सलाह से रानी ने जन्मप्राप्त शिशु को अन्यत्र भेजने का प्रयास किया, किन्तु वह बात राजा के पास प्रकट हो गयी। राजा ने शिशु को दूसरी दासियों को सौंप दिया। शिशु का नाम आनन्द रखा गया। बालक पूर्वजन्म के संस्कारवश अपने पिता सिंह से घृणा Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करने लगा। राजा ने उसे युवराज बना दिया और कुछ समय पश्चात् किसी घटना से विरक्त हो उसने आनन्द का राज्याभिषेक करने की तैयारी की । पूर्वजन्मों की घृणा के कारण आनन्द ने दुर्गति नामक सामन्त से मिलकर राजा को मारने का षड्यन्त्र किया, जिसमें वह सफल नहीं हुआ । राजा विरक्त हो गया था। अतः उसने आनन्द को राजा बनाने की घोषणा की। आनन्द ने पिता को बन्दी बनाकर भयंकर कालकोठरी में डाल दिया। आनन्द ने अपना दुर्व्यवहार राजा पर जारी रखा । अन्त में राजा ने मरणपर्यन्त भोजन का परित्याग कर दिया। यह समाचार सुन आनन्द ने उस पर कुपित हो उसे मार डाला। राजा सिंह मरकर लीलाराम विमान में पांच सागरोपम आयु वाला देव हुआ और पुत्र 'आनन्द' मृत्यु के बाद रत्नप्रभा नरक । में गया। तृतीय भव की कथा जम्बूद्वीप के अपरविदेह क्षेत्र में कौशाम्ब नाम का नगर था। वहां का राजा अजितसेन था। उसका इन्द्रशर्मा नामक ब्राह्मण मन्त्री था। उसकी पत्नी शुभंकरा थी। आनन्द नारकी नरक में एक सागर की आयु व्यतीत कर और कुछ कम चार सागर प्रमाण संसार में भ्रमण कर इन्द्र शर्मा ब्राह्मण की उस शुभंकरा नामक पत्नी के गर्भ में स्त्री के रूप में आया । उचित समय पर उसका जन्म हुआ। उसका नाम जालिनी रखा गया । यौवनावस्था आने पर वह उसी राजा के बुद्धिसागर नामक मन्त्री के पुत्र ब्रह्मदत्त को दी गयी । भोग भोगते हुए दोनों का कुछ समय बीत गया। इधर वह सिंहदेव उस स्वर्ग से च्युत होकर कर्म की अचिन्त्य महिमा से इस जालिनी के गर्भ में पुत्र के रूप में आया। जालिनी ने उसी रात्रि स्वप्न में देखा कि स्वर्ण से भरा हुआ कलश उसके गर्भ में प्रविष्ट हुआ और उसके असन्तुष्ट होने के कारण निकलकर किसी प्रकार टूट गया है। उसे देखकर घबड़ायी हुई वह जाग गयी । गर्भ बढ़ने लगा । जालिनी ने गर्भ के नष्ट करने के उपाय किये। कर्म के फल से गर्भ नष्ट नहीं हुआ । ब्रह्मदत्त को वृत्तान्त ज्ञात हुआ। उसने जन्म के समय सेवक नियुक्त किये और उनसे कहा कि जिस प्रकार गर्भ विपत्ति में न पड़े वैसा उपाय करना और स्वामिनी के सन्तोष के लिए किसी प्रकार उसके चित्त को धोखा देकर मुझे निवेदन करना । प्रसव के समय जालिनी ने प्रसव किया। बालक का नाम 'शिखि' रखा गया। राजा ने प्रच्छन्न रूप से उसका पालन-पोषण कराया। बार में उसे गोद ले लिया। शिखि ने माता के स्वप्नदर्शन और गर्भ नष्ट करने सम्बन्धी वृत्तान्त को जाना। उसे वैराग्य हो गया। इसी बीच पुत्र का वृत्तान्त जानकर उसकी माता कषाय से युक्त हुई । उसने ब्रह्मदत्त पर क्रोध किया तथा उससे कहा--'इसका प्रिय करो अथवा मेरा प्रिय करो। इसको त्यागे बिना में प्राण धारण के लिए जल भी ग्रहण नहीं करूंगी।' इस वृत्तान्त को शिखिकुमार ने सुन लिया अत्यन्त दाखी मन वह घर से निकल गया। वह अशोक वन नामक उद्यान में गया। वहाँ पर उसने विजयसिंह नामक आचार्य को देखा। उसने आचार्यश्री से पूछा- अपने बन्धु-बान्धवों से निरपेक्ष होकर कैसे इस प्रकार की निरासक्ति को प्राप्त हुए हो?' गुरु ने कहा, सुनो-'इस हड्डी, मांस और खून से मिले हुए सौन्दर्य में क्या है ? परिश्रम मात्र जिसका फल है, ऐसे वैभव के विस्तार में अविच्छिन सम्बन्ध क्या है ? अथवा स्वप्न के समान चंचल स्वजनों में आसक्ति करना मोह का ही फल है। एक बात और भी है, सुनो, हमारे ऊपर जो घटित हुई विजयसिंह के वैराग्य की कथा--इसी देश में लक्ष्मीनिलय नाम का नगर है। वहाँ सागरदत्त नाम का वणिक् (सार्थवाह) और उसकी 'श्रीमती' नामक पत्नी थी। उन दोनों का मैं पुत्र हूँ। कुमारावस्था में मैं उसी नगर के पास लक्ष्मीपर्वत पर गया । वहाँ एक स्थान पर चिकने पत्तों के समूह वाला एक नारियल का Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ० [ समराइन्धकहा वृक्ष देखा, जिसका बहुत बड़ा भाग पृथ्वी में घुसा हुआ था। उसे देखकर मुझे कोतूहल हुआ। मैंने सोचा-अरे ! आश्चर्य है कि इतने से वृक्ष की इतनी-सी शाखा से निकलकर यह भाग पृथ्वी में गहराई तक प्रविष्ट हो गया है। इसका निश्चित ही कोई कारण होना चाहिए। इसी बीच मैंने भगवान् अजितनाथ का धर्मचक्र देखा । मैंने सोचा-मैं धन्य हूँ जो कि मैंने तीनों लोकों के चिन्तामणि भगवान् को पा लिया। उन्होंने धर्मकथा प्रस्तुत की। मैंने भगवान से पूछा- 'भगवन् ! उस नारियल के वृक्ष की जड़ भूगर्भ में बहुत दूर तक है, इसका क्या कारण है ?' भगवान् ने कहा---'सुनो ! इसी देश में अमरपुर नाम का नगर है । वहाँ अमरदेव नाम का गृहस्थ हुआ । उसकी पत्नी 'सुन्दरी' थी। उन दोनों के तुम दोनों क्रमश: गुणचन्द्र और बालचन्द्र नामक पुत्र हुए। यौवनावस्था प्राप्त होने पर बहुत सारे कपड़ों का माल लाकर व्यापार करते हुए इस देश में आये। माल को बेचा, इष्ठ लाभ हुआ। शत्रुओं के भय से तुम दोनों लक्ष्मी पर्वत पर चढ़ गये। एक स्थान पर धन गाड़कर उसकी देखभाल करते हुए तुम दोनों ठहर गये। कुछ समय बीत गया । लोभ के दोषवश तुम्हें साझीदार समझकर गुणचन्द्र ने विष देकर मार डाला। शुद्ध स्वभाव के कारण तुम व्यन्तर देवों में उत्पन्न हए । गणचन्द्र भी धन का भोग न कर, साँप के द्वारा काटा जाकर मर गया और रत्नप्रभा नामक नरक में उत्पन्न हुआ। तदनन्तर तुम एक पल से कम की आयु भोगकर इसी देश के टंकणापुर नगर में हरिनन्दिन व्यापारी की 'वसुमती' नामक स्त्री के गर्म में पुत्र के रूप में आये और कालक्रम से उत्पन्न हुए। तुम्हारा नाम देवदत्त रखा गया। तुम कुमारावस्था को प्राप्त हए। इसी बीच गुणचन्द्र उस नरक से निकलकर लोभ के दोष से इसी लक्ष्मी पर्वत पर, इसी गड़े हुए धन के पास, सर्प के रूप में उत्पन्न हुआ। उसने उस धन को अपने अधिकार में ले लिया। इसी बीच लक्ष्मी पर्वत पर निवास करने वाली देवी के उत्सव में तुम उस पर्वत पर आये । देवी की पूजा की। दीन और अनाथों को धन दिया। अनन्तर पूर्वभव के स्नेह से घूमते हुए इस स्थान पर आये । साँप ने तुम्हें देखकर लोभ के दोष से—'यह इस धन को ले लेगा' ऐसा सोचकर तुम्हारे पैरों में डस लिया। समीपवर्ती तुम्हारे बन्धु-बान्धवों ने साँप को मार डाला। वह सर्प इसी पर्वत पर सिंह के रूप में उत्पन्न हुआ है। तुम भी मरकर इसी देश की कृतमंगला नगरी में शिवदेव कुल पुत्र की यशोधरा रानी के गर्भ में पुत्र के रूप में आये। समयानुसार जन्म हुआ। तुम्हारा नाम 'इन्द्रदेव' रखा गया। एक बार राजा वीरदेव ने तुम्हें लक्ष्मीनिलय के स्वामी मानभंगके पास भेजा। कुछ लोगों के साथ आते हुए कालक्रम से जब तुम इस स्थान पर आये तो पर्वतीय गुफा की ओर गये सिंह ने तुम्हें देखा । लोभ की संज्ञा से विपरीत बुद्धिवाले सिंह ने तुम्हें मार डाला और इसे तुमने भी मार डाला। बाद में तुम दोनों चाण्डाल के रूप में उत्पन्न हुए। इसी धन के निमित्त उसने तुम्हें मार डाला । वह भी उस धन का भोग न कर सका और एक अन्य वैरी चाण्डाल द्वारा मारा गया। दोनों नारकी हुए। अनन्तर तुम श्रीमती सन्निवेश में शक्तिभद्र गृहपति की नन्दिनी नामक पत्नी से पुत्र के रूप में उत्पन्न हुए। तुम्हारा नाम बालसुन्दर रखा गया। तुमने श्रावकधर्म का पालन कर विधिपूर्वक शरीर छोड़ा । तुम लान्तव नामक स्वर्ग में तेरह सागर से कुछ कम आयु वाले वैमानिक देव हुए। वहाँ से आयु का क्षयकर हस्तिनापुर नगर में सुहस्ती नामक सेठ के पुत्र हुए। दूसरा भी नरक से निकलकर उसी नगर में सोमिला नामक गृहदासी का पुत्र हुआ। दोनों के नाम क्रमशः समुद्रदत्त और मंगलक रखे गये। इसी बीच तुमने अनंगदेव गणि के समीप जिन-प्रणीत धर्म पाया । एक बार मंगलक के साथ अपनी पत्नी जिनमति के निमित्त समुद्रदत्त लक्ष्मीनिलय पर आया। किसी प्रकार दोनों को धन की जानकारी हुई। मंगलक ने धन के लोभ के कारण एक बार मौका पाकर छुरी से समुद्रदत्त (तुम) पर प्रहार किया, किन्तु किसी प्रकार वह बच गया । तब समुद्रदत्त अनंगदेव गुरु के समीप दीक्षित हो गया। अतिचाररहित श्रमर्ण-धर्म का पालन करते हुए तुम काल Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका क्रम से मरण को प्राप्त हुए और अवेयक में देव हुए। मंगलक भी उस धन की रक्षा करता हुआ, क्लेशपूर्वक जीविकोपार्जन करता हुआ आयु पूरी कर तमा नामक नरक में नारकी हुआ। वहाँ आयु पूरी करने के पश्चात् बकरा हआ। एक बार उस स्थान पर आया तो उसे जातिस्मरण हो गया। लोभवश बारबार खींचने पर भी जब वह दूसरी जगह जाने को तैयार नहीं हुआ तो उसके स्वामी ने उसे मार डाला। अनन्तर उसी धन वाले स्थान पर चूहा हुआ। यह चूहा एक धूताचार्य ने मार दिया। अनन्तर उसकी नाककान विहीन दुर्गिलिका नामक स्त्री के गर्भ में पुत्र के रूप में आया । यौवनावस्था में अनुचित कार्य करने के कारण राजा की आज्ञा से सिपाहियों ने शूली पर चढ़ाकर उसके टुकड़े-टुकड़े कर दिये । अनन्तर वह नारकी हुआ । वहाँ पर आयु पूर्ण कर इसी देश के लक्ष्मीनिलय में अशोकदत्त सेठ की पुत्री हुआ । वह सागरदत्त व्यापारी के पुत्र समुद्रदत्त को दी गयी। इसी बीच तुम वेयक से निकलकर इसी के गर्भ में पुत्र के रूप में आये । कालक्रम से तुम्हारा जन्म हुआ। तुम्हारा नाम सागरदत्त रखा गया । तुम्हारी माँ ने इसी धन के कारण तुम्हें विष दे दिया। किसी सिद्ध पुरुष ने मन्त्र प्रयोग कर तुम्हें जिलाया। पश्चात् दीक्षा धारण कर, मरण के बाद तीस सागर की आयु वाले ग्रेवेयक देव हुए । तुम्हारी माँ पुत्रवध के परिणाम के कारण धूमप्रभा नरक में नारकी हुई । वहाँ से निकलकर अनेक तिर्यंच योनियों में भ्रमण कर पूर्वभव के संस्कारवश लोभ के दोष से यहां पर नारियल के वृक्ष के रू: में उत्पन्न हुई। तुम भी वहाँ से च्युत होकर सागरदत्त सेठ के घर श्रीमती के गर्भ में आये । तुम दोनों की इस समय यह अवस्था है। यह सुनकर मैं भयभीत हो गया और भवभ्रमण से मन विरक्त हो गया और राजा की अनुमति से उस धन को दुःखी जीवों को देकर विजयधर्म गणधर के पास मैंने दीक्षा ले ली। मूल कथा--- शिखिकुमार ने कहा-'भगवन् ठीक है, संसार ऐसा ही है, आप धन्य हैं जोकि इस प्रकार दीक्षित हुए हैं।' अनन्तर शिखिकुमार ने आचार्यश्री से धर्म के भेद पूछे । आचार्य ने शिखिकुमार की जिज्ञासाओं को शान्त करते हुए धर्मोपदेश दिया। शिखिकुमार का मन संसार से विरक्त हो गया। उसने आचार्य से दीक्षा देने की प्रार्थना की। इसी समय पिता ब्रह्मदत्त वहाँ आ गये । शिखिकुमार ने पिता से दीक्षा लेने की अनुमति माँगी । ब्रह्मदत्त ने उसे दीक्षा लेने से रोकना चाहा । ब्रह्मदत्त के सेवक नास्तिकवादी पिंगलक ने चार्वाक मत का प्रतिपादन किया। शिखिकुमार की प्रार्थना पर आचार्यश्री ने पिंगलक के प्रश्नों का उत्तर दिया। भूतचेतन्यवाद के विपरीत युक्तियाँ सूनकर ब्रह्मदत्त के साथ पिंगलक ने श्रावक धर्म धारण कर लिया। विजयसिंह आचार्य ने शिखिकुमार को विधिपूर्वक प्रवृजित किया। इस प्रकार निरतिचार मुनिधर्म का पालन करते हुए अनेक लाख वर्ष बीत गये । इधर जालिनी को दुःख हुआ कि उसने बुरा किया जोकि वह बिना मारे ही निकल गया। उसने अनेक प्रकार के मायापूर्ण वचनों का प्रयोग किया, जिससे शिखिकुमार को उसके ऊपर विश्वास हो गया। अन्त में उसने कुमार को तालपुट विष से युक्त लड्डू दे दिया। तब वह पंचनमस्कार मन्त्र से युक्त हो शुभपरिणामों से मरकर देवों के श्रेष्ठ ब्रह्मलोक में उत्पन्न हुआ। माता जालिनी शेष समय बिताने के बाद मरकर शर्कराप्रभा नामक महाघोर नरक में नारकी हुई। चतुर्थभव की कथा जम्बूद्वीप के भारतवर्ष में सुशर्मनगर नाम का श्रष्ठ नगर था। वहाँ सुधन्वा नाम का राजा था। उस राजा के द्वारा सम्मानित वैश्रवण नाम का सार्थवाह था। उसकी श्रीदेवी नामक पत्नी थी। एक बार नगर के पास धनदेव नामक यक्ष की पूजा कर इन दोनों ने याचना की—'भगवन् ! यदि आपके प्रभाव से हम दोनों के पुत्रोत्पत्ति होगी तो भगवान् की समस्त नगर-निवासियों के साथ बहुत बड़ी पूजा Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ बगराइ ३२ । करूँगा और पुत्र का नाम भगवान् के नाम पर ही रखूंगा। अनन्तर उन दोनों के युवावस्था में वर्तमान होने पर वह ब्रह्मस्वर्ग का वासी देव आयु पूरी कर वहाँ से च्युत हो श्रीदेवी के गर्भ से पुत्र के रूप में उत्पन्न हुआ । सेठ वैश्रवण धनदेव के मन्दिर में गया, यक्ष पूजा की और बालक का नाम 'धन' रखा। जालिनी का जीव उस नरक से निकलकर पुनः संसार में भ्रमण कर दूसरे भव में अकामनिर्जरा से मरकर उसी नगर में सार्थवाह व्यापारी की गोमती नामक पत्नी के गर्भ से उत्पन्न हुआ । उसका नाम 'धनश्री' रखा गया। धन के साथ धनी का विवाह हुआ। अनन्तर धनश्री उसी घर के नन्दक नामक सेवक से मिल गयी। एक बार धन नन्दक तथा अन्य व्यापारियों के साथ ताम्रलिप्ती को व्यापार हेतु गया । धनश्री भी साथ में गयी । धन को माल बेचने से यथेष्ट लाभ नहीं हुआ। लाभ न होने से वह अत्यधिक दुःखी हो रहा था। इसी बीच भागता हुआ महेश्वरदत्त नामक जुआरी आया। वह जुए में सोलह स्वर्ण हार गया था, न दे पाने के कारण जुबारी उसका पीछा कर रहे थे। धन ने सोलह स्वर्ण देकर महेश्वरदत्त को छुड़ाया। महेश्वरदत्त योगीश्वर नाम के कापालिक के समीप प्रव्रजित हो गया। धन अन्य माल लेकर दूसरे द्वीप की ओर चला गया। धनश्री ने नन्दक के प्रति आसक्ति तथा धन के प्रति वैर के कारण दुःसाध्य रोग उत्पन्न कर बाद में मार देने वाला कार्मण योग ( उच्चाटन प्रयोग ) धन को दे दिया। इससे धन का शरीर सूज गया और उसमें में फोड़े उत्पन्न गये । एक बार समुद्र यात्रा के समय वणिक्पुत्र जब पैर धोने के लिए उठा तो धनश्री ने उसे पाताल के समान गहरे समुद्र में फेंक दिया। गिरने के बाद धन पहले से नष्ट हुए जहाज का एक टुकड़ा प्राप्त कर सात रात्रियों में 'समुन्द्र पारकर, खारे जल का सेवन करने से रोगरहित होकर किनारे पर पहुँच गया। उसने थोड़ी दूर जाकर सिंहलद्वीप की ओर जानेवाली श्रावस्ती के राजा के पुत्री की दासी जो कि जहाज टूट जाने के कारण मर गयी थी, के दुपट्टे में उस स्थान को चमकाती हुई तीनों लोकों की सारभूत रत्नावली को देखा । यथार्थ में पुत्री के पिता ने साथ में एक दासी भेजी थी, जिसे भण्डारी ने रत्नावली दी थी। जहाज टूट जाने पर 'की तरंगों ने उसे किनारे पर फेंक दिया और वह मर गयी, उस स्थान पर आकर इसने उसे देवा । समुद्र धन ने व्यापारार्थं वह रत्नावली ले ली। देश के समीप चलने पर उसे महेश्वरदत्त कापालिक मिला। उसे गाड मन्त्र सिद्ध हो गया था। पूर्व उपकार को स्मरण में रखते हुए उसने धन को गारुड मन्त्र दे दिया । उस मन्त्र को पढ़ने मात्र से तक्षक सर्प के द्वारा काटा गया व्यक्ति भी जीवित हो जाता था। महेश्वरदत्त के द्वारा भेजा जाकर 'धन' श्रावस्ती पहुंचा। उस नगर में उस रात राजा विचारधवल के भण्डार में चोरी हुई थी अतः दुष्ट नगर निवासी और दूसरे जालसाज पकड़े जा रहे थे। धन की भी तलाशी ली गयी, किसी प्रकार मन्त्री ने उसके पास रत्नावली पायी मन्त्री ने सोचा निश्चित रूप से राजपुत्री का अकुशल हुआ है, नहीं तो इसके पास यह कहाँ से आयी ? धन से पूछा गया। धन ने कहा- 'मैं जहाज से महाकटाह द्वीप गया था। वहाँ पर मैंने इसे खरीदा। आते हुए मेरा वह जहाज नष्ट हो गया, अतः मैं इतनी मात्र सम्पदा का स्वामी रह गया हूँ। धन के असम्बद्ध प्रलाप से मन्त्री उसे राजा के पास ले गया। राजा ने कुपित हो उसके वध की आज्ञा दे दी । चाण्डाल धन की भव्य आकृति के कारण उसे मारने में समर्थ नहीं हुआ। इसी बीच राजा के सुमंगल नामक पुत्र को, जो कि उद्यान में गया था, सांप ने काट खाया । धन ने गारुड मन्त्र की सहायता से उसके प्राण बचाये। इसी समय प्रतीहारी ने राजपुत्री के आने की सूचना दी। राजा ने जाकर राजपुत्री से रत्नावली का वृत्तान्त पूछा। राजकुमारी ने कहा कि उसने जो रस्नावली दासी को संभालकर रखने को दे दी थी और उसे अपने दुपट्टे में बांधकर छिपा लिया था। अनन्तर जहाज नष्ट हो जाने पर पता नहीं उसकी क्या परिणति हुई। राजा ने धन से सही बात ज्ञात की। उसे बहुमूल्य आभूषण देकर सुशर्म नगर भेज दिया। कुछ दिन में गिरिम्थन नगर आये। वहाँ पर उसी दिन राजा चण्डसेन के सर्वसार नामक भण्डारगृह की चोरी हो 1 --- Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका ] ३३ गयी । धन आदि की तलाशी ली गयी। उसके पास जो आभूषण थे वे राजा चण्डसेन के थे । धन वगैरह को बन्दी बना लिया गया। अनन्तर धन को निर्दोष पाकर उन्होंने छोड़ दिया धन सुशर्मनगर आया। वहाँ एक दिन सिद्धार्थ नामक उद्यान में उसने श्रमणश्रेष्ठ यशोधर को देखा । धन ने उनसे पूछा- आपके वैराग्य का क्या कारण है, जो कि कामदेव से समान शरीर के धारण करके भी विषय सुखों को छोड़कर दीक्षित हो गये ? यशोधर ने कहा-संसार को छोड़कर दूसरा कोई वैराग्य का कारण नहीं है तथापि विशेष रूप से मेरा अपना चरित ही वैराग्य का कारण है। यदि इच्छा है तो सुनो श्रमणश्रेष्ठ यशोधर को आटे के चूर्ण के बनाये हुए र्गे की बलि देने के कारण अनेक जन्मों में जो यातनाएँ सहनी पड़ीं, उन सबका विस्तृत विवरण कह सुनाया। यह सुनकर धन को वैराग्य हो गया । उसने यशोधराचार्य के पादमूल में दीक्षा ले ली और निरतिचार मुनिव्रत का पालन करने लगा । इधर वह नन्दक धनश्री के साथ कौशाम्बी आया और अपना नाम समुद्रदत्त रख वहीं रहने लगा। एक बार मुनि धन विहार करते हुए नन्दक के घर में प्रविष्ट हुए। धनधी ने उन्हें पहिचान लिया। उसने सोचा - 'वह समुद्र के बीच भी कैसे नहीं मरा, मैं अधन्य हूँ जो कि यह पुनः दिखाई पड़ा। अब वैसा उपाय करती है जिससे यह जीवित न रहे। इसी बीच भिक्षा का समय निकल गया, यह सोचकर धन वहाँ से चले गये। नगरदेवी के उद्यान में जब वे सायंकाल के समय कायोत्सर्ग से खड़ थे, तब धनश्री कृष्णपक्ष की अष्टमी के उपवास का बहाना लेकर नगरदेवी के मन्दिर में ठहर गयी। इसी बीच गाड़ी में सारवान् लकड़ी भरकर एक गाड़ीवाला आया, उसकी गाड़ी की धुरी टूट गयी सूर्य अस्त हो गया। कोई लकड़ियों को नहीं लेगा, ऐसा सोचकर दोनों बैलों को लेकर गाड़ीवान चला गया । धनश्री ने उन लकड़ियों का प्रयोग कर कायोत्सर्गस्थ को जला दिया। मुनि शुभ परिणामों से मरकर महाशुक्र स्वर्ग में उत्पन्न हुए। राजा को जब यह घटना विदित हुई और धनश्री के विषय में उसे पूर्ण जानकारी मिली तब स्त्री अवध्य है-ऐसा सोचकर उसे उसने अपने राज्य से निकाल दिया। दिन के अन्त समय में जाती हुई भूख-प्यास से अभिभूत वह गाँव के मन्दिर के समीप सोयी । वहाँ उसे साँप ने डस लिया । बहुत बड़े क्लेश से उसने प्राण छोड़े तथा मरकर बालुकाप्रभा नरक में नारकी हुई । a पंचम भव की कथा । जम्बूद्वीप के भारतवर्ष में काकन्दी नगरी में सूरतेज नामक राजा था। उसकी लीलावती नामक पत्नी थी। महाशुक्र स्वर्ग का देव आयु पूरी कर लीलावती के गर्भ में आया । पुत्र के रूप में उत्पन्न होने पर इसका नाम जयकुमार रखा गया । पूर्वभव की भावनावश उसका धर्मपालन के प्रति अनुराग हो गया । एक बार चन्द्रोदय नामक उद्यान में उसने श्वेतविकाधिपति यशोवर्मा के पुत्र सनत्कुमार नामक आचार्य को देखा । वन्दना कर उनसे उसने पूछा- आपके वैराग्य का विशेष कारण क्या है ? मुनिराज ने कहा-सौम्य सुनो ! इसी भारतवर्ष में श्वेतविका नामक नगरी है । वहाँ यशोवर्मा नामक राजा था, उसका पुत्र मैं सनत्कुमार हूँ । एक बार वध करने के लिए ले जाते हुए कुछ गोर मेरी शरण में आये। मैंने उन्हें छुड़वा दिया। नागरिक इष्ट हो गये। अतः महाराज ने प्रच्छन्न रूप से उन्हें मरवा दिया। इस घटना से रुष्ट हो मैं नगरी से निकल गया । ताम्रलिप्ती पहुँचने पर यह वृत्तान्त वहाँ के स्वामी ईशानचन्द्र को विदित हुआ उन्होंने मुझे ससम्मान बुलवा कर भवन में ठहरा दिया । 1 एक बार वसन्त के समय मैं अनंगनन्दन नामक उद्यान की ओर गया । सड़क पर जाते समय पूर्व Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ समराइचकहा भव के अभ्यास से अनुरागवश ईशानचन्द्र की पुत्री विलासवती ने मेरे ऊपर खिड़की से अपने द्वारा गूथी हुई मौलसिरी की माला फेंक दी । वह मेरे कण्ठ में पड़ी । उसे मेरे मित्र वसुभूति ने देखा । अनन्तर मैंने उस स्थान को शरीर से तो पार कर लिया, किन्तु मन से नहीं । मेरा अभिप्राय जानकर वसुभूति ने विलासवती की धाय की पुत्री अनंगसुन्दरी से सम्पर्क किया। उसकी सहायता से मन्दिर के उद्यान में हम दोनों का मिलन हुआ । विलासवती चली गयी। मुझे और वसुभूति को उद्यान के एक भाग में अनंगवती नामक राजपत्नी ने देखा। वह मुझे चाहने लगी। एक बार राजमहल से निकलते हुए मुझे अनंगवती की दासी ने बुलाया। मैं महाराज के विश्वास से माता की आज्ञा पालन करने में कोई विघ्न नहीं है-ऐसा कहकर अनंगवती के यहाँ गया। उसने अपना कामभाव व्यक्त किया। मैंने उसे समझाया । वह उस समय मेरे विचारों से सहमत हो गयी। कुछ समय बीतने पर राजा के दूसरे हृदय के समान विनयधर नामक, नगर की रक्षा करने वाला एक अधिकारी आया। उसने कहा-आपके पिता के राज्य में स्वस्तिमती नाम का सन्निवेश है। वहाँ पर वीरसेन नाम का कुलपुत्र है। उसकी गृहिणी जब गर्भवती हुई तब उसे लेकर बड़े समूह के साथ गहिणी के पितगह जयस्थल नामक नगर को चल पड़ा। श्वेतवि का नगर के बाहर जब ठहरा हु सब एक भयभीत कुलपुत्र मेरी शरण में आया। इसी बीच राजपुरुष आ गये । उन्होंने कहा कि दूसरे के धन का अपहरण कर इसने महाराज की आज्ञा का उल्लंघन किया है । अतः यह प्राण-धारण करने के योग्य नहीं है। मैंने कहा-यथार्थ बात जाने बिना मैंने इसे शरण लिया है, अतः मैं इसे नहीं छोड़ सकता हूँ। राजपुरुषों ने राजा से कहा । राजा ने मुझे शीघ्र मार डालने का आदेश दे दिया, अतः युद्ध आरम्भ हो या। इसी बीच बहुत से घुड़सवारों के साथ महाराज का पुत्र यशोदेव वर्मा अश्वक्रीडनक भूमि से आया। उसने कुलपुत्र का पक्ष लिया, अतः वह छूट गया। कुलपुत्र दो माह में जयस्थल पहुंच गया। उसके पुत्र उत्पन्न हुआ। हे कुमार ! वह मैं ही हूँ। इस प्रकार समस्त प्राणियों पर उपकार करने वाले आपके पिता और माता के विशेष उपकारी हैं । आज ईशानचन्द्र अश्वक्रीडनक भूमि से आकर अनंगवती के घर प्रविष्ट हुए । उनसे अनंगवती ने कहा कि कुमार ने उसके साथ अनुचित चेष्टा की है। तब राजा कुपित हो गया और उसने कहा-अरे विनयधर ! शीघ्र ही उस दुराचारी कुलकलंकी को मार डालो। मैंने कहा-जो महाराज आज्ञा दें। अत. आपको मेरी सलाह है कि आज रात एक जहाज स्वर्णभूमि को जा रहा है। उसी से जाकर मुझे अनुगृहीत करें। वसुभूति और मैं दो माह में स्वर्णभूमि पहुँच गये। वहाँ पर श्वेतविका के निवासी समृद्धिदन सेठ के पुत्र मनोरथदत्त को देखा, जो कि मेरा बाल्यकालीन मित्र था और यहाँ वाणिज्य के लिए आया था। उसने भी हम लोगों को देखा । उसकी सहायता से वसुभूति और मैंने सिंहलद्वीप जाने की तैयारी की। मनोरथदत्त ने मुझे नयनमोहन वस्त्र दिया। उस वस्त्र से ढका हुआ पुरुष किसी को दिखाई नहीं देता था। मैंने उस वस्त्र की परीक्षा की और मित्र से उस वस्त्र की प्राप्ति का वृत्तान्त पूछा । मित्र ने कहा--सुनो, यहाँ आने पर सिद्धविद्या का प्रयोग करने वाले आनन्दपुर के निवासी सिद्धसेन नामक सिद्ध के पुत्र से मेरी प्रीति हो गयी । मैंने उससे कहा- मित्र ! विद्या के साधन में वास्तविकता क्या होती है ? दिव्य सन्देश सही होता है या नहीं ? उसने कहा--सही होता है। मैंने दिव्य चेष्टाएँ दिखाने के लिए कहा। उसकी सहायता से मैंने विद्या सिद्ध की । इसके फलस्वरूप एक यक्षकन्या प्रकट हुई । उसने प्रसन्न होकर यह नयनमोहन वस्त्र दिया। ईश्वरदत्त के जहाज से हम लोग सिंहलद्वीप की ओर रवाना हुए। तेरहवें दिन एकाएक जहाज टूट गया। सब लोग अलग-अलग हो गये । मैं एक लकड़ी के टुकड़े के सहारे तैरता हुआ किनारे पर आ लगा। थोड़ी दूर चलकर आहार वगैरह करने के बाद शिलातल पर पत्तॊ की शय्या पर बायीं करवट से Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५ सो गया। सबेरे सोकर उटा। वन के मध्य भाग में मैंने प्रशस्त रेखाओं से अलंकृत पैरों की पंक्ति को देखा। #पट-चिहों पर चल पड़ा। समीप में ही तपस्वि कन्या देखी । वनवास के वेश को छोड़कर उसका सब कुछ विलासवती के समान था । वह बिना कुछ कहे चली गयी । अनन्तर दूसरे दिन मुझे एक तापसी दिखाई दी। मेरे द्वारा सत्कार प्राप्त करने के बाद उसने कहा-- कुमार ! हम दोनों बैठे, तुम्हारे साथ कुछ बातचीत करना है । हम दोनों बैठ गये । इसके बाद उसने कहा इसी भारतवर्ष में वैताढय नामक पर्वत है। वहाँ गन्धसमृद्ध नाम का एक विद्याधर नगर है। वहां का राजा सहस्रबल था। उसकी पत्नी सुप्रभा थी। उन दोनों की मैं मदनमंजरी नाम की पत्री है। मेरा विवाह विलासपुर नगर के स्वामी विद्याधर राजा के पुत्र पवनगति से हुआ। एक बार हम दोनों नन्दनवन गये । अकस्मात् ही पवनगति की मृत्यु हो गयी। सिद्धायतनकूट को लाँघने के कारण मेरी विद्या नष्ट हो गयी। इसी बीच देवानन्द नाम का विद्याधर, जिसने तापस के व्रत ग्रहण किये थे, आया। उसने पिता जी से पूछकर मुझे तापस के योग्य दीक्षा दी। एक बार फूल और समिधा लाने के लिए जब समुद्रतट पर गयी तो समुद्र की लहरों से प्रेरित एक कन्या को लकड़ी के पटिये पर पड़ी देखा। उसे मैं अपने आश्रम में ले आयी। कुलपति के द्वारा इसका वृत्तान्त ज्ञात हुआ कि यह ताम्रलिप्ती के स्वामी ईशानचन्द्र की पुत्री है. पति-स्नेह के कारण इस अवस्था को प्राप्त हुई है। अपने पति को मारा गया समझ, यह श्मशान में मरने के लिए गयी, किन्तु इसे चोरों ने छीनकर बर्बर देश के किनारे जाने वाले 'अचल' सार्थवाह के हाथों बेच दिया। उसका जहाज नष्ट हो गया । लकड़ी के टुकड़े के सहारे तैरती हुई वह तीन रात्रियों में इस तट और अवस्था को प्राप्त हुई। इसका पति मृत्यु को प्राप्त नहीं हुआ है। यह वृत्तान्त सुन पति की याद में जीवनधारण कर रही है। एक बार उसने तुम्हें देखा, किन्तु घबड़ाहट के कारण बोली नहीं। बाद में उसने तुम्हें देखा, किन्तु तुम प्राप्त नहीं हुए। अतः वह गले में पाश डालकर मृत्यु के लिए तैयार हो गयी, किन्त मैंने उसे बचा लिया। अनन्तर वह तापसी राजकुमार को उस कन्या के पास ले गयी। दोनों का विवाह हआ। कुछ दिन बीत जाने के बाद सानुदेव व्यापारी के जहाज से, जो कि मलय देश जा रहा था, दोनों गये। सानुदेव विलासवती पर मोहित हो गया। उसने मुझे समुद्र में धक्का देकर गिरा दिया। मुझे पहले टूटे हुए जहाज का टमड़ा मिल गया और पाँच रात्रियों में समुद्र को पारकर मैं मलय के तट पर आ गया। किनारे पर जब मैं विलासवती को ढूंढने लगा तब पुण्योदय से मुझे विलासवती मिल गयी। विलासवती का जहाज भी नष्ट हो गया था, अतः वह लकड़ी के तख्ते के सहारे तैर कर किनारे आ गयी थी। एक बार विलासवती प्यास से अभिभूत हुई । मैं पानी लेकर आया तो मुझे विलासवती दिखाई नहीं दी। एक अजगर उसी समय नयनमोहन वस्त्र को निगलने में लगा था। उसे देखकर मैंने सोचा-विलासवती को इसने मार दिया है। तब शोक से अभिभूत हो मैं गिर पड़ा। चेतना प्राप्त होने पर मैंने अजगर पर पत्थरों से प्रहार किये ताकि वह मुझे भी न निगल ले । अजगर ने नयनमोहन वस्त्र उगल दिया। मैंने उसे ले लिया। मैंने उसी वस्त्र से फाँसी लगायी, किन्तु मैं मरा नहीं, मूच्छित हो गया । एक ऋषि ने जल का सिंचन कर मुझे चेतनायुक्त किया। उनने मेरा वृत्तान्त सुनकर सुझाव दिया कि मलयपर्वत पर मनोरथापूरक नाम का शिखर है, वहाँ से गिरने पर इष्ट वस्तु प्राप्त होती है। ऋषि के वचनों के अनुसार तीन दिन बाद मैं उस स्थान पर पहुँचा। वहां से मैं गिरने ही वाला था कि एक विद्याधर ने मुझे पकड़ लिया। मैंने अपना वृत्तान्त सुनाया। विद्याधर ने एक गृहपति और उसकी सिंहा नामक पत्नी की कहानी सुनायी जो परस्पर विरोधी संकल्प कर उस स्थान से मृत्यु को प्राप्त हुए थे। विद्याधर का कहना था कि परस्पर विरोधी विचार होने के कारण उन दोनों की इष्ट सिद्धि कभी नहीं हुई Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समराइच्चकहा होगी। उसने घटना की जानकारी प्राप्त कर यह भी बतलाया कि चत्रसेन नामक विद्याधर ने अप्रतिहतचक्र नामक विद्या सिद्ध करने का निश्चय किया है। इसमें महाप्रयत्न से सात रात्रि तक हिंसा से रक्षा करनी होती है तथा इसकी क्षेत्रशुद्धि अड़तालीस योजन प्रमाण है, अतः विलासवती मृत्यु को प्राप्त नहीं होगी । बाद में उस विद्याधर की बात यथार्थ सिद्ध हुई। विलासवती मे मेरा मिलन हुआ। अनन्तर तापस वेशधारी वसुभूति भी दिखाई दिया । वसुभूति से वृत्तान्त पूछा। उसने अपना सारा वृत्तान्त कह सुनाया । अनन्तर मुझे विद्या सिद्ध हुई। एक विद्याधर जो विलासवती को हर ले गया था, से मेरा युद्ध हुआ । अनन्तर मुझे विलासवती की प्राप्ति हुई । विद्याधरों ने मुझे राज्याभिषिक्त किया। मैंने ईश्वरचन्द्र को विनयपूर्वक जाकर प्रसन्न किया। कुछ दिनों बाद मुझे पुत्र प्राप्ति हुई। पुत्र का नाम ईशानचन्द्र रखा। विद्याधर वगैरह से पूछकर मैं श्वेतविका गया। माता-पिता से मिलन हुआ। माता-पिता के स्वर्गवास के बाद अपने छोटे भाई कीर्तिनिलय का राज्याभिषेक कर मैं पुनः वैताय पर्वत पर नूपुर चक्रवालपुर में प्रविष्ट हुआ। इसी बीच बहुत से शिष्यों के साथ चित्र गद नामक विद्याधर श्रमण आये। उन्होंने मेरे पूछने पर मेरे पूर्वजन्म के कृत्यों का वर्णन किया, जिनके फलस्वरूप मुझे इस प्रकार विरह वगैरह के दुःख उठाने पड़े । अनन्तर मैंने श्रमण-दीक्षा ले ली । भगवान् सनत्कुमार आचार्य के इस वृत्तान्त को सुन जयकुमार ने अणुव्रत ग्रहण कर लिये । इसी बीच धनश्री का जीव नारकी उन नरक से निकलकर संसार में भ्रमण कर किसी प्रकार अकामनिर्जरा से मर कर जयकुमार के भाई पे रूप में उत्पन्न हुआ। उसका नाम विजय रखा गया। जयकुमार को वह प्रिय था, किन्तु उसे जयकुमार प्रिय नहीं था । विजयकुमार ने जयकुमार के विरुद्ध अनेक प्रकार के असत् कार्य किये, किन्तु जयकुमार उसके हितचिन्तन में लगा रहा। अन्त में विरक्त होकर जयकुमार प्रव्रज्या अंगीकार कर ली। विजयकुमार ने जयमुनि को मारने के लिए आदमी भेजे, किन्तु उन आदमियों ने उन्हें नहीं मारा। बाद में यह समाचार विनय को ज्ञात हो गया। एक बार जयमुनि जब काकन्दी आये तो नन्दिवर्द्धन सन्निवेश में विजयकुमार कुछ व्यक्तियों के साथ गया और जयमुनि पर तलवार से प्रहार किया। शुभ परिणामों से मरकर जयमुनि आनत स्वर्ग के श्री विमान में अठारह सागर की आयु वाले देव हुए विजय भी व्याधिग्रस्त होकर आयु पूरी कर दुःखपूर्वक मृत्यु से मरकर पंकप्रभा पृथ्वी में दश सागर की आयु वाला नारकी हुआ । छठे भव की कथा जम्बूद्वीप के भारतवर्ष में माकन्दी नगरं है । वहाँ का राजा कालमेघ था। उसके यहाँ बन्धुदत्त नाम का सेठ था। उसकी हारप्रभा नामक स्त्री थी। आनत करवासीदेव स्वर्ग की आयु का उपभोग करने के अनन्तर हारप्रभा के गर्भ में आया। पुत्र के रूप में उत्पन्न होने पर उसका नाम 'धरण' रखा गया। इसी बीच विजय का वह जीव नारकी उस नरक से निकलकर पुनः संसार में भ्रमण कर उसी नगरी में कार्तिक श्रेष्ठी की जया नामक भार्या के गर्भ में स्त्री के रूप में आया । जन्म के अनन्तर उसका नाम 'लक्ष्मी' रखा गया। कर्म का परिणाम अचिन्तनीय होने से वह धरण के साथ बिवाही गयी धरण की लक्ष्मी के प्रति प्रीति थी, किन्तु लक्ष्मी की धरण के प्रति प्रीति हीं थी । वह सोचा करती थी : मेरे लिए संसार व्यर्थ है। जो कि धरण ( मुझे) प्रतिदिन दिखाई देता है । एक बार मदनमहोत्सव के समय धरण कीड़ा के निमित्त मलय सुन्दर उद्यान में गया। नगर के द्वार पर पहुँचा । इसी समय पंचनन्दि सेठ का पुत्र देवनन्दी नगर के द्वार पर श्रेष्ठ रथ पर सवार होकर आया । Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका ] ३७ नगर के द्वार पर दोनों रथ मिल गये। रथों की विशालता के कारण दोनों को एक साथ निकलने का स्थान न था अतः दोनों में रथ के प्रथम निकलने के प्रश्न पर विवाद हो गया। नगर के प्रधान पुरुषों के विचार-विमर्श के बाद तय हुआ कि विदेश जाकर जो एक वर्ष मे अधिक धन कमाकर लायेगा, उसी का रथ पहले निकलेगा। दोनों में से प्रत्येक को पांच लाख दीनार प्रमाण का माल दिया गया। अनन्तर एक उत्तरा पथ की ओर गया, दूसरा पूर्व की ओर । बन्धुदत्त और पंचनन्दि ने इन दोनों की पत्नियों को भी सपरिवार यथास्थान भेज दिया । निरन्तर गमन करते हुए कुछ दिन बीत गये । उपवास में स्थित धरण ने पास में वर्तमान आयामुखी सन्निवेश में अपने सार्थ को आवासित कर देने के बाद, चोर न होने पर भी जो चोर मानकर पकड़ा गया था, ऐसे चाण्डाल युवक को देखा । उसने व्यापारियों के समूह को देखकर कहा- मैं 'महाशर' का निवासी मौर्य नामक चाण्डाल हूँ। किसी कारणवश कुशस्थल को गया । टगने की बुद्धि रखने वाले चोरों के न दिखाई पड़ने पर बिना दोष भाग्यहीन में पकड़ लिया गया हूँ। अतः मुझे एक लाख दीनार वाली मुक्ताफल की माला लेकर राजा के पास गया और उससे वृत्तान्त सहित उस चाण्डाल को छुड़ाने के लिए उस स्थान पर आया । चाण्डाल छोड़ दिया गया। धरण अचलपुर नगर को आया। उसने माल का विभाग कर उसे बेचा, आठ गुना लाभ प्राप्त हुआ। वहीं पर क्रय-विक्रय के लिए चार माह ठहरा । पुण्योदय से प्रभूत धनोपार्जन किया । उसने धन की गणना करायी। वह एक करोड़ प्रमाण था । अनन्तर माकन्दी में बेचने योग्य माल को लेकर सौदागरों की टोली के साथ अपने देश को आने के लिए प्रवृत्त हुआ। प्रतिदिन प्रयाण करता हुआ वह व्यापारी संघ थोड़े सिपाहियों द्वारा छुड़ाओ धरण । कहकर दूत ही दिनों में अत्यन्त भयंकर कादम्बरी नामक अटवी में पहुँचा। वहाँ पर एक रात शवरों और भीलों की सेना सींगों का भयंकर शब्द करती हुई व्यापारियों के समूह पर टूट पड़ी। थोड़ी संख्या होने से वह व्यापारियों का समूह शबरसेना द्वारा जीत लिया गया। साथ चरण के जीत लिये जाने पर अन्य उपाय न देख वह लक्ष्मी को लेकर चुपके से भाग गया । दिशाओं के विषय में मूढ़ हो, पत्नी के भय से जल्दीजल्दी चलता हुआ शिलीन्प्रनिलय नामक पर्वत पर पहुँचा। वहाँ कुछ दिन बड़े कष्ट से बिताकर उत्तर की ओर प्रवृत्त हुए और महासर नाम के नगर को प्राप्त हुए। चूंकि सूर्य अस्त हो गया था अतः नगर के बाहर ही पक्षालय में ठहर गये लक्ष्मी को प्यास लगी धरण नदी से पानी लाया। लक्ष्मी ने पानी पिया धरण सो गया । लक्ष्मी ने सोचा- विधाता अनुकूल है, जो कि यह इस अवस्था को प्राप्त हो गया । इसी बीच सिपाहियों के भय से चण्डरुद्र नामक चोर प्रविष्ट हुआ। वह राजा के घर से रत्नपात्र लेकर निकला था कि उसे सिपाहियों ने देख लिया और उस यक्षालय में घेर लिया। उसके साथ बात कर लक्ष्मी ने उसे अपनी योजना बतलायी कि सवेरा होने पर मैं सिपाहियों से कह दूँगी कि यह (चोर) मेरा पति है तथा यह (धरण) चोर है। चण्डरुद्र ने कहा मैं हाँ का निवासी भार्यासहित है, सभी जानते हैं कि मेरी पत्नी कौन है। उसने यह भी कहा मेरे पास चिन्तामणि रत्न के समान भगवान् स्वन्दरुद्र के द्वारा दी गयी दृष्टि मोहिनी नामक चोर गोली है। उसे जल के साथ नेत्रों में बजने वाले मनुष्य को हजार नेत्र वाला इन्द्र भी नहीं देख सकता है, मर्त्यलोकवासी मनुष्य की तो बात ही क्या है । अनन्तर चण्डरुद्र और लक्ष्मी ने नेत्रों को आँज लिया। दोनों एक स्थान पर खड़े हो गये। प्रातःकाल रत्नपात्र जिसके पास में रखा था, ऐसे धरण को पकड़ लिया गया । राजा ने उसके वध का आदेश दे दिया। मौर्य नामक चाण्डाल, जिसे वध के लिए दिया गया था, ने उसके रूप, रंग वगैरह से आकर्षित हो आग्रहपूर्वक उसे भगा दिया था धरण ऋजुबालिका नदी के तट पर पहुंचा। लक्ष्मी के आभूषण वगैरह को छीनकर चण्डरुद्र ने उसका परित्याग कर दिया था। Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५ [समराइच्चकहा ऋजुबालिका नदी पर वह धरण को प्राप्त हुई। जब धरण दन्तपुर की ओर प्रस्थान कर रहा था तब कादम्बरी में भ्रमण करते हुए कालसेन के शबरों ने सार्थवाहपुत्र को लताओं की रस्सी से बांध लिया और उसकी पत्नी के साथ वे चण्डीदेवी के मन्दिर की ओर गये । उस मन्दिर में दुर्गिलक नामक लेखवाहक के बाल खींचकर उसकी बलि दी जा रही थी। धरण ने कहा-इसे छोड़कर मुझे मार दो। धरण की यह बात सुनकर कालसेन नामक भीलों का स्वामी आश्चर्यचकित रह गया । उसे उस वणिकपुत्र की याद आयी, जिसने एक बार उसके प्राण बचाये थे । कालसेन ने धरण को उस वणिकपुत्र के रूप में पहिचान कर उसका लटा हुआ सारा धन और बन्दीजन वापिस कर दिये। धरण अपने नगर को वापस आया। आधे माह बाद देवनन्दी भी आ गया । देवनन्दी का माल आधा करोड का और धरण का एक करोड़ का निकला। नग रनिवासियों ने धरण की प्रशंसा की। एक बार धरण पूनः माता-पिता की आज्ञा लेकर व्यापार के निमित्त बहत बड़े व्यापारियों के झण्ड तथा पत्नी के साथ पूर्व समुद्र के किनारे स्थित वैजयन्ती नामक नगरी को गया। माल को बेचा, किन्तु यथेष्ट लाभ नहीं हुआ । अनन्तर वह चीन द्वीप गया। मार्ग में जहाज टूट जाने से वह समुद्र में गिर गया। एक लकड़ी के टुकड़े के सहारे तैरता हुआ वह स्वर्णद्वीप के किनारे आ लगा। वहाँ उसने स्वर्णमयी ईंटें पकायीं और उन्हें धरण नाम से अंकित किया । इधर चीन द्वीप से ही सुवदन सार्थवाह पुत्र के साथ सामान्य मूल्यवाले माल से भरा हुआ दूसरे द्वीप से प्राप्त लक्ष्मी सहित देवपुर की ओर जाने वाला एक जहाज उसी स्थान पर आया। धरण के अनुरोध पर उस जहाज के माल को अलग कर उसमें सारी स्वर्णमयी ईंटें भरी गयीं। माल भरने के उपलक्ष्य में धरण ने सुवदन को एक लाख स्वर्ण देना स्वीकार किया। इसी बीच सुपर्णा नामक स्वर्णद्वीप की वानमन्तरी आयी। उसने कहा कि यहां पुरुष की बलि दिये बिना धन-ग्रहण नहीं किया जाता है. अतः या तो पुरुष-बलि दो या धन छोड़ो । धरण ने लक्ष्मी को लाने के कारण सुवदन का उपकार मान कर अपने आपको बलि के रूप में प्रस्तुत कर दिया। वानमन्तरी ने उसे शूल से वेध दिया । जहाज देवपुर की ओर चला । बाद में हेमकुण्डल विद्याधर की प्रार्थना पर वानमन्तरी ने धरण को छोड़ दिया। धरण को लेकर हेमकूण्डल रत्नद्वीप गया । अनन्तर अपने एक मित्र से मिलकर हेमकुण्डल धरण को देवपुर लाया । धरण कुछ दिन उद्यान में ठहर कर नगर में प्रविष्ट हुआ । वहाँ टोप्पश्रेष्ठी से उसका परिचय हुआ। इधर कुछ दिनों बाद सुवदन और लक्ष्मी भी देवपुर आये। उन दोनों ने धरण को जीवित पाकर आपस में यह विचारविमर्श किया कि धरण को किसी उपाय से आज रात्रि में मार डालेंगे। रात्रि में जब धरण सो रहा था तब लक्ष्मी ने उसके गले में फांसी लगा दी और उसे मरा हुआ समझ समुद्र के किनारे छोड़ दिया । कुछ समय बाद मूच्छित धरण को होश आया। अनन्तर टोप्पश्रेष्ठी की सहायता से धरण को राजा ने सम्पूर्ण धन दिलाया । सुवदन का अपराध को क्षमा कर धरण ने उसे आठ लाख स्वर्णमुद्रा दीं । अनन्तर धरण बड़ी धूमधाम के साथ अपने नगर को आया। नागरिकजन, परिवारजन और राजा ने उसका भलीभाँति स्वागत किया। एक बार धरण मलयसुन्दर नामक उद्यान में गया। नागलता मण्डप में क्रीड़ा के लिए गया हुआ रेविलक नामक कुलपुत्र उसे मिला, जो कि अपनी प्रेमिका की मनौती कर रहा था। धरण को लक्ष्मी की याद आ गयी। अनन्तर परमार्थ का ध्यान कर वह उदासीन हो गया। उसने वहाँ एक स्थान पर शिष्यगणों से परिवृत अर्हद्दत्त नामक आचार्य को देखा । धरण ने उनसे दीक्षा देने की प्रार्थना की, किन्तु उन्होंने कहा कि सबसे पहले अतीचाररहित शुभ गृहस्थमार्ग का ही अभ्यास करना चाहिए। ऐसा न किए हुए व्यक्ति लोलुपी होते हैं । इसके समर्थन में अर्हद्दत्त आचार्य ने अपना चरित सुनाया। इसे सुनकर धरण Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका ] ३१ जागृत हो गया। उसने माता-पिता से आज्ञा लेकर मुनिदीक्षा ले ली। इधर देवपुर से निर्वासित लक्ष्मी को सुवदन ने ढूढ़ा। वह नन्दिवर्धन नाम के सन्निवेश में दिखाई दी और उसे मिली । तदनन्तर वह उसे लेकर अपने द्वीप को चला गया। कुछ समय बीत गया। ताम्रलिप्ती आये हए धरण ऋषि को लक्ष्मी ने देख लिया और पहिचान लिया। उसने उनके प्रति द्वेष के कारण अपना कण्ठाभरण उनके समीप रख दिया और चिल्लाकर सिपाहियों से धरण ऋषि को पकड़वा दिया । राजा की आज्ञा से उन्हें शूली पर चढ़ाने के लिए ले जाया गया। तप के प्रभाव से शूली पृथ्वी पर आ गयी । समीपवर्ती देवता के कारण शूली से मुनिराज नहीं भेदे जा सके । यह समाचार सुनकर हर्षित हो राजा आया । राजा ने लक्ष्मी को बुलाया, किन्तु वह कहीं भाग गयी । भागते हुए सुवदन को सैनिकों ने पकड़ लिया। सुवदन ने राजा से अभयदान प्राप्त कर सारी कथा यथार्थ रूप से सुनायी। लक्ष्मी भय से अभिभूत हो ताम्रलिप्ती से प्रहरमात्र में ही भागकर कुशस्थल सन्निवेश में आ गयी। उसके वस्त्राभूषण चोरों ने हरण कर लिये । उसी रात्रि राजमहिषी ने पुरोहित से समस्त विघ्नों को नष्ट करने वाला यज्ञ प्रारम्भ कराया। यज्ञीय अग्नि देखकर वहाँ सुवदन के होने का अनुमान कर लक्ष्मी आयी। पुरोहित राक्षसी समझकर राजा के पास ले गये । राजा ने भी राक्षसी समझकर उसे तरह-तरह से अपमानित कर रोषपूर्वक बाहर निकाल दिया । अनन्तर ग्रामादि में प्रवेश न पाने के कारण जंगल में भ्रमण करती हुई पूर्वकृत कर्मों के फलस्वरूप उसे भयानक रूप वाले सिंह ने मार डाला। वह धूमप्रभा नामक नगर में उत्पन्न हुई । उसकी आयु सत्रह सागरोपम थी। ___ भगवान् धरण भी संयमपूर्वक विहार करते हुए सल्लेखना स्वीकार कर समाधिमरण को प्राप्त हुए। कालक्रम से मरकर आरण नामक स्वर्ग के चन्द्रकान्त नामक विमान में इक्कीस हजार सागरोपम आयु वाले वैमानिक देव हुए। सातवें भव की कथा जम्बूद्वीप के भारतवर्ष में चम्पा नाम की नगरी है। वहां अमरसेन नाम का राजा था। उसकी समस्त अन्तःपुर में प्रधान जयसुन्दरी नामक पत्नी थी। वह आरण स्वर्ग का वासी देव आयु पूर्ण कर वहाँ से च्युत होकर जयसुन्दरी के गर्भ में आया। पुत्र के रूप में जन्म लेने के बाद उसका नाम 'सेन' रखा गया। एक वर्ष बीत गया। इसी बीच लक्ष्मी का जीव नारकी उस नरक से निकलकर पुनः संसार में घूमकर अमरसेन के भाई हरिषेण युवराज की तारप्रभा नामक स्त्री के गर्भ में पुत्र रूप में आया। उत्पन्न होने के बाद उसका नाम विषण' रखा गया। सेन की विषेणकुमार के प्रति प्रीति थी, किन्तु विषेण की सेन के प्रति प्रीति नहीं थी। एक बार राजा केवल ज्ञान प्राप्त एक साध्वी की वन्दना के लिए गया। दर्शन करके बैठ गया। इसी बीच दो महिलाओं के साथ बन्धुदेव और सागर नाम के दो वणिकपुत्र आये। भगवती को नमस्कार कर सागर ने कहा-मैंने अद्भुत और असम्भाव्य वस्तु देखी है। वह यह कि कुछ समय पहले मेरी प्रिया का हार नष्ट हो गया था। यह भूल गयी। आज मैं भोजन के बाद चित्रशाला में गया तब असमय में ही चित्रशाला के बीच में ही मोर ने लम्बी सांस ली, गर्दन ऊँची की, पंखों को फड़फड़ाया, पूछ फैलायी। अनन्तर उस भाग से उतरकर कुसुम्भी रंग के वस्त्र से युक्त पेटी में उसने हार छोड़ा। वह मोर अपने स्थान पर चला गया और अपने स्वाभाविक रूप में खड़ा हो गया। थोड़े ही समय बाद लोगों से सुना कि भगवती को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ है, अत: मैं यहाँ आ गया। भगवती ने कहा-सौम्य ! कर्म की परिणति के लिए क्या अद्भुत और असम्भावव्य है ? सुनो Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ समराइच्चकहा जम्बूद्वीप के भारतवर्ष में शंखवर्द्धन नाम का नगर है। वहाँ शंखपाल नाम का राजा था। उसके धर नाम का व्यापारी था। उसकी धन्या नामक स्त्री थी। उसके धनपति और धनावह नाम के दो पुत्र तथा गुणश्री नाम की पुत्री थी। वह पुत्री मैं ही हूँ। मेरा विवाह उसी नगर के निवासी सोमदेव के साथ हुआ था। मेरे पति की मृत्यु हो गयी। मुझे वैराग्य उत्पन्न हो गया। एक बार चन्द्रकान्ता नामक गणिनी आयीं । गणिनी के उपदेश से धर्मकार्य में रत हो गयी। एक बार छल से मैंने धनपति की पत्नी से धर्मोपदेशपूर्वक कहा -- अधिक कहने से क्या, साड़ी की रक्षा करो। उसके पति ने यह सुन लिया और सोचा कि निश्चित रूप में यह दुराचारिणी है, नहीं तो बहिन ऐसा कैसे कहतीं ? धनपति रुष्ट हो गया। अनन्तर मेरे समझाने पर वह प्रकृतिस्थ हो गया। दूसरे भाई की पत्नी से मैंने दूसरे प्रकार कहा अधिक कहने से क्या हाथ की रक्षा करो। उस जोड़े का भी वही हाल हुआ । इसी बीच मैंने कपटवचन कहने के रोष से तीव्र कर्म बाँधा में दोनों भाइयों और भाभियों के साथ प्रव्रजित हुई। आयु पूरी कर स्वर्गलोक गये । वहाँ भी आयु पूरी कर पहले मेरे भाई च्युत होकर इसी चम्पानगरी के पुष्पदत्त धनी के शम्पा नामक स्त्री के गर्भ से उत्पन्न हुए। उन दोनों के नाम बन्धुदेव और सागर रखे गये। अनन्तर में स्वर्गलोक से युत हुई और गजपुर में शंख नामक धनी की शुभकान्ता नामक स्त्री के गर्भ में कन्या के रूप में आयी। कालक्रम से मेरा जन्म हुआ। मेरा नाम सर्वांगसुन्दरी रखा गया। दोनों भाभियां भी स्वर्गलोक से च्युत होकर कोशलपुर नगर में नन्दन नामक धनी की देविला नामक स्त्री के गर्भ में कन्या के रूप में उत्पन्न हुईं। दोनों के नाम क्रमशः श्रीमती और कान्तिमती रखे गये कुछ समय बीता । मेरा बन्धुदेव के साथ विवाह हुआ । विवाह के अनन्तर जब बन्धुदेव शयन - गृह में प्रविष्ट हो रहा था तभी कपट के कारण बाँधा हुआ मेरा पहला कर्म उदित हुआ। अनन्त कर्मपरिणाम की अचिन्त्यता के कारण किसी प्रकार वहाँ क्षेत्रपाल आ गया। उसने सोचा-बन्धुदेव को धोखा दूँ इन दोनों का समागम न हो । अन्य पुरुष के रूप में बन्धुदेव को दिखाऊंगा और अपनी स्त्री के समान सर्वांगसुन्दरी से व्यवहार कर शंका उत्पन्न करूँगा - ऐसा सोचकर उसने जैसा सोचा था वैसा किया। बन्धुदेव ने खिड़की में झांककर देखा कि कोई देवी पुरुषाकृति कह रही है आज यहाँ सर्वांगसुन्दरी कहाँ है ? उसके मन में विकल्प हुआ और उस बन्धुदेव को कषायों ने जकड़ लिया । उसने सोचा मेरी स्त्री दुष्टशील वाली है। उसका स्नेह सम्बन्ध टूट गया। अनन्तर मैंने माता-पिता की अ. ज्ञा लेकर यशोमती नामक साध्वियों की प्रमुख ( प्रवर्तिनी) से दीक्षा ले ली। इधर बन्धुदेव ने कोशलपुर में नन्द की पुत्री श्रीमती से विवाह किया और उसके भाई के साथ श्रीमती की बहिन कान्तिमती का विवाह हुआ। वह उन दोनों को चम्पा ले आया। इसी बीच विहार करती हुई में चम्पा आधी पूर्वभव के अभ्यास के कारण श्रीमती और कान्तिमती की मेरे प्रति प्रीति हो गई। इसी बीच मेरा दूसरा कर्म उदय में आया । श्रीमती और कान्तिमती की मेरे प्रति असाधारण भक्ति होने के कारण इन दोनों के भवन का वनमन्तर विस्मित हुआ। उसने सोचा- मैं धन चुराकर इन दोनों के साध्वी के प्रति चित्त को देखता हूँ । उस व्यन्तर के प्रयोग से चित्र से ही मोर उतरा। उसने बन्धुमती का हार लेकर उदर में डाला और अपने स्थान पर स्थित हो गया। मैंने आकर प्रवर्तिनी ( साध्वियों की प्रमुख) से कहा। उसने कहावत्से ! कर्म की परिणिति विचित्र है, इसके लिए कुछ भी असम्भव नहीं । अतः अत्यधिक तप करना चाहिए और उस व्यापारी के घर नहीं जाना चाहिए। अनन्तर वे दोनों ही प्रतिश्रय में आने लगीं कुछ दिन के बाद मेरे शुभ परिणाम बढ़े और मुझे केवलज्ञान उत्पन्न हो गया। उस कारणभूत कर्म के क्षीण होने परवानमन्तरको पश्चात्ताप हुआ और उसके प्रयोग से मोर ने हार छोड़ दिया। यह सुनकर राजदेव ૪૦ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका... और बन्धुदेव प्रवजित हो गये । उन्होंने हरिषेण युवराज को राज्य दे दिया। कुछ समय बीता । विषेण ने सेन के घातक भेजे । उन्होंने छल नहीं पाया । एक बार राजपुर के स्वामी के पास से एक राजपुरुष आया। उसने कहा-हे राजन् ! राजपुर के स्वामी ने निवेदन किया है कि मेरे एक शान्तिमती नामक कन्या है । उसे आप जिस कुमार को अधिक मानते हों, उसे देने की मैं अनुमति देता हूँ । राजा ने कहा-प्रथम कुमार सेन की यह गृहिणी हो । इस घटना से विषेण दुःखी हुआ। कुमार सेन और शान्तिमती का विवाह हुआ। कुछ दिनों के बाद एक बार वसन्त मास आया। कुमारसेन क्रीड़ा के लिए अमरनन्दन नामक उद्यान में गया । भवन के नीचे गये हए कुमार विषेण ने उसे देखा । उसे देखकर पूर्वकर्म की प्रबलता से विषेण को डाह उत्पन्न हुई उसने कुमारसेन को मारने वालों को प्रयुक्त किया । कुमार अपनी वीरता के कारण उन आदमियों के प्रहार से बच गया। राजा को ज्ञात हुआ कि इन लोगों को विषेण ने प्रेरित किया है अतः वह उस पर कुपित हुआ। उसने विषेणकुमार को राज्य से निकालने का आदेश दिया। किन्तु कुमार सेन के आग्रह से उसे छोड़ दिया। ___ एक बार कौमुदी महोत्सव आने पर एक मतवाले हाथी को कुमार सेन ने वश में किया । यह सुनकर विषेण अत्यधिक ःखी हआ। उसे कषायों ने जकड़ लिया। एक बार शान्तिमती के साथ जब कुमार उद्यान में था तब उसे मारने के लिए कुमार विषेण कुछ व्यक्तियों के साथ गया। विश्वस्त होकर तलवार खीची। उसे शान्तिमती ने देख लिया। अनन्तर कुमारसेन ने विषेण को घायल कर उसके हाथ से छरी छीन ली। कमार सेन ने सोचा कि राज्य को लक्ष्य कर कुमार किसी के द्वारा ठगा गया है. अतः विचारविमर्श कर शान्तिमती और कुमार सेन किसी को बिना बतलाये ही राज्य से बाहर निकल गये। दोनों चम्पावास नामक सन्निवेश में पहुंचे। वहां पर ताम्रलिप्ती को जाते हुए राजपुर निवासी सानुदेव नामक सार्थवाहपुत्र ने उसे देख लिया और पहिचान लिया। व्यापारियों के साथ कुमार भी शान्तिमती को लेकर चल पड़ा । आगे चलकर दन्तवलभिका नामक एक बड़ा वन मिला। जब मजदूर माल चढ़ाने के लिए गये, सुभट आवश्यक कार्य करने लगे तब अनायास ही बाणों की वर्षा करती हुई भीलों की सेना ने उन पर आक्रमण कर दिया। शबर सेना को कुमार ने पराजित कर दिया। भिल्ल राजकुमार का सेवक बन गया। इसी बीच ज्ञात हुआ कि शान्तिमती दिखाई नहीं दे रही है । भिल्लराज अन्य शबरों के साथ उसे ढूढ़ने लगा। शान्तिमती किसी प्रकार तापसियों के आश्रम में पहुंच गयी थी। एक बार ठक्कुरों ने शबरों पर आक्रमण किया । कुमार और पल्लीपति को ठक्कुरों ने पकड़ लिया । ठक्कुरों के प्रधान समरकेतु ने कुमार से प्रभावित होकर राजपुत्री शान्तिमती की खोज के लिए आदमी भेजे तथा सानुदेव को टोली सहित विदा कर दिया । सोमसूर नामक व्यक्ति ने सुझाव दिया कि नन्दनवन में 'प्रियमेलक' नाम का वृक्ष है । उसके नीचे जाने पर प्रियतमा के साथ कुमार का मिलन होगा। कुमार पल्लीपति की आज्ञा से वहाँ जाने को प्रवृत्त हुआ। प्रियमेलक वृक्ष के पास तपोवन में शान्तिमती की प्राप्ति हुई। शान्तिमती के साथ विषयसुख का अनुभव करते हुए कुमार के कुछ दिन बीत गये । एक बार कर्मों के परिणाम की विचित्रता तथा संसार की असारता से महाराज समरकेतु के पास यम के समान सद्याघाती नामक बीमारी आ गयी। मानो आँतें उखड़ गयी हों, इस प्रकार शूल उठा । कुमार ने आरोग्यमणिरत्न के प्रभाव से राजा की बीमारी दूर कर दी। एक बार कहीं से यह वृत्तान्त जानकर प्रधानमन्त्री का पुत्र अमरगुरु आया। उसने महाराज की प्रव्रज्या, विष्णकुमार को राज्य देना तथा विषेण के राज्य से प्रजा का असन्तुष्ट होना, इत्यादि बातों की जानकारी कुमार को दी। कुछ दिन बीतने के बाद कुमार ने विषेण के राज्य पर ध्यान दिया। अपने परिजनों के साथ समरसेन के यहाँ रहते हुए उसका कुछ समय बीत गया। अनन्तर शुभयोग में शान्तिमती के .. Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ पुत्र उत्पन्न हुआ । पितामह के समान उसका नाम समरसेन रखा गया । एक बार चम्पा से अमरगुरु के द्वारा भेजा हुआ गुप्तचर आया । उसने निवेदन किया कि विषेण को राज्य से विरक्त जान अचलपुर के स्वामी मुक्तापीठ ने स्वयं आकर थोड़े ही दिनों में चम्पा ले ली। मुक्तापीठ ने भण्डार ले लिया, राज्य को वश में कर लिया । समरकेतु के साथ कुमार मुक्तापीठ से युद्ध के लिए चल पड़ा। युद्ध हुआ । युद्ध में कुमार ने मुक्तापीठ को जीत लिया । कुमार ने विषेण को राज्य पर अधिष्ठित करना चाहा, किन्तु वह नहीं आया । उसने कहला भेजा कि वह दूसरों की भुजाओं से उपार्जित राज्य नहीं करना चाहता है । प्रजा के कहने से कुमार सेन ने राज्य-भार स्वीकृत कर लिया । [ रामराज्यका इस बीच कुमार के वृत्तान्त को सुनकर 'यह महापुरुष है, संयम का भार धारण करने योग्य हैं, ऐसा विचारकर करुणापूर्ण हृदय वाले चाचा हरिषेणाचार्य अनेक साधुओं के साथ कुमार के पास आये। कुमार हर्षित हुआ । उसने वन्दना की । राजर्षि ने धर्मलाभ दिया । राजर्षि ने गुरु के द्वारा कहा हुआ एक वृत्तान्त सुनाया, जिसे सुनकर राजा सेन वैराग्य को प्राप्त हो गया। राज्य पर कुमार अमरसेन को बैठाकर शास्त्रोक्त विधि से शान्तिमती के साथ, अमरगुरु आदि प्रधान परिजनों को साथ लेकर कुमार सेन हरिषेण गुरु के पास प्रव्रजित हो गया । अनन्तर गाँव में एक रात्रि, नगर में पाँच रात्रि विहार करते हुए अधिक समय बीत जाने पर सेन कोलाक सन्निवेश में आये । कुमार विषेण ने उन्हें देखकर मारने का विचार किया । आधी रात के समय तलवार लेकर वह अकेला ही मुनिवर के पास गया । उसने भगवान् के ऊपर तलवार चलायी । तलवार को क्षेत्रदेवी ने छीन लिया । विषेण स्तम्भित हो गया। देवी ने उसे कठोर वचन कहकर भगाया, किन्तु तीव्र कषाय के उदय से देवी के वचन को न मानकर वह पुनः भगवान् को मारने के लिए प्रवृत्त हुआ। देवी ने थप्पड़ मार दिया। विषेण रुधिर का वमन करता हुआ पृथ्वी पर गिर गया, वेदना से मूर्च्छित हो गया। 'भगवान् को बाधा होगी' - यह सोचकर बनदेवी क्षुब्ध हुई। करुणायुक्त हो उसने विषैण को आश्वस्त कर वनकुंज में ले जाकर छोड़ दिया। ओह ! मेरे पापकर्म का यह फल है, अतः यह नहीं मारा गया। इस प्रकार रौद्र ध्यान कर नरक की आयु बाँध ली। एक बार परिजनों के वियुक्त हो जाने पर क्षुधा से पीड़ित अकेला ही भ्रमण करते हुए, दीन स्वर में बोलते हुए विषेण को वोप्पिल अटवी के मध्यभाग में शबरों ने मार डाला। वह तमः नामक नरक की पृथ्वी में बाईस सागर की आयु वाला नारकी हुआ । भगवान् सेन मुनि भी संयमपूर्वक विहार कर अन्त में सल्लेखनापूर्वक मरण तैतीस सागर की आयु वाले देव हुए। कर नवम ग्रैवेयक में आठवें भव की कथा जम्बूद्वीप के भारतवर्ष में अयोध्या नामक नगरी है। वहाँ मैत्रीबल नाम का राजा था। उसकी पद्मावती नामक रानी थी। नवम ग्रैवेयक का निवासी वह देव आयु पूरी कर वहाँ से च्युत होकर पद्मावती की कुक्षि से गुणचन्द्र नामक पुत्र के रूप में उत्पन्न हुआ । विषेण का जीव नारकी उस नरक से निकलकर पुनः संसार में भ्रमण कर वैताढ्य पर्वत के रथनूपुर चक्रवालपुर नगर में विद्याधर के रूप में उत्पन्न हुआ। उसका नाम 'वानमन्तर' रखा गया। एक बार वह अयोध्या के मदननन्दन नामक उद्यान में आया। उसने उस उद्यान में चित्रकला के विनोद का अनुभव करते हुए कुमार गुणचन्द्र को देखा । उसे देखकर पापकर्म के उदय से उसे अरति ने जकड़ लिया। उसने सोचा- मेरे दुःख का कारण यह कौन है अथवा इस की जानकारी मे क्या इस दुराचारी को ही मार डालता हूँ। उसने कुमार पर विद्या के बल से नाना प्रकार के Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका ४३ उपद्रव करना प्रारम्भ किया। इसी बीच कहीं से गमनरति नामक क्षेत्रपाल वानव्यन्तर आया। उसे देखकर शक्ति की कमी तथा विद्याबल की अल्पता के कारण वानमन्तर विद्याधर भाग गया। उत्तरापथ देश के शंखपुर पत्तन में शांखायन नाम का राजा था। उसकी स्त्री कान्तिमती थी। उसकी पत्री का नाम रत्नवती था। वह रूप की अधिकता के कारण मनियों के मन को हरण करने वाली थी तथा कला में विचक्षण होने के कारण अन्य कन्याओं से असाधारण थी। उसके विवाह की चिन्ता करती हई कान्तिमती ने प्रत्येक दिशा में राजपुत्रों के रूप और ज्ञान को जानने के लिए आदमी भेजे । राजपुरुष प्रत्येक दिशा में गये । उन्होंने बहुत से राजपुत्रों को देखा । अन्त में उन्होंने कुमार गुणचन्द्र को रत्नवती के योग्य पाया। शुभ मुहूर्त में दोनों का विवाह हुआ। एक बार सीमा पर रहने वाला 'विग्रह' नामक राजा मैत्रीबल के विरुद्ध हो गया। उसने उनके ऊपर आक्रमण कर दिया । कुमार विग्रह को दबाने के लिए ससैन्य गया । विग्रह ने दुर्ग का आश्रय लिया। इसी बीच किसी प्रकार घूमते हुए उस स्थान पर वानमन्तर आया। उसने दुर्ग के समीप अश्वक्रीडनक भूमि में कुमार को देखा । गुणचन्द्र का अहित करने की इच्छा से उसने विग्रह से मैत्री कर ली । विग्रह के आग्रह पर वह रात्रि में विग्रह को वानमन्तर के महल में ले गया। विग्रह ने सोते हुए गुणचन्द्र को जगाया। दोनों का युद्ध हुआ । अन्त में बाल खींचकर गुणचन्द्र ने विग्रह को गिरा दिया । 'कुमार की जय हो' ऐसा कोलाहल उठने के बाद वानमन्तर अन्तर्धान हो गया। कुमार गुणचन्द्र ने विग्रह से मैत्री स्थापित कर ली। इसी बीच भगवान् विजयधर्म नामक आचार्य आयोध्या आये । कुमार उनकी वन्दना के लिए विग्रह और प्रधान परिजनों के साथ गया । आचार्य की वन्दना की । इसी समय आकाश से दिव्यरूप सम्पन्न, हर्षित, युतिमान् विद्याधर कुमार वहाँ आया । उसने कहा-भगवन् ! आपने अपना जो वृत्तान्त यहाँ कहा है, उसके विषय में मुझे बड़ा कौतूहल है । अत: मुझ पर अनुग्रह करने के लिए कहिए । भगवान् ने कहा- तुम लोगों को यदि कोतूहल है तो सुनो इस भारतवर्ष में विख्यात मिथिला नामक नगरी है । उसका मैं विजयधर्म नाम का राजा था। मुझे चन्द्रधर्मा नामक पटरानी इष्ट थी। एक बार एकाएक 'स्त्रीजन है', ऐसा मानकर मेरे हृदय को न जानते हुए किसी मन्त्र सिद्ध करने वाले ने मन्त्र के विधान के लिए उसे अन्तःपुर के मध्य से हर लिया। यह वृत्तान्त सुनकर मुझे बहुत अधिक दुःख हुआ। तीन दिन बीत गये। चौथे दिन तप के कारण दुर्बल, शरीर में भस्म लगाये, जटाधारी मन्त्र सिद्ध करने वाला आया और उसने कहा-राजन् ! आप क्यों आकुल होते हैं ? मन्त्र के विधान के लिए मैंने आपकी पत्नी ले ली थी। आप उसे पहिले न माँगें । उसका शीलभेद नहीं होगा और न शरीर को पीड़ा होगी। अत: अत्यधिक दुःखी मत हों, मैं छह माह में दूंगा-ऐसा कहकर अदृश्य हो गया । मेरे पाँच माह बड़े कष्ट से बीते । अनन्तर बधाई देने वाले ने हर्षित हो एकाएक कहा कि महाराज तीर्थकर देव आये हैं । मैं परमभक्तियुक्त हो उनके समवसरण में गया और पुनः-पुन: नमस्कार कर अपने स्थान पर बैठ गया । भगवान् ने धर्मोपदेश दिया। सारी सभा सन्तुष्ट हुई। इसी बीच समवसरण में मुझे देवी दिखाई दी। मैंने भगवान् जिनेन्द्र से अपना दोष पूछा, जिसके कारण महारानी के विरह में मैंने दारुण दुःख का अनुभव किया। उन्होंने कहना आरम्भ किया जम्बूद्वीप के भारतवर्ष में विन्ध्य नामफ पर्वत है । वहाँ पर तुम शिखरसेन नामक शबरों के राजा थे। उस वन में तुमने भयभीत और सुख के अभिलाषी शूकर, साँड, पसय (मृगविशेष) और हरिणों के जोड़ों को अलग किया । यह महारानी भी तुम्हारी श्रीमती नामक स्त्री थी। एक बार साधुओं का एक समूह रास्ता भूलकर अत्यन्त दुर्बल हुआ उस स्थान पर आया। उन्हें देखकर तुम्हारे मन में दया उत्पन्न Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ समराइचकहा हुई। पत्नी के कहने पर तुमने उन्हें श्रद्धापूर्वक योग्य आहार कराया और ठीक रास्ता बतला दिया । उन साधुओं ने तुम्हें जिनोपदेशित धर्म कहा । तुम दोनों ने पक्ष के एक दिन सावध आरम्भ का त्याग करने की प्रतिज्ञा की एक ऐसे ही दिन एक बार एक सिंह ने तुम दोनों के ऊपर आक्रमण किया। व्रत के कारण तुमने कोई प्रतिकार नहीं किया। अतः सिंह के द्वारा मारे जाकर तुम दोनों एक ही समय सौधर्म स्वर्ग में ऋद्धिधारी देव हुए । पल्योपम आयु वाले आप दोनों वहाँ भोग भोगकर आयु क्षीण हो जाने पर इसी देश में उत्पन्न हुए। वहाँ पर सुन्दर संयोग को पाकर भी जिस प्रकार कठिन दुःख को तुमने पाया, उसे सुनोपश्चिम विदेह क्षेत्र में चक्रपुर नाम का नगर है । वहाँ पर कुरुमृगांक नाम का राजा अपनी महारानी बालचन्द्रा के साथ रहता था। बालचन्द्रा के गर्भ में तुम आये तुम्हारी देवी भी राजा के साले सुभूषण के घर पुण्यवती कुरुमती देवी के उदर में आयी । उत्पन्न होने पर तुम्हारा नाम समरमृगांक और देवी का नाम अशोक देवी रखा गया । अनन्तर वृद्धि को प्राप्त होने पर तुम दोनों का विवाह हुआ । अनन्तर तुम्हारे माता-पिता विरक्त होकर प्रव्रजित हो गये। तुम अपने राज्य पर राजा के रूप में विराजमान हुए । इसी समय तिर्यंचों का वियोग और निर्दयता पूर्वक उनका घात करने के दुष्ट कर्मों का फल तुम्हारे उदय में आया। उसी देश के भम्भानगर के राजा श्रीबल के साथ तुम्हारा अकारण युद्ध हुआ । उसमें तुम श्रीबल के द्वारा मारे गये । रौद्रध्यान के कारण मरकर कर्म के दोष से प्रथम नरक में सत्रह सागर की आयु वाले नारकी हुए। तुम्हारे मरण से दुःखी महारानी ने निदान किया कि 'राजा समरमृगांक जिस स्थान में उत्पन्न हुआ है, एकमात्र उसी स्थान में मैं भी नियम से उत्पन्न होऊँ ।' अनन्तर अग्नि में प्रविष्ट हो दुःखी मन वाली वह मरकर जिस नरक में वहीं उत्पन्न हुई । तुम नरक से निकलकर पुष्करार्द्धं भरत की वेण्णा नगरी में दरिद्र गृहपति के घर पुत्र रूप में उत्पन्न हुए तुम्हारी पत्नी भी उसी भारतवर्ष में तुम्हारी सजातीय दरिद्र पुत्री हुई तुम दोनों का विवाह हुआ। एक बार तुम दोनों को अपने घर में बैठे देखकर आहार के लिए साध्वियां आयीं। तुम दोनों ने विधिपूर्वक प्रासुक भिक्षा का दान दिया। अनन्तर साध्वियों के प्रतिश्रय में जाकर तुम दोनों ने गणिनी की वन्दना की। गणिनी के उपदेशानुसार तुम दोनों ने भावक के व्रत ग्रहण किये। अनन्तर मृत्यु को प्राप्त कर ब्रह्मलोक नामक स्वर्ग में उत्पन्न हुए। वहाँ से ब्युत होकर दोनों यहाँ राजा के घर उत्पन्न हुए। शबर- जन्म के तीव्र कर्म के कारण तुम दोनों ने दुःख भोगा है। यह वृत्तान्त सुनकर मैंने महारानी और प्रधान परिजनों के साथ प्रव्रज्या अंगीकार कर ली। इस प्रकार अपना वृत्तान्त कहकर भगवान् शेष साधुओं के साथ चले गये । दिन वानमन्तर अयोध्या आया । उसने कुमार के परिजनों के समीप कपटवार्ता की कि विग्रह ने कुमार को मार डाला है । यह सुनकर रत्नवती मूच्छित हो गयी, परिजन व्याकुल हो गये । अनन्तर एक गणिनी से कुमार गुणचन्द्र की कुशलता की बात सुनकर रत्नवती ने धैर्य धारण किया। रत्नवती ने गणिनी से पूछा- किस कर्म का यह इस प्रकार का महा भयंकर फल है ? गणिनी ने कहा- थोड़ी-सी अज्ञान चेष्टा का यह फल है, सुनो, थोड़े से कर्म से मैंने जो पाया। 'तुम । 1 एक कौशल देश का नरसुन्दर नाम का राजा था । उसकी मैं इस जन्म की पत्नी थी। एक बार वह घोड़े पर सवार होकर गया अभिमानी घोड़ा उसे हर ले गया और महावन में छोड़ दिया। उस राजा ने मध्याह्नकाल में एक अपूर्व दर्शन वाली स्त्री देखी। राजा के पूछने पर उसने अपना परिचय दिया कि मैं यक्षिणी हूँ और यह विन्ध्य वन है। मैं नन्दनवन से प्रियतम के साथ मलयवन जा रही थी। इस स्थान पर मेरे प्रियतम कुपित हो गये और मुझे छोड़कर चले गये। अनन्तर राजा को उसने अपने ऊपर अनुरक्त करने की चेष्टाएँ कीं । राजा ने उसे समझाया, किन्तु वह नहीं मानी। अनन्तर वह द्वेषी हो राजा को मारने ब. Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५ भूमिका ] दौडी। राजा ने हंकार की । यक्षिणी अदृश्य हो गयी। एक बार वह मेरे समान शरीर धारण कर राजा की शय्या पर चली गयी । राजा ने मुझे यक्षिणी समझकर राजपुरुषों के द्वारा अपमानित कराकर बाहर निकाल दिया। अनन्तर मैं अपने आपको मारने का विचार कर पर्वत के सम्मुख गयी । गुफा में स्थित कुछ साधुओं ने मुझे देखा। एक सुगहीत नाम वाले साधु ने मुझे समझाया। मैंने उनसे पूछा -- मैंने कौन-सा पाप किया, जिसका यह फल है । भगवान् ने कहा-पुत्री ! सुनो--- भारतवर्ष के उत्तरापथ देश में ब्रह्मपुर नगर है । वहाँ पर ब्रह्मसेन नाम का राजा था । उस राजा के विदुर नाम का ब्राह्मण था। उसकी पुरन्दरयशा नामक पत्नी थी। उन दोनों के तुम इससे पहले नौवें भव में चन्द्रयशा नामक पुत्री थी। चन्द्रयशा की यशोदास सेठ की पत्नी बन्धुसुन्दरी से प्रीति हो गयी । एक बार बन्धुसुन्दरी ने चन्द्रयशा से कहा---मेरे पति मुझसे विरक्त होकर मदिरावती के प्रति अत्यधिक आसक्त हैं । चन्द्रयशा एक परिव्राजिका के पास गयी और उससे एक विशेष प्रकार का चूर्ण बनवाया तथा उसका विधिपूर्वक प्रयोग कराया, जिससे सेठ ने मदिरावती को छोड़ दिया। इस कारण तुमने क्लिष्ट कर्म बाँधा। आय के अन्त में मृत हो उसी कर्म के दोष से हथिनी हुई और यूथाधिप की अप्रिय बनी। हाथी को पकड़ने के लिए बनाये गये गड्ढे में गिरकर वहाँ पर मृत हो उसी कर्म के दोष से बानरी हुई ! वहाँ भी झुण्ड के स्वामी की अत्यन्त अप्रिय थी। अनन्तर क्रमश: कुत्ती, बिल्ली, चकवी तथा चाण्डाल स्त्री हुई और उसी कर्म के दोष से अपने स्वामियों के द्वारा छोड़ी गयी । अनन्तर शबरी होकर शबर-स्वामी द्वारा त्यागी गयी । शबरी के भव में रास्ता भूले हुए साधुओं को रास्ता दिखाने तथा धर्म धारण करने के प्रभाव से उस शेष कर्म के दोष के साथ ही श्वेतविका के राजा की पुत्री हुई। उस कर्म के शेष रहने के कारण ही यक्षिणी के रूप से ठगे गये राजा ने तुम्हारा तिरस्कार किया। दूसरे दिन राजा उसके समीप आया। रानी ने राजा से सारा वृत्तान्त कहा । यह सुनकर राजा विस्मित हुआ और सुरसुन्दर नामक बड़े पुत्र को राज्य पर बैठाकर अनेक सामन्त, अमात्य और समस्त अन्तःपुर के साथ प्रवजित हो गया। यह सुनकर रत्नवती ने कहा- भगवती ! आपने बहुत दुःख भोगा। अब मुझे अपने कर्तव्य का आदेश दीजिए। भगवती ने उसे श्रावक के व्रत ग्रहण कराये। पाँचवें दिन कुमार आया। रत्नवती सन्तुष्ट हुई । काल-क्रम से रत्नवती के पुत्र उत्पन्न हुआ। पौत्र-मुख दर्शन से कृतार्थ हो मैत्रीबल प्रवजित हो गया। कुमार भी महाराज हो गये । राज्य-पालन करते हुए कुछ समय बीत गया। एक बार नदी को देखने के निमित्त से राजा को वैराग्य हो गया। उसने विजयधर्म मुनिवर के पास दीक्षा ले ली । निरतिचार घुमते हए उनका कुछ समय बीत गया। एक बार वह कोल्लाक सन्निवेश में गये और वहाँ प्रतिमा-योग से स्थित हो गये । वानमन्तर ने गुणचन्द्र मुनिराज के ऊपर अनेक प्रकार के उपसर्ग किये। मुनिराज निष्कम्प रहे । राजा ने आकर उनकी वन्दना की। विरक्त होकर राजा भी प्रव्रजित हो गया। कुछ समय बीत गया। __ वानमन्तर इस भव की आयु लगभग क्षीण होने पर ऋषि के वधरूप परिणामों से अशुभकर्मों का संचय कर तीव्र रोगग्रस्त हो गया । अत्यधिक दुःख से व्याकुल हो वह रौद्रध्यान के दोष से मरकर 'महातम' नामक नरक की पृथ्वी में तैतीस सागर की आयु वाले नारकी के रूप में उत्पन्न हुआ। मुनिराज भी समाधिमरण धारण कर देह त्यागकर सर्वार्थसिद्धि नामक विमान में तैतीस सागर की आयु वाले देव के रूप में उत्पन्न हुए। नौवें भव की कथा जम्बूद्वीप के भारतवर्ष में उज्जयिनी नगरी में पुरुषसिह नामक राजा राज्य करता था। उसकी Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ x; [ समराइच्चकहां सुन्दरी नामक पत्नी थी। सर्वार्थसिद्धि नामक महाविमान का निवासी वह देव बायु पूरी कर वहाँ से च्युत होकर सुन्दरी के गर्भ में आया । अनन्तर शुभतिथि, करण और मुहूर्त के योग में बिना क्लेश के सुन्दरी ने प्रसव किया। उसके पुत्र उत्पन्न हुआ। पुत्र का नाम समरादित्य रखा गया। इसी बीच वानमन्तर का जीव वह नारकी उस नरक से निकलकर अनेक तिर्यंच योनियों में भ्रमण कर उज्जयिनी के ग्रन्थिक नाम वाले चाण्डाल की यक्षदेवा नामक पत्नी के गर्भ से पुत्र के रूप में उत्पन्न हुआ । उसका नाम गिरिषेण रखा गया । वह कुरूप और बुद्धि था तथा दरिद्रता के कारण दुःखित होकर समय बिता रहा था। पूर्वभव के अभ्यास से । समरादिस्य शास्त्रों में अनुरक्त रहकर अविरल चिन्तन करता रहता था। अनेक प्रकार के भावों का अनुमान करता था तथा श्रद्धापूर्वक विरक्ति के मार्ग पर गमन कर रहा था। अशोक कामांकुर तथा ललितांग जैसे मित्र कुमार को विषयोन्मुख नहीं कर सके। एक बार वसन्त का समय आया । नगर का उत्सव देखने के लिए नगर के बड़े लोगों ने राजा से निवेदन किया। राजा ने कुमार को इस कार्य में प्रवृत किया । कुमार ने मदनमहोत्सव के समय अनेक सुन्दर दृश्य देखे । एक रोगी पुरुष, एक बूढ़े सेठ का जोड़ा तथा एक मृत्यु को प्राप्त पुरुष को देखकर कुमार का मन विरक्त हो गया । उसने नागरिकों को भी उद्बोधित किया। नागरिक लोग नृत्य से विरत हो गये । इस बीच देवसेन ब्राह्मण से इस घटना को सुनकर अत्यधिक भयभीत राजा ने कुमार को प्रतीहार भेजकर शीघ्र बुला लिया। एक बार राजा ने कहा— कुमार! तुम्हारे मामा महाराज खड्गसेन ने आदरपूर्वक लोकापवाद से रहित विभ्रमवती और कामलता नामक, प्राणों से भी अधिक प्यारी, दो कन्याएँ स्वयम्बर में भेजी हैं। उन्हें स्वीकार कर तुम सब लोगों को आनन्दित करो। कुमार ने स्वीकृति दे दी । राजा सन्तुष्ट हुआ । योग्य समय पर विवाह सम्पन्न हुआ। दोनों कन्याओं की विषयानुरक्ति देखकर कुमार ने समझाने के लिए एक कथा प्रस्तुत की कामरूप देश में मदनपुर नाम का नगर था । उसमें प्रद्युम्न नाम का राजा था। उसकी रति नामक पत्नी थी। विषय-सुख का अनुभव करते हुए उन दोनों का कुछ समय बीत गया। एक बार इक्के से कहीं गया। दरवाजे में खड़ी रति ने दिशाओं को देखते हुए सड़क पर चलकर देवमन्दिर की ओर प्रस्थान करते हुए विमलमति सार्थवाह के पुत्र शुभंकर नामक युवा सेठ को देखा । उसे देखकर रानी की उसके प्रति अभिलाषा हो गयी । सविलास देखा । शुभंकर भी उसके प्रति आसक्त हो गया। जालिनी नामक सखी से कहलाकर रति ने उसे अपने शयनगृह में बुला लिया। इसी बीच रानी को राजा के आने का समाचार विदित हुआ । रति ने भयभीत होकर शुभंकर को शौच गृह में भेज दिया । राजा आया। कुछ समय बाद वह शौचगृह गया । अपने प्राण संकट में देख अत्यन्त भयभीत हो शुभंकर ने अपने आपको शौचगृह के गड्ढे में गिरा दिया। वहाँ वह अपवित्र पदार्थों से भर गया, कीड़ों से विध गया उसके नेत्रों का विस्तार रुक गया, अंग सिकुड़ गये, वेदना उत्पन्न हुई तथा अत्यधिक आकुल-व्याकुल हो गया । कुछ समय बिताकर वह धोने के लिए शौचगृह के खुलने पर अशुचि के निकलने के मार्ग से रात्रि में निकल गया । उसके शरीर की प्रभा नष्ट हो गयी, नाखून और रोम नष्ट हो गये किसी प्रकार धोकर बड़े क्लेश से अपने घर गया। किसी ने उसे नहीं पहिचाना। एकान्त में जाकर उसने अपने पिता को सब हाल बतला दिया । कुछ दिनों में सहस्र पाक आदि के प्रयोग से शुभंकर स्वस्थ हो गया। योग्य समय पर वह पुन: देवमन्दिर गया, पुनः रानी ने उसे जालिनी को भेजकर बुलाया, उसी प्रकार पुनः उसका शौचगृह में गिरना हुआ। इस प्रकार की घटना अनेक बार हुई। अतः आप दोनों राजकन्याओं से मैं पूछता हूँ कि क्या रति का यथार्थ में शुभंकर के प्रति अनुराग है अथवा नहीं है ? 1 1 Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका ] दोनों राजकन्याओं ने कहा कि रति बुद्धिरहित है जो कि अपनी परतन्त्रता और भावी फल को नहीं देखती है। इसी प्रकार राजकन्याओं का भी मेरे प्रति अनुराग नहीं है, जो कि मुझे अहित में प्रयुक्त कर रही हैं। यह सुनकर दोनों बधुएं उद्विग्न हुई, विशुद्ध भावना उत्पन्न हुई, कर्मराशि नष्ट हो गयी, एकदेश-चरित्र प्राप्त हुआ। दोनों ने जीवन के लिए विषय-भोग छोड़ दिये। कुमार ने भी जीवन के लिए ब्रह्मचर्य अंगीकार कर लिया। इसी बीच वहाँ सुदर्शना नामक देवी आयी। राजा को उसने अपना परिचय दिया और बतलाया कि तुम्हारे पुत्र के गुणों की अनुरागी होकर मैं यहाँ निवास करती हूँ । अनन्तर राजा और महारानी कुमार के पास गये। राजा ने कहा-कुमार ! तुमने कठिन कार्य किया। कुमार ने पिता जी को भली-भाँति समझाया । इसी बीच समीप में ही पुरन्दरभट्ट के घर चिल्लाहट उठी, भीड़ इकट्ठी हो गयी । राजा ने कहा - अरे पता लगाओ, यह क्या है ? कुमार ने कहा--पिता जी ! संसार का खेल है। पुरन्दरभट्ट अभी अधमरा है, अतः उसके घर में चिल्लाहट हो रही है। अपनी नर्मदा नामक पत्नी द्वारा विष के प्रयोग से यह अधमरा है, अत: विष को नष्ट करने में समर्थ वैद्यों को भेजिए, अनन्तर औषधि के प्रयोग से जीवत हो जायगा। दूसरी बात यह है कि उसी घर की गली के दक्षिण पश्चिम भाग में इसी विष के प्रयोग से उसने कुत्ते को मारा है, उसके लिए भी यही औषधि के नियम का प्रयोग करना चाहिए, वह भी इससे जीवित हो जायगा। राजा ने कहने के अनुसार आदेश देकर बैद्य भेजे तथा कुमार से पूछा कि नर्मदा के असत्कार्य का क्या कारण है ? कुमार ने सारी कहानी कह सुनायी। यह सुनकर राजा उद्विग्न हुआ। इसी बीच प्रातःकालीन सूर्य के समान नगरी को प्रकाशित करता हुआ प्रकाश फैला, नगाड़े बजे, कल्पवृक्षों की सुगन्धि फैली और हर्षविशेष बढ़ा। पिता के पूछने पर कुमार ने कहा-यह गुणधर्म सेठ का पुत्र जिनधर्म नाम का श्रेष्ठिकुमार आज ही देवत्व को प्राप्त हो गया । मित्र और पत्नी को प्रतिबोधित करने के लिए यहाँ आया था। उन सभी को प्रतिबोधित किया। अनन्तर स्वर्गगमन करते समय इन्हें ऋद्धियाँ दिखलाने के लिए ऊपर गया है। राजा ने कहा-यह कैसे आज ही देवत्व को प्राप्त हुआ? कुमार ने उसकी भी कथा विस्तृत रूप से सुनायी। यह सुनकर राजा संसार से भयभीत हुआ। कुमार ने राजा तथा अन्य जनों के साथ पुष्पकदण्डक उद्यान में चार ज्ञान के धारक प्रभासाचार्य के पादमूल में सिद्धान्तविधि से दीक्षा प्राप्त की। इस घटना से गिरिषेण दुःखी हुआ। उसने सोचा- ओह ! लोगों की मूढ़ता, जो इस अविद्वान् राजपुत्र का इस प्रकार सम्मान करते हैं, इनके सम्मान के पात्र को दूर करता हूँ। इस दुराचारी को मारता हूँ। इस प्रकार वह उसके छिद्रान्वेषण में लग गया। एक बार समरादित्य मुनि अयोध्यापुरी आये । वहाँ साधु और श्रावकों के साथ शक्रावतार नामक चैत्य पर गये । वहाँ समरादित्य मुनि ने भगवान् ऋषभदेव की प्रतिमा की भावपूर्वक वन्दना की। वहाँ पर चारण मुनि, विद्याधर और सिद्ध आये। मुनि समरादित्य का आगमन जानकर अयोध्या नगरी का स्वामी प्रसन्नचन्द्र परिजनों के साथ आया। उसने धर्म विषयक अनेक प्रश्न समरादित्य से पूछे। अन्य लोगों ने भी प्रश्न किये । उन सबका यथोचित समाधान समरादित्य मुनि से प्राप्त कर सभी सन्तुष्ट हुए । इस प्रकार अनेक देशों में सफल विहार करते हुए कुछ समय बीता। एक बार अवन्ती जनपद में पधारे। विशिष्ट योग की आराधना के लिए एक सन्निवेश के समीप शून्य अशोक उद्यान में समरादित्य वाचक प्रतिमा योग से चिन्तन में तल्लीन होकर स्थित हो गये । बुरे कर्मों से युक्त गिरिषेण ने देखा और Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१ [ समराइच्चकहा अवसर प्राप्त कर शीघ्र ही कहीं से पुराने कपड़े लाकर लपेट दिये और तेल सींच कर आग लगा दी। भगवान् समरादित्य ध्यान-रूपी अग्नि से कर्मेन्धन जलाकर परमज्ञान में स्थित हो केवलज्ञानी हो गये। इसी बीच भगवान् के प्रभाव से समीपवर्ती आसन हिलने पर अवधिज्ञान से जानकर, फूलों का गुच्छ लेकर वेलन्धर आया । उसने भगवान् को प्रणाम किया, फूलों का वर्षा की तथा आग बुझायी । गिरिषेण इस घटना से क्षुब्ध हुआ। इसी बीच समीपवर्ती मुनिचन्द्र राजा; नर्मदा प्रमुख महारानियाँ और महासामन्त आये। भगवान् का केवलज्ञान महोत्सव मनाने के लिए ऐरावत हाथी पर सवार हो इन्द्र देवों सहित आया। इसी बीच 'ओह इसकी महानुभावता, मैंने बुरा किया'--ऐसा सोचकर शुभ पक्ष का बीज फेंककर गिरिसेन चाण्डाल निकल गया । मुनिचन्द्र ने भगवान् से अधम पुरुष के उपसर्ग करने का कारण पूछा । भगवान् समरादित्य ने सारी कथा सुना दी । यह सुनकर राजा, महारानियाँ और सामन्त विरक्त हो गये। भगवान ने धर्मकथा प्रस्तुत की । अनन्तर वे केवलीगमन से विहार कर गये। कुछ समय बीत गया। एक बार चोरी की घटना से उज्जयिनी में गिरिसेन चाण्डाल पकड़ा गया, कुम्हार के आँवे में डालकर मार दिया गया । उस प्रकार के भगवान् के प्रति द्वेष के कारण वह सातवें नरक में उत्पन्न हुआ। भगवान् ने योगी की सर्वोत्कृष्ट अवस्था को प्राप्त किया और समस्त कर्मों का नाश कर सिद्धगति प्राप्त की। देवों ने उनके शरीर की पूजा की। समराइच्चकहा की भाषा और शैली समराइच्चकहा प्राकृत में लिखी गयी है, उसमें जैन महाराष्ट्री का प्रभाव पाया जाता है, यद्यपि अनेक जगह शौरसेनी है।' डॉ० नेमिचन्द्र शास्त्री के कथनानुसार, समराइच्चकहा में जैन महाराष्ट्री में शौरसेनी का पुट देकर एक नया संयोग उपस्थित किया है । गुणसेन और अग्निशर्मा नामक दो परस्पर विरोधी गणों वाले व्यक्तियों के अनेक जन्मों की कहानी का समराइच्चकहा में सुन्दर गुम्फन है। आचार्य हरिभद्र ने अपनी उर्वर कल्पना से पूर्वाचार्यों द्वारा कही गयी कथा में कई अनेक अवान्तर कहानियाँ जोड़कर कथाविन्यास का आकर्षक स्वरूप रखा है, जिससे समराइच्चकहा को प्राकृत गद्यकाव्य की मूर्धन्य कृतियों में विशिष्ट स्थान प्राप्त है। यह गद्य-ग्रन्थ होते हुए भी ऐसा रसपूर्ण एवं अलंकारयुक्त काव्य है कि पद्य-रचना से अधिक आनन्द प्रदान करता है । हरिभद्र ने स्वयं विहार करते हुए एवं पुराने आचार्यों की कृतियों को हृदयंगम करते हुए जो ज्ञान प्राप्त किया था, उसके द्वारा वनों, नगरों, सेना, शिविरों, राज-प्रासादों, ऋषि-आश्रमों आदि का बड़ा यथार्थ और सूक्ष्म वर्णन किया है । इस काव्य में शान्तरस की प्रधानता है, यद्यपि गौण रूप में शृगार, वीर. रौद्र और भयानक रस का भी निरूपण हुआ है। आचार्य हरिभद्र ने संसार से अत्यन्त निर्वेद दिखलाकर अथवा तत्त्वज्ञान द्वारा वैराग्य का उत्कर्ष प्रकट कर शान्त रस की प्रतीति करायी है। अनुप्रास, उत्प्रेक्षा, उपमा, विरोधाभास जैसे अलंकारों का प्रयोग हरिभद्र ने किया है; वस्तुत: ये अलंकार कथावस्तु के प्रवाह में बाधा नहीं पहुंचाते हैं तथा काव्य के सौन्दर्य को बढ़ाते हैं। समराइच्चकहा में कवि की वर्णन-शक्ति, निरीक्षण-सूक्ष्मता, कल्पना-प्रचुरता आदि को देखकर बाण की कादम्बरी की याद आ जाती है । हरिभद्र की वर्णन-निपुणता एवं विविधता बड़ी विलक्षण है । सभी प्रकार के चित्र उपस्थित कर उन्होंने समराइच्चकहा १. डॉ० जगदीश जैन :प्राकृत साहित्य का इतिहास १० ३९४. २. हरिभद्र के प्राकृत कथा साहित्य का आलोचनात्मक परिशीलन, पृ० २८७, Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका को चित्रशाला बना दिया है । हरिभद्र की वर्णन निपुणता की एक आँकी देखिए "इओ य राइणा गुणसेणेणं उवसंतसीरावेयणेणं पुग्छिओ परियणो। अज्ज तस्स महातवस्सिस्स पारणयदियहो; तो सो आगओ पूइओ वा केण न व त्ति । तेहिं संलत्त । महाराय, आगओ आसि; किं तु तुह सोसवेयणाजणिययियसंताव रिचत्तनिययकज्जवावारे परियणे न केणइ संपइओ प्रच्छिओ वा । अमुणियवृत्तंनो य विचित्त ते परियणमवलोइऊण कंचि कालं गमेऊण उविग्गो विय निग्गओ रायगेहाओ त्ति । राइणा भणियं-- अहो मे अहन्नया; चुक्को मि महालाभस्स, संपत्तो य तवस्सि जणदेहपोकरणेण हन्तं अणत्यं ति। एवं विलविऊण बिइयदि यहे पहायसमए चेव गो तवोवणं । दिट्ठा य ते कुलवइमुहा बहवे तावसा, लज्जाविण प्रोणय उत्तिमंगेण पणमिया य णेणं विहिणा।" ---समराइच्चकहा पृ० २४-२५ हरिभद्र दृश्यों को व्योरेवार उपस्थित करते हैं। व्योरों के मूर्तरूप देने और उनका सांगोपांग चित्र खडा कर देने में वे सिद्धहस्त हैं । कुमार गुणसेन के द्वारा कदर्थना किये जाते हुए अग्निसेन का कैसा सांगोपांग चित्र आचार्य ने उपस्थित किया है-- "तम्मि य नयरे अतीव सयलजण बहुमओ धम्मसत्य संघायपादओ लोगववहारतीदकसलो अप्पारंभपरिग्गहो जन्नदत्तो नाम पुरोहियो त्ति । ता य सोमदेवागभसंभ ओ महल्लतिकोणुत्तिमंगो आपिंगलवट्टलोयणो ठाममेतोवलक्खियविविडनामो बिलमत्ताण्णमन्नो विजियदनचलयमहल्लदसणो वंकसुदीहरसिरोहरो विसमारि स्सवहजागो अइम उहवच्छत्यलो वंकविसमलंबोयरो एकपासुन्नयमहल्लवियउ कडियडो पिसमपाइ'टू ऊरुजयलो परिथ ल कढिगहस्सयो विसमवित्थिण्ण चलणो हुयवहसिहाजालपि केसो अग्गिसम्मो नाम प्रत्तो त्ति । तं च कोउहल्लेण कुमारगुणसेणो पहयपडुपड हमुइंग वंसकंसालयप्पहाणेण महया तरेण नयरजणमझे सहत्थतालं हसंतो नच्चावेइ, रासहम्मि रोविष पहटुवहडिभविंदपरिवारियं, छित्तरमयधरियपोंडरीयं मणहरुत्तालवज्जतडिडिमं आग'वयमहारायसई बहसो रायमगे सुनुरियतुरियं हिंडावेइ । एवं च पइदिणं कयंतेणेव तेण कय त्थिज्जंतस्स तस्स वेरग्गभावणा जाया।" -समराइच्च कहा, पृ० ११-१२ समराइच्चकहा की शैली सुभग और मनोरम वैदर्भी शदी है । वर्णनप्रणाली सरल और प्रसादमय है। वर्णनात्मक प्रसंगों में वाक्य लम्बे हैं, किन्तु संवादों में छोटे-छंटे वाक्य हैं । शब्दों में न कृत्रिमता है और न मन को उबा देने वाला विस्तार ही है। रुचिर स्वर, वर्णन तथा पदों से विभूपिन, रस और भावों से अलंकृत वह संसार को आकृष्ट कर रही है । कृत्रिमता या पा िडत्य-प्रदर्शन हरिभद्र की रुचि के प्रतिकूल प्रतीत होता है। उनकी लेखनी में प्रवाह है तथा प्रसादगुण है। चरित्र चित्रण के क्षेत्र में आचार्य की दृष्टि मानव-स्वभाव के विश्लेषण में अधिक गहराई तक सकी है। उनके पात्रों का चरित्र-चित्रण सजीव है। ये पात्र जीवन और जगत् के गम्भीर तत्त्वों का हृदयंगम करा में पूर्णतः समर्थ हैं। अपनी रंजन शक्ति तथा शैली की विशेषता के कारण समराइच्चकहा व्यापारियों, पर्यः कों, परिव्राजकों, नियमपालकों, कवियों तथा समाज के अन्य विभिन्न वर्गों, सभी के लिए उपयोगी है। आध्या िमक जीवन जीव को विकास के चरम बिन्दु पर ले जाता है और आध्यात्मिकता से रहित लौकिक जीवन जीव को पतन की ओर ले जाता है, यह सिद्ध करना समराइच्चकहा का अभिप्रेत है । जीवन की सारी घटनाएँ पूर्वजन्म के कर्मों के अनुसार चल रही हैं । हमें उनके बहाव में न आकर अपने पुरुषार्थ द्वारा अपनी प्रवृत्ति को ऊर्ध्वमुखी बनाना चाहिए, यही आचार्य का उपदेश है। आचार्य ने संसार की असारता का अनुभव कर हृदयगम्य भाषा में वैराग्य की Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ समराइच्चकहा आवश्यकता को समझाया है । वैराग्य की ओर ले जाते हुए वे एक बहुत बड़े दार्शनिक, चिन्तक और सन्त के रूप में दिखलाई देते हैं । हरिभद्र की यह विशेषता है कि उन्होंने प्राचीन कथानकों को बड़ा रोचक बनाकर चमत्कृत कर दिया है । भावों के चित्रण में उनकी कल्पना ने सजीवता भर दी है । कथानक के निर्माण, चरित्र-चित्रण एवं भाषा-शैली में नवीनता दृष्टिगोचर होती है । मधुर, कोमल तथा सुकुमार भावों की अभिव्यंजना में हरिभद्र अद्वितीय हैं। उनकी रचना में ऐसा मनोहर वर्णविन्यास है, ऐसा मधुर संगीत तथा नाद सौन्दर्य भरा रहता है कि पाठक तथा श्रोता दोनों मुग्ध हो जाते हैं । शृंगार रस का चित्रण करते समय वे उस रस के आचार्य प्रतीत होते हैं । शृंगार के संयोग एवं वियोग दोनों पक्षों के बड़े मार्मिक एवं हृदयस्पर्शी चित्र समराइच्चकहा में प्राप्त होते हैं । द्वितीय भव में राजकुमार सिंह और कुसुमावली के मिलन का प्रथम दृश्य देखिए - "चितियमिमोए - - - कहं कीला संदरुज्जाणस्स रम्मयाए भयवं मयरद्धओ वि एत्थेव कीलासुहमणहवइति । एत्थंतरस्मि भणिया पियंकराभिहाणाए चेडीए - सामिणि, अलं अलमोसक्कणेण; एसो खुराणो पुरिसदत्तस्स पुत्तो तुह चैव पिउच्छा गन्भसंभवो सोहो नाम कुमारो त्ति 'पढमागमणकयपरिग्गहं च सामिणि एवमोसक्क माणि पेच्छिय मा अदक्खिण्णं तं संभाविस इ । ता चिट्ठियउ इहं, कीर इमस्स महाणुभावस्स रायकन्नोचिओ उवयारो । तो हरिसवसपुलइयंगीए सविब्भमं साहि लासं च अवलोइऊण कुमारं भणियं इमीए । हला पियंकरिए, तुमं चेवsत्थ कुसला, ता निवेएहि कि मए एयस कायव्वं ति । तीए भणियं - सामिणि; पढमागयाओ अम्हे ता अलंकरावीयउ आसणपरिग्गणं इमं पएसं कोरउ से सज्जणजणाण संबंधपायवबीयभूयं सागयं दिज्जउ से सहत्थेण कालोचियं वसंतकुसुमाभरणसणाहं तम्बोलं ति । कुसुमावलीए भणियं -- हला; न सक्कुणोमि अइसज्झसेण इमं एयरस काउं; ता तुमं चेव एत्थ कालोचियं करेहि ति । एत्थंतरम्मि य पत्तो समुद्देसं कुमारो । तओ सज्जिऊणासणं; भणिओ पियंकरीए । सागयं रइविरहियस्व कुसुमचावस्स; इह उवविसउ महाणुभावो । तओ सो सपरिओसं इति विहसिऊण 'आसि य अहं एत्तियं कालं रइविरहिओ, न उण संपयं', ति भणिऊणमवविट्टो ।" (समराइच्चकहा, वीओ भवो -- पू० ८०-८१ श्रृंगार रस के वियोगपक्ष का एक वर्णन द्रष्टव्य है; जिसमें सिंह राजकुमार के विरह में व्यथित राजकुमारी कुसुमावली का चित्रण इन शब्दों में किया गया है- "अह सेविडं पयता सेज्जं अणवरयमुक्कनीसासा | मयणसरसल्लियमणा नियकज्जनियत्तवावारा ॥ नालिes चित्तकम्म न चांगरायं करेइ करणिज्जं । नाहिलes आहारं अहिणंवद नेय नियभवणं ॥ चिरपरिचियं पि पाढेइ नेय सुयसारियाण संघायं । कीलाइ मणहरे चडुले न य भवकलहंसे || विहरइ न हम्मियतले मज्जइ न य गेहदी हियाए उ । सारेइ नेय वीणं पत्तच्छेज्जं पि न करेइ ॥ नय कंबुएण कोलइ बहुमन्नइ नेय भूसणकलावं । हरिणि व जूहभट्ठा अणुसरमाणी तयं चेव || खणरुद्धनयणपसरा अवसा धरियदहनीसासा । roadहट्ठा १० खणजं विश्वायमुहकमला ॥" - समराइच्च कहा – १२१-१२६ ॥ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका ] अर्थात्- "कुसुमावली निरन्तर लम्बे-लम्बे श्वास छोड़ती हुई शय्या का सेवन करने लगी। उस समय उसका मन कामदेव के बाणों से बिद्ध हो गया था। अपने कार्यों को उसने छोड़ दिया था। न तो चित्र ही बनाती थी.न अंगराग लगाती थी, आहार की इच्छा नहीं करती थी और अपने भवन का अभिनन्दन नहीं करती थी। चिरपरिचित भी शुक और सारिकाओं के समूह को नहीं पढ़ाती थी, भवन के मनोहर और चतुर कलहंसों को भी नहीं खेलाती थी । न महल की छत पर घूमती थी, न घर की बावड़ी में स्नान करती थी, वीणा नहीं बजाती थी, न पत्रच्छेदकर्म भी करती न गेंद खेलती थी। आभूषणों का आदर नहीं करती थी, समूह से बिछुड़ी हुई हरिणी के समान उसी (कुमारसिंह) का ही स्मरण करती थी। क्षणमात्र के लिए उसके नेत्रों का विस्तार रुक जाता था। क्षणमात्र में वह अधीर हो लम्बे साँस लेने लगती, क्षणभर के लिए उसके शरीर की चेष्टाएँ रुक जाती थीं, णभर में म्लानमुख हो बातें करने लगती थी। __ समराइच्चकहा में बड़ी मर्नोल तथा अनुभवपूर्ण उक्तियाँ भरी पड़ी हैं, जो नित्यप्रति विद्वानों का कण्ठहार बन सकती हैं। जैसे'सुणह सोयव्वाई', 'पंसंसह पाईणज्जाइं,' 'परिहरह परिहरियव्वाइं,' 'आयरह आयरियव्वाइं,' "धम्प्लेण कुलपसूई धम्मेण य दिव्वरूवसंपत्ती। धम्मेण धणसमिद्धि धम्मेण सुवित्थडा कित्ती १२ बहुजणधिक्कारहया उवह सणिज्जा य सव्वलोयस्स । पुट्विं अकयसुपुण्णा सहंति परपरिभवं पुरिसा ॥३६॥ पेच्छंति न संगकयं दुक्खं अवमाणणं च लोगाओ। दोग्गइपडणं च तहा वणवासी सव्वहा धन्ना ॥४५॥ जणपक्खवायबहुमाणिणा वि जत्तो गुणेसु कायव्वो। आवज्जति गुणा खलु अबुहं पि जणं अमछरियं ।४६॥ पुरिसाण मोहनिद्दासुत्ताण वि सिमिणयं पिव कहेइ। पुर्वि कयाण वियर्ड फलं च जो भागधेयाणं ४७।। अलंकार योजना--आचार्य मम्मट के अनुसार, प्रथमतः विद्यमान रस को कभी कभी शब्दार्थ रूप काव्यांगों द्वारा जो उपकृत करते हैं वही अनुप्रास उपमादि अल कार कहे जाते हैं।' जिस प्रकार लोकव्यवहार में कटक, कुण्डल आदि आभूषण या अलंकार पुरुष या रमणी के शरीर की शोभा बढ़ाकर उसके सौन्दर्य को निखार देते हैं, उसी प्रकार काव्यगत अलंकार कविताकामिनी के शरीरस्थानीय शब्द और अर्थ की शोभा बढ़ाकर उस के माध्यम से काव्यात्मस्वरूप रस के भी उपस्कारक होते हैं। आचार्य हरिभद्र ने समराइच्चकहा में अलंकारों का पर्याप्त प्रयोग किया है। उदाहरणार्थ उनके द्वारा प्रयुक्त कुछ अलंकार प्रस्तुत हैं--- __ अनुप्रास-स्वरों की विषमता रहने पर भी जो शब्दसाम्य अर्थात् व्यंजनमात्र की समानता बतलाता है, वह अनुप्रास कहा जाता है । हरिभद्र ने अनुप्रास अलंकार का बहुत प्रयोग किया है। जैसे तिवलीतरंगभंगु रमज्झविरायंतहाररम्माओ। मुहलरसणाहिणंवियवित्थिण्णनियंबिबाओ ॥१०७।। गाढपरिओसपसरियविलाससिंगारभावरम्माओ। पेच्छइ समूसियाओ वम्महसरसल्लियमणाओ॥१०॥ १. उपफुर्वन्ति तं सन्तं येऽङ्गद्वारेण जातुचित् । हारादिवदलङ्कारास्तेऽनुप्रासोपमादयः |-काव्यप्रकाश ८/२ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ समराइच्चकहा यमक - अर्थ होने पर भिन्न-भिन्न अथ वाले (अन्यथा निरर्थक ) स्वर व्यंजन समुदाय की उसी क्रम से आवृत्ति को यमक कहते हैं । जैसे परमसिरिवड्ढमाणं पणट्ठनाणं विसुद्धवरनाणं । गयजोयं जोईसं सयंभूवं षड्ढमाणं च ॥२॥ उपमा - अतिस्पष्ट और सुन्दर समता को उपमा कहते हैं । जैसे नामक प्रासाद का वर्णन करते हुए कहा गया है कि उस प्रासाद में कालागुरु मेघ के समान, रत्नों की पंक्तियाँ बिजलियों के समान, मोतियों की माला पंक्तियाँ बगुले की पंक्तियों के समान तथा लटके हुए रेशमी वस्त्रों की अपहरण करने वाली थीं। १२ " जत्थ मेहदुद्दिणच्छायाणुयारिणी बहल कालागरुधूमसंतईओ, सोयामणीओ विव विहायंति रयणावलीओ, जलधाराओ, वेव दीसंति मुत्तावलीओ, बलायापंतियाओ विव विहायंति चमरपतियाओ, इंदा उहच्छाय बहारिणोओ पलंबियाओ पट्ट सुयमालाओ।' -- समराइच्चकहा, पृ० १७ विजयसेनाचार्य के लिए प्रयुक्त की गये। निम्नलिखित उपमाएँ दर्शनीय हैं"तत्थ यतम्मि चेव दियहे आगओ मंडणमिव वसुमईए, आणंदो व्व सयलजणलोयणाणं, पच्चाए सो व्व धम्मनिरयाणं, निलओ व्व परमधन्नयाए, ठाणमिव आदेयभावस्त, कुलहर पिव खंतोए, आगरो इव गुणरयमाणं विवागसव्वस्समिव कुसलकम्मस्स महामहंतनिव वंस संभूओ विजयसेणो नाम आयरित्र ।" - सम०, पृ० ४३ रूपक -- उपमान और उपमेय में अभेद का आरोप रूपक कहलाता है । जैसे— 'लायण्णजोण्हापवाहपम्हलियच उद्दिसाओ' ( सम२, पृ० ४५) यहाँ पर लावण्य को ज्योत्स्नाप्रवाह कहा गया है। 'निरयाणलजलियसिहा' (सम०, पृ० ६६ ) यहाँ प्रज्वलित अग्निशिखा को नरकाग्नि कहा गया है । 'भीमे भवसागर म्म दुखत्तं' (सम०, ग था ७८) यहां संसार को सागर कहा गया है । व्यतिरेक - उपमान की अपेक्षा उपाय के गुणों का आधिक्य वर्णन व्यतिरेक अलंकार कहलाता है । जैसे - जत्थ विलयाउ कमलाइ को इलं कुवलयाई कलहंसे । वह जंपिग राजा गुणसेन के विमानच्छन्दक धूम की परम्परा वर्षाकालीन जलधारा के समान, चँवरों की पंक्तियाँ इन्द्रायुध की छाया का यहि गहि य जिणंति ॥ ( समराइच्च कहा ), ३१ उक्त उदाहरण में कमल, कोयल, लकमल तथा कलहंस रूप उपमानों की अपेक्षा क्रमशः मुख, आधिक्य का वर्णन किया गया है । बाणी, नयन तथा गति रूप उपमेय के गुणों के विरोध - जहाँ वस्तुतः विरोध न हो पर भी विरुद्ध रूप से वचनों का प्रयोग किया जाता है वहाँ विरोध अलंकार होता है । जैसे- परमसिरिवद्ध माणं पणट माणं गयजोयं जोईस सयंभ वं विसुद्रवरनाणं । वद्धमाणं च ॥ (समराइच्चकहा, २) परिसंख्या - जहाँ किसी वस्तु का अपने यथार्थ स्थान से लोप कर किसी विशिष्ट स्थान पर आरोप किया जाता है, वहाँ परिसंख्या अलंकार होता । जैसे— जत्य य नराण वसणं वि जासु जसम्मि निम्मले लोहो । पावेसु सया भीरुत्तणं व धम्मम्मि धणबुद्धी ॥ (समराइच्चकहा, ३२) Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका ] ५३ उदात्त अलंकार---जहाँ पर समद्ध वस्तु का बढ़ा-चढ़ाकर वर्णन किया जाय, वहाँ उदात्त अलंकार होता है । जैसे तम्मि समयम्मि तत्थ य गायति मणोहराइ गेयाई। कुसुमपयरं मयंति य सभमरयं तियसविलयाओ ॥ नच्चंति दिव्वविन्भमसंपाइयतियसकोउहल्लाओ। वज्जतविविहमणहरतिसरीवीणासणाहाओ ॥ सम०, ६६-६७ यहां से लेकर आगे के अनेक श्लोकों में उदात अलंकार है । इसमें देवों की उत्पत्ति तथा सौख्यों का समृद्ध रूप चित्रित किया गया है। इस प्रकार समराइच्चकहा में अनेक अलकारों का सफल प्रयोग हुआ है और इन्होंने काव्य की शोभा की अभिवृद्धि की है। छन्द योजना-समराइच्चकहा में गद्य के साथ पद्य का भी प्रयोग हुआ है। पद्यों में गाथा, द्विपदी और प्रमाणिका छन्दों का प्रयोग हुआ है। इन छन्दों के लक्षण 'प्राकृतपैङ्गलम्' आदि अलंकार-ग्रन्थों से जानना चाहिए। समराइच्चकहा का सांस्कृतिक महत्त्व समराइच्चकहा साहित्यिक गुणों के साथ-साथ महनीय सांस्कृतिक गुणों से भी ओतप्रोत है। इसके माध्यम से हम विक्रम की आठवीं शताब्दी तथा उससे पूर्व के समय के महत्त्वपूर्ण सांस्कृतिक उपादान उपलब्ध कर तत्कालीन समाज, धर्म, भूगोल, आर्थिक तथा राजनीतिक जीवन की झांकी प्राप्त कर सकते हैं। इसमें चोर, जुआरी, परस्त्रीगामी, व्याभिचारिणी स्त्री, सती स्त्री, राजा, पुरोहित, ऋषि, मुनि, साध्वी, श्राविका, राजपुत्र, मन्त्री इत्यादि समाज के विभिन्न वर्ग के व्यक्तियों का सजीव चित्रण हुआ है। जनसाधारण से लेकर उच्च सुविधासम्पन्न राजवर्ग तक की जीवन-झाँकी इससे प्राप्त होती है। इस प्रकार प्राचीन सभ्यता और संस्कृति के परिज्ञान के लिए यह अत्युपयोगी है। भौगोलिक दृष्टि से इसमें जम्बूद्वीप, चीनद्वीप, महाकराहद्वीप, सुवर्णद्वीप, सिंहलद्वीप, रत्नद्वीप आदि द्वीपों तथा अवन्ति, उत्तरापथ, करहाटक, कलिंग, कामरूप, काशी, कोसल, कोंकण, गान्धार, पुण्ड्रवत्स तथा विदेह प्रभृति जनपदों का विवरण प्राप्त होता है। अयोध्या, अचलपुर, अमरपुर, उज्जयिनी, काकन्दी कनकपुर, काम्पिल्य, कुसुमपुर, कौशाम्बी, कृतमंगला, गजपुर, गान्धारनगर, गन्ध-समृद्धनगर, चक्रपुर, चक्रवालपुर, चम्पापुरी, जयपुर, जयस्थल, टंकनपुर, थानेश्वर, दन्तपुर, देवपुर, धान्यपूरक, पाटलापथ, पाटलिपुत्र, ब्रह्मपुर, भम्भानगर, मदनपुर, महासर, माकन्दी, मिथिला, रत्नपुर, रथनूपुर, रथवीरपुर, राजपुर, लक्ष्मीनिलय, वर्धनापूर, वसन्तपुर, वाराणसी, विलासपुर, विशाखवर्द्धन, विशाला, विश्वपुर, वैराटनगर, शंखपुर, शंखवर्द्धन, श्वेतविका, साकेत, सुशर्मनगर, श्रीपुर, श्रावस्ती, हस्तिनापुर, क्षितिप्रतिष्ठित, अचलपर, गज्जनक, गिरिस्थल, तथा शेखपर जैसे नगरों की प्राचीन रूपरेखा समराइच्चकहा से प्राप्त होती है। प्राचीनकाल से ही भारत के साहसी व्यापारी अनेक कष्ट झेलकर विदेशों में दूर-दूर तक व्यापार हेतु गये और वहाँ से पर्याप्त धन अजित कर इस देश को समृद्धतम बनाया। समराइच्चकहा में प्रतिपादित ताम्रलिप्ती और वैजयन्ती जैसे बन्दरगाह आज भी उन पुरुषार्थी व्यापारियों की यशोगाथा को सुनाते हैं । अरण्यसम्पदा का हमारे देश की आर्थिक समुन्नति में कम योग नहीं रहा है। कादम्बरी, चन्दनवन, दन्तरनिका, नन्दनवन, पद्मावती, प्रेतवन, विन्ध्याटवी तथा सुंसुमार जैसे वनों का वर्णन हमें पुनः वन्य प्रदेशों के संरक्षण Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ [ समराइच्चकहा और संवर्द्धन की प्रेरणा दे रहा है । उदयगिरि, गान्धार पर्वत, वैताढ्यपर्वत, मन्दरगिरि, मेरुपर्वत, रत्नागिरि, लक्ष्मीपर्वत, शिलीन्ध्रपर्वत, सुवेलपर्वत, सुंसुमारगिरि, हिमवत् जैसे पर्वत तथा गंगा, सिन्धु, शिप्रा और ऋजुबालिका जैसी नदियों के किनारे घटित सहस्रों घटनाएं हमें जीवन के लिए शिक्षाएँ प्रदान करती हैं। हमारे देश में प्राचीनकाल से ही प्रायः राजतन्त्रात्मक शासन रहा है । राजा प्रजा के सही शुभचिन्तक थे और उनके राज्य में रहकर प्रजा कभी भी अपने को अनाथ नहीं मानती थी। समराइच्चकहा के नौ भवों की कथाओं में से प्रत्येक भव की कथा प्रायः स्वाभिमानी, शत्रुओं के मान-मर्दन करने वाले, धर्म तथा अधमं की भली-भाँति व्यवस्था करने वाले, नीतिमान्, दयावान्, प्रजा के हित में अत्यन्त प्रीति रखने वाले, निर्मल वंश में उत्पन्न तथा मनुष्यों के मन और नयन को आनन्द प्रदान करने वाले हुआ करते थे । राज्याभिषेक से पूर्व प्रायः युवराजपद पर अधिष्ठित कर राजकार्य की शिक्षा दी जाती थी । बड़े-बड़े राजाओं के अधीन छोटे-छोटे सामन्त राजा रहते थे। कभी-कभी ये अवसर पाकर राजा पर आक्रमण भी कर देते थे । इन लोगों के भी सुदृढ़ दुर्ग थे और पराजय की आशंका कर कभी-कभी ये लम्बे समय तक दुर्ग का आश्रय लेते थे । राजा के कार्य में प्रमुख रूप से सहायक मन्त्री होता था । समराइच्चकहा में इसे मन्त्री महामन्त्री, अमात्य, प्रधान अमात्य, सचिव तथा महासचिव जैसे शब्दों से अभिहित किया गया है । अमात्य की भाँति पुरोहित का पद महत्वपूर्ण था । पुरोहित समस्त लोगों का माननीय, धर्मंशास्त्रों का अध्येता, लोक-व्यवहार तथा नीति में कुशल तथा अल्प आरम्भ और परिग्रह को रखने वाला था । राजाओं के कोष का अधिकारी भाण्डागारिक कहलाता था । आवश्यकता पड़ने पर राजा भाण्डागारिक को किसी व्यक्ति विशेष को धन वगैरह देने हेतु आदेश देता था । राजा की छत्रछाया में नाटक, काव्य, नृत्य तथा अन्य प्रकार की ललित कलाएँ वृद्धि को प्राप्त होती थीं । भयंकर वनों में माल लेकर जाते हुए व्यापारियों को प्रायः शबर, भील आदि जंगली जातियाँ लूट लिया करती थीं । अतः व्यापारी सार्थ बनाकर चला करते थे । सार्थ का एक मुखिया होता था! जिसे सार्थवाह कहते थे । सार्थवाह प्रायः व्यापार निपुण होने के साथ-साथ वीर भी हुआ करते थे और आवश्यकता पड़ने पर शत्रुओं का प्रतिरोध करने और उन्हें ध्वस्त करने में पीछे नहीं रहते थे । सार्थवाह विदेश पहुँचने पर वहाँ के राजा को भेंट वगैरह प्रदान करते थे । राजा भी उनका यथोचित सम्मान करते थे । किसी व्यक्ति के अपराध करने पर उसकी अच्छी तरह परीक्षा कर कड़ी सजा दी जाती थी । कभी-कभी कुलाचार वगैरह का ध्यान कर ऐसे लोगों को चेतावनी देकर छोड़ दिया जाता था, किन्तु ऐसे व्यक्तियों ने पुनः अपराध किये हों, इस प्रकार के दृष्टान्त नहीं प्राप्त होते हैं । प्रायः लोग अपनी कुलीनता का ध्यान रखते थे । स्त्रियाँ अवध्य मानी जाती थीं, अतः उन्हें देशनिकाले की सजा दी जाती थी । राजद्रोही पुत्र को भी देश से निर्वासित कर दिया जाता था । राजा सर्वोच्च न्यायाधिकारी होता था । महत्त्वपूर्ण मामलों में राजा नगर के बड़े लोगों से भी सलाह लिया करता था । शत्रुओं को दबाने के लिए हस्ति; अश्व, रथ और पदाति सेना का उपयोग किया जाता था। अपराधी को कठोर दण्ड दिया जाता था। शत्रु राजा के प्रति दण्ड से पूर्व साम का प्रयोग किया जाता था। एक राजा की स्त्री का हरण हो जाने पर मन्त्री ने सलाह दी कि हरण करने वाले के पास सबसे पहले दूत भेजा जाना चाहिए, यदि दूत की बात न मानकर वह रानी को वापिस नहीं करता है तो दण्डनीति का अवलम्बन लेना चाहिए। इसके उत्तर में राजा कहता है कि स्वस्त्री का हरण करने वाले के प्रति भी दूत भेजना अपूर्व सामनीति है । समराइच्चकहा में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्रये चार वर्ण और शक, यवन, बर्बरकाय, मुरुण्ड; गौड़, चाण्डाल, डोम्बलिक, रजक, चर्मकार शाकुनिक, मछुआ, यक्ष, नाग, किन्नर, विद्याधर तथा गन्धर्व आदि Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका जातियों का उल्लेख पाया जाता है । यहां किसी को अपनी जाति का गर्व न करने की शिक्षा दी गयी है। प्रथम भव के अन्तर्गत विभावसु की कथा आयी है, जिसने अगला जन्म कुत्ते के रूप में पाया, क्योंकि एक बार मदन. महोत्सव पर नागरिकों की मण्डलियाँ आनन्द मना रही थीं तब विभावसु ने पुष्यदत्त की मण्डली से घृणा की; क्योंकि उसका जन्म नीच कुल में हुआ था। कुत्ते की योनि के बाद विभावसु को इसी जाति-मद के संस्कार के कारण अनेक कुयोनियों में भटकना पड़ा। समराइच्चकहा में कुमारावस्था, गृहस्थावस्था और श्रमण-इन तीन रूपों में मनुष्य-जीवन का विभाजन प्राप्त होता है। प्रशान्त तपोवन और श्रमणत्व की अत्यधिक प्रशंसा की गयी है। प्रत्येक भव की कथा में हमें श्रमणाचार्य के दर्शन होते हैं जो अपने बड़े शिष्य समुदाय से परिवृत रहते हैं । तपोवन दीन अनाथ, भूली-भटकी स्त्रियों तथा उच्च तपस्वियों का आश्रय हुआ करते थे। सब प्रकार से समाज से और उपहास को प्राप्त व्यक्ति भी यहाँ ससम्मान और सुखपूर्वक रह सकते थे। प्रथम भव की कथा में आर्जवकौण्डिन्य ऋषि अग्निशर्मा से कहते हैं कि राजा के अपमान से पीड़ित, निर्धनता के दुःखों से तिरस्कृत, दुर्भाग्य के कलंक से दुःखी और इष्टजनों के वियोगरूपी अग्नि से सन्तप्त लोगों के लिए इस लोक और परलोक में सुख देने वाला तपोवन परम शान्ति का स्थान है। यहाँ पर आसक्ति से उत्पन्न हुआ दुःख और लोगों के द्वारा किया हुआ अपमान तथा खोटी गति में गमन दिखाई नहीं देता है । इस प्रकार वनवासी सर्वथा धन्य हैं। समराइच्चकहा में स्वयंवर विवाह, प्रेमविवाह और परिवारविवाह-इस प्रकार तीन प्रकार के विवाहों का उल्लेख है। पुत्री जब विवाह योग्य हो जाती थी तो पिता दूर-दूर तक के प्रतिष्ठित व्यक्तियों को आमन्त्रित करता था और किसी निश्चित तिथि पर स्वयंवर का आयोजन किया जाता था। इस प्रकार की विधि को स्वयंवर विधि कहते थे । यह विधि प्रायः राजघरानों में प्रचलित रही होगी। प्रेमविवाह तथा परिवार विवाह सभी वर्गों में प्रचलित थे। समराइच्चकहा में ८६ कलाओं एवं विधाओं का उल्लेख हुआ है। ये निम्नलिखित थीं-१. लेख २. गणित ३. आलेख ४. नाट्य ५. गीत ६. वाद्य ७ स्वरगत ८. पुष्करगत (बाँसुरी आदि बजाना), ६. समताल १०. द्यूत ११. जनवाद १२. होरा १३. काव्य १४. दकमार्तिकम् (कृषि विज्ञान) १५. अष्ठावय (अर्थशास्त्र) १६. अन्नविधि १७. पानविधि १८. शयनविधि १९. आर्या २० प्रहेलिका २१. मागधिका (मागधी आदि भाषाओं का ज्ञान) २२. गाथा २३. गीति २४. श्लोक २५. महुसित्थ (मधु तथा मोर आदि बनाने की कला), २६. गन्धजुक्ति (सुगन्धित पदार्थों की पहचान) २७. आभरण विधि २८. तरुणप्रीति कर्म २६: स्त्री लक्षण ३० पुरुष लक्षण ३१. हय लक्षण ३२. गजलक्षण ३३. गो लक्षण ३४. कुक्कुट लक्षण ३५. मेष लक्षण ३६. चक्र लक्षण ३७. छत्र लक्षण ३८. दण्ड लक्षण ३६. असि लक्षण ४०. मणि लक्षण ४१. काकिनी (रत्न विशेष की जानकारी) ४२. चर्म लक्षण ४३. चन्द्रचरित ४४. सूर्य चरित ४५ राहु चरित ४६. ग्रह चरित ४७. सूत्रक्रीडा ४६. सूयाकार (आकार मात्र से रहस्य का ज्ञान) ४६. दूताकार ५०. विद्यागत ५१. मन्त्रगत ५२. रहस्यगत ५३. संभव ५४. चार (तेज गमन करने की कला) ५५. प्रतिचार ५६. व्यूह ५७. स्कन्धावारमान ५८. नगरमान ५६. वास्तुमान ६०. स्कन्धावारनिवेश ६१. प्रतिव्यूह ६२. नगरनिवेश १. ता नरिन्दावमाणपीडियाणं दारिद्ददुक्खपरिभूयाणं दोहरगकलंक दूमियाणं इटुजणविनोगदहणतत्ताणं य एवं परं इह परलोय सुहावह परमनि व्युइठ्ठाणं ति । एत्थ पेच्छन्ति न संगकयं दुक्खं अवमाणणं च लोगाओ। दोग्गइणपडणं च तहा वणवासी सत्वहा धन्ना ॥१/४५ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ [ समराइचकहा ६३. वास्तुनिवेश ६४. इष्वस्त्र (बाण का प्रयोग करने की कला) ६५. तत्त्वप्रवाद ६६. अश्वशिक्षा ६७. हस्तिशिक्षा ६८. मणिशिक्षा ६६. धनुर्वेद ७०. हिरण्यवाद ७१. सुवर्णवाद ७२. मणिवाद ७३. धातुवाद ७४. बाहुयुद्ध ७५. दण्डयुद्ध ७६. मुष्टियुद्ध ७७, अस्थियुद्ध ७८. युद्ध ७६. नियुद्ध ८०. युद्ध नियुद्ध ८१. सूत्र क्रीडा ८२. वत्थखेड्ड (सूत की जानकारी), ८३. बाह्यक्रीडा (घुड़सवारी की कला), ८४. नालिक क्रीडा (एक प्रकार की द्यूतक्रीडा), ८५. पत्रच्छेद ८६. कटकछेद (सेना को बेधने की कला) ८७. प्रतरछेद (वृत्ताकार वस्तु को भेदने की कला), ८८ सजीव (मृततुल्य व्यक्ति को जीवित करने की कला), ८६. निर्जीव (मन्त्र इत्यादि के द्वारा मारने की कला), ६०. शकुनरुत-पक्षियों की आवाज द्वारा शुभाशुभ का ज्ञान । __ अर्थ की महत्ता से सभी सुपरिचित हैं। समराइच्च कहा में कहा है कि अर्थरहित पुरुष पुरुष नहीं कहा जा सकता; क्योंकि दरिद्र व्यक्ति न यज्ञ प्राप्त कर सकता है, न सज्जनों की संगति; और न परोपकार ही सम्पादन कर सकता है। अर्थ ही देव है। अर्थ ही व्यक्ति का सम्मान बढ़ाता है, गौरव जताता है, मनुष्य का मूल्य बढ़ाता है, सौभाग्यशाली बनाता है तथा यही कुल, रूप और बुद्धि को प्रकाशित करता है। प्राचीनकाल में अनेक प्रकार के शिल्प प्रचलित थे। इन्हीं के आधार पर जीविका-निर्वाह करने वालों की भारत में अनेक जातियाँ बन गयीं । जैसे - चित्रकार, लोहार, कुम्भकार, रजक, कार्पटिक । आचार्य हरिभद्र ने धर्माचरण करने वाले व्यक्ति के लिए निम्नलिखित कार्य करने का निषेध किया है-- इंगालकम्म (कोयला बनाने, बेचने वगैरह का कार्य), वनकर्म, दन्तवाणिज्य (हाथी दांत का व्यवसाय), लक्खवाणिज्य (लाख का व्यापार), केशवाणिज्य, रसवाणिज्य, निल्लञ्छण कर्म (शरीर के अंगछेद कर आजीविका करने वालों का कर्म), यन्त्रपीडन कर्म (कोल्हू वगैरह से आजीविका करना), असइपोषण (कुत्ता बिल्ली आदि पालकर या बेचकर आजीविका कमाना), शाक टिक कर्म, सर-दह-तलाय-शोषण (तालाब वगैरह सखाकर जीविका करना), गारुड़ियकर्म (मन्त्रौषधि से जीविका करना)। इन कर्मों के निषेध का मुख्य कारण इन कार्यों में होने वाली हिंसा है। मानव प्राचीनकाल से ही वस्त्र और आभूषण-प्रेमी रहा है। समराइच्चकहा में दुकूल, अंशुक चीनांशक, अर्धचीनांशुक, देवदूष्य, क्षौमवस्त्र, पटवास, वल्कल, उत्तरीय. कम्बल, चेलवस्त्र, स्तनाच्छादन, गण्डोपधान तथा अलंगणिका रूप वस्त्रों का तथा कुण्डल, कटक, केयूर, मुद्रिका, कंकण, रत्नावली, हार, एकावली, मणिमेखला, कटिसूत्र, कंठक, मुकुट, चूडामणि नाम वाले आभूषणों का उल्लेख मिलता है। नाटक, छन्द, नृत्य, गीत, वाद्यकला, चित्रकला, कन्दुकक्रीड़ा, जलक्रीड़ा, बाह्याली क्रीड़ा तथा द्यूतक्रीड़ा के प्रसंग समराइच्चकहा में अनेक स्थानों पर आये हैं ! कथा में कार्तिक पूर्णिमा महोत्सव, कौमुदी महोत्सव, भष्टमीचन्द्र महोत्सव मदनोत्सव, तथा गूढचतुर्थक गोष्ठी, मित्रगोष्ठी आदि विभिन्न प्रकार की गोष्ठियों के भी वर्णन तत्कालीन समाज की मनोरंजनप्रियता को दर्शाते हैं। धर्मकथा होने के कारण सरस्वती, लक्ष्मी, चण्डिका, नगरदेवी, ब्रह्मा, सूर्य, चन्द्रमा, इन्द्र, यम, दिकपाल, किन्नर, यक्ष, वानमन्तर, क्षेत्रदेवता तथा कुलदेवता इत्यादि के प्रसंग आये हैं। जैन तत्त्वज्ञान तथा उससे ओत-प्रोत श्रमण-श्रमणी और उपासक-उपासिकाओं के आचार-विचार को जानने का समराइच्चकहा एक अच्छा समाधान है। आभार मैं आरणीय साहू अशोक कुमार जी (अध्यक्ष भारतीय ज्ञानपीठ) एवं साहू रमेश चन्द जी का बहुत आभारी हूँ जिन्होंने प्रस्तुत ग्रन्थ के प्रकाशन में अपनी विशेष रुचि दिखायी। डॉ० र० श० केलकर, डॉ. गोकुल प्रसाद जैन, श्री गोपीलाल अमर तथा डॉ० गुलाब चन्द्र जैन के प्रति भी मैं अपनी कृतज्ञता व्यक्त करता हूँ:जिन्होंने इसके सम्पादन-प्रकाशन में अपना पूरा सहयोग प्रदान किया। -रमेश चन्द्र जैन Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ याकिनीमहत्तरासूनु-परमगुणानुरागि- परमसत्यप्रिय-भगवत् -श्री हरिभद्रसूरिविरचिता समराइच्चकहा पणमह विजिअ ' सुदुज्जय- निज्जिअ ' सुरमणुअ-विसमसरपसरं । तिहुअणमंगलनिलयं वसहगइगयं जिणं उसहं ॥१॥ परमसिरिवद्धमाणं पणट्टमाणं विसुद्धवरनाणं । गयजो जोईसं सयंभुवं वद्धमाणं च ॥२॥ सेसे चिय बावीसे जाइ जरा मरण-बंधणविमुक्के । तेलोक्कमत्थयत्थे तित्थयरे भावओ नमह ॥३॥ उवणेउ मंगलं वो जिणाण महलालिजालसंवलिआ " । तित्थपवत्तणसमए तिअ सविमुक्का कुसुमवुट्टी ॥४॥ प्रणमत विजित- सुदुर्जय - निर्जित-सुरमनुजविषमशरप्रसरम् । त्रिभुवन मङ्गलनिलयं वृषभगतिगतं जिनम् ऋषभम् ॥१॥ परमश्रीवर्द्धमानं प्रनष्टमानं विशुद्धवरज्ञानम् । गतयोगं योगीशं स्वयंभुवं वर्द्धमानं च ॥२॥ शेषांश्चैव द्वाविंशति जाति-जरा-मरणबन्धन- विमुक्तान् । त्रैलोक्य- मस्तकस्थान् तीर्थंकरान् भावतो नमत ॥ ३॥ उपनयतु मङ्गलं वो जिनानां मुखराऽलिजालसंवलिता । तीर्थप्रवर्तनसमये त्रिदशविमुक्ता कुसुमवृष्टिः ॥ ४ ॥ देवताओं और मनुष्यों को जीतने वाले, दुर्जेय कामदेव के बाणों की अबाधित गति को रोकने वाले, तीनों लोकों के मङ्गलों के निधान तथा उत्तम (मोक्ष रूप ) गति को प्राप्त करने वाले श्री ऋषभजिन को प्रणाम करो ||१|| जिनकी उत्कृष्ट (मोक्षरूप) लक्ष्मी वृद्धिंगत है, जिनका मान नष्ट हो गया है, जिनका ज्ञान विशुद्ध और श्रेष्ठ है. जिनके योग ( मन-वचन-काय) की प्रवृत्ति नष्ट हो गयी है, जो योगियों के अधिनायक और स्वयम्भू हैं, ऐसे श्री वर्द्धमान तीर्थंकर) को भी प्रणाम करो || २ || शेष बाईस तीर्थंकरों को ( भी ), जो जन्म- जरा और मृत्यु के बन्धनों से छूट चुके हैं तथा जो लोकत्रय के मस्तक (शिखर) पर विराजमान हैं, भावपूर्वक नमस्कार करो ||३|| जिनेन्द्रों के तीर्थ-प्रवर्तन के समय देवों द्वारा की गयी फूलों की वर्षा, जो कि शब्द करते (गुंजारते हुए ) भ्रमर - समूह १, विजय, २. निज्जिय, ३. मणुय, ४. तिहुयण, ५. गणजोयं, ६. जिणाणं, ७ संवलिया, ८. तियस । Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ देउ सुहं वो सुरसिद्ध मणु' अविदेहि सायरं नमिआ । तित्थयरवयणपंकर्यावणिग्गया मणहरा वाणी ॥ ५ ॥ अलं पवित्रेण । सुणह सोअव्वा, पसंसह पसंसणिज्जाई, परिहरह परिहरिअव्वाई' आयरह आयरिअव्वाइं । तत्थ सोअव्वाइं नराऽमर- सिवसुहजणयाइ' अत्थसाराई । सव्वन्नुभासिआई भुवणम्मि पइट्ठिअजसाइं ॥६॥ ताई चिय विवहाणं पसंसणिज्जाई तह य जाई च । तेहि चिय भणिआई सम्मत्त नाण - चरणाई ॥७॥ परिहरिअव्वाइ तहा कुगईवासस्स हेउभूआई । मिच्छत्तमाइआई लोगविरुद्धाई य तहेव ॥ ८ ॥ ददातु सुखं वः सुरशिद्धमनुजवृन्दैः सादरं नता । तीर्थंकरवदनपङ्कजविनिर्गता मनोहरा वाणी ॥ ५ ॥ अलं प्रविस्तरेण । शृणुन श्रोतव्यानि, प्रशंसत प्रशंसनीयानि, परिहरत परिहर्तव्यानि, आचरत आचरितव्यानि । तत्र - श्रोतव्यानि नरामर - शिवसुखजनकानि अर्थसाराणि । सर्वज्ञभाषितानि भुवने प्रतिष्ठित यशांसि ॥ ६ ॥ तान्येव विबुधानां प्रशंसनीयानि तथा च यानि च । तैरेव भणितानि सम्यक्त्व-ज्ञान चरणानि ॥७॥ परिहर्तव्यानि तथा कुगतिवासस्य हेतुभूतानि । मिथ्यात्वादिकानि लोकविरुद्धानि च तथैव ॥ ८ ॥ [ समराइच्चकहा से 'युक्त है, भी आपका मङ्गल करे ||४|| देव सिद्ध और मनुष्यों के समूह द्वारा जिसे सादर नमस्कार किया जाता है ऐसी, तीर्थंकरों के मुखकमल से निकली हुई मनोहर (द्वादशाङ्ग) वाणी भी आप सभी को सुख प्रदान करे ||५|| करणीय कार्य --- अत्यधिक विस्तार से बस ! सुनने योग्य बातों को सुनना चाहिए। प्रशंसा करनी चाहिए, छोड़ने योग्य कार्यों को छोड़ देना चाहिए, आचरण योग्य कार्यों चाहिए । लोक में जिनका यश प्रतिष्ठित है तथा जो मनुष्यों और देवों के मङ्गल और सुखों (अथवा मोक्षसुख) के जनक हैं ऐसे सर्वज्ञभाषित अर्थसारों (द्वादशाङ्ग वाणी ) को श्रवण करना चाहिए || ६ || उन्हीं (तीर्थंकरों ) के द्वारा सम्यग्दर्शन- ज्ञान चारित्र का जो प्रतिपादन किया गया है वहीं विद्वानों के द्वारा प्रशंसनीय है ||७|| दुर्गतियों के वास के कारणभूत और लोक विपरीत जो मिथ्यात्वादिक हैं, उन्हें छोड़ना चाहिए ||८|| दुर्गतियों के नाशक और प्रशंसनीय कार्यों की का आचरण करना १. मणुय, २ नमिया, ३ परिहरियव्वाई ४. सिवसुजणयाई ५ सव्वन्तुभासियाई, ६ पइट्टियजसाइं, ७ भणियाई, ८. परिहरियव्वाई, ९. भूयाई, १०. माझ्याई | Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरियसंगहणिगाहाओ ] आयरिअव्वाइं अणिस्सिएज सम्मत्त-न ण-चरणाई। दोगच्चविउडणाई चिन्तामणिरयण आई ॥६॥ एत्थं पुण अहिगारो ता सोअव्वेहि प युअपबंधे । सव्वन्नुभासिआई सोअव्वाई ति भणियमिणं ॥१०॥ वोच्छं तप्पडिबद्धं भवियजणाणंदयारि ण परमं । संखेवओ महत्थं चरिअकहंत निसामेह ॥११॥ तत्थ यं 'तिविहं कथावत्थु ति पुवायरियपवाओ। तं जहा-दिव्वं, दिव्वमाणुसं माणसं च । तत्थ दिव्वं नाम जत्थ केवलमेव देवचरिअं वणिज्जइ । दिवमाणुसं पुणजत्थ दोण्हपि दिव्वमाणुसाणं। माणुसं तु जत्थ केवलं माणुसचरियं ति । एत्थ सामन्नओ ८ तारिकहाओ हवंति । तं जहा-अत्थकहा, कामकहा, धम्मकहा, संकिण्णकहा य । तत्थ अत्थकहा नाम, जा अत्थोवायाणपडिबद्धा, असि-मसिकसि-वाणिज्ज-सिप्पसंगया, विचित्तधाउवायाइपमुहमहोपायसंपउता, साम-भेय-उवप्पयाण-दण्डाइपयत्थविरइआ सा अत्थकह त्ति भण्णइ । आचरितव्यानि अनाश्रितेन सम्यक्त्व-ज्ञान-चरणानि । दौर्गत्यविकुटनानि चिन्तामणिरत्नभूतानि ॥६॥ अत्र पुनरधिकारस्तावत् श्रोतव्यैः प्रस्तुतप्रबन्धे । सर्वज्ञभाषितानि श्रोतव्यानीति भणितमिदम् ॥१०॥ वक्ष्ये तत्प्रतिबद्धां भव्यजनानन्दकारिणीं परमाम् । संक्षेपतो महा● चरित्तकथां तां निशामयत ॥११॥ तत्र च 'त्रिविधं कथावस्तु' इति पूर्वाचार्यप्रवादः । तद्यथा-दिव्यम्, दिव्यमानुषम्, मानुष च। तत्र दिव्यं नाम यत्र केवलमेव देवचरितं वर्ण्यते । दिव्यमानुषं पुनः यत्र द्वयोरपि दिव्यमानुषयोः (चरितम्)। मानुषं तु यत्र केवलं मानुषचरितमिति । अत्र सामान्यतः चतस्रः कथा: भवन्ति । तद्यथा-अर्थकथा, कामकथा, धर्मकथा, संकीर्णकथा च । तत्र अर्थकथा नाम या अर्थोपादान-प्रतिबद्धा, असि-मसि-कृषि-वाणिज्य शिल्पसंगता, विचित्रधातुवादादि-प्रमुखमहोपायसंप्रयुक्ता, सामभेदोपप्रदान-दण्डादिपदार्थविरचिता सा 'अर्थकथा' इति भण्यते ।। चिन्तामणि रत्नभूत सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र का अनाश्रित होकर आचरण करना चाहिए ॥६॥ प्रस्तुत प्रबन्ध में, जैसा कि कहा गया है, सर्वज्ञ द्वारा कही गयी वाणी (ही) श्रोताओं के सुनने योग्य है ॥१०॥ इन्हीं (माङ्गलिक विषयों) से सम्बन्धित तथा भव्यों के लिए आनन्ददायक महान् (गम्भीर) अर्थवाली चरितकथा को मैं संक्षेप में कहूँगा, उसे आप (शान्तिपूर्वक) श्रवण करें ॥११।। कथाओं के तीन प्रकार - कथावस्तु तीन प्रकार की होती है, ऐसा पूर्वाचार्यों का कथन है-दिव्य, दिव्यमानुष और मानुष । दिव्यकथा वह होती है जहाँ केवल देवों के वरित का वर्णन किया जाता है। दिव्यमानुष कथा वह है जहाँ देव और मनुष्य दोनों के ही चरित का वर्णन किया जाता है। मानुष कथा वह है जहाँ केवल मनुष्यों के ही चरित का वर्णन किया जाता है। सामान्य रूप से कथायें चार प्रकार की होती हैं-अर्थकथा, कामकथा, धर्मकथा और संकीर्ण कथा । अर्थकथा वह है जिसका सम्बन्ध आर्थिक उपादानों से है। असि, मसि, १. भूयाई २. सोयन्वेहि, ३. पत्युय पबंधे, ४. भासियाई, ५. सोयब्वाई, ६. चरियकहतं, ७. देवरियं, ८. धाऊ, ९. विरइया। Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ समराइच्चकहा जा उण कामोवायाणविसया, वित्तवपुव्वयकलादक्खिण्णपरिगया, अणुरायपुलइ' अपडिवत्ति जोअसारा', दूईवावार-रमियभावाणुवत्तणाइपयत्थसंगया सा कामकहत्ति भण्णइ। जा उण धम्मोवायाणगोयरा, खमा-मद्दवऽज्जवमुत्ति-तव-संजम-सच्च-सोयाऽऽकिंचन्न-बंभचेरपहाणा, अणुव्वय-दिसि-देसाऽणत्थदण्डविरई-सामाइय-पोसहोववासोवभोगपरिभोगा-ऽतिहि - सविभागकलिया, अणुकंपा-ऽकामनिज्जराइपयत्थसंपउत्ता सा धम्मकहत्ति। जा उण तिवग्गोवायाणसंबद्धा, कव्वकहा-गंथथवित्थरविरइया, लोइयवेयसमयपसिद्धा, उयाहरण-हेउ-कारणोववेया सा संकिण्णकह त्ति वुच्चइ । एयाणं च कहाणं तिविहा सोयारो हवंति। तं जहा-अहमा, मज्झिमा, उत्तम त्ति । तत्थ जे कोह-माण-माया-लोह-समाच्छाइयमई, परलोयदेसणपरंमुहा, इहलोगपरमत्थदंसिणो निरणुकंपा जीवेसु, ते तहाविहा तामसा अहमपुरिसा, दुग्गइगमणकंदुज्जयाए, सुगइपडिवक्खभूयाए, परमत्थओ अणत्थबहुलाए अत्थकहाए या पुनः कामोपादानविषया वित्तवपुर्वयःकलादाक्षिण्यपरिगता, अनुरागपुलकितप्रतिपत्तियोगसारा, दूतीव्यापाररतभावानुवर्तनादिपदार्थसंगता सा 'कामकथा' इति भण्यते । या पुनर्धर्मोपादानगोचरा, क्षमा-मार्दवाऽऽर्जव-मुक्ति-तपः-संयम-सत्य-शौचाऽऽकिञ्चन्य-ब्रह्मचर्यप्रधाना, अणवत - दिग्देशाऽनर्थदण्डविरतिसामायिक - प्रोषधोपवासोपभोगपरिभोगाऽतिथिसंविभागकलिता, अनुकम्पाऽकामनिर्जरादिपदार्थसंप्रयुक्ता सा 'धर्मकथा' इति (भण्यते)। ___ या पुनस्त्रिवर्गोपादानसंबद्धा, काव्य-कथा-ग्रन्थार्थविस्तरविरचिता, लौकिक-वेद-समयप्रसिद्धा, उदाहरण हेतु-कारणोपेता सा ‘संकाणकया' इति उच्यते । एतासां च कथानां त्रिविधाः श्रोतारो भवन्ति। तद्यथा-अधमाः, मध्यमाः, उत्तमा इति । तत्र ये क्रोध-मान-माया-लोभसमाच्छादितमतयः, परलोकदर्शनपराङ मुखाः, इहलोकपरमार्थदर्शिनः, निरनुकम्पा जीवेष, ते तथाविधाः तामसाः अधमपुरुषाः दुर्गति-गमनकन्दोद्यतायाम्, सुगति-प्रतिपक्षभूतायाम्, परमार्थतः अनर्थहम वाणिज्य तथा शिला से युक्त, विविध चित्र-विचित्र धातुओं के निर्वाण आदि के प्रमुख एवं महान उपायों से संप्रयुक्त तथा साम, भेद, उपप्रदान और दण्डादि पदार्थों से रचित कथा अर्थकथा कही जाती है। जिसमें काम सम्बन्धी उपादान (तथ्य) ही एकमात्र विषय है; धन, शरीर, अवस्था, कला और चातुर्य से जो युक्त है, प्रेम के कारण रोमाञ्चयुक्त अनुभूति होना ही जिसमें सार है तथा दूती के कार्यकलाप, मिलाप, आज्ञापालन आदि पदार्थों से जो युक्त है वह कामकथा कहलाती है । धर्म को ग्रहण करना ही जिसका विषय है। क्षमा, मार्दव, आर्जव, मुक्ति, तप, संयम, सत्य, शौच, आकिञ्चन्य (अपरिग्रह) तथा ब्रह्मचर्य की जिसमें प्रधानता है; अणुव्रत, दिग्वत, देशव्रत, अनर्थदण्डविरति, सामायिक, प्रोषधोपवास, उपभोग-परिभोग तथा अतिथिसंविभाग से जो सम्पन्न है; अनुकम्पा, अकामनिर्जरादि पदार्थों से जो सम्बद्ध है वह धर्मकथा कही जाती है। जो धर्म, अर्थ तथा कामरूप त्रिवर्ग का ग्रहण करने से सम्बद्ध है; काव्यकथारूप से ग्रन्थों में विस्तार से रची गयी है; लौकिक अथवा वैदिक शास्त्रों में जो प्रसिद्ध है; उदाहरण, हेतु तथा कारण से जो संयुक्त है, उसे संकीर्णकथा कहते हैं । इन कथाबों के श्रोता तीन प्रकार के होते हैं -अधम, मध्यम और उत्तम । जिनकी बुद्धि क्रोध, मान, माया और लोभ से आच्छादित रहती है, परलोक के दर्शन से जो पराङ्मुख हैं, इस लोक को ही जो यथार्थ मानते हैं, जो जीवों के प्रति करुणाभाव से रहित हैं ऐसे तामसी अधमपुरुष दुर्गतियों के गमन में दृढ़ता से उद्यत हैं तथा सुगति की विरोधी, यथार्थ रूप से जिसमें अनर्थों की बहलता है १. पुलइय, २. जोयसारा, ३. भणइ, ४. आकिंचण्ण, Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरियसंगहणिगाहाओ ] अणुसज्जंति । जे उण सद्दाइविसयविमोहियमणा, भावरिउ-इन्दियाणुकूलवत्तिणो, अभावियपरमत्थमग्गा, 'इमं सुन्दरं, इमं सुन्दरयरं' ति सुन्दरासुन्दरेसु अविणिच्छियमई ते रायसा मज्झिमपुरिसा बुहजणोवहसणिज्जाए, विडंबणमेत्तपडिबद्धाए, इह परभवे य दुक्खसंबढियाए कामकहाए अणुसज्जति । - जे उण मणगं सुन्दरयरा, सावेक्खा उभयलोएसु, कुसला ववहारनयमएणं, परमत्थओ सारविन्नाणरहिया, खुद्दभोएसु अबहुमाणिणो, अवियण्हा उदारभोगाणं, ते किंचिसत्तिया मज्झिमपुरिसा चेव आसयविसेसओ सुगइ-दुग्गइवत्तिणीए, जीवलोगसभावविभमाए, सयलरसनिस्संदसंगवाए, विविहभावपसइनिबंधणाए संकिण्णकहाए अणुसज्जति । जे उण जाइजरा-मरणजणियवेरग्गा, जम्मंतरम्मि वि कुसलभावियमई, निग्विण्णा कामभोगाण, मुक्कपाया पावलेवेण विन्नायपरमपयसरुवा, आसन्ना सिद्धिसंपत्तीए, ते सत्तिया उत्तिमपुरिसा सग्गनिव्वाणसमारुहणवत्तिणीए बुहजणपसंसणिज्जाए, सयलकहासुन्दराए, महापुरिससेवियाए धरूमकहाए चेव अणुसज्जति। बहुलायाम् अर्थकथायाम् अनुषजन्ति । ये पुनः शब्दादिविषयमोहितमनसः, भावरिपु-इन्द्रियानुकूलवर्तिनः, अभावितपरमार्थमार्गाः 'इदं सुन्दरम्', 'इदं सुन्दरतरम्' इति सुन्दराऽसुन्दरेष अविनिश्चितमतयः, ते राजसा मध्यमपुरुषा बहुजनोपहसनीयायाम् विडम्बनामात्रप्रतिबद्धायाम, इह परभवे च दुःखसंवर्धिकायां कामकथायां अनुषजन्ति। __ ये पुनर्मनाक् सुन्दरतराः, सापेक्षा उभयलोकेषु, कुशला व्यवहारनयमतेन, परमार्थतः सारविज्ञानरहिताः, क्षुद्रभोगेषु अबहुमानिनः, अवितृष्णा उदारभोगानाम्, ते किञ्चित् सात्त्विका मध्यमपुरुषाश्चैव आशयविशेषतः सुगति-दुर्गतिवर्तिन्याम्, जीवलोकस्वभावविभ्रमायाम, सकलरसनिस्यन्दसंगतायाम्, विविधभावप्रसूतिनिबन्धनायां संकीर्णकथायाम् अनुषजन्ति । ये पुनर्जातिजरामरणजातवैराग्याः जन्मान्तरेऽपि कुशलभावितमतयः निविण्णाः कामभोगेभ्यः, मुक्तप्रायाः पापलेपेन, विज्ञातपरमपदस्वरूपाः, आसन्नाः सिद्धिसंप्राप्त्याः, ते सात्त्विका उत्तमपुरुषाः स्वर्गनिर्वाणसमारोहण-वर्तिन्यां, । बुधजनप्रशंसनीयायां सकलकथासुन्दरायां महापुरुषसेवितायां धर्मकथायां अनुषजन्ति । ऐसी अर्थकथा में अनुरक्त होते हैं। पुन: जिसका मन शब्दादि विषयों में मोहित है, भावों की शत्रु इन्द्रियों के अनुकूल जो आचरण करते हैं, परमार्थमार्ग का जिन्होंने चिन्तन किया है, 'यह सुन्दर है, यह उससे अधिक सुन्दर है'-इस प्रकार सुन्दर तथा असुन्दर में जिनकी बुद्धि निश्चित नहीं है, ऐसे राजस मध्यमपुरुष अधिक लोगों के द्वारा उपहसनीय, छल से सम्बन्ध रखने वाली, इस भव तथा परमव में दुःख को बढ़ाने वाली कामकथा में अनुरक्त होते हैं । ___ जो कुछ सुन्दरतर हैं, इस लोक तथा परलोक के प्रति अपेक्षावान हैं, गवहार मार्ग में कुशल हैं। परमार्थरूप से सारभूत विज्ञान से रहित हैं, क्षुद्र भोगों को जो बहुत नहीं मानते हैं, भोगों के प्रति जिनकी लालसा नहीं है वे कुछ कुछ सात्विक और मध्यमपुरुष ही भाशय विशेष से सुगति और दुर्गति में ले जाने वाली, संसार के स्वभावरूप चित्तभ्रमवालो, समस्त रसों के झरने से युक्त, अनेक प्रकार के पदार्थों (भावों) की उत्पत्ति में कारण संकीर्णकथा में अनुरक्त होते हैं । जन्म, जरा, मरण के प्रति जिन्हें वैराग्य उत्पन्न हो गया है, इतर जन्म में भी जिनकी बुद्धि में मंगल की भावना है, काम-भोगों से जो विरक्त हैं पारों के संसर्ग से जो प्रायः रहित हैं, जिन्होंने मोमपद के स्वरूप को जान लिया है, जो सिद्धि-प्राप्ति के सन्मुख हैं ऐसे वे सात्त्विक Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ समराइच्चकहा तओ अहं पि इयाणि दिव्वमाणुसवत्युगयं धम्मकहं चेव कित्तइस्सामि। भणियं च अकयपरोवयारनिरएहिं उवलद्धपरमपयमग्गेहि, समतिणमणिमुत्तलोठ्ठकंचणेहिं सासयसिवसोक्खबद्धराएहिं धम्मसत्थयारेहि धम्मेण कुलपसूई धम्मेण य दिव्वरूवसंपत्ती। धम्मेण धणपमिद्धी धम्मेण सुवित्थडा कित्ती ॥१२॥ धम्मो मंगलमउलं ओसहमउलं च सव्वदुक्खाणं ।। धम्मो वलमवि विउलं धम्मो ताणं च सरणं च ॥१३॥ कि जंपिएण बहुणा जं जं दोसइ समत्यजियलोए। इंदियमणाभिराम तं तं धम्मप्फलं सव्वं ॥१४॥ भीमम्मि मरणकाले मोत्तूग दुक्खसंविढत्तं पि। अत्थं देहं सयगं धम्मो च्चिय होइ सुसहाओ ॥१५॥ ततोऽहमपि इदानी दिव्यमानुषवस्तुगतां धर्मकथामेव कीर्तयिष्यामि । भणितं च अकृतपरोपकारनिरतः उपलब्धपरमपदमार्गः समतृणमणिमुक्तालोष्टुकाञ्चनैः शाश्वतशिवसौख्यबद्धरागैर्धर्मशास्त्रकारैः धर्मेण कुलप्रसूतिः धर्मेण च दिव्यरूपसंप्राप्तिः । धर्मेण धनसमृद्धिः, धर्मेण सुविस्तृता कीर्तिः ॥१२॥ धर्मो मङ्गलमतुलम् औषधमतुलं च सर्वदुखानाम् । धर्मो बलमपि विपुलं धर्मः त्राणं च शरणं च ॥१३॥ किं जल्पितेन बहुना यद् यद् दृश्यते समस्तजीवलोके । इन्द्रियमनोऽभिरामं तद् तद् धर्मफलं सर्वम् ।।१४॥ भीमे मरणकाले मुक्त्वा दुःखसमर्जितोऽपि । अर्थो देहः स्वजनो, धर्मश्चैव भवति सुसहायः ॥१५॥ उत्तम पुरुष स्वर्ग और निर्वाण-भूमि में आरोहण कराने वाली, ज्ञानीजनों के द्वारा प्रशंसनीय, समस्त कथाओं में सुन्दर, महापुरुषों के द्वारा सेवित धर्मकथा के प्रति अनुरागी होते हैं । __अतः मैं भी इस समय दिव्य-मानुष वस्तु से युक्त धर्मकथा को ही कहूँगा। बिना प्रयोजन उपकार करने वाले, परमपदरूप मार्ग को प्राप्त करने वाले; तृण, रत्न, मोती, पत्थर, स्वर्ण में समान दृष्टि रखने वाले, शाश्वत मोक्षसुख में राग रखने वाले धर्मशास्त्रकारों ने कहा है--- धर्म से अच्छे कुल में जन्म होता है। धर्म से दिव्य रूप की प्राप्ति होती है। धर्म से धन बढ़ता है, धर्म से सुविस्तृत कीर्ति फैलती है ॥१२॥ धर्म असाधारण कल्याणकारक है, धर्म समस्त दुःखों की एकमात्र (अनुपम) औषध है। धर्म विपूल शक्ति भी है, धर्म रक्षा और शरण है ॥१३॥ अधिक कहने से क्या, समस्त संसार में इन्द्रिय और मन को सुन्दर लगने वाली जो भी वस्तु दिखाई देती है वह सब धर्म का फल है ॥१४॥ भयंकर मरणावस्था प्राप्त होने पर जबकि दुःख से अजित धन, शरीर, सगे-सम्बन्धी साथ छोड़ देते हैं. तब धर्म ही सच्चा (अच्छी तरह) सहायक होता है ।।१५।। धर्म सुरलोक की प्राप्ति कराता है। पुनः धर्म से ही मनुष्य योनि में जन्म Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरियसंगहणिगाहाओ ] पावेइ य सुरलोयं तत्तो वि सुमणुसत्तणं धम्मो। तत्तो दुक्खविमोक्खं सासयसोक्खं लहुं मोक्खं ॥१६॥ तं कुणइ जाणमाणो जाणइ य सुणेइ जो उ मज्झत्थो । कुसलो य धम्मियाओ कहाउ सम्वन्नुभणियाओ॥१७॥ ता पढम धम्मगुणं पडुच्च चरियं अहं पवक्खामि । आराहगेयराणं गुणदोसविभावणं परमं ॥१८॥ नवपुव्वभवनिबद्ध' संवेगकरं च भव्वसत्ताणं। चरियं समराइच्चस्सऽवंतिरन्नो सुणह वोच्छं ॥१६॥ एत्थं बहुया उ भवा दोण्ह वि उवओगिणो न ते सव्वे । नवसु परोप्परजोगो जत्तो संखा इमा भणिया ॥२०॥ प्रापयति च सुरलोकं ततोऽपि सुमनुष्यत्वं धर्मः। ततो दुःखविमोक्षं शाश्वत-सौख्यं लघु मोक्षम् ॥१६॥ तं करोति जानन जानाति च शृणोति यस्तु मध्यस्थः । कुशलश्च धार्मिकाः कथाः सर्वज्ञभणिताः ॥१७॥ तस्मात् प्रथमं धर्मगुणं प्रतीत्याहं चरितं प्रवक्ष्यामि । आराधकेतराणां गुण-दोषविभावनं परमम् ॥१८॥ नवपूर्वभवनिबद्ध संवेगकरं च भव्यसत्त्वानाम् । चरितं समरादित्यस्य अवन्तिराजस्य शृणुत वक्ष्ये ॥१६॥ अत्र बहुकास्तु भवाः द्वयोरपि उपयोगिनो न ते सर्वे । नवसु परस्परयोगो यतः संख्या इयं भणिता ॥२०॥ लेकर जीव शीघ्र ही मोक्ष को प्राप्त करता है। मोक्षावस्था में दुःख से छुटकारा मिल जाता है और शाश्वत सुख की प्राप्ति होती है ॥१६॥ जो व्यक्ति मध्यस्थ और पुण्यात्मा है वह धर्म के प्रभाव को जानता हुआ सर्वज्ञ द्वारा उपदिष्ट धर्मकथा को जानता है और सुनता है ॥१७॥ अतः पहले धर्म गुण की प्रतीति कराकर मैं चरित को कहूंगा। इसमें धर्म की आराधना करने वाले तथा न करने वाले व्यक्तियों के (क्रमशः) गुण और दोषों को दिखलाया जायेगा ॥१८॥ नौ पूर्वभवों की कथा जिसमें निबद्ध है, जो भव्यजीवों को उद्वेग उत्पन्न करने वाला है ऐसे उज्जयिनी के राजा समरादित्य का चरित कहूँगा, उसे सुनो ॥१६॥ यद्यपि समरादित्य के बहुत से भव हुए हैं, किन्तु उनमें दो ही उपयोगी हैं, सभी उपयोगी नहीं हैं । नवों (भवों) में आपस में सम्बन्ध है, अत: यहाँ नौ की संख्या कही गयी है ।।२०।। उन्हीं भगवान् समरादित्य ने गिरिषेण द्वारा किये हुए उपसर्ग को सहन करने के बाद केवलज्ञान प्राप्त कर वेलन्धर देव, राजा मुनिचन्द्र तथा नर्मदा प्रधान महारानियों को जिस प्रकार (कथा) १. नवपुब्वभवनिबद्ध । Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [समराइच्चकहा जह तेणेव भगवया गिरिसेणुवसग्गसहणपज्जते। संजायकेवलेणं सिट्ठ वेलंधरसुरस्स ॥२१॥ मुणिचंदस्स य रन्नो देवीण य नम्मयापहाणाणं । संखेवेण फुडत्थं अहमवितं संपवक्खामि ॥२२॥ भणियं य पुवायरिएहि गुणसेण-अग्गिसम्मा सीहाऽऽणंदा य तह पिया-उत्ता। सिहि-जालिणि माइ-सुया धण-धणसिरिमो य पइ-भज्जा ॥२३॥ जय-विजया य सहोयर धरणो-लच्छी य तह पई-भज्जा। सेण-विसेणा पित्तिय-उत्ता जम्मम्मि सत्तमए ॥२४॥ गुणचंद-बाणमंतर समराइच्च गिरिसेण-पाणो उ । एक्कस्स तओ मोक्खो बीयस्स अणन्त संसारो॥२५॥ नगराइ-खिईपइटें जयउर कोसंबि सुसम्मनयरं च । कायंदी मायंदी चंपा ओज्झा य उज्जेणी ॥२६॥ यथा तेनैव भगवता गिरिसेनोपसर्ग सहनपर्यन्ते । संजातकेवलेन शिष्टं वेलंधरसुरस्य ॥२१॥ मुनिचन्द्रस्य च राज्ञः देवीनां च नर्मदाप्रधानानाम् । संक्षेपेण स्फुटार्थम् अहम पि तं संप्रवक्ष्यामि ॥२२।। भणितं च पूर्वाचार्यः गुणसेन-अग्निशर्माणौ सिंहाऽनन्दौ च तथा पितृ-पुत्रौ । शिखि-जालिन्यौ मातृ-सुते धन-धनश्रियौ च पतिभार्ये ॥२३॥ जय-विजयौ च सहोदरौ धरणो लक्ष्मीश्च तथा पतिभायें । सेन-विसे नो पितृव्य-पुत्रौ जन्मनि सप्तमके ॥२४॥ गुणचन्द्र-वानव्यन्तरौ समरादित्यः गिरिसेनप्राणस्तु । एकस्य ततो मोक्षः द्वितीयस्य अनन्त संसारः ॥२५॥ नगरादि-क्षितिप्रतिष्ठम, जयपुर-कौशाम्बी सुशर्मनगरं च । काकन्दी माकन्दी चम्पा अयोध्या च उज्जयिनी ॥२६।। कही थी, स्पष्ट अर्थ वाली उस कथा को मैं भी संक्षेप में कहूँगा ॥२१-२२॥ पूर्वाचार्यों ने कहा है-प्रथम भव में गुणसेन-अग्निशर्मा, द्वितीय भव में सिंह-आनन्द के रूप में पिता-पुत्र, तृतीय भव में शिखि और जालिनी के रूप में पुत्र और माता, चौथे भव में धन तथा धनश्री के रूप में पति-पत्नी, पाँचवें भव में जय-विजय के रूप में सहोदर भाई, छठे भव में धरण और लक्ष्मी के रूप में पति-पत्नी, सातवें भव में सेन और विसेन के रूप में चचेरे भाई, आठवें भव में गुणचन्द्र और वानव्यन्तर के रूप में तथा नवें भव में समरादित्य और गिरिसेन चाण्डाल के रूप में जन्म हुआ । अनन्तर पहले (जीव) समरादित्य को तो मोक्ष की प्राप्ति हो गयी और दूसरे (जीव) को अनन्त संसार की प्राप्ति हुई ॥२३-२५॥ क्षितिप्रतिष्ठित, जयपुर, कौशाम्बी, सुशर्मनगर, काकन्दी, माकन्द्री, चम्पा, अयोध्या Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरिसंगहणिगाहाओ ] गुणसे स्ववाओ सोहम्म- सणक्कुमार - बम्मेसुं । सुक्काऽऽणयाऽऽरणेसुं गेवेज्जाऽणुत्तरेसं च ॥ २७ ॥ इयरस्स उ उववाओ विज्जुकुमारेसु होइ नायव्वो । सेसो अणन्तरो उण रयणाईसुं जहाकमसो ॥ २८ ॥ सागरमेगं पंच य नव पण्णरसेव तह य अट्ठारा। बसंती तेत्तीसमेव पढमस्स देवेसु ॥ २६ ॥ देवेसु सड्ढपलियं' सागरतिय सत्त दस य सत्तरस । बावीस तेत्तीसं वीयस्स ठिई उ नरएसु ॥ ३० ॥ एवमेयाओ चरियसंगहगिगाहाओ । संपयं एयासि चेव गुरुवएसानुसारेणं वित्थरेण भावत्थो हिज्ज - १. सड्ढपलिअं । गुणसेनस्योपपादः सौधर्म सनत्कुमार- ब्रह्मषु । शुक्राऽऽरणेषु ग्रैवेयकाऽनुत्तरेषु च ॥ २७ ॥ इतरस्य चोपपादः विद्य ुत्कुमारेषु भवति ज्ञातव्यः । शेषोऽनन्तरः पुना रत्नादिषु यथाक्रम् ||२८|| सागरमेकं पञ्च च नव पञ्चदशैव तथा चाष्टादश । विंशतिः, त्रिंशत्, त्रयस्त्रिंशद् एव प्रथमस्य देवेषु ॥ २६ ॥ देवेसु सार्धपल्यम्, सागरत्रिकं सप्त दश च सप्तदश । द्वाविंशति त्रयस्त्रिशद् द्वितीयस्य स्थितिस्तु नरकेषु ॥ ३० ॥ एवमेताः चरितसंग्रहणीयगाथाः । सांप्रतमेतासां चैव गुरूपदेशानुसारेण विस्तरेण भावार्थ: कथ्यते- ε और उज्जयिनी नगरादि हैं ||२६|| गुणसेन की उत्पत्ति सौधर्म, सनत्कुमार, ब्रह्मलोक, शुक्र, आरण, ग्रैवेयक तथा अनुत्तरों में हुई । दूसरे की उत्पत्ति विद्युत्कुमारों में जानना चाहिए। शेष जन्म क्रमशः रत्नप्रभादि पृथवियों में हुए ।।२७-२८ ।। स्वर्ग लोक में जन्म पाने वाले प्रथम ( गुणसेन ) की आयु एक सागर, पाँच सागर, नौ सागर, पन्द्रह सागर, अठारह सागर, बीस सागर, तीस सागर तथा तैंतीस सागर हुई ||२६|| द्वितीय (अग्निशर्मा) की आयु देवयोनि में डेढ़ पल्य तथा नरकों में तीन सागर, सात सागर, दस सागर, सत्रह सागर, बाईस सागर तथा तैंतीस सागर हुई ||३०|| इस प्रकार चरित का संग्रह करने वाली गाथाएँ हैं। गुरु के उपदेश के अनुसार इन्हीं का विस्तार से भावार्थ कहा जाता है . Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढमो भवो अत्थि इहेव जम्बुद्दीवे' दीवे, अवरविदेहे वासे, उत्तुंगधवलपागारमंडियं, नलिणीवणसछन्न परिहासणाहं, सुविभततियचउवकचच्चरं भवणेहिं जियसुरिंदभवणसोहं खिइपइट्ठियं नाम नयरं । जत्थ विलयाउ कमलाई' कोइलं कुवलयाई कलहंसे । artहि जंपिएण य नयणेहि गईहि य जिणंति ॥ ३१ ॥ जत्थ च नराण वसणं विज्जासु, जसम्मि निम्मले लोहो । पावेसु सया भीरुत्तणं च धम्मम्मि धूणबुद्धी ॥३२॥ तत्थ य राया सपुष्णमंडलो मयकलंकपरिहीणो । जनमणनयणाणंदो नामेणं पुण्णचंदो त्ति ॥ ३३ ॥ अस्ति इहैव जम्बूद्वीपे द्वीपे अपरविदेहे वर्षे उत्तुङ्गधवलप्राकारमण्डितम्, नलिनीवनसंछन्नपरिखासनाथम्, सुविभक्त त्रिक-चतुष्क चत्वरम्, भवनजितसुरेन्द्रभवनशोभं क्षितिप्रतिष्ठितं नाम नगरम् । यत्र वनिताः कमलानि कोकिलां कुवलयानि कलहंसान् । वदनैः जल्पितेन च नयनैः गतिभिश्च जयन्ति ॥ ३१॥ यत्र च नराणां व्यसनं विद्यासु, यशसि निर्मले लोभः । पापेषु सदा भीरुत्वं च धर्मे धनबुद्धिः ||३२|| तत्र च राजा सम्पूर्णमण्डलो मृग (मद ) - कलङ्क परिहीणः । जनमनो-नयनानन्दो नाम्ना पूर्णचन्द्र इति ॥३३॥ इसी जम्बूद्वीप के अपर विदेह क्षेत्र में ऊँचे सफेद प्राकार से मण्डित कमलिनियों के वन से आच्छादित खाई से युक्त, तिराहों, चौराहों से भली प्रकार विभक्त, भवनों से इन्द्र के भवनों की शोभा को जीतने वाला क्षितिप्रतिष्ठित नाम का नगर था । जहाँ ( विलासिनी) स्त्रियां अपने मुखों ( की शोभा) से कमलों को, वाणी से कोयल को, नेत्रों से नील कमलों को और अपनी चाल से कलहंसों को पराजित कर देती थीं ॥ ३१ ॥ जहाँ पर विद्याओं में ही मानवों का व्यसन ( प्रवृत्ति), पवित्र यश में ही लोभ, पापों में सदैव भीरुता और धर्म में ही धन की बुद्धि पायी जाती थी ( द्यूत आदि सात व्यसनों में उनकी प्रवृत्ति नहीं होती थी, द्रव्य आदि का लोभ उन्हें नहीं था, शत्रु आदि का भय भी उन्हें नहीं था तथा धन-धान्यादि को यथार्थ धन नहीं मानते थे ) ||३२|| वहाँ का राजा नाम से और गुणों से भी पूर्णचन्द्र था। वह मनुष्यों के मन और नेत्रों को आनन्द प्रदान करता था । चन्द्रमा और उस राजा में यही अन्तर था कि चन्द्रमा तो घटता-बढ़ता रहता है, किन्तु राजा अपने पूर्ण मण्डल से सदैव युक्त रहता था, चन्द्रमा तो मृगलाञ्छन से युक्त रहता है किन्तु वह राजा मद आदि लाञ्छनों से रहित था ||३३|| अन्तःपुर १. जंबुद्दीवे, २. कमलाइ । Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढमो भवो ] अन्तेउरप्पहाणा देवी नामेग कुमुइणी तस्स । सह वड्ढियविसयसुहा इट्ठा य रइ व्व मयणस्स ॥ ३४॥ ताणय सुआ कुमारो गुणसेणो णाम गुणगणाइण्णो । बालत्तणओ वंतरसुरो व्व केलिप्पित्र णवरं ॥ ३५ ॥ तम्मिय नयरे अतीव सयलजणबहुमओ धम्मसत्यसंघायपाढओ, लोगवबहारनीइकुसलो, अपारंपरिग्गहो, जन्नदत्तो नाम पुरोहिओ त्ति । तस्स य सोमदेवागब्भसंभूओ, महल्ल तिकोणुत्तिमंगो, पिंगल व लोणो, ठाणमेतोवलक्खिय चिबिडनासो, बिलमेत्त कण्णसन्नो, विजियदन्तच्छयमहल्लदसणो, बंकसुदीहर सिरोहरो, विसमपरिहस्त बाहुजुअलो, अइमडहवच्छत्थलो, वंकविसमलंबोयरो, एक्कपासुन्नय महल्ल विथ डकडियडो, विसमपइट्ठिऊरुजुयलो परिथूलक ढिणहस्सजंघो विसमवित्थिण्णचलणो, हुयवहसिहाजाल पिंगकेसो, अग्गिसम्मो नाम पुत्तो ति । तं च को उहल्लेण कुमारगुणसेणो पहथपडुपडहमुइंगवंसकंसालय पहाणेण महया तूरेण अन्तःपुरप्रधाना देवी नाम्ना कुमुदिनी तस्य । सदावर्धित विषयसुखा इष्टा च रतिरिव मदनस्य ||३४|| तयोश्च सुतः कुमारो गुणसेनो नाम गुणगणाकीर्णः । बालत्वतः व्यन्तरसुर इव केलिप्रियः नवरम् ।। ३५॥ ११ तस्मिश्च नगरे अतीव सकलजनबहुमतः, धर्मशास्त्र संघातपाठकः, लोकव्यवहारनीतिकुशलः, अल्पारम्भपरिग्रहो यज्ञदत्तो नाम पुरोहित इति । तस्य च सोमदेवागर्भसंभूतः, महात्रिकोणोत्तमाङ्गः, आपिङ्गलवृत्तलोचनः स्थानमात्रोपलक्षितचिपिटनासः, बिल मात्रकर्णसंज्ञः, विजितदन्तच्छदमहादशन:, वक्रसुदीर्घशिरोधरः, विषमपरिह्रस्वबाहुयुगलः, अतिलघु वक्षःस्थलः, वक्रविषमलम्बोदरः, एक पार्श्वोन्नतमहाविकटकटीतटः विषमप्रतिष्ठितोरुयुगल, परिस्थूलकठिन ह्रस्वजङ्घः, विषमविस्तीर्णचरणः, हुतवह शिखाजालपिङ्गकेशः अग्निशर्मा नाम पुत्र इति । तं च कुलूहलेन कुमारगुणसेनः प्रहतपटुपटह- मृदङ्ग वंश- कांस्यक-लयप्रधानेन महता तूर्येण में प्रधान कुमुदिनी नाम की उस राजा की देवी थी। जिस प्रकार रति कामदेव को प्रिय है और उसके विषयसुख को बढ़ाने वाली है । उसी तरह कुमुदिनी भी उस राजा को प्रिय थी और सदैव उसके विषयसुख को बढ़ाती रहती थी ||३४|| उन दोनों के कुमार गुणसेन नाम का पुत्र था, जो कि गुणसमुदाय से व्याप्त था और बाल्यावस्था से ही बालसुलभ चेष्टाओं से व्यन्तरदेव के समान क्रीडाप्रिय था ॥ ३५ ॥ उसी नगरी में यज्ञदत्त नाम का पुरोहित था जो कि समस्त लोगों के द्वारा माननीय, धर्मशास्त्रों के समूह का अध्येता, लोकव्यवहार तथा नीति में कुशल एवं अल्प आरम्भ और परिग्रह को रखने वाला था । सोमदेवा के गर्भ से उत्पन्न उसका अग्निशर्मा नाम का पुत्र था । उसका ललाट विशाल और त्रिकोण ( तिखूंट) था तथा उसके नेत्र लालिमा लिये हुए भूरे रंग के तथा गोल थे । स्थान मात्र पर ही उसकी चिपटी नाक दिखाई देती थी, उसके कान बिल के समान जान पड़ते थे । ओठों को जीतने वाले (पार करने वाले) उसके बड़े-बड़े दाँत थे । गर्दन टेढ़ी और लम्बी थी। दोनों भुजाएँ विषन और छोटी थीं, छाती अत्यन्त छोटी थी, भयङ्कर कमर थी, नितम्ब विषम पेट टेढ़ा, विषम ( ऊँचा-नीचा) और लम्बा था । एक ओर ऊँची और थे; मोटी, कठिन और छोटी जंघाएँ थीं विषम और विस्तीर्ण ( लम्बे ) चरण के समान पीले-पीले उसके केश थे । थे तथा अग्नि की शिखा के समूह Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ समराइच्चकहा नयरजणमज्झे सहत्थतालं हसंतो नच्चावेइ, रासहम्मि आरोवियं, पहटुबहु डिर्भावदपरिवारियं, छित्तरमयधरियपोण्डरीयं, मणहरुत्ता लवज्जंतडिंडिमं आरोवियमहाराय सद्दं, बहुसो रायमग्गे सुतुरियतुरियं हिण्डावेइ । एवं च पइदिणं कयन्तेणेव तेण कयत्थिज्जंतस्स तस्स वेरग्गभावणा जाया । चितियं चाणेण -- १२ बहुज धिक्कारया उवहसणिज्जा य सव्वलोयस्स । पुव्विं अकयसुपुण्णा सहति परपरिभवं पुरिसा ॥३६॥ जता न कओ धम्मो सुप्पुरिसनिसे विओ अहन्नेण । जम्मंतरम्मि धणियं सुहावहो मूढहियएणं ॥ ३७॥ इहिं पि फलविवागं उग्गं दट्ठूणमकयपुण्णाणं । परलोयबन्धुभूयं करेमि मुणिसेवियं धम्मं ॥ ३८ ॥ जम्मंतरे वि जेणं पावेमि ण एरिसं महाभीमं । सयलजणोहसणिज्जं विडम्बणं दुज्जणजणाओ ॥ ३६ ॥ नगरजनमध्ये सहस्ततालं हसन् नर्तयति, रासभे आरोपितम्, प्रहृष्टबहुडिम्भवृन्दपरिवारितम्, जीर्णशूर्पमयधृतपुण्डरीकम्, मनोहरोत्तालवाद्यमानडिण्डिमम् आरोपित महाराजशब्दम्, बहुशो राजमार्गे त्वरितत्वरितं हिण्डयति । एवं च प्रतिदिनं कृतान्तेनेव तेन कदर्थ्यमानस्य तस्य वैराग्यभावना जाता । चिन्तितं चानेन - बहुजनधिक्कारहता उपहसनीयाश्च सर्वलोकस्य । पूर्वमकृतसुपुण्याः सहन्ते परपरिभवं पुरुषाः ॥३६॥ यदि तावद् न कृतो धर्मः सुपुरुषनिषेवितोऽधन्येन । जन्मान्तरे गाढं सुखावहो मूढहृदयेन ||३७ || इदानीमपि फलविपाकमुग्रं दृष्ट्वाऽकृतपुण्यानाम् । परलोकबन्धुभूतं करोमि मुनिसेवितं धर्मम् ॥ ३८ ॥ " जन्मान्तरेऽपि येन प्राप्नोमि नैतादृशीं महाभीमाम् । सकलजनोपहसनोयां विडम्बनां दुर्जनजनात् ॥ ३६ ॥ कुमार गुणसेन कुतूहलवश उस अग्निशर्मा को जोर से ढोल बजाकर, मृदंग, बाँसुरी तथा मजीरे की saft की जिसमें प्रधानता होती थी ऐसे बड़े बड़े बाजों के साथ नगर के लोगों के बीच तालियाँ दे देकर हँसता हुआ नचाता था, गधे पर बैठाता था, हर्षित होकर बहुत से बच्चों से घिरवाता था, पुराने सूप का छत्रकमल (छाता) लगवाये रहता था, मनोहर और उच्च स्वर से बजायी जाने वाली डोंडी पिटवाकर उसे महाराज शब्द से पुकारता हुआ अनेक बार सड़क पर जल्दी-जल्दी घुमाता था । इस प्रकार प्रतिदिन उसके द्वारा मानो साक्षात् यम के द्वारा ही सताये हुए के समान उस अग्निशर्मा के अन्दर वैराग्यभावना उत्पन्न हुई उसने सोचा- बहुत लोगों के धिक्कार से मारे गये, समस्त लोगों द्वारा उपहसनीय ( उपहास करने योग्य) पुरुष पूर्व जन्म में पुण्य कार्य न करने के कारण दूसरों के द्वारा किए हुए तिरस्कार को सहन करते हैं || ३६ || यदि मुझ मूढ़हृदय अभागे ने दूसरे (पूर्व) जन्म में अत्यधिक सुख को देने वाले सत्पुरुषों से सेवित धर्म ( का आचरण) नहीं किया तो अब पुण्य न करने वाले लोगों के उग्र फलरूप परिपाक को देखकर परलोक के बन्धुभूत, मुनियों के द्वारा सेवित धर्म को करता हूँ जिससे जन्मातर में तो दुष्ट लोगों द्वारा इस प्रकार की महाभयङ्कर समस्त लोगों द्वारा उपहास करने योग्य, विडम्बना को प्राप्त न होऊँ ।। ३७-३६ ।। Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढमो भवो ] एवं च चितिय पवन्नवेरग्गमग्गो निग्गओ नयराओ, पत्तो य मासमेत्तेण कालेण तविसयसंधिसंठियं बउलचंपगासोगपुन्नागनागाउलं, . पसंतमयमयाहिवपमुहविरुद्धसावयगणं सुरहिहविगंधगभिणुद्दामधूमपडलं, विमलसलिलगिरिणईपसाहियवियडपेरंतं, तावसजणजणियहिययपरिओसं सुपरिओसं नाम तवोवणं ति । संपाविऊण य तओ दीहद्धाणपरिखेइयसरीरो। वीसमिऊण मुहत्तं तवोवणं अह पविट्ठो सो ॥४०॥ दिवो य तेण वक्कलवियडजडाऽजिणतिदंडधारीय। भूइरयकतिपुंडो आसन्नकमंडलू सोमो ॥४१॥ भिसियाए सुहनिसण्णो कयलीहरयंतरम्मि झाणगओ। परिवत्तेन्तो दाहिणकरेण रुद्दक्खमालं ति ॥४२॥ मंतक्खरजवणेण य ईसि विलयंतकंठउद्वउडो। नासाए निमियदिट्ठी विणिवारियसेसवावारो ॥४३॥ एवं च चिन्तयित्वा प्रपन्नवैराग्यमार्गो निर्गतो नगरात्, प्राप्तश्च मासमात्रेण कालेन उद्विषयसन्धिसंस्थितम, बकुल-चम्पकाऽशोकपुन्नागनागाकुलम्, प्रशान्तमगमगाधिपप्रमखश्वापदगणम, सरभिहविगन्धभितोद्दामधूमपटलम्, विमलसलिलगिरिनदीप्रसाधितविकटपर्यन्तम, तापसजनजनितहृदयपरितोषं सुपरितोषं नाम तपोवन मिति । संप्राप्य च ततो दीर्घाध्वानपरिखेदितशरीरः । विश्रम्य मुहूर्तं तपोवनमथ प्रविष्टः सः ।।४।। दष्टश्च तेन वल्कल-विकटजटाऽजिनत्रिदण्डधारी च । भूतिरजस्कृतत्रिपुण्ड्रः आसन्नकमण्डलुः सोमः ।।४१।। वषिकायां (कुशासने) सुखनिषण्णः कदलीगृहान्तरे ध्यानगतः । परिवर्तयन् दक्षिणकरेण रुद्राक्षमालामिति ॥४२॥ मन्त्राक्षरजपनेन च ईषद् विगलत्कण्ठोष्ठपुटः। नासायां स्थापितदृष्टि: विनिवारितशेषव्यापारः॥४३॥ ऐसा सोचकर वैराग्य मार्ग को प्राप्त हुआ वह नगर से निकल पड़ा और एक मास में ही उस देश की सीमा पर स्थित सुपरितोष नामक तपोवन में पहुँचा । वह तपोवन मौलश्री, चम्पा, अशोक, पुन्नाग और नागरमोथा से व्याप्न था; शान्त हरिण, सिंह आदि प्रमुख जंगली जानवरों से युक्त था, सुगन्धित होम की गन्ध जिसमें मित थो ऐसे उत्कट धुएँ के समूह से युक्त था, स्वच्छ जलवाली पर्वतीय नदी से जिसकी विस्तीर्ण सीमा की सजावट हो रही थी तथा जो तापसी जनों के हृदय में सन्तोष उत्पन्न कर रहा था। ___ वहाँ पहुँचकर लम्बा रास्ता तय करने के कारण थके हुए शरीर वाले उसने मुहूर्त भर विश्राम किया। अनन्तर वह तपोवन में प्रविष्ट हुआ ॥४०॥ उसने तापस-परिवार में प्रधान आर्जवकौण्डिन्य नामक तपस्वी को देखा। वह पेड़ की छाल, बड़ी-बड़ी जटाएँ, मृगचर्म और त्रिपुण्ड्र धारण किए हुए था। राख से उसने त्रिपुण्ड्र बनाया हुआ था। उसके समीप में ही कमणलु और सोम रखा था। वह वृषिका नामक कुशासन विशेष पर सुखपूर्वक बैठा हुआ कदलीगृह के अन्दर ध्यान लगा रहा था। दायें हाथ से वह रुद्राक्षमाला को फेरता जा रहा था । मन्त्र के अक्षरों को जपने से उसके कण्ठ और ओठ कुछ-कुछ हिल' रहे थे। नासिका पर उसकी दृष्टि थी Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪ अय समयजोगपट्टयपमाणसंगमकयासणविसेसो । तावसकुलप्पहाणो अज्जवकोडिण्णनामो त्ति ॥ ४४ ॥ पेच्छिऊण य हरिसवसुल्ल सियरोमंचेणं, धरणिनिमियजाणुकरयलेणं, उत्तिमंगेणं पुणो पुणो पहयखितलेणं 'अहो ! धन्नो, अहो ! धन्नो त्ति भणमाणेणं पणमओ तेणं । तेण वि य तं तहा पेच्छिऊण अतिहिबहु नाणकरणलालसेण झाणजोगं पमोत्तूनं सागयवयणपुरस्सरं - अहो ! आसणं आसणं ति भणमाणेणं बहुमन्नि । तओ उडयंगण निसेवितावसकुमारोवणीए' इसिणा य 'उवविससु सत्य' त्ति भणिओ सविणयं उवविट्ठो विट्ठरे त्ति । पुच्छिओ य इसिणा कुओ भवं आगओ ? त्ति । ओ तेण सवित्थरो निवेइओ से अत्तणो वृतंतो। भणिओ य इसिणा-वच्छ ! पुण्वकय कम्मपरिणइवसेणं एवं परिकिलेस भाइणो जीवा हवंति । ता नरिदावमाणपीडियाणं दारिद्ददुक्खपरिभूयाणं, दोहग्गकलंकदूमियाणं, इट्ठजणविओगदहरणतताग य एयं परं इह-परलोय सुहावहं परमनिव्वुइट्ठाणं ति । एत्थ - अतसीमययोगपट्टक- प्रमाण-संगतकृतासनविशेषः । तापसकुल प्रधानः आर्जव कौण्डिन्यनामेति ॥ ४४ ॥ [ समराइच्चकहा प्रेक्ष्य च हर्षवशोल्लसित रोमाञ्चेन, धरणी स्थापितजानुकरतलेन, उत्तमाङ्गेन पुनः पुनः प्रतक्षितितलेन 'अहो ! धन्यः, अहो ! धन्यः' इति भणता प्रणतस्तेन । तेनाऽपि च तं तथा प्रेक्ष्य अतिथिबहुमानकरणलालसेन ध्यानयोगं प्रमुच्य स्वागतवचन पुरस्सरम्- अहो ! आसनम् आसनम् इति भणता बहुमानितः । तत उटजाङ्गणनिषेवितापसकुमारोपनीते ऋषिणा च ' उपविश अत्र ' इति भगतः सविनयम् उपविष्टो विष्टरे इति । पृष्ट ऋषिणा – कुतो भवान् आगत इति । ततस्तेन सविस्तरो निवेदितस्तस्य आत्मनो वृत्तान्तः । भणितश्च ऋषिणा - वत्स ! पूर्वकृतकर्मपरिणतिवशे नैव परिक्लेशभाजिनो जीवा भवन्ति । तस्माद् नरेन्द्रापमानपीडितानाम्, दारिद्र्यदुःखपरिभूतानाम्, दौर्भाग्य कलङ्कदूनानाम्, इष्टजनवियोगदहनतप्तानां चैतत् परं इह-परलोक-सुखावह-परमनिर्वृतिस्थानमिति । अत्र और अन्य समस्त कार्यों को उसने छोड़ रखा था । अतसी की छाल से बने हुए योगपट्ट (योगियों द्वारा धारण किये गये वस्त्र ) के बराबर किये हुए आसनविशेष से युक्त था ।।४१-४४ ।। उस तापसी को देखकर हर्ष के कारण रोमाञ्चित हो धरातल पर घुटने और हथेलियाँ टिकाकर अपने (मस्तक) को बार-बार पृथ्वीतल पर लगाते हुए, अहो धन्य, अहो अन्य कहते हुए, उस अग्निशर्मा ने उस तापसी को प्रणाम किया। उस आर्जव कौण्डिन्य नामक ऋषि ने भी उसे उस प्रकार देखकर अतिथि का सम्मान करने की लालसा से ध्यानयोग छोड़कर स्वागत वचनपूर्वक 'ओह ! आसन, आसन' (आसन लाओ ) कहते हुए बहुत सम्मान दिया । अनन्तर कुटी के आँगन में रखी हुई चौकी पर, जिसे एक तापस कुमार लाया था, ऋषि द्वारा 'इस पर बैठो' ऐसा कहने पर वह उस पर बैठ गया। ऋषि ने पूछा, "आप कहाँ से आये हैं ?" तब उसने विस्तारपूर्वक अपना वृत्तान्त निवेदन किया । ऋषि ने कहा, "वत्स ! पहले किये हुए कर्मों के परिणामस्वरूप ही जीव इस तरह के दुःखों के पात्र होते हैं । अतः राजा के अपमान से पीड़ित, निर्धनता के दुःखों से तिरस्कृत, दुर्भाग्य के कलङ्क से दुःखी और इष्टजनों के वियोगरूपी दाह से सन्तप्त लोगों के लिए इस लोक और परलोक में सुख देते. वाला यह परम शान्ति का स्थान है । यहाँ पर - १. उत्तिमंगेण, २. कुमारोवणीओ, ३ पुच्छिओ इसिणा । Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढमो भवो] पेच्छंति न संगकयं दुक्खं अवमाणणं च लोगाओ। दोग्गइपडणं च तहा वणवासी सव्वहा धन्ना ॥४॥ एवमणुसासिएण भणियं अग्गिसम्मेणं- भगवं! एवमेयं न संदेहो त्ति। ता जइ भयवओ ममोवरि अणुकंपा, उचिओ वा अहं एयरस वयविसेसस्स, ता करेह मे एयवयप्पयाणेणाणुग्गहं ति । इसिणा भणियं-वच्छ ! वेरग्गमग्गाणुगओ तुमं ति करेमि अणुग्गह, को अन्नो एयस्स उचिओ ति। तओ अइक्कतेसु कइवयदिणेसु संसिऊण य सवित्थरं निययमायारं, पसत्थे तिहिकरणमुहत्तजोगलग्गे दिन्ना' से तावसदिक्खा । महापरिभवजणियवेरग्गाइसयभाविएण याणेण तम्मि चेव दिक्खादिवसे सयलतावसलोयपरियरियगुरुसमक्खं कहा महापइन्ना। जहा यावज्जीवं मए मासाओ मासाओ चेव भोत्तव्वं, पारणगदिवसे य पढमपविठ्ठणं पढमगेहाओ चेव लाभे वा अलाभे वा नियत्तियव्वं, न गेहान्तरमभिगन्तव्वं ति। एवं च कयपइन्नस्स प्रेक्षन्ते न संगकृतं दुखम्, अवमाननं च लोकात् । दर्गतिपतनं च तथा वनवासिनः सर्वथा धन्याः ॥४५॥ एवमनुशासितेन भणितमग्निशर्मणा-भगवन् ! एवमेतत् न सन्देह इति । तस्माद् यदि भगवतो ममोपरि अनुकम्पा उचितो वा अहं एतस्य व्रतविशेषस्य, तस्माद् कुरु मम एतद्वतप्रदानेन अनुग्रहमिति । ऋषिणा भणितम्-वत्स ! वैराग्यमार्गानुगतस्त्वमिति करोमि अनुग्रहम, कोऽन्य एतस्य उचित इति । ततोऽतिक्रान्तेष कतिपयदिनेष शंसित्वा च सविस्तरं निजकमाचारम्, प्रशस्ते तिथि-करण-महर्त-योगलग्ने दत्ता तस्य तापसदीक्षा। महापरिभवजनितवैराग्यातिशयभावितेन चानेन तस्मिन्नेव दीक्षादिवसे सकलतापसलोकपरिकरितगुरुसमक्षं कृता महाप्रतिज्ञा। यथा-यावज्जीवं मया मासाद् मासाद् एव भोक्तव्यम्, पारणकदिवसे च प्रथम-प्रविष्टेन प्रथमगेहाद एव लाभे वाऽलाभे वा निवर्तितव्यम्, न गेहान्तरमभिगन्तव्यमिति । एवं च कृतप्रति आसक्ति से उत्पन्न हुआ (परिग्रहजनित) दुःख और लोगों के द्वारा किया गया अपमान तथा खोटी गति में गमन दिखाई नहीं देता है । इस प्रकार वनवासी सर्वथा धन्य हैं ॥४५॥ इस प्रकार शिक्षा दिये जाने पर अग्निशर्मा ने कहा, "भगवन् ! ऐसा ही है, इसमें सन्देह नहीं । अतः यदि भगवान की मेरे ऊपर दया है और मैं इस व्रतविशेष के योग्य हूँ तो इस व्रत प्रदान से मेरे ऊपर अनुग्रह कीजिए। ऋषि ने कहा, "वत्स ! तुमने वैराग्य-मार्ग का अनुसरण किया है, अतः तुम पर अनुग्रह करता हूँ। इसके योग्य और कौन है ?" तदनन्तर कुछ दिन बीत जाने पर अपने आचार की विस्तृत रूप से शिक्षा देकर उत्तम तिथि, करण. महर्त, योग और लग्न में उस अग्निशर्मा को तापस दीक्षा दी। घोर तिरस्कार से उत्पन्न वैराग्य की अधिकता के कारण इस अग्निशर्मा ने उसो दीक्षा के दिन, जब कि समस्त तापसी गुरु के चारों ओर इकट्ठे थे, एक बहुत बड़ो प्रतिज्ञा की। "आजीवन मैं एक-एक माह बाद भोजन करूंगा। पारणा (व्रत की समाप्ति पर भोजन) के दिन सबसे पहले जिस घर जाऊँगा, वहाँ आहार मिले तो ठीक, अथवा नहीं भी मिले तो लौट आऊंगा और अन्य घर नहीं जाऊँगा।" इस प्रकार प्रतिज्ञा करने के बाद उस प्रतिज्ञा का भली-भाँति पालन करते हए उसके कई १. दिण्णा । Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [समराइच्चकहा तस्स जहाकयं पइन्नमणु पालिन्तस्स अइक्कंता बहवे पुव्वलक्खा । तवोवणासन्नवसंतउर-निवासिणो य लोयस्स गुणराइणो जाओ तं पइ अईव भत्तिबहुमाणो । अहो ! अयं महातवस्सी इहलोयनिप्पिवासो, सरीरे वि दढमप्पडिबद्धो, एयस्स सफलं जीवियं ति । भणियं च जणपक्खवायबहुमाणिणा वि जत्तो गुणेसु कायव्वो। आवज्जति गुणा खलु अबुहं पि जणं अमच्छरियं ॥४६॥ इओ य पुण्णचंदो राया कुमारगुणसेणं कयदारपरिग्गहं रज्जे अभिसिंचिऊण सह कुसुइणीए देवीए तवोवणवासी जाओ। सो य कुमारगणसेणो अणेयसामंतपणिवइयचलणजुयलो, निज्जियनियमंडलाहियाणेगमंडलो, दसदिसि विसट्टनिम्मलविस्सुयजसो, धम्मत्थकामलक्खणतिवग्गसंपायगरओ महाराया संवुत्तो त्ति । अन्नया य कालक्कमेणेव जहासुहं सयलजणसलाहणिज्जं सह वसंतसेणाए महादेवीए रज्जसोक्खं अणुहवंतो आगओ वसंतउरं, पविट्ठो य महामगलोवयारेणं, पूजिओ ज्ञस्य तस्य यथाकृतां प्रतिज्ञामनपाल यतो तिक्रान्तानि बहनि पूर्वलक्षाणि । तपोवनासन्त वसन्तपुरनिवासिनश्च लोकस्य गुणरागिणो जातस्तं प्रति अतीव भवितबहुमानः । अहो ! अयं महातपस्वी इहलोकनिष्पिपासः शरीरेऽपि दृढमप्रतिबद्धः एतस्य सफलं जीवितमिति । भणितं च जनपक्षपातबहुमानिनाऽपि यत्नो गुणेषु कर्त्तव्यः । आवर्जयन्ति गुणाः खलु अबुधमपि जनममात्सर्यम् ॥४६॥ इतश्च पूर्णचन्द्रो राजा कुमारगुणसेनं कृतदारपरिग्रहं राज्येऽभिषिच्य सह कुमुदिन्या देव्या तपोवनवासी जातः । स च कुमारगुणसेनोऽनेकसामन्तप्रणिपतितचरणयुगलः निजितनिजमण्डलाधिकानेकमण्डलः दशदिशि-विकसितनिर्मलविश्रुतयशाः, धर्माऽर्थकामलक्षणत्रिवर्गसम्पादनरतो महाराजः संवृत्त इति। अन्यदाच कालक्रमेणैव यथा सुखं सकलजनश्लाघनीयं सह वसंतसेनया महादेव्या राज्यसौख्यमनुभवन् आगतो वसंत पुरम्, प्रविष्टश्च महामङ्गलोपचारेण, प्रविष्टश्च लाख पूर्व निकल गये। तपोवन के समीप वसन्तपुर के निवासियों तथा गुणों के प्रति प्रेम रखने वाले लोगों में उसके प्रति अत्यन्त भक्ति और सम्मान उत्पन्न हो गया। आश्चर्य की बात है-यह तपस्वी इस लोक की तृष्णा से रहित है और शरीर में भी इसकी आसक्ति नहीं है। इसका जीवन सफल है। कहा भी है-- ___मनुष्यों में पक्षपात के कारण बहुत सम्मान प्राप्त करने वाले व्यक्ति को भी गुणों के प्रति यत्न करना चाहिए । गुण अज्ञानी व्यक्तियों में भी अमात्सर्य ला देते हैं ।।४६॥ इधर पूर्णचन्द्र नाम का राजा कुमार गुणसेन को, जिसका विवाह हो गया था, राज्य पर अभिषिक्त कर देवी कुमुदिनी के साथ तपोवनवासी हो गया । कुमार गुणसेन, जिनके चरणयुगल की अनेक सामन्त वन्दना करते थे, अपने देश से भी अधिक अनेक देशों को जिन्होंने जीत लिया था, जिसका प्रसिद्ध और निर्मल यश दणों दिशाओं में फैल रहा था; धर्म, अर्थ और काम जिसका लक्षण है ऐसे त्रिवर्ग के सम्पादन में रत हो 'महाराज' बन गये। एक बार कालक्रम से सुख का अनुभव करते हुए, समस्त लोगों द्वारा प्रशंसनीय होकर, वसन्तसेना नामक महारानी के साथ राज्यसुख का अनुभव करते हुए 'वसन्तपुर' आये । महान् मांगलिक क्रियाकलाप के साथ वहाँ प्रविष्ट हुए। नगरनिवासी जनों ने उनकी पूजा की। उसके साथ वह वर्षाऋतु की लीला के समान शोभायमान Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढमो भवो] य पउरेहि, गओ समं तेहिं पाउसलीलावलंबिसोहियं विमाणच्छंदयं नाम पासायं, जत्थ मेहदुण्णिच्छायाणुयारिणीओ बहलकालागरुधमसंतईओ, सोयामणीओ विव विहायंति रयणावलीओ, जलधाराओ विव दीसंति मुत्तावलीओ बलायापंतियाओ विव विहायंति चमरपंतियाओ इंदाउहच्छायावहारिणीओ पलंबियाओ पट्टसुयमालाओ, गंधोयगावसेयसुरभिगंधाभूमिभागा, रुंटत'महुयरकुलाउलावइण्णा' पुष्फोवयारा । किं बहुणा जंपिएणं पुरिसाण मोहनिद्दासुत्ताण वि सिमिणयं पिव कहेइ । पुव्वि कयाण वियडं फलं च जो भागधेयाणं ॥४७॥ तत्थ य जहाणुरूवं पउरजणं सम्माणेऊण विसज्जिएसु तेसु, विविहणाडयच्छन्दनट्टियाइणा मणहरेण विणोएण विगमिऊण तं अहोरत्तं बिइयदिवसम्मिय संपाइयसयलगोसकिच्चो उचियवेलाए चेव निग्गओ वाहियालि । परिवाहिया य तेणं बहवे बल्हीयतुरुक्क वज्जराइया आसा। तज्जणियखेयावणयणनिमित्तं च उवविट्ठो वाहियालीतडनिविट्ठ सहस्सम्बवणुज्जाणे । एत्थंतरम्मि गहियनारंगपौरैः गतः समं तैः प्रावृड्लीलावलम्बिशोभितं विमानच्छन्दकं नाम प्रासादम्, यत्र मेघदुर्दिनच्छायानुकारिण्यो बहलकालागरुधूमसन्ततयः सौदामिन्य इव विभान्ति रत्नावल्यः, जलधारा इव दश्यन्ते मुक्तावल्यः, बलाकापङ्क्तप इव विभान्ति चामरपङ्क्तिका: इन्द्रायुधच्छायापहारिणाः प्रलम्बिता: पट्टांशुकमालाः, गन्धोदकासेकसुरभिगन्धा भूमिभागाः रटन्मधुकरकुलाकुलावतीर्णाः पुष्पोपचाराः । किंबहुना जल्पितेन पुरुषाणां मोहनिद्रासुप्तानामपि स्वप्नमिव कथयति । पूर्व कृतानां विकटं फलं च यो भागधेयानाम् ॥४७॥ तत्र च यथानुरूपं पौरजनं सम्मान्य, विसजितेषु तेषु विविधनाटकच्छन्द-नतितादिना मनोहरेण विनोदेन विगम्य तद् अहोरात्रम्, द्वितीय दिवसे च सम्पादितसकलगोस (प्रभात)-कृत्यः उचितवेलायां चैवनिर्गतो बाह्यालिम् । परिवाहिताश्च तेन बहवो बालीक-तुरुष्क-वज्जरादिका अश्वा । तज्जनितखेदापनयननिमित्तं च उपविष्टो बाह्यालीतटनिविष्टे सहस्राभ्र वनोद्याने । अत्रान्तरे गहीतनाराजविमानच्छन्दक नामक महल में गये, जहाँ अत्यधिक कालागरु के धूम की परम्परा वर्षाकालीन मेघ की छाया का अनुसरण कर रही थी, रत्नों की पंक्तियाँ बिजलियों के समान शोभायमान हो रही थीं, मोतियों की मालाएँ जलधारा के समान दिखाई दे रही थीं, चैवरों की पंक्तियाँ बगुले की पंक्तियों के समान शोभित हो रही थीं, लटके हुए रेशमी वस्त्रों की पंक्तियाँ इन्द्रायुध की छाया का अपहरण कर रही थीं, भूमिभाग गन्धोदक के सींचने से सुगन्धित हो रहा था तथा गुंजायमान भौरों के समूह से पुष्पोपचार व्याप्त थे । अधिक कहने से क्या भाग्यशाली ब्यक्तियों के पूर्वकृत कर्मों का जो विकट फल है उसे यह (प्रासाद) महानिद्रा में सोये हुए मनुष्यों के स्वप्न के समान कथन कर रहा था ॥४७।। ___ वहाँ पर यथानुरूप नगरवासियों को सम्मानित करके, उन्हें विदा कर, अनेक प्रकार के नाटक, काव्य, नत्य आदि मनोहर विनोदों के साथ एक दिन-रात्रि व्यतीत की। दूसरे दिन प्रातःकालीन समस्त कृत्यों को कर, उचित समय पर अश्वीडन स्थान की ओर निकले । वहाँ उसने अनेक बाह्नीक, तरुष्क तथा वज्जरादिक घोडों को चलाया । घोड़ों को चलाने से उत्पन्न थकावट को दूर करने के लिए (वह) अश्दक्रीडन भूमि के तट पर बने १. पंढत, २. कुलाउलावइण्णा । Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ समराइच्चकहा कढिणया आगया दुवे तावसकुमारया। विट्ठो य णेहि राया, अभिणंदिओ य ससमयपसिद्धाए आसीसाए.। अब्भुट्ठाणासणपयाणाइणा उवयारेण बहुमन्निया य राइणा । भणियं च णेहि-महाराय ! सुगिहीयनामधेएण अम्हे कुलवइणा भवओ चउरासमगुरुस्स, सुकयधम्माधम्मववत्थस्स सरीरपउत्तिपरियाणणनिमित्तं पेसिया । एवं सोऊण संपयं तुमं पमाणं ति। राइणा भणियं-कहिं सो भयवं कुलवइ ति। तेहिं भणियं-इओ नाइदूरे सुपरिओसनामे तवोवणे त्ति । तओ य सो राया भत्तिकोउगेहिं गओ तं तवोवणं ति दिट्ठा य तेणं तत्थ बहवे तावसा कुलवई य । तओ संजायसंवेगेणं जहारिहमभिवंदिया। उवविट्ठो कुलवइसमीवे, ठिओ य तेण सह धम्मकहावावारेण कंचि कालं । तओ भणिओ य गेण सविणयं पणमिऊण भयवं कुलवई । जहा करेहि मे पसायं सयलपरिवारपरिगओ मम गेहे आहारगहणणं । कुलवइणा भणियं-वच्छ ! एव । किंतु एगो अग्गिसम्मो नाम महातावसो, सो य न पइदियहं भुंजइ, किं तु मासाओ मासाओ, तत्थ विय पारणगदिवसे पढमपविट्ठो पढमगेहाओ चेव लाभे वा अलाभे वा नियत्तइ, न गेहन्तरमुवगच्छइ । ता कठिनको आगतौ द्वौ तापसकमारकौ । दृष्टश्च आभ्यां राजा, अभिनन्दितश्च स्वसमयप्रसिद्धया आशिषा । अभ्युत्थानासनप्रदानदिनोपचारेण बहुमानितौ च राज्ञा। भणितं चाभ्याम्-महाराज ! सुविहतनामधेयेन आवां कुलपतिना भवतः चतुराश्रम गुरोः सुकृतधर्माधर्मव्यवस्थस्य शरीरप्रवृत्तिपरिज्ञाननिमित्तं प्रेषितौ । एवं श्रुत्वा साम्प्रतं त्वं प्रमाणमिति । राज्ञा भणितम्-कुत्र स भगवान कुलपतिः? इति । ताभ्यां भणितम्-इतो नातिदूरे सुपरितोषनाम्नि तपोवने इति । ततश्च स राजा भक्तिकौतुकाभ्यांगतस्तत् तपोवनमिति । दृष्टाश्च तेन तत्र बहवस्तापसाः, कुलपतिश्च। ततः संजातसंवेगेन यथार्हमभिश्च वन्दिताः। उपविष्ट: कुलपतिसमीपे, स्थितश्च तेन सह धर्मकथाव्यापारेण कञ्चित् कालम् । ततो भणितश्चानेन सविनयं प्रणम्य भगवान् कुलपतिः । यथा कुरु मम प्रसादः सकलपरिवारपरिगतो मम गेहे आहारग्रहणेन । कुलपतिना भणितम्-वत्स ! एवम् । किन्तु मासाद् मासात्, तत्रापि च पारणकदिवसे प्रथमप्रविष्ट प्रथमगेहाद् एवं लाभे वाऽलाभे वा निवर्तते, न गेहान्तरमुपगच्छति। तस्मात् तं हए सहस्राम्रवन नामक उद्यान में बैठे थे कि इसी बीच नारंगियों की टोकरी लिये हुए दो तापसकुमार आये। दोनों को राजा ने देखा और अपने समय (परम्परा) के अनुरूप आशीर्वाद से उनका अभिनन्दन किया । खड़े होना, आसन प्रदान करना आदि उपचारों से उन दोनों का राजा ने बहुत सत्कार किया। दोनों तापसकुमारों ने कहा, "महाराज ! सुप्रसिद्ध नाम वाले हमारे कुलपति ने चारों आश्रमों के गुरु, धर्म-अधर्म की भली-भांति व्यवस्था करने वाले आपके शरीर का हालचाल जानने के लिए हम लोगों को भेजा है। यह सुनकर अब आप ही प्रमाण हैं ।" राजा ने कहा, "वे भगवान् कुलपति कहाँ हैं ?" उन दोनों ने कहा, "यहाँ समीप में ही सुपरितोष नामक तपोवन में हैं।" तदन्तर भक्ति और कौतूहल से युक्त हो वह राजा उस तपोवन में गया । वहाँ पर उसने बहुत से तापसों और कुलपति को देखा । अनन्तर मुक्ति की अभिलाषा उत्पन्न होने के कारण उसने यथायोग्य उनकी वन्दना की। वह कुलपति के पास में बैठा। उनके साथ कुछ समय तक धर्मकथा-वार्ता करता रहा। उसने भगवान् कुलपति से विनयपूर्वक प्रणाम कर कहा, “समस्त परिवार-जन के साथ मेरे घर आहार ग्रहण कर मुझ पर कृपा कीजिए।" कुलपति ने कहा, "वत्स ! ठीक है । किन्तु एक अग्निशर्मा नाम का तापस प्रतिदिन भोजन न कर एक एक मास बाद भोजन करता है । उसमें भी पारणा के दिन सबसे पहले जिस घर में प्रविष्ट होता है Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढमो भवो ] १६ . तं महातवस्सि मोतूण पडिवन्ना ते पत्थणा । राइणा भणियं-भगवं! अणुगिहीओ म्हि । अह कहि पुण सो महातावसो ? पेच्छामि णं ताव, करेमि तस्स दरिसणेण अप्पाणं विगयपावं । कुलवइणा भणियं-वच्छ ! एयाए सहयारवीहियाए हेठा झाणवरगओ चिट्ठइ । तओ सो राया ससंभंतो गओ सहयारवीहियं । दिट्ठो य तेण पउमासणोवविट्ठो, थिरधरियनयनजुयलो, पसंतविचित्तचित्तवावारो कि पि तहाविहं जाणं झायंतो अग्गिसम्मतावसो त्ति । तओ राइणा हरितवसपयट्टुंतपुलएण पणमिओ । तेण विय आसीसाए सबहुमाणमेवाहिणंदिओ, 'सागयं ते भणिऊण' उवविसाहि' ति संलत्तो । उवविसिऊणं सुहासणत्थेणं भणियं राइणा-भयवं ! किं ते इमस्स महादक्करस्स तवचरणववसायस्स कारणं ? अग्गिसम्मतावसेण भणियं--भो महासत्त ! दारिहदक्खं. परपरिहवो, विरूवया, तहा महारायपुत्तो य गुणसेणो नाम कल्लाणमित्तो ति। तओ संजायनियनामासंकेण भणियं राइणा-भयवं ! चिटठउ ताव दारिदृदक्खाइयं ववसायकारण, अह कहं पुण महारायपुत्तो गुणसेणो नाम कल्लाणमित्तो त्ति । अग्गिसम्मतावसेण भणियं–महासत्त ! एवं कल्लाण महातपस्विनं मुक्त्वा प्रतिपन्ना तव प्रार्थना। राज्ञा भणितम्-भगवन् ! अनुगृहीतोऽस्मि । अथ कुत्र पुनः स महातापसः । प्रेक्षे तं तावत्, करोमि तस्य दर्शनेन आत्मानं विगतपापम् । ___ कुलपतिना भणितम् -वत्स ! एतस्यां सहकारवीथिकायां अधस्ताद् ध्यानवरगतस्तिष्ठति । ततः स राजा ससंभ्रान्तो गतः सहकारवीथिकाम्, दृष्टश्च तेन पद्मासनोपविष्ट:, स्थिरतनयनयुगल:, प्रशान्तविचित्रचित्तव्यापारः, किमपि तथाविधं ध्यानं ध्यायन् अग्निशर्म तापस इति । ततो राज्ञा हर्षवशप्रवर्तमानपुलकेन प्रणतः । तेनाऽपि च आशिषा सबहमानमेव अभिनन्दितः, 'स्वागतं तव' भणित्वा, 'उपविश' इति संलपितः । उपविश्य सुखासनस्थेन भणितं राज्ञा-भगवन् ! किं तव अस्य महादुष्करस्य तपश्चरणव्यवसायस्य कारणम् ? अग्निशर्मतापसेन भणितम्-भो महासत्व ! दारिद्रयदुःखम्, परपरिभवः, विरूपता तथा महाराजपुत्रश्च गुणसेनो नाम कल्याणमित्रम् इति । ततः संजातनिजनामाऽशंकेन भणितं राज्ञा-भगवन् ! तिष्ठत् तावद् दारिद्रयदुःखादिकं व्यवसायकारणं, अथ कथं पुनर्महारा नपुत्रो गुणसेनो नाम कल्याणमित्रम् इति । अग्निशर्म-तापसेन वहाँ पर चाहे भोजन मिले अथवा न मिले, वहीं से लौट आता है, दूसरे घर नहीं जाता है। अत: उस महातपस्वी को छोड़कर आपकी प्रार्थना स्वीकार है।" राजा ने कहा, "भगवन् ! मैं अनुगृहीत हूँ। वह महान् तापस कहाँ हैं ? उन्हें देखूगा, उनके दर्शन से अपने आपको निष्पाप करूँगा।" __कुलपति ने कहा, "वत्स ! इस आम्रवीथी के नीचे उत्कृष्ट ध्यान लगाये बैठा है।" तब वह राजा शीघ्र ही उस आम्रवीथी में गया। उसने पद्मासन लगाये हुए, स्थिर नेत्र युगल धारण किये हए अग्निशर्मा तापस को देखा। उसके चित्त के नाना व्यापार शान्त हो गये थे और वह कुछ-कुछ उसी प्रकार के ध्यान में रत था। तब हर्षवश जिसे रोमांच हो आया है, ऐसे राजा ने उसे प्रणाम किया। उसने भी आशीर्वाद देकर अत्यधिक सत्कार से अभिनन्दन किया। "तुम्हारा स्वागत है" कहकर "बैठो” ऐसा कहा। सुखपूर्वक बैठकर राजा ने कहा, "भगवन् ! आपके इस महा दुष्कर तपश्चरण करने का क्या कारण है ?" अग्निशर्मा तापस ने कहा, "हे महानुभाव ! निर्धनता सम्बन्धी दुःख, दूसरे के द्वारा किया गया तिरस्कार, कुरूपता तथा महाराज के पुत्र गुणसेन जैसा कल्याणमित्र (ये सब इस कार्य के कारण हैं)।" तब अपने नाम के कारण जिसे आशंका हो गयी थी ऐसे राजा ने कहा, "भगवन् ! निर्धनता, दुःखादि भले ही आपके तप करने के कारण रहें, किन्तु महाराज का पुत्र गुणसेन आपका कल्याणकारी मित्र कैसे है ?" अग्निशर्मा तापस ने कहा, "महानुभाव ! वह इस प्रकार कल्याणकारी मित्र है। Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० [समराइच्चकहा मित्तो । सुण जे होंति उत्तमनरा धम्म सयमेव ते पवज्जंति । मज्झिमपयई संचोइया उ न कयाइ वि जहन्ना ॥४८॥ चोएइ य जो धम्मे जीवं विविहेण केणइ नएण। संसारचारयगयं सो नणु कल्लाणमित्तो त्ति ॥४६॥ तओ राइणा कुमारवुत्तंतं सुमरिऊण भणियं लज्जावणयवयणेण-भयवं ! कहं पुण तुमं तेण तेलोक्कबन्धुभूए धम्मे चोइओ? अग्गिसम्मतावसेण भणियं-भो महासत्त ! नानाविहाओ, चोयणाओ ता कहचि निमित्तमेत्तेणं चेव चोइओ म्हि । तओ राइणा चिन्तियं । अहो से महाणुभावया, परिभवोवि' याणेणोवयारचोयण ति गहिओ। परपरिवायं च परिहरंतो सुद्धसहावत्तणओ न तं पिमन्नेइ । अहो ! दारुणं अकज्जं मए पावकम्मेणाणुचिट्ठियं । ता कहेमि से अकज्जायरणकलंकदूसियं अप्पाणं । एवं चितिऊण जंपियणेण-भयवं ! अहं भणितम्-महासत्त्व ! एवं कल्याणमित्रम् । शृण ये भवन्ति उत्तमनरा धर्म स्वयमेव ते प्रपद्यन्ते । मध्यमप्रकृतयः संचोदितास्तु न कदाचिदपि जघन्याः ॥४८॥ चादे यति च यो धर्मे जीवं विविधेन केनचिद् नयेन । संसारचारकगतं स ननु कल्याणमित्रम् इति ॥४६।। ततो राज्ञा कूमारवृत्तान्तं स्मत्वा भणितं लज्जावनतवदनेन-भगवन ! कथं पुनस्त्वं तेन त्रैलोक्यबन्धभते धर्मे चोदितः ? अग्निशर्मतापसेन भणितम्-भो महासत्व ! नानाविधातश्चोदनातः, तस्मात् कथंचिद् निमित्तमात्रेण एव चोदितोऽस्मि । ततो राज्ञा चिन्तितम् । अहो अस्य महानुभावता, परिभवोऽपि चानेन उपकार.चोदनेति गृहीतः । परपरिवादं च परिहरन् शुद्धस्वभावत्वाद् न तमपि मन्यते । अहो ! दारुणमकायं मया पापकर्मणाऽनुष्ठितम् । तस्मात् कथयामि तस्य अकार्याचरणकलङ्कदूषितमात्मानम् । एवं चिन्तयित्वा जल्पित सुनो जो उत्तम मनुष्य होते हैं, वे धर्म को स्वयं प्राप्त होते हैं। मध्यम प्रकृति के मनुष्य प्रेरित किये जाने पर धर्म को प्राप्त होते हैं, किन्तु जघन्य पुरुष कभी भी धर्म को प्राप्त नहीं होते हैं। संसार रूपी कारागार में गये जीव को विविध नयों में से किसी भी नय से जो धर्म के प्रति प्रेरित करता है वह निश्चित रूप से कल्याणकारी मित्र है।" ॥४८-४६।। तब राजा ने कुमारावस्था के वृत्तान्त को याद कर लज्जा से मुख नीचा कर कहा, "भगवन् ! किस प्रकार उसने तीनों लोकों के बन्धुभूत धर्म में प्रेरित किया?" अग्निशर्मा तापस ने कहा, "हे महानुभाव ! नाना प्रकार से प्रेरित किया, अतः किसी निमित्तमात्र से ही प्रेरित किया गया हूँ।" तब राजा ने विचार किया--इसकी महानता आश्चर्य उत्पन्न करने वाली है, कि तिरस्कार को भी इसने उपकार और प्रेरणा के रूप में ग्रहण किया। दूसरे की निन्दा से बचकर शुद्धस्वभाव वाला होने के कारण उसे कुछ भी नहीं मानता है । ओह ! मुझ पापी ने कठोर कार्य किया है। __ अतः उससे अकार्य को करने के कलंक से दूषित अपने आपको कहता हूँ। ऐसा विचारकर उसने कहा, "भगवन् ! मैं वह पाप करने वाला, आपके हृदय को दुःख पहुँचाने वाला अगुणसेन हूँ।" अग्निशर्मा तापस ने १. परिहवे वि, २. गहिया, ३. शुद्वियं । Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढमो भवो] सो महापावकम्मयारी तुह हिययसंतावयारी अगुणसेणो ति । अग्गिसम्मतावसेण भणियं-भ महाराय ! सागयं ते। कहं तुमं अगुणसेणो, जेण तए परपिंडजीवियमेत्तविहवो अहं ईइसि तव विभूइं पाविओ ति । राइणा भणियं-अहो ! ते महाणुभावया । किं वा तवस्सिजणो पियं वज्जिय अन्नं भणिउं जाणइ ? न य' मियंकबिंबाओ अंगारवट्ठीओ पडंति । ता अलं एइणा। भयवं! कया त पारणगं भविस्सइ ? अग्गिसम्मेण भणियं-महार य ! पंचहि दिणेहिं । राइणा भणियंभयवं ! जइ ते नाईव उवरोहो, ता कायव्वो मम गेहे पारणएणं पसाओ। विनाओस भए कुलवइणो सयासाओ तुज्झ पइल्नाविसेसो, अओ अणागयं पत्थेमिति। अग्गिसम्मेण भणियं-महाराय ! आगच्छउ ताव सो दियहो, को जाणइ अंतरे कि पि भविस्सइ । अविव एयं करेमि एण्हिं एयं काऊण पुण इमं कल्लं । काहामि को ण मन्नइ सुविणयतुल्लम्मि जियलोए ॥५०॥ मनेन-भगवन् ! अहं स महापापकर्मकारी तव हृदयसन्तापकारी अगुणसेन इति । अग्निशर्मतापसेन भणितम्-भो महाराज ! स्वागतं तव । कथं त्वमगणसेनः; येन त्वया परपिण्डजीवितमात्रविभवः अहं ईदृशीं तपोविभूति प्रापित इति । राजा भणितम्-अहो ! तव महानुभावता, किं वा तपस्विजनः प्रियं वर्जयित्वा अन्यद् भणितुं जानाति ? न च मगाङ्कबिम्बाद् अङ्गारवृष्टयः पतन्ति । तस्मात् अलमेतेन। भगवन् ! कदा तव पारणकं भविष्यति ? अग्निशर्मणा भणितम्-महाराज ! पञ्चभिदिनैः । राज्ञा भणितम्-भगवन् ! यदि तव नातीव उपरोधः, तस्तात् कर्तव्यो मम गेहे पारणकेन प्रसादः । विज्ञातश्च मया कुलपतेः सकाशात् तव प्रतिज्ञाविशेषः, अतोऽनागतं प्रार्थयामीति। अग्निशर्मणा भणितम्-महाराज ! आगच्छतु तावत् स दिवसः, को जानाति अन्तरे किमपि भविष्यति । अपि च एतत् करोमि, इदानीं एतत् कृत्वा पुनरिदं कल्यम् । करिष्यामि को नु मन्यते स्वप्नकतुल्ये जीवलोके ॥५०॥ कहा, "हे महाराज ! तुम्हारा स्वागत है। आप अगुणसेन कैसे हैं जिसने कि दूसरे के द्वारा दिये गये आहार पर जीवन-यापन करनेवाले मुझको इस प्रकार की तपोमयी विभूति प्राप्त करा दी?" राजा ने कहा, "आपकी महानता आश्चर्य उत्पन्न करने वाली है । क्या तपस्विजन प्रिय को छोड़कर दूसरा कथन करना जानते हैं ? चन्द्रमा के बिम्ब से अंगार की वृष्टि नहीं होती है। अच्छा, भगवन् ! आपका व्रतान्त भोजन कब होगा ?" अग्निशर्मा ने कहा, "महाराज ! पांचवें दिन।" राजा ने कहा, "भगवन् ! यदि कोई अत्यधिक रुकावट न हो तो मेरे घर पारणा (भोजन) करने की कृपा करें। मुझे कुलपति से आपकी प्रतिज्ञा के विषय में जानकारी मिली अत: आगे के लिए प्रार्थना करता हूँ। अग्निशर्मा ने कहा, “महाराज ! वह दिन आने दीजिए, कौन जानता है, बीच में क्या होगा? कहा भी है 'यह मैं इस समय करता हूँ, इसे करके पुनः यह कल करूँगा' स्वप्नवत् संसार में ऐसा कौन मानता है ? ॥५०॥ १. न हि। Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ [ समराइच्चकहा अन्नं च महाराय ! ___धी जियलोयसहावो जहियं नेहाणुरायकलिया वि। जे पुग्वण्हे दिट्ठा, ते अवरण्हे न दीसन्ति ॥५१॥ ता महाराय ! आगच्छउ ताव सो दियहो ति। राइणा भणियं - भयवं ! विग्धं मोतूण संगच्छह । अग्गिसम्मतावसेण भणियं---जइ एवं ते निब्बंधो ता एवं पडिवन्ना ते पेत्थणा । तओ राया पणमिऊणं हरिसवसपलइयंगो कंचि वेलं गमेऊण पविट्ठो नयरं। कया कुलवइणो सपरिवारस्स भत्तिविभवाणुरूवा पूया। अइक्कन्तेसु य पंचसु दिणेषु पारणगदिवसे पढमं चेव पविट्ठो अग्गिसम्मतावसो पारणगनिमितं रायगेहं ति । तन्मिय दियहे कहंचि राइणो गुणसेणस्त अतीव सोसवेयणा समप्पन्ना। तओ आउलीहूयं सव्वं चेव रायउलं। पविट्ठा य तत्थ वेज्जसत्थवितारया वेज्जा, उग्गाहति नाणाविहाओ चिगिच्छासंहियाी पीसिज्जति बहुविहाई ओसहाई, दिज्जति सिरोखेयावहारिणो' विचित्तरयणलेवा। किंकायव्वमूढा उवहसियसुक्कविहस्सइबुद्धिविहवा वि मंतिणो। अन्यच्च महाराज ! धिक् जीवलोकस्वभावं यत्र स्नेहानुराग कलिता अपि । ये पूर्वाह्न दृष्टाः तेऽपराह्न न दृश्यन्ते ॥५१॥ तस्मात् महाराज ! आगच्छतु तावद् स दिवस इति । राज्ञा भणितम्। विघ्नं मुक्त्वा संगच्छन्ताम् । अग्निशर्मतापसेन भणितम्--यदि एवं तव निर्बन्धः, तस्माद् एवं प्रतिपन्ना तव प्रार्थना । ततो राजा प्रणम्य हर्षवशपुलकितानः कांचिद् वेलां गमयित्वा प्रविष्टो नगरम् । कृता कुलपतेः सपरिवारस्य भक्तिविभवानुरूपा पूजा । अतिक्रान्तेषु च पञ्चसु दिनेषु पारणकदिवसे प्रथममेवप्रविष्टोऽग्निशर्मतापसः पारणकनिमित्तं राजगेहमिति । तस्मिश्च दिवसे कथंचिद् राज्ञो गुणसेनस्य अतीव शीर्षवेदना समुत्पन्ना । तत आकुलीभूतं सर्वमेव राजकुलम् । प्रविष्टा च तत्र वैद्यशास्त्रविशारदा वैद्याः, उग्राहयन्ति नानाविधाः चिकित्सासंहिताः, पिष्यन्ते बहुविधानि औषधानि, दीयन्ते शिरः खेदापहारिणो विचित्ररत्नलेपाः । किंकर्तव्यमूढा उपहसितशुक्रबृहस्पति और फिर महाराज ! संसार के स्वभाव को धिक्कार है कि जिसमें स्नेह और अनुराग से युक्त प्राणी भी, जो सुबह दिखाई देते हैं सायंकाल दिखाई नहीं देते हैं ॥५१॥ अतः महाराज ! वह दिवस आने दो।" राजा ने कहा, "विघ्न को छोड़कर (सामान्य स्थिति में) आइए।" अग्निशर्मा तापस ने कहा, “यदि आपका यह आग्रह है तो इस प्रकार आपकी प्रार्थना स्वीकार है।" तब राजा ने प्रणाम कर कुछ समय वहीं बिताकर हर्ष से पुलकित अंग होते हुए नगर में प्रवेश किया। भक्ति और वैभव के अनुरूप सपरिवार कुलपति की पूजा की। पाँच दिन बीत जाने पर आहार के दिन प्रथम ही अग्निशर्मा तापस पारणा (व्रतान्त आहार) के लिए राजमहल में प्रविष्ट हुआ। उसी दिन राजा गुणसेन के कोई अत्यन्त शिरोवेदना उत्पन्न हुई । उससे सारा राजपरिवार आकुल हो गया। वैद्यकशास्त्र में निपुण वैद्य वहाँ पर प्रविष्ट हुए, अनेक प्रकार की चिकित्सा संहिताओं को खोला गया, बहुत प्रकार की औषधियाँ पीसी गयीं, शिर की थकावट दूर करनेवाले विचित्र रत्नों के लेप दिये गये (किये गये)। शुक्र तथा बृहस्पति के बुद्धि-वैभव को भी तिरस्कृत करनेवाले मन्त्री किंकर्तव्यविमूढ़ हो गये । पुरोहितों ने मन्त्रयुक्त आहुतियाँ देकर शान्तिकर्म प्रस्तुत किया। १. सिरो। Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढमो भयो। पत्थुयं पुरोहिएहि मंतगभिणाहुइप्पयाणसारं संतिकम्म । ___ तहा मिलाणसुरहिमल्लदामसोहं, सुवण्णगड्ढ'-वियलियंगरायं बाहजलधोयकवोलपत्तलेह, करयलपणामियपवायवयणपंकयं, उदिवगमतेउरं। तहा विरत्तकंदुयकोलं, परिचत्तचित्तयम्मवावारं, विरयगीयणच्चरणारम्भं, अवहत्थियभूसणकलावं दुम्मणविमणकन्नयंतेउरं । वेत्तजट्टिनिमियविच्छायमुहसोहा व पडिहारा, रन्नो वेषणाइसयसूयगा दुम्मणा मडहकंचुइया, परिचत्तनिययवावारा विचित्ता सूयगारप्पमुहा निओगकारिणो त्ति । तओ सो अग्गिसम्मतावसो एवंविहे रायकुले कंचि वेलं गमेऊण वयणमेतेणवि केवि अकयपडिवत्तो निग्गओ रायगेहाओ त्ति निग्गंतूण गओ तवोवणं, दिट्ठो य तावसेहि, भणिओ य तेहिं -भयवं ! अकयधारणगो विव परिमिलाणदेहो लक्खिज्जसि, ता किं न कयं पारणयं ? न पविट्ठो इआणि तत्थ रन्नो गुणसेणस्स गेहं ? ति । अग्गिसम्मतावसेव भणियं-पविट्ठो अहं नरिंदगेहं, किं तु सो नूणं अपड्डसरीरो राया, जो बुद्धिविभवा अपि मन्त्रिणः । प्रस्तुतं पुरोहितैः मन्त्रभिताऽऽहुतिप्रदानसारं शान्तिकर्म । तथा म्लानसुरभिमाल्यदामशोभम्, सुवर्णकाट्यविचलिताङ्गरागम्, वाष्पजलधौतकपोलपत्रलेखम, करतलप्रणामितम्लानवदनपङ्कजम्, उद्विग्नम् अन्तःपुरम् । तथा विरक्तकन्दुकक्रीडम्, परित्यक्तचित्रकर्मव्यापारम, विरतगीतनर्तनाऽऽरम्भम, अपहस्तितभूषणकलापम, दुर्मनोविमनः कन्यान्तःपुरम् । वेत्रयष्टिस्थापित, विच्छायमुख शोभाश्च प्रतीहाराः, राज्ञो वेदनातिशयसूचकाः दुर्मनसो लघकञ्चुकिनः, परित्यक्तनिजकव्यापारा: विचित्रा: सूपकारप्रमुखा नियोगकारिण इति । ततः सोऽग्निशमंतापस एवंविधे राजकुलं कांचिद् वेलां गमयित्वा वचनमात्रेणाऽपि केनापि अकृतप्रतिपत्तिनिर्गतो राजगेहादिति । निर्गत्य गतस्तपोवनम्, दृष्टश्च तापसैः, भणितश्च तैः-भगवन् ! अकृतपारणक इव परिम्लानदेहो लक्ष्यसे, तस्मात् कि न कृतं पारणकम् ? न प्रविष्ट इदानीं तत्र राज्ञो गुणसेनस्य गेहम् ? इति । अग्निशर्मतापसेन भणितम्-प्रविष्टोऽहं नरेन्द्रगेहम्, किन्तु स नूनम् अपडुशरीरो राजा, यत अन्तःपुर उद्विग्न हो गया । सुगन्धित माला की शोभा म्लान पड़ गयी, स्वर्णमय सुगन्धित उबटन विचलित हो गया। गालों की पत्ररचना न गयी, कुम्हलाये हुए मुखकमल से हथेलियाँ सटाकर प्रणाम किया जाने लगा। उसी तरह कन्याओं का अन्तःपुर दुखी और बेमन हो गया, गेंद खेलना बन्द कर दिया गया, चित्र-लेखन का कार्य छोड़ दिया गया, गाने और नाचने का कार्य रोक दिया गया, आभूषणों के समूह को हाथों से उतार डाला। द्वारपाल बेंत की छड़ी पर झके हुए कान्ति रहित मुख की शोभा वाले हो गये । राजा की वेदनाधिक्य की सूचना देनेवाले लघु कंचुकी दुःखी हो गये । रसोई आदि का प्रमुख कार्य करनेवाले व्यक्तियों (भृत्यों अथवा कर्मचारियों) ने अपने-अपने नाना प्रकार के कार्यों को छोड़ दिया । वह अग्निशर्मा तापस उस प्रकार के राजभवन में कुछ समय बिताकर वहाँ से निकल गया। किसी ने वचन मात्र से भी उसकी अगवानी नहीं की। निकलकर तपोवन में गया, तापसों ने उसे देखा। उन्होंने कहा, "भगवन ! बिना व्रतान्त भोजन किये के समान म्लान शरीर वाले दिखलाई दे रहो हो ! क्या आपने आहार नहीं किया ? क्या आप राजा गुणसेन के भवन में आहार के लिए प्रविष्ट नहीं हुए ?" अग्निशर्मा तापस ने कहा, "मैं राजा के घर में प्रविष्ट हुआ था किन्तु राजा की तबियत अच्छी नहीं थी; क्योंकि उस घर के सभी परिजन मुझे उद्विग्न दिखाई दिये । उस प्रकार की स्थिति को देखने में असमर्थ हुआ मैं १. गंधड्ढ सुवण्णगाड, २. जेट्टि । Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ समराइच्चकहा उब्विग्गपरियणं सव्वं चैव तं मए गेहमवलोइयं, तओ अहं तं तहाविहं दट्ठमसंहतो लहुं चैव निग्गओ त्ति । तावसेहि भणियं को संदेहो, दढमपडुसरीरो राया, अन्नहा कहं तारिसीए तवस्सिजणभतीए भयवओ पारणगं मुणेऊण सयं चेव दत्तावहाणो न होइ ? अन्नं च - अईव भगवओ उवरि भत्तिबहुमाणो तस्स नरवइस्स, जेण कुलवइसमक्खं बहुयं सम्भूयगुणकित्तणं तेण कथं आसि । अग्गिसम्मतावसेण भणियं - आरोग्गं से हवउ गुरुयणभूयगस्स, किं मम आहारेणं ति । पडिवन्नो मासोववासवयं । २४ इओ य राइणा गुणसेणेणं उवसंतसीसवेयणेणं पुच्छिओ परियणो । अज्ज तस्स महातबस्सिस्स पारणदियहो, तो सो आगओ, पूइओ वा केणइ न वत्ति ? तेहि संलत्तं - महाराय ! आगओ आसि, किं तु तुह सीसवेयणाजणि' - अहिययसंतावपरिचत्तनिययकज्जवावारे परियणे न hes संपूइओ पुच्छिओ वा । अमुणियवत्ततो य विचित्तं ते परियणमवलोइऊण कंचि कालं गमेऊण उग्गो aिय निग्गओ रायगेहाओ त्ति । राइणा भणियं - अहो ! मे अहम्नया ; चुक्कोमि महालाभस्स, संपत्तो य तवस्सिजणदेहपीडाकरणेण महंतं अणत्थ त्ति । उद्विग्नपरिजनं सर्वमेव तद्मया गेहमवलोकितम्, ततोऽहं तत् तथाविधं द्रष्टुमसहमान: लघ्वेब निर्गत इति । तापसैर्भणितम् - कः सन्देहः, दृढम् अपटुशरीरो राजा, अन्यथा कथं तादृश्यां तपस्विजनभक्त्यां भगवताः पारणकं ज्ञात्वा स्वयमेव दत्तावधानो न भवति ? अन्यच्च - अतीव भगवत उपरि भक्तबहुमान: तस्य नरपते:, येन कुलपतिसमक्षं बहुकं सद्भूतगुणकीर्तनं तेन कृतमासीत् । अग्निशर्मतापसेन भणितम् - आरोग्यं तस्य भवतु गुरुजनपूजकस्य किं मम आहारेण इति प्रतिपन्नो मासोपवासव्रतम् । इतश्च राज्ञा गुणसेनेन उपशान्तशीर्षवेदनेन पृष्टः परिजनः । अद्य तस्य महातपस्विनः पारणकदिवस:, ततः स आगतः पूजितो वा केनचिद् न वा ? इति । तैः संलपितम् - महाराज ! आगत आसीत्, किन्तु तव शीर्ष वेदनाजनित हृदय सन्तापपरित्यक्तनिजककार्यव्यापारे परिजने न केनापि सम्पूजितः, पृष्टो वा । अज्ञात वृत्तान्तश्च विचित्रं तव परिजनमवलोक्य कंचित् कालं गमयित्वा उद्विग्न इव निर्गतो राजगेहादिति । राज्ञा भणितम् - अहो ! मम अधन्यता, भ्रष्टोऽस्मि महालाभात् । सम्प्राप्तश्च तपस्विजनदेहपीडाकरणेन महान्तमनर्थमिति । शीघ्र ही निकल आया ।" तापसों ने कहा, "इसमें क्या सन्देह है। निश्चित रूप से राजा की तबियत ठीक नहीं थी, नहीं तो उस प्रकार तपस्वीजनों के प्रति भक्ति रखने वाला राजा कैसे आहार का दिन जानता हुआ भी ध्यान न देता ? दूसरी बात यह है कि भगवान् पर राजा की अतीव भक्ति है; क्योंकि कुलपति के सामने उसने बहुत से विद्यमान गुणों का कीर्तन किया था ।" अग्निशर्मा तापस ने कहा, "गुरुजनों की उपासना करनेवाले उस राजा का आरोग्य हो । मुझे आहार से क्या ?" ऐसा कहकर एक मास के उपवास का व्रत पालन करने लगा । इधर राजा गुणसेन ने सिरदर्द ठीक हो जाने के बाद सेवकों से पूछा, "आज उस महान् तपस्वी के आहार करने का दिन था, अतः वह आये होंगे, किसी ने उनकी पूजा की अथवा नहीं ?” उन्होंने कहा, "महाराज ! आये तो थे, किन्तु आपकी शिरोवेदना से उत्पन्न हार्दिक दुःख के कारण अपने-अपने कार्यों को छोड़ देनेवाले सेवकों ने न तो उनकी पूजा की और न पूछा । हालचाल न जानने के कारण तथा आपके सेवकों को विचित्र जानकर कुछ समय बिताकर वह उद्विग्न हुए के समान राजमहल से निकल गये ।” राजा ने कहा, "अरे, मैं अधन्य हूँ जो कि महालाभ से च्युत हो गया, तपस्विजनों के शरीर को पीड़ा पहुँचाने के कारण मैंने बहुत बड़ा अनर्थ किया ।" १. जणिय । २. महालास्स | Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढनो भवो ] एवं विलविऊणं बिइयदियहे पहायसमए चेव गओ तवोवणं । दिट्ठा य तेण कुलवइप्पमुहा बहवे तावसा, लज्जाविणओणयउत्तिमंगेण पणमिया य णेणं विहिणा । अहिणंदिओ य आसीसाए कुलवइप्पमुहेहिं सव्वतावसेहि । 'उवविससु महाराय ! सागयं ते' भणिओ य कुलवणा । त राया अवणयउत्तिमंगो, सविसेसलज्जामंथरो, विमुक्कदोहनीसास उवविट्ठो कुलवइस्स पुरओ । तं च तहा विचित्तं रायाणं दट्ठूणं भणियमणेणं-वच्छ ! उब्विग्गो विथ लक्खीयसि, ता कहेहि मे उadeकारणं जइ अकहणीयं न होइ । राइणा भणियं-अत्थि भगवओ वि नाम अकहणीयं । अन्नं च अकहणी वत्युविसउव्विग्गस्स न जुत्तं तवोवणागमणं । कुलवणा भणियं साहु वच्छ ! साहु, उचिओ ते विवेगो, ता कि उव्वेयकारणं ति ? राइणा भणियं - भगवओ आण त्ति करिय कहीयइ; अन्नहा कहं ईइसं निसंपचरियं कहिउ पारीयइ । कुलवइणा भणियं -वच्छ ! सव्वस्स जणणीभूओ खु होइ तबस्सिअणो । तओ का तं पइ लज्जत्ति | ता कहेउ भवं, जेण मुणियवत्ततो भविय केणइ उवाएणऽवणेमि तं उव्वेयं ति । राइणा भणियं - एवं विलप्य द्वितीयदिवसे प्रभातसमये एव गतस्तपोवनम् । दृष्टश्च तेन कुलपतिप्रमुखा बहवः तापसाः, लज्जा विनयावनतोत्तमाङ्ग ेन प्रणताश्चानेन विधिना । अभिनन्दितश्च आशिषा कुलपतिप्रमुखैः सर्वतापसैः । 'उपविश महाराज ! स्वागतं तव' भणितश्च कुलपतिना । ततो राजा अवनतोत्तमाङ्ग सविशेपलज्जा मन्थरः, विमुक्त दीर्घनिः श्वासम् - उपविष्टः कुलपतेः पुरतः । तं च तथा विचित्रं राजानं दृष्ट्वा भणितमनेन - वत्स ! उद्विग्न इव लक्ष्यसे, ततः कथय मम उद्वेगकारणं यदि अकथनीयं न भवति । राज्ञा भणितम् - अस्ति भगवतोऽपि नाम अकथनीयम् ? अन्यच्च - अकथनीयवस्तुविषयोद्विग्नस्य न युक्तं तपोवनागमनम् । कुलपतिना भणितम् - साधु वत्स ! साधु, उचितस्ते विवेकः, ततः किम् — उद्वेगकारणम् ? इति । राजा भणितम् - भगवत आज्ञा इति कृत्वा कथ्यते, अन्यथा कथम् - ईदृशं नृशंसचरितं कथयितुं पार्यते ? कुलपतिना भणितम्-वत्स ! सर्वस्य जननीभूतः खलु भवति तपस्विजनः । ततः का तं प्रति लज्जा इति । तस्मात् कथयतु भवान् येन ज्ञातवृत्तान्तो भूत्वा केनचिद् उपायेन अपनयामि तम् उद्वेगमिति । राज्ञा भणितम् - भगवन् ! यद्येवम्, ततः शृणु । एषोऽग्निशर्मतापसः ऐसा विलापकर दूसरे दिन प्रातः काल ही वह तपोवन को गया । उसने कुलपति जिसमें प्रमुख थे, ऐसे बहुत से तापसों को देखा । लज्जा और विनय के कारण सिर झुकाकर उसने विधिपूर्वक प्रणाम किया। कुलपति आदि सभी तापसों ने आशीर्वाद देकर उसका अभिनन्दन किया । " महाराज बैठिए, आपका स्वागत है," ऐसा कुलपति ने कहा । तब राजा कुलपति के सामने बैठ गया । उसका सिर झुका हुआ था, विशेष लज्जा के कारण वह मन्थर था तथा लम्बे-लम्बे श्वास छोड़ रहा था । उस प्रकार की विचित्र स्थिति में राजा को देखकर इन्होंने कहा, "वत्स ! उद्विग्न मालूम पड़ते हो, अतः उद्विग्नता का कारण कहो, यदि अकथनीय न हो । " राजा ने कहा, "भगवान् के लिए कौन-सी बात कहने योग्य नहीं है ? दूसरी बात यह है कि अकथनीय वस्तु से उद्विग्न व्यक्तियों का तपोवन में आना उचित नहीं है । " कुलपति ने कहा, "ठीक है वत्स, ठीक है । तुम्हारा विवेक कारण क्या है ?" राजा ने कहा, "चूंकि भगवान की आज्ञा है, प्रकार का नृशंस (दुष्ट) आचरण मैं कैसे के लिए माता के समान होते हैं । २५ अतः कह सकता था ।" कुलपति ने कहा, अतः उनके प्रति लज्जा की क्या उचित है, अतः उद्वेग का हूँ, अन्यथा इस तपस्विजन सभी अतः आप कहें कहता " वत्स ! बात है ? Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ [ समराइच्चकहा भयवं ! जइ एवं ता सुणसु । एस अग्गिसम्मतावसो पढमं चेव मम मंदपुष्णस्स, असमिक्खिभयकारणो, असरिसजणसरिसायरणनिरयस्स संबंधिणा निव्वेएण तावसो संवृत्तो । एयस्स पवन्नुत्तमवयस्स वि तं म असरिसजणायरणं न परिचत्तं ति दढमुव्विग्गो म्हि । कुलवइणा भणियं वच्छ ! जइ एवं, ता अलं संतप्पिएणं, किं कारणं । जइ तुह संबंधिणा कारणेण तावसो संवृत्तो, ता तुमं चेव इमस्स धम्मपवत्तगो कल्ला मित्तो त्ति ; किमुव्विग्गो सि ? न यावि एहिं तुह परलोय भीरुणो, अहिगयधम्मसत्थस्स किंपि असज्जणायरणं संभावेमि । किं वा से कयमियाणि निवेएहि मे । राइणा भणियं - भयवं ! इयाणिं ताव एवं उयणिमंतिऊण मासपारणयपविटुस्स सोसवेयणाभिभूएण पमायओ अणिउत्तपरियणेणं आहारंतरायकरणेणं कथं से धम्मन्तरायं ति । कुलवणा भणियं वच्छ ! जं किंचि एयं, न तुमं एत्थ अवरज्झसि । न तिव्ववेयणाभिभूया पुरिसा कज्जमक्कज्जं वा वियाणंति । न य तस्स आहारंत रायकरणेणं धम्मन्तरायं हवइ, अवि य तवसंपया । ता अलमुवेगेणं ति । राइणा भणियं - भयवं ! जाव तेण महाणुभावेण सम गेहे आहारगहणं न प्रथममेव मम मन्दपुण्यस्य, असमीक्षितकारिण: असदृशजनसदृशाचरणनिरतस्म्बन्ध तापसः संवृत्तः । एतस्य प्रपन्नोत्तमव्रतस्याऽपि तद् मया असदृशजनाचरणं न परित्यक्तमिति दृढम् उद्विग्नोऽस्मि । कुलपतिना भणितम् - वत्स ! यद्येवम्, ततोऽलं सन्तप्तेन, किं कारणं । यदि तव सम्बन्धिना कारन तापसः संवृत्तः ततस्त्वमेव अस्य धर्मप्रवर्तकः कल्याणमित्रम् - इति किम् उद्विग्नोऽसि ? न चाऽपि इदानीं तव परलोक भीरोः, अधिगतधर्मशास्त्रस्य किमपि असज्जनाचरणं संभावयामि । किं वा तत् कृतमिदानीं निवेदय मे । I राज्ञा भणितम् - भगवन् । इदानीं तावद् एतम् उपनिमन्त्र्य मासपारणक- प्रविष्टस्य शीर्षवेदनाभिभूतेन प्रमादतोऽनियुक्तपरिजनेन आहारान्तरायकरणेन कृतस्तस्य धर्मान्तराय इति । पति भणितम् - वत्स ! यत् किंचिद् एतत् न त्वं अत्र अपराध्यसि । न तीव्रवेदनाभिभूताः पुरुषाः कार्यमकार्य वा विजानन्ति । न च तस्य आहारान्तरायकरणेन धर्मान्तरायो भवति, अपि च तपः संपदा । ततोऽलम् उद्वेगेनेति । राज्ञा भणितम् - भगवन् ! यावत् तेन महानुभावेन मम गेहे जिससे कि वृत्तान्त को जानकर किसी उपाय से उस उद्वेग को दूर कर सकें।" राजा ने कहा, “भगवन् ! यदि ऐसा है तो सुनो ! यह अग्निशर्मा तापस पहले हो मन्द पुण्यवाले, बिना विचारे कार्य करनेवाले, प्रतिकूल व्यक्ति के समान आचरण करनेवाले मुझसे विरक्त होकर तापस हो गये । इनके उत्तम व्रत को प्राप्त हो जाने पर भी मैंने प्रतिकूल व्यक्तियों के समान आचरण का परित्याग नहीं किया, अतः उद्विग्न हूँ।” कुलपति ने कहा, “वत्स ! यदि ऐसा है तो दुःखी मत होओ, दुःखी होने का कारण ही क्या है | यदि आपके सम्बन्ध के कारण यह तापसी हुए तो आप इनके धर्मप्रवर्तक तथा कल्याणकारी मित्र हो, अतः उद्विग्न क्यों होते हो ? इस समय परलोक से डरने वाले एवं समस्त धर्मशास्त्रों के वेत्ता आपसे मुझे दुष्टजनोचित आचरण की सम्भावना नहीं है । अतः इस समय क्या किया जाय, यह मुझसे निवेदन करो। " राजा ने कहा, "भगवन्, उनका निमन्त्रण कर, मास भर बाद आहार के लिए प्रविष्ट होने पर शिरोवेदना से अभिभूत हो प्रमाद के कारण सेवकों की नियुक्ति न कर पाने से, उनके आहार में अन्तराय करने के कारण इस समय मैंने उनके धर्माचरण में विघ्न डाला ।" कुलपति ने कहा, "वत्स ! इसमें कोई बात नहीं, यहाँ पर तुम्हारा अपराध नहीं है; क्योंकि वेदना से अभिभूत पुरुष कार्य अथवा अकार्य को नहीं जान पाते हैं । आहार में अन्तराय करने से धर्म में अन्तराय नहीं होता है, अपितु तप रूप सम्पत्ति की प्राप्ति होती है । अतः उद्विग्न न ह्नों।" राजा ने कहा, "भगवन् ! जब तक वे महानुभाव मेरे घर पर आहार नहीं लेते हैं तब तक उद्वेग कैसे Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढमो भवो] कयं, ताव कहमुवेओ अवेइ ? कुलवइणा भणियं-वच्छ ! इयाणिं से अविग्घेण जं पारणगं भविस्सइ, तहि ते गेहे आहारगहणं करिस्सइ त्ति । तओ कुलवइणा सद्दाविओ अग्गिसम्मतावसो। सबहुमाणं हत्थे गिहिऊण भणिओ य जेणवच्छ ! जं तुमं अकयपारणगो निग्गओ नरिंदगेहाओ, एएणं दढं संतप्पइ राया। कल्लं च एयस्स अई। सीसवेयणा आसि, अओ वेयणापरवेसेण न तुमं पडियग्घिओं' त्ति ; न एस अवरज्झइ । भणियं च ण 'जाव मम गेहे अग्गिसम्मतावसेण आहारगहणं न कयं, न ताव मे उन्वेओ अवेई' अओ इण्हि संपत्तपारणगकालेण भवया अविग्घेण मम क्यणाओ नरिंदबहुमाणओ य एयस्स गेहे पारणगं करियव्वं ति। अग्गिसम्मतावसेण भणियं-भयवं ! जंतुन्भे आणवेह । अकारणे संतप्पइ राया, जओ न किंचि मे परलोयविरुद्धमणुचिट्टियमणेणं । तो राया 'अहो ! से महाणुभावय' त्ति कलिऊण पण मिऊण तवस्सिजणं च कंचि वेलं पज्जुवासिय पविट्ठो नयरं। पुणो य कालक्कमेण राइणो विसयसुहमणुहवंतस्स अग्गिसम्मस्स य दुक्करं तवचरणविहिं करेन्तस्स समइक्कतो मासो त्ति। एत्थन्तरम्मि य संपत्ते पारणगदिवसे निवेइयं से रन्नो विक्खेवाआहारग्रहणं न कृतम् तावत् कथमुद्वेगोऽपैति ? कुलपतिना भणितम् -वत्स ! इदनीं तस्य अविघ्नेन यत् पारणकं भविष्यति, तदा तव गहे आहारग्रहणं करिष्यतीति। ततः कुलपतिना शब्दायित: अग्निशर्मतापसः । सबहुमानं हस्ते गृहीत्वा भणितश्चानेनवत्स ! यत् त्वं अकृतपारणको निर्गतो राजगेहात्, एतेन दृढं संतप्यते राजा । कल्यं चैतस्य अतीव शोषवेदना आसीत् अतो वेदनापरवशेन न त्वं प्रत्यर्षित इति नैषोपराध्यति । भणितं चानेन यावद मम गेहे अग्निशर्मतापसेन आहारग्रहणं न कृतं, न तावद् मम उद्वेगोऽपैति' । अत इदानीं सम्प्राप्तपारणककालेन भवताऽविघ्नेन मम वचनाद् नरेन्द्र बहुमानतश्च एतस्य गेहे पारणकं कर्तव्यमिति । अग्निशर्मतापसेन भणितम्-भगवन् ! यत् यूयम् आज्ञापयत । अकारणे सन्तप्यते राजा; यतो न किंचिद् मम परलोकविरुद्धमनुष्ठितमनेन । ततो राजा 'अहो ! तस्य महानुभावता' इति कलयित्वा प्रणम्य तपस्विजनं न कांचिद् वेलां पर्युपास्य प्रविष्टो नगरम् । पुनश्च कालक्रमेण राज्ञो विषयसुखमनुभवतः अग्निशर्मणश्च दुष्करं तपश्चरणविधि कर्वतः समतिक्रान्तो मास इति । अत्रान्तरे च सम्प्राप्ते पारणकदिवसे निवेदितं तस्य राज्ञो विक्षेपागनिजकदूर हो सकता है ?" कुलपति ने कहा, "वत्स ! अब उनका जो निर्विघ्न आहार करने का समय आयेगा उसमें वह आपके घर आहार ग्रहण करेंगे।" तब कुलपति ने अग्निशर्मा तापस को बुलाया । सम्मान सहित हाथ पकड़कर उनसे कहा, "वत्स ! जो. कि तुम बिना आहार लिये ही राजगृह से निकल आये, इससे राजा बहुत दु:खी हैं। कल इनके सिर में भयंकर पीड़ा थी, अतः वेदना के वशीभूत होने के कारण तुम्हें अर्घ्य नहीं दे सके, इसमें इनका अपराध नहीं है । इन्होंने कहा है कि जब तक अग्निशर्मा तापस मेरे घर आहार ग्रहण नहीं करते हैं तब तक मेरा उद्वेग नहीं मिटेगा। अत: आगामी आहार के दिन आप मेरे कथनानुसार विविघ्न रूप से राजा के द्वारा सम्मानित होकर इन्हीं के घर आहार करें ?" अग्निशर्मा तापस ने कहा, "भगवन् ! जैसी आपकी आज्ञा । राजा अकारण दुःखी हो रहे हैं । मेरे रोक के वित इन्होंने कल भी आचरण नहीं किया।" तब राजा. 'अग्निशर्मा की महानता आश्चर्यकारक है, ऐसा मानकर प्रणाम कर कुछ समय तक तपस्विजनों की उपासना कर नगर में प्रविष्ट हआ। पुनः कालक्रम से विषय-सुख अनुभव करते हुए राजा का तथा दुष्कर तपस्याविधि करते हुए अग्निशर्मा तापस का एक मास व्यतीत हो गया। इसी बीच आहार का दिन आने पर, उस राजा के पास घबड़ाये हुए कुछ १. पडियग्गिओ, २. निवेदियं । Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ [ समराइच्चकहा एहि निययपुरिसेहि । जहा -- महाराय ! अइविसमपरक्कम गव्वियं, विसमदोणी म्हप्पविट्ठ, अकयपरिरक्खणोवायं अप्पमत्तेण माणहंगनरवणा, इहरहा विसयविणासमवलोइ ऊग, वीरचरियमवलम्बिय, वीसत्यत्तेसु नरिंदपाइक्केसु, जाए अड्ढरत्तसमए, अत्थमिए रयणबहुपिययमे तेलोक्कमंगलपईवे मयंके सयलबलसहिएणमवक्खन्दं दाऊण अइपमत्तं ते विणिज्जियं सेन्नं । संपइ देवो पमाणं ति । तओ राइणा एवं सुदूसहं वयणमायण्णिऊण कोवाणलज लियरत्तलोयणेणं, विसमफुरियाहरेणं, निद्दयकराभिहयधरणिवट्ठेणं अमरिसवसपरिक्खलंतवयणेणं समाणत्तो परियणो । जहा - देह तुरियं पयाणपयडहं । सज्जेह दुज्जयं करिबलं, पल्लाणेह दप्पुदधुरं आससाहणं, संजत्तेह धयमालो वसोहियं संदणनिवहं, पयट्टावेह नाणापहरणसालिणं पाइक्कसेन्नं ति । तओ नरवइसमाएसाणन्तरमेवायण्णिऊण पयाणयपडहसद्द, करिवरविरायंत मेहजालं, ऊसियधयचमरछत्तसंघायबलायपरिययं, निसियकर वालकोन्तसोयाम जिसणाहं, संखकाहलतूरनिग्घोसग ज्जियरवपूरियदिसं, अयालदुद्दिणं पिव समन्तओ वियभियं नारदसाहणं ति । एत्थन्तरम्मिय रहवरारूढे पुरुषैः । यथा -- महाराज ! अतिविषमपराक्रमगर्वितम्, विषमद्रोणीमुखप्रविष्टम्, अकृतपरिरक्षणोपायम् - अप्रमत्तेन मानभङ्गनरपतिना इतरथा विषयविनाशमवलोक्य, वीरचरितमवलम्ब्य विश्वस्तसुप्तेषु नरेन्द्रपदातिषु याते अर्धरात्रसमये अस्तमिते रजनी वधूप्रियतमे त्रैलोक्य मङ्गल दीपे मृगाङ्क सकलबलसहितेन अवस्कन्दं दत्त्वा अतिप्रमत्तं तव विनिर्जितं सैन्यम् । सम्प्रति देवः प्रमाणमिति । ततो राज्ञा एतत् सुदुःसहं वचनमाकर्ण्य कोपानलज्वलित रक्तलोचनेन विषमस्फुरिताधरेण निर्दयकराभिहतधरणीपृष्ठेन, अमर्षवश परिस्खलद्वचनेन समाज्ञप्तः परिजनः । यथा - दत्त त्वरितं प्रयाणकपटहम्, सज्जयत दुर्जयं करिबलम्, पर्याणयत दर्पोद्धरं अश्वसाधनम्, संयात्रयत ध्वजमालोपशोभितं स्यन्दननिवहम् प्रवर्तयत नामप्रहरणशालि पदातिसैन्यमिति । ततो नरपतिसभादेशानन्तरमेव आकर्ण्य प्रयाणकपटहशब्दम् करिवरविराज मेघजालम्, उच्छ्रित- ध्वज चामर - छत्र संघात - बलाकापरिगतम्, निशित करवाल - कुन्त-सौदामिनि सनाथम्, शङ्ख-काहल तूर - निर्घोष गर्जित रवपूरितदिशम्, अकालदुर्दिनमिव समन्ततो विजृम्भितं नरेन्द्रसाधनमिति । अत्रान्तरे च रथवरारूढे नरेन्द्रगुणसेने स्थापिते पुरतः सलिलपूर्णे कनककलशे, प्रहते मनुष्यों ने आकर निवेदन किया, "महाराज ! अत्यन्त भयंकर पराक्रम से गर्वित, अव्यवस्थित परिजनों से रक्षित नगर में प्रविष्ट, रक्षा के उपाय को बिना किये ही, महाराज की पैदल सेना जब निश्चिन्त होकर सोयी हुई थी, अर्धरात्रि का समय बीत जाने पर जब कि तीनों लोकों का कल्याणकारक दीपक एवं रात्रिरूपी वधू का प्रियतम चन्द्रमा अस्त हो गया था, राज्य का विनाश देखकर, वीरचरित का अवलम्बन लेकर, अप्रमादी मानभंग राजा ने दूसरे प्रकार से सम्पूर्ण सेना सहित आक्रमण कर अतिप्रमत्त आपकी सेना को जीत लिया। अब आप ही प्रमाण हैं (अर्थात् अब जो आवश्यक हो उसे करें ) ।” राजा ने इस दुःसह वचन को सुनकर सेवकों को आज्ञा दी । उस समय क्रोधरूपी अग्नि से जलते हुए उसके नेत्र लाल हो रहे थे, अधर विषम रूप से फड़फड़ा रहे थे, निर्दय हाथों से पृथ्वी ताड़ित हो रही थी, क्रोधवश उसके वचन स्खलित हो रहे थे । ( राजा ने शीघ्र आज्ञा दी ) " शीघ्र ही गमन करने का नगाड़ा बजा दो, कठिनाई से जीती जानेवाली हाथियों की सेना सज्जित करो, दर्प से उद्धत घोड़ों पर जीन वगैरह बाँधो, ध्वजा और माला से शोभित रथों के समूह को ले जाओ, अनेक प्रकार के प्रहार करनेवाली पैदल सेना को प्रवृत्त करो ।” तब राजा के आदेश के बाद ही गमनकालीन नगाड़े के शब्द सुनकर श्रेष्ठ हाथी मेघसमूह के समान शोभायमान होने लगे । उठे हुए ध्वज, चामर तथा छत्रों का समूह बगुलाओं की पंक्ति से घिरे हुए के समान लगने लगा। तीक्ष्ण तलवार और भाले विद्युत्-युक्त हो गये ( चमक उठे ) । शंख, काहल और भेरी की गर्जना से दिशाएँ भर गयीं । असामयिक वर्षा Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढमो भवो] २६ नवगुणसेणे, ठाविए पुरओ सलिलपुण्णे कणयकलसे, पहए जयसिरिसमुप्फालए मंगलतूरे, पठन्तेसु विविमंगलाई बन्दिवन्द्र सु' अग्गिसम्मतावसो पारणगनिमित्तं पविट्ठो नरिंदगेहं ति । तओ तम्मि महाजणसमुदए' आउलीहूए नरिंदनिगमननिमित्तं पहाणपरियणे न केणइ समुवलक्खिओ ति । तओ कंचि वेलं गमेऊण दरियकरितुरयसंघायचमढणभीओ निग्गओ नरवइगेहाओ । एत्थन्तरम्मि य गहियसंकुच्छाएहिं मुणियजोइस सत्थपरमत्र्थोहिं भणियं जोइसिएहिदेव ! पत्थं मुहुत्तं, निग्गच्छसु ति । राइणा भणियं - अज्ज तस्स अग्गिसम्मतावसस्स पारणदिवसो, पडिवन्नं च तेण कुलवइवयणाओ मम गेहे आहारगहणं कायव्वं ति । ता आगच्छउ ताव सो महाणुभावो । तओ तं कयभोयणविहाणं पणमिऊण गमिस्सामो । तओ आसन्नवत्तिणा भणियं कुलपुत्तएण - देव ! सो खु महाणुभावो संपय' चेव पविसिऊण दरियकरितुरयसंघायचमढणभीओ निग्गओ रायगेहाओ । अज्ज वि य न नयराओ निग्गच्छइ तितक्केमि । तओ एयमायण्णिऊण ससंभंतो राया पयट्टो तस्स मग्गे, दिट्ठो य णेण नयराओ जयश्री समुत्फालके मङ्गलतूर्ये, पठत्सु विविधमङ्गलानि वन्दिवृन्देषु, अग्निशमंतापसः पारणकनिमित्तं प्रविष्टो नरेन्द्रगेहमिति । ततस्तस्मिन् महाजनसमुदये आकुलीभूते नरेन्द्रनिर्गमननिमित्तं प्रधानपरिजनेन केनचित् समुपलक्षित इति । ततः कांचिद् वेलां गमयित्वा दृप्तकरितुरगसंघातावमर्दनभीतो निर्गतो नरपति गेहात् । अत्रान्तरे च गृहीतशंकुच्छायैः ज्ञातज्योतिश्शास्त्रपरमार्थेः भणितं ज्योतिषिकै: - देव ! प्रशस्तं मुहूर्तम्, निर्गच्छेति । राज्ञा भणितम् - अद्य तस्य अग्निशर्मतापसस्य पारणकदिबस:, प्रतिपन्नं च तेन कुलपतिवचनाद् मम गेहे आहारग्रहणं कर्तव्यमिति । तत आगच्छतु तावत् स महानुभावः । ततस्तं कृतभोजनविधानं प्रणम्य गमिष्यामः । तत आसन्नवर्तिना भणितं कुलपुत्रकेण - देव ! स खलु महानुभावः साम्प्रतं चैव प्रविश्य दृप्तकरितुरगसंघातावमर्दनभीतो निर्गतो राजगेहात् । अद्यापि च न नगराद् निर्गच्छति इति तर्कयामि । तत एतद् आकर्ण्य सम्भ्रान्तो राजा प्रवृत्तस्तस्य मार्गे, दृष्टश्चानेन नगराद् निर्गच्छन् के समान चारों ओर राजा के साधन बढ़ गये। इसी बीच अग्निशर्मा तापस आहार के लिए राजा के घर में प्रविष्ट हुए। उस समय राजा गुणसेन श्रेष्ठ रथ पर आरूढ़ थे । उनके सामने जल से भरे हुए स्वर्णकलश स्थापित किये गये थे । विजयश्री की घोषणा करनेवाले मंगल बाजे बज रहे थे, बन्दीगण अनेक प्रकार के मंगल पाठ कर रहे थे । तब मनुष्यों की उस भीड़ में राजा के बाहर निकलने के कारण आकुल व्याकुल प्रधान सेवकों में से किसी ने भी उन्हें नहीं देखा । तब कुछ समय बिताकर ( वह तापस) गर्वीले हाथी और घोड़ों के समूह से कुचले जाने के भय से राज- गृह से चलेगये। इसी बीच शंकु (खूंटी) से छाया नापकर ज्योतिषशास्त्र के परम रहस्य को जिन्होंने जान लिया है, ऐसे ज्योतिषियों ने कहा, "देव ! मुहूर्त प्रशस्त है, निकलिए ।" राजा ने कहा, "आज अग्निशर्मा तापस का आहार करने का दिन है। उन्होंने कुलपति के कथनानुसार मेरे घर भोजन करना स्वीकार कर लिया है । अतः वह महानुभाव आ जायें। उन्हें भोजन कराकर प्रणाम करके चल देंगे ।' तब समीपवर्ती कुलपुत्र ने कहा, "देव ! वह महानुभाव इसी समय प्रविष्ट होकर गर्वीले हाथी और घोड़ों समूह से कुचलने के भय से राजमहल से निकल गये। अभी भी नगर से नहीं निकले होंगे - ऐसा सोचता हूँ ।" यह सुनकर घबड़ाया हुआ राजा उनके मार्ग की ओर चल पड़ा । उसने नगर से बाहर निकलते हुए अग्निशर्मा १. बन्दिविदेसु, २. महाजनसमुद्दए, ३. कयभोयणविहाणं, ४ संपयं, ५ ति, ६ मग्गतो. ७ णं । Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ समराइच्चकहा निग्गच्छंतो अग्गिसम्मतावसो । तओ ओयरिऊग रहवराओ, भत्तिनिब्भरं निवडिऊण चलणेसु विन्नत्तो सबहुमाणं । भयवं ! करेह पसायं, विणिवत्तसु ति अहमभिप्पेए वि गमणे तुह चेवागमणं मवान्तो एत्तियं वेलं ठिओ म्हि, जाव तुमं पविसिऊण मम गेहं अलक्खिओ चेव मे पहाणपरियण नगओ, सिता नियत्तसु ति । अग्गिसम्मतावसेण भणियं - महाराय ! विइयवुत्तन्तो चेव मे तुमं पइन्नाविसेसस्स, ता अलं ते इमिणाववसाएणं । सच्चपइन्ना खु तवस्तिणो हवंति, निव्विसेसा य लाभालाभे ३० । राणा भणियं - भयवं ! लज्जि ओम्हि इमिणा पमायचरिएणं तुह तिव्वतवजणियसरीरपीडाओ वि मे अहिआ सरीरपीडा, दढं दहइ नं संतावाणलो, वणस्सइ विय मे हिययं, अक्खिप्पर य मेवाणी महापातकम्पकारिणं च मन्नेमि अध्यानं, ता सयलदुहियसत्तबंधुभूओ, अकारणवच्छलो य भवयं तुमं चैव मे इमस्स दुक्खस्स उवसलोवाय चिन्तेहि । अग्गिसम्मतावसेण चिन्तियं । अहो ! से महारायस्त महाणुभावया । अकयवारणगेण मए एतियं खिज्जइ त्ति । अहो से गुरुयण सुस्सुसाणुराओ । तान जाब मए एक्स्स गेहे पारणयं कयं, न ताव एस सत्थो होइ ति । चिन्तिऊण भणियं च अग्निशर्मतापसः । तत अवतीर्य रथवराद् भक्तिनिर्भरं निपत्य चरणयोविज्ञप्तः सबहुमानम् । भगवन् ! कुरुत प्रसादम्, विनिवर्तस्व इति । अहमभिप्रेतेऽपि गमने तवैव आगमनम् अनुपालयन् एतावतीं वेलां स्थितोऽस्मि, यावत् त्वं प्रविश्य मम गेहम् अलक्षितं एव मम प्रधानपरिजनेन निर्गतोऽसि ततो निवर्तस्व इति । अग्निर्मतापसेन भणितम् - महाराज ! विदितवृत्तान्त एव मम त्वं प्रतिज्ञाविशेषस्य ; ततोऽलं तवानेन व्यवसायेन । सत्यप्रतिज्ञाः खलु तपस्विनो भवन्ति, निर्वि शेषाश्च लाभालाभेषु । 2 राज्ञा भणितम् - भगवन् ! लज्जितोऽस्मि अनेन प्रमादचरितेन तव तीव्रतपोजनितशरीरपीडातोऽपि मम अधिका शरीरपीडा, दृढं दहति मां सन्तापानलः प्रणश्यति इव मम हृदयम्, आक्षिप्यते च मम वाणी, महापापकर्मकारिणं च मन्ये आत्मानम् ; ततः सकलदुःखितसत्त्व बन्धु भूतः अकारणवत्सलश्च भगवान् त्वमेव मम अस्य दुःखस्य उपशमोपायं चिन्तय । अग्निशतापसेनचिन्तितम् । अहो ! अस्य महाराजस्य महानुभावता अकृतपारणकेन मया एतावखिद्यते इति । अहो ! अस्य गुरुजनशुश्रूषानुरागः । ततो न यावद् मया एतस्य गेहे पारणकं कृतम्, न तावद् एष स्वस्थो भवतीति तापस को देखा । तब श्रेष्ठ रथ से उतरकर भक्ति से युक्त होकर, चरणों में पड़कर आदरपूर्वक उसने निवेदन किया, "भगवन् ! कृपा कीजिए, लौटिए ! मेरा जाना इष्ट होने पर भी आपके आने की प्रतीक्षा करता हुआ मैं अभी तक ठहरा हुआ हूँ । इसी बीच आप मेरे घर प्रविष्ट हुए। मेरे प्रधान सेवकों ने आपको नहीं देखा और आप निकल गये, अतः लौट आइए ।" अग्निशर्मा तापस ने कहा, "महाराज ! आपको मेरी विशेष प्रतिज्ञा के विषय में पता ही है, अतः आपका यह प्रयास व्यर्थ है । तपस्वी लोग सत्यप्रतिज्ञा वाले होते हैं। लाभ तथा अलाभ में उनकी सामान्य दृष्टि रहती है ।" राजा ने कहा, "भगवन् ! इस प्रमादपूर्ण आचरण के कारण मैं अत्यधिक लज्जित हूँ । आपके तीव्र तप से उत्पन्न शरीर पीड़ा से भी अधिक मुझे सन्तापरूपी अग्नि जला रही है । मेरा हृदय नष्ट-सा हो रहा है, मेरी वाणी स्खलित हो रही है । मैं अपने आपको महापापी मानता हूँ । अतः समस्त दुःखी प्राणियों के बन्धुभूत, अकारण वत्सलभाव रखने वाले भगवन् ! आप ही मेरे इस दुःख के उपशमन का उपाय विचारिए ।" अग्निशर्मा तापस ने विचार किया - इन महाराज की महानता आश्चर्य उत्पन्न करनेवाली है । मुझे भोजन न करा पाने के कारण यह खिन्न हो रहे हैं। इनकी गुरुजनों की सेवा करने की इच्छा आश्चर्यकारी है। जब तक मैं इनके घर आहार नहीं कर लूंगा तब तक यह स्वस्थ नहीं होंगे, ऐसा सोचकर उसने कहा, "महाराज ! बिना कारण ही १. विय । Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढमो भवो ] तेण-महाराय ! अनिमित्तंते दक्खं । तहावि एयस्स इमो उवसमोवाओ। अविग्घेण संपत्तेपारणगदिवसे पुणो वि तुह चेव गेहे आहारगहणं करिरसामि त्ति पडिवन्नं मए, ता मा संतप्पसु त्ति । तओ धरणिनिहियजाणुकरयलेण भणियं राइणा-भयवं ! सुट्ठ मुणियो इमस्स दुक्खस्स उवसमोवाओ। अहवा विमलनाणनयणो चेव तवस्सिजणो होइ, किं वा न जाणइ त्ति ! ता अणुगिहीओ म्हि । सरिसं इमं तुह अकारणवच्छलयाए । ता गच्छ तुम तोवणं । अहं पुण न सक्कुणोमि पच्चग्गपमायकलंकदूसिओ भगवन्तं कुलवइमवलोइउंति । एवं भणियं पणमिण य अग्गिसम्मतावसं नियत्तो राया। - 'न मए इयाणि गन्तव्वं' ति कलिऊण विसज्जिओ य तेणं माणभंगस्स उवरि विक्खेवो। अग्गिसम्मो विय गन्तूण तवोदणं, निवेइऊण कुलबइणो जहावित्तं वुत्रंतं, वच्छ ! साहु कयं ति अहिणन्दिओ य कुलवइणा पवन्नो वयविसेसं ति । अणुदियहं च पवड्ढमाणसंवेगेण राइणा सेधिज्जन्तस्स तस्स समइच्छिओ मासो, पत्तो य रन्नो मणोरहसहं पारण दियहो। तम्मि य पारणयदियहे राइणो गुणसेणस्स देवी वसन्तसेणा दारयं पसूय ति । निवेइयं च राहणो हरिसवसेण पफुल्लवपणपंकयाए चिन्तयित्वा भणितं च तेन-महाराज ! अनिमित्तेन एव दुःखम् । तथापि एतस्य अयम् उपशमोपायः । अविघ्नेन सम्प्राप्ते पारणकदिवसे पुनरपि तवैव गेहे आहारग्रहणं करिष्यामि इति प्रतिपन्नं मया। ततः मा सन्तप्यस्वेति । ततो धरणीनिहितजानुकरतलेन भणितं राज्ञा - भगवन् ! सुष्ठ ज्ञातः अस्य दुःखस्य उपशमोपायः । अथवा विमलज्ञाननयन एव तपस्विजनो भवति, कि वा न जानाति ! इति । ततोऽनुगहीतोऽस्मि । सदृशं इदं तव अकारणवत्सलतायाः। ततो गच्छ त्वं तपोवनम् । अहं पुनः न शक्नोमि प्रत्यग्रप्रमादकलङ्कषितो भगवन्तं कुलपतिमवलोकितुम् इति। एवं भणित्वा प्रणम्य च अग्निशर्मतापसं निवृत्तो राजा।। ___'न मया इदानीं गन्तव्यम्' इति कलयित्वा विसर्जितश्च तेन मानभङ्गस्य उपरि विक्षेपः। अग्निशर्माऽपि च गत्वा तपोवनम्, निवेद्य कुलपतये यथावृत्तं वृत्तान्तम्, 'वत्स ! साध कृतम' इति अभिनन्दितश्च कुलपतिना प्रपन्नो व्रतविशेषमिति । अनुदिवसं च प्रवर्द्धमान संवेगेन राज्ञा सेव्यमानस्य तस्य समतिक्रान्तः मासः, प्राप्तश्च राज्ञो मनोरथशतैः पारणकदिवसः । तस्मिश्च पारणकदिवसे राज्ञो गुणसेनस्य देवी वसन्तसेना दारकं प्रसूतेति । निवेदितं च राज्ञो हर्षवशेन प्रफुल्लवदनदुःखी हो रहे हैं, तथापि इसकी उपशान्ति का यह उपाय है। निर्विघ्न रूप से आहार का दिन आने पर आपके ही घर आहार ग्रहण करूँगा, ऐसा मैंने निश्चय किया है । अतः दुःखी मत हों।" तब पृथ्वी पर जिसने घुटने टेककर प्रणाम किया है, ऐसे राजा ने कहा, "भगवन् ! इस दुःख की शान्ति का उपाय आपने भली प्रकार जान लिया। अथवा तपस्वी लोग निर्मल ज्ञानरूपी नेत्रों से युक्त होते हैं। वे क्या नहीं जानते हैं ? अतः अनुगृहीत हूँ। अकारण वात्सल्य रखने वाले आपके लिए यह उचित ही है। अब आप तपोवन को जाइए । पुनः प्रमाद करने के कलंक से दूषित मैं भगवान् कुलपति का दर्शन करने में समर्थ नहीं हूँ।" ऐसा कहकर अग्निशर्मा तापस को प्रणाम कर राजा लौट गया। 'मुझे इस समय नहीं जाना चाहिए', ऐसा निश्चयकर उसने मानभंग के ऊपर सेना भेज दी। अग्निशर्मा ने तपोवन में जाकर कूलपति से सारा वृत्तान्त, जैसा घटित हआ था, कह सुनाया। "वत्स! अच्छा किया." इस प्रकार कुलपति ने उनका अभिनन्दन किया। वह व्रत विशेष को प्राप्त हुए। प्रतिदिन बढ़े हुए वैराग्य वाले तथा राजा के द्वारा सेवा किये जाते हुए उनका एक मास निकल गया। राजा के सैकड़ों मनोरथों के बाद वह आहार का दिन आया। उसी आहार के दिन राजा गुणसेन की रानी वसन्तसेना के पुत्र उत्पन्न हुआ। हर्ष के वशीभूत होकर जिसका मुखकमल खिल रहा था ऐसी प्रतीहारी ने प्रसन्नतापूर्वक राजा से निवेदन किया, Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ सपरितोसं पडिहारीए-महाराय ! देवी वसन्तसेणा तुम्हाणं अम्भुदयनिमित्तं पयाणं भागधेएहिं सुहसुहेणं दारयं पसूय त्ति।। तओ राइणा पुत्तजम्मब्भुदयसंजायरोमंचेणं दाऊण पडिहारीए कडयकेऊर' कण्णालंकाराइयं अंगाभरणं, दिन्ना समाणत्ती। वसुंधरे ! समाइससुणं मम वयणाओ जहासन्निहिए पडिहारे। जहा-मोयावेह कालघंटापओएण मम रज्जे सव्वबंधणाणि, दवावेह घोसणापुव्वयं अणवेक्खियाणरूवं महादाणं, विसज्जावेह जियसत्तुप्पमुहाणं नरवईणं मम पुत्तजम्मपउत्ति, निवेएह देवपुत्तजम्मभुदयं पउराणं, कारावेह अयालच्छणभूयं नयरमहूसवं ति । समाइट्ठा य तीए जहाइट्ठ पडिहारा। अणुचिट्ठियं च रायसासणं पडिहारेहिं । अवि य काराश्यिं च तेहि तूररवष्पप्णदसदिसाभोयं । उन्नामिएक्ककरयलनच्चन्तबिलासिणिसमहं ॥५२॥ पजया सपरितोषं प्रतीहार्या–महाराज ! देवी वसन्तसेना युष्माकं अभ्युदयनिमित्तम्, प्रजानां भागधेयैः सुखसुखेन दारकं प्रसूतेति । ततो राज्ञा पुत्रजन्माभ्युदयसंजात रोमाञ्चेन दत्त्वा प्रतीहार्य कटक-केयूरकर्णालङ्कारादिकम्अङ्गाभरणम, दत्ता समाज्ञप्तिः । वसुन्धरे ! समादिश मम वचनाद् यथासन्निहितान् प्रतीहारान, यथा मोचयत कालघण्टाप्रयोगेण मम राज्ये सर्वबन्धनानि, दापयत घोषणापूर्वकम्' अनपेक्षितानुरूपं महादानम्, विसर्जयत जितशत्रूप्रमुखानां नरपतीनां मम पुत्रजन्मप्रवृत्तिम्, निवेदयत देवीपुत्रजन्माभ्यदयं पौराणाम, कारयत अकालक्षणभूतं नगरमहोत्सवमिति । समादिष्टाश्च तथा यथादिष्टं प्रतीहाराः । अनुचेष्टितं च राजशासनं प्रतीहारैः। अपि च कारितं च तैः तूर्यरवउत्पन्नदशदिशाभोगम् । उन्नामितैक-करतलनृत्यमांनविलासिनीसमूहम् ॥५२॥ "महाराज ! देवी वसन्तसेना ने प्रजा के सौभाग्य से एवं आपके अभ्युदय के कारणभूत पुत्र को सुखपूर्वक जन्म दिया है।" .. तब राजा ने प्रतीहारी को कड़ा, बाजूबन्द, कर्णालंकार आदि आभूषण दिये। पुत्रजन्म के अभ्युदय - से राजा को रोमांच हो आया था। उसने आज्ञा दी, "वसुन्धरा ! मेरे कथनानुसार समीपस्थ द्वारपालों को आज्ञा दो कि घण्टा बजाकर मेरे राज्य के समस्त बन्दियों को छोड़ दिया जाय, घोषणापूर्वक अपेक्षा से भी अधिक महादान दिया जाय। मेरे पुत्र-जन्म के उपलक्ष्य में जितशत्रु प्रमुख राजाओं को लौटा दें। नगरनिवासियों को देवी के पूर्वजन्म सम्बन्धी समाचार निवेदन कर दें। असामयिक हर्षवाला नगर-महोत्सव मनाया जाय।" उस (प्रतिहारी) ने द्वारपालों को जो आज्ञा दी थी वह कह सुनायी। द्वारपालों ने राजा की आज्ञा का अनुवर्तन किया। और भी उन्होंने मनोभिराम बधाई का उत्सव कराया। उस समय बाजों का दशों दिशाओं में व्याप्त होने वाला शब्द हो रहा था। एक हथेली ऊपर उठाये हुए स्त्रियों का समूह नृत्य कर रहा था। अन्तःपुर की स्त्रियाँ 1. केउर। Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढमो भवो ] अन्तेउरियाहीरं पुण्णव रंत्तत्त'-रीयवरपोत्तं । सविसेसपसाहियसंमिलंतर मायणाइण्णं ॥५३॥ पिट्ठागय मुट्ठिपहार भीरुरामाविमुक्कसिक्कारं । मयवस विलासिणीजणनच्चाविज्जंतकंचुइयं ॥ ५४ ॥ सुच्चंत करण्फालियतालायरमुरयमहुरनिग्घोसं । दाणपरितुट्ठबहुवं दिवंद्र उग्घुटुजयसद्दं ॥५५॥ नच्चतम डहवा मणचेडीहासिज्जमाणनरनाहं । बद्धावाणयनिवहं वद्धावणयं मणाभिरामं ॥ ५६ ॥ पवत्तोय वसंतउरे नयरे महामहूसवो । एवंविहे य देवीपुत्तजम्मन्भुदयाणंदिए महापमत्ते सह राणा रायपरियणे अग्गिसम्मतावसो पारणगनिमित्तं रायउलं पविसिऊण वयणमेत्तेणवि केणइ tarusवत्ती असुहकम्मोदएणं अट्टज्झाणदूसियमणो लहुं चैव निग्गओ । चितियं च णेणं- अहो ! से राइणो आ बालभावाओ चेव असरिसो ममोवरि वेराणुबंधो ति । पेच्छह से अइणिगूढायारमा अन्तःपुरिका हियमाणपूर्णं - पात्रोत्तरीयवरपोतम् । सविशेषप्रसाधितसम्मीलद्रामाजनाकीर्णम् ॥५३॥ पृष्ठागत- मुष्टिप्रहारभीरु - रामाविमुक्त सीत्कारम् । मंदवश विलासिनीजननर्त्य मानकञ्चुकिकम् ॥५४॥ श्रूयमाणकरास्फालिततालादरमुरजमधुरनिर्घोषम् । दानपरितुष्टबहुवन्दिवृन्दउद्दृष्टजयशब्दम् ॥५५॥ नृत्य मानलघुवामन चेटीहास्यमाननरनाथम् । assafras वर्धापनकं मनोऽभिरामम् ॥ ५६ ॥ ३३ प्रवृत्तश्च वसन्तपुरे नगरे महामहोत्सवः । एवंविधे च देवीपुत्रजन्माभ्युदयानन्दिते महाप्रमत्ते सह राज्ञा राजपरिजने अग्निशर्मतापसः पारणकनिमित्तं राजकुलं प्रविश्य वचनमात्रेणाऽपि केनाऽपि अकृतप्रतिपत्तिः अशुभ कर्मोदयेन आर्तध्यानदूषितमना लध्वेव निर्गतः । चिन्तितं चानेन - अहो ! तस्य _राज्ञ आबालभावात् चैव असदृशो ममोपरि वैरानुबन्ध इति । प्रेक्षध्वं तस्य अतिनिगूढाचारचरितम्, I पूर्णपात्र ( भरे हुए कलश), उत्तरीय वस्त्र और श्रेष्ठ पोत ले आयीं । विशेष रूप से सजावट कर एकत्रित होती हुई स्त्रियों से वह स्थान व्याप्त था । पीछे से आये हुए किसी की मुट्ठी के प्रहार से भयभीत स्त्रियाँ वहाँ सी-सी शब्द कर रही थीं । मदिरा के वश स्त्रियों के द्वारा कञ्चुकी नचाये जा रहे थे। हाथों से दबाये गये ताल देते हुए मृदंग की मधुर ध्वनि वहाँ सुनाई पड़ रही थी । दान से सन्तुष्ट बहुत से वन्दियों के समूह द्वारा वहाँ जय जय शब्द की घोषणा हो रही थी । छोटी बौनी चेटियाँ (दासियाँ) राजा को हंसाती हुई नृत्य कर रही थीं । जम चुकी थी । ।। ५२-५६।। मद्यपों की गोष्ठी वसन्तपुर नगर में महान् महोत्सव प्रवृत्त हुआ । इस प्रकार जब रानी के पुत्र जन्म रूप अभ्युदय से आनन्दित हुआ राजा सेवकों के साथ अत्यधिक प्रमादी हो रहा था तब अग्निशर्मा तापस आहार के निमित्त राजभवन में प्रविष्ट हुआ । वचनमात्र से भी उसका किसी ने सत्कार नहीं किया । अशुभकर्म के उदय से उसका मन आर्तध्यान से दूषित हो गया और वह शीघ्र ही ( वहाँ से ) निकल गया। उसने विचार किया- 'अरे ! यह राजा बाल्या १. पुण्णवं तुत्त, २. सुच्चवंत । Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ [समराइच्चकहा चरियं, जेण तं तहा मम समक्खं मणाणुकूलं जंपिय करणेण विवरीयमायरइ ति। चिंतयंतो सो निग्गओ नयराओ। एत्थंतरम्मि य अन्नाणदोसेणं अभावियपरमत्थमग्गत्तणेण य गहिओ कसाएहि, अवगया से परलोयवासणा, पणट्ठा धम्मसद्धा, समागया सयलदुक्खतरुबीयभूया अमेती, जाया य देहपीडाकरी अतीव बुभुक्खा । आकरिसिओ बुभुक्खाए। तओ पढमपरीसहवइएण तेण अन्नाणकोहवसएणं । घोरं नियाणमेयं पडिवन्नं मूढहियएणं ॥५७॥ जइ होज्ज इमस्स फलं मए सुचिण्णस्स वयविसेसस्स । ता एयस्स वहाए पइजम्मं होज्ज मे जम्मो ॥५८॥ न कुणइ पणईण पियं जो पुरिसो विप्पियं च सत्तूणं । किं तस्स जणणिजोव्वणविउडणमेत्तेण जम्मेणं ॥५६॥ सत्त य एस राया मम सिसुभावाउ चेव पावो ति। अवराहमंतरेण वि करेमि तो विप्पियमिमस्स ॥६०॥ येन तत तथा मम समक्षं मनोऽनुकलं कथयित्वा करणेन विपरीतमाचरतीति चिन्तयन् स निर्गतो नगरात् । अत्रान्तरे च अज्ञानदोषेण अभावित परमार्थमार्गत्वेन च गृहीतः कषाय:, अपगता तस्य परलोकवासना, प्रणष्टा धर्मश्रद्धा, समागता सकलदुःखतरुबीजभूता अमैत्री, जाता च देहपीडाकरी अतीव बुभुक्षा । आकृष्टो बभक्षया। तत प्रथम परीषहपतितेन तेन अज्ञानक्रोधवशगेन । घोरं निदानमेतद् प्रतिपन्नं मूढहृदयेन ॥५७॥ यदि भवेद् अस्य फलं मया सुचीर्णस्य व्रतविशेषस्य । तस्माद् एतस्य वधाय प्रतिजन्म भवतु मम जन्म ॥५८।। न करोति प्रणयिनां प्रियम, यः पुरुषः विप्रियं च शत्रणाम्। किं तस्य जननीयौवनविकुटनमात्रेण जन्मना ॥५६॥ शत्रश्चेष राजा मम शिशभावाच्चैव पाप इति । अपराधमन्तरेणाऽपि करोमि ततः विप्रियमस्य ॥६०॥ वस्था से ही मुझसे विपरीत वैरभाव बांधे हुए है । इसका अत्यन्त गूढ़ आचरण तो देखो, मेरे सामने वह मेरे अनुकूल कथन करके कार्य में विपरीत आचरण करता है !' इस प्रकार विचार करते हुए वह नगर से निकल गया। इसी बीच अज्ञान के दोष से, यथार्थ मार्ग की भावना न करने से उसे कषायों ने जकड़ लिया। उसकी परलोक की इच्छा नष्ट हो गयी, धर्म के प्रति श्रद्धा नष्ट हो गयी, समस्त दुःखों की बीजभूत शत्रुता आ गयी तथा देह को पीड़ा पहुँचानेवाली बड़ी भूख उत्पन्न हुई । भूख ने उसे आकर्षित कर लिया। तदनन्तर प्रथम परीषह से पतित, अज्ञान और क्रोध के वशीभूत होकर उस मढ़ हृदय ने यह घोर निदान (कर्म फल का संकल्प) किया कि चिरकाल तक किये हुए इस व्रतविशेष का यदि कोई फल हो तो इसके वध के लिए ही मेरा प्रत्येक दूसरा जन्म हो । जो मनुष्य प्रेमी व्यक्तियों का प्रिय नहीं करता है और शत्रुओं का अप्रिय नहीं करता है, माता के यौवन को क्षीण करनेवाले उसके जन्म से क्या लाभ ? यह राजा मेरे जन्मकाल से ही शत्रु है और पापी है। अत: अपराध के बिना ही मैं इसका अप्रिय करूँगा।' ऐसा निदान कर उस स्थान से पीछे न हटकर अनेक बार Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढमो भवो] इय काऊण नियाणं अप्पडिकतेण तस्स ठाणस्स । अह भावियं सुबहुसो कोहाणलजलियचित्तेण ॥६१॥ एत्थंतरम्मि पत्तो एसो तवोवणं । अणेय वियप्पजणियकुचितासंधुक्कियपवड्ढमाणकोहाणलो य कुलवई सेसतावसे य परिहरिऊण अलक्खिओ चेव गओ सहयारवीहियं, उवविट्टो य विमलसिलाविणिम्मए चाउरंतपोढे ति। अणुसयवसेण पुणो वि चितिउमारद्धो। अहो ! से राइणो ममोवरि परिणीयभावो। कहं सव्वतावसमझे अहं से ओहसणिज्जो त्ति? जेण मे पइन्नाविसेसं नाऊणं नियडिबहुलो तहा तहोवणिमंतिय असंपाडणेण पारणयस्स किल मं खली करेइ ति। तं मूढो खु सो राया कि मे एयावत्थगयस्स खलीकरीयइ। तहा अणाहाणं, दुब्बलाणं, परपरिहयाणं च सत्ताणं कयंतणेव विणिवाइयाणं जा खलियारणा, न सा मणिणो माणमापूरेइ ति, विसेसओ सनसत्तमित्ताणं परलोयवावारनिरयाणं तवस्सोणं ति । अहवा अपरिचत्ताहारमेत्तसंगस्स मे एतहमेत्ता कयस्थण ति। ता अलं मे जावज्जीवं चेव परिहवनिमित्तणं' आहारेणं ति । गाहियं जावज्जीवियं इति कृत्वा निदानम् अप्रतिकान्तेन तस्य स्थानस्य । अथ भावितं सुबहुशः क्रोधानलज्वलितचित्तेन ॥६१॥ । ___ अत्रान्तरे प्राप्त एष तपोवनम्, अनेकविकल्पजनितकुचिन्तासन्दीप्तप्रवर्धमानक्रोधानलश्च कलपतिम्, शेषतापसांश्च परिहृत्य अलक्षित एव गतः सहकारवीथिकाम्, उपविष्टश्च विमलशिलाविनिमिते चतुरन्तपीठे इति । अनुशयवशेन पुनरपि चिन्तयितुमारब्धः-अहो ! तस्य राज्ञो ममोपरि प्रत्यनीकभावः । कथं सर्वतापसमध्ये अहं तस्य उपहसनीय इति ? येन मम प्रतिज्ञाविशेषं ज्ञात्वा निकृतिबहुलः तथा-तथा उपनिमन्त्र्य असम्पादनेन पारणकस्य किल मां खलीकरोति इति । तद्-मूढः खल स राजा किं मम एतदवस्था-गतस्य खलीकरोति । तथा अनाथानाम्, दुर्बला. नाम, परपरिभूतानां च सत्त्वानां कृतान्तेनेव विनिपातितानां या खलीकारणा, न सा मानिनो मानमापूरयति इति, विशेषतः समशत्रु-मित्राणां परलोकव्यापारनिरतानां तपस्विनामिति । अथवा अपरित्यक्ताहारमात्रसंगस्य मम एतावन्मात्रा कदर्थनेति, ततोऽलं मम यावज्जीवमेव परिभवनिमिक्रोधरूपी अग्नि से जले हुए चित्त से भावना की ।।५७-६१॥ . इसी बीच यह तपोवन में आ गया। अनेक विकल्पों से उत्पन्न दुश्चिन्ता से जिसकी क्रोधाग्नि बढ़ गयी है ऐसा वह तापस कुलपति तथा अन्य सभी तपस्वियों को छोड़कर, बिना दीखे ही आम्रवीथी में गया। वह उत्तम शिला से निर्मित चौकोर पीठे पर बैठ गया । अत्यधिक क्रोधवश उसने पुनः सोचना आरम्भ किया-'उस राजा का मेरे ऊपर विपरीत भाव आश्चर्यजनक है ! समस्त तापसियों के बीच मैं कैसे उपहास का पात्र बनाया गया, जो कि मेरी प्रतिज्ञाविशेष को जानकर कपटवश उस प्रकार से निमन्त्रित कर मुझे आहार न कराकर दुःखी करता रहा है। वह मूढ़ राजा इस अवस्था को प्राप्त हुए मुझे क्यों दुःख पहुंचाता रहा है ? अनाथ, दुर्बल, दूसरों के द्वारा सताये गये, मानो यम के द्वारा ही अधोगति पहुँचाये हुए प्राणियों को दुःख पहुँचाना मानी व्यक्ति के मान को पूरा नहीं करता है। विशेषकर जो शत्रु-मित्र दोनों में समानभाव रखने वाले हैं और परलोक के प्रति किये गये कार्यों में रत है ऐसे तपस्विजनों का अपमान तो मानी व्यक्ति के मान को पूरा कर ही नहीं सकता। अथवा एकमात्र १, मेत्तेणं। Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ [ समराइच्चकहा महोववासयं । एत्थंतरम्मि य परिचत्तनिययवावारो असुहज्झाणदूसियमणो, तवपरिक्खीणदेहो, दिट्ठो तत्थ तावसहि । भणियं च तेहि-भयवं ! अइपरिक्खीणदेहो, असंपावियकुसुमविलेवणोवयारो लक्खिज्जसि, ता कि इयाणि पि ते न संजायं पारणयं ति ? अग्गिसम्मतावसेण भणियं'न संजायं' ति। तावसेंहि भणियं—'कहं न संजायं ? किं न पविट्ठो तस्स राइणो गुणसेणस्स गेहं ?' अग्गिसम्मतावसेण भणियं-'पविट्ठो।' तावसेहिं भणियं-'ता कहं ते न संजायं' ति? तेण भणियंबालभावाओ चेव मे सो राया अणवरद्धवेरिओ, खलियारिओ अहं तेण । पुदिव मए पुण न जाणिओ, अवगओ से इयाणि वेराणुबंधो विणीओ विव लक्खिज्जइ, जाव भिच्छाविणीयस्सन से वेराणुबंधो अवेइ; जेणोवहासबुद्धीए में उवणिमंतिऊणं अणज्जविलसिएणं चेव तेहि तेहि मायापयारेहिं चेव किल मंपरिहवइ ति। अज्जं च तेण वियाणिऊण मम पारणगदिवसं सहसा चेव काराविओ पमोओ। तओ अहं पविसिऊणं रायगेहं अबहुमाणिओ चेव मुणियन रिदपरिवाराभिप्पाओ लहुं चेव निग्गओ त्ति। तेन आहारेणेति गृहीतं यावज्जीवितं महोपवासव्रतम् । अत्रान्तरे च परित्यक्तनिजव्यापारः अशुभध्यानदूषितमनाः, तपःपरिक्षीणदेहः, दृष्टस्तत्र तापसैः । भणितं च तैः-भगवन् ! अतिपरिक्षीण देहः असम्प्राप्तकुसुमविलेपनोपचारो लक्ष्यसे, ततः किमिदानीमपि तव न संजातं पारणकम्-इति ? अग्निशर्मतापसेन भणितम्-'न संजातम्' इति । तापसैर्भणितम्-'कथं न संजातम् ? किं न प्रविष्टस्तस्य राज्ञो गुणसेनस्य गेहम् ? अग्निशर्मतापसेन भणितम्-'प्रविष्टः।' तापसैर्भणितम्-'ततः कथं तव न संजातम्' इति ? तेन भणितम् - 'बालभावादेव मम स राजा अनपराद्धवैरिकः, खलीकारितश्चाहं तेन पूर्वम् । मम पुनर्नज्ञातः अवगतस्तस्य इदानीं वैरानुवन्धः । विनीत इव लक्ष्यते, यावद् मिथ्याविनीतस्य न तस्य वैरानुबन्धः अपैति, येनोपहासबुध्या मम उपनिमन्त्र्य अनार्यविलसितेनैव तैः तैः मायाप्रकारैरेव किल मां परिभवतीति । अद्य च तेन विज्ञाय मम पारणकदिवसं सहसा कारितः प्रमोदः । ततोऽहं प्रविश्य राजगेहम्, अबहुमानित एव ज्ञाततरेन्द्रपरिवाराभिप्रायः लघ्वेव निर्गत' इति । माहार के प्रति आसक्ति का त्याग न कर पाने के कारण मेरा यह अपमान हुआ, अतः तिरस्कार के कारण इस आहार से बस । (अब मैं) जीवनभर के लिए महोपवास व्रत लेता हूँ।' इसी बीच जिसने अपने कार्य को छोड़ दिया है, अशुभ ध्यान से जिसका मन दूषित है, तप के कारण जिसका शरीर क्षीण हो गया है तापस को तापसों ने देखा और उन्होंने कहा, "भगवन् ! आपका शरीर अत्यन्त क्षीण हो गया है, आपने फूल वगैरह के लेपन का प्रयोग भी नहीं लिया है, तो क्या इस समय भी आपका व्रतान्त भोजन नहीं हुआ?" अग्निशर्मा तापस ने कहा, "नहीं हुआ।" तापसों ने कहा, "कैसे नहीं हुआ ? क्या आप ने राजा गुणसेन के घर में प्रवेश नहीं किया ?" अग्निशर्मा तापस ने कहा, "प्रविष्ट हुआ था।" तापसों ने कहा, "तब कैसे आपका भोजन नहीं हुआ ?" उसने कहा, "बाल्यावस्था से ही वह राजा बिना अपराध किये ही मेरा वैरी है। उसने पहले भी मुझे दुःखी किया था। मुझे ज्ञात नहीं था, पर इस समय उसके वैर को जान लिया । विनीत जैसा मालूम पड़ता है, किन्तु झूठी विनय को दिखाने वाले उस राजा का वैरभाव दूर नहीं हुआ है जिससे उपहास करने की बुद्धि से मेरा निमन्त्रण कर उन-उन माया के प्रकारों से अनार्य के समान आचरण कर, मेरा तिरस्कार करता रहा है। आज मेरे आहार का दिन जानकर यकायक उसने आनन्द मनाया। मैं राजमहल में प्रविष्ट हुआ तो सत्कार न पाकर राजा के परिवार का अभिप्राय जानकर शीघ्र ही निकल आया।" Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढमो भवो तओ तावसेहिं भणियं-भयवं ! न एवं तवस्सिजणवच्छले नरिन्दगुणसेणे संभावियइ, अहवा विचित्तसंधिणो हि पुरिसा हवंति, किं वा न संभावियइ ? नत्थि अविसओ कसायाणं ति । भणिऊण निवेइयं तेहिं अच्चुविवगेहिं कुलवइणो। जहा--भयवं ! न तस्स अग्गिसम्मतोवसस्स इमिणा वुत्तंतेण संपयं पि पारणय संवुत्तं ति । तओ ससंभंतो तुरियमागओ अग्गिसम्मसमीवं कुलवई। संपूइओ य तेण अग्गिसम्मेण जहाणुरूवेणोवयारेणं । तओ तेण भणियं—वच्छ ! कहमियाणि पि ते न संजायं पारणयं ति ? अहो ! से असरिससमायरणं राइणो गुणसेणस्स । अग्गिसम्मतावसेण भणियं-भयवं ! पाइणो चेव रायाणो हवंति, को वा तस्स दोसो। मम चेवापरिचत्ताहारमेत्तसंगस्स एस दोसो, जेण तस्स वि गेहं पविसामि' ति। परिचत्तो य मए संपयं जावज्जीवाए चेव सयलपरिहवबीयभूओ एद्दहमेत्तो वि संगो। अओ विन्नवेमि भयवंतं एयम्मि अत्थे, नाहमन्नहा आणवेयव्वो त्ति । कुलवइणा भणियं-वच्छ ! जइ परिचत्तो आहारो, गओ इयाणि कालो आणाए। सच्चपइन्ना खु तवस्सियो हवंति किं तु तुमए नरिंदस्स उरि कोवो न कायव्वो। जओ ततस्तापसर्भणितम्-भगवन् ! नै तपस्विजनवत्सले नरेन्द्रगुणसेने सम्भाव्यते। अथवा विचित्रसन्धयो हि पुरुषा भवन्ति, किं वा न सम्भाव्यते ? नास्ति अविषयः कषायाणामिति भणित्वा निवेदितं तैरत्युद्विग्नैः कुलपतये । यथा-भगवन् ! न तस्य अग्निशर्मतापसस्य अनेन वृत्तान्तेन साम्प्रतमपि पारणकं संवृत्तमिति । ततः सम्भ्रान्तः त्वरितमागतः अग्निशर्मसमी कुलपतिः, सम्पूजितश्च तेन अग्निशमणा यथानुरूपेण उपचारेण ततस्तेन भणितम्-वत्स ! कथमिवानीमपि तव न संजातं पारणकम्-इति ? अहो ! तस्य असदृशसमाचरणं राज्ञो गुणसेनस्य । अग्निशर्मतापसेन भणितम्-भगवन् ! प्रमादिन एव राजानो भवन्ति, को वा तस्य दोषः ? मम एव अपरित्यक्ताहारमात्रसङ्गस्य एष दोषः; येन तस्यापि गेहं प्रविशामि इति । परित्यक्तश्च मया साम्प्रतं यावज्जीवमेव सकलपरिभवबीजभूत एतावत्मात्रोऽपि सङ्गः । अतो विज्ञापयामि भगवन्तम्-एतस्मिन्नर्थे, नाहमन्यथा आज्ञापयितव्य इति । कुलपतिना भणितम्-वत्स ! यदि परित्यक्त आहारः, गत इदानीं काल आज्ञायाः । सत्यप्रतिज्ञा खलु तपस्विनो भवन्ति । किन्तु त्वया नरेन्द्रस्य उपरि कोपो न कर्तव्यः । यतः तापसों ने कहा, "भगवन् ! तपस्वियों के प्रति प्रेम भाव रखवाले राजा गुणसेन में इस प्रकार की सम्भावना नहीं की जा सकती । अथवा लोग नाना अभिप्राय वाले होते हैं; क्या सम्भव नहीं है ? कषायों से कोई विषय छुटा नहीं है।" ऐसा कहकर अत्यन्त उद्विग्न होकर उन्होंने कुलपति से कहा, "हे भगवन् ! उस अग्निशर्मा तापस का इस प्रकार आज भी भोजन नहीं हुआ है।" तब घबड़ाये हुए कुलपति शीघ्रतापूर्वक अग्निशर्मा के समीप आये । अग्निशर्मा ने यथानुरूप उपचारों से उनकी पूजा की। तब उन्होंने कहा-"वत्स ! इस समय तुम्हारा आहार कैसे नहीं हुआ ? उस राजा गुणसेन का विपरीत आचरण आश्चर्यकारक है ।" अग्निशर्मा तापस ने कहा, "भगवन् ! राजा लोग प्रमादी ही होते हैं, उसका क्या दोष है ? आहार मात्र के प्रति आसक्ति का त्याग न करनेवाला मैं ही दोषी हूँ जो कि उसी के घर में प्रवेश करता हूँ । समस्त तिरस्कारों के मूल इसके प्रति भी आसक्ति को मैंने अब जीवनपर्यन्त के लिए छोड़ दिया है। अतः भगवन् ! मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ कि इस विषय में अन्यथा आज्ञा न दें।" कुलपति ने कहा, "वत्स ! यदि आहार का त्याग कर दिया तो अब आज्ञा का समय चला गया! तपस्विजन सत्यप्रतिज्ञ (प्रतिज्ञा को सत्य करने वाले) होते हैं। किन्तु तुम्हें राजा के प्रति क्रोध नहीं करना चाहिए। १. पविट्ठमासि। Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ [ समराइन्धकहा सव्वं' पुवकयाणं कम्माणं पावए फलविवागं । अवराहेसु गुणेसु य निमित्तमित्तं परो होई ॥६२॥ एयमणुसासिऊणं पडियारगे तावसे निरूविय गओ कुलवई। इओ य राइणा गुणसेणेणं तहा आयलच्छणसोक्खमणुहवंते परियणे अइक्कंताए पारणगबेलाए सुमरियं, जहा पारणय दिवसो खु अज्ज तस्स महातवस्सिस्स । अहो मे अहन्नया, न संपन्नं चेव महातवरिस्सस्स पारणयं ति तक्के मि । पुच्छिओ य ण जहासन्निहिओ परियणो। किं सो महाणुभावो तावसो अज्ज इहागओ न व ति? तओ तेण निउणं गवेसिऊणं निवेइयं -देव ! आगओ आसि, किं तु देवीपुत्तजम्मब्भुययाहिणं दिए अइपमत्ते परियणे न केणइ उवचरिओ त्ति, तओ लहुं चेव निग्गओ। राइणा भणियं-अहो मे पावपरिणई। तस्स महातवस्सिस्स धम्मंतरायकरणेणं देवीपुत्तजम्मब्भययं पि आवयं चेव समत्थेमि। सव्वहा न मंदपुण्णाणं गेहेसु वसुहारा पडंति। न य पमाय"दोससिओ अहं उदंतनिमित्तं पि से पारेमि मुहमवलोइउं। ता गच्छ, भो सोमदेवपुरोहिय ! ममा सर्व पूर्वकृतानां कर्मणां प्राप्नोति फलविपाकम् । अपराधेषु गुणेषु च निमित्तमात्रं परो भवति ॥६२॥ एवमनुशास्य प्रतिचारकान् तापसान् निरूप्य गतः कुलपतिः । इतश्च राज्ञा गुणसेनेन तथा अकालजन सौख्यमनुभवति परिजने अतिक्रान्ताया पारणकवेलायां स्मृतम्, यथा पारणकदिवसः खलु अद्य तस्य महातपस्विनः । अहो ! मम अधन्यता, न सम्पन्नमेव महातपस्विनः पारणकमिति तर्कयामि । पष्टश्चाऽनेन यथा सन्निहितः परिजन:-किं स महानुभावः तापसः अद्य इह आगतो न वा इति ? ततस्तेन निपुणं गवेषयित्वा निवेदितम्-देव ! आगत आसीत्, किन्तु देवीपुत्रजन्माभ्युदयाभिनन्दिते अतिप्रमत्ते परिजने न केनचिद् उपचरति इति, ततो लघ्वेव निर्गतः। राज्ञा-भणितम्-अहो ! मम पाप परिणतिः । तस्य महातपस्विनो धर्मान्तरायकरणेन देवीपुत्रजन्माभ्युदयमपि आपदं चैव समर्थयामि । सर्वथा न मन्दपुण्यानां गेहेषु वसुधारा: पतन्ति । न च प्रमाददोषषितः अहम्-उदन्तनिमित्तमपि तस्य पारयामि मुखमवलोकितुम्, अतो गच्छ भोः सोम सभी लोग अपने पहले किये हुए कर्मों का फल प्राप्त करते हैं । अपराधों में और गुणों में दूसरा व्यक्ति तो केवल निमित्तमात्र होता है।" ॥६२॥ ___ इस प्रकार शिक्षा देकर और परिचर्या करनेवाले तापसों को निरूपित कर कुलपति चले गये । इधर राजा गूगसेन को, भोजन का समय बीत जाने पर जबकि परिजन असामयिक उत्सव के सुख का अनुभव कर रहे थे, मास आया कि आज उस महातपस्वी का आहार करने का समय था। 'अरे मैं अधन्य हूँ। महातपस्वी ने व्रतान्त भोजन नहीं किया, ऐसा सोचता हूँ।' समीपवर्ती सेवक से उसने पूछा, "आज वे तापस महानुभाव आये या नहीं ?" तब उसने भली प्रकार पता लगाकर निवेदन किया, “देव ! आये थे, किन्तु महारानी के पुत्रजन्मरूप अभ्युदय से मानन्दित हुए अत्यन्त प्रमादी सेवकों में से किसी ने उनकी सेवा वगैरह नहीं की अतः वह शीघ्र ही निकल गये।" राजा ने कहा, "ओह ! मेरे पाप का फल । उस महातपस्वी के धर्म में विघ्न उपस्थित करने के कारण महारानी के पुत्रजन्मरूप अभ्युदय को भी आपत्ति ही मानता हूं। मन्दपुण्य वाले व्यक्तियों के घरधन की वृष्टि नहीं होती है। प्रमाद के दोष से मैं दूषित नहीं हूँ---ऐसा नहीं है । वृत्तान्त से ही उनका मुख देख न सका, अतः हे १. सब्बो, २. निमित्तमेत्तं, ३. निवेदियं । Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढौ भवो ] ३६. विन्नायपरियणभवो चेव गवेसिऊण तस्स महातवस्तिस्स वृत्तंत किं तेण ववसियं ? 'ति लहूंनिवेहि, आसंकs for मे हिययं । एवं च समाणत्तो सोमदेवपुरोहिओ गओ तवोवणं । दिट्ठो तेण बहुतवस्सिजण परिवारिओ गिरिणई' तडासन्ननिविट्ठमंडवगओ, दोहरकुसरइयसत्थरोवविट्टो, अमरिसवसाढत्तरायकहावावडो अग्गिसम्तावसो त्ति । पणमिओ विणओणयउत्तिमंगेणं सोमदेवेणं । तेणं चिय आसीसापुव्वयं' 'सागयं' ति भणिऊण 'उवविससु' त्ति आइट्ठो । उवविट्ठो सोमदेवपुरोहिओ । भणियं च णेणे - भयवं ! अइपरिवखीणदेहो लक्खिज्जसि, तार किमेयं ति ? अग्गिसम्मतावसेण भणियं - निरीहाणं अन्नओ समासाइयवित्तीणं श्रंगं चेव किसतवस्सीणं ति । सोमदेवेण भणियं - एवं एयं । निरीहा चैव तवस्सिणो हवंति, किं तु धण-धन्न- हिरण्णसुवण-मणि- मोत्तिय पवाल- दुप्पय- चउप्पएसु, न उण धम्मकाओवयारगे आहारमेत्ते वि न य ईइसा एत्थ लोया, जे तुमए वि सरिसाणं मुत्तिमग्गपवन्नाणं, अविसेससत्तुमित्ताणं, समतणमणिमुत्त कंचगाणं संसारजल हिपोयाणं आहारमेत्तं पि न देति त्ति। अग्गिसम्मतावसेण भणियं - सच्चमेयं, नः देवपुरोहित । ममाविज्ञातपरिजनभाव एव गवेषयित्वा तस्य महातपस्विनो वृत्तान्तम् 'किं तेन व्यवसितम् ?' इति लघु निवेदय, आशङ्कते इव मम हृदयम् । एवं च समाज्ञप्तः सोमदेवपुरोहितो गतस्तपोवनम् । दृष्टस्तेन बहुतपस्विजनपरिवारितः, गिरिनदीतटाऽऽसन्ननिविष्टमण्डपगतः, दीर्घकुशरचितस्रस्तरोपविष्टः, अमर्षवशाऽऽरब्ध राजकथा व्यापृतः अग्निशर्मतापस इति । प्रणतः विनयावनतोत्तमाङ्गेन सोमदेवेन । तेन एव आशी: पूर्वकम् 'स्वागतम्' इति भणित्वा 'उपविश' इति आदिष्टः । उपविष्टः सोमदेवपुरोहितः । भणितं चानेन - भगवन् ! अतिपरिक्षीणदेहो लक्ष्यसे, ततः किमेतद् इति ? अग्निशर्मतापसेन भणितम् - निरीहाणाम् । अन्यतः समासादितवृत्तीनां - अङ्गमेव कृशं तपस्विनाम् इति । सोमदेवेन भणितम् - एवमेतत् । निरीहा एव तपस्विनो भवन्ति, किन्तु धनभ धान्य- हिरण्य- सुवर्ण-मणि- मौक्तिक प्रवाल- द्विपद- चतुष्पदेषु, न पुनः धर्मकायोपकारके अहारमात्रेऽपि । न च ईदृशा अत्र लोकाः, ये युष्माकमपि सदृशानाम् मुक्तिमार्ग प्रपन्नाम्, अविशेषशत्रु मित्राणाम्) समतृणमणिमुक्ताकाञ्चनानाम्, संसारजलधिपोतानाम् आहारमात्रमपि न ददति इति। अग्निशर्म- सोमदेव पुरोहित, जाओ 'मेरे आदमी हैं' यह बिना बतलाये ही उन महातपस्वी को खोजकर उनका हाल जानकर 'उन्होंने क्या किया ?' यह शीघ्रता से निवेदन करो। मेरा हृदय आशंकित सा हो रहा है ।" इस प्रकार की आज्ञा प्राप्त हुआ वह सोमदेव पुरोहित तपोवन की ओर चला गया। उसने बहुत से तपस्विजनों से घिरे हुए, पर्वतीय नदी के तट के समीप मण्डप में स्थित, बड़ी-बड़ी कुशाओं की शैयासन पर बैठे हुए, क्रोधवश राजा द्वारा आरम् घटनाक्रम में चित्त लगाये हुए अग्निशर्मा तापस को देखा। विनय से सिर झुकाकर सोमदेव ने प्रणाम किया । उन्होंने भी आशीर्वाद देकर, 'स्वागत है' कहकर 'बैठो' ऐसा आदेश दिया । सोमदेव पुरोहित बैठ गया । पुरोहित ने कहा, "भगवन्! आपकी देह बहुत क्षीण दिखाई दे रही है, अतः यह क्या है ?" अग्निशर्मा तापस ने कहा, “जो निरभिलाषी हैं, दूसरे पर जिनकी जीविका चलती है ऐसे तपस्वियों का शरीर दुर्बल होता ही है ।" सोमदेव ने कहा, "ठीक है, तपस्विजन निरभिलाषी ही होते हैं किन्तु धन, धान्य,, सोना, चांदी, मणि, मुक्ता, मूंगा, द्विपद और चतुष्पद प्राणियों में ही तपस्वी लोग निरभिलाषी होते हैं, न कि शरीर धर्म और शरीर के उपकारक आहारमात्र में । और फिर यहाँ पर ऐसे लोग तो नहीं हैं जो मुक्तिमार्ग को प्राप्त, १. गिरिनई, २. आसीसपुव्वयं, ३. णेणं, ४. किसत्तं । Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ समराइच्चकहा एयारिसा एत्थ लोया मोत्तण नरिंदगुणसेणं ति। सोमदेवेण भणियं-भयवं ! किं कयं नरिंदगुणसेणेण ? धम्मपरो खु सो राया सुणीयइ त्ति । अग्गिसम्मतावसेण भणियं-को अन्नो अधम्मपरो, जो विणिज्जियनियमंडलो वि तवस्सिजणं पसज्झं वावाएइ त्ति। सोमदेवेण चितियं-परिकुविओ खु एसो तावसो। जहा य दीहर-कुसरइयसत्थरोवविट्रो लक्खिज्जइ, तहा नरिंदनिव्वेएणं चेवाणेण पडिवन्नमणसणं भवे। पुच्छिज्जतो य एसो असोयव्वं सामिपरिवायं गेण्हइ। ता अन्नओ चेव उवलहिय वुत्तंतं सामिणो निवेएमि त्ति। पणमिऊण तं निग्गओ सोमदेवो । पुच्छिओ य णेणं कुसकुसुमवावडग्गहत्थो, अभिसेयकामो, गिरिनइं समोयरतो तावसो । भयवं ! कि पडिवन्नं अग्गिसम्मतावसेण । तेण वि य वाहजलभरियमन्थरनयणेणं सवित्थरमाइक्खियं तयणढाणं । गओ सोमदेवो, निवेइयं च णेणं जहावलद्धं राइणो । तओ राया अहिययरजायनिव्वेओ, चिताभारनिस्सहं अंगं धरमाणो, सयलंतेउरप्पहाणपरियणपरिवरिओ पाइक्को चेव अग्गिसम्मपच्चायणनिमित्तं पयट्टो तवोवणं । संपत्तो रायहंसो व्व कलहंसियपरिवारिओ' तवोवणासन्नं तापसेन भणितम् -सत्यमेतत्, न एतादृशा अत्र लोका मुक्त्वा नरेन्द्रगुणसेनम् इति । सोमदेवेन भणितम-भगवन् ! किं कृतं नरेन्द्रगुणसेन ? धर्मपरः खलु स राजाश्रयते इति । अग्निशर्मतापसेन भणितम्-कोऽन्योऽधर्मपरः यो विनिर्जित निजमण्डलोऽपि तपस्विजनं प्रसह्य व्यापादयति इति । . सोमदेवेन चिन्तितम्--परिकुपितः खलु एष तापसः । यथा च दीर्घकुशरचितस्रस्तरोपविष्टो लक्ष्यते, तथा नरेन्द्रनिर्वेदेन एव अनेन प्रतिपन्न अनशनं भवेत् पृच्छयमानश्च एष अश्रोतव्यं स्वामिपरिवादं गृह्णाति । ततोऽन्यत एव उपलभ्य वृत्तान्तं स्वामिने निवेदयामि इति । प्रणम्य तं निर्गत: सोमदेवः । पृष्टश्च अनेन कुशकुसुम व्यापृताग्रहस्तः, अभिषेककामः गिरिनदीं समवतरन् तापसः। भगवन् ! किं प्रतिपन्नम् अग्निशर्मतापसेन ? तेनापि च वाष्पजलभृतमन्थरनयनेन सवि. स्तरम-आख्यातं तदनुष्ठानम्। गतः सोमदेवः, निवेदितं च तेन यथोपलब्धं राज्ञे। ततो राजा अधिकतरजातनिर्वेदः, चिन्ताभारनिस्सहम् अङ्गं धरन् सकलान्तपुर प्रधानपरिजनपरिवारितः पदातिरेव अग्निशर्मप्रत्यायनिमित्तं प्रवृत्तस्तपोवनम् । सम्प्राप्तो राजहंस इव कलहंसिका परिवारितः शत्रु-मित्र दोनों में समदृष्टि रखनेवाले, तृण, मणि, मुक्ता और स्वर्ण को समान रूप से देखनेवाले, संसार-सागर को पार करने के लिए जहाज के समान आप जैसों को भी आहार मात्र न दे सकें।" अग्निशर्मा तापस ने कहा, “यह सत्य है, यहां पर राजा गुणसेन को छोड़कर ऐसे लोग नहीं हैं।" सोमदेव ने कहा, "भगवन् ! गुणसेन राजा ने क्या किया? वह तो सुना जाता है बड़े धर्मपरायण हैं !" अग्निशर्मा तापस ने कहा, "उससे अधिक कौन अधामिक हो सकता है जो अपने मण्डल को जीतकर भी तपस्विजनों को जान-बूझकर पीड़ा पहुंचाता है।" - सोमदेव ने सोचा, 'यह तापस क्रुद्ध है, चूंकि बड़ी-बड़ी कुशाओं द्वारा बनाये गये बिस्तर पर यह बैठा दिखाई दे रहा है । अतः राजा के योग से दुःख के कारण इसने अनशन धारण कर लिया होगा। पूछे जाने पर यह स्वामी की न सुनने योग्य निन्दा करता है । अतः दूसरी जगह से वृत्तान्त प्राप्त कर स्वामी से निवेदन करूंगा।' अग्निशर्मा को प्रणाम कर सोमदेव निकल गया। फूल और कुश जिसके हाथ में थे, जो स्नान करने की इच्छा कर पर्वतीय नदी में उतर रहा था, ऐसे एक तापस से सोमदेव ने पूछा, "भगवन् ! अग्निशर्मा तापस ने क्या संकल्प किया ?" उसने भी आँसुओं से भरे मन्थर नेत्रों से विस्तारपूर्वक उनके अनुष्ठान को कह सुनाया। सोमदेव चला गया। उसने यथाप्राप्त (जैसा ज्ञात हुआ था) वृत्तान्त को राजा से निवेदन किया। तब राजा बहुत अधिक दुःखी हुआ। चिन्ता के भार से असहनीय अंग को धारण किये हुए, समस्त अन्तःपुर तथा प्रधान सेवकों से घिरा हुआ १. कलकलहंसियपरिवाओ। Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पठमो भवो] वित्थिण्णं गिरिनइपुलिणं। एत्थंतरम्मि य मुणियरिंदागमणेणं, पफुल्लवयणपंकएणं राइणो आगमणमग्गिसम्मतावसस्स निवेइयं मणिकुमारएणं । तओ अग्गिसम्मतावसेण कोहजलणपज्जलियसरीरेणं सद्दाविओ कुलवई, लंघिऊण जहोचियमवयारं निठुर भणिओ-भो ! भो ! न पारेमि एयस्स अकारणवेरिणो नरिंदाहमस्स मुहमवलोइउं, ताजं किंचि भणिय बाहिरओ चेव विसज्जेहि एयं । कुलवइणा चितियं- अवहरिओ खु एसो कुसाएहि। तओ जुत्तं चैव ताव पच्चग्गाकसायसियचित्तस्स नरिंददसणं परिहरिउ ति गओ नराहिवसम्मुहं थेवं भूमि कुलवई। दिट्ठो य णेण परिमिलाणदेहो सपरिवारो राया। पणमिओ य सविणयं सपरिवारेणं राइणा। अहिणंदिओ य आसीसाए कुलवइणा, भणिओ य जेण-महाराय ! एहि, एपाय चंपगवीहियाए उपविसम्ह । राइणा भणियं--'जं भयवं आणवेई' । गया चंपगवीहियं । उवविट्ठो विमलसिलानिविट्ठे कुसासणे कुलवई, पुरओ से धरणीए चेव सपरिवारो राया। तओ कुलवइणा भणियं-महाराय ! तपोवनासन्नं विस्तीर्ण गिरिनदीपुलिनम्। ___अत्रान्तरे च ज्ञातनरेन्द्राऽऽगमनेन, प्रफुल्लवदनपङ्कजेन राज्ञ आगमनम्-अग्निशर्मतापसाय निवेदितं मुनिकुमारकेण । ततोऽग्निशर्मतापसेन क्रोधज्वलनप्रज्वलितशरीरेण शब्दायितः कुलपतिः, लंधित्वा यथोचितम् उपचारं निष्ठरं भणित:-भो भो ! न पारयामि (शक्नोमि) एतस्य अकारणवैरिणो नरेन्द्राधमस्य मुखमवलोकितुम् । ततो यत् किञ्चिद् भणित्वा बहिष्ट इव विसर्जय एनम् । कुलपतिना चिन्तितम्---अपहृतः खलु एष कषायैः । ततो युक्तमेव तावत् प्रत्यग्रकषायदूषित चित्तस्य नरेन्द्रदर्शनं परिहतु मिति गतो नराधिपसम्मुखं स्तोकां भूमि कुलपतिः। दृष्टश्च तेन परिम्लानदेहः सपरिवारो राजा । प्रणतश्च सविनयं सपरिवारेण राज्ञा। अभि. नन्दितश्च आशिषा कुलपतिना, भणितश्च तेन-महाराज ! एहि, एतस्यां चम्पकवीथिकायाम उपविशामः। राज्ञा भणितम्-'यद् भगवन् आज्ञापयति' । गतः चम्पकवीथिकाम् । उपविष्ट: विमल शिलानिविष्ट कुशासने कुलपतिः, पुरतश्च तस्य धरिण्यामेव सपरिवारो राजा । ततः कुलपतिना वह पैदल ही अग्निशर्मा को आश्वस्त करने के लिए तपोवन में गया । कलहंसों से घिरे हुए राजहंस के समान उसे तपोवन के समीप विस्तृत पर्वतीय नदी का तट मिला। इसी बीच राजा के आगमन को जानकर जिसका मुखकमल खिल गया था, ऐसे मुनिकुमार ने अग्निशर्मा तापस से राजा के आने का समाचार निवेदन किया। क्रोध की ज्वाला से जिनका शरीर जल रहा था, ऐसे अग्निशर्मा तापस ने यथायोग्य आदर-सत्कार का उल्लंघन कर कुलपति को बुलाकर निष्ठुरतापूर्वक कहा, "अरे ! अरे ! अकारण वैर करनेवाले इस पापी राजा का मैं मुंह नहीं देख सकता । अतः जो कुछ भी कहकर इसको बाहर से ही विदा कर दो।" कुलपति ने विचार किया-इसका कषायों ने अपहरण कर लिया । अतः तत्काल उत्पन्न हुई कषाय से जिसका चित्त दूषित है, ऐसे इसके दर्शन से राजा को बचाना चाहिए । कुलपति थोड़ी दूर जाकर राजा के समीप पहुंचे। ___ उन्होंने कुम्हलाये हुए शरीरवाले राजा को सपरिवार देखा । राजा ने सपरिवार विनयपूर्वक प्रणाम किया। कुलपति ने आशीर्वाद देकर अभिनन्दन किया। उन्होंने कहा, “महाराज ! आइए, हम सब इस चम्पकवीथिका में बैठे।" राजा ने कहा, "जैसी महाराज की आज्ञा।" (सभी) चम्पकवीथी में गये । निर्मल शिला कुशासन पर कुलपति बैठे। उनके सामने पृथ्वी पर ही सपरिवार राजा बैठा । तब कुलपति ने कहा, "महाराज | Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ समराइच्चकहा कोस इयाणि सकलत्तपरिवारेणं अणुचियं एहमेत्तं भूमि चरणागमणमणुचिट्ठियं ? राइणा भणियंभयवं ! अणुचियकारिणो चेव अम्हे, अहवा मएजारिसाणं पुरिसाहमाणं इमं चैवोचियं जं महातवस्सिजणस्स पमायओ वावायणेण धम्मंतरायकरणं ति । ता कि एइणा अणित्वडियहिययसब्भावण' नियडीमंतिएण? भयवं ! कहिं पुण सो महाणुभावो अग्गिसम्मतावसो ? पणमामि तं, सोहेमि तस्स सणेण पावकम्मकारिणं अप्पाणं ति। कुलवइणा भणियं ! महाराय ! मा एद्दहमेत्तं संतप्पसु त्ति । ण एएण तुह निव्वेएणमणसणं कयं ति; किं तु कप्पो चेवायं तवस्सिजणस्स, जं चरिमकालम्मि अणसणविहिणा देहपरिच्चयणं ति। राइणा भणियं-भयवं ! कि बहुणा मंतिएण? पेच्छामि ताव तं महाणुभावं। कुलवइणा भणियंमहाराय ! अलमियाणि ताव तस्स दसणेण'। झाणवावडो खु सो, ता कि से अहिप्पेयकज्जंतराएणं ? गच्छ तुम नरि, पुणो कहिंचि पेक्खेज्जसु ति। तओ 'जं भयवं आणवेइ, पुणो आगच्छिस्सामि' त्ति भणिऊण अच्चंतदुम्मणो उढिओ राया, पणमिऊण कुलवइं पयट्टो नरि। भणितम्-महाराज ! कस्माद् इदानीं सकलत्रपरिवारेण अनुचितम्- एतावन्मात्रां भूमि चरणागमनम् अनुष्ठितम् ? राज्ञा भणितम्-- भगवन् ! अनुचितकारिण एव वयम्, अथवा मादृशानाम् अधमपुरुषानाम्-इदमेव उचितम्, यद् महातपस्विजनस्य प्रमादतो व्यापादनेन धर्मान्तरायकरणम् इति । ततः किमेतेन अनिर्वत्तहृदयसद्भावेन (स्वभावेन) विकृतमन्त्रितेन ? भगवन् ! कुत्र पुनः स महानुभावोऽग्निशर्मतापसः ? प्रणमामि तम्, शोधयामि तस्य दर्शनेन पापकर्मकारिणम् आत्मानम् इति । __ कुलपतिना भणितम्-महाराज ! मा एतावन्मानं सन्तप्यस्व इति । न एतेन तव निर्वेदेन अनशनं कृतम् इति; किं तु कल्प एव अयं तपस्विजनस्य यत् चरमकाले अनशनविधिना देहपरित्यजनम् इति । राज्ञा भणितम्-भगवन् ! किंबहुना मन्त्रितेन ? प्रेक्षे तावत् तं महानुभावम् ! कुलपतिना भणितम्-महाराज ! अलमिदानीं तावत् तस्य दर्शनेन । ध्यानव्यापृतः खलु सः, ततः किं तस्य अभिप्रेतकार्यान्तरेण ? गच्छ त्वं नगरीम्, पुनः कुत्रचित् प्रेक्षस्व इति । ततः यद् भगवान् आज्ञापयति, पुनरागमिष्यामि इति भणित्वा अत्यन्तदुर्मना उत्थितो राजा। प्रणम्य कुलपति प्रवृत्तो नगरीम्। स्त्री-परिवार सहित इतनी दूर पैदल आने का आपने अनुचित कार्य क्यों किया ?" राजा ने कहा, "भगवन् ! अनुचित करने वाले ही हैं हम लोग । अथवा मुझ जैसे अधमपुरुषों के लिए, जिसने प्रमाद से महान् तपस्वी व्यक्ति को पीड़ा पहुँचाकर धर्म में बाधा उपस्थित की, यही उचित है । अतः हृदय के सद्भाव को न प्रकट करने वाली (स्वभाव से) कपटवाणी से क्या लाभ ? भगवन् ! वह महानुभाव अग्निशर्मा तापस कहाँ हैं ? उन्हें प्रणाम करूँगा, उनके दर्शन से अपने पापकर्मों की शुद्धि करूँगा।" कुलपति ने कहा, "महाराज ! इतने दु:खी मत होइए। इसने आपसे दुःखी होकर अनशन नहीं किया अपितु तपस्विजनों का नियम ही है कि वे अन्तिम समय अनशन विधि से देहत्याग कर देते हैं।" राजा ने कहा, "भगवन् ! अधिक क्या कहें ? उन महानुभाव का दर्शन करना चाहूँगा।" कुलपति ने कहा, "उनका दर्शन न करें तो अच्छा । वह ध्यान में लगे हुए हैं, अतः उनके इष्ट कार्य में विघ्न करने से क्या लाभ ? आप नगर को लौट जाइए, फिर कभी आकर दर्शन कीजिए।" तब 'भगवान जैसी आज्ञा दें, पुनः आऊँगा', ऐसा कहकर अत्यन्त उदास हो राजा उठा । कुलपति को प्रणाम कर नगरी की ओर चल पड़ा। १. अणिच्चडियहिययसब्भावेण, २. दसणेण, ३. कहिचि। Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढमो भवो ] तओ एक्केणं साणुक्कोसेणं च बालतावासकुमारेणं अणुगच्छिउण थेवभूमिभायं निवेइओ से अग्गिसम्माभिप्पाओ ति, तओ राइणा चितियं-किमिह पुणागमणेणं ? जइ परं कुलवई आयासे पाडिज्जइ । ता न जुत्तं ममेह नयरे वि चिट्ठिउं, मा से महाणुभावस्त तस्स असोयव्वं पि अवरं सुणिस्सं ति । एवं चिंतयंतो पत्तो वसंतउरं। पुच्छिया गेणं संवच्छरिया 'कया अम्हाण खिइपइट्ठियगमणदियहो । परिसुज्झइ ति ? तेहिं च निच्च तक्कम्मवावडत्तणणोवलद्धसोहणदिणेहि विन्नत्तं—'महाराय ! कल्लं चैव परिसुज्झइ' त्ति । तओ राइणा समाणत्तो परियणो 'पयट्टहं लहुं कल्लं ति तओ बिइयदियहे महया चडयरेण निग्गओ राया। अणवरयपयाणएहिं च पत्तो मासमेत्तण कालेण खिइपइठ्ठयं । तओ ऊसियविचित्तके उनिवहं, विविहकयट्टसोह, सोहियत पुप्फोवयाररायमग्गं, धवलियपासायमालोवसोहियं, महाविभूईए पविट्ठो नयरं, तत्थ वि य तोरणमिम्मियवंदणमालं, सविसेससंपाइयमहोवयारं सव्वओभई नाम पासायं । तत्थ य तम्मि चेव दियहे आगओ मासकप्पविहारेण अहासंजमं विहरंतो सीसगणसंपुरिवुडो तत एकेन सानुक्रोशेन च बालतापसकुमारेण अनुगम्य स्तोकभूमिभागं निवेदितस्तस्य अग्निशर्माभिप्राय इति। ततो राज्ञा चिन्तितम्-किमिह पुनरागमनेन ? यदि परं कुलपतिः आयासे पात्यते । ततो न युक्तं मम इह नगरे अपि स्थातुम्, अथ मा महानुभावस्य तस्य अश्रोतव्यमपि अपरं श्रोष्यामि इति एवं चिन्तयन प्राप्तो वसन्तपरम। पष्टाश्च तेन सांवत्सरिकाः 'कदा अस्माकं क्षितिप्रतिष्ठितगमनदिवसः परिशुध्यति इति ? तैश्च नित्यं तत्कर्मव्यापतत्वेन उपलब्धशोभनदिनः विज्ञप्तम् ----'महाराज ! कल्यमेव परिशुध्यति' इति । ततो राज्ञा समाज्ञप्तः परिजनः 'प्रवर्तध्वं लघुकल्यम्' इति । ततो द्वितीयदिवसे महता चटकरेण निर्गतो राजा। अनवरत प्रयाणैश्च प्राप्तो मासमात्रेण कालेन क्षितिप्रतिष्ठितम् । तत उच्छितविचित्रकेतुनिवहम्, विविधकृतहट्टशोभम्, शोभितसपुष्पोपचारराजमार्गम्, धवलितप्रासादमालोपशोभितम्, महीविभूत्या प्रविष्टो नगरम् । तत्रापि च तोरणनिर्मितवन्दनमालम्, सविशेषसम्पादितमहोपचारम्, सर्वतोभद्रं नाम प्रासादम्।। तत्र च तस्मिश्चैव दिवसे आगतः मासकल्पविहारेण यथासंयम विहरन् शिष्यगणसम्परिवृतः तब एक बालक तपस्वीकुमार ने दयायुक्त होकर, थोड़ी दूर आकर अग्निशर्मा का अभिप्राय निवेदन किया। अनन्तर राजा ने विचार किया-यहाँ पुनः आने से क्या लाभ ? यदि कुलपति भी विपत्ति में पड़ते हों। अब मेरा इस नगर में रहना ठीक नहीं । उन महानुभाव के विषय में कुछ न सुनने योग्य बात सुनने को न मिले । इस प्रकार विचार करते हुए वह राजा वसन्तपुर आया। उसने ज्योतिषियों से पूछा, "हमारा क्षितिप्रतिष्ठित नगर जाने का दिन कब शोधित होता है !" नित्य ही उस कार्य में लगे हुए उन ज्योतिषियों ने शुभ दिन प्राप्त कर राजा से निवेदन किया, "महाराज ! कल ही (अच्छा दिन) शोभित होता है।" तब राजा ने सेवकों आदि को आज्ञा दी, "कल शीघ्र ही चल देंगे।" तब दूसरे दिन बड़े समूह के साथ राजा निकला । निरन्तर एक मास गमन करते हुए क्षितिप्रतिष्ठित नगर पहुँचा। तब महान् विभूति से नगर में प्रविष्ट हुआ । उस समय नाना प्रकार की ध्वजाओं का समूह फहरा रहा था, तरह-तरह से बाजार की शोभा की गयी थी, फूलों से सड़क सजायी गयी थी तथा वह धवल प्रासादों की पंक्तियों से शोभित था। उस नगर में भी जहाँ तोरणों पर वन्दनमालाएँ लगायी गयी थीं तथा विशेष रूप से बड़ी सजावट की गयी थी, ऐसे सर्वतोभद्र नामक प्रासाद में पहुंचे। वहाँ पर उसी दिन विजयसेन नामक आचार्य आये थे। वे एक मास विहार करने का नियम लिये हुए, Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ [ समराइच्चकहा संपुण्णदुवालसंगी, ओहिमणनाणाइसंयजुत्तो, सव्वंगसुंदराहिरामो, पढमजोव्वणसिरीसमद्धासियसरीरो भंडणमिव वसुमईए, आणंदो व्व सयलजणलोयणाणं, पच्चाएसो व्व धम्मनिरयाणं निलओ व्व परमधन्नयाए, ठाणमिव आदेयभावस्स, कुलहरं पिव खंतीए, आगरो इव गुणरयणाणं, विवागसव्वस्समिव कुसलकम्मस्स, महामहंतनिववंससंभूओ विजयसेगो नाम आयरिओ त्ति । सो य असोयदत्तसेट्टिपडिबद्धे' जिणाययणमंडिए अणुन्नविय ओग्गहं ठिओ असोयवणुज्जाणे । __ जत्थ नीइबलिया विव नरवई दुल्लहविवरा सहयारा, परकलत्तदसणभीया विव सप्पुरिसा अहोमुहट्ठिया वावीतडपायवा विणिवडियसप्पुरिचिताओ विव अडालविडालाओ अइमुत्तयलयाओ, दरिदकामिहिययाई विव समंतओ, आउलार्ड' लयाहराई, विसयपसत्ता विव पासंडिणो न सोहंति लिबहायवा, नववरगा विव कुसुभरत्तनिवसणा विरायंति रत्तासोया। किं बहुणा ? जत्थ मणोरहा विव जीवलोयस्स बहुवुतंता उज्जाणपायवा। तहा हिमगिरिसिहराइं विव उत्तुंगधवलाई जिणायसम्पूर्णद्वादशाङ्गी अवधि-मनोज्ञानातिशययुक्तः, सर्वाङ्गसुन्दराभिरामः, प्रथमयौवनश्रीसमध्यासितशरीरः, मण्डनमिव वसुमत्याः, आनन्द इव सकल जनलोचनानाम्, प्रत्यादेश इव धर्मनिरतानाम्,निलय इव परमधन्यतायाः, स्थानमिव आदेयभावस्य, कुलगृहमिव क्षान्त्याः , आकर इव गुणरत्नानाम्, विपाकसर्वस्वमिव कुशलकर्मणः, महामहानपवंशसम्भूतो विजयसेनो नाम आचार्य इति । स च अशोकदत्तश्रेष्ठिप्रतिबद्धे जिनायतनमण्डिते अनुज्ञाप्य अवग्रहं स्थितः अशोकवनोद्याने। यत्र नीतिबलिता इव नरपतयो, दुर्लभविवराः सहकाराः परकलत्रदर्शनभीता इव सत्पुरुषाः अधोमुखस्थिता वापीतटपादपाः, विनिपतित सत्पुरुषचिन्ता इव अतालविताला अतिमुक्तकलताः, दरिद्रकामहृदयानि इव समन्तत आकुलानि लतागृहाणि, विषयप्रसक्ता इव पाखण्डिनो न शोभन्ते निम्बपादपाः, नबवरका इव कुसुम्भरक्तनिवसना विराजन्ते रक्ताऽशोकाः । कि बहुना ? यत्र मनोरथा इव जीवलोकस्य बहुवृत्तान्ता उद्यानपादपाः तथा हिमगिरिशिखराणि इव उत्तुङ्ग शिष्यों के समूह से घिरे हुए तथा सम्पूर्ण द्वादशांग, वाणी और अवधिज्ञान एवं मनःपर्ययज्ञान के अतिशय से युक्त थे । उनका सारा शरीर सुन्दर और अभिराम था, कुमारावस्था रूपी लक्ष्मी से अधिष्ठित था। मानो वे पृथ्वी के आभरण, समस्त मनुष्यों के नेत्रों के आनन्द, धर्म में रत लोगों के लिए उदाहरण, परमधन्यता के आगार, ग्रहण करने योग्य भाव के स्थान, सहिष्णुता के कुलगृह गुणरूपी रत्नों के खजाने और शुभकर्मों के सम्पूर्ण फल थे। उनका जन्म बहुत बड़े राजवंश में हुआ था। वह अशोक दत्त सेठ के द्वारा बनवाये हुए जिनायतन से मण्डित 'अशोकवन' नामक उद्यान में अनुमति प्राप्त कर ठहरे हुए थे। जहाँ राजा मानो नीति के बल से युक्त थे । आमों में छिद्र दुर्लभ थे । (वहाँ के) सत्पुरुष परायी स्त्री से भयभीत ह ए के समान थे । बावड़ी के किनारे के वृक्ष नीचे मुख किये हुए स्थित थे। अतिमुक्तक लताएँ सत्पुरुष की गिरी हुई चिन्ता के समान शाखाओं से रहित थी अर्थात् जिस प्रकार सत्पुरुष चिन्ता-विमुक्त होते हैं उसी प्रकार अतिमुक्तक (माधवी) लताएँ शाखाओं से रहित थीं । निर्धन कामी व्यक्ति के हृदय के समान लतागृह चारों ओर से व्याप्त थे। विषयों में फंसे हुए पाखण्डियों के समान नीम के वृक्ष शोभित नहीं होते थे। लाल अशोकवृक्ष नवेली वधू के समान कुसुम्भी रंग के लाल वस्त्र धारण किये हुए शोभायमान हो रहे थे । अधिक कहने से क्या, जहाँ उद्यान के वृक्ष सांसारिक प्राणियों के मनोरथ के समान बहुवृत्तान्त से युक्त थे तथा जहाँ के जिनालय हिमालय १. पडिबद्ध। २. आउलाई । Jairt Education International Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढमो भवो ] बहुफा भूमिमाए अहासंजम सो भयवं चरणकरणनिरओ परिवसइ । ओ राइणा गुणणं अत्याइयागएवं पुच्छ्यिं । केन मे अज्ज इह अच्छेरयभूयं किंचि वत्थु दिट्ठ ति ? तओ उवलद्धविजयसेणायरिएण पणमिऊण रायाणं भणियं कल्लाणएणं - महाराय ! दिट्ठ मए अच्छेरयं । राइणा भणियं -कहेहि, किं तयं ति ? कल्लाणएण भणियं - इह असोगदत्तसेपिविद्धे असोयवणुज्जाणे सयलदट्ठव्वदंसणमहूसवो लावण्णजोण्हापवाहपम्हलियच उद्दिसाभोओ, सयल कलासंगओ विय मयलच्छणो, पढमजोव्वणत्थो वि वियाररहिओ, विणिज्जियकुसुमबाणो वि तव सिरिनिरओ, परिचत्तसव्वसंगो वि सबलजणोवयारी, मुत्तिमंतो विव भयवं धम्मो दिट्ठो मए गंधार जणवयाहिवस्स समरसेणस्स नत्तुओ, लच्छिसेणस्स पुत्तो पडिवन्नसमणलिंगो विजयसेणो नाम आयरिओ त्ति । ४५ तओ राइणा भणियं - अहो ! तुमं कयपुण्णो, पावियं तए फलं लोयणाणं । अहं पि णं भयवंतं मोत्तूणमंतरायं सुए वंदिस्सामिति । अइक्कंताए रयणीए कयसयलगोसकिच्चो राया गओ धवलानि जिनायतनानि । तत्र च बहुप्रासुके भूमिभागे यथा संयमं स भगवान् चरणकरण-निरतः परिवसति । इतश्च राजा गुणसेनेन आस्थानिकागतेन पृष्टम् । केन भवता अद्य इह आश्चर्यभूतं किंचिद् वस्तु दृष्टम् - इति । तत उपलब्धविजयसेनाचार्येण प्रणम्य राजानं भणितं कल्याणकेन - महाराज ! दृष्टं मया आश्चर्यकम् । राज्ञा भणितम् -- कथय, किं तत इति ? कल्याणकेन भणितम् - इह अशोकदत्त - श्रेष्ठप्रतिबद्धे, अशोकवनोद्याने, सकलद्रष्टव्यदर्शनमहोत्सवः, लावण्य ज्योत्स्नाप्रवाहपक्ष्मलितचतुर्दिशायोगः सकलकलासङ्गत इव मृगलाञ्छन:, प्रथमयौवनस्थोऽपि विकाररहितः, विनिर्जितकुसुमबाणोऽपि तपःश्रोनिरतः, परित्यक्तसर्वसङ्गोऽपि सकलजनोपकारी, मूर्तिमान इव भगवान् धर्मः दृष्टो या गान्धारजन पदाधिपस्य समरसेनस्य नप्तृकः, लक्ष्मोसेनस्य पुत्रः प्रतिपन्नश्रमणलिङ्गो विजयसेनो नाम आचार्य इति । ततो राज्ञा भणितम् - अहो त्वं कृतपुण्यः, प्राप्तं त्वया फलं लोचनानाम् । अहमपि तं भगवन्तं मुक्त्वा अन्तरायं श्वो वन्दिष्ये इति । अतिक्रान्तायां रजन्यां कृतसकलगोसकृत्यः राजा के शिखरों के समान ऊंचे और सफेद थे, वहाँ पर बहुत प्रासुक भूमि में वे भगवान यथासंयम चारित्र में रत रहते हुए प्रवास करने लगे । इधर राजा गुणसेन ने राजसभा ( गोष्ठी मण्डप) में आये हुए व्यक्ति से पूछा, "आपमें से किसी ने आज तक यहाँ कोई आश्चर्यजनक वस्तु देखी है ?" तब विजयसेन आचार्य महाराज का दर्शन किये हुए कल्याणक ने राजा को प्रणाम कर कहा, "महाराज ! मैंने एक आश्चर्य देखा है ।" राजा ने कहा, "कहो, वह क्या है?" कल्याणक ने कहा, "यहाँ अशोकदत्त सेठ के द्वारा बनवाये हुए अशोकवन नामक उद्यान में गान्धार देश के स्वामी, समरसेन के नाती, लक्ष्मीसेन के पुत्र आचार्य विजयसेन को, जिन्होंने श्रमणदीक्षा धारण की है, मैंने देखा है । वे समस्त दर्शनीय वस्तुओं में नेत्रों के महोत्सव के समान हैं, लावण्यरूपी चाँदनी के प्रवाह से चारों दिशाओं के विस्तार को उन्होंने सफेद-सफेद कर दिया है । वे समस्त कलाओं से युक्त चन्द्रमा हैं । कुमारावस्था होने पर भी विकाररहित हैं, तपरूप लक्ष्मी में रत रहते हुए उन्होंने कामदेव को भी जीत लिया है । समस्त आसक्ति का त्याग करने पर भी सभी मनुष्यों के उपकारी हैं तथा वे मानो शरीरधारी भगवान् धर्म ही हैं । तब राजा ने कहा, "अरे ! तुमने पुण्य किया है, तुमने नेत्रों के फल को प्राप्त कर लिया है । मैं भी समस्त Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ [ समराइच्चकहा तमुज्जाणं दिट्टो य ण अणेयसमणपरियरिओ, संपुष्णसारयससि व तारयणपरिवुडो' विजयसेणायरिओ। तओ हरिसुन्भिन्नपुलएण, आणंदवाहजलभरियलोयणेणं, धरणिनिहित्तजाणुकरयलेण सविणयं पणमिओ अणेण । दिन्नो य से गुरुणा वि सारीरसाणमाणेगदुक्खविउडणो, सासयसिवसोक्खतरुवीयभूओ धम्मलाभो त्ति। तओ अट्टारससीलंगसहस्सभरवहे, सिद्धिवहूनिभराणुरायसमागर्माचतादुब्बले सेससाहुणो वंदिऊण उवविट्टो गुरुसमीवे । विम्हिओ य तस्स रूवचरिएहि । भणियं व णेण-भयवं कि ते सयलसंपुण्ण मणोहरस्सावि ईइसं निव्वेयकारणं? जेण इओ तओ ससंभमनिवडतनरिंदमउलिमणिप्पभाविसरविच्छुरियपायवीढं रायच्छि उज्झिय इमं ईइस इहलोयनिप्पिवासं वयविसेसं पडिवन्नो सि त्ति । विजयसेणेण भणियं-महाराय ! संसारम्मि वि निव्वेयकारणं पुच्छसि ? नणु सुलहमेत्थ निव्वयकारणं । सुण नारयतिरियनरामरभवेसु हिंडंतयाण जीवाणं । जम्मजरामरणभए मोतूण किमत्थि किंचि सुहं ॥६३॥ गतः तद् उद्यानम् । दृष्टश्च तेन अनेकधमणपरिकरितः सम्पूर्णशारदशशी इव तारजन (गणे) परिवृतः विजयसेनाचार्यः । ततो हर्षोभिन्नपुलकेन आनन्दवाष्पजलभृतलोचनेन धरणिनिक्षिप्तजानुकरतलेन सविनयं प्रणतोऽनेन । दत्तश्च तस्मै गुरुणाऽपि शारीरमासानेकदुःखविकुटनः, शाश्वतशिवसोख्यतरुबीजभूतः धर्मलाभ इति । "ततः अष्टादशशीलाङ्गसहस्रभारवहान, सिद्धिवधूनिर्भराऽनुरागसमागमचिन्तादुर्बलान् शेषसाधन वन्दित्वा उपविष्ट: गुरुसमीपे । विस्मितश्च तस्य रूपचरितैः । भणितं च तेन -भगवन् ! कि तव सकलसम्पूर्णमनोरथस्याऽपि ईदृशं निर्वेदकारणम् ? येन इतस्ततः ससम्भ्रमनिपतन्नरेन्द्रमौलिमणिप्रभा-विस रविच्छरितपादपीठां राजलक्ष्मी त्यवत्वा इदम्-ईदृशम्-इहलोकनिष्पिपासंव्रतविशेष प्रतिपन्नोऽसि इति । विजयसेनेन भणितम्-महाराज ! संसारेऽपि निर्वेदकारणं पृच्छसि । ननु सुलभमत्र निर्वेदकारणम् । शृणु _ नारक-तिर्यग्-नराऽमरभवेषु हिण्डमानानां जीवानाम् । जन्म-जरा-मरणभयानि मुक्त्वा किमस्ति किंचित् सुखम् ? ॥६३॥ विघ्न बाधाओं से निवृत्त होकर कल उनकी वन्दना करूंगा।" रात्रि बीत जाने पर समस्त प्रातःकालिक क्रियाओं को कर, राजा उस उद्यान में गया। उसने तारागणों से घिरे हुए शरत्कालीन पूर्ण चन्द्रमा के समान अनेक मुनियों से घिरे हुए विजयसेनाचार्य को देखा । उसने धरती पर घुटने और हथेलियां लगाकर उन्हें सविनय प्रणाम किया। उस समय हर्ष से रोमाञ्च हो रहा था, आनन्द स उसके नेत्रों में आँसू भर आये थे। गुरु ने भी उसे शारीरिक तथा मानसिक अनेक दुःखों को नष्ट करनेवाले शाश्वत सुखरूप वक्ष का बीजभत धर्मलाभ दिया। तब अठारह हजार शील के भेदों का भार वहन करने वाले, मोक्षरूपी वधू के प्रति अत्यधिक प्रेम के कारण उसकी प्राप्ति की चिन्ता से दुर्बल शेष साधुओं की वन्दना करके वह गुरु के समीप बैठ गया। उनके रूप और चरित्र से उसे विस्मय हुआ । उसने कहा, "भगवन् ! सम्पूर्ण मनोभिलाषाओं को पूर्ण करने की सामर्थ्य वाले होते हुए भी विरक्ति का क्या कारण है जिससे इधर-उधर बिखरकर पड़े हुए राजमुकुटों के मणियों की प्रभा के विस्तार से जिसका सिंहासन (पीढ़ा) छुआ गया है ऐसी राज्यलक्ष्मी को छोड़कर यह इस प्रकार का इस लोक की पिपासा से रहित, व्रत विशेष को प्राप्त हुए हो?" विजयसेन ने कहा, "महाराज ! संसार में भी विरक्ति १. तारा, तारयगण। २. संपाडिय। Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढमो भवो] कि अस्थि नारगो वा तिरिओमणुओ सुरो व संसारे। सो कोइ जस्स जम्मणमरणाइं न होंति पावाइं ॥६४॥ तेहि गहियाणा य कहं होइ रई हरिणतणयाणं व। कूडयपडियाण दढं वाहेहि विलुप्पमाणाणं ॥६५॥ सवेसि सत्ताणं खणियं पि हु दुक्खमेत्तपडियारं। जा न करेइ नणु सुहं लच्छी को तीए पडिवंधो ॥६६॥ केण ममेत्थुप्पत्ती कहिं इओ तह पुणो वि गंतव्वं । जो एत्तियं पि चिन्तेइ एत्थ सो को न निविण्णो ॥६७॥ अन्नं च एत्थ महाराय ! महासमुद्दमज्झगयं रयणमिव चितामणिसन्निभं दुल्लभं माणुसतणं, तहा खरपवणचालियकुसग्ग जलबिदुचंचलं जीवियं, कुवियभुयंगभीसणफणाजालसन्निहाय कामभोगा, सारयजलहरकामिणीकडक्खगयकण्णविज्जुचंचला य रिद्धि अकयसुहतवच्चरणाणं च दारुणो तिरियनारएसु विवागो त्ति । अवि य किमस्ति नारको वा तिर्यङ- मनुजः सुरो वा संसारे। स कोऽपि यस्य जनन-मरणानि न भवन्ति पापानि ॥६४॥ तैग हीतानां च कथं भवति रतिर्हरिणतनयानामिव । कूटकपतितानां दृढं व्याधैविलुप्यमानानाम् ॥६५॥ सर्वेषां सत्त्वानां क्षणिकमपि खलु दुःखमात्रप्रतोकारम् । या न करोति ननु सुखं लक्ष्मी: कस्तस्यां प्रतिबन्धः ॥६६॥ केन ममात्रोत्पत्तिः कुत्र इतस्तथा पुनरपि गन्तव्यम् । य एतावद् अपि चिन्तयति अत्र स को न निविण्णः ॥६७॥ अन्यच्च-अत्र महाराज ! महासमुद्रमध्यगतं रत्नमिव चिन्तामणिसन्निभं दुर्लभं मनुष्यत्वम्, तथा खरपवनचालितकुशाग्रजलबिन्दुचञ्चलं जीवितम् ,कुपितभुजङ्गभीषण फणाजालसन्निभाश्च कामभोगाः, शारदजलधर-कामिनी-कटाक्ष-गजकर्ण-विद्युच्चञ्चला च ऋद्धिः अकृतशुभतपश्चरणानां च दारुणः तिर्यग् नारकेषु विपाक इति । अपि चका कारण पूछते हो ? निश्चित रूप से यहाँ पर विरक्ति का कारण सुलभ है । सुनो - नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देवगति में भ्रमण करते हुए जीवों को जन्म, जरा और मरण के भय को छोड़कर (अन्य) क्या कुछ भी सुख है ? संसार में नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव में से ऐसा कौन है जिसके पापरूप जन्म, मरण न हुए हो । जन्म-मरणादि से गृहीत जीवों की संसार में आसक्ति (प्रवृत्ति) वैसी ही होती है जैसे बहेलियों द्वारा जाल में पड़े और अत्यधिक रूप से नष्ट किये जाते हुए हिरण के बच्चों की होती है। निश्चित रूप से सभी प्राणियों का दु:ख का प्रतिकार क्षणिक है। जो लक्ष्मी सुख नहीं देती उसके प्रति प्रेम से क्या लाभ ? मेरी यहाँ उत्पत्ति किस कारण से हुई और यहाँ से पुनः कहाँ जाऊँगा? जो ऐसा विचार करता है वह कौन यहाँ विरक्त नहीं होगा? ॥६३-६७॥ और फिर महाराज ! महान् समुद्र के मध्य में पड़े हुए चिन्तामणि रत्न के समान मनुष्य-भव कठिन है। तीक्ष्ण पवन द्वारा कम्पित तण के अग्रभाग के जलबिन्दु के समान चंचल है यह जीवन । कामभोग क्रुद्ध होकर फण फैलाये हुए नाग के समान भयंकर है। ऋद्धि शरत्कालीन मेघ, कामिनी के कटाक्ष, हाथी के कान तथा बिजली के समान (चंचल) है। शुभ तपश्चरण न करनेवालों के कर्मों का भयंकर परिपाक तिर्यंच और नरकगतियों (के रूप) में होता है। और भी, Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ समराइच्चकहा भयरोग-सोग-पियविप्पओगबहुदुक्खजलणपज्जलिए। नडपेच्छणयसमाणे संसारे को धिइं कुणइ ॥६॥ सइ सासयम्मि ठाणे तस्सोवाए य परममुणिभणिए। एगंतसाहगे सुपुरिसाण जत्तो तहि जुत्तो॥६६॥ एवं च, महाराय ! संसारो चेव मे निव्वयकारणं। तहवि पुण निमित्तमेत्तमेयं संजायं ति । सुण-अत्थि इहेव विजए गंधारो नाम जणवओ, तत्थ गंधारपुरं नाम नयरं। तन्निवासी अहं तत्थेव चिट्ठामि । मित्तो य मे वीयहिययभूओ सोमवसुपुरोहियपुत्तो विहावसू नाम । सो य कहंचि आयंकपीडियदेहो विणिज्जियसुरासुरेण मच्चुणा मम समक्खमेव पंचत्तमवणीओ! तओ अहं तन्विओयाणलजलियमाणसो चिट्ठामि । जाव आगया अहासंजमविहारेणं विहरमाणा' वासावासनिमित्तं चत्तारि साहुणो, ठिया य नयराओ नाइदूरे महामहंताए गिरिगुहाए। सिट्ठा य मे अइपिय' त्ति करिय निययपुरिसेहिं । गओ अहं सिग्घमेव ते वंदिउं । दिट्ठा य तत्थ भयरोगशोकप्रियविप्रयोगबहदुःखज्वलनप्रज्वलिते । नट प्रेक्षणकसमाने संसारे को धुति करोति ॥६॥ सदा शाश्वते स्थाने तस्योपाये च परममुनिभणिते । एकान्तसाधके सुपुरुषाणां यत्नस्तत्र युक्तः ॥६६॥ एवं च, महाराज ! संसार एव मम निर्वेदकारणम् । तथापि पुननिमित्त-मात्रमेतत् संजातमिति । शृण-अस्ति इहैव विजये गान्धारो नाम जनपदः, तत्र गान्धारपुरं नाम नगरम् । तन्निवासो अहं तत्रैव तिष्ठामि । मित्रं च मम द्वितीयहृदयभतः सोमवसु पुरोहितपुत्रो विभावसु म । स च कथंचिद् आतङ्क पीडितदेहः विनिजितसुरासुरेण मृत्युना मम समक्षमेव पञ्चत्वमुपनीतः । ततोऽहं तद्वियोगानलज्वलितमानसस्तिष्ठामि, यावद् आगता यथासंयमविहारेण विहरन्तो वर्षाऽऽवासनिमित्तं चत्वारः साधवः, स्थिताश्च नगराद् नाऽतिदूरे महामहत्यां गिरिगुहायाम् ।। शिष्टाश्च मम 'अतिप्रियाः' इति कृत्वा निजकपुरुषैः। गतोऽहं शीघ्रमेव तान् वन्दितुम् । भय, रोग, शोक, प्रिय वियोग जैसी अत्यधिक दुःखरूपी अग्नि जिसमें प्रज्वलित हो रही है और जो नट के खेल के समान है, ऐसे संसार के विषय में कौन धैर्य धारण करता है ? सदा शाश्वत स्थान और उसकी प्राप्ति का उपाय एकान्त में साधना करनेवाले उत्तम मुनियों ने बताया है, उसके लिए सत्पुरुषों का प्रयत्न उचित ही है। ॥६८-६६॥ ___ इस प्रकार, हे महाराज, संसार ही मेरे लिए विरक्ति का कारण है । फिर भी यह निमित्त मात्र हो गया। सुनो-इसी देश में गान्धार नाम का जनपद है। उसमें गान्धारपूर नाम का नगर है। उसका निवासी मैं वहीं रहता था। मेरे दूसरे हृदय के समान सोमवसु पुरोहित का पुत्र विभावसु मेरा मित्र था। उसका शरीर किसी कारण ज्वररोग से पीड़ित हो गया। सुर और असुर को भी जिसने जीत लिया है ऐसी मृत्यु के द्वारा वह मेरा मित्र मेरे ही समक्ष पंचत्व को प्राप्त हो गया । तब मैं उसकी वियोगरूपी अग्नि में जलते हुए मन वाला बना रहता था। तभी संयमानुसार विहार करते हुए वर्षावास के लिए चार साधु आये और नगर के समीप में ही महामहती नामक पर्वतीय गुफा में ठहर गये। मेरे लिए अतिप्रिय मानकर स्वकीय लोगों ने मुझे बतलाया । मैं शीघ्र ही उनकी वन्दना के लिए गया। १. विहरमाणो। | Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढमो भयो ! भयवंतो सज्झायवावडा, वंदिया पहट्टवयणपंकएण, अहिणंदिओ भयवंतेहिं धम्मलाहेण । पुच्छिया म अहाविहारं । अणुसासिओ भयवंतेहिं । तओ ते मुणी कंचि वेलं पज्जुवासिय पचिट्ठो नयरं । ते य भयवंतो सव्वकालमेव वासावासे मासोववासेणं जयंति त्ति । उवलद्धं मए सम्मत्तं । पवड्ढमाणसड्ढस्स य पइदिणं सेवमाणस्स मे अइक्कंता चत्तारि मासा । चरिमरयणीए जाया महं चिंता । कल्लं खु ते महातवस्सी गच्छिस्संति । तओ अहं अद्धजामावसेसाए रयणीए निग्गओ भयवंतदंसणनिमित्तं नयराओ । गओ य थेवं भूमिभागं, जाव पर्यालिया वसुमई, गज्जियं गंधारगिरिणा पवाइओ सुरहिमारुओ, उज्जोवियं नहंगणं, वित्थरिओ जयजयारवो । तओ अहं अब्भहियजायहरिसो तुरियं तुरियं पत्थिओ जाव पेच्छामि गंधारगिरिगुहासमीवे, अवहरियं तणाइयं, समीकयं धरणिवट्ठ, पवुट्ठ गंधोदयं, उवडण्णा पुष्फोवयारा, निर्वाडया देवसंघाया थुति भयवंते साहूणो । अहो ! मे सुलद्धं माणुसत्तणं खविया रागादओ, पराजिय' ૪૨ दृष्टाश्च तत्र भगवन्तः स्वाध्यव्यापृताः वन्दिताः प्रहृष्टवदनपङ्कजेन । अभिनन्दितो भगवद्भिः धर्मलाभेन । पृष्टा मया यथाविहारम् । अनुशासितो भगवद्भिः । ततस्तान् मुनीन् कांचिद् वेलां पर्युपास्य प्रविष्टो नगरम् । ते च भगवन्तः सर्वकालमेव वर्षावासे मासोपवासेन यतन्ते इति उपलब्धं मया सम्यक्त्वम् । प्रवर्द्धमानश्रद्धस्य च प्रतिदिनं सेवमानस्य मम अतिक्रान्ताश्चत्वारो मासाः । चरमरजन्यां जाता मम चिन्ता । कल्यं खलु ते महातपस्विनः गमिष्यन्ति । ततोऽहं अर्धय । मावशेषायां रजन्यां निर्गतो भगवद्दर्शननिमित्तं नगराद् । गतश्च स्तोकं भूमिभागम्, यावत् प्रचलिता वसुमतिः, गर्जितं गान्धारगिरिणा प्रवाहितः सुरभिमारुतः, उद्योतितं नभोऽङ्गणं, विस्तरितो जयजयारवः । ततोऽहम् - अभ्यधिकजातहर्षः त्वरितं त्वरितं प्रस्थितो यावत् प्रेक्षे गान्धारगिरि-गुहासमीपे, अपहृतं तृणादिकम्, समीकृतं धरणिपृष्टम्, प्रवृष्टं गन्धोदकम् उपकीर्णाः पुष्पोपचाराः, निपतिता देवसंघाताः स्तुवन्ति भगवत साधून् । अहो भवद्भिः सुलब्धं मनुष्यत्वम्, क्षपिता रागादयः, पराजितं वहाँ पर स्वाध्याय में लगे हुए उन मुनियों के दर्शन किये । हर्ष से कमल की तरह प्रसन्न होकर मैंने उनकी वन्दना की। मुनियों ने धर्मलाभ देकर अभिनन्दन किया । मैंने उनसे मार्ग पूछा । मुनियों ने उपदेश दिया । तब उन मुनियों की कुछ समय तक उपासना कर मैं नगर में प्रविष्ट हुआ। वे भगवन्त वर्षावास में मासोपवास का यत्न करते थे अतः मुझे उन पर श्रद्धा हो गयी। मेरी श्रद्धा बढ़ती गयी। उनकी प्रतिदिन सेवा करते हुए चार माह व्यतीत हो गये । रात्रि के अन्तिम प्रहर में मुझे चिन्ता हुई । वे महातपस्वी कल विहार कर जायेंगे । अतः जब रात्रि का आधा पहर ही शेष रह गया, तब मैं भगवद् दर्शन के निमित्त नगर से निकला। कुछ ही दूर गया था कि पृथ्वी प्रकम्पित हो उठी । गान्धारगिरि ने गर्जन किया । सुगन्धित वायु चलने लगी । आकाशरूपी आँगन प्रकाशित हो उठा तथा 'जय जय' शब्द फैलने लगा । तब अत्यधिक आनन्दित होकर मैं जल्दी-जल्दी चलने लगा । तब मैंने गान्धार गुफा के समीप देखा कि तृणादिक दूर कर दिये गये हैं, धरातल समतल बना दिया गया है गन्धोदक की वर्षा हो रही है, फूलों के समूह बिखेर दिये गये हैं तथा स्वर्गलोक से उतरे हुए देवों के संघ पूज्य साधुओं की स्तुति कर रहे हैं । अहो ! आपन श्रेष्ठ मनुष्य जन्म पाया है, रागादिक को नष्ट कर दिया है, कर्मरूपी सेना को पराजित कर दिया है, संसाररूपी १. पराजियं । Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० समराइच्चकहा ] कम्ससेन्नं, तिष्णो भवसमुद्दो, पाविया सासयसिवसुहसिद्धि ति। तओ मए चितियं-आविम्भूयं नणमेएसि केवलं, मुक्का जाइजरामरणदुक्खवासस्स । एत्यंतरम्मि दिट्ठा मए केवलपहावओ च्चिय रयणमयसीहासणोवविट्ठा, विणियट्टभवपवंचा, पसंतचित्तवावारा, केवलसिरीसमद्धासियसरीरा, मत्तिमंता विव गुणगणा भयवंतो साहूणो ति । तओ मए चितियं-न एत्थ संदेहो, संपुण्णमेव एएसिं केवलनाणं ति। तओ आणंदबालजलभरियलोयणेणं, रोमंचपुलइयंगणं विम्हयवसुप्फुल्ललोयणेणं, धरणिनिमियजाणुकरयलेणं तहाविह अच्चंतसोहणं, अणाचिक्खणीयं अवत्थंतरमणहवंतेण वंदिया मए वंदिऊण य उवविठ्ठो तेसिं पुरओ। पत्थुया केवलिणा कहा। पयत्ता पुच्छिउ' हियइच्छ्यिं देवनरगणा। तओ मए चितिय--कि पुणो अहमेए भयवंते पुच्छामि ? जाव आवडिओ हिययसल्लभूओ चित्तम्मि मे विहावस । तओ मए चितिय-'अह कहिं पुण मे मित्तो विहावस उप्पन्नो हाउ एय पुच्छामि त्ति चितिऊण पुच्छिओ मए भयवं केवली। भयवं ! अत्थि इओ कोइ कालो पंचत्तमुवकर्मसैन्यम्, तीर्णः भवसमुद्रः, प्राप्ता शाश्वतशिवसुखसिद्धिरिति । ततो मया चिन्तितम्-आविर्भूतं ननमेतेषां केवलम्, मुक्ता जाति-जरा-मरणदुःखवासस्य (वासात्) । अत्रान्तरे दृष्टा मया केवलप्रभावत: एव रत्नमयसिंहासनोपविष्टाः, विनिवृत्तभवप्रपञ्चाः, प्रशान्तचित्तव्यापाराः, केवलश्रीसमुद्धातिशयशरीराः, मतिमन्त इव गुणगणा भगवन्तः साधव इति । ततो मया चिन्तितम्-न अत्र सन्देहः, सम्पर्णमेव एतेषां केवलज्ञानमिति । तत आनन्दवाष्पजलभृतलोचनेन, रोमाञ्चपुलकिताङ्गेन, विस्मयवशोत्फल्ललोचनेन, धरणिनिमितजानुकरतलेन, तथाविधम् अत्यन्तशोभनम् अनाख्यानीयम् अवस्थान्तरमनुभवता वदिन्ता मया, वन्दित्वा च उपविष्टस्तेषां पुरतः। प्रस्तुता केवलिना कथा । प्रवृत्ताः प्रष्टुं हृदयेष्टं देवनरगणाः । - ततो मया चिन्तितम-किं पुनरहम् एतान् भगवतः पृच्छामि? यावद् आपत्तितो हृदयशल्यभतश्चित्ते मम विभावसः । ततो मया चिन्तितम् 'अथ कुत्र पुनर्मम मित्रं विभावसु उत्पन्नो भवेत् एतत् पच्छामि इति चिन्तयित्वा पृष्टो मया भगवान् केवली। भगवन् ! अस्ति इत कश्चित् कालः पञ्चत्वसमट को आपने पार कर लिया है और शाश्वत मोक्षसुख की सिद्धि को प्राप्त कर लिया है। तब मैंने विचार किया-निश्चित रूप से इनको केवलज्ञान उत्पन्न हुआ है। ये जन्म-जरा-मरणरूप दु:ख के निवास से मुक्त हो गये हैं। इसी बीच मैंने भगवन्त साधुओं को देखा । केवलज्ञान के प्रभाव से वे रत्नमय सिंहासन पर बैठे थे। स पी जंजाल से वे अलग हो गये थे। उनके चित्त के व्यापार शान्त थे। केवलज्ञानरूपी लक्ष्मी की समद्धि के अतिशय से युक्त उनके शरीर थे और वे मानो गुणों के समूह की मूर्ति थे। तब मैंने विचार किया-इसमें कोई सन्देह नहीं कि इनका केवलज्ञान सम्पूर्ण है । तब मैंने घुटनों और हथेलियों को धरती से लगाकर उनकी वन्दना की। उस समय आनन्द से उत्पन्न आँसुओं से मेरे नेत्र भरे हुए थे, रोमांच से अंग पुलकित हो रहा था, आश्चर्य के कारण मेरे नेत्र फैले हुए थे, उस प्रकार की अत्यन्त शोभनीय अनिर्वचनीय अवस्था का मैं अनुभव कर वन्दना करके उनके समक्ष बैठ गया। केवली ने कथा प्रस्तुत की। देव और मनुष्य अपने हृदय की इष्ट कथा पूछने में प्रवृत्त ए। तब मैंने विचार किया-इन भगवान् से मैं क्या पूछू ! तभी मेरे चित्त में हृदय का शल्यभूत विभावसु आया। तब मैंने विचार किया- 'मेरा विभावसु कहाँ उत्पन्न हुआ होगा, यह पूछता हूँ।' ऐसा सोचकर मैंने भगवान् केवली से पूछा-'यहां से कुछ समय पहले मेरा मित्र मृत्यु को प्राप्त हो गया । वह कहाँ पर उत्पन्न हुआ होगा ? इस १. पुच्छिउं, २. चितियं, ३. भयवंतो, ४. एयं । Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पठमो भवो ] ५१ यस मे मित्तस्स । ता कहिं सो उवबन्नो ? किं वा संपयमवत्थतरमणुहवइ' ? किं वा मम मुणियपरमत्थमग्गस्स वि तव्विओयाणल जणियसतावो चित्तम्मि नोवसमं जाइ ति ? केवलिणा भणियं -- सुण, अत्थि इहेव गंधारपुरे नयरे ऊसइन्नो नाम वत्थसोहगो । तस्स पंगा नाम गेहसुनिया । तीसे गन्भम्मि सुणओ उववन्नोति । सोय अइकढिणरज्जुसंदामिओ भुक्खा परिमिला गदेहो, सोहणिया कुंडनिडवती रासह बुरप्पहारभोओ इहेव संपथं दारुणमवत्थंतर मणुहवइ । जम्मंतरम्मि यं पुक्खरद्धभर हकुसुमपुर निवासिणो ते कुसुमसारसन्नियस्स सेट्ठित्तस्स सिरिकंताभिहाणा अच्चतवल्लहा पत्ती आसित्ति । तयब्भासओ य ते तव्विओयाणलजणिय संतावो चित्तम्मि नोवसमं जाइ । तओ मए एयं सोऊणं संजायनिव्वेएणं तन्नेहमोहियमणेण य तस्स पडिमोक्खणनिमित्तं पेसिया ऊसदिन्नवत्थसोहगगिहं निययपुरिसा, भणिया य, तं लहुं मोयाविय विइष्णपाणभोयणं गिव्हिय starगच्छ 'ति । तओ गया ते पुरिसा, सिग्धं च संपाडियं मज्झ सासणं इमेहि, आगया य तं मुद्गतस्य मम मित्रस्य । ततः कुत्र स उपपन्नः ? किं वा साम्प्रतमवस्थान्तरमनुभवति ? किं वा मम ज्ञातपरमार्थमार्गस्य अपि तद्वियोगानलजनितसन्तापः चित्ते नोपशमं याति ? इति । केवलिना भणितम् - शृणु, अस्ति इहैव गान्धारपुरे नगरे पुष्यदत्तो नाम वस्त्रशोधकः । तस्य मधुपिङ्गा नाम गेहनी । तस्या गर्भे शुनकः उपपन्न इति ! स च अतिकठिन रज्जुसन्दामितः बुभुक्षा परिम्लानदेहः शोधनिका कुण्डनिकटवर्ती, रासभक्षुरप्रहारभीतः इहैव साम्प्रतं दारुणमवस्थान्तरमनुभवति । जन्मान्तरे च पुष्करार्द्धभरतकुसुमपुर निवासिनस्तव कुसुमसारसंज्ञितस्य श्रेष्ठपुत्रस्य श्रीकान्ताभिधाना अत्यन्त वल्लभी पत्नी आसीदिति । तदभ्यासतश्च तव तद्वियोगानलजनितसन्तापः चित्ते नोपशमं याति । ततो मया एतत् श्रुत्वा सञ्जातनिर्वेदेन तत्स्नेहमोहित मनसा च तस्य प्रतिमोक्षणनिमित्तं प्रेषिताः पुष्यदत्तवस्त्रशोधकगृहं निजकपुरुषाः, भणिताश्च तं लघु मोचयित्वा वितीर्णपानभोजनं गृहीत्वा इहैव आगच्छत इति । ततो गतास्ते पुरुषाः, शीघ्र च सम्पादितं मम शासनम् - एभिः समय वह कौन-सी दूसरी पर्याय का अनुभव कर रहा है ? क्या कारण है कि परमार्थ को जानते हुए भी उसके वियोग की अग्नि से उत्पन्न दुःख मेरे चित्त में शान्त नहीं हो रहा है ?' केवली ने कहा, 'सुनो ! इसी गान्धारपुर में पुष्यदत्त नाम का धोबी है, उसकी मधुपिङ्गा नामक पालतू कुतिया है। उसके गर्भ में कुत्ते के रूप में उत्पन्न हुआ है । वह अत्यन्त कठोर रस्सी से बँधा हुआ, भूख से दुर्बल शरीरवाला, धोबिन के कुण्ड के पास, गधे के खुर के प्रहार से भयभीत हुआ, इस समय यही दारुण अवस्था का अनुभव कर रहा है । जन्मान्तर में पुष्करार्ध क्षेत्र के भरत खण्ड की कुसुमपुर नगरी में निवास करने वाले कुसुम - सार नाम वाले श्रेष्ठपुत्र (आप) की श्रीकान्ता नाम की अत्यन्त प्रिय पत्नी ( विभावसु का जीव ) थी । उसके अभ्यास से आपके चित्त में वियोग रूपी अग्नि से उत्पन्न दुःख शान्त नहीं हो रहा है ।' यह सुनकर मुझे विरक्ति हुई । उसके प्रति स्नेह से मोहित मनवाला होने के कारण उसे छुड़ाने के लिए पुष्पदत्त धोबी के घर अपने आदमी भेजे। उनसे कहा, 'उसे शीघ्र ही छुड़ाकर, भोजनपान देकर यहीं ले आओ ।' तब वे लोग गये और मेरी आज्ञा को उन्होंने शीघ्र ही सम्पादित किया तथा उसे लेकर वे आ गये । पिस्सू जैसे १. अनुहव । Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ [ समराइच्चकहा गीहिउं । दि यसो मए विसुयास प्रगहियतणुरुहो । कीडानियर संपाइयखयंकिओ, अइखीणसरीरो, ससंतचलीरजोहाकरालो, धवलविहाविज्ज माणदंसणवली, मंदमंदं परिसवक्कमाणो नाइओ चेल सुणओत्ति । जाओ य मे तं तहाविहं दट्ठूण महंतो संवेगो । चितियं च मएअहो ! दारुणो संसारवासो । एवंविहावसाणाणि एत्थ जीवाणं पेम्मविलसियाइ । एत्थं तरम्मिच पत्ता मम समीवं सह तेण ते पुरिसा । नवेइओ तेहि - 'देव ! एस सो सुणओ' त्ति । तओ सो मं दट्ठूण पयलंतदीहलंगुलो, वाहजलभरियलोयणो, उग्गीवमवयालियाणणो किंपि तहाविहं अणाचिक्खणीयं अवत्थंतरं पाविऊणमारसिउमाढत्तो । तओ मए पुच्छिओ केवली - भयवं ! किमेयं त्ति ? तेण भणियं दुरंतपुव्वभवन्भासओ पओ त्ति । मए भणियं - भयवं ! किमेस मं पञ्चहियाणइ ? भगवया भणियं- - न विसेसओ, किं तु सामन्नआत्ति । ईइसो चेव एस संसारसहावो त्ति, जम्मणंतर भवभत्था भावणा अणाभोगओ वि कंचि कालं अणुवत्तइति । तओ मए भणियंभयवं ! अह कस्स कम्मस्स एस विवागो ? भयवया भणियं - जाइमयमाणजणियस्स । मए भणियंआगतश्च तं गृहीत्वा । दृष्टश्च स मया पिशुका - क्षुद्रजन्तु - शतगृहीततनुरुहः, कीटनिकरसम्पादित क्षताङ्कित, अतिक्षीणशरीरः श्वसच्चलमा तजिह्वाकरालः, धवलविभाव्यमानदशनावलिः, मन्दमन्दं परिशक्नुवन् नातिदूरत एव शुनक इति । जातश्च मम तं तथाविधं दृष्ट्वा महान् संवेगः । चिन्तितं च मया - अहो दारुणः संसारवासः । एवंविधावसानानि अत्र जीवानां प्रेमविलसितानि । 1 अत्रान्तरे च प्राप्ता मम समीपं सह तेन ते पुरुषाः । निवेदितः तैः - देव ! एष शुनकः इति । ततः स मां दृष्ट्वा प्रचलदीर्घनाङ्गुलः वापजलभृतलोचनः, उद्ग्रीवमवचालिताननः किमपि तथाविधम् अनाख्यनीयमवस्थान्तरं प्राप्य आरसितुमारब्धीः । ततो मया पृष्टः केवली - भगवन् ! किमेतत् ? इति । तेन भणितम् - दुरन्तपूर्वभवाऽभ्यासतः प्रणय इति । मया भणितम् - भगवन् ! किमेष मां प्रत्यभिजानाति ? भगवता भणितम् न विशेषतः, किन्तु सामान्यत इति । ईदृश एव एष संसारस्वभाव इति जन्मान्तर-भवाभ्यस्ताः भावना अनभोगतोऽपि कंचित् कालम् अनुवर्तते इति । ततो मया भणितम् - भगवन् ! अथ कस्य कर्मणः एष विपाकः ? भगवता भणितम् - जातिमदमानजनितस्य ( कर्मणः) । मया भणितम् भगवन् ! कोऽपि च अनेन मानः कृत ? इति । भगवता भणितम् - छोटे-छोटे सैकड़ों जन्तुओं से युक्त बालोंवाले, कीड़ों के समूह द्वारा किये हुए घाव से युक्त, अत्यन्त दुर्बल शरीर वाले, श्वास से जिसकी भयंकर जीभ चल रही थी, जिसके दाँतों की पंक्ति सफेद दिखाई पड़ रही थी, धीरे-धीरे चलते हुए ऐसे कुत्ते को कुछ ही समीप से मैंने देखा । उसे उस स्थिति में देखकर मुझे बहुत वैराग्य हो गया । मैंने सोचा - अहो ! संसार वास बहुत कष्टकर है । जीवों की प्रेम चेष्टाओं की समाप्ति इस प्रकार होती है । इसी बीच उसके साथ वे लोग मेरे समीप आ गये। उन्होंने निवेदन किया- "देव ! वह कुत्ता यही है । " तब उसने मुझे देखकर लम्बी पूँछ हिलायी, नेत्रों में आंसू भरे, गर्दन उठाकर मुँह को चलाया, कुछ इस प्रकार की अनिर्वचनीय अवस्था को पाकर शब्द करना शुरू किया। तब मैंने केवली से पूछा, "भगवन् ! यह क्या है ?" उन्होंने कहा, ' कठिनाई से अन्त होने वाले पूर्व भव के अभ्यास से यह प्रेम दिखला रहा है ।" मैंने कहा, "भगवन् ! क्या यह मुझे पहचानता है ?" मगवान् ने कहा, "विशेष रूप से नहीं, किन्तु सामान्य रूप से पहचानता है । इस संसार का स्वभाव ऐसा ही है । जन्म-जन्मान्तरों में अभ्यास की हुई भावना भोग में न आने की स्थिति में भी कुछ समय तक अनुसरण करती है ।" तब मैंने पूछा, "भगवन् ! यह किस कर्म का फल है ?" भगवान् ने कहा, "जाति के मदरूपी मान से उत्पन्न कर्म का फल है ।" मैंने कहा, "इसने क्या मान किया ?" भगवान् ने कहा, "सुनो, इसी पिछले १. दंसणावली । Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढमो भवो] १३ भयवं ! को वि याणेण माणो कओ त्ति ? भयवया भणियं---सुण, एत्थ चेवाणंतरजम्मे पवत्ते मयणमहूसवे, निग्गयासु विचित्तवेसासु, नपरचच्चरोसु तरुणजणवंदपरिगएण बहुजणपसंसणिज्जं वसंतकीलमणुह वंतेण दिट्ठा समासन्नचारिणी वत्थसोहगचच्चरि त्ति। दळूण य अन्नाणदोसेणं जाइकुलाइ गविएणं 'कहं नीयच्चरी अम्हाण चच्चरी { समासन्नं परिव्वयइ' त्ति कयत्थिया वत्थसोहगा । पहाणो त्ति करिथ दढयरं कयत्थिऊण संजमिथसव्वगत्तो नेयाविओ चारय ऊसदिन्नो। एत्थंतरम्मि गरुपमाणपरिणामवत्तिणा बद्धं परभवाउं । निवत्ते य मयणमहसवे नयरलोएण मोयाविओ ऊसदिन्नो । एसो यं तक्कम्मपरिणाभवसओ मरिऊण एत्थ उववन्नो त्ति । तओ मए चितियं-अहो ! अप्पसुहं नियाणं बहुदुक्खफलं, धिगत्थु संसारजासस । ता पुच्छामि भयवंतं 'किंपज्जवसाणमेयं नियाणं? किं वा एस भविओ अभविओ वा ? सिद्धिगामी असिद्धिगामी संपत्तबीओ वा न वा ! त्ति चितिऊण पुच्छ्यिं मए। तओ भयवया भणियं । सुण, जंपज्जवसाणमेयं नियाणं। इओ सुणयभवाओ एस अहाउयं शृण, अत्र चैव अनन्तर जन्मनि प्रवृत्ते मदनमहोत्सवे, निर्गतासु विचित्र वेश्यासु नगरचत्वरीष तरुणजनवृन्दपरिगतेन बहुजनप्रशंसनीयां वसन्तक्रीडां अनुभवता दृष्टा समासन्नचारिणी वस्त्रशोधकचत्वरी इति । दृष्ट्वा अज्ञानदोषेण जातिकुलादिगवितेन कथं नीचचत्वरी अस्माकं चत्वर्यां समासन्न परिव्रजति' इति कथिता वस्त्रशोधकाः। प्रधानं इति कृत्वा दृढतरं कदर्थयित्वा संयमित (बद्ध)-सर्वगात्रः नायितश्चारकैः पुष्यदत्तः । अत्रान्तरे गरुकमानपरिणामवतिना बद्धं परमवायुष्कम् । निवृत्ते मदनमहोत्सवे नगरलोकेन मोचितः पुष्यदत्तः । एष च तत्कर्मपरिणामवशत: मृत्वा अत्र उपपन्न इति । ततो मया चिन्तितम्- अहो ! अल्पसुखं निदानं बहुदुःखफनम्, धिगस्तु संसारवासम् । ततः पृच्छामि भगवन्तम् 'किं पर्यवसानमेतद् निदानम् ? किं वा एष भव्यः अभव्यो वा ? सिद्धिगामी असिद्धिगामी सम्प्राप्तबीजो वा न वा ?' इति चिन्तयित्वा पृष्टं मया। ततो भगवता भणितम्-शृणु, यत्पर्यवसानमेतद् निदानम् । इतः शुनकभवाद् एष यथायुष्क जन्म में मदनमहोत्सव आने पर जब नाना देशवासी (या नाना वेश्याओं) तथा तरुण लोगों से युक्त नगर की संगीत मण्डलियाँ निकल रही थीं तब अनेक लोगों के द्वारा प्रशंसनीय वसन्तक्रीडा का अनुभव करते हुए समीप में ही चलने वाली धोबियों की मण्डली दिखाई दी। ___ उसे देखकर अज्ञानदोष से जाति.कुलादि से गवित होकर, 'नीच लोगों की संगीत मण्डली हमारी मण्डली के साथ-साथ कैसे चल रही है ?' इस प्रकार धोबियों का तिरस्कार किया । पुष्यदत्त को प्रधान मानकर, सिपाही उसका तिरस्कार कर और पूरा शरीर बांधकर ले गये। इसी बीच अत्यधिक मानरूप परिणाम के वशवर्ती हो उसने दूसरे जन्म की आयु बाँध ली। मदनमहोत्सव सम्पन्न हो जाने पर लोगों ने पुष्यदत्त को छुड़ाया । यह उस कर्म के परिणामवश मरकर यहाँ उत्पन्न हुआ है।" तब मैंने विचार किया-अहो! अल्प सुख का कारण तथा बहुत दुःखरूप फल से युक्त संसारवास को धिक्कार ! अब मैं भगवान् से पूछता हूँ कि इसका यह निदान कब नष्ट होगा ? अथवा यह भव्य है या अभव्य ? सिद्धि को प्राप्त करनेवाला है या सिद्धि को प्राप्त नहीं करने वाला है ? धर्मरूप बीज की इसे प्राप्ति होगी या नहीं ? ऐसा विचार कर मैंने पूछा। तब भगवान् ने कहा, 'सुनो, यह कि इसका निदान (कारण रूप संसार) समाप्त होगा। आयु पूरी कर इस १. सुह, २. कुजवलाइ, ३. वत्ते। Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ समराइच्चकहाँ पालिऊण उव्वट्ठो समाणो इमस्स चेव ऊस दिन्नस्स गेहपसूयाए घोडघडिगाभिहाणाए रासहीए गन्मम्मि रासहत्ताए उववज्जहि त्ति। तओ य निगओ समाणो ऊसदिन्नस्स अमणोरमो, किलेससंपावियसरीरवित्ती, गरुयलारुन्वहणपरिखेइयसरोरो, जोवियसमयं चिटूऊण मओ समाणो ऊसदिन्नसंगयस्स चेव माइदिन्नसन्नियस्स चंडालस्स अणहिंगाभिहाणाए भारियाए कुच्छिसि नपुंसगत्ताए उववज्जिहि ति । तओ य निक्खंतो समाणो कुरूवदोहग्गकलंकदूसिओ, अपरिन्ना'यविसयसंगो, कंचि कालं नपंसगत्ताए जीविऊण सोहविणिबाइयसरीरो देहं पमोत्तूण तीसे चेव चंडालमहिलियाए कुच्छिसि इत्थिगत्ताए उववज्जिहि त्ति । तओ विणिग्गयमेत्तो चेव पमसबालभाववत्ती भुयंगडक्को मरिऊण ऊसदिन्नस्स चेव गब्भ दासीए दत्तियाभिहाणाए कच्छिसि नपुंसगत्ताए उववज्जिहि त्ति। तओ विणिग्गओ समाणो जच्चंधमडहखुज्जो सबलोयपरिभूओ कंचि कालं नपुंसगत्तं परिवालिऊण पयत्त नयरडाहे किसाणुणा छारीकयसरीरो पंचत्तमुवगच्छिऊण तीसे चेव गन्भदासीए' कुच्छिसि इत्थियत्ताए उववज्जिहि ति । समुप्पन्नो प पीढसप्पो भविस्सइ ति । तओ एत्थेव नयरे रायमग्गेण गच्छंतो वियरिएण मतहत्थिणा वावाइयो समाणो इमस्स चेव ऊसदिन्नस्स पालयित्वा उदवृत्तः सन् अस्यैव पुष्यदत्तस्य गृहप्रसूताया घाटघटिकाभिधानाया रासभ्या गर्भे रासभतया उत्पस्यते (उपपत्स्यते) इति । ततश्च निर्गत सन् पुष्यदत्तस्य अमनोरमः क्लेशसम्प्रापितशरीरवत्तिः गुरुकभारोद्वहनपरिखेदितशरीरः जीवितसमयं स्थित्वा मृतः सन् पुष्यदत्तसंगतस्यैव मातृदत्तसंज्ञितस्य चाण्डालस्य अनधिकाभिधानाया भार्यायाः कुक्षौ नपुंसकतया उत्पत्स्यते इति । ततश्चनिष्क्रान्तः सन् कुरूपदौर्भाग्यकलङ्कदूषितः अपरिज्ञातेविषयसंगः, कंचित् कालं नपुंसकतया जीवित्वा सिंहविनिपातितशरीरो देहं प्रमुच्य तस्या एव चाण्डाल महिलाया: कुक्षौ स्त्रीतया उत्पत्स्यते इति । ततो विनिर्गतमात्र एव प्रथमबालभाववर्ती भुजङ्गदष्टः मृत्वा पुष्य दत्तस्य एव गर्भदास्याः (प्रसूतिकर्मकारिण्याः गृहदास्या वा) दत्तिकाभिधानायाः कुक्षौ नपुसकतया उत्पत्स्यत इति । - ततो विनिर्गतः सन् जात्यन्धलघुकुब्जः सर्वलोकपरिभूतः कंचित् कालं नपुसकत्वं परिपाल्य प्रवृत्ते नगरदाहे कृशानुना भस्मीकृतशरीरः पञ्चत्वमुपगम्य तस्या एव गर्भदास्याः कुक्षौ स्त्रीतया उपपत्स्यत इति । समुत्पन्नश्च पीठसी भविष्यति इति । ततोऽत्रैव नगरे राजमार्ग गच्छन्ता विदप्तेन मत्तहस्तिना व्यापादिता सती अस्यैव पुष्यदत्तस्य कालाञ्जनिकाभिधानाया भार्यायाः कुक्षी स्त्रीकुत्ते के भव से निकलकर इसी पुष्यदत्त के घर में प्रसूत घोट घटिका नाम की गधी के गर्भ से गधे के रूप में उत्पन्न होगा। वह पुष्यदत्त के घर असुन्दर, क्लेश से भरणपोषण पानेवाला, भारी भार से थके हुए शरी जीवित हते हए भी मतक के समान रहेगा। वहां से निकलकर पुष्यदत्त के ही समीपवती मातदत्त नामक चाण्डाल की अनधिका नामक भार्या की कोख से नपुंसक के रूप में उत्पन्न होगा। गर्भ से निकलकर कुरूपता रूपी दुर्भाग्य के कलंक से दषित होकर विषयासक्ति का अनुभव न करनेवाला वह कुछ समय तक नपुंसक के रूप में जीकर, सिंह के द्वारा मरण प्राप्त कर शरीर छोड़, उसी चाण्डाल स्त्री के गर्भ में स्त्री पर्याय में (लड़की के रूप में) उत्पन्न होगा। वहाँ गर्भ से निकलते ही बाल्यावस्था के प्रथम चरण में सर्प के द्वारा काटने पर मरा हुआ वह पुष्यदत्त की ही दत्तिका नामक गर्भदासी (प्रसूति कम करने वालो अथवा गृहदासी) की कोख से नपुंसक रूप से उत्पन्न होगा। गर्भ से निकलकर जन्म से अन्धा, बौना, कुबड़ा, समस्त लोगों से अपमानित हुआ कुछ समय तक नपुंसक पर्याय में रहकर, नगरदाह होने पर अग्नि से शरीर भस्म हान पर, मरण प्राप्त कर उसी गर्भ स्त्री के रूप में जन्म लेगा । उत्पन्न होकर वह पीठ से सरकनेवाली (लँगड़ी) हो जायेगी । तब इसी नगर में राजमार्ग पर जाते हुए गर्व से युक्त मतवाले हाथी द्वारा मारी जाकर इसी पुष्यदत्त की कालानिका नामक स्त्री १. अपरिपाय, २. इत्थियत्ताए, ३, गिह, ४. पयत्ते, ५. गिहदासीए, ६. रायमग्गे, ७. गच्छ, ८. वावाइया, ९. समाणी। Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढमो भवो] कालंजणियाभिहाणाए भारियाए कुच्छिसि इत्थिगत्ताए' उवव िहि ति। जाया समाणी कमेण संपत्तजोव्वणा । दिन्ना य ऊसदिन्नेण ऊसरक्खियाभिहाणस्स अच्चतदारिद्दाभिभूयस्स । इत्थिया कयपाणिग्गहणा आवन्नसत्ता होऊण पसूइसमए चेव महावेदणाहिभूया कालं काऊण सजणणीए चेव उत्तत्ताए उववज्जिहि त्ति । समुप्पन्नो' यसो बालभावे चेव गंधारनिन्नगातोरम्मि खेल्लमाणो ऊसदिन्नसत्तणा चिलायनामेण 'रिउपुत्तो' ति गिहिऊण सिरोहरानिबद्धगरुयसिलायलो दहम्मि परिक्खिप्पहिइ । एयपज्जवसाणमेयं नियाणं । भविओ य एओ सिद्धिगामी य केवलमसंपत्त बीओ त्ति। तओ मए भणियं-भयवं! हि पणो सो जलमरणाणं रं उववज्जिहिइ ति? कया वा वीयसंपत्ती मुत्तिसंपत्ति य भविस्सइ ? भगव्या भणियंसुण, जलमरणातरं वाणमंतरेसु उववज्जिहि ति । तओ तम्मि चेव जम्मे आणंदतित्थयर समीवे सासयसुहकप्पपायवेकबीयं सम्मत्तं पाविहिइ। तओ चउगइसमावन्नो संखेज्जेसु समइथिएसु भवग्गहणेसु इहेव गंधारजणवए पाविऊण नरवइत्तणं, अमरतेयविज्जाहरसमणगणिसमीवे पवज्जिऊण पव्वज्ज संपत्तकेवलो मुत्ति पाविसइ ति। तओ ममेयं सोऊण तया उत्पत्स्यत इति । जाता सती क्रमेण सम्प्राप्तयौवना । दत्ता च पुष्यदत्तेन पुण्यरक्षिताभिधानस्य अत्यन्तदारिद्र याभिभूतस्य । स्त्री कृतपाणिग्रहणा आपन्नसत्त्वा भूत्वा प्रसूतिसमये एव महावेदनाऽभिभूतकालं कृत्वा स्वजनन्या एव पुत्रतया उत्पत्स्यत इति । उपपन्नश्च स बालभावे एव गान्धारनिम्नगातीरे खेलन् पुष्यदत्तशत्रुणा चिलात (किरात)-माम्ना 'रिपुपुत्रः' इति गृहीतशिरोधरा निबद्धगुरुकशिलातलः द्रहे परिक्षेपयिष्यते । एतत्पर्यवसानमेतद् निदानम् । भव्यश्च एष सिद्धिगामी च, केवलम्-असम्प्राप्तबीजः-असम्यक्त्व इति । ततो मया भणितम-भगवन् ! कुत्र पुनः स जलमरणानन्तरम् उपपत्स्यते ? इति, कदा व बीज (सम्यक्त्व) सम्प्राप्तिः, मुक्तिसम्प्राप्तिश्च भविष्यति ? भगवता भणितम्-शृणु, जलमरणानन्तरं वानव्यन्तरेष उपपत्स्यते इति । ततः तस्मिन एव जन्मनि आनन्दतीर्थंकरसमीपे शाश्वतसखकल्पपादपैकबीजं सम्यक्त्वं प्राप्स्यति । तत: चतुर्गतिसमापन्नः संख्येयेषु समतिगतेषु भवग्रहणेषु, इहैव गान्धारजनपदे प्राप्य नरपतित्वम्, अमरतेजोविद्याधरश्रमणगणिसमीपे प्रपद्य प्रव्रज्याम् सम्प्राप्तकेवल: मुक्ति के गर्भ में कन्या के रूप में उत्पन्न होगी । उत्पन्न होकर क्रम से यौवनावस्था को प्राप्त होगी । पुष्यदत्त उसे पुष्यरक्षित नामक अत्यन्त निर्धन पुरुष को देगा। पाणिग्रहण के बाद गर्भवती होकर, तीव्र बेदना से अभिभूत हो मत्य को प्राप्त कर, अपनी माता के ही पुत्र के रूप में उत्पन्न होगी। उत्पन्न होकर बाल्यावस्था में गान्धार नदी के किनारे खेलता हुआ वह पुन: पुष्यदत्त के चिलात (किरात) नामक शत्रु द्वारा 'शत्रु का पुत्र है' ऐसा मानकर गर्दन पकड़कर, बहुत बड़ी शिला बांधकर तालाब में फेंक दिया जायेगा। इसके निदान की यह समाप्ति है । यह भव्य और मोक्षगामी है । साथ ही असम्प्राप्त-बीज और असम्यक्त्वी है।" तब मैंने कहा, "भगवन् ! यह जल से मरण के बाद कहाँ उत्पन्न होगा? अथवा सम्यक्त्व रूपी बीज की प्राप्ति कब होगी? और कब मक्ति प्राप्त करेगा?" भगवान ने कहा, "सुनो, जल से मरण होने के बाद वानव्यन्तरों (देवविशेषों) में उत्पन्न होगा । तब उसी जन्म में आनन्द तीर्थंकर के समीप शाश्वत सुख रूप कल्पवृक्ष के एकमात्र बीज सम्यक्त्व को प्राप्त करेगा। तब चारों गतियों में संख्यात भव ग्रहण कर इसी गान्धार जनपद में राजा होगा और अमरतेज नामक उत्तम मूनि के समीप दीक्षा लेकर केवलज्ञान प्राप्त कर मुक्ति प्राप्त करेगा।" यह १. इत्यित्ताए, २, उववन्नो , ३. एसो, ४. समइच्छिएसु । Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ समराइचकहा जाओ संवेओ, नियत्ता भायाचरगाओ मई। तओ अन्णुनविय जणणिजणए, काऊण जहोचियं करणिज्जं, निक्खंतो सुगहीयनामधेयस्स भगवओ इंददत्तगणहरस्स समीवे । ता एयं मे मिन्वयकारणं ति। गुणसेणेण भणियं-भयवं ! कयत्थो सि, सोहेणं निव्वेयकारणं । जं पुण इमं भणियमासि । जहा सइ सासयम्मि ठाणे तस्सोवाए य परममुणिभणिए । एगंतसाहए सुपुरिसाण जत्तो तहिं जुत्तो ति ॥७॥ अह किं पुण तं सासयं ठाणं, को वा तस्स साहओ उवाओ ति? विजयसेणेण भणियंमहाराय ! सासयं ठाणं' नाम, जत्थ पाणिणो अट्टविहकम्ममलकलंक विप्पमुक्का, जम्म-जरा-मरणरोय-सोयाइउवद्दवरहिया, निरुवमनाणदंसणसुहभाइणो, अणंतं आयामिदीहमुद्धं कालं चिट्ठति । तं पुण सयलाइसयरयणायरेहि, तेलोक्कबंधवेहि, सुरासुरपूइएहि सव्वन्नूहि भणियं । इमस्स प्राप्स्यति इति । ततो मम एतत् श्रुत्वा जातः संवेगः, निवृत्ता भवचारकाद् मतिः । ततोऽनुज्ञाप्य जननी-जनकान् कृत्वा, यथोचितं करणीयम्, निष्क्रान्तः सुगहीतनामधेयस्य भगवतः इन्द्रदत्तगणधरस्य समीपे । तत एतद् मम निर्वेदकारणम् इति । गुणसेनेन भणितम्-'भगवन् ! कृतार्थोऽसि शोभनं निर्वेदकारणम् । यद् पुनः इदं भणितमासीत् ? यथा सति शाश्वते स्थाने तस्योपाये च परममूनिभणिते। एकान्तसाधके सुपुरुषाणां यत्नस्तत्र युक्तः ॥७०॥ अथ किं पुनः तत् शाश्वतं स्थानम्, को वा तस्य साधक उपाय ? इति । विजयसेनेन भणितम् - 'महाराज ! शाश्वतं स्थानं नाम, यत्र प्राणिनः अष्टविधकर्ममलकलङ्कविप्रमुक्ताः, जन्मजरा-मरण-रोगशोकाद्युपद्रवरहिताः, निरुपम-ज्ञान-दर्शनसुखभाजिनः अनन्तं आगामि दीर्घोध्वं कालं तिष्ठन्ति । तत् पुनः सकलातिशयरत्नाकरैः त्रैलोक्यबान्धवैः, सुरासुरपूजितैः सर्वज्ञैः भणितम् । अस्य एव सुनकर मुझे वैराग्य उत्पन्न हुआ। संसाररूपी कारागार से छूटने की बुद्धि हुई । तब यथायोग्य कार्य कर, मातापिता से अनुमति लेकर सुगहीत नामवाले भगवान् इन्द्रदत्त गणधर के समीप दीक्षित हो गया। तो यह है मेरी विरक्ति का कारण ।" गुणसेन ने कहा, "भगवन् ! कृतार्थ हों, विरक्ति का कारण ठीक है । पुनः जो यह कहा था कि शाश्वत स्थान-मोक्ष तथा उसे निश्चित रूप से प्राप्त करने वाले महामुनियों द्वारा कहे गये उपाय को साधने में सत्पुरुषों का प्रयत्न उचित है । ॥७०।। यह शाश्वत स्थान क्या है ? उसका साधक उपाय क्या है ?" विजयसेन ने कहा, “महाराज ! शाश्वत स्थान वह है जहाँ प्राणी आठ प्रकार के कर्मरूपी मल के कलंक से मुक्त, जन्म-जरा-मरण-रोग-शोक आदि उपद्रवों से रहित और अनुपम ज्ञान-दर्शन-सुख के भागी होकर अनन्त आगामी दीर्घ काल तक निवास करते हैं। उसके विषय में समस्त अतिशयों के समुद्र, तीनों लोकों के बन्धु, सुर और असुरों से पूजित सर्वज्ञों ने कहा १.थासं । Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढमो भवो ] चेव चोट्स रज्जूरियस्स खेत्तलोगस्स चूडामणिभूयं परमपर्यठाणं' ति । साहओ उण उवाओ, इमस्स सम्मत्तनाणचरणलक्खणो पडिवाइओ त्ति । एसो य गिहिधम्मसाहुम्मेहिं ववत्थिओ । तत्थ गिहिधम्मो दुवालसविहो । तं जहा पंच अणुव्वयाई, तिण्णि गुणवयाई, चत्तारि सिक्खावयाइं ति । साहुधम्मो उण दसविहो । तं जहा - खंतीय मद्दव - ऽज्जवमुत्ती तवसंजमे य बोद्धव्वे | सच्चं सोयं अकिंचणं च बम्भं च जइधम्मो ॥ ७१ ॥ एयस्स उण दुविहस्स वि धम्मस्स मूलवत्थु सम्मत्तं । तं पुणो अणाइकम्मसंताणवेढियस्स जंतुणो दुल्लहं हवs त्ति । तं च कम्मं अट्ठहा, तं जहा -नाणावर णिज्जं दरिसणावर णिज्जं, वेयणिज्जं, मोहणिज्जं, आउयं, नामं, गोतं, अन्तरायं च । एयस्स उण निमित्तं मिच्छत्तं, अन्नाणं, अविरई, माओ, कमाया, जोगा यत्ति । चतुर्दश रज्जू च्छ्रितस्य क्षेत्रलोकस्य चूडामणिभूतं परमपदं स्थानम् इति । साधकः पुनः उपायः अस्य सम्यक्त्वज्ञानच रणलक्षणः प्रतिपादितः इति । एष च गृहिधर्मसाधु धर्मे व्यवस्थितः । तत्र गृहिधर्मा द्वादशविधः । तद्यथा पञ्च अणुव्रतानि त्रीणि गुणव्रतानि चत्वारि शिक्षाव्रतानि इति । साधुधर्मः पुनः दशविधः । तद्यथा - 20 क्षान्तिश्च मादंवाऽऽर्जं वे मुक्तिः तपः संयमी च बोद्धव्यो । सत्यं शौचं आकिञ्चन्यं च ब्रह्म च यतिधर्मः ॥७१॥ एतस्य पुनः द्विविधस्य अपि धर्मस्य मूलवस्तु सम्यक्त्वम् । तत् पुनः अनादिकर्म सन्तानवेष्टितस्य जन्तोः दुर्लभं भवति इति । तच्च कर्म अष्टधा । तद्यथा - ज्ञानावरणीयम्, दर्शनावरणीयम्, वेदनीयम्, मोहनीयं आयुष्यम्, नाम, गोत्रम्, अन्तरायं च । एतस्य पुनर्निमित्तम् - मिथ्यात्वम्, अज्ञानं, अविरतिः, प्रमादः कषायाः, योगाश्चेति । है । इसी चौदह राजू लम्बे लोकक्षेत्र के ऊपर चूड़ामणि के सदृश परमपद स्थान (मोक्ष) है । इसका साधक उपाय सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूपलक्षण वाला प्रतिपादित किया गया है। और यह गृहस्थधर्म और मुनिधर्म के रूप में विभाजित है । गृहस्थधर्म बारह प्रकार का है---पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत, चार शिक्षाव्रत । साधुधर्म दश प्रकार का है क्षमा, मार्दव, आर्जव, मुक्ति (त्याग), तप, संयम, सत्य, शौच, आकिञ्चन्य और ब्रह्मचर्य -- इसे मुनिधर्म जानना चाहिए | ॥ ७१ ॥ इन दोनों प्रकार के धर्मों की भी मूलवस्तु सम्यक्त्व है । वह ( सम्यक्त्व ) अनादि कर्मों की परम्परा से लिपटे हुए प्राणी के लिए दुर्लभ होता है । वह कर्म आठ प्रकार का है - ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय । मिथ्यादर्शन, अज्ञान, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग इन कर्मों के कारण हैं । १. थामं । Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० [समराइचकहा एगपरिणामसंचियस्स एयस्स दुविहा ठिई समक्खाया। तं जहा उक्कोसिया य जहन्निया य। तत्थ णं जा सा उक्कोसिया, सा तिव्वासुहपरिणामजणियाणं नाणावरण-दरिसणावरण-वेयणीयअन्तरायाणं तीसं सागरोवमकोडाकोडिओ, मोहणिज्जस्स य सत्तरिं, नामगोयाणं वीसं तेत्तीसं च सागरोवमाइं आउयस्स ति। जहन्ना उण तहाविहपरिणामसंचियस्स वेयणीयस्स बारस मुत्ता, नामगोयाणं अट्ठ, सेसाणं भिन्नमुहत्तं त्ति। __ एवंठियस्स य इमस्स कम्मस्स अहपवत्तकरणेण जया घंसणघोलणाए कहवि एग सागरोवमकोडाकोडि मोत्तूण सेसाओ खवियाओ हवंति, तीसे वि य णं थेवमेत्ते खविए तया घणरायदोसपरिणामलक्खणो, नाणावरणदरिसणारणऽन्तरायपडिवन्नसहायभावो, मोहणीयकम्मनिव्वत्तिओ, अच्चंतदुब्भेओ कम्मगंठी हवइ । भणियं च ___ गंठि त्ति सुदुब्भेओ कक्खडघणरूढगढगंठि व्व । जीवस्स कम्मजणिओ घणराग'दोसपरिणामो ॥७२॥ एकपरिणामसंचितस्य एतस्य द्विविधा स्थितिः समाख्याता। तद्यथा-उत्कृष्टा च जघन्या च । तत्र या सा उत्कृष्टा, सा तीव्राशुभपरिणामजनितानां ज्ञानावरण-दर्शनावरण-वेदनीय-अन्तरायाणां त्रिंशत् सागरोपमकोटाकोटि:, मोहनीयस्य सप्ततिः, नामगोत्रयोः विंशति : त्रयस्त्रिशच्च सागरोपमाणि आयुष्कस्य इति। जघन्या पुनः तथाविधपरिणामसंचितस्य वेदनीयस्य द्वादश मुहूर्ताः, नामगोत्रयोः अष्ट, शेषाणां भिन्नमुहूर्तम् इति। एवंस्थितस्य च अस्य कर्मणः यथाप्रवृत्तकरणेन यदा घर्षणघूर्णनिया कथमपि एकां सागरोपमकोटाकोटि मुक्त्वा शेषाः क्षपिता भवन्ति, तस्या अपि च स्तोकमात्रे क्षपिते, तदा घनरागदोष (द्वेष)परिणामलक्षणः ज्ञानावरण-दर्शनावरण-अन्तरायप्रतिपन्नसहायभावः मोहनीयकमनिर्वर्तितः अत्यन्तदुर्भेदः कर्मग्रन्थिः भवति । भणितं च ग्रन्थिरिति सदुर्भेदः कर्कशघनरूढगढग्रन्थिरिव । जीवस्य कर्मजनितः घनरागदोष (द्वेष)-परिणामः ॥७२॥ एक परिणाम से संचित इसकी दो प्रकार की स्थिति कही गयी है-उत्कृष्ट और जघन्य । जो उत्कृष्ट स्थिति है वह तीव्र अशुभ परिणाम से उत्पन्न ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अन्तराय की तीस कोडाकोड़ी सागरोपम, मोहनीय की सत्तर सागरोपम, नाम तथा गोत्र की बीस सागरोपम तथा आयुकर्म की तेतीस सागरोपम है । उस प्रकार के परिणामों से संचित वेदनीय की बारह मुहूर्त, नाम तथा गोत्र की आठ मुहूर्त और शेष कर्मों की भिन्नमुहूर्त जघन्य स्थिति है। इस प्रकार स्थिति वाले इस कर्म की यथाप्रवृत्तकरण से जब घिसने-रगड़ने से जिस किसी प्रकार एक कोड़ाकोड़ी सागरोपम को छोड़कर शेष कर्म नष्ट होते हैं और शेष में से भी थोड़े कर्म नष्ट हो जाते हैं तब अत्यधिक राग-द्वेष परिणाम जिसका लक्षण है ऐसी मोहनीय कर्म से निकली हुई कर्मरूपी गाँठ ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय की सहायता प्राप्त कर अत्यन्त कठिनाई से भेदी जाने वाली हो जाती है। कहा भी है जीव के कर्मों से उत्पन्न घने रागद्वेषरूप परिणामों से युक्त, कर्कश, कठोर, घुली हुई और गूढ गाँठ के समान कठिनाई से ही तोड़ी जाने योग्य कर्म ग्रन्थि होती है ॥७२॥ १. राय। Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पामो भवो] ५९ तं च पत्ते समाणे अत्थि एगे जीवे, जे तं भिदइ, अस्थि एगे जीवे जे नो भिदइ। तत्थ णं जे से भिंदइ से अपुवकरणेणं भिदइ । तओ तम्मि भिन्ने समाणे अणियट्टीकरणेणं कम्मवणस्स दावाणलेगदेसं, सिवसुहपायवस्स, निरुवयबीयं, संसारचारयस्स मोयावणसमत्थं, चितामणिरयणस्स य लहुयभावजणयं, अणाइम्मि संसारसायरे अपतपुव्वं, पसत्थसम्मत्तमोहणीयकम्माणुवेयणोवसमक्खयसमुत्थं, पसमसंवेयनिव्वयाऽणुकम्पाइलिंग, सुहायपरिणामरूवं सम्मत्तं पाउणइ, तल्लाहसमकालं च दुवे नाणाणि । तं जहा मइनाणं च सुयनाणं च । तओ तम्मि पत्ते समाणे से जीवे बहुयकम्ममलमुक्के आसन्ननियसरूवभावे, पसन्ने संविग्गे, निविण्णे, अणुकंपापरे, जिणवयणरुई आविहवइ । भणियं च सम्मत्तं उवसममाइएहि लक्खिज्जए उवाएहिं । . आयपरिणामरूवं बज्झेहि पसत्थजोगेहि ॥७३॥ एत्थ य परिणामो खलु जीवस्स सुहो उ होइ विन्नेओ। किं मलकलंकमुक्कं कणयं भुवि सामलं होइ ॥७४॥ तं च प्राप्ते सति अस्ति एको जीवः यस्तं भिनत्ति, अस्ति एको जीवः यो न भिनत्ति। अत्र यः स भिनत्ति सोऽपूर्वकरणेन भिनत्ति । ततस्तस्मिन् भिन्ने सति अनिवृत्तिकरणेन कर्मवनस्य दावानलैकदेशम्, शिवसुखपादपस्य निरुपहतबीजम्, संसारचारकाद् मोचनसमर्थम्, चिन्तामणिरत्नस्य च लघुकभावजनकम्, अनादौ संसारसागरे अप्राप्तपूर्वम्, प्रशस्तसम्यक्त्वमोहनीयकर्मानुवेदनोपशमक्षयसमुत्थम्, प्रशमसंवेगनिर्वेदाऽनुकम्पादिलिङ्गम्, शुभाऽऽत्मपरिणामरूपं सम्यक्त्वं प्राप्नोति, तल्लाभसमकालं च द्वे ज्ञाने, तद्यथा- मतिज्ञानं च श्रुतज्ञानं च । ततः तस्मिन् प्राप्ते सति स जीवः बहकर्ममलमुक्तः, आसन्ननिजस्वरूपभावः, प्रसन्नः, संविग्नः निविण्णः, अनुकम्पापरः, जिनवचनरुचिश्चापि भवति । भणितं च सम्यक्त्वं उपशमादिकैर्लक्ष्यते उपायैः। आत्मपरिणामरूपं बाह्य : प्रशस्तयोगः ॥७३॥ अत्र च परिणामः खलु जीवस्य शुभस्तु भवति विज्ञेयः । किं मलकलङ्कमुक्तं कनकं भुवि श्यामलं भवति ।।७४।। उसे प्राप्त कर एक जीव है जो उसे तोड़ता है, एक जीव है जो उसे नहीं तोड़ता है । जो तोड़ता है वह अपूर्वकरण से तोड़ता है। उसके टूट जाने पर सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है। वह सम्यक्त्व अनिवृत्तिकरण के द्वारा कर्मरूपी वन के लिए दावाग्नि के एक भाग के समान है, मोक्षसुखरू पी वृक्ष का समर्थ बीज है, संसाररूपी कारागार से छडाने में समर्थ है, उसे पाकर चिन्तामणि रत्न भी छोटा लगने लगता है, अनादि संसार-सागर में उसे पहले कभी प्राप्त नहीं किया जा सका है, प्रशस्त सम्यक्त्वमोहनीय कर्म के अनुभव, उपशम और क्षय से उत्पन्न हुआ है। प्रशम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा आदि उसकी पहचान हैं तथा शुभ आत्मपरिणामरूप है। उसकी प्राप्ति के समय जीव को दो ज्ञान होते हैं -मतिज्ञान और श्रुतज्ञान । उसकी प्राप्ति होने पर वह जीव बहुत कर्मों के मल से रहित, आत्मस्वरूप भाव के समीप, प्रसन्न, (संसार से) डरा हुआ, निवृत्ति, दयामय और जिनेन्द्र भगवान् के वचनों के प्रति रुचि वाला हो जाता है । कहा भी है सम्यक्त्व आत्मपरिणामस्वरूप उपशमादि उपायों से लक्षित होता है। तथा बाह्यरूप से प्रशस्त योग के द्वारा इसकी जानकारी होती है। जीव के परिणाम शुभ होते हैं, ऐसा जानना चाहिए। क्या संसार में मलरूपी Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [समराइच्चकहा पयईइ य कम्माणं वियाणिउं वा विवागमसुहं ति । अवरद्धे वि ण कुप्पइ उवसमओ सव्वकालं पि ॥७॥ नरविबहेसरसोक्खं दुक्खं चिय भावओ उ मन्नन्तो। संवेगओ न मोक्खं मोत्तूणं किंचि पत्थेइ ॥७६॥ नारयतिरियनराऽमरभवेसु निव्वेथओ वसइ दुक्खं । अकयपरलोयमग्गो ममत्तविसवेगरहिओ वि॥७७॥ दठ्ठणं पाणिनिवहं भीमे भवसागरम्मि दुक्खत्तं । अविसेसओ ऽणुकम्पं दुहा वि सामत्थओ कुणइ ॥७॥ मन्नइ तमेव सच्चं नीसंकं जं जिणेहि पन्नत्तं । सुहपरिणामो सव्वं कंखाइविसेसोत्तियारहिओ ॥७॥ एवंविहपरिणामो सम्माविट्ठी' जिणेहि पन्नत्तो। एसो य भवसमुदं लंघइ थैवेण कालेणं ॥५०॥ प्रकृतेश्च कर्मणां विज्ञाय वा विपाकमशुभमिति । अपराद्धऽपि न कुप्यति उपशमतः सर्वकालमपि ॥७॥ नर-विबुधेश्वरसौख्यं दुःखमेव भावतस्तु मन्यमानः । संवेगतो न मोक्षं मुक्त्वा किंचित् प्रार्थयते ॥७६।। नारक-तिर्यग् नराऽमरभवेषु निर्वेदतः वसति दुःखम् । अकृतपरलोकमार्गः ममत्वविषवेगरहितोऽपि ॥७७॥ दृष्ट्वा प्राणिनिवहं भीमे भवसागरे दुःखार्तम् । अविशेषतः अनुकम्पां द्विधाऽपि सामर्थ्यतः करोति ॥७॥ मन्यते तदेव सत्यं निःशङ्क यङ्गिनः प्रज्ञप्तम् । शभपरिणामः सर्वकाङ्क्षादिविश्रोतसिकारहितः ॥७६।। एवंविधपरिणामः सम्यग्दृष्टिजिनैः प्रज्ञप्तः । एष च भवसमुद्र लङ्घते स्तोकेन कालेन ॥८॥ कलंक से रहित हुआ सोना काला होता है ? कर्मों की प्रकृति और अशुभकर्मों के फल को जानकर किसी के अपराध करने पर भी वह क्रोधित नहीं होता है, सभी कालों में उसके उपशमरूप भाव रहते हैं। राजा और इन्द्र के सुख को भी संवेग से दुःख मानता हुआ मोक्ष को छोड़कर किसी की भी प्रार्थना नहीं करता है। निर्वेद की अपेक्षा से वह ममत्व रूपी विष का वेग न रहने पर भी नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देवों के भवों के दु:ख ही हैं यह विचारकर जीव परलोक का मार्ग नहीं बनाता । भयानक (पीडित) संसार-सागर में प्राणियों के समूह को दु:ख से पीडित देखकर वह अपने सामर्थ्य के अनुसार बिना किसी भेदभाव के दो प्रकार की स्व तथा परकरता है । वह शुभ परिणामों से युक्त तथा कांक्षा आदि विमार्गगमन से रहित होता हुआ उसे सत्य एवं शंका रहित मानता है जो वीतरागों द्वारा प्रज्ञप्त है। जिनेश्वरों ने सम्यग्दष्टि को ऐसे परिणामों वाला बतलाया है। वह थोड़े ही समय में संसार-सागर को लांघ जाता है। ॥७३-८०॥ १. सम्मट्टिी । Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पठमो भवो] तओ य तोसे वि य णं ठिईए पलिओवमपुहत्तमेते खीणे परमत्थओ सुहयरपरिणामगभं देसविरइं पडिवज्जइ । तं जहा थूलगपाणाइवायविरमणं वा, थूलगमुसावायविरमणं वा, थूलयादत्तादाणविरमणं वा, परदारगमणविरमणं वा, सदारसंतोसं वा, अपरिमियपरिग्गहविरमणं वा। से य एवं देसविरइपरिणामजुत्ते, पडिवन्नाणुव्वए, भावओ अपरिवडियपरिणामे नो खलु समायरइ इमे अइयारे। तं जहा-बंध वा, वहं वा, छविच्छेयं वा, अइभारारोवणं वा, भत्तपाणवोच्छेयं वा, तहा सहसब्भक्खाणं वा, रहस्सब्भक्खाणं वा, सदारमंतभेयं वा मोसोवएसं वा, कूडलेहकरणं वा, तहा तेणाहडं वा, तक्करपओगं वा, विरुद्धरज्जाईक्कम वा, कूडतुलकूडमाणं वा, तप्पडिरूवगववहारं वा, तहा इत्तिरियपरिग्गहियागमणं वा, अणंगकीडं वा, परविवाहकरणं वा, कामभोगतिव्वाहिलासं वा, तहा खेत्तवत्थुपमाणाइक्कम वा, हिरण्णसुवण्णपमाणाइक्कम वा, धणधन्नपमाणाइक्कम वा, दुपयचउप्पयपमाणाइक्कम वा, कुवियपमाणाइक्कम वा, तहा अन्ने य एवंजाइए संसारसागरहिंडण ततश्च तस्या अपि च स्थिते: पल्योपमपृथक्त्वमात्रे क्षीणे परमार्थतः शुभतरपरिणामगर्भा देशविरतिं प्रतिपद्यते । तद्यथा-स्थूलकप्राणातिपातविरमण वा, स्थलकमषावादविरमणं वा, स्थूलकाऽदत्तादानविरमणं वा, परदारगमनविरमणं वा स्वदारसंतोषं वा, अपरिमितपरिग्रहविरमणं वा। स च एवं देशविरतिपरिणामयुक्तः, प्रतिपन्नाऽणुव्रतः, भावतोऽपरिपतितपरिणामः नो खलु समाचरति इमान अतिचारान् । तद्यथा-बन्धं वा, वधं वा, छवि(शरीर)च्छेदं वा, अतिभारारोपणं वा, भक्तपानव्युच्छेदं वा, तथा सहसाऽभ्याख्यानं वा, रहस्याभ्याख्यानं वा, स्वदारमन्त्रभेदं वा, मषोपदेशं वा, कटलेखकरणं वा तथा स्तेनाहृतं वा, तस्करप्रयोग वा, विरुद्धराज्यातिक्रमं वा, कटतुला-कटमान वा, तत्प्रतिरूपकव्यवहारं वा तथा इत्वरिकपरिगहीतागमनं वा, अपरिगृहीतागमनं वा, अनङ्गक्रीडां वा, परविवाहकरणं वा, कामभोगतोवाभिलाषं वा तथा क्षेत्रवस्तुप्रमाणातिक्रमं वा, हिरण्यसुवर्णप्रमाणाऽतिक्रमं वा, धन-धान्यप्रमाणातिक्रमं वा, द्विपदचतुष्पदप्रमाणातिक्रमं वा, कुप्यप्रमाणातिक्रम उस स्थिति में भी पल्योपम पृथक्त्व मात्र के क्षीण होने पर परमार्थ से अत्यन्त शुभपरिणाम जिसके गर्भ में है ऐसी देशविरति को प्राप्त होता है। वह देशविरति यह है-स्थूल रूप से प्राणियों के मारने का त्याग, स्थल रूप से झूठ बोलने का त्याग, स्थूल रूप से बिना दी हुई वस्तु के लेने का त्याग, दूसरे की स्त्री से रमण का त्याग अथवा अपनी स्त्री में सन्तोष रखना, तथा अपरिमित परिग्रह का त्याग । इस प्रकार देशविरतिरूप परिणामयुक्त हुआ वह अणुव्रत को प्राप्त कर भावों से परिणामों से च्युत न होता हुआ इनके अतिचारों का सेवन नहीं करता है। वे अतिचार ये हैं--बन्ध, वध, शरीर के अंगों का छेदन, अत्यन्त भार का लाद देना, भोजन-पानी का रोक देना तथा यकायक किसी बात को प्रकट कर देना, स्त्री-पुरुष की एकान्त में की गयी क्रिया को प्रकट करना, अपनी स्त्री की गूढ बातों को बतला देना, झूठा उपदेश देना, झूठे दस्तावेज आदि लिखना, चोरी के माल को ले लेना, चोरी के लिए चोर को प्रेरणा देना, राजा की आज्ञा के विरुद्ध चलना, तराजू अथवा बांटों को घट-बढ़ रखना, अधिक कीमती वस्तु में कम कीमती वस्तु मिलाकर बेचना, पति सहित व्यभिचारणी स्त्रियों के यहाँ आना-जाना, कामसेवन के लिए निश्चित अंगों को छोड़कर अन्य अंगों से कामसेवन करना, दूसरे के पुत्र-पुत्रियों का विवाह कराना, कामसेवन की तीव्र अभिलाषा रखना, खेतों तथा मकान के प्रमाण का उल्लंघन करना, चांदी और सोने के प्रमाण का उल्लंघन करना, धन तथा अनाज के प्रमाण का उल्लंघन करना, दो पैरोंवाले (नौकर-चाकर) तथा चार पैरों वाले (पशुओं) के प्रमाण का उल्लंघन करना, वस्त्र एवं बर्तन आदि के प्रमाण का उल्लंघन करना, तथा Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ [ समराइचकहा निमित्तभूए सुहपरिणामभावओ चेव तो आयरइ ति। तहा इमे एथारूवे उत्तरगुणे य पडिवज्जइ । तं जहा-उड्ढदिसिगुणव्वयं वा, अहोदिसिगुणव्वयं वा, तिरियदिसिगुणव्ययं वा, तहा भोगोवभोगपरिमाणलक्खणगुणव्वयं वा, उवभोगपरिभोगहेउ खरकम्माइपरिवज्जणं वा, तहा अवज्झाणायरियपमायायरियहिंसप्पयाणपावकम्मोवएसलक्खणाणत्थदंडविरइगुणव्वयं था. तहा सावज्जजोगपरिवज्जणनिरबज्जजोगपडिसेवणालक्खण सामाइयसिक्खावयं वा, तहा दिसिवयगहियस्स दिसापरिमाणस्स पइदिणपमाणकरणदेसावगासियसिक्खावयं वा, तहा आहारसरीरसक्कारबम्भचेरअव्वावारलक्खणपोसहसिक्खावयं वा, तहा नायागयाणं, कप्पणिज्जाणं, अन्नपाणईणं दव्वाणं देसकालसद्धासक्कारक जुय पराए भत्तोए आयाणुग्गहट्ठाए संजयाण दाणं ति इइलक्खणातिहि संविभागसिक्खावयं वा। से य एवं कुसलपरिणामजुत्ते पडितन्नगुणव्वयसिक्खावए भावओ अपरिवडियपरिणामे नो वा तथा अन्यांश्च एवंजातिकान् संसारसागरहिण्डननिमित्तभूतान् शुभपरिणामभावत एव नो आचरति । तथा इमान् एतद्रूपान् उत्तरगुणांश्च प्रतिपद्यते । तद्यथा-ऊर्ध्व दिग्गुणवतं वा, अधोदिग्गुणव्रतं वा, तिर्यग्गणव्रतं वा तथा भोगोपभोगपरिमाणलक्षण गुणवतं वा, उपभोगपरिभोगहेतु खरकर्मपरिवर्जनं वा; तथा अपध्यानाचरितप्रमादाचरित-हिंसाप्रदानपापकर्मोपदेशलक्षणानर्थदण्डविरतिगणव्रतं वा, तथा सावद्ययोगपरिवर्जन-निरवद्ययोगप्रतिसेवनालक्षण-सामायिकशिक्षाव्रतं वा, तथा दिखतगहीतस्य दिक्परिमाणस्य प्रतिदिनप्रमाणकरणदेशावकाशिकशिक्षाक्तं वा, तथा आहारशरीरसत्कार-ब्रह्मचर्य-अव्यापारलक्षणप्रौषधशिक्षाव्रतं वा, तथा न्यायागतानां, कल्पनीयानाम, अन्नापानादीनां द्रव्याणां देशकाल-श्रद्धा-सत्कार-क्रमयुतं परया भक्त्या आत्मानुग्रहार्थाय संयतानां दानमिति, इति लक्षणाऽतिथि-संविभागशिक्षाव्रतं वा। स चैवं कुशलपरिणामयुक्तः प्रतिपन्नगुणवतः शिक्षावत: भावत अपरिपतितपरिणामः नो खलु इसी प्रकार के अन्य संसार-सागर में भ्रमण करानेवाले कार्यों को नहीं करता है और शुभभाव बनाये रखता है। ___ तथा इन-इन प्रकार के उत्तरगुणों को प्राप्त करता है। वे ये हैं-ऊर्ध्वादिग्गुणव्रत (परिमित मर्यादा से अधिक ऊँचाई पर न जाना), अधोदिग्गुणव्रत (मर्यादा से अधिक नीचाई वाले कूप आदि में न उतरना), तिर्यग्दिग्गुण व्रत (समान स्थान में मर्यादा से अधिक लम्बे न जाना), भोगोपभोगपरिमाणलक्षण गुणव्रत (भोग-जो एक बार भोगने में आये तथा उपभोग--जो बार बार भोगने में आये-की वस्तुओं का परिमाण कर उससे अधिक में ममत्व न रखना), उपभोग-परिभोग के कारण खरकर्मादि का त्याग; तथा अपध्यान (बुरा सोचना, खोटे कर्म करना), प्रमादाचरित (प्रमादपूर्वक आचरण करना); हिंसाप्रदान (हिंसा के उपकरण वगैरह देना), पापकर्मोपदेश (पाप कर्मों का उपदेश देना) इन लक्षणवाले अनर्थदण्ड (बिना प्रयोजन दण्ड देने) का त्यागरूप गुणवत, सावद्य (पाप सहित) योग का त्याग करना तथा निरवद्य (पापरहित) योग का ग्रहण क्रिया रूप सामायिक शिक्षाव्रत; दिग्वत के द्वारा गृहीत दिशा के परिमाण में से प्रतिदिन प्रमाण क्रिया रूप देशकालिक शिक्षाव्रत, आहार, शरीर-सत्कार, ब्रह्मवर्य तथा अव्यापार लक्षणवाले प्रौषध शिक्षाव्रत का, न्यायपूर्वक आये हुए योग्य अन्नपान आदि द्रव्यों का देश काल, श्रद्धा तथा सत्कार के क्रम से युक्त उत्कृष्ट भक्ति से अपने अनुग्रह के लिए संयमीजनों को दान देना-इन लक्षणोंवाले अतिथिसंविभागरूप शिक्षावत का भी पालन करना । वह इस प्रकार शुभ परिणामों से युक्त होकर भावतः गुणव्रत और शिक्षाव्रत को प्राप्त करता है । Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढमो भवो] खलु समायरइ इमे अइयारे। तं जहा- उढदिसिपमाणाइवक मं वा, अहोदिसिपमाणाइवक मं वा, तिरियदिसिपमाणाइक्कम वा, खेत्तड्ढि वा, सइअंतर द्धं वा, तहा सचित्ताहारं वा, सचित्तपडिबद्धाहारं वा अप्पउलिओसहिभक्खणं वा, दुप्पउलिलोसहिभक्खणं वा, तुच्छोसहिभक्खणं वा, तहा इंगालकम्मं वा, वणकम्मं वा, सागडि कामं वा, भाडियकम्मं वा, फोडियकम्मं वा, दंतवाणिज्जं वा, लक्खवाणिज्जं वा, केसवाणिज्जं वा, रसवाणिज्ज का, विसवाणिज्जं वा, जंतपोडणकम्मं वा, किल्लंछणकम्मं वा, दवग्गिदावणयं वा, असइपोसणं वा, सरदहतलायसोसणयं वा, तहा कंदप्पं वा, कक्कुइयं वा, मोहरियं वा, संजुताहिगरणं वा, उवभोगपरिभोगाइरेगं वा, तहा मणदुप्पणिहाणं वा, वयदुप्पणिहाणं वा, कायदुप्पणिहाणं वा, सामाइअस्स सइअकरणं वा, सामाइअस्स अणवट्टियस्स करणं वा, तहा आणवणपओगं वा, पेसवणपओगं वा, सद्दाणुवाइत्तं वा, रूवाणुवाइत्तं वा, वहियासमाचरति इमान् अतिचारान । तद्यथा ऊर्ध्वदिकमाणातिक्रमं वा, अधोदिक्प्रमाणातिक्रमं वा तिर्यग्दिकप्रमाणातिक्रमं वा, क्षेत्रवद्धि वा, स्मत्यन्तद्धि वा, तथा सचित्ताहारं वा, सचित्तप्रतिबद्धाहारं वा, अपक्वौषधिभक्षणं वा दुष्पक्वौषधिभक्षणं वा, तुच्छौषधिभक्षणं वा, तथा अंगारकर्म वा, वनकर्म वा, शकटकर्म वा, भाटकर्म वा, स्फोटिकर्म वा, दन्तवाणिज्यं वा लक्षवाणिज्यं, केशवाणिज्यं वा, रसवाणिज्यं बा, विषवाणिज्यं वा, यन्त्रपोडनकर्म वा, निर्लाञ्छनकर्म वा, दवाग्निदापनं वा असतीपोषणं वा, सरोद्रहतडागशोषणकं वा तथा कन्दर्य वा, कौकुच्यं वा, मौखयं वा, संयुक्ताधिकरणं वा, उपभोगपरिभोगातिरेकं वा, यथा मनोदुष्प्रणिधानं वा, वचो दुष्प्रणिधान वा, कायदुष्प्रणिधानं वा, सामायिकस्य स्मृत्यकरणं वा, सामायिकस्य अनवस्थितस्य करणं वा, तथा आनायनप्रयोग वा, प्रेषणप्रयोग वा, शब्दानुपातित्वं वा, रूपानुपातित्वं वा, बहिष्पुरल प्रक्षेपणं वा तथा अप्रतिलिखितपरिणामों से च्युत न होता हुआ वह इन अतिचारों का आचरण नहीं करता है। वे ये हैं-ऊर्ध्वदिक्प्रमाणातिक्रम (परिमित मर्यादा से अधिक ऊँचाई वाले पर्वत आदि पर चढ़ना), अधोदिक्प्रमाणातिक्रम (मर्यादा से अधिक नीचाई वाले स्थान में उतरना), तिर्यक्प्रमाणातिक्रम (तिरछे स्थान में मर्यादा से अधिक जाना), क्षेत्रवृद्धि (मर्यादित क्षेत्र को बढ़ा लेना), स्मृत्यन्तद्धि (की हुई मर्यादा को भूल जाना), सचित्ताहार (सचेतन हरे फूल, फल, पत्र वगैरह खाना), सचित्तप्रतिबद्धाहार (सचित्त वस्तु से सम्बन्ध को प्राप्त वस्तु का खाना), अपक्व औषधि का भक्षण, दुष्पक्व औषधि का भक्षण, तुच्छ औषधि का भक्षण, अंगार कर्म (कोयले का कार्य करना), वनकर्म (लकड़ी का कार्य करना), शकटकर्म (गाडी वगैरह बनाने का कार्य), भाटकर्म (भड़भजे का कार्य) स्फोटिकर्म (किसी वस्तु के तोड़ने-फोड़ने का कार्य), दांतों का व्यापार, लाख का व्यापार, बालों का व्यापार, रस का व्यापार, विष का व्यापार, यन्त्रपीडन कर्म (यन्त्र द्वारा तिल ईख आदि पेलने का कार्य), शरीर के किसी अंग के छेदन करने का कार्य), दावाग्नि का जलाना, व्यभिचारिणी स्त्री का पोषण करना, सरोवर-झील-तालाब का सुखाना, कन्दर्ग्य (राग से हास्यसहित अशिष्ट वचन बोलना), कौत्कुच्य (हास्य और अशिष्ट वचन के साथ शरीर से भी कुचेष्टा करना),मौखर्य (धृष्टतापूर्वक आवश्यकता से अधिक बकवाद करना), संयुक्ताधिकरण (हिंसा के उपकरण जोड़ना), भोग और उपभोग के पदार्थों का आवश्यकता से अधिक संग्रह करना, सामायिक में मन नहीं लगाना, सामायिक में अशुद्ध उच्चारण करना अथवा जल्दी बोलना, सामायिक करते समय शरीर को निश्चल नहीं करना, सामायिक करते समय चित्त की चंचलता से पाठ वगैरह भूल जाना, सामायिक के प्रति चित्त का उत्साह न होना, मर्यादा से बाहर के क्षेत्र की वस्तु को किसी के द्वारा मँगाना. मर्यादा के बाहर कार्यवश नौकर आदि को भेजना, शब्द के द्वारा मर्यादा से बाहर वाले आदमियों को अपना अभिप्राय समझा देना, मर्यादा से बाहर आदमियों को अपना १, साडिय। Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ समराइच्चकहा पोग्गलपक्खेवणं वा, तहा अप्पडिलेहियदप्पडिलेहियसेज्जासंथारदुरूहणं वा, अप्पमज्जियदुप्पमज्जियसेज्जासंथारदुरूहणं वा, अप्पडिलेहियदुप्पडिलेहियउच्चारपासवणविगिचणयं वा, पोसहोववासस्स सम्म अणणुपालणयं वा, तहा सचित्तनिक्खिवणयं वा, सचित्तपहिणयं वा कालाइक्कम वा, परववएसं वा, मच्छरियं वा, अन्ने य एवंजाइए गुणव्वयसिक्खावयाइयारे नायरइ। तओ णं से एमेयाणुरूवणं' कप्पेणं विहरिऊण तीसे कम्मट्टिईए परिणामविसेसेणं तम्मि वा जम्मे, अणेगेसु वा जम्मेसु संखेज्जसु सागरोवमेसु खविएसु सव्वविरइलक्खणं खमा-मद्दवऽज्जव-मुत्तीतव-संजम-सच्च-सोयाऽऽकिंचण-बंभचेररूवं जइधम्म पाउणइ । तओ एवं चेव उवसमसेढी एवं चेव खवगसेदित्ति । भणियं च---- सम्मत्तम्मि उ लद्धे पलियपुहुत्तेण सावओ होज्जा। चरणोवसमखयाणं सागरसंखंतरा होंति ॥१॥ एवं अप्पडिवडिए सम्मत्ते देवमणुयजम्मेसु । अन्नयरसेढिवज्जं एगभवेणं च सव्वाइं ॥२॥ दुष्प्रतिलिखित-शय्यासंस्तार-दूरोहणं वा, अप्रमार्जित-दुष्प्रमार्जित-शय्यासंस्तारदूरोहणं वा, अप्रमार्जित-दुष्प्रमार्जित-उच्चारप्रस्रवणवित्यजनं वा, प्रौषधोपवासस्य सम्यग् अननुपालनकं वा तथा सचित्तनिक्षेपणकं वा, सचित्तपिधानकं वा, कालातिक्रमं वा, परव्यपदेशं वा, मात्सर्य वा, अन्यांश्च एवं जातिकान् गुणवत-शिक्षावतातिचारान् नाचरति ।। ततः स एवमेतदनुरूपेण कल्पेन विहृत्य तस्याः कर्मस्थितेः परिणामविशेषेण तस्मिन् वा जन्मनि, अनेकेषु वा जन्मसु सख्ये येषु सागरोपमेषु क्षपितेषु सर्वविरतिलक्षणं क्षमा-मार्दवार्जवमुक्तितपःसंयमशौचाऽऽकिञ्चन्यब्रह्मचर्यरूपं यतिधर्म प्राप्नोति । तत एवमेव उपशमश्रेणी एवमेव क्षपकश्रेणी इति । भणितं च सम्यक्त्वे तु लब्धे पल्यपृथक्त्वेन श्रावको भवेत् । चरणोपशमक्षयाणां सागरसंख्यान्तराणि भवन्ति ॥८१॥ एवम् अप्रतिपतिते सम्यक्त्वे देवमनुजजन्मस् । अन्यतरश्रेणिवर्जम् एकभवेन च सर्वाणि ।।८२॥ रूप दिखाकर इशारा करना, मर्यादा से बाहर कंकड़-पत्थर फेंककर संकेत करना, बिना देखे-भाले अथवा बिना साफ की हई शैया और बिस्तर पर चढ़ना, भूमि को बिना देखे-भाले अथवा बिना शोधे मलमूत्र का त्याग करना, प्रौषधोपवास का ठीक तरह से पालन न करना, सचित्त कमलपत्र आदि में रखा आहार देना, सचित्त पत्ते आदि से ढका आहार देना, योग्य सीमा का उल्लंघन कर असमय में देना, दूसरे दातार की वस्तु स्वयं दान में देना, आदरपूर्वक दान नहीं देना अथवा दूसरे दाता से ईर्ष्या करना तथा अन्य भी इस प्रकार के गुणव्रत और शिक्षाक्त के अतिचारों को नहीं करता है। अनन्तर वह इस प्रकार नियमानुसार आचरण करता हुआ कर्मस्थिति के परिणामविशेष से उसी जन्म में अथवा अनेक जन्मों में संख्येय सागरोपम काल बिताकर समस्त विरति लक्षणवाले क्षमा, मार्दव, आर्जव, मुक्ति (त्याग), तप, संयम, सत्य, शौच, आकिंचन्य तथा ब्रह्मचर्य रूप मुनिधर्म को पाता है। अनन्तर इसी प्रकार उपशम श्रेणी और क्षपक श्रेणी पाता है। कहा भी है सम्क्त्व प्राप्त होने पर पल्यपथक्त्व (दो से नौ पल्योपम के बीच) में श्रावक होता है। चरण, उपशम और क्षय के सागर संख्यान्तर होते हैं । इस प्रकार सम्यक्त्व अप्रतिपत्ति-अपतनशील रहे तो वह अनेक देव मनुष्य जन्मों में अथवा उपशम श्रेणी छोड़ क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ हो एक ही जन्म में सब कुछ साध लेता है॥८१-८२॥ १. इमेणाणुरूपेणं। Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढमो भवो __ तओ खवगसेढिपरिसमत्तीए सासयं, अणंतं, केवलवरनाणदसणं पाउणइ । तओ कमेणं खवियसेस भवोग्गाहिकम्मसे सव्वकम्मविप्पमुक्के पाउणइ सासयं ठाणं' ति । एत्थंतरम्मि य गुरुवयःणायण्णजणियसुहपरिणामाणलदड्ढबहुकम्मेन्धणेणं, भावओ पवन्नसम्मत्ताणुव्वयगुणव्वयसिक्खाक्यगुणट्ठाणेण भणियं गुणसेणेणं-भयवं ! धन्नोऽहं जेण मए पावमलपक्खालणं रागाइविसधायणं, पसमाइगुणकारणं, भवचारयनिस्सारणं सुयं ते वयणं ति । ता आइसह संपयं, जं मए कायव्वं ति । अहवा आइट्ठ' चेव भयवया । ता देहि मे ता गिहिधम्मसारभूए अणुव्वयाइए गुणट्ठाणे। ___ गरुणा भणियं-किच्चमेयं तएजारिसाणं भव्वसत्ताणं ति विहिपुव्वयं दिन्नाणि से अण.याणि अणुसासिओ य बहुविहं । तओ वंदिऊण परमभत्तीए सपरिवारं गुरुं पविट्ठो नयरं। कयभोयणोक्यारो य परिणयप्पाए दियहे पुणो वि निग्गओ त्ति । बंदिया यणेण देवगुरवो। कालोइयमणुसासिओ य गुरुणा । तओ य कंचि वेलं पज्जुवासिऊण विहिणा पुणो नयरं पविट्ठो त्ति । एवं उभयकालं गुरुदंसणतव्वयणसुणणसोक्खमणुहवंतस्स अईओ मासो, परिणओ से धम्मो । कप्पसमत्तीए य गओ अन्नत्थ ततः क्षपकश्रेणिपरिसमाप्तौ शाश्वतम्, अनन्तम्, केवल वरज्ञानदर्शनं प्राप्नोति । ततः क्रमेण क्षपितशेषभवोपग्राहिकर्मांशः सर्वकर्मविप्रमुक्त: प्राप्नोति शाश्वतं स्थानमिति । अत्रान्तरे च गरुवचनाऽऽकर्णजनित शभपरिणामानलदग्धबहुकर्मेन्धनेन । भावत: प्रपन्नसम्यक्त्वाऽणव्रत-गणव्रतशिक्षाव्रतगणस्थानेन भणितं गुणसेणेण-भगवन् ! धन्योऽहम्, येन मया पापमलप्रक्षालनम्। रागादिविषघातनम्, प्रशमादिगुणकारणम्, भवचारक निस्सारणं श्रुतं तव वचनम् इति । तत आदिशत साम्प्रतं यद् मया कर्त्तव्यमिति। अथवा आदिष्टमेव भगवता । ततो देहि मम तावद गहिधर्मसारभूतानि अणुव्रतादिकानि गुणस्थानानि । गुरुणा भणितम्-'कृत्यमेतत् स्वादशानां भव्यसत्त्वानाम' इति विधिपूर्वकं दत्तानि तस्य अणव्रतानि, अनुशासितश्च बहुविधम् ततो। वन्दित्वा परमभवत्या सपरिवारंगरूं प्रविष्टो नगरम् । कृतभोजनोपचारश्च परिणतप्राये दिवसे पुनरपि निगत इति । वन्दिताश्च अनेन देवगरवः। कालोचित्तमनुशासितश्च गुरुणा । ततश्च कांचिद् वेलां पर्युपास्य विधिना पुनर्नगरं प्रविष्ट इति । एवम्उभयकालं गुरुदर्शन-तद्वचनश्रवणसौख्यमनुभवतः अतीतो मासः, परिणतस्तस्य धर्मः। कल्पसमाप्ती तदनन्तर क्षपक श्रेणी के समाप्त होने पर शाश्वत, अनन्त एवं उत्कृष्ट केवलज्ञान, केवलदर्शन पाता है अनन्तर क्रम से भवोपग्राही शेष कर्मों के अंशों का क्षय कर, समस्त कर्मों से छुटकारा पाकर शाश्वत स्थान प्राप्त करता है। इसी बीच गुरु के वचन सुनने से उत्पन्न शुभपरिणामरूपी अग्नि के द्वारा जिसने बहुकर्मरूपी ईंधन को जला दिया है ऐसे गुणसेन ने अणुव्रत, गुणवत, शिक्षाव्रत तथा गुणस्थान के द्वारा भावपूर्वक सम्यक्त्व प्राप्त कर कहा'भगवन ! मैं धन्य हूँ जिसने कि पापमल को धोनेवाले, रागादि विष को नष्ट करनेवाले, प्रशम आदि गुणों के कारण, संसार रूपी कारागार से निकालने वाले आपके वचनों को सुना । अब आप आदेश दें, मैं क्या करू ! अथवा भगवान् ने आदेश दे ही दिया है । अतः गृहस्थधर्म के सारभूत अणुव्रत आदि गुणों के स्थान दीजिए।' गुरु ने कहा, "आप जैसे भव्य जीवों को ऐसा ही करना चाहिए।" इस प्रकार विधिपूर्वक उसे अणुव्रत प्रदान किये और अनेक प्रकार की शिक्षा दी। तब परमभक्ति से सपरिवार गुरु की वन्दना कर वह नगर में प्रविष्ट हुआ। भोजनादि कार्य कर अपराह्न में पुनः निकला। उसने देव-गुरुओं की बन्दना की। गुरु ने समयोचित शिक्षा दी। तब कुछ समय विधिपूर्वक उपासना कर पुनः नगर में प्रविष्ट हुआ। इस प्रकार दोनों समय गुरुदर्शन कर उनके वचन से कर्णसुख का अनुभव करते हुए एक मास बीत गया, उसका धर्म वृद्धि गत हुआ। व्रत समाप्त होने १. थाम, २. आइट, ३. मेयंति, ४. तएयारिसाणं । Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ भयवं विजयसेणायरिओ त्ति । तओ अइक्तेसु कइवयदिणेसु राइणो गुणसेणस्स पासायतलसंठियस्स कहवि सोऊण हाहारवसद्द गर्भिणं मरणनरवइणो विव पयाणढक्कं, संसाररक्खसस्स विव अट्टहास, जीवलोयस्स विव पमायचरियं मयगडंडिमसद्दं; पेच्छिऊण तं कथंतवसवत्तिणं, चउपुरिसधरियकार्य, कंदंतबंधुजणपरिवारियं सवं ; परमसंवेगभावियमइस्स, इंदयालसरिसजीवलोयमवगच्छिऊण धम्मज्जाणजलपक्खा लिय पावलेवस्स समुप्पन्ना चिता - अम्हे वि एव चेव मरणधम्माणो त्ति । अहो ! णु खलु एवं विरसावसाणे जीवलोए ते धन्ना जे तेलोक्कबंधुभूए, अचितचतामणिसन्निहे, परमरिसिसवन्नुदेसि धम्मे कयाणुराया आगारवासाथी' अणगारियं पव्वयंति । तओ य पाणवहमुसावायअदत्तादाज मेहुणपरिग्गहविरया, बायालीसेसणादोस परिसुद्ध पिण्डगाहिणो, संजोयणाइपंचदोसर हियमियकालभोइगो पंचसमिया, ति गत्ता, निरइयारवयपरिपाल - च गतोऽन्यत्र भगवान् विजसेनाचार्य इति । ततोऽतिक्रान्तेषु कतिपय दिनेषु राज्ञो गुणसेनस्य प्रासादतलसंस्थितस्य कथमपि श्रुत्वा हाहारवशब्दगर्भीणं मरणनरपतेरिव प्रयाणढक्काम्, संसारराक्षसस्य इव अट्टहासम्, जीवलोकस्य इव प्रमादचरितं मृतक डिण्डिमशब्दं प्रेक्ष्य तत् कृतान्नवशवर्तिनं चतुष्पुरुषधृतकायम्, क्रन्दद्बन्धुजनपरिवारितं शवम्; परमसंवेगभावितमतेः इन्द्रजालसदृशजीवलोकम् अवगम्य धर्मध्यानजलप्रक्षालितपापलेपस्य समुत्पन्ना चिन्ता वयमपि एवमेव मरणधर्माण इति । अहो ! नु खलु एवं विरसावसाने जीवलोके ते धन्याः, ये त्रैलोक्यबन्धुभूते, अचिन्त्यचिन्तामणिसन्निभे परमर्षिसर्वज्ञदेशिते धर्मे कृतानुरागा अगारवासाद् अनगारतां प्रव्रजन्ति । ततश्च प्राणवध - मृषावाद अदत्ताऽऽदान-मैथुन-परिग्रहविरताः द्विचत्वारिंशदेषणादोष परिशुद्धपिण्डग्राहिणः संयोजनादिपञ्च दोषरहितमित कालभोजिनः, पञ्चसमिताः, त्रिगुप्ताः, निरतिचार व्रतपर भगवान् विजयसेनाचार्य दूसरी जगह चले गये । [ समराइच्चकहा तदनन्तर कुछ दिन बीत जाने पर, जबकि राजा गुणसेन महल पर थे, उन्होंने हा-हाहाकार शब्द से युक्त ले जाये जाते हुए ढक्का का शब्द सुना । उस समय ऐसा लग रहा था मानो यमराज के प्रयाण का ढोल बज रहा हो अथवा संसार रूपी राक्षस का अट्टहास हो । संसार के प्रमादाचरण के समान मरण का सूचक डिण्डिम शब्द हो रहा था । उन्होंने ऐसे शव को देखा जो यम के वशवर्ती था, चार आदमी जिसकी काया को धारण किये हुए थे (उठाये हुए थे) तथा जिसके चारों ओर बन्धुजन क्रन्दन कर रहे थे । धर्मध्यान के जल से जो पापों के लेप को धो रहा था, धर्मध्यान रूपी जल से जिसके पाप धुल गये थे तथा जो अत्यधिक भय से युक्त बुद्धि वाला था ऐसे उस राजा को, इन्द्रजाल के समान संसार को जानकर, इस प्रकार चिन्ता उत्पन्न हुई - हम लोगों का भी इसी प्रकार मरण होगा। नीरस जिसका अन्त होता है, ऐसे संसार में वे धन्य हैं जो तीनों लोकों के बन्धु, अचिन्त्य चिन्तामणि के समान, परमर्षि सर्वज्ञ द्वारा निर्दिष्ट धर्म में अनुराग कर गृहावस्था से मुनि-अवस्था धारण कर लेते हैं । अनन्तर प्राणिवध झूठ बोलना, चोरी करना, मैथुन तथा परिग्रह से विरक्त होकर बयालीस एषणा दोषों से रहित शुद्ध आहार लेते हैं । संयोजनादि पांच दोषों से रहित, हितकारी, परिमित भोजन को यथेष्ठ समय कर १. अगारवासाओ । Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदमो भवो] ६७ णत्यमेव इरियासमियाइपणुवीसभावणोदवेया, अणसणमूगोयरियाइपायच्छित्तविणयाइसबाहिरभितरतबोगुणप्पहाणा मासाइयाणेगपडिमारिणो, विचित्तदन्दाभिग्गहरया, अण्हाणलोयलद्धाबलद्धवित्तिणो निप्पडिकम्मसरीरा समतणमणि लेठुकंचा, कि बहुगा, अट्टारससीलंगसहस्सधारिणो, उवमाईयविबुहजणपसंसियपसमसुहसमेश, अणेगगामाऽऽयरनगरपट्टणमडंबदोणमुहसंनिवेससयसंकुलं विहरिऊण मेइणि, मिच्छत्त पंकमग्गपडिबद्धे य सद्धम्मकहणदिवायरोदएण बोहिऊण भव्वकमलायरे, महातवच्चरणपरिकम्मियसरीरा जिणोवइठेण मग्गेण कालमासे कालं काऊण पाओवगमणेण देहं परिच्चयंति । तओ अहं पि इयाणि इमेण चेवं विहिणा देहं परिच्चइस्सं ति । पत्तो य मए भवसयसहस्सदुल्लहो, सयललोयालोयदिवायरो, सासयसुहप्पयाक्ककप्पपायवो, सयलतेलोक्कनिरुवर्माचतामणी, वियडसंसारजलहिपोयभूओ, धम्मसारही, भयवं विजयसेणावरिओ ति । अओ पवज्जामो धीरपुरिसपरिपालनार्थमेव ईसिमित्यादिपञ्चविंशतिभावनोपेताः, अनशन-ऊनोदरिकादि-प्रायश्चित्तविनयादि-सबाह्याऽभ्यन्तरतपोगुणप्रधानाः मासादिकानेकप्रतिमाधारिणः, विचित्रद्रव्याभिग्रहरताः अस्नान-लोचलब्धाऽपलब्धवृत्तयः, निष्प्रतिकर्मशरीराः, समतृणमणिलेष्टुकाञ्चनाः, किं बहुना अष्टादशशीलाङ्गसहस्रधारिणः, उपमातीतविबुधजनप्रशंसितप्रशमसुखसमेताः, अनेकग्रामाऽऽकरनगर-पट्टन-मडम्ब-द्रोणमुखसन्निवेशशतसंकुलां विहृत्य मेदिनीम्, मिथ्यात्वपङ्कमार्गप्रतिबद्धांश्च सद्धमकथनदिवाकरोदयेन बोधयित्वा भव्यकमलाकरान्, महातपश्चरणपरिकमितशरीराः जिनोपदिष्टेन मार्गेण कालमासे कालं कृत्वा पादोपगमनेन देहं परित्यजन्ति । ततोऽहमपि इदानीम् अनेन एवं विधिना देहं परित्यक्ष्यामि इति । प्राप्तश्च मया भवशतसहस्रदुर्लभः सकललोकालोकदिवाकरः, शाश्वतसुखप्रदानैककल्पपादपः सकल त्रैलोक्यनिरुपमचिन्तामणिः विकटसंसारजलधिप्रोतभूतः धर्मसारथिः भगवान् विजयसेनाचार्य इति । अतः प्रव्रजामः धीरहैं। पांच समितियों तथा तीन गुप्तियों का पालन करते हैं, निरतिचार व्रत के पालन करने के लिए ही ईर्यासमिति आदि पच्चीस भावनाओं से युक्त अनशन, ऊनोदरादि (भूख से कम भोजन करना) प्रायश्चित्त, विनयादि बाह्य तथा आभ्यन्तर तपोगुणप्रधान मासा दे का नियम कर अनेक प्रतिमा धारण करनेवाले, नाना प्रकार के द्रव्यों के अभिगृह से रहित, अस्नान, लोंच कठोरवृत्ति वाले; शृंगारादि से रहित शरीरवाले, तृण, मणि, ढेला, स्वर्ण में समान दृष्टिवाले, अधिक कहने से क्या-अठारह हजार शील के भेदों को धारण करनेवाले, अनुपमेय देवताओं (विद्वज्जन) द्वारा प्रशंसित प्रशम सुख से युक्त सैकड़ों ग्राम, आकर, नगर, पट्टन, मडम्ब, द्रोणमुख सन्निवेशों से व्याप्त पथ्वी पर विहार करनेवाले, मिथ्यात्वरूपी कीचड़ के मार्ग में फंसे हुए भव्य कमलों के लिए सद्ध कथनरूपी सूर्य के द्वारा प्रबोध प्राप्त करानेवाले, महान् तपश्चरण से शरीर को संस्कारित करनेवाले, जिनोपदिष्ट मार्ग के अनुसार मृत्यु के समय अनशन कर पादोपगमन नामक अनशनविशेष से देह त्यागते हैं । अतः मैं भी इसी विधि से शरीर का त्याग करूंगा। मुझे भगवान् विजयसेन आचार्य प्राप्त हुए हैं । वे भगवान लाखों भवों में भी दुर्लभ, समस्त संसार को प्रकाशित करने के लिए सूर्य के तुल्य, शाश्वत सुख का प्रदान करने के लिए एकमात्र कल्पवृक्ष, सम्पूर्ण तीनों लोकों के अनुपमेय चिन्तामणि, भयंकर संसार-समुद्र को पार करने १. मणिमुक्त, २. मिच्छत्तषण । Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [समराइच्चकहा सेवियं कम्मवणदावाणलं एयस्स समीवे महापव्वज्जं ति। चितिऊण सद्दाविया णेण सुबुद्धिपमुहा मंतिणो । कहिओ य तेसि निययाहिप्पाओ। तओ तप्पसंगओ देवोवलद्धजिणवयणसारेहि भणियं च तेहिं - अहो ! सहापुरिससहावाणुरूवं देवेण मन्तियं । खरपवणचालियनलिणजलमज्झगयचंदबिबचंचलम्मि जीवलोए किच्चमेयं भवियाणं, अहासुहं, मा करेह पडिबंधं ति । अन्नं च देव ! को नाम कस्सइ सुहित्तणं पवज्जिऊणं तं पलित्तजालावलीपरिगयाओ गेहाओ निसरंतं वारेइ? पलित्तं च सव्वदुक्खजलणेण संसारगेहं ति । ता बहुमयं नाम अम्हाणमेयं देवस्स ववसियं। असमत्था य अम्हे बुद्धिविहवेण भवओ मरणं निवारेउ ति। __तओ राइणा एयमायण्णिऊण 'एवमेयं' ति को तुम्भे मोत्तूण मम अन्नो हिओ' त्ति अहिणन्दिऊण सबहुमागं पहट्ठमुहकमलेणं दवावियं आघोसणापुव्वयं महादानं, काराविया भत्तिविभवाणुरूवा जिणाययणाईसु अट्ठाहिया महिमा, सम्माणिओ य पणइवग्गो, बहुमाणिया पउरजणवया, दिन्नं चन्दसेणाभिहाणस्स जेट्टपुत्तस्स रज्जं, पडिवन्ना भावओ पव्वज्जा । 'सुए य इओ गमिस्सामि, जत्थ परुषसेवितां कर्मवनदावानलम्-एतस्य समीपे महाप्रव्रज्याम्--इति चिन्तयित्वा शब्दायिताः तेन सुबुद्धिप्रमुखा मन्त्रिणः। कथितश्च तेषां निजकाभिप्रायः। ततः तत्प्रसङ्गतः एव उपलब्धजिनवचनसारैःणितं च तैः-अहो ! महापुरुषस्वभावानुरूपं देवेन मन्त्रितम् । खरपवनचालितनलिनजलमध्यगतचन्द्रबिम्बचञ्चले जीवलोके कृत्यमेतद् भव्यानाम्, यथासुखम्, मा कुरुत प्रतिबन्धम् - इति । अन्यच्च देव ! को नाम कस्यचिद् सुधीत्वं प्रपद्यतं प्रदीप्तज्वालावलीपरिगेताद् गेहाद् निस्सरन्तं वारयति ? प्रदीप्तं च सर्वदुःखज्वलनेन संसार गेहम् इति । ततो बहुमतं नाम अस्माकम्-एतद देवस्य व्यवसितम् । असमर्थाश्च वयं बुद्धिविभवेन भवतो मरणं निवारयितुम् इति । ततो राज्ञा एतद् आकर्ण्य ‘एवमेतद्' इति 'को युष्मान् मुक्त्वा 'मम अन्यो हितः' अभिवन्द्य सवहमानं प्रहृष्टमुखकमलेन दापितं आघोषणापूर्वकं महादानम्, कारिता भक्तिविभवानुरूपा जिनायतनादिष अष्टाह्निका महिमा, सम्मानितश्च प्रणयिवर्गः, बहुमानिताः पौरजानपदाः, दत्तं चन्द्रसेनाभिधानस्य ज्येष्ठपुत्रस्य राज्यम्, प्रतिपन्ना भावतः प्रव्रज्या । 'श्व इतो गमिष्यामि, यत्र भगवान् के लिए जहाज के तुल्य तथा धर्मसारथी हैं। अतः इन्हीं के समीप धीरपुरुषों के द्वारा सेवित कर्मरूपी वन के लिए दावाग्नि के समान दीक्षा धारण करता हूँ, ऐसा सोचकर उन्होंने सुबुद्धि प्रमुख मन्त्रियों को बुलाया। उनसे अपना अभिप्राय कहा । महाराज के प्रसंग से ही जिन्होंने जिनेन्द्रवचनों का सार प्राप्त किया था ऐ कहा, "अहो ! महापुरुषों के स्वभाव के अनुरूप महाराज ने विचार किया। तीक्ष्ण पवन के द्वारा चालित कमलिनी के समान अथवा जल के मध्य स्थित चन्द्रबिम्ब के समान चंचल संसार में भव्य लोगों का यह कर्तव्य है, सुखानुरूप है। इसमें रुकावट नहीं होनी चाहिए। दूसरी बात यह है कि महाराज ! कौन ऐसा है जो जलती हुई अग्नि से घिरे घर से निकलते हुए, अमृतत्व को प्राप्त व्यक्ति को रोकता है ? समस्त दुःखरूपी अग्नि से संसाररूपी घर जल रहा है । अतः महाराज ने जो यह निश्चय किया उसका हम आदर करते हैं। बुद्धिवैभव से हम लोग आपको मरण से छुटकारा दिलाने में असमर्थ हैं।" तब राजा ने सुनकर, “यह ऐसा ही है, आप लोगों को छोड़कर मेरा दूसरा कौन हितकारक है" इस प्रकार सम्मानपूर्वक अभिनन्दन कर प्रसन्नमुखकमल होकर घोषणापूर्वक महादान दिलाया। जिनमन्दिरादिक में भक्ति और वैभव के अनुरूप अष्टाह्निका पूजा करायी। स्नेही व्यक्तियों का सम्मान किया, नगरवासी और देशवासी लोगों का सम्मान किया, चन्द्रसेन नामक ज्येष्ठपुत्र को राज्य दिया और भावपूर्वक दीक्षा धारण की। कल Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढनो भयो] भयवं विजयसेणायरिओ त्ति चितिऊण ठिओ विवित्तदेसम्मि सव्वराइयं पडिमं । इओ य सो अग्गिसम्मतावसो अपडिक्कतो चेव तन्नियाणाओ कालं काऊण विज्जुकुमारेसु दिषड्ढपलिओवमट्टिई देवो जाओ त्ति । दिन्नो य तेण उवओगो 'किं मए हुयं वा, जट्ठवा, दाणं वा दिन्नं, जेण मए एसा दिवा देवड्ढी पत्त ति। आभोइओ य णेण पुत्वजम्मवुतंतो, कुविओ य उरि गुणसेगस्स। विहंगेगाहोइऊण आगओ तस्स समीवं । दिट्ठो य ण पडिमं ठिओ गुणसेणो। तओ य - . पडिमं ठियस्स तेणं विउविया कोहमूढहियएण। निरयाणलजलियसिहा (निहा) अइघोरा पंसुवुद्धित्ति ॥३॥ तीए य उज्झमाणो अणाउलं गरुयसतसंपन्नो। चितेइ भावियमणो धम्मम्मि जिणप्पणीयम्मि ॥८४॥ सारीरमाणसेहिं दुखेंहि अभिदुयम्मि संसारे। सुलहमिणं जं दुक्खं दुलहा सद्धम्मपडिवत्ती ॥५॥ विजयसेनाचार्य' इति चिन्तयित्वा स्थितो विविक्तदेशे सर्वरात्रिकी प्रतिमाम् । __इतश्च स अग्निशर्मतापसः अप्रतिकान्त एव तन्निदानात् कालं कृत्वा विद्यत्कूमारेष द्वयर्घपल्योपमस्थितिर्देवो जात इति । दत्तश्च तेन उपयोग: 'कि मया हुतं वा, इष्टं वा, दानं वा दत्तम येन मया एषा दिव्या देवधि: प्राप्ता' इति । आभोगितश्च तेन पूर्वजन्मवृत्तान्तः कुपितश्च उपरि गणसेनस्य । विभङ्गेन आभोग्य आगतस्तस्य समोपम् । दृष्टश्च तेन प्रतिमां स्थितः गणसेनः । ततश्च प्रतिमां स्थितस्य तेन विकुर्विता क्रोधमूढहृदयेन । निरयानल-ज्वलितशिखा (निभा) अतिघोरा पांशुवृष्टिरिति ।।३।। तया च दह्यमानोऽनाकुलं गुरुकसत्त्वसम्पन्नः ।। चिन्तयति भावितमना धर्मे जिनधर्मप्रणीते ।।४।। शारीरमानसैर्दुःखैः अभिद्रुते संसारे। सुलभमिदं यत् दुःखं दुर्लभा सद्धर्मप्रतिपत्तिः ॥८॥ यहाँ से, जहाँ भगवान् विजयसेनाचार्य हैं वहां जाऊंगा, ऐसा विचारकर एकान्त स्थान में रात भर प्रतिमायोग से स्थित रहा। इधर वह अग्निशर्मा तापस उस निदान से मरकर विद्युत्कुमारों में ढाई पल्य की स्थिति बाला देव हुआ। उसने ध्यान लगाया, क्या मैंने होम किया, यज्ञ किया अथवा दान किया, जिससे मैंने यह देवों का वैभव पाया ! उसने पूर्वजन्म का वृत्तान्त जाना और वह गुणसेन पर क्रोधित हुआ। विभंगावधि से जानकर उनके समीप आया। उसने प्रतिमायोग से स्थित गुणसेन को देखा । तदनन्तर प्रतिमायोग से स्थित उन पर क्रोध से मूढहृदयवाले अग्निशर्मा तापस के जीव ने विक्रिया कर नरकाग्नि के तल्य लपटों के समान अत्यन्त कठोर धलि की वर्षा की। उससे जलते हुए, आकुलतारहित, अत्यन्त बलवान राजा ने जिनेन्द्रदेव द्वारा प्रणीत धर्म में चित्त लगाकर विचार किया-- शारीरिक और मानसिक दुःखों से परिपूर्ण जगत् में दुःख सुलभ है और सच्चे धर्म की प्राप्ति दुर्लभ है । ।।८३-८५।। Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०. धन्नोऽहं जेण मए अणोरपारम्मि भव समुद्दम्मि । भवस सहस्सदुलहं लद्धं सद्धम्मरयणमिणं ॥ ८६ ॥ एयस्स पभावेण पालिज्जतस्स सइ पयत्तेणं । जम्मंतरम्मि जीवा पावंति न दुक्खदो गच्चं ॥ ८७ ॥ ता एसो च्चिय सफलो मज्झमणायरणदोसपरिहीणो । सद्धम्मलाभगरुओ जम्मो पाइम्मि संसारे ॥ ८८ ॥ विलिहइ य मज्झ हिययम्मि जो कओ तस्स अग्गिसम्मस्स । परिभवकोवुप्पाओ तवइ अकज्जं कथं पच्छा ॥ ८६ ॥ एहि पुण पडिवन्नो मेति सव्वेसु चेव जीवेसु । जिणवयणाओ अहयं विसेसओ अग्गिसम्मम्मि ॥६०॥ इय सो सुहपरिणामो तेणं विणिवाइओ उ पावेगं । मरिऊणं उववन्नो देवो सोहम्मकप्पम्मि ॥ ६१॥ धन्योऽहं येन मया अनवरपारे भवसमुद्रे | भवशतसहस्रदुर्लभं लब्धं सद्धर्मरत्नमिदम् ॥८६॥ एतस्य प्रभावेण पात्यमानस्य सदा प्रत्यनेन । जन्मान्तरे जीवाः प्राप्नुवन्ति न दुःखदौर्गत्यम् ॥८७॥ तत एतद् एव सफलं मम अनावरणदोषपरिहीनम् । सद्धर्मलाभगुरुकं जन्म अनादौ संसारे ||८|| विलिखति च मम हृदये यः कृतस्तस्य अग्निशर्मणः । परिभवकोपोत्पादः तपति अकार्यं कृतं पश्चात् ||८६ ॥ इदानीं पुनः प्रतिपन्नो मैत्री सर्वेषु एव जीवेषु । जिनवचनाद् अहं विशेषतः अग्निशर्मणि ॥ ६० इतः स शुभपरिणामः तेन विनिपातितस्तु पापेन । मृत्वा उपपन्नो देवः सौधर्मकल्पे ||१|| मैं धन्य हूँ जिसने, जिसे लाखों भवों में भी नहीं पाया जा सकता ऐसे, अतिविस्तीर्ण संसाररूपी समुद्र में दुर्लभ सच्चे धर्मरूपी रत्न को पा लिया है। इसके प्रभाव से अथवा इसके प्रयत्न से पालित हुए जीव दूसरे जन्म में दुःखपूर्ण गति को नहीं पाते हैं । अतः अनादि संसार में हृदय में आचरण दोष से रहित भारी सद्धर्म के लाभ से मेरा जन्म सफल ही हुआ है। मैंने अग्निशर्मा का अनादर करके उन्हें जो क्रोध पैदा किया है, वह मेरे हृदय में अंकित है, ( क्योंकि पूर्व में ) किया गया अकार्य बाद में सन्ताप देता है । इस समय जिनेन्द्र भगवान् के वचनानुसार समस्त जीवों में, विशेषकर अग्निशर्मा के प्रति, मंत्री भाव को प्राप्त होता हूँ । उस पापी के द्वारा मारा जाकर वह शुभपरिणामों से मरकर सौधर्म स्वर्ग में देव हुआ ॥ ८६-६१।। [सम Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पटनो भायो] अह सागरोवमाऊ जाओ चंदाणणे विमाणम्मि । देवाणुप्पत्तिविहि समासओ एत्थ वुच्छामि ॥२॥ ओहेणं चिय जह ते हवंति जंचऽच्छरादओ तेसि। निव्वत्तंतियरे' जह परमं देवस्स करणिज्जं ॥३॥ जह मेहाऽसणि तियसिंदचाव विज्जूण संभवो होइ। गयणम्मि खणेण तहा देवाण वि होइ उप्पत्ती ॥४॥ सो पुण मोत्तण इमं देहं विमल म्मि देवसयणिज्जे। निव्वत्तेइ सरीरं दिव्वं अंतोमुहुत्तेणं ॥६५॥ तम्मि समयम्मि तत्थ य गोयंति मणोहराइ गेयाई। कुसुमपयरं मयंति य सभमरयं तियसविलयाओ॥६६॥ नच्चंति दिव्वविभमसंपाइयतियसकोउहल्लाओ। वज्जतविविहमणहरतिसरीवीणासणाहाओ ॥७॥ अथ सागरोपमायुः जातः चन्द्रानने विमाने । देवानाम् उत्पत्तिविधि समासतोऽत्र वक्ष्यामि ॥१२॥ ओघेन एव यथा ते भवन्ति यच्च अप्सरादयस्तेषाम् । निर्वर्तयन्ति इतरे यथा परमं देवस्य करणीयम् ॥१३॥ यथा मेघाऽशनि त्रिदशेन्द्रचापविद्यतां भवति । गगने क्षणेन तथा देवानामपि भवति उत्पत्तिः ॥१४॥ स पुनः मक्त्वा इमं देहं विमले देवशयनीये । निर्वर्तयति शरीरं दिव्यम् अन्तम हर्तेन ॥६॥ तस्मिन् समये तत्र च गायन्ति मनोहराणि गेयानि । कुसुमप्रकरं मुञ्चन्ति च सभ्रमरकं त्रिदशवनिताः ॥६६॥ नत्यन्ति दिव्य विभ्रमसम्पादितत्रिदशकुतूहलाः । वाद्यमानविविधमनोहरत्रिस्वरीवीणासनीथाः ॥१७॥ उसकी सागरोपम आयु थी और चन्द्रानन विमान में उत्पन्न हुआ था। देवों की उत्पत्ति की विधि संक्षेप में यहाँ कहता हूँ। परम्परा के प्रवाह रूप से जैसे वे देव उत्पन्न होते हैं, वैसे ही उन्हें अपने अनुरूप अप्सराएँ आदि परिजन प्राप्त हो जाते हैं। वे परिजन उस उत्पन्न होने वाले देव के लिए करने योग्य सब कार्य सम्पादित करते हैं। जैसे आकाश में क्षण भर में बादल, वज्र, इन्द्रधनुष तथा बिजली की उत्पत्ति होती है उसी प्रकार देवों की भी उत्पत्ति होती है । वह जीव इस देह को छोड़कर निर्मल देवशय्या पर अन्तर्मुहूर्त में ही दिव्यशरीर प्राप्त कर लेता है । उस समय देवांङ्गनाएँ मनोहर गीत गाती हैं, और भ्रमरों से युक्त फूलों के गुच्छे छोड़ती हैं। नाना प्रकार की मनोहर 'त्रिस्वरी' नामक वीणा को बजाकर, देवों के मन में कौतूहल और विभ्रम उत्पन्न कर दिव्य नृत्य करती हैं ।।६२-६७॥ १, निव्वतंतिज्यरे, २. ससंभमं । Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [समराइच्चकहा देवा य हरिसियमणा करेंति उक्किट्ठसीहणायं च । मुणिऊण तस्स जम्मं सुदुल्लहं सयलभुवणम्मि' ॥९८॥ इयरो वि य कामगुणे सप्फासरसरूवगंधे य। दिव्वे समणुहवंतो हिट्ठो उठेइ सयराहं ॥६६॥ सुरयणनयणाणंदो दिव्वं देवंसुयं अहिखिवंतो। भासुरवरबोंदिधरो सपुण्णो सारदससि व्व ॥१००॥ तियसविलयाउ तत्थ य तहिय लडहाउ महुरवयणेहिं । जयजयजय त्ति नंदा थुगंति हिट्ठाउ एएहि ॥१०१॥ तियसा वि परमहिट्ठा गण्डयलावडिय कुंडलुज्जोया। सुरतरुकुसमाहरणा नमंति जयसद्दहलबोलं ॥१०२॥ अह तं दिव्वपरियणं दट्ठण लोयणेण संभंतो। दिन्नं हुयं वा किं मे इमं फलं जस्स दिव्वं ति ॥१०३॥ देवाश्च हृष्टमनसः कुर्वन्ति उत्कृष्टसिंहनादं च । ज्ञात्वा तस्य जन्म सुदुर्लभं सकलभुवने ॥६॥ इतरोऽपि च कामगुणान् शब्द-स्पर्श-रस-रूप-गन्धान् च । दिव्यान् समनुभवन् हृष्ट उत्तिष्ठति शीघ्रम् ।।६६॥ सुरजननयनानन्द: दिव्यं देवांशुक अधिक्षिपन् । भासुरवरमुखधरः सम्पूर्णः शारदशशीव ॥१००॥ त्रिदशवनितास्तत्र च तैश्च सुन्दरा मधुरवचनैः । जय जय जय इति नन्दा स्तुवन्ति हृष्टा एतैः ॥१०१॥ त्रिदशा अपि परमहृष्टा गण्डतलापतितकुण्डलोद्योताः।। सुरतरुकुमुमाभरणा नमन्ति जयशब्दहल बोलम् ॥१०२।। अथ तं दिव्यपरिजनं दृष्ट वा लोचनेन संभ्रान्तः । दत्तं हुतं वा कि मया इदं फलं यस्य दिव्यमिति ॥१०३॥ समस्त संसार में उसके जन्म को दुर्लभ जानकर देव प्रसन्न हो उत्कृष्ट सिंहनाद करते हैं । वह (देव) भी शब्द, स्पर्श, रस रूप तथा गन्धरूप दिव्य कामगुणों का अनुभव कर प्रसन्न होकर शीघ्र उठ जाता है। देवताओं के नेत्रों को आनन्द देने वाले दिव्य देववस्त्रों को पहनकर शरत्कालीन पूर्णिमा के चन्द्रमा के समान देदीप्यमान श्रेष्ठमुख का धारी हो जाता है। ये देवांगनाएँ प्रसन्न होकर अपने सुन्दर मधर वचनों से 'जय-जयजय' का नाद करती हुई स्तवन करती हैं । गालों के नीचे तक जिनके कुण्डलों की आभा फैल रही है तथा जो कल्पवक्षों के पुष्पों के आभरण से युक्त हैं ऐसे देव भी परमहर्षित होकर जयशब्द के उच्चारणपूर्वक (नवागन्तुक देव को) नमस्कार करते हैं । वह नेत्रों से दिव्य परिजनों को देखकर चकित होता हुआ सोचता है--मैंने क्या दान किया अथवा क्या होम आदि किया, जिसका यह दिव्यफल है ! ॥६८-१०३॥ १. जम्मम्मि । Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पामो भयो] काऊण य उवओगं दिव्वेणं अहिणा विसुद्धेणं । मुणिऊण सुचरियं तो करेइ अह देवकरणिज्ज ॥१०४॥ सासयजिणपडिमाणं पूयं पूयारुहो महारंभं। पोत्थयरयणं च तहा वाएइ मुहत्तमेत्तं तु॥१०॥ अह तियससंदरीओ निज्जियमहर्षदचंदबिबालो। पीणुन्नयसुपसाहियवरथणहरबंधुरंगीओ ॥१०६॥ तिवलतरंगभंगु रमज्झविरायंतहाररम्माओ। मुहलरसणाहिणंदियवित्थिण्णनियंबबिंबाओ॥१०७॥ तत्ततवणिज्जसन्निहमणहरथोरोरुजुयलकलियाओ। नहयंदसमुज्जोवियकुम्मुन्नयचलणसोहाओ॥१०॥ गाढपरिओसपसरियविलासिगारभावरम्माओ। पेच्छइ समूसियाओ वम्महसरसल्लियमणाओ ॥१०॥ कृत्वा च उपयोगं दिव्येन अवधिना विशुद्धेन । ज्ञात्वा सुचरितं ततः करोति अथ देवकरणीयम् ॥१०४।। शाश्वतजिनप्रतिमानां पूजां पूजाहः महारम्याम् । पुस्तकरत्नं च तथा वाचयति मुहूर्तमात्रं तु ॥१०५।। अथ त्रिदशसन्दर्यः निजितमुखचन्द्रचन्द्रबिम्बाः। पीनोन्नतसुप्रसाधितवरस्तनभरबन्धुराङ्गयः ॥१०६॥ त्रिवलीतरङ्गभगुरमध्यविराजद्धाररम्याः । मुखररशना (मेखला)ऽभिनन्दित-विस्तीर्णनितम्बबिम्बाः ॥१०७॥ तप्ततपनीय सन्निभमनोहरस्थूलोरुयुगलकलिताः । नखचन्द्रसमुद्योतितकूर्मोन्नतचरणशोभाः ॥१०८॥ गाढपरितोषप्रसतविलासशृङ्गारभावरम्याः । प्रेक्षते समुच्छिता मन्मथशरशल्यितमनसः ॥१०६।। ___दैवीय विशुद्ध अवधिज्ञान के बल से अपने सच्चरित्र को जानकर वह देवों के द्वारा करने योग्य कार्यों को करता है । पूजनीय, महारमणीक शाश्वत जिन-प्रतिमाओं की पूजा करता है और मुहूर्तमात्र पुस्तकरत्न को पढ़ता है । अनन्तर जिनके मुखचन्द्र ने चन्द्रमा के बिम्ब को जीत लिया है, परिपुष्ट, उन्नत, अच्छी प्रकार से सजाय हुए उत्तम स्तनों से जिनके अंग सुन्दर लग रहे हैं, त्रिवलियों की तरंगभंगी के बीच जिनका हार सुशोभित हो रहा है, करधनी के द्वारा जिनका विस्तृत नितम्बबिम्ब अभिनन्दित है, तपाये गये सोने के समान मनोहर और स्थूल जंघायुगल से जो युक्त हैं; जिनके चरणों के नखचन्द्र से कछए के उन्नत पैरों के समान शोभा प्रकट हो रही है, गाढ़ सन्तोष से विस्तृत विलास और शृंगार के भावों से जो रमणीय लग रही है, कामदेव द्वारा फेंके गये बाणों से जिनका मन विद्ध है ऐसी देवांगनाएँ दिखाई देती हैं ॥१०४-१०६।। Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ fireरगणे य घणियं अणुरत्ते दिव्वविहवसंपन्ने । तियसभवणाइ पेच्छइ सामिय ! इय जंपिरे लडहे ॥ ११० ॥ तियसविलयाहि समयं जयसद्दपणामियप्पभावाहिं । मोहण वियक्खणाहिं पेच्छइ तो तियसभवणाई ॥ १११ ॥ वित्थिष्णमरगय सिला संजय संजणिय वियडपीढाई । मणिरयणख इयमणहरफ लिहामणिभित्तिजुत्ताइं ॥ ११२ ॥ वेरुलियखम्भविरइयविचित्तवरसालिभंजियसयाइ । तह दिव्वखग्गचामरप ज्जुत्तकुडंतरालाई ॥११३॥ वरविविहदेवच्छंद विरड्य पहलंकसयसणाहाई । परिलं बियपट्ट सुयमुत्ताब लिजनियसोहाई ॥११४॥ तियसतरुकुसुममंडियकुट्टिमसंकंतभमरवंदाई । परिलिंब रयणदामाई ॥ ११५ ॥ धूवघडियाउलाई किङ्करगगांश्च गाढम् अनुरक्तान् दिव्यविभवसंपन्नान् । त्रिदशभवनानि प्रेक्षध्वं स्वामिक ! इति जल्पाकान् सुन्दरान् ॥११०॥ त्रिदशवनिताभिः समकं जयशब्दप्रणामितप्रभावाभिः । मोहनविचक्षणाभिः प्रेक्षते तदा त्रिदशभवनानि ॥ १११ ॥ विस्तीर्ण मरकतशिलासंचयसजनितविकटपीठानि । मणिरत्नखचितमनोहरस्फटिकमणिभित्तियुक्तानि ॥ ११२ ॥ वैस्तम्भविरचितविचित्र वरशालभञ्जिकाशतानि । तथी दिव्यखड्गचामरप्रयुक्त कूटान्तरालानि ॥ ११३॥ वरविविधदेवच्छन्दकविरचितपत्यङ्कशतसनाथानि । परिलम्बितपट्टांशुकमुक्ताव वलिजनितशोभानि ॥ ११४ ॥ त्रिदश रुकुसुममण्डित कुट्टिमसंक्रान्तभ्रमरवृन्दानि । धूपघटिकाकुलानि परिलम्बित रत्नदामानि ॥ ११५।। [ समराइच्च कहा 'स्वामी ! देवभवनों को देखिए' इस प्रकार सुन्दर वचन बोलते हुए दिव्य वैभव से सम्पन्न गाढ़ प्रेमी किकरण दिखाई देते हैं । जय शब्द और प्रणामों से जिनका प्रभाव व्यक्त हो रहा है, ऐसे वे देव मोहित करने में विचक्षण देवभवनों को देखते हैं । विस्तृत मरकतमणि की शिलाओं के समूह से वहाँ पर फर्श जड़ा हुआ है। मणि और रत्नों से खचित मनोहर स्फटिक मणियों से वहाँ की दीवारें बनी हैं। वैडूर्यमणि से निर्मित्त स्तम्भों में नाना प्रकार की श्रेष्ठ सैकड़ों शालभंजिकाएँ (पुतलियाँ) बनी हुई हैं तथा भवनों के मध्यभाग दिव्य खड्ग एवं चामर से युक्त हैं । श्रेष्ठ नाना प्रकार के देवों की रुचि के अनुरूप निर्मित सैकड़ों पलंगों से युक्त हैं तथा रेशमी वस्त्र और मोतियों की मालाओं के लटकने से वहाँ शोभा की गयी है। वहाँ पर कल्पवृक्ष के फूलों से मण्डित फर्श पर भौंरे मँडरा रहे हैं, धूमपात्रों से वे व्याप्त हैं तथा वहाँ रत्नों की मालाएँ लटक रही हैं ।। ११०-११५॥ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढमो भयो अह तेसु तियससुंदरिनिवहेण समं पुरासुकयपुण्णो। चिटुइ परितुहुमणो भुजतो दिव्ववर भोए ॥११६॥ भुंजिंसु' सो वि दिने भोए चंदाणणे विमाणंमि । सुरसुदरीहि सद्धि जहिच्छिए सागरमणूणं ॥११७॥ अथ तेषु त्रिदशसुन्दरी निवहेन समं पुरा सुकृतपूर्णः (पुण्यः)। तिष्ठति परितुष्टमना भुजानो दिपवरभोगान् ॥११६।। अभुङ्क्त सोऽपि दिव्यान् भोगान् चन्द्रानने विमाने । सुरसुन्दरीभिः सार्द्ध यथेच्छितान् सागरमनूनम् ॥११७॥ वहाँ जीव पूर्व पुण्य के फलस्वरूप देवांगनाओं के साथ सन्तुष्ट मनवाला होकर दिव्य, उत्कृष्ट भोगों को भोगता हुआ रहता है । गुणसेन के जीव ने भी देवांगनाओं के साथ इच्छानुसार दिव्यभोगों को चन्द्रानन विमान में एक सागर पर्यन्त भोगा। १. भुजिंतु। Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीओ भवो गुणसेण-अग्गिसम्मा जं अणियनिहासि तं गयमियाणि । सीहा-णंदा य तहा जं भगियं तं निसामेह ॥११॥ अत्थि इहेव जम्बुहोवे दीवे अबरविदेहे खेते अपरिमियगुणनिहाणं तियसपुरवराणुगारि उज्जाणारामभूसियं समत्थमेइणितिलय पूयं जयउरं नाम नयरं ति। जत्थ सुरूवो उज्जलनेवत्थो कलावियक्खणो लज्जालुओ महिलायणो, जत्थ य परदारपरिभोयम्मि किलीवो, परच्छिद्दावलोयणम्मि अंधो, पराववायभासणम्मि मूओ, परदव्वादहरणम्मि संकुचियहत्थो, परोवयारकरणेक्कतल्लिच्छो पुरिसवग्गो। तत्थ य निसियनिक्कड्ढियासिनिद्दलियदरियरिउहत्थिमत्थउच्छलियबहलरुहिरारत्तमुत्ताहलकुसुमपयरच्चियसमरभूमिभाओ रापा नामेण पुरिसदत्तो ति । देवी य से सयलंतेउरप्पहाणा सिरिकता नाम । सो इनाए सह निरुवमें भोए भुज्जिसु । इओ य सो चंदाणणविमाणाहिवई देवो अहाउयं पालिऊण तो चुओ रिरिकताए गन्भे उववन्नो ति । दिट्ठो य णाए गुणसेनाऽग्निशर्माणौ यद् भणितमिहासीत् तद् गतमिदानीम् । सिंहाऽऽनन्दौ च तथा यद् भणितं तद् निशम्यताम् ।।११८।। अस्ति इहैव जम्बुद्वीपे द्वीपे अपरविदेहे क्षेत्रे अपरिमितगुणनिधानं त्रिदशपुरवरानुकारि उद्यानारामभषितं समस्तमेदिनीतिलकभतं जयपुरं नाम नगरमिति । यत्र सुरूप उज्ज्वलनेपथ्यः कलाविचक्षणोः लज्जालमहिलाजनः, यत्र च परदारपरिभोगे क्लीवः, परच्छिद्रावलोकने अन्धः, परापवादभाषणे मूकः, परद्रव्यापहरणे संकुचितहस्तः, परोपकारकरण कतल्लिप्सः पुरुषवर्ग: । तत्र च निशितनिष्कासितासिनिर्दलितदृप्तारपुहस्ति मस्तकोच्छलितवहलरुधिरारक्तमुक्ताफलकुसुमप्रकराचितसमरभूमिभागो राजा नाम्नः पुरुषदत्त इति । देवी च तस्य सकलान्तःपुरप्रधाना श्रीकान्ता नाम । सोऽनया सह निरुपमान् भोगानभुङ्क्त । इतश्च स चन्द्राननविमानाधिपतिर्देवो यथायः पालयित्वा ततश्च्युतः श्रीकान्ताया गर्भे उत्पन्न इति । दृष्टश्चानया (तया) स्वप्ने तस्या गुणसेन तथा अग्निशर्मा के विषय में जो कहा गया था, वह पूरा हो गया । अब सिंह और आनन्द के विषय में जो कहा था, वह सुनिए॥११८॥ इसी जम्बूद्वीप के अपरविदेह क्षेत्र में जयपुर नाम का नगर था । वह अपरिमित गुणों का निधान था, श्रेष्ठ देवनगर के समान लगता था, उद्यानादि से विभूषित था और समस्त पृथ्वी के तिलक के समान था ; जहां पर उज्ज्वल वेशभूषा वाली, कलाओं में दक्ष, लज्जाशील महिलाएँ थीं; जहाँ पर-स्त्री के साथ भोग करने में नपुंसक, दूसरे के दोष को देलाने में अन्धा, दूसरे की निन्दा करने में गूगा, दूसरे के धन का अपहरण करने में संकुचित हाथ वाला और परोपकार करने में ही एक मात्र लिप्सा वाला पुरुषवर्ग पा। वहाँ का राजा पुरुषदत्त था, जिसने म्यान से बाहर निकाली हुई तीक्ष्ण तलवार की धार से मारे हए गर्वीले शत्रु के हाथी के मस्तक से निकली हुई खून की धारा से रंगे मुक्ताफल रूपी कमलों के समह से युद्धभूमि की अर्चना की थी। उसकी समस्त अन्तःपुर में प्रधान श्रीकान्ता नामक देवी थी। वह उसके साथ अनुपम भोगों को भोग रहा था। इधर वह चन्द्रानन विमान का अधिपति देव आयुपूर्ण कर वहां से च्युत हो Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीमो भयो] सुविणयम्मि तीए चेव रयणीए निळूमसिहिसिहाजालसरिसकेसरसडाभारभासुरो विमलफलिहमणिसिला-निहप-हंस-हारधवलो आपिंगलवट्टसुपसंतलो रणो मियंकलेहासरिसनिग्गयदाढो पिहुलमणहरवच्छत्थलो अइतणुयमज्झभाओ सुवट्टियकढिणकडि बडो आवलियदोहलंगूलो सुपइदिओरुसंठाणो कि बहुणा, सवंगदराहिरामो सीहकिसोरगो वयणेगमपरं पविसमाणो ति । पासिऊण य तं सुहविउद्घाए जहाविहिणा सिट्ठो दइयस्स। तेग भणियं--अणेयसामंतपणिवइय वलणजुयलो महारायसहस्स निवासट्ठाणं पुत्तो ते भविस्तइ । तो सा तं पडिसुणेऊग जहासुहं चिट्ठ । पत्ते य उचियकाले महापुरिसगम्भाणुभावेण जाओ से दाहलो । जहा -देमि सबसताणमभयदाणं, दोणाणाहकिवणाणं च इस्सरियसपयं, जइजणाणं च उवट्ठभदाणं, सव्वाययणाणं च करेमि पूयं ति । निवेइओ य इमो तीए भत्तारस्स । अब्भहियजायहरिसेगं संपाडिओ य तेणं । तस्स संपायणेण जाओ, महापमोओ जणवयाणं । अवि य मेव रजन्यां नि मशिखिशिखाजालसदशकेसरसटाभारभासुरो विमलस्फटिक-मणिशिला-निकषहंस-हारधवल आपिङ्गलसुप्रशान्तलोचनो मगाङ्कलेखासदृश निर्गतदाढः पृथुलमनोहरवक्षःस्थलो अतितनुकमध्यभागः सुवर्तितकठिनकटितट आवलितदीर्घलागल: सुप्रतिष्ठितारुसंस्थान:, किंबहुना सर्वाङ्गसन्दराभिराम: सिंहकिशोरको वदनेनोदरं प्रविशन्निति । दृष्ट्वा च तं सखविबुद्धया यथा. विधिना शिष्टो दयितस्य । तेन भणितम्-अनेकसामन्तप्रणिपतितचरणयुगलो महाराजशब्दस्य निवासस्थान पुत्रस्ते भविष्यति । ततः सात प्रतिश्रुत्य यथासुखं तिष्ठति । प्राप्ते चोचितकाले महापुरुषगर्भानुभावेन जातः तस्या दोहदः । यथा--ददामि सर्वसत्त्वानामभयदानम्, दीनानाथकृपणानां च ऐश्वर्यसम्पदम्, यतिजनानां च उपष्टम्भदानम्, सर्वायतनानां च करोमि पूजमिति । निवेदितश्चायं तथा भत्रे। अभ्यधिकजातहर्षेण सम्पादितस्तेन । तस्य सम्पादनेन जातो महाप्रमोदो जनपदानाम् । अपि च श्रीकान्ता के गर्भ में आया। श्रीकान्ता ने उसी रात स्वप्न में धूमरहित अग्नि की लौ के समान गर्दन के बालों से शोभित, स्वच्छ स्फटिक मणियों की शिला, कसौटी, हंस तथा हार के समान सफेद और लालिमा लिये हुए भूरे रंग वाला, शान्त नेत्रों वाला, चन्द्रमा की रेखा के सदृश जिसकी दाढ़ें निकल रही थीं, विस्तीर्ण और मनोहर वक्षःस्थल वाला, जिसका मध्यभाग अत्यन्त कृश था, अतिशय गोल कमर के कठिन भाग से भली-भांति मुड़ी हुई गोल-गोल लम्बी पूंछ से युक्त जिसकी जांधों का आकार प्रतिष्ठिा था, अधिक कहने से क्या, सभी अंगों से सुन्दर लगने वाला एक सिंह का बच्चा मुंह से उदर में प्रवेश करते हुए देखा। उसे देखकर (उसने) सुखपूर्वक जागकर यथाविधि पति से निवेदन किया। पति ने कहा - "अनेक सामन्तों से पूजित पादयुगल वाला, महाराज शब्द का निवासस्थान तुम्हारा पुत्र होगा।" तदनन्तर उसे स्वीकार कर वह सुखपूर्वक रहने लगी। उचित समय आने पर महापुरुष के गर्भ में आने के अनुरूप प्रभावशाली उसका दोहला हुआ कि 'मैं समस्त प्राणियों को अभयदान दं. दीन, अनाथ और कृष्ण लोगों को ऐश्वर्य सम्पदा दूं । यतियों को आहार तथा अपेक्षित वस्तुएँ दान करूं तथा सभी देवमन्दिरों की पूजा करूँ। उसने पति से यह (दोहद निवेदन किया। अत्यधिक हर्षित होकर राजा ने उसे पूर्ण किया। उसके पूर्ण करने पर देशवासियों को अत्यधिक हर्ष हुआ। और भी Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [समराइन्धकहा सव्व च्चिय धन्नाणं होइ अवस्था परोवयाराए। बालससिस्स व उदओ जणस्स भवर्ण पयासेइ ॥११॥ तओ जहासुहेण धम्मनिरयाए पयोववारसंपावणेणं सुलद्धजम्माए अइकन्ता नव मासा अद्धट्ठमराइंदिया। तओ पसत्थे तिहिकरण-महत्त-जोए सुकुमालपाणि-पायं सयलजणमणोरहेहि देवी सिरिकता दारयं पसूय त्ति। निवेइओ रन्नो सुहं करियाभिहाणाए दासियाए पुत्तजम्मो । परितुट्ठो राया, दिन्नं च लीए पारिओसियं । कारावियं च बंधणमोषणाइयं करणिज्ज, पवत्तो य नयरे महाणंदो, सोहाविया नयरिजग्गा, पसमाविओ रयो कुंकुमजलेणं, विप्पइण्णाई रुंटतमयरसणाहाइं विचित्तकुसुमाइं, कमाओ हट्टभवणसोहाओ, पहभवणेसु समात्याइं मंगलतराई, सहरिसं च नच्चियं रायजणनागरेहिं ति। एवं च पइदिणं महामहंतमाणंदत्तोक्खमणुहवंताणं अइक्कंतो पढममासो। पइट्टावियं च से नाम बालस्स सुविणयदंसणनिमित्तणं सोहो त्ति । सो य विसिलैं पुण्णफलमणुहवंतो अभग्ग(ज्ज)माणपसरं पणईणं मणोरहेहि पयाण पुण्णेण-- सर्वा एव धन्यानां भवति अवस्था परोपकाराय । __ बालशशिन इवोदयो जनस्य भुवनं प्रकाशयति ॥११६॥ ततो यथासुखं धर्मनिरतया परोपकारसम्पादनेन सुलब्धजन्मकया अतिक्रान्ता नव मासा अर्द्धाष्टमरात्रिंदिवाः। ततः प्रशस्ते तिथिकरण-मुहूर्त-योगे सकुमारपाणि-पादं सकल जनमनोरथैः देवी श्रीकान्ता दारकं प्रसूतेति । निवेदितं राज्ञः शुभंकरीकाभिधानया दास्या पुत्रजन्म । परितुष्टो राजा, दत्तं च तस्यै पारितोषिकम् । कारितं च बन्धनमोचनादिकं करणीयम्, प्रवृत्तश्च नगरे महानन्दः, शोभिता नगरीमार्गाः, प्रशमितं रजः कुंकुम जलेन, विप्रकीर्णानि रबन्मधुकरसनाथानि विचित्रकुसुमानि, कृताः हट्टभवनशोभाः, पथभवनेषु समाहतानि मङ्गलतूर्याणि, सहर्षे च नर्तितं राजजननागरैरिति । एवं च प्रतिदिनं महामहद आनन्दसौख्यमनुभवतोरतिक्रान्तः प्रथममासः । प्रतिष्ठापितं च तस्य नाम बालस्य स्वप्नकदर्शननिमित्तेन सिंह इति । स च विशिष्टं पुण्यफलमनुभवन अभग्न (ज्य)मानप्रसरं प्रणयिनां मनोरथैः प्रजानां पुण्येन सभी धन्य व्यक्तियों की अवस्था परोपकार के लिए होती है। बाल चन्द्र ना के समान मनुष्य का उदय लोक को प्रकाशित करता है ॥११६॥ अनन्तर सुखपूर्वक धर्म में रत रहते हुए, परोपकार सम्पादन के द्वारा अपने जन्म को सफल मानते हुए नौ मास तथा साढ़े आठ दिन व्यतीत हुए। तब उत्तम तिथि, करण, मुहूर्त का योग होने पर सुकुमार हाथ-पैरों वाले, समस्त लोगों के मनोरथ के अनुरूप पुत्र को देवी श्रीकान्ता ने प्रसव किया। शुभंकरिका नामक दासी ने राजा से पुत्र के जन्म के विषय में निवेदन किया। राजा सन्तुष्ट हुआ और दासी को पारितोषिक दिया। बन्दीजनों को छोड़ने आदि के कार्य कराये । नगर में बहुत खुशियाँ मनायी गयीं । नगर के मार्ग सजाये गये । कुंकुम के जल से धूलि पर छिड़काव किया गया। गुंजार करते हुए भौंरों से युक्त नाना प्रकार के फूल फैलाये गये । बाज़ार तथा भवनों की शोभा की गयी । रास्ते के भवनों में मंगल बाजे बजाये गये। राज्य के निवासी नागरिकजन हर्षपूर्वक नाच उठे । इस प्रकार प्रतिदिन अत्यधिक आनन्द और सुख का अनुभव करते हुए प्रथम मास बीत गया । उस बालक का नाम स्वप्नदर्शन के निमित्त से सिंह रखा गया। अपने विशिष्ट पुण्यों का अखण्डित फल भोगते हुए अपने परिजन वृन्द के मनोरथों के अनुरूप प्रजा के सौभाग्य से उस राजकुमार ने - Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोलो भयो] जोव्वणमणुवम सोहं कलाकलावपरिवड्ढियच्छायं । जणमणनयणानंद चंदो व्व कमेण संपत्तो ॥ १२० ॥ अन्नयाय संपत्तजोव्वणस्स कुसुमचावस्स विहिय् याणुकूलो तरुणजणहिययाणंदयारी आगओ वसंतसमओ । जत्थ सविसेसं कुसममय कोदंड मंडली संधिय सिलीमुहो रडं दंसिऊण जर्णाहिययाइं विधिउं पयत्तो प्रयणो । अनंतरं च तस्स चेव जयजयसद्दो व्व कोइलाहिं कओ कोलाहलो, विरहग्गज्झतपहियसंघायधूमपडलं व दियंभियं सहयारेसु भमरजालं, गयवइयामसाणजलणेहि विव पत्तिं दिसामंडलं किसूयकुसुमेह ति । तओ एवंविहे वसंतसमए सो सीहकुमारो अणेयतरुणजणवेदिओ महाविभूईए केलिनिमित्तं गओ पमुइयपर हुयासद्दजणियत रुणीजणचित्तविन्भमुल्लोलं सुरहिमलयपवणपणच्चाविय कुसुमभरभज्जमान लयाविडविजालं मय मुइय महल महुयरकुलोवगीयमाणग्गसोहं वासहरं पिव वसंतलच्छीए कोलासुंदरं नाम उज्जाणं, पवत्तो य कौलिउँ विचित्तकाहि ति । दिट्ठाय तेण तत्थ उज्जाणे नाइदूरदेससंठिया कुसुमपरिमल सुगंध वेणि महुयरावली यौवनमनुपमशोभं कलाकलापपरिवर्धित छायं । जनमनोनयनानन्दं चन्द्र इव क्रमेण सम्प्राप्तः ॥ १२० ॥ अन्यदा च सम्प्राप्तयौवनस्य कसुमचापस्यापि हृदयानुकूलः तरुणजनहृदयानन्दकारी आगतो वसन्तसमयः । यत्र सविवेशं कुसुममय कोदण्डमण्डलीसन्धितशिलीमुखो रति दर्शयित्वा जनहृदयानि व्यद्धं प्रवृत्तो मदनः । अनन्तरं च तस्यैव जयजयशब्द इव कोकिलाभिः कृतः कोलाहलः, विरहाग्निदह्यमानपथिकसंघात धूमपटलमिव विजृम्भितं सहकारेषु भ्रमरजालम् । गतपतिकाश्मशानज्वलनैरिव प्रदीप्त दिग्मण्डलं किंशुककुसमैरिति । तत एवंविधे वसन्तसमये स सिंहकुमारोSeaरुणजनवेष्टितो महाविभूत्या केलिनिमित्तं गतः प्रमुदितपरभृताशब्दजनिततरुणीजनचित्तविभ्रमोल्लोलं सुरभिमलयपवनप्रनर्तित कुसुमभरभज्यमानलताविटपिजालं मदमुदितमुख रमधुकरकुलोपगीयमानाग्रशोभं वासगृहमिव वसन्तलक्ष्म्याः क्रीडासुन्दरं नामोद्यानम्, प्रवृत्तश्च क्रीडितुं विचित्रक्रीडाभिरिति । दृष्टा च तेन तत्रोद्याने नातिदूरदेश संस्थिता कुसुमपरिमल सुगन्धवेणी जिसकी ज्योत्सना बढ़ती जा रही है, जो लोगों के मन और नेत्रों के लिए आनन्दप्रद है, उस चन्द्र की तरह क्रमशः यौवन प्राप्त किया। वह यौवन अनुपम शोभायुक्त, कलाओं के कारण विशेष आकर्षक तथा जन-जन के मन और नयनों के लिए आनन्ददायी था ।। १२० ।। एक बार योवन को प्राप्त हुए कामदेव के भी हृदय के अनुकूल तरुण पुरुषों के हृदय को आनन्द पहुँचाने वाला वसन्तकाल आ गया। जहाँ पर लोगों के हृदय को वेधने के लिए रति को दिखलाकर पुष्पमयधनुष की सन्धि पर भ्रमररूपी बाणों को चढ़ाये हुए प्रविष्ट होता हुआ कामदेव प्रवृत्त हुआ । अनन्तर उसी ( वसन्त) के ही जयजय शब्द के समान कोयलों ने कोलाहल किया । विरहरूपी अग्नि से जलते हुए पथिकों के समूह से, धुएँ के समूह के समान आमों पर भ्रमर समूह वृद्धि को प्राप्त हुआ । स्वामी से बिछुड़ी हुई स्त्रियों की श्मशान की-सी (विरह) अग्नि के समान दिशामण्डल पलाश के फूलों से प्रदीप्त हो उठा। ऐसे वसन्त समय में अनेक युवकों से घिरा हुआ महान् विभूति से युक्त राजकुमार सिंह क्रीड़ा के लिए क्रीड़ासुन्दर नामक उद्यान में गया । वह उद्यान आनन्दित होती हुई कोयलों के शब्द से तरुण स्त्रियों के चित्त में विलास की चंचलता उत्पन्न कर रहा था, सुगन्धित मलयानिल से नाचती हुई और पुष्पों के भार से झुकी हुई लताओं और वृक्षों से युक्त था तथा मद से प्रसन्न, गुंजार करते हुए भींरों के समूह से उसकी श्रेष्ठ शोभा का गान किया जा रहा था। वह मानो वसन्तरूपी लक्ष्मी का निवासस्थल था । वहाँ पर वह नाना प्रकार की कीड़ाओं के करने में प्रवृत्त हुआ । उसने उस उद्यान में Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [समराइच्चकहा विखुमलयायंबहत्थपल्लवा उव्वेल्लंतकोमलतणुबाहुलया रंभाखंभमणहरोरुजुयला थलकमलारत्तकोमलचलणजुयला उज्जाणदेवय व्व उउलच्छिपरियरिया नियमाउलगस्स चेव महासामंतस्स लच्छिकताभिहाणस्स धूया सहियणसहिया वसंतकीलमणुहवंती कुसुमावली नाम कन्नगा। तओ तं दणमणंतभवभत्थरागदोसेण साहिलासं पुलोइया । दिट्ठोवि य एसो वि तीए तओ विभागाओ तस्स भमेण चेव तुरियतुरियमोसरंतीए कुसुमावलीए । चितियमिमीए- कहं कोलासुंदरुज्जाणस्स रम्मयाए भयवं मयरद्धओ वि एत्थेव कोलासुहमणुहवइ ति। एत्यंतरम्मि भणिया पियंकराभिहाणाए चेडीए। सामिणि ! अलं अलमोसक्कणेण ; एसो खु राइणो पुरिसदत्तस्स पुत्तो तुह चेव पिउच्छागठभसंभवो सोही नाम कमारो त्ति। पढमोगमणकयपरिग्गहं च सामिणि एवमोसकमाणि पेच्छिय मा अदक्खिण्णं ति संभाविस्सइ। ता चिहि यउ इहं, कीरउ इमस्स महाणुभावस्स रायकन्नोचिओ उबयारो । तओ हरिसवसपुलइयंगीए सविरुभमं साहिलासं च अवलोइऊण कुमारं भणियं इमीए। मधुकरावली विद्रुमलताताम्रहस्तपल्लवा उद्वेल्लत्कोमलतनुबाहुलता रम्भास्तम्भमनोहरोरुयुगला स्थलकमलारक्तकोमलचरणयुगला उद्यानदेवता इव ऋतुलक्ष्मीपरिचरिता निजमातुलकस्यैव महासामन्तस्य लक्ष्मीकान्ताभिधानस्य दुहिता सखीजनसहिता वसन्तक्रीडामनुभवन्ती, कुसुमावली नाम कन्यका । ततस्तां दृष्ट्वा अनन्त भवाभ्यस्त रागदोषेण साभिलाषं दृष्टा । दृष्टश्च एषोऽपि तया ततो विभागात् तस्य भ्रमेणैव त्वरितत्वरितमपसरन्त्या कुसुमावल्या। चिन्तितमनया- कथं क्रीडासुन्दरोद्यानस्य रम्यतया भगवान् मकरध्वजोऽपि अत्रैव क्रीडासुखमनुभवतीति । अत्रान्तरे भणिता प्रियङ्कराभिधानया चेट्या। स्वामिनि ! अलं अलमवष्वस्कनेन (अपसरणेन) ; एषः खलु राज्ञः पुरुषदत्तस्य पुत्रः तवैव पितृष्वसृगर्भसम्भवः सिंहो नाम कुमार इति । प्रथमागमनकृतपरिग्रहां च स्वामिनी एवमवष्वस्कन्ती (अपसरन्ती) दृष्ट्वा मा अदाक्षिण्यामिति सम्भावयिष्यति । तावत् तिष्ठतु इह, क्रियतामस्य महानुभावस्य राजकन्योचितोपचारः । ततो हर्षवशपुलकिताङ्गया सविभ्रमं साभिलाषं च अवलोक्य कुमारं भणितमनया। सखि ! प्रियङ्करिके ! त्वमेवात्र कुशलाः कसमावली नामक कन्या को देखा । वह समीपवर्ती स्थान में ही स्थित थी। फूलों की सुगन्धि से सुगन्धित भौंरों के समूह के समान उसकी चोटी थी। मुंगे के समान ताम्रवर्ण वाले उसके हस्तपल्लव थे। हिलती-डुलती कोमल और पतली उसकी भुजलताएं थीं। केले के स्तम्भ के समान उसकी दो मनोहर जंघाएँ थीं। स्थलकमल के समान लाल और कोमल उसके दोनों चरण थे। ऋतुरूपी लक्ष्मी से घिरी हुई उद्यानदेवी के समान अपने ही मामा महासामन्त लक्ष्मीकान्त की बेटी (कुसुमावली) सखियों के साथ वसन्त क्रीड़ा का अनुभव कर रही थी। अनन्तभवों के रागरूपी अभ्यास के दोष से उसे देखकर उसने अभिलाषायुक्त होकर देखा। उसने भी भ्रम से जल्दी-जल्दी पीछे हटते हुए उधर से उसकी ओर देखा। उसने विचार किया-क्या बात है कि क्रीडासुन्दर उद्यान की रमणीयता से (प्रभावित होकर) भगवान् कामदेव भी यहीं क्रीड़ासुख का अनुभव करते हैं ! इसी बीच प्रियङ्करा नामक दासी ने कहा, "स्वामिनि ! आगे मत बढो, आगे मत बढ़ो ! यह राजा पुरुषदत्त का पुत्र आप के ही पिता की बहन के गर्भ से उत्पन्न सिंह नाम का कुमार है। आप यहां पहले से आयी हुई हैं, आपको वापस जाते देखकर ये कहीं अशिष्टता न समझें। मतः यहीं ठहरिए और इन महानुभाव का राजकन्या के योग्य सत्कार कीजिए। तब हर्ष के वशीभूत होकर Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीमो भयो] हला ! पियंकरिए ! तुमं चेवऽत्थ कुसला, ता निवेएहि, किं मए एयस्स कायव्यं ति । तीए भणियं'सामिणि ! पढमागयाओ अम्हे ; ता अलंकरावीयउ आसणपरिग्गहेणं इमं पएस एसो, कीरउ से सज्जणजणाण संबंधपायवबीयभूयं सागयं, दिज्जउ से सहत्थेण कालोचियं वसंतकुसुमाभरणसणाहं तम्बोलं ति।' कुसमावलीए भणियं-'हला ! न सक्कुणोमि अइसज्भसेण इमं एयस्स काउं; ता तुमं चेव एत्थ कालोचियं करेहि त्ति ।' एत्थंतरम्मि य पत्तो तमद्देसं कुमारो। तओ सज्जिऊणासणं भणिओ पियंकरीए-'सागयं रइविरहियस्स कुसुमचावस्स, इह उवविसउ महाणुभावो । तओ सो सपरिओसं ईसि विहसिऊण 'आसि य अहं एत्तियं कालं रइविरहिओ, न उण संपयं' ति भणिऊणमुवविट्ठो। उवणीयं च पियंकरियाए माहवीकुसुममालासणाहं कलधोयमयतलियाए तंबोलं, गहियं च तेण। एत्यंतरम्मि य आगओ कुसुमावलीजणणीए आहवणनिमित्तं पेसिओ संभरायणो नाम कन्नतेउरमहल्लगो। दिट्ठा य तेण साणुरायं अपेच्छतमद्धच्छिपेच्छिएहिं कुमारमवलोएंती कुसुमावली । चितियं च णेण-समागओ मयणो रईए जई विही अणुवत्तिस्सइ। तओ पच्चासन्नमागंतूण कुमारमहिणंदिय भणियं संभरायणेणं । वच्छे ! कुसमावलि, देवी मत्तावली आमवेइ अइचिरं तावत निवेदय, कि मया एतस्य कर्तव्यमिति । तया भणितम्-'स्वामिनि ! प्रथमागता वयं; तस्माद् अलंकार्यतामासनपरिग्रहेण इमं प्रदेशं एषः, क्रियतां तस्य सज्जनजनानां सम्बन्धपादपबीजभतं स्वागतम्, दीयतां तस्य स्वहस्तेन कालोचितं वसन्तकुसमाभरणसमाथं ताम्बूलमिति ।' कुसुमावल्या भणितम्-'सखि ! न शक्नोमि अतिसाध्वसेनेदमेतस्य कर्तुम् । तस्मात् त्वमेवात्र कालोचितं करु इति ।' अत्रान्तरे च प्राप्तस्तमुद्देश कुमारः । ततः सज्जित्वाऽऽसनं भणितः प्रियङ्कर्या-'स्वागत रतिविरहितस्य कुसमचापस्य, इह उपविशतु महानुभावः' । तत: स सपरितोषं ईषद् विहस्य 'आसं चाहं एतावन्तं कालं रतिविरहितो, न पुनः साम्प्रतम्' इति भणित्वोपविष्टः। उपनीतं च प्रियङ्का माधवीकुसुममालासनाथं कलधौतमयतलिकायां (सुवर्णमयभाजनविशेषे) ताम्बूलम्, गहीतं च तेन । अत्रान्तरे च आगतः कुसुमावली जनन्या आह्वाननिमित्तं प्रेषितः सम्भरायणो नाम कन्यान्तःपुरमहल्लकः । दृष्टा च तेन सानुरागमपश्यन्तम क्षिप्रेक्षितैः कुमारमवलोकयन्ती कसुमावली। चिन्तितं च तेन-समागतो मदनो रत्या यदि विधिरनुवतिष्यते। ततः प्रत्यासन्नमागत्य पुलकित अंगों वाली इसने विलास और अभिलाषा के साथ कुमार को देखकर कहा, "सखि प्रियंकारिके ! इस विषय में तुम ही निपुण हो, अतः कहो इसके विषय में मेरा क्या कर्त्तव्य है ?" उसने कहा, "स्वामिनि ! हम लोग पहले आये हैं अतः यह आसन स्वीकार कर इस स्थान को अलंकृत कर; उसका सज्जन व्यक्तियों के सम्बन्ध का बीजभूत स्वागत करें। उसे अपने हाथ से समयोचित वसन्तकालीन पुष्परूपी आभरण से युक्त पान दें।" कुसुमावली ने कहा, "सखि ! अत्यन्त घबड़ाहट के कारण इसके प्रति मैं यह कार्य नहीं कर सकती हूँ। अता तुग ही यहां पर समयोचित कार्य करो।" इसी बीच उस स्थान पर कुमार आ गया। तब आसन को सज्जित कर प्रियंकरी ने कहा, "रति से बिछुड़े हुए कामदेव का स्वागत है। महानुभाव यहाँ पर बैठे।" तब सन्तोष के साथ मुसकराकर, "अभी तक मैं रति से बिछुड़ा था। अब बिछुड़ा नहीं हूँ" ऐसा कहकर बैठ गया। प्रियंकरी ने माधवी पुष्प की माला से युक्त पान को सोने की तस्तरी में भेंट किया। राजकुमार ने उसे ग्रहण किया। इस बीच कुसुमावली की माता द्वारा उसे बुलाने के लिए भेजा गया कन्याओं के अन्तःपुर का सम्भरायण नामक वृद्ध सेवक आ गया। उसने आधी आँख से कुमार, जो उधर नहीं देख रहा था, का अवलोकन करती हुई कुसुमावली को देखा। उसने सोचा यदि विधाता साथ देता है तो कामदेव का रति से समागम हो गया। अनन्तर समीप आकर कुमार का अभिनन्दन कर सम्भरायण ने कहा, "पुत्री कुमुमावली, महारानी मुक्तावली आज्ञा देती हैं कि Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ [ समराइच्चकहा कोलियं मा सरीरखेदो भविस्सइ ता लहुं आगंतव्वं ति ।' तो सा 'जं अम्मा आणवेइ' त्ति भणिऊण सभमं कुमारमवलोएंती निग्गया उज्जाणाओ, पत्ता य कुमारं चेव चितयंती निययगेहं । तओ देवि पण मऊणमारूढा दंतबलहियं ( शयनगृहविशेषः) । तओ कुमारं चेव अणुसरती विमुक्कदीहनीसासा समु विट्ठालंकसयणिज्जे, विसज्जिओ य तीए संमाणिउं सही सत्थो । अह सेविउं पयत्ता सेज्जं अणवरयमुक्कनीसासा । मयणसरसल्लियमणा नियकज्ज नियत्तवावारा ॥१२१॥ नालिहइ चित्तकम्म न चांगरायं करेइ कर णिज्जं । नाहिलसा आहारं अहिणंदइ नेय नियभवणं ॥ १२२ ॥ चिरपरिचियं पि पोढइ नेय सुयसारियांण संघायं । कीलावेइ मणहरे चडुले न च भवणकलहंसे ॥ १२३ ॥ विहरइ न हम्मियतले मज्जइ न य गेहदीहियाए उ । सारेइ नेय वीणं पत्तच्छेज्जं पिन करेइ ॥ २२४॥ कुमारमभिनन्द्य भणितं संभरायणेन । 'वत्से ! कुसुमावलि, देवी मुक्तावली आज्ञापयति, अतिचिरं कोडितं मा शरीरखेदो ते भविष्यति, तस्माद् लघु आगन्तव्यं इति । ततः सा 'यदम्बा आज्ञापयति' इति भणित्वा ससम्भ्रमं कुमारमवलोकयन्ती निर्गता उद्यानात् प्राप्ता च कुमारमेव चिन्तयन्ती निज गेहम् । ततो देवीं प्रणम्य आरूढ़ा दन्तवलभिकां । ततः कुमारमेव अनुसरन्ती विमुक्तदीर्घनिः श्वासा समुपविष्टा पल्यङ्कशयनीये, विसज्जितश्च सम्मान्य सखोसार्थः । अथ सेवितुं प्रवृत्ता शय्यां अनवरतमुक्तनिःश्वासा | मदनशरशल्यितमनाः निजकार्यंनिवृत्तव्यापारा ॥१२१॥ नाखिति चित्रकर्म न चाङ्गरागं करोति करणीयम् । नाभिलषति आहारम् अभिनन्दति नैव निजभवनम् ॥ १२२ ॥ चिरपरिचितमपि पाठयति नैव शुकसारिकानां संघातम् । क्रीडयति मनोहरान् चटुलान् न च भवनकलहंसान् ॥ १२३॥ विहरति न हर्म्यतले मज्जति न च गेहदीर्घिकायां तु । सारयति नैव वीणां पत्रच्छेद्यमपि न करोति ॥ १२४ ॥ बहुत देर तक खेलने से तुम्हारा शरीर थक न जाय, अतः जल्दी आओ ।" तदनन्तर वह 'माता जी की जैसी आज्ञा है' ऐसा कहकर घबड़ाहट के साथ कुमार को देखती हुई उद्यान से निकल गयी और कुमार के विषय में ही सोचती हुई अपने घर पहुँची । अनन्तर महारानी को प्रणामकर दन्तवलभिका (एक प्रकार के शयनगृह) में आरूढ़ हुई । पश्चात् कुमार का ही स्मरण करती हुई, लम्बे-लम्बे श्वास छोड़ती हुई पलंग के विस्तर पर बैठ गयी और उसने सखियों के समूह को आदर के साथ विदा कर दिया । अनन्तर निरन्तर लम्बे-लम्बे श्वास छोड़ती हुई, शय्या का सेवन करने लगी। उस समय उसका मन कामदेव के बाणों से विद्ध हो गया था। अपने कार्यों को उसने छोड़ दिया था। न तो चित्र ही बनाती थी, न अंगराग लगाती थी । आहार की इच्छा नहीं करती थी और अपने भवन का अभिनन्दन नहीं करती थी । चिरपरिचित भी शुक और सारिकाओं के समूह को नहीं पढ़ाती थी। भवन के मनोहर और चंचल कलहंसों से भी नहीं खेल करती थी। न महल की छत पर घूमती थी, न घर की बावड़ी में स्नान करती थी, वीणा नहीं बजाती थी, न पत्रच्छेद्य कर्म (नक्काशी) ही करती थी ।। १२१-१२४ ॥ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज पीओ भवो] न य कदुएण कोलइ बहुमन्नइ नेय भूषणकलावं । हरिणिव जूहभट्ठा अणुसरमाणी तयं चेव ॥१२५॥ खणरुद्धनयणपसरा अवसाखणधरियदीहनीसासा।। खणरुद्धदेहचेट्ठा खणजंपिरवायमुहकमला ॥१२६॥ एत्थंतरम्मि तीसे धावीए नियसुया समाणत्ता। नामेण मयणलेहा बीयं हिययं व जा तीए॥१२७॥ जहा कोलासुदरुज्जाणगमणकोलाए दढं परिस्संता कुसुमावली लहुं च तीए अज्ज विसज्जियाओ सहीओ, तां गिण्हिऊण पविरलजलसित्तं तालियंट बंधेऊण कइवयकप्पूरवोडगाणि उवसप्पाहि एयं ति । समारसाणंतरं च संपाइयजणगिवयणारसंतमणिनेउरा पत्ता कुसुमावलोसमीवं सहरिसामयणलेहा । दिट्ठा य तीए वरसयणीयमझ गया गुरुचिताभरनीसह अंगं वहंती कुसुमावली त्ति । तो अणालवणमुणियसुन्नभावाए' विन्नत्ता मयणलेहाए-सामिणि, किमेवमुविग्गा विय लक्खीअसि, न च कन्दुकेन क्रीडति बहुमन्यते नैव भूषणकलापम् । हरिणीव यूथभ्रष्टा अनुसरन्ती तं चैव ॥१२५॥ क्षणरुद्ध नयनप्रसरा अवशाक्षणधृतदीर्घनिःश्वासा। क्षणरुद्धदेहचेष्टा क्षणकथयितम्लानमुखकमला ।।१२६॥ अत्रान्तरे तस्या धात्र्या निजसुता समाज्ञप्ता। नाम्ना मदनलेखा द्वितीयं हृदयं वा तस्याः ॥१२७।। यथा क्रीडा सुन्दरोद्यानगमनक्रीडाया दृढं परिश्रान्ता कुसुमावलो लघु च तयाऽद्य विसर्जितः सख्यः तस्मात् गृहीत्वा प्रविरलजलसिक्तं तालवृन्तं बद्धवा कतिपयकर्पूरवोटकानि उपसर्य एतामिति । समादेशानन्तरं च सम्पादितजननीवचना रसन्मणिनपुरा प्राप्ता कुसुमावली समीपं सहर्षा मदनलेखा। दृष्टा च तया वरशयनीयमध्यगता गुरुचिन्ताभरनिःसहमङ्ग वहन्ती कुसुमावली इति । ततोऽनालपनज्ञातशून्यभावया विज्ञप्ता मदनलेखया-स्वामिनि ! किमेवं उद्विग्ना इव लक्ष्यसे, न गेंद खेलती थी, न ही आभूषणों का आदर करती थी। समूह से बिछुड़ी हुई हरिणी के समान उसी का स्मरण करती थी। क्षणमात्र के लिए उसके नेत्रों का विस्तार रुक जाता था, क्षणमात्र में वह अधीर हो लम्बे सांस लेने लगती। क्षणभर के लिए उसके शरीर की चेष्टाएँ रुक जाती थीं। क्षणभर में म्लानमुखकमल हो बातें करने लगती। इसी बीच उसकी धाय ने अपनी पुत्री, जिसका नाम मदनलेखा था और जो उसका दूसरा हृदय थी, को आज्ञा दी ॥१२५-१२७।। ... “क्रीडासुन्दर उद्यान में गमन करने तथा क्रीडा करने से कुसुमावली बहुत थक गयी है और आज उसने सखियों को जल्दी विदा कर दिया है अत: थोड़ा जल सींचे हुए ताड़ के पंखे को लेकर कुछ कपूरयुक्त पान के बीडे बांधकर उसके समीप जाओ।" आज्ञा के अनन्तर माता के वचन मानकर, मणिनिर्मित नपरों का शब्द करती हुई मदनलेखा हर्षयुक्त हो कुसुमावली के पास आयी। उसने श्रेष्ठ शय्या के मध्य अत्यधिक चिन्ता समूह को न सह सकने वाली देह को धारण करती हुई कुसुमावली को देखा। अनन्तर न बोलने के कारण शून्यभाव को १. अनालपता ज्ञातशून्यभावया 'मुणिय' ज्ञातः । Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ समराइच्चकहा किन्न संपन्ना ते गुरुदेववाणं पूया, किन्न सम्माणियाओ सहीओ, किन्न कया अस्थिजगपडिवत्ती, किन्न गहिओ कलाकलावो, किन्न परितुट्ठो ते गुरुयणो, किन्न विणीओ ते परिवारो, किन्नाणुरत्तो सहीसत्थो, किन्न संजायइ ते समोहियं ति । आणवेदु' सामिणो, जइ अकहणीयं ण होइ' । तओ कुसुमावलीए ससंभ्रमं सहेत्थेण अलए संजमऊण भणियं - 'अत्थि पियसहोए वि नाम अकहणीयं । ता सुण, कुसुमावचयपरिस्समेण हमे जरकलावियं संवृत्तो। तज्जणियो य परिपोडेइ मं परियावाणलो । तन्निमित्ताय विजम्भइ अंगेसु अरई । न उण किंचि अन्नं उव्वेयकारणं लक्खेमि ति ।' मयणलेहाए भणियं - 'जइ एवं न गेण्हताव कप्पूरवीडंगाणि, परिवीमि ते कोलाखेयनीसहं श्रंगं । कुसुमावलीए - मे वित्थगयाए कप्पूरवोडिएहि, अलं च' परिवोइएण । एहि गच्छामो बालकयलीहरयं । तत्थ सज्जीकरेहि अत्थुरणं । जेण तहिं गयाए अवेइ एसो परियावाणत्लो त्ति ।' तओ मयणलेहाए भणियं - 'जं सामिणी आणवेइ ।' गया ओ व सभवणुज्जाणतिलयभूयं बालकयलीहरयं । ८४ किन्नो संपन्ना ते गुरुजनदेवतानां पूजा ? किं न सम्मानिताः सख्यः ? किं न कृता अर्थिजनप्रतिपत्तिः ? किं न गृहीतः कलाकलापः ? कि न परितुष्टस्ते गुरुजनः ? किं न विनीतस्ते परिवारः ? किं नानुरक्तः सखीसार्थः ? किं न सञ्जायते ते समोहितं इति । आज्ञापयतु स्वामिनी यद्यकथनोयं न भवति । ततः कुसुमावल्या ससम्भ्रमं स्वहस्तेवालकान् संयम्य भणितं - अस्ति प्रियसख्या अपि नाम अकथनीयम् । ताँवत् शृणु, कुसुमावचयपरिश्रमेण मे ज्वरकला इव संवृत्ता तज्जनितश्च परिपीडयति मां परितापानला, तन्निमित्ता च विजृम्भते अङ्गेषु अरतिः । न पुनः किञ्चित् अन्यद् उद्वेगकारणं लक्षयामि इति ।' मदनलेखया भणितम् -'ययेवं, तस्माद् गृहाण तावत् कर्पूरवीटकानि, परिवीजयामि ते क्रीडाखेदनिःसहमङ्गकम् । कुसुमावल्या भणितम् - किं मे एतदवस्थागताया पूरवकीटकैः, अलं मे परिवीजितेन । एहि गच्छामो बालकदलीगृहकम् । तत्र सज्जीकुरु मे आस्तरणम् । येन तस्मिन् गताया अपैति एष परितापानल इति । ततो मदनलेखया भणितं यत् स्वामिनी आज्ञापयति । गताश्च स्वभवनोद्यानतिलकभूतं बालकदलीगृहकम् । सज्जीकृतं च तस्या मदन जानकर मदनलेखा ने निवेदन किया, "स्वामिनि ! उद्विग्न ( बेचैन ) - सी क्यों लग रही हो ? क्या तुम्हारी गुरु और देवताओं की पूजा सम्पन्न नहीं हुई ? क्या सखियाँ सम्मानित नहीं हुईं ? क्या याचकों की प्राप्ति नहीं हुई ? क्या कलाओं के समूह को ग्रहण नहीं किया ? क्या तुम्हारे गुरुजन सन्तुष्ट नहीं हैं ? क्या तुम्हारा परिवार विनीत नहीं है ? क्या सखियों का समूह अनुरक्त नहीं है ? तुम्हारा कौन-सा मनोरथ पूर्ण नहीं हुआ ? स्वामिनि ! आज्ञा दीजिए, यदि न कहने योग्य न हो ।" तब कुसुमावली ने घबड़ाहट के साथ हाथ से बाल बाँधकर कहा, "क्या प्रिय सखी से भी न कहने योग्य बात है ? तो सुनो, फूलों के चुनने के परिश्रम से मुझे कुछ ज्वरांश-सा हो गया है, उससे उत्पन्न परितापरूपी अग्नि मुझे जला रही है। उसके कारण अंगों में अरति बढ़ रही है। अन्य कोई उद्वेग का कारण नहीं दिखाई पड़ रहा है ।" मदनलेखा ने कहा, "यदि ऐसा है तो इस कपूर वासित पान के बीड़े को लो । तेरे क्रीड़ा की थकावट को न सहने वाले अंगों को हवा करती हूँ ।" कुसुमावली ने कहा, "इस अवस्था को प्राप्त मुझे कपूर के बीड़े से क्या ? और हवा करना भी व्यर्थ है । आओ, नवीन कदलीगृह में चलें । वहाँ पर मेरा बिस्तर बिछाओ जिससे वहाँ जाने पर मेरी दुःख रूपी अग्नि बुझे ।" अनन्तर मदनलेखा ने कहा, "जो स्वामिनी की आज्ञा ।" दोनों अपने भवन के उद्यान तिलकभूत कदलीगृह में गयीं । मदनलेखा ने उसका सुन्दर बिस्तर के १. आणवेउ, २. न च । Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीमो भवो ] ८५ सन्जोकयं च से मयणलेहाए सुदरमत्थुरणं । निवन्ना य तत्थकुसुमावली। समप्पियाणि से कप्पूरवोडयाणि । वीसंभकहालाव-जणियपरिओसं य तालियंटेण' वीइउमारद्धा मयणलेहा। कुसुमावली पुण अयण्डदिन्नसुन्नहुंकारानिहुयमुक्कनीसासं तं चैव हियय सल्लभूयं पुणो पुणो अणुसरंती चिट्ठइ। तओ मयणलेहाए चितियं, कि पुण इमीए इमस्स अन्नहावियारभावस्स कारणं ति। पुच्छिया य तीए-'सामिणि, पत्ते इमंमि तरुणजणविन्भममुल्लोलसायरे वसंतसमए कि तुमए अज्ज कीलासंदरं गच्छंतीए गमाए वा तत्थ अच्छरियं दिट्ठति ।' तओ मयणावत्थासहावओ चेव वामत्तणेण मयणस्स अभिप्पयं पि भणियं कुसुमावलीए.--'सहि, दिट्ठो मए कीलासुदरुज्जाणंमि रइविरहिओ विय कुसुमाउहो रोहिणी विओइओ विय मयलञ्छणो, परिचत्तमइरो विव कामपालो, सचीविउत्तो विव पुरंदरो, तवियतवणिज्जसरिसवण्णो नहमऊहमंजरियचलणंगुलिविभाओ, सूनिगढसिरासंधाणो अणुवद्धपिडियाभाओ, मणहरमऊरजंघो, अंतोनिगूढजाणुसंधाणो, मयरवयणागारजाणुमत्थओ, अइसुंदरसुसंगयोरुजुयलो, विउलकडियडामोओ, मणहरतणुमज्झभाओ, पीणवित्थिण्णवच्छत्थलो, उन्नयसिहर परिवटुलबाहुजुयलो, अणुव्वणकोप्परविमाओ, पीणपकोट्ठदेसो, आजाणुलंबियपसत्थलेखया सुन्दरमास्तरणम् । निपन्ना (सुप्ता) च तत्र कुसुमावली। समर्पितानि च तस्याः कर्परवीटकानि । विश्रम्भकथाऽऽलापजनितपरितोषां च तालवृन्तेन वीजितुमारब्धा मदनलेखा । कुसुमावली पुनरकाण्डदत्तशून्यहुंकारानिभृतमुक्तनिश्वासम् च तमेव हृदयशल्यभूतं पुनः पुनस्नुस्मरन्ती तिष्ठति । ततो मदनलेखया चिन्तितम्, किं पुनरस्याः अस्य अन्यथाविकारभावस्य कारणम् इति । पृष्टा च तया-'स्वामिनि ! प्राप्तेऽस्मिन् तरुणजनविभ्रमोल्लोलसागरे वसन्त समये कि त्वया अद्य क्रीडासुन्दरं गच्छन्त्या गतया वा तत्राश्चर्यं दृष्टम् इति । ततो मदनावस्था स्वभावत एव वामत्वेन मदनस्य अनभिप्रेतमपि भणितं कुसुमावल्या-'सखि ! दृष्टो मया क्रीडासुन्दरोद्याने रतिविरहित इव कुसुमायुधः रोहिणी वियोगित इव मृगलाञ्छनः, परित्यक्तमदिर इव कामपालः, शचीवियुक्त इव पुरन्दरः, तप्ततपनीयसदृशवर्णो नखमयूखमञ्जरितचरणामलीविभागः, सुनिगूढशिरासन्धानः, अनुबद्धपिण्डिकाभागः, मनोहरमुकुरजङ्घः, अन्तर्निगूढजानुसन्धानः, मकरवदनाकारजानुमस्तकः, अतिसुन्दरसुसङ्गतोरुयुगलः, विपुलकटीतटाभोगः, मनोहरतनुमध्यभागः, पीनविस्तोर्णवक्षःस्थलः, उन्नतशिखरपरिवर्तुलबाहुयुगलः, अनुल्वणकुर्परविभागः, पीनबिछाया। वहाँ पर कुसुमावली पड़ गयी। उसे कपूर वासित पान का बीड़ा दिया गया। विश्वासपूर्वक कथाओं को कहने से उत्पन्न सन्तोष से मदनलेखा पंखे से हवा करने लगी। कुसुमावली असमय में शून्य हुंकार करती हई, धीरे-धीरे सांस छोड़ती हुई हृदय के शल्यभूत उसी का बार-बार स्मरण करती हुई पड़ी रही। पश्चात् मदनलेखा ने सोचा-इसका इस अन्य प्रकार के विकारभाव का क्या कारण है ? और उससे पूछा, "स्वामिनि ! तरुणजनों के विलास से उद्धत सापरस्वरूप इस वसन्त समय में तुमने आज क्रीडासुन्दर उद्यान में जाते हुए अथवा गये हर क्या आश्चर्य देखा!' तब काम की अवस्था में स्वभावत: कामदेव के विपरीत होने से अभिप्रेत न होते हए भी कुसुमावली ने कहा, "सखि ! मैंने क्रीडासुन्दर उद्यान में रति से वियुक्त कामदेव के समान, रोहिणी से वियूक्त चन्द्रमा के समान सिंहकुमार को देखा। वह मानो जिसने मदिरा त्याग दी हो, ऐसा कामपाल (बलराम) था, इन्द्राणी से वियुक्त हुआ इन्द्र था, तपाये हुए सोने के समान वर्ण वाले उसके चरणों की अंगुलियों का भाग नाखूनों की किरणरूप मंजरियों से युक्त था। अच्छी तरह छिपी हुई नसों के जोड़ों वाली तया गठीली उसकी पिण्डलियों का भाग था। मनोहर दर्पण (अयवा मयूर) के समान उसकी जंवाएँ थीं। उसके घुटनों के जोड़ अन्दर छिपे हुए थे, घुटने के ऊपर का भाग मछली के मुख के समान था। अतिसुन्दर तथा सुसंगत उसकी दोनों जंघाएँ थीं। उसके कूल्हे का विस्तार विपुल था। मध्यभाग मनोहर और पतला था। वक्षःस्थल मांसल और विस्तीर्ण था। १. तालीयंटेण, २. रायामपरि। Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ समराइन्धकहा लेहाविभूसियकरयलो, आयंबतलिणकररहो, सुसमाउत्ताहरपुडो, समसुसंगयधवलदसणो, आरत्ततिभागदीहविसाललोयणो, उत्तुंगनासियावंसो, विउलनिडालवट्टो, सुसमाउत्तकण्णपासो, कसिणसुसिणिद्धकुडिलकुंतलभारो, चंदणकयंगराओ, विमलदुगुल्लनियंसणो, महल्लमत्ताहलमालाविहूसियसिरोहरो, विमलचूडारयणपसाहियउत्तिमंगो, कि बहुणा जंपिएण-रूवं पिव रूवस्स, लावण्णं पिव लावण्णस्स, सुंदेरं पिव सुंदेरस्स, जोव्वणं पिव जोव्वणस्स, मणोरहो विय मणोरहाणं महारायस्स पुत्तो सोहकुमारो त्ति।' तओ मणियअन्नहावियारभावनिबंधणाए चितियं मयणलहए'-ठाणे खु सामिणीए अणुराओ। अहवा न कमलायरं वज्जिय लच्छो अन्नत्थ अहिरमइ । तस्स वि य भगवओ अणंगस्स विय रई न एयं वज्जिय अन्ना उचिय त्ति । चितिऊण जंपियमिमीए-'सामिणि ! सुंदरो खु सो कुमारो नियगुणेहि । जहा उण अज्जसुबुद्धी मए देवीये पणगयाए राइणा सह मंतयंतो सुनो, जइ तं तहा भविस्सइ, तओ रइसणाहो विय पंचवाणो सयलसुंदरो भविस्सइ त्ति।' कुसुमावलीए भणियं-'किं सुप्रो?' ति। तीए प्रकोष्ठदेशः, आजानुलम्बितप्रशस्तलेखाविभूषितकरतलः, आताम्रतलिनकररुहः, सुसमायुक्ताधरपुटः, समसुसंगतधवलदशनः, आरक्तत्रिभागदीर्घविशाललोचनः, उत्तुङ्गनासिकावंशः, विपुलललाटपट्टः, सुसमायुक्तकर्णपाशः, कृष्णसुस्निग्धकुटिलकुन्तलभारः, चन्दनकृताङ्गरागः, विमलदुकूलनिवसनः, महामुक्ताफलमालाविभूषितशिराधरः, विमलचूडारत्नप्रसाधित (भूषित) उत्तमाङ्गः, किं बहुना कथितेन-रूपमिव रूपस्य, लावण्यमिव लावण्यस्य, सौन्दर्यमिव सौन्दर्यस्य, यौवनमिव यौवनस्य, मनोरथ इव मनोरथानां महाराजस्य पुत्रः सिंहकुमार इति । ततो ज्ञातान्यथाविकारभावनिवन्धनया चिन्तितं मदनलेखया। स्थाने खलु स्वामिन्या अनुरागः । अथवा न कमलाकरं वर्जित्वा लक्ष्मी अन्यत्राभिरमते । तस्यापि च भगवतोऽनङ्गस्येव रतिः नैतां वजित्वाऽन्या उचितेति। चिन्तित्वा कथितमनया-स्वामिनि ! सुन्दरः खलु स कुमारो निजगणः । यथा पुनरार्यसुबुद्धिर्मया देवीप्रेषणगतया राज्ञा सह मन्त्रयन् श्रुतः; यदि तत् तथा भविष्यति, ततो रतिसनाथ इव पञ्चवाणः सकलसुन्दरो भविष्यति इति । कुसुमावल्या भणितं-'किं श्रुतः' इति । उनत शिखर के समान गोलाकार दोनों भुजाएं थीं। कोहनियाँ सुसंगत थीं । कलाइयाँ पुष्ट थीं। सुन्दर रेखाओं से विभूषित थेलियां घुटनों तक लम्बी थीं। नाखून लाल और सूक्ष्म (पतले) थे। अधरसमूह अच्छी तरह सटा हुआ था । दाँत समान, सुसंगत और सफेद थे । लम्बे और विशाल नेत्रों का तिहाई भाग लालिमायुक्त था। नासिका का पोर ऊँचा था। माथे का भाग विस्तृत था । सुन्दर कान भलीभाँति समायुक्त थे। केशों का समूह काला, चिकना और धूवराला था । चन्दन का चूर्ण लगाया गया था। स्वच्छ रेशमी वस्त्र को पहने हुए था। गर्दन महान् मुक्ताफल की माला से विभूषित थी। सिर निर्मल चूड़ामणि से अलंकृत था। अधिक कहने से क्या, महाराज के पुत्र सिंहकुमार मानो रूप के रूप, सौन्दर्य के सौन्दर्य, यौवन के यौवन तथा मनोरथों के मनोरथ थे। तदनन्तर अन्यथा विकारभाव के सम्बन्ध को जानकर मदनलेखा ने विचार किया-स्वामिनी का अनुराग उचित है अथवा कमल समूह (अथवा कमलों से भरे हुए सरोवर) को छोड़कर लक्ष्मी दूसरी जगह रमण नहीं करती है। उस कुमार के लिए भी भगवान कामदेव जिस प्रकार रति के साथ रमण करते हैं उसी प्रकार इसे छोड़कर अन्य के साथ रमण करना उचित नहीं है । इस प्रकार विचार कर इसने कहा, "स्वामिनि ! वह कुमार अपने गुणों के कारण सुन्दर है । जब मैं देवी द्वारा भेजी गयी थी तब सुबुद्धि को राजा के साथ विचार करते हुए सुना। यदि वैसा होगा तो रति से युक्त कामदेव के समान सुन्दर वे (आप सहित राजकुमार) सुन्दर स्थिति में होंगे । कुसुमावली ने कहा, "क्या सुना ?" उसने कहा, "इस प्रकार सुना -आर्य सुबुद्धि ने कहा--देव ! महाराज १. मयणलेहाए Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीओ भवो ] भणियं - एवं सुओ। अज्जसुबुद्धिणा भणियं - 'देव ! महारायपुरिसदत्तस्स सीहकुमारस्स कए कुसुमाafe मग्गमाणस्स गरुम्रो प्रणबंधो। दढं च तेण एत्थ वृत्तंते श्रहं भणिश्रो म्हि 'तहा तुम कायव्वं, जहा एसा कुसुमावली सरिसगुणेणं कुमारसोहेणं संजुज्जइ' ति । अन्नं च देव ! न तं वज्जिय कुसुमावलीए ग्रन्नो उचिश्रो त्ति । एत्थंतरम्मि लज्जा - हरिसनिब्भराए किंपि भणणीयं श्रवत्यंतरं पाविऊण अलियकोवकलंकसंपायणेण चंदसरिसवयणाए भणियं कुसुमावलीए - 'हला ! असंबद्ध - पलाविण ! किमेयमेवं पलवसि ?' मयणलेहाए भणियं - सामिणि ! किं वा एत्थ असंबद्ध' ति ।' किं अणुचिया माणससरनिवासिणो रायहंसी वर हंसस्स ।' तो देवेण भणियं - भो सुबुद्धि ! पहुवइ महारा मम पाणाणं पि । तो सुबुद्धिणा भणियं - देव ! जुत्तमेयं ति । एवं च जाव वीसत्यमंतिएणं चिट्ठति, ताव प्रागया उज्जाणवाली पल्लविया नाम चेडी । विन्नत्ता य तीए कुसुमावली - सामिणि ! देवी श्राणवे । गच्छ तुमं दंतवलहियं, जो प्राणत्तं देवेण 'प्रज्ज सविसेस सोहासंपायणाभिरामं सज्जेयव्वं भवणुज्जाणं, एत्थ किल महारायपुत्त्रेण सीहकुमारेण आगंतव्वं' ति । तओ एयमायष्णिय 'जं देवी आणवेड' त्ति सहरिसं गया दंतवलहियं । इओ य सज्जियं भवणुजज्जाणं । तओ य सायरं तया भणितम् - एवं श्रुतः -- आर्यसुबुद्धिना भणितम् - 'देव ! महाराजपुरुषदत्तस्य सिंहकुमारस्य कृते कुसुमावली मार्गयतो गुरुकोऽनुबन्धः । दृढं च तेन अत्र वृत्तान्तेऽहं भणितोऽस्मि 'तथा त्वया कर्तव्यं, यथा एषा कुसुमावली सदृशगुणेन सिंहकुमारेण संयुज्यते' इति । अन्यच्च देव ! न तं वर्जित्वा कुसुमावा अन्य उचित इति । अत्रान्तरे लज्जा - हर्षनिर्भरा किमप्यभणनीयमवस्थान्तरं प्राप्य अलिककोपकलङ्क सम्पादनेन चन्द्रसदृशवदनया भणितं कुसुमावल्या -- 'सखि ! असंबद्धप्रलापिनि ! किमेतदेवं प्रलपसि ?' मदनलेखया भणितम् -- 'स्वामिनि ! किं वाऽत्रासम्बद्धमिति । किमनुचिता मानससरोनिवासिनो राजहंसी वरहंसस्य । ततो देवेन भणितम् - भो सुबुद्धे ! प्रभवति महाराजो मम प्राणानामपि । ततः सुबुद्धिना भणितम् - देव ! युक्तमेतद् इति । एवं च यावद् विश्वस्तमन्त्रितेन तिष्ठतः, तावदागता उद्यानपाली पल्लविका नाम चेटी । विज्ञप्ता च तया कुसुमावली'स्वामिनि ! देवी आज्ञापयति । गच्छ त्वं दन्तवलभिकां, यतः आज्ञप्तं देवेन 'अद्य सविशेषशोभासम्पादनाभिरामं सञ्जितव्यं भवनोद्यानम्, अत्र किल महाराजपुत्रेण सिंहकुमारेण आगन्तव्यम्' इति । तत एतमाकर्ण्य 'यद् देवी आज्ञापयति' इति सहर्षं गता दन्तवलभिकाम् । इतश्च सज्जितं पुरुषदत्त के राजकुमार सिंह के लिए कुसुमावली को मांगने का बड़ा आग्रह है । इस वृत्तान्त पर मैंने उससे दृढ़तापूर्वक कहा - 'तो आपको ऐसा कार्य करना चाहिए जिससे इस कुसुमावली का अपने समान गुण वाले सिंहकुमार से मिलन हो जाय। दूसरी बात यह है कि देव ! सिंहकुमार को छोड़कर कुसुमावली के लिए अन्य कोई उचित नहीं है ।" इस बीच लज्जा और हर्ष के भार से कुछ अनिर्वचनीय - सी अवस्था पाकर झूठे क्रोधरूपी कलंक को करके चन्द्रमुखी कुसुमावली ने कहा, “प्रलापिनि ! असम्बद्ध यह क्या बक रही हो !” मदनलेखा "स्वामिनि ! यहाँ पर असम्बद्ध बात क्या है ? क्या श्रेष्ठ सरोवर में निवास करने वाले राजहंस के तब सुबुद्धि बोला, उद्यान की रक्षिका ने कहा, लिए हंसी अनुचित है ?' तब देव ने कहा, 'हे सुबुद्धि ! महाराज मेरे प्राणों के भी मालिक हैं ।' 'देव ! ठीक है।' इस प्रकार जब विश्वसनीय विचार करती हुई ये दोनों बैठी थीं तभी ( उद्यानापली ) पल्लविका नामक दासी आयी । उसने कुसुमावली से निवेदन किया, "स्वामिनि ! महारानी आज्ञा देती हैं कि तुम दन्तवलभिका ( शयनगृह विशेष ) में जाओ, क्योंकि महाराज ने आज्ञा दी है - आज भवन का उद्यान, विशेष शोभा के सम्पादन से मनोहर लगे, इस प्रकार सजाओ। यहाँ पर निश्चय ही महाराज के पुत्र १. असंबद्धं च । ८७ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ [समराइच्चकहा उवणिमंतिऊण कुसुमावलीदसणूसुथयाए अभिप्पेयागमणो चेव प्राणीओ सीहकुमारो । कओ से भोयणसंपायणाइनो उवयारो। पच्छा पविट्ठो भवणुज्जाणं । दिट्ठो य तेण गिहसारियारावमुहलो दक्खालयामण्डवो नववरो विव भारत्तपल्लवनिवसणोवसोहिरो असोयनिवहो, चडुलकलहंसचालिय' कमलो य भवणदीहियानलिणिवणसंडो, 'महुयर'परहुयारावमुहलो य सहयारनिकुठंबो, कुसुममहुपाणमुइयभमिरभमरालिपरियरियो य माहवीलयामंडवो, नागवल्लीनिवहसमालिगिओ य पूंगफलीपयरो सुयंधपरिमलावासियदिसामंडलो य कुंकुमगोच्छनियरो, महुरमारुयंदोलियो य लोयणसुहम्रो कयलीहरो त्ति । ठियो य माहवीलयामंडवम्मि । एत्थंतरम्मि य मयणलेहाए भणिया कुसुमावली-सामिणि ! महाणुभावाणं सुयणभावाओ पव्वनिवत्तिनो चैव संबंधो होइ । सो चेव उचियसंभासण-फुल्ल-तंबोलप्पयाणाइणा पयासिज्जइ त्ति। ता पेसेहि से सरीरपउत्तिपुच्छणापुत्वयं एयस्मि काले असंभावणिज्जभावं सहत्यारोवियभवनोद्यानम। ततः सादरमपनिमन्त्र्य कुसुमावलीदर्शनोत्सुकतयाऽभिप्रेतागमन एव आनीतः सिंहकूमारः। कृतः तस्य भोजनसम्पादनादिक उपचारः । पश्चात् प्रविष्टो भवनोद्यानम् । दुष्टश्च तेन गहसारिकारावमुखरो द्राक्षालतामण्डपो नववर इव आरक्तपल्लवनिवसनोपशोभितोऽशोकनिवहः, चटुलकलहंसचालितकमलश्च भवनदीपिकानलिनीवनखण्डः, मधुतरपरभृतारावमुखरश्च सहकारनिकुरम्बः, कुसुममधुपानमुदितभ्रमितृभ्रमरालिपरिचरितश्च माधवीलतामण्डपः, नागवल्लीनिवहसमालिङ्गितश्च पूगफलीप्रकरः, सुगन्धपरिमलावासितदिग्मण्डलश्च कुङ्कुमगच्छनिकरः, मधरमारुतान्दोलितं च लोचनसुभगं कदलीगृहकम् इति । स्थितश्च माधवीलता. मण्डपे। अत्रान्तरे च मदनलेखया भणिता कुसुमावली-स्वामिनि ! महानुभावानां सुजनभावात् पर्वनिर्वतित एव सम्बन्धो भवति । स एव उचितसम्भाषण-पुष्प-ताम्बूलप्रदानादिना प्रकाश्यते इति । तस्मात प्रेषय तस्य शरीरप्रवृत्तिपृच्छनापूर्वकमेतस्मिन् कालेऽसम्भावनीयभावस्वहस्तारोपितसिंहकमार आयेंगे।" यह सुनकर 'देवी की जैसी आज्ञा' कहकर हर्षपूर्वक दन्तवलभिका में गयी। इधर भवन के उद्यान की सजावट की गयी । तब सादर निमन्त्रित कर कुसुमावली के दर्शन की उत्सुकता से ही जिसका आगमन इष्ट था, ऐसा सिंहकुमार लाया गया। भोजनादि कराकर उसकी सेवा की गयी। अनन्तर भवन के उद्यान में प्रविष्ट हा। उसने पालतू मैनाओं की आवाज से गुंजित द्राक्षालता का मण्डप, नये दूल्हे के समान लाल-लाल पत्तों रूपी वस्त्रों से शोभित अशोक वृक्षों का समूह, चंचल हंसों से हिलाये-डुलाये जाते कमल तथा भवन की बावड़ियों की कमलिनियों का वन समूह, कोयलों के अतिमधुर शब्द से वाचालित आम्रवृक्षों का समूह, फूलों के मधुपान से प्रसन्न होकर भ्रमण करती हुई भ्रमरों की पंक्ति से परिचित माधवीलतामण्डप, पान की बेल-समूह से लिपटा हुआ सुपाड़ी के पेड़ों का समूह, सुगन्धित वायु से सुवासित दिशामण्डल और फूलों के गुच्छों का समूह तथा मधुर वायु से झूलता हुआ नेत्रों को सुन्दर लगने वाला कदलीगृह देखा। वह माधवी लता-मण्डप में ठहर गया। इसी बीच मदनलेखा ने कुसुमावली से कहा-"स्वामिनि ! महानुभावों का सम्बन्ध सज्जनता के कारण पहले से ही चला आता जैसा होता है। वही उचित वार्तालाप, फूल, पान आदि के प्रदान से प्रकट किया जाता है। अतः शरीर का हाल पूछने से पहले इस समय असम्भावनीय भावों वाली, अपने हाथ से लायी गयी प्रियंगुमंजरी १. कमलोयर भ०, 2. महुर । Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीओ भयो ] पियं मंजरीकरणावयंसं कोमलनागवल्लीदलसणाहं य तम्बोलं अहिणवुष्पन्नाणि य कवकोलयफलाई नियकलाको सल्लपि सुणगं च किंचि तहारूवं अच्छेरयभूयं ति । तओ कुसुमावलाए भणियं पिसह ! ते पsिहायइ, तं सयं चेव अणुचिट्टउ पियसही ।' तओ मयणलेहाए वणियासमुग्गय चित्तवट्टियं च उवणेऊण भणिया कुसुमावली- 'सामिणि ! चित्ताणुराई खु सो जणो ; ता आलिहउ एत्थ सामिणी समाणवर हंसयवित्तं तद्दंसणूसुयं च रायहंसिय' ति । तओ मुणियमयणलेहाभिप्पायाए इस विऊिण आलिहिया तीए जहोवइट्ठा रायहंसिया । मयणलेहाए वि य अवस्थास्यगं से लिहियं इमं उवरि दुवईखंडं । जहा - अहिणवनेहनिन्भरुक्कंठियनिरुपच्छाय' वर्याणिया । सरसमुणालवलय' गासम्म वि सइ मंदाहिलासिया ॥ १२८ ॥ दाहिणपवणविहुयकमलायरए वि अदिन्नदिया । पियसंगमकए न उत्तम्मइ कहं वररायहंसिया ॥ १२६ ॥ प्रियङ्गुमञ्जरीकर्णावतंसं कोमलनागवल्लीदलसनाथं च ताम्बूलमभिनवोत्पन्नानि च कक्कोलकफलानि निकला कौशल्यपि शुनकं किञ्चित् तथारूपमाश्चर्यभूतमिति । ततः कुसुमावल्या भणितम् - 'यत् प्रियसखि ! तव प्रतिभाति तत स्वयमेवानुतिष्ठतु प्रियसखी ।' ततो मदनलेखया वर्णिका समुद्रकं चित्रवर्तिकां चोपनीय भणिता कुसुमावली - 'स्वामिनि ! चित्रानुरागी खलु सः जनः तत आलिखतु अत्र स्वामिनी समानवरहंसवियुक्ता तद्दर्शनोत्सुकां च राजहंसिकामिति । ततो ज्ञातमदनलेखाभिप्रायया ईषद् विहस्य आलिखिता तया यथोपदिष्टा राजहंसिका । मदनलेखयाऽपि चावस्था सूचकं तस्य लिखितमिदमुपरि द्विपदीखण्डम् । यथा- अभिनव स्नेहनिर्भ रोत्कण्ठित निरुपच्छाय वदनीया । सरसमृणालवलयग्रासेऽपि सदा मन्दाभिलाषिका ॥ १२८ ॥ दक्षिणपवनविधूतकमलाकरेऽपि अदत्तदृष्टिका | प्रियसङ्गमकृते नोत्ताम्यति कथं वरराजहंसिका ? ॥१२६॥ ८६ की कान की बाली, कोमल पान की बेल से युक्त पान, सद्यः उत्पन्न अशोक वृक्ष का फल अथवा अपनी कलाकौशल को सूचित करने वाली कुछ इसी प्रकार की आश्चर्यकारक वस्तु भेजिए ।" तब कुसुमावली ने कहा, "प्रियसखि ! तेरी सूझबूझ है अतः प्रियसखी ही स्वयं इस कार्य को सम्पन्न करे ।" तब मदनलेखा ने रंगों का डिब्बा तथा कूची लाकर कुसुमावली से कहा, "स्वामिनि ! वह व्यक्ति चित्रों का प्रेमी है अतः स्वामिनी इसमें समान श्रेष्ठ हंस से वियुक्त उसके दर्शन की उत्सुक राजहंसी बनाएँ ।" तब मदनलेखा का अभिप्राय जानकर कुछ मुसकराकर उसने कहने के अनुसार राजहंसी बनायी । मदनलेखा ने भी उसके ऊपर कुसुमावली की अवस्था की सूचना देने वाला द्विपदीखण्ड लिखा "नवीन स्नेह से अत्यधिक उत्कण्ठित फीके मुख वाली, सरस कमलनाल के समूह को निगलती हुई ये सदा मन्द अभिलाषा वाली, दक्षिण वायु के द्वारा कमल समूह को हिलाये जाने पर भी उस ओर दृष्टि न डालने वाली श्रेष्ठ राजहंसी प्रिय के साथ संगम के लिए क्यों न लालायित हो ?” १२८ - १२६॥ १. पव्वाय, 2. दलय । Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [समराइचकहा तओ घेत्तूण एवं चित्तवट्टियं पुत्ववणियं च पाहुडं गया माहवीलयामंडवं मयणलेहा। 'कुसुमावलोपियसहि' त्ति परियणाओ मुणिऊण सायरमभिणंदिया कुमारेणं । तओ ससंभमं तस्स चलणजुयलं पणमिऊण भणियं मयणलेहाए---'महारायपुत्त ! 'चित्ताणुराई तुम' ति तओ चित्ताधुराइणीए अहं तुह पउत्तिनिमित्तं पेसिया रायधूयाए कुसुमावलीए, तहा सहत्यारोवियाणुराएण य एसा अहिणवुप्पन्ना पियंगुमंजरी नियनागवल्लीसमुप्पन्नदलमहग्धं च तंबोलं अहिणवुप्पन्नाणि य कक्कोलयफलाई 'एयाइं च किल इविसिट्ठाणं दिज्जंति, ता तुमं चैवं जोग्गो' ति कलिऊण पेसियाई सामिणीए, एसा वि चित्तगया रायहंसिया पावउ ते दंसणसुहेल्लि ति, भणिउमुवणीयाइं च तीए। तओ कुमारेण सहरिसयं गिहिऊण कया कण्णे पियंगुमंजरी आवीलं मोतूण, समाणियं च तंबोलं, अब्भहियजायहरिसेण पलोइया रायहंसिया, वाइयं च से अवस्थासूयगं उवरिलिहियं दुवईखंडं । तओ तंबोलसमाणणपज्जाउलवयणयाए' मयणवियारओ य परिखलंतविसयमहुरक्खरं भणियं च णेणअहो ! से चित्तकोसल्लं । अह किं पुण दंसणाओ चेव मुणिज्जमाणा वि अवत्था इमेण पुणरत्तोवन्ना ततो गृहीत्वा एतां चित्रवतिका पूर्ववणितं च प्राभृतं गता माधवीलतामण्डपं मदनलेखा। 'कुसमावलीप्रियसखी' इति परिजनात् ज्ञात्वा सादरमभिनन्दिता कुमारेण । ततः सम्भ्रमं तस्य चरणयुगलं प्रणम्य भणितं मदनलेखया-'महाराजपुत्र ! 'चित्रानुरागी त्वम्' इति ततः चित्रानुरागिण्याऽहं तव प्रवृत्तिनिमित्तं प्रेषिता राजदुहित्रा कुसुमावल्या, तथा स्वहस्तारोपितानुरागेण च एषाऽभिनवोत्पन्ना प्रियगुमञ्जरी निजनागवल्लीसमुत्पन्नदलमहाघ च ताम्बूलमभिनवोत्पन्नानि च कल्लोलकफलानि ‘एतानि च किल इष्टविशिष्टेभ्यो दीयन्ते, ततस्त्वमेव योग्यः' इति कलयित्वा प्रेषितानि स्वामिन्या, एषाऽपि चित्रगता राजहंसिका प्राप्नोतु ते दर्शनसुखकेलिमिति भणित्वोपनीतानि च तया । ततः कुमारेण सहर्ष गृहीत्वा कृता कर्णे प्रियगुमञ्जरी आव्रीडां (ईषद्वीडां) मुक्त्वा, समानीतं च ताम्बूलम्, अभ्यधिकजातहर्षेण प्रलोकिता राजहंसिका, वाचितं च तस्या अवस्थासूचकमुपरि लिखितं द्विपदीखण्डम् । ततः ताम्बूलसमानयनपर्याकुलवदनाया मदनविकारतश्च परिस्खलदविषममधराक्षरं भणितं चानेन- 'अहो ! तस्याश्चित्रकौशल्यम् । अथ किं पुनदर्शनादेव तदनन्तर इस कूची और पूर्ववर्णित उपहार को लेकर मदनलेखा माधवी लता के मण्डप में गयी। 'कुसुमावली की प्रियसखी है' ऐसा परिजनों से जानकर कुमार ने सादर अभिनन्दन किया। तब घबड़ाहट के साथ उसके धरणयुगल में प्रणाम कर मदनलेखा ने कहा, "महाराज-पुत्र ! आप चित्रानुरागी हैं अत: चित्रानुरागिणी राजपुत्री कुसुमावली ने मुझे आपके पास कुशल समाचार पूछने भेजा है। स्वामिनी ने प्रेमवश अपने हाथ से रखी नयी प्रियंगमंजरी, अपनी पान की लता से उत्पन्न श्रेष्ठ पत्ते तथा नये-नये उत्पन्न अशोक फल-ये. विशेष रूप से इष्ट व्यक्तियों के लिए ही दिये जाते हैं और इसके लिए तुम ही योग्य हो, ऐसा मानकर भेजा है । चित्र में लिखित यह राजहंसी भी तुम्हारे दर्शन-सुख की क्रीड़ा को प्राप्त करे" ऐसा कहकर मदनलेखा ने वे उपहार भेंट कर दिये । तब कुमार ने कुछ-कुछ लज्जा छोड़कर हर्षपूर्वक कान में प्रियंगुमंजरी धारण की। पान लाया गया। अत्यधिक हर्षित होकर राजहंसी को देखा और उसकी अवस्था के सूचक द्विपदीखण्ड को बाँचा । तब पान लेने से भरे हुए मुख वाले तथा कामविकार से लड़खड़ाते हुए विषम मधुर अक्षरों में इसने कहा, "अरे ! चित्र बनाने में उसका कौशल आश्चर्यजनक है ! देखने से ही अवस्था का भान हो रहा है। फिर केवल पुनरुक्ति का उपस्थापन १. वयणेन । Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१ बीओो भयो ] समेत्तेण दुवईखंडेण सूइया । मयणलेहाए भणियं - 'महारायउत्त ! न एसा सामिणीए सूइया, किंतु एयमालिहियं पेच्छिऊण मए कयं इमं दुवईखंडं' ति । कुमारेण भणियं - 'जुज्जइ पढमलिहियं दट्ठूण सहियाणं अवत्थाणुवायकरणं' ति । मग्गिया णेण पत्तछेज्जकत्तरी । कप्पिओ य नागवल्लीदले रायहंसियावत्थाणुरूवो वररायहंसओ, फुडक्खरा य एसा हिययसंवायण' निमित्तं गाह त्ति । जहामरिऊण न संपत्ती पियाए कलिऊण एस वरहंसो । धारेइ कह व पाणे अणुकूलनिमित्तजोएण ॥ १३० ॥ ओनिसिरोहराओ ओसारिऊण दिन्ना इमीए तिसमुद्दसारभूया पारिओसियं मुत्तावली, समप्पियं च नागवल्लीदलं । ईसि विहसिऊण भणिया य एसा, 'वत्तव्वा तुमए कुसुमावली । जहाअस्थि अम्हाणं दढं चित्ताणुराओ मुणियं तुमए इमं विन्नायं च अम्हेहि पिते चित्तकोसल्लं । ता पुणो' एवं चेव चित्ताणुराइणो जणस्स नियचित्तकोसल्लाइसएणं आणंद करिज्जासि' त्ति । तओ 'जं ज्ञायमानापि अवस्था अनेन पुनरुक्तोपन्यासमात्रेण द्विपदीखण्डेन सूचिता । मदनलेखया भणितम् - 'महाराजपुत्र ! न एषा स्वामिन्या सूचिता, किं तु एतदालिखितं दृष्ट्वा मया कृतमिदं द्विपदीखण्डमिति । कुमारेण भणितम् – 'युज्यते प्रथमलिखितं दृष्ट्वा सहृदयानामवस्थानुवादकरणमि'ति । मार्गिता तेन पत्रच्छेद्य कर्तरी । कल्पितश्च नागवल्लीदले राजहंसिकाऽवस्थानुरूपो वरराजहंसः, स्फुटाक्षरा चैषा हृदयसंवादननिमित्तं गाथेति । यथा - ततो निजशिरोधराद् अपसार्य दत्ताऽस्यास्त्रिसमुद्रसारभूता पारितोषिकं मुक्तावली, समर्पितं च नागवल्लीदलम् । ईषद् विहस्य भणिता चैषा, 'वक्तव्या त्वया कुसुमावली । यथा --- अस्ति अस्माकं दृढं चित्रानुरागः ज्ञातं त्वयेदम्, विज्ञातं चास्माभिरपि ते चित्रकौशल्यम् । तस्मात् पुनः पुनरेवमेव चित्रानुरागिणो जनस्य निजचित्रकौशल्यातिशयेन आनन्दं करिष्यसी'ति । ततो 'यद् महाराजपुत्र मृत्वा न सम्प्राप्तिः प्रियायाः कलयित्वा एष वरहंसः । धारयति कथमपि प्राणान् अनुकूल निमित्तयोगेन ॥ १३० ॥ करने वाले द्विपदीखण्ड से अवस्था के सूचन की क्या आवश्यकता थी ?" मदनलेखा ने कहा, "राजकुमार ! यह स्वामिनी की सूचना नहीं है किन्तु इस चित्र को देखकर मैंने यह द्विपदीखण्ड बनाया है ।" कुमार ने कहा, "सहृदयों के लिए पहले लिखी गयी चीज को देखकर अवस्था का कथन करना उचित ही है ।" उसने पत्ते में छेद करने वाली कैंची मँगायी । पान के पत्ते पर राजहंसी की अवस्था के अनुरूप उत्कृष्ट राजहंस बना दिया। स्पष्ट अक्षरों में हृदय को अभिव्यक्त करने वाली यह गाथा लिखी मरकर प्रिया की प्राप्ति नहीं होगी, ऐसा मानकर यह राजहंस अनुकूल निमित्त मिलने की आशा से किसी प्रकार प्राणों को धारण कर रहा है ॥ १३० ॥ अनन्तर अपने गले से निकालकर तीनों समुद्रों की सारभूत मोतियों की माला इसे उपहार में दी और पान की लता के पत्ते को भी समर्पित किया। कुछ हँसकर इससे कहा, "तुम कुसुमावली से कहना, हमारा चित्र प्रति दृढ़ अनुराग है, इसे तुमने जान लिया तथा हमने भी तुम्हारे चित्रकौशल को भली-भांति जान लिया । अतः चित्र के अनुरागी इस व्यक्ति को पुनः पुनः इसी प्रकार अपने चित्र की कुशलता के प्रकर्ष से आनन्दित करना ।" १. संठावण २. पुणो पुणो । " Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ [ समराइचकहा महारायउत्तो आणवेइ' त्ति भणिऊण पणामपुव्वयं निग्गया मयणलेहा, पत्ता य कुसुमावलीसमीवं । आइक्खिओ तीए जहावत्तो वुत्तंतो, समप्पियं नागवल्लीदलं, दिट्ठो य कुसुमावलीए वरहंसओ, वाइया य गाहा, परितुट्ठा हियएणं । ___ एवं च पइदिणं मयणसरगोयरावडियजणमणाणंदयारेहि विज्जाहरी-चक्कवाय-महुयरपमुहचित्तपओयपेसणेहिं पवड्ढमाणाणुरायाणं जाव वोलेन्ति थेवदियहा, ताव राइणो पुरिसदत्तस्स पत्थणामहग्धं दिन्ना लच्छिकंतनरवइणा कुमारसीहस्स कुसुमावलि त्ति। निवेइयं च एवं पियंकरियाए कुसुमावलीए । जहा दिन्ना सोहकुमारस्स सुयणु सि? य वहलपुलयाए। अंगेसु परिओसो मयणो व्व वियम्भिओ तिस्सा ॥१३१॥ एत्थंतरंमि य अथिनिवहसमीहियभहियदिन्नदविणजायं वजंतमंगलतूररवापूरियदिसामंडलं नच्चंतवेसविलयायणुप्पंकबद्धसोहं सयलजणमणाणंदयारयं दोहिं च नरिंदेहि कयं वद्धावणयं ति । आज्ञापयति' इति भणित्वा प्रणामपूर्वकं निर्गता मदनलेखा, प्राप्ता च कुसुमावलीसमीपम । आख्यातस्तया यथावृत्तो वृत्तान्तः, समर्पितं नागवल्लीदलम् । दृष्टश्च कुसुमावल्या वरहंसः, वाचिता च गाथा, परितुष्टा हृदयेन ॥ एवं च प्रतिदिनं मदनशरगोंचरापतितजनमनआनन्दकारैविद्याधरी-चक्रवाक-मधुकरप्रमखचित्रप्रयोगप्रेषणैः प्रवर्धमानानुरागयोर्यावदतिक्रामन्ति स्तोकदिवसाः, तावद् राज्ञः पुरुषदत्तस्य प्रार्थनामहाघ दत्ता लक्ष्मीकान्तनरपतिना कुमारसिंहस्य कुसुमावलीति । निवेदितं चैतत् प्रियङ्कर्या कुसुमावल्याः । यथा दत्ता सिंहकुमारस्य सुतनो! शिष्टे च वहलपुलकायाः । अङ्गेषु परितोषो मदन इव विजृम्भितस्तस्याः ॥१३१॥ अत्रान्तरे च अथिनिवहसमीहिताभ्यधिकदत्तद्रविणजातं वाद्यमानमङ्गलतूर्यरवापूरितदिग्मण्डलं नत्यद्वेश्यावनिताजनोत्पङ्क (समूहः) बद्धशोभं सकलजनमनआनन्दकारकं द्वाभ्यां च नरेन्द्राभ्यां कृतं वर्धापनकमिति । तब 'राजकुमार जैसी आज्ञा दें' कहकर प्रणामपूर्वक मदनलेखा निकल गयी। कुसुमावली के पास पहुंची। उसने घटित हुआ वृत्तान्त कहा, पान के पत्ते को समर्पित किया। कुसुमावली ने राजहंस को देखा तथा गाथा बाँची । हृदय से सन्तुष्ट हुई। इस प्रकार प्रतिदिन कामदेव के बाणों के मार्ग में आये हुए लोगों के मन को आनन्द देनेवाले विद्याधरी, चकवा, भौंरा आदि प्रमुख चित्रों के सम्प्रेषण से जब उनका परस्पर अनुराग बढ़ रहा था तब कुछ दिन बीत जाने पर राजा पुरुषदत्त की बहुमूल्य प्रार्थना पर लक्ष्मीकान्त राजा ने सिंहकुमार को कुसुमावली दे दी। प्रियंकरी ने कुसुमावली से यह निवेदन किया "हे सुन्दरी ! तुम सिंहकुमार को दी गयी हो।" यह कहे जाने पर अत्यधिक रोमांचों वाले उसके अंगों में कामदेव के समान सन्तोष बढ़ा ।१३१॥ इसी बीच दोनों राजाओं ने समस्त मनुष्यों के नेत्रों को आनन्द देने वाला बधाई का उत्सव किया। उस समय याचकों के समूह को इच्छा से भी अधिक धन दिया जा रहा था, बजाये जानेवाले मंगल वाद्यों से दिशामण्डल व्याप्त हो रहा था तथा नाचती हुई वेश्याओं के समूह से शोभा बढ़ गयी थी। Tr Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वोओ भवो] काऊण य तेहि तओ वारिज्जसुहो' गणाविओ दियहो। घोसावियं पणो वि य जहिच्छियादाणमच्चत्थं ॥१३२॥ पत्तमि य तंमि दिणे तत्तो कुसुमावली पसत्थंमि । बंधुजुवईहि सहिया पमक्खणकए मुहत्तंमि ॥१३३॥ आसंदियाए मणहरधवलदुगुल्लोत्थयाए रम्माए । ठविया पुव्वाभिमुही रंगावलिचाउरंतमि ॥१३४॥ मणिपट्टयम्मि निमिया चलणा संकंतरायसोहिल्ले । तप्फंससुहासायणरसपल्लविए व विमलम्मि ॥१३॥ वच्छोउत्तेण य नहमऊहपडिवन्नसलिलसंकेण । पक्खालिउमणवज्जं निम्मवियं तीए नहयम्यं ॥१३६॥ रत्तंसुयपरिहाणा अहियं वियसंतवयणसयवत्ता । आसन्नरविसमागमपुत्वदिसिवहु व्व आरत्ता ॥१३७।। कृत्वा च ताभ्यां ततो विवाहशभो गणितो दिवसः । घोषितं पुनरपि च यथेप्सितदानमत्यर्थम् ॥१३२॥ प्राप्ते च तस्मिन् दिने ततः कुसुमावली प्रशस्ते । बन्धुयुवतिभिः सहिता प्रम्रक्षणकृते मुहूर्ते ॥१३३॥ आसन्दिकायां मनोहरधवलदुकूलावस्तृतायां रम्यायाम्।। स्थापिता पूर्वाभिमुखी रङ्गावलीचातुरन्ते ॥१३४।। मणिपट्टके स्थापितौ चरणौ संक्रान्तरागशोभावति । तत्स्पर्शसुखास्वादन रसपल्लविते इव विमले ॥१३॥ वात्सीपुत्रेण च नखमयूखप्रतिपन्नसलिलशङ्कन । प्रक्षाल्यानवद्यं निर्मितं तस्या नखकर्म ॥१३६।। रक्तांशुकपरिधाना अधिकं विकसद्वदनशतपत्रा। आसन्नरविसमागमपूर्वदिग्वधूरिवारक्ता ॥१३७।। दोनों राजाओं ने समस्त लोगों के मन को आनन्दकारक बधाई का उत्सव किया तथा विवाह का शुभ दिन निश्चित किया । पुनः इच्छानुसार अत्यधिक दान की घोषणा की । शुभ दिन आने पर वह कुसुमावली सखियों के साथ उबटन के मुहूर्त में मनोहर और सफेद रेशमी वस्त्र जिस पर बिछाया गया था, ऐसी रमणीय चौकी पर रंगोली से विभूषित चौक में पूर्व की ओर मुंह करके बैठायी गयी। उसके चारों ओर रंगोली डाली गयी। उसके दोनों चरणों को संक्रमित हुए राग की शोभा वाले मणिनिर्मित स्वच्छ पीढ़े पर रखा गया। उस समय वह पीढ़ा ऐसा लग रहा था जैसे उसके स्पर्शसुख के आस्वादनरूपी रस से पल्लवित हो गया हो। नख की किरणों के कारण जल लगे रहने की शंका से नाई ने निर्दोषरूप से पोंछकर उसके नाखून काट डाले थे। लाल वस्त्रों को पहने हुए वह अधिक विकसित मुखवाली कमलिनी के समान अथवा जिसका सूर्य से समागम हो रहा है, ऐसी पूर्व दिशा के समान लाल लग रही थी ॥१३२-१३७॥ १. वारिज्जयं विवाहः (पाइ.ना.)। वारेज्जसहो-(च)। Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ さす 日 gaiकुर-दहि-अक्खयवावडहत्याहिं रतवणाहि । पत्तलेहाओ || १४२ || जुवईहि अविवाह विहिणा य पमक्खिया ताहि ॥ १३८ ॥ पुष्क- फलोदय भरिएहि कणयकलसेहि व्हाविया नवरं । ऊमिणिया सुपसत्यं सव्वंग पुष्णणं ॥१३॥ दिन्नाय अक्खया से गुरूह परिओसवहलपुलहि । सव्वोसहिगंधड्ढे घण के से उत्तिमंगम्मि ॥ १४० ॥ तत्तो वि यससिव वजा नवरं पसाहिज्जिउं समादत्ता । जावयरसेण पढमं मगहरचलणा कया तीसे ॥ १४१ ॥ नियतिसच्छण य कुंकुमराएग जंघियाओ से । पीणे थणकलसजुए अभिलिहिया कालेयमीसचंदणरसेण निम्मज्जियं च मुहकमलं । दइओ व्व साराओ कओ य से समयणो अहरो ।। १४३ ॥ दूर्वाङ्कुर - दध्यक्षतव्यापृतहस्ताभो रक्तवसनाभिः । युवतिभिरविधवाभिविधिना च प्रम्रक्षिता ताभिः ॥ १३८ ॥ पुष्प - फलोदयभृतैः कनककलशैः स्नापिता नवरम् । प्रोञ्छिता सुप्रशस्तं सर्वांङ्ग पुण्यवस्त्रेण ।। १३९॥ दत्ता चाक्षतास्तस्या गुरुभिः परितोषवहलपुलकैः । सर्वोषधिगन्धाढ्चे घनकेशे उत्तमाङ्गे ।। १४०॥ ततोऽपि च शशिवदना नवरं प्रसाधयितुं समारब्धा । यावकरसेन प्रथमं मनोहरचरणौ कृतौ तस्याः ॥१४१॥ निजकान्तिसच्छायेन च कुङ्कुमरागेण जङ्घिके तस्याः । स्तन कलशयुगेऽभिलिखिताः पत्रलेखाः ।। १४२। कालेयमिश्रचन्दनरसेन निर्मार्जितं च मुखकमलम् । दयित इव सानुरागः कृतश्च तस्याः समदनोऽधरः ॥ १४३ ॥ पीने कुश के अंकुर तथा दध्यक्षत जिनके हाथ में थे तथा जो लाल वस्त्रों को धारण किये हुए थीं, ऐसी सौभाग्यवती युवतियों द्वारा विधिपूर्वक उसका उबटन किया गया । केवल फूल और फल जिनके अन्दर भरे हुए थे ऐसे सोने के कलशों से उसका स्नान कराया गया। उसके सारे प्रशस्त शरीर को पवित्र वस्त्र से पोंछा गया । सन्तोष से भरे हुए पुलकित गुरुओं ने उसे अक्षत दिये । उसके सिर के घने केश समस्त औषधियों की गन्ध से व्याप्त थे । इसके अनन्तर भी उस चन्द्रमुखी की और सजावट की गयी । सबसे पहले महावर से उसके दोनों चरणों को मनोहर बनाया गया। उसकी जंघाओं पर तथा मांसल पुष्ट स्तन रूपी दो कलशों पर अपनी कान्ति से चन्दन रस से उसका मुखकमल स्वच्छ किया गया। युक्त (बाल) किया गया ।। १३८-१४३ ॥ केसर मिले हुए समान अनुराग [ समराइच्च कहा दीप्त केशर के रंग से चित्रांकन किया गया। उसके अधर को काम प्रभावित प्रियतम के Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवसरयकालवियसियकवलयदलकतिरायसोहिल्लं । कयमज्जलं पि कज्जलयरंजियं लोयणाण जुयं ॥१४४॥ महमासलच्छिया इव उम्मिल्लो से मुहम्मि वरतिलओ। उवरिरइयालयावलि अलिउलवलएहि परियरिओ॥१४५॥ अह कलसद्दायड्ढियसभवणवाविरयरायहंसाइं। चलणेसु पिणद्धाइं मणहरमणिनेउराई से ॥१४६॥ नहससिमउहसंवलियरयणसंजणियविउणसोहाहि । पडिवन्नाओ मणिविढियाहि तह अंगुलीओ त्ति ॥१४७॥ बद्धं च दइयहिययं व तीए वियडे नियंबबिंबम्मि। सुरऊसववरतूरं निम्मलमणिमेहलादामं ॥१४॥ बाहुलयामलेसं रइयाओ जणमणेक्कणाओ' उ। बाहुसरियाउ तीसे मयरद्धयवागुराओ व ॥१४६॥ नवशरत्कालविकसितकुवलयदलकान्तिरागशोभावत । कृतमुज्ज्वलमपि कज्जलरञ्जितं लोचनयोयुगम् ॥१४४॥ मधुमासलक्ष्मीरिवोन्मिलितस्तस्या मुखे वरतिलकः । उपरिरचितालकावल्यलिकुलवलयैः परिचरितः ॥१४॥ अथ कलशब्दाकर्षितस्वभवनवापीरतराजहंसे । चरणयोः पिनद्धे मनोहरमणिनूपुरे तस्याः ॥१४६॥ नखशशिमयूखसंचलितरत्नसंजनितद्विगुणशोभाभिः । प्रतिपन्ना मणिवेष्टिकाभिस्तथाऽङगुल्य इति ॥१४७॥ बद्धं च दयित हृदयमिव तया विकटे नितम्बबिम्बे । सुरतोत्सववरतूयं निर्मलमणिमेखलादामम् ॥१४॥ बाहुलतामूलयो रचिता जनमनश्चोरास्तु । बाहुसरिकाः (बाहुमालाः) तस्या मकरध्वजवागुरा इव ॥१४॥ नवीन शरत्काल में विकसित नीलकमल के पत्ते की कान्ति के समान शोभा वाले काजल को उसके दोनों नेत्रों में लगाकर उज्ज्वल कर दिया गया। वसन्तमास की लक्ष्मी के समान उसके मुख पर श्रेष्ठ तिलक लगा दिया। ऊपर बनी हुई अलकावली को भ्रमरावलियों जैसा कुंचित (लहरियों वाला) कर दिया। इसके बाद मनोहर मणियों से निर्मित नूपुरों को उसके दोनों पैरों में पहना दिया। उनके मधुर शब्द से राजमहल की वापिका में रहने वाले हंस आकर्षित होने लगे। नखरूपी चन्द्रमा की किरणों से युक्त रत्नों से पनी थोभा वाली मणिनिर्मित अंगूठियों से युक्त (उसकी) अंगुलियाँ थीं। उसके विशाल नितम्बबिम्ब पर मानो उसके बहाने प्रियतम का हृदय बाँध दिया गया हो । निर्मल मणियों से बनी हुई करधनी बांधी गयी। वह करधनी ऐसी लग रही थी मानो काम-क्रीडा के उत्सव का सुन्दर वाद्य हो। मनुष्यों के मन को चुराने वाली कामदेव की गेरी के समान उसकी बाहुरूपी लता के मूल में बाहुमालाएं बनायी गयीं । १४४-१४६। १. इक्कचओ चोराः (दे. ना.)। Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ समराइच्चकहा बद्धो य थणहरोवरि मणहरवरपउमरायदलघडिओ। पवरो पवंगबंधो नियंबसंसत्तओ तह य॥१५०॥ मत्ताहारो थणबद्धसंगसंजायकामराओ व्व । कंठमवलंबिऊणं नीवि से फुसिउमाढत्तो ॥१५१॥ कंठम्मि विमलमणहरमोत्तियदुसुरुल्लयं पिणद्धं से। कुंकुमकयराएसु य सवणसु रयणचक्कलयाओ॥१५२॥ उज्जोइयं च घणियं तिस्सा वयणं मियंकलेहाए। धवलकुडिलाए पवरं पोसलच्छोए व सुहाए ॥१५३॥ घणकसिणकुडिलमणहरसिरोरुहुग्घायकलियसोहिले । विमलं चूणारयणं निमियं से उत्तिमंगम्मि ॥१५४॥ पढमं दीसिहिइ इमा मोत्तूण ममं ति रयणछायाए । पडिवन्नमच्छराए व्व प्रोत्थयं तीए सव्वंगं ॥१५॥ बद्धश्च स्तनभरोपरि मनोहरवरपद्मरागदलघटितः । प्रवरः प्लवङ्गबन्धो नितम्बसंसक्तः तथा च ॥१५०॥ मुक्ताहारः स्तनबद्धसङ्गसंजातकामराग इव । कण्ठमवलम्ब्य नीवीं तस्या स्प्रष्टुमारब्धः ।।१५१।। कण्ठे विमलमनोहरमौक्तिकदुसुरुल्लकं पिनद्धं तस्याः। कुङ्कुमकृतरागयोः श्रवणयोः रत्नचक्रलते ॥१५२॥ उद्योतितं च घनं तस्या वदनं मृगाङ्कलेखया। धवलकुटिलया प्रवरं प्रदीपलक्ष्म्या इव शुभया ॥१५३।। घनकृष्णकुटिलमनोहरशिरोरुहसमूहकलितशोभावति । विमलं चूडारत्नं स्थापितं तस्या उत्तमाङ्गे ॥१५४॥ प्रथमं द्रक्ष्यते इयं मुक्त्वा मामिति रत्नच्छायया । प्रतिपन्नमत्सरया इव अवस्तृतं तस्या सर्वाङ्गम् ॥१५॥ ... स्तनों के ऊपर मनोहर श्रेष्ठ पद्मराग-मणियों के समूह से निर्मित श्रेष्ठ ढाल बांधी गयी थी जो नितम्ब भाग तक संलग्न थी। मोतियों का हार पहनाया, जो कि बांधे हुए स्तनों की आसक्ति से उत्पन्न कामराग के कारण गले में लटकता हुआ उसकी कमर में लपेटी हुई धोनी की गांठ को छूना प्रारम्भ कर रहा था। उसके कण्ठ में स्वच्छ मनोहर मोतियों का दुसरुल्लक नामक कण्ठ का आभरणविशेष पहनाया गया था। कुसुम से रंगे कानों में रत्नकुण्डल पहनाये गये । सफेद और तिरछी कढ़ी हुई कपूर की रेखा जो सायंकाल की शोभा-सी लगती थी, से उसका मुख उद्योदित हो रहा था। धने, काले, कुटिल और मनोहर बालों की शोभा से युक्त उसके सिर पर निर्मल चूडारत्न स्थापित किया गया। मुझे छोड़कर किसी अन्य को यह पहले देखेगी, इस प्रकार के मत्सरभाव को प्राप्त करके ही मानो रत्नों की छाया ने उसका सारा शरीर आच्छादित कर दिया था॥१५०:१५॥ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वालो भवो ] एवं च जाव कुसुमावली पसाहिज्जइ, ताव पसाहणनिउणवारविलयाहिं पसाहियम्मि सीहकुमारे निवेइयं राइणो पुरिसदत्तस्स गहियसंकुच्छाएहिं मुणियजोइससत्थसारेहिं जोइसिएहि 'आसन्नं पसत्थं हत्थग्गहणमहत्तं' ति । तओ य सीहकुमारो नरवइसमाणत्तपरियणपवत्तिओ वज्जंतमंगलतूररवावरियसयलदिसामंडलो पवणपणच्चंतधयवडुग्धायसुंदररहवरारूढरायलोयपरियरिओ मणहरनट्टोवयारकुसलावरोहसुंदरीवंद्रणऽच्चंत'रुद्धरायमग्गो धवलप्रसाहियकरिवरारूढो मियंकसेणामरसेणकुमारपरियरिओ महुसरयसंगओ व्व कुसुमाउहो साहिलासमवलोइज्जमाणो पासायमालातलगयाहिं पुरसुंदरीहिं पत्तो सलीलं विवाहमंडवं ति। धरिओ य तस्स दारे विसेसुज्जलनेवच्छेणं गहियग्घसक्कारेणं अम्मयाजणेणं मग्गिओ 'आयारिमयं' ति। तओ हरिसवसुप्फुल्ललोयणो जाइयब्भहियं दाऊण ओइण्णो करिवराओ। भग्गा य से रयणकंचीसणाहेणं सोवण्णमुसलेणं भिउडि त्ति। तओ मंडवतलम्मि जणनिवहं निरंभिय नीओ समागमसुंदरोहिं वरो। एवं च यावत् कुसुमावली प्रसाध्यते, तावत् प्रसाधननिपुणवारवनिताभिः प्रसाधिते सिंहकुमारे निवेदितं राज्ञः पुरुषदत्तस्य गृहीतशकुच्छायः ज्ञातज्योतिःशास्त्रसारैः ज्योतिषिकः 'आसन्न प्रशस्तं हस्तग्रहणमुहूर्तम्' इति । ततश्च सिंहकुमारो नरपतिसमाज्ञप्तपरिजनप्रवर्तितो वाद्यमानमङ्गलतूर्यरवापूरितसकल दिग्मण्डलः पवनप्रनृत्यमानध्वजपटसमूहसुन्द ररथवरारूढ राजलोकपरिचरितो मनो. हरनाट्योपचारकुशलावरोधसुन्दरीवृन्देन अत्यन्तरुद्ध राजमार्गो धवलप्रसाधितकरिवरारूढो मृगाङ्कसेनाऽमरसेनकुमारपरिचरितो मधु-शरत्संगत इव कुसुमायुधः साभिलाषमवलोक्यमानः प्रासादमालातलगताभिः पुरसुन्दरीभिः प्राप्तो सलीलं विवाहमण्डपमिति । धृतश्च तस्य द्वारे विशेषोज्ज्वलनेपथ्येन गृहीतार्घसत्कारेणाम्बाजनेन मागितः 'आचारिमकम्' इति । ततो हर्षवशोत्फुल्ललोचनो याचिताभ्यधिकं दत्त्वा अवतीर्णः करिवरात् । भग्ना च तस्य रत्नकाञ्चीसनाथेन सौवर्णमुशलेन भकूटिरिति । ततो मण्डपतले जननिवहं निरुध्य नीतः समागमसुन्दरीभिर्वरः । इस प्रकार जब तक कुसुमावली सजायी जा रही थी तब तक सजाने में निपुण वेश्याओं द्वारा सिंहकुमार को सजाने पर, शंकु से छाया नापकर ज्योतिषशास्त्र के सार को जानने वाले ज्योतिषियों ने पुरुषदत्त राजा से निवेदन किया, "पाणिग्रहण का शुभमुहूर्त आ गया ।" तब राजा द्वारा आज्ञप्त सेवकों ने सिंहकुमार को सूचित किया। उस समय बजाये गये मंगल वाद्यों के शब्द से सारा दिशामण्डल भर गया। मनोहर नाट्यसेवा में कुशल अन्तःपुर की सुन्दरियों के समूह द्वारा राजमार्ग एकदम रुक गया था। पवन द्वारा प्रकम्पित ध्वजसमूह से सुन्दर लगने वाले श्रेष्ठ रथों पर चढ़े हुए राजपुरुषों द्वारा घिरा हुआ सफेद रंग से सजाये हुए श्रेष्ठ हाथी पर आरूढ़ होकर वसन्त और शरद से सेवित कामदेव के समान मृगांकसेन अमर कुमार से सेवित राजकुमार महलों के नीचे गयी हई नगर की स्त्रियों द्वारा अभिलाषापूर्वक देखा जाता हुआ उल्लास के साथ विवाहमण्डप में आया। विशेष उज्ज्वल आभूषण से अय॑सत्कार करती हुई माताओं के द्वारा विवाह के समय दिये जाने वाले आचारोपहार की याचना की जा रही थी। तब हर्ष से विकसित नेत्रों वाला याचना से भी अधिक दान देकर श्रेष्ठ हाथी से नीचे उतरा । रत्न से निर्मित करधनी (धेर) से युक्त सोने के मूसल से उसकी भृकुटि का स्पर्श किया गया । तब मण्डप के नीचे, मनुष्यों के समूह को रोककर आयी हुई सुन्दरियों के द्वारा वर को लाया गया। १, वंद्रणचंत -क. ख.।। Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ༤ས་ चिट्ठ य जत्थ सियवरदुगुल्लपच्छाइयाणणा बहुया । सरयब्भचंद मंडलसंछाइयकोमुइनिसि व्व ॥१५६॥ काराविओ सलीलं ' अविरुभंताइ कोउयाइं च । ता जाइओ मुहच्छविफेडावणियं य सहियाहि ॥ १५७ ॥ तओ ईसि विहसिऊण 'ममं चेव एवं सकज्जं' ति भणिय दिन्नमायारिमयं । फेडिया मुहच्छवी । दिट्ठाय तेण असोयपल्लव यावयंसा ईसिविय संतवयणकमला सज्झसहरिसनिन्भरा मणोहरस्स वि मणहारिणं किंपि तहादिहं दिव्वं विलासविन्भममणुहवंति कुसुमावलिति । पाणिगहणं च तओ पारद्वं गोयमंगलुग्घायं । बंधवयियाणंद अन्नोन्नबद्धरायाणं 1192=11 हत्था पढमं चिय कालवित्थरं विसहिउं अचाएंता । ती वरस य घडिया निम्मलनहयंदकिरणेहिं ॥ १५६ ॥ तिष्ठति च यत्र सिलवरदुकूल प्रच्छादितानना वधुका | शरदभ्रसंछादितचन्द्रमण्डल कौमुदीनिशेव ॥ १५६ ॥ कारितः सलीलमवरुध्यमानानि कौतुकानि च । ततो याचितो मुखच्छविस्फेटनिकां च सखीभिः ॥ १५७ ॥ तत ईषद् विहस्य 'ममैवतत्स्वकार्यम्' इति भणित्वा दत्तमाचस्मिकम् । स्फेटिता मुखच्छविः । दृष्टा च तेनाशोकपल्लवकृतावतंसा ईषद्विकसद्वदनकमला साध्वसहर्षनिर्भरा मनोहरस्यापि मनोहारिणं किमपि तथाविधं दिव्यं विलासविभ्रममनुभवन्ती कुसुमावलीति । पाणिग्रहणं च ततः प्रारब्धं गीतमङ्गलसमूहम् । बान्धवहृदयानन्दमन्योन्यबद्धरागयोः ॥ १५८ ॥ [ समराइज्यकहा हस्तौ प्रथममेव कालविस्तरं विसोढुमशक्नुवन्तौ । तस्या वरस्य च घटितो निर्मलनखचन्द्रकिरणैः ।। १५६ ।। शरद् ऋतु के मेघों से आच्छादित चन्द्रमण्डल वाली पूर्णिमा की रात के समान अत्यधिक सफेद रेशमी वस्त्र से मुख को ढके हुए वधू बैठी थी । तब सखियों ने कन्या के मुख की छवि को प्रकट करने का उपहार माँगा और वर के साथ प्रसन्नतापूर्वक अनेक प्रकार की रोकथाम सहित कौतुक किये ।।१५६-१५७।। तब कुछ मुस्कराकर 'यह तो मेरा अपना ही कार्य है' ऐसा कहकर उपहार दे दिया। मुख की छवि को प्रकट किया गया । उसने, अशोक के पहलवों से जिसके कर्णाभूषण बनाये गये थे, जिसका मुखकमल कुछ-कुछ खिला हुआ था, घबड़ाहट और हर्ष से जो भरी हुई थी तथा जो मनोहर से भी मनोहर कुछ उस प्रकार के दिव्य विलासों के विभ्रम का अनुभव कर रही थी, ऐसी कुसुमावली को देखा । अनन्तर मंगल गीतों के साथ पाणिग्रहण प्रारम्भ हुआ जो पारस्परिक प्रेमयुक्त बान्धवों के हृदय को आनन्दित करने वाला था । आरम्भ से समय के विस्तार को न सहने वाले कन्या और वर के निर्मल नाखून रूपी चन्द्रमा की किरणों से युक्त हाथ पहले ही परस्पर मिल चुके थे । १५८-१५६ ।। १. सरीरं ख । Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 188 बोलो भयो] घेत्तण तेण पढमं मउए हिययम्मि साणुरायम्मि । गहिया तओ करम्मि य पवियम्भिय सेयसलिलम्मि ॥१६॥ घेत्तण य तेण करे मणहरकच्छंतराउ आणीया। पवरमहचाउरतं' तियसवहू रविमाणं व ॥१६१॥ कणयमउज्जलवरपउमरायपज्जत्त दंडियारइयं । रइयदुगुल्लवियाणयपरिलंबियमोत्तिओऊलं ॥१६२॥ ओऊललग्गमरगयमऊहहरियायमाणसिंयचमरं। सियचमरवंडचामीयरप्पहापिंजरदायं ॥१६३॥ अदायगयविरायंतरम्मवरपक्खसुंदरीवयणं । वरपक्खसुंदरीवयणजणियबहुपक्खपरिओसं॥१६४॥ परिओसपयडरोमंचवंदिसंघायकलियपेरंतं । पेरंतविरइयामलविचित्तमणितारयानिवहं ॥१६॥ गृहीत्वा तेन प्रथमं मृदुनि हृदये सानुरागे । गृहीता ततः करे च प्रविजृम्भितस्वेदसलिले ॥१६०।। गृहीत्वा तेन करे मनोहरकक्षान्तरादानीता। प्रवरमहच्चातुरन्तं त्रिदशवधूः सुरविमानमिव ॥१६१॥ कनकमयोज्ज्वल वरपद्मरागपर्याप्तदण्डिकारचितम् । रचितदुकूलवितानकपरिलम्बितमौक्तिकावचूडम् ॥१६२॥ अवचूडलग्नमरकतमयूखहरितायमानसितचामरम् । सितचामरदण्डचामीकरप्रभापिञ्जरादर्शम् ॥१६३॥ आदर्शागतविराजद्रम्यवरपक्षसुन्दरीवदनम् । वरपक्षसुन्दरीवदनजनितवधूपक्षपरितोषम् ॥१६४॥ परितोषप्रकटरोमाञ्चवन्दिसंघातकलितपर्यन्तम् । पर्यन्तविरचितामल विचित्रमणितारकानिवहम् ॥१६५।। उसके द्वारा वह कोमल अनुराग युक्त हृदय में पहले ही ग्रहण की गयी पश्चात् जिस पर पसीने की बूंदें बढ़ रही थीं, ऐसे हाथ से ग्रहण की गयी। हाथ ग्रहण किये हुए उसे वह जैसे देवांग ना देवविमान में लायी गयी है, उसी तरह दूसरे मण्डप में ले गया, जो अत्यन्त श्रेष्ठ, विशाल एवं चौकोर था। मण्डप के खम्भे, जिन पर वह स्थित था, स्वर्ण के थे। उन पर देदीप्यमान उत्तम माणक जड़े थे। ऊपर रेशमी वस्त्र के चंदोवे में मोतियों के गुच्छे लटकाये गये थे। गुच्छों में लगे हुए मरकतमणि की फिरणों से सफेद चंवर हरा-हरा हो रहा था। स्वर्णमय दण्ड वाले सफेद चवर की प्रभा से दर्पण पीला-पीला हो रहा था। दर्पण में प्रतिबिम्बित वर पक्ष की स्त्रियों का मुख रमणीय लग रहा था। वर पक्ष की स्त्रियों के मुख को दर्पण में देखने के कारण वधू पक्ष को सन्तोष हो रहा था। सन्तोष से जो रोमाञ्चित थे, ऐसे वन्दीजनों द्वारा किया गया स्तुतिगान मण्डप में सर्वत्र व्याप्त था। मण्डप में लगी नाना प्रकार की उज्ज्वल मणियाँ मानो ताराओं का समूह थीं ॥१६०-१६५।। १. पवरमहचाउरते-च.। २. पज्जुत्त-च.। ३. अद्दायो दप्पणो (पाइ. ना.)। Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० [समराहचकहा तारयनिवहपसाहियतोरणमुहनिमियसुद्धससिलेहं । ससिलेहाविज्जोइयवित्थरसियमंडवनहं तु ॥१६६॥ अवलग्गो य सहरिसं मणिभूसणकिरणभासुरसरीरो। उदयगिरि पिव सो चाउरंतयं दियसनाहो व्व ॥१६७॥ कुसुमावलीए रायंतविमलसियवरदुगुल्लवसणाए। पवियसियवयणकमलाए दिवसलच्छीए व समेओ ॥१६॥ बहुयाए तत्थ धूमेण वरमुहं पेच्छसु ति व भणंता । बाहत्थेवा ओणयमुहीए पाएसु से पडिया ॥१६॥ एत्थंतरम्मि य पारद्धो जणाणमुवयारो। दिज्जंति महमहेंतगंधाई विलेवणाई, रुंटतमयरसणाहाई कुसुमदामाइं अइसुरहिगंधगंधिणो पडवासा, कप्पूरवीडयपहाणाई तंबोलाइं, दुगुल्लदेवंगपट्टचीणद्धचीणाई पवरवत्थाई, केऊर-हार-कुंडलतुडियप्पमुहा आहरणविसेसा, तुरक्क तारकानिवहप्रसाधिततोरणमुखस्थापितशुद्ध शशिलेखम् । शशिलेखाविद्योतितविस्तारसितमण्डपनभस्तु ॥१६६॥ अवलग्नश्च सहर्ष मणिभूषणकिरणभासुरशरीरः । उदयगिरिमिव स चातुरन्तं दिवसनाथ इव ॥१६७॥ कुसुमावल्या राजमानविमलसितवरदुकूलवसनया। प्रविकसितवदनकमलया दिवसलक्ष्म्येव समेतः ॥१६८।। वध्वास्तत्र धूमेन वरमुखं प्रेक्षस्वेतीव भणन्तः । वाष्पविन्दवोऽवनतमुख्याः पादयोस्तस्याः पतिताः ॥१६६।। अत्रान्तरे च प्रारब्धो जनानामुपचारः । दीयन्ते च प्रसरद्गन्धानि विलेपनानि, रवन्मधुकरसनाथानि कुसुमदामानि, अतिसुरभिगन्धगन्धिनः पटवासाः, कर्पूरवीटकप्रधानानि ताम्बूलानि, दुकल-देवाङ्गपट्ट-चीनार्द्धचीनानि प्रवरवस्त्राणि केयूर-हार-कुण्डल-त्रुटितप्रमुखा आभरणविशषाः, ताराओं के समूह से प्रसाधित तोरण के मुख पर शुद्ध चन्द्रकला बनायी गयी थी। चन्द्रमा की किरणों के विस्तार से सफेद मण्डपरूपी आकाश चमक रहा था । रत्ननिर्मित गहनों की किरणों से जिसका शरीर देदीप्यमान था, दिवस लक्ष्मी के साथ उदयगिरि पर अवतीर्ण सूर्य की तरह वह राजकुमार सिंह कुसुमावली के साथ जो शोभामय, उज्ज्वल, सफेद रेशमी वस्त्र धारण किये हुए थी तथा जिसका मुखरूपी कमल विशेष रूप से विकसित था, चौकी पर अवस्थित हुआ। धुएं के कारण वधू के आँसुओं की बूदें मानो झुके हुए मुख वाली वधू को यों कहती हुई उसके चरणों में गिरी कि वर का मुख देखो ॥१६६-१६६।। इसी बीच लोगों का सत्कार प्रारम्भ हुआ। फैलती हुई गन्ध वाले विलेपन, गुंजार करते भौंरों से युक्त मालाएं, अत्यन्त सुगन्धित गन्ध से सुवासित वस्त्रों पर डाले जाने वाले गन्ध द्रव्य, कपूर डाले गये पान के बीड़े, रेशमी वस्त्र, देवांग वस्त्र, चीनी वस्त्र, अर्द्धचीनी आदि श्रेष्ठ वस्त्र, बाजूबन्द, हार, कुण्डल, त्रुटित (हाथ का विशेष आभूषण) आदि विशेष प्रकार के आभरण; तुरुष्क, वाल्हीक, काम्बोज तथा वज्जर आदि अश्वों से युक्त Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीमो भयो ] वल्हीय-कम्बोय-वज्जराइआसकलियाई घोडयवंद्राई, भद्द-मंदवंसप्पमुहा य गय विसेसा ॥ एत्थंतरम्मि जलणे घय-महु-लायाहि अह हुणिज्जंते । पारद्धं च बहु- वरं भमिउं तो मंडलाई तु ॥ १७० ॥ पढमम्मि बहूपिउणा दिन्नं हिट्ठण मंडलवर म्मि । भाराणं सयसहस्सं अघडियरूवं सुवणस्स ॥१७१ । वीयम्मि हार-कुंडल-कडिसुत्तयतु डियसारमाहरणं । तइयम्मि थाल - कच्चोलमाइयं रुप्पभंडं तु ॥ १७२ ॥ दिन्नं च चउत्थम्मि बहूए परिओसपयडपुलएणं । पिउणा सुट्ठ' महग्घं चेलं नाणापयारं ति ॥१७३॥ पुरिसदक्षेण वियरन्ना सविहवाणुरूवो अच्चंतपसायमहग्घो कओ जणाणमुक्यारो, दिन्नं च विमलमणि - रयण-मुत्ताहलसणाहं वहुयाए अणग्धे यमाहरणं । तुरुष्क वाल्हीक काम्बोज - वज्जराद्यश्वकलितानि घोटकवृन्दानि भद्र-मन्दवंशप्रमुखाश्च गजविशेषाः। अत्रान्तरे ज्वलने घृत-मधु-लाजाभिरथ हवनोये । प्रारब्धं च वधू-वरं भ्रमितुं ततो मण्डलानि तु ॥ १७० ॥ १०१ प्रथमे वधूपित्रा दत्तं हृष्टेन मण्डलवरे । भाराणां शतसहस्रमघटितरूपं सुवर्णस्य ॥ १७१ ॥ द्वितीये हार-कुण्डल- कटिसूत्रक त्रुटितसारमाभरणम् । तृतीये स्थाल - कच्चालादिकं रौप्यभाण्डं तु ॥ १७२॥ दत्तं च चतुर्थे वध्वाः परितोष प्रकटपुलकेन । पित्रा सुष्ठु महार्घं चेलं नानाप्रकारमिति ॥ १७३॥ पुरुषदत्तेनापि च राज्ञा स्वविभवानुरूपोऽत्यन्तप्रसाद महार्घः कृतो जनानामुपचारः, दत्तं च विमलमणि रत्न- मुक्ताफलसनाथं ववै अनर्घ्यमाभरणम् ॥ घोड़ों का समूह तथा भद्र, मग्द आदि विशिष्ट वंशों के हाथी भेंट किये गये । इसी बीच, जिसमें घी, मधु, लाई आदि से आहुतियाँ दी जा रही थीं, उस अग्नि के चारों ओर वर के चक्राकार फेरे प्रारम्भ हुए। पहले फेरे में प्रसन्न होकर वधू के पिता ने एक लाख भार वाली सोने की वस्तुएँ दीं। दूसरे फेरे में हार, कुण्डल, करधनी, त्रुटित (एक प्रकार का पात्र) आदि आभूषण दिये। तीसरे फेरे में चांदी की थाली, कच्चोल (प्याले) आदि बर्तन दिये । चौथे फेरे में सन्तोष से प्रकट रोमांच वाले वधू के पिता ने बड़े कीमती नाना प्रकार के वस्त्र दिये ।। १७०-१७३॥ पुरुषदत्त राजा ने भी अपने वैभव के अनुरूप अत्यन्त प्रसन्न होकर बहुमूल्य वस्तुओं से लोगों का सत्कार किया और वधू को स्वच्छ मणि, रत्न मुक्ताफलादि से युक्त बहुमूल्य आभूषण दिये। १. तुटुणख । २. सुद्ध0 - ख. । ३. पस्सय महामहग्धं - क. अचंतमहग्घो ख. । Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ समराइच्चा एवं वित्ते विवाहमहूसवे कालककमेण पवड्ढमाणाणुरायं संयलजणसलाहणिज्जं विसयसुहमहवंताणं अइकंता अणेगे वरिसलक्खा । अन्नया य आसपरिवाहणनिमित्तं गएण कुमारसीहेण दिट्ठो नागदेवज्जाणे बहुफासुए पएसे अणेयसमणपरिवारिओ खमा-मद्दव-ज्जव मुत्ति-तव-संजम सच्चसोया - किंचण बंभचेरगुणनिही पढमजोव्वणत्यो रुवाइगुणजुत्तो संपुण्णवालसंगी ससिस्साणं सुत्तस्स अत्थं कहेमाणो धम्मघोसो नाम आयरिजो त्ति । तओ तं दट्टूण तं पइ अईव बहुमाणो जाओ । चितियं च णेण । धन्नो खु एसो, जो संसारविरत्तभावो सयलसंगचाई परमपरोवयारनिरओ एवं वटुइ ति । ता गंतून एयस्स समीवं पुच्छामि एयं - कि पुणे इमस्स मणोहवल लियस मयवत्तिणो निच्dयकारणं जहट्टियं च दुक्खसंकुलं च संसारं ति । तओ दूराओ चेव ओयरिऊण जच्चवोल्लाहकिसोराओ गओ तस्स समीवं । पणमित्रो य धम्मघोतो । अहिनंदिओ व भगवया धम्मलाहेण । तओ बंदिऊ सेससाहुणो भत्तिनिब्भरमुवविट्ठो सहावसुंदरे गुरुणो पायमूले । निव्वडियसंवेगसारं पुच्छिओ य णेण भयवं धम्मघोसो | भयवं ! किं ते सयलगुणसंपयाकुलहरस्स वि ईइसो निव्वेओ, १०२ एवं वृत्ते विवाहमहोत्सवे कालक्रमेण प्रवर्धमानानुरागं सकलजनश्लाघनीयं विषयसुखमनुभवतोऽतिक्रान्ता अनेक वर्ष लक्षाः । अन्यदा चाश्वपरिवाहननिमित्तं गतेन कुमारसिंहेन दृष्टो नागदेवोद्याने बहुप्रासु प्रदेशेऽनेकश्रमणपरिवारितः क्षमा मार्दवा ऽऽर्जव - मुक्ति तपः संयम सत्य - शौचाssfer- ब्रह्मचर्य गुणनिधिः प्रथमयौवनस्थो रूपादिगुणयुक्तः सम्पूर्णद्वादशाङ्गी स्वशिष्येभ्यः सूत्राणामर्थं कथयन् धर्मघोषो नामाचार्य इति । ततस्तं दृष्ट्वा तं प्रति अतीव बहुमानो जातः । चिन्तितं तेन - धन्यः खल्वेषः यः संसारविरक्तभावः सकल सङ्गत्यागी परमपरोपकारनिरत एवं वर्तते इति । तस्माद् गत्वा एतस्य समीपं पृच्छामि एतत् किं पुनरस्य मनोभवललितसमयवर्तिनो निर्वेदकारणं यथास्थितं च दुःखसंकुलं च संसारमिति । ततो दूरादेव अवतीर्य जात्याश्वकिशोराद् गतः तस्य समीपम् । प्रणतश्व धर्मघोषः । अभिनन्दितश्च भगवता धर्मलाभेन । ततो वन्दित्वा शेषसाधून् भक्ति निर्भरमुपविष्टः स्वभावसुन्दरे गुरोः पादमूले । निर्वर्तितसंवेगसारं पृष्टश्च तेन भगवान् धर्मघोषः । भगवन् ! किं ते सकलगुणसम्पत्कुल गृहस्यापि ईदृशो निर्वेदः, येनेदमकाले एव श्रमणत्वं इस प्रकार विवाह महोत्सव होने पर कालक्रम से उन दोनों का अनुराग परस्पर बढ़ रहा था। समस्त लोगों द्वारा प्रशंसनीय विषयसुख का अनुभव करते हुए उनके अनेक लाख वर्ष व्यतीत हो गये । एक बार घोड़े को चलाने के निमित्त नागदेव नामक उद्यान में गये हुए कुमारसिंह ने धर्मघोष नामक आचार्य को देखा । अत्यन्त स्वच्छ जीवजन्तुओं से रहित स्थान पर अनेक मुनियों से वे धिरे हुए थे । क्षमा, मार्दव, आर्जव, मुक्ति (त्याग), तप, संयम, सत्य, शौच, आकिंचन्य, ब्रह्मचर्य आदि गुणों के वे सागर थे । प्रथम यौवन में स्थित रूपादि गुण से युक्त अवस्था वाले सम्पूर्ण द्वादशांग के जानकार वे अपने शिष्यों से सूत्रों का अर्थ कह रहे थे । उन्हें देखकर उनके प्रति ( उसके मन में) अत्यधिक सम्मान हुआ । उन्होंने सोचा -- ये धन्य हैं जो कि इस प्रकार संसार से विरक्त होकर, समस्त परिग्रह का त्यागकर इस प्रकार उत्कृष्ट परोपकार में रत हैं । अतः इनके समीप जाकर पूछता हूँ — आप कामदेव के इस सुन्दर समय में स्थित हैं फिर भी विराग का क्या कारण है और दुःखपूर्ण संसार का वास्तविक स्वरूप क्या है ? तब नये वोल्लाह नामक देश विशेष में उत्पन्न घोड़े से दूर से ही उतरकर उनके समीप गया। धर्मघोष को प्रणाम किया। भगवान ने धर्मलाभ देकर उसका अभिनन्दन किया। तब शेष साधुओं की वन्दना कर स्वभाव से सुन्दर गुरु के चरणों में भक्ति से युक्त होकर बैठ गया । निर्भीक होकर उसने भगवान् धर्मघोष से पूछा, "भगवन्! समस्त सम्पदा और कुलगृह से इस प्रकार विरक्त होने का क्या कारण है जिससे Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीलो भयो १०३ जेण इमं अयाले चेव समणत्तणं पडिवन्नो सि ? तओ भयवया भणियं- भो महासावय ! नत्थि इदाणिमगालो सामण्णस्स । कि न पहवइ अयाले निज्जियसुरासुरो सयलमणोरहसेलवज्जासणी पियजणविओएक्कपरमहेऊ विवहजणसंवेगवडढणो मच्च'त्ति । अन्नं च-महासावा! सोहणमादाओ चरमकाले वि जइ सेविज्जइ धम्मो, सो च्चिय पढमं किमजुत्तो ? राइणा भणियं-भयवं ! नो अजुत्तो, किं तु नानिमित्तो निवेओ त्ति निव्वयकारणं पुरछामि। भयवया भणियं-संसारो चेव निव्वयकारणं, तहवि पुणो विसेसओ ओहिनाणिनियरियकहणं ति। राइणा भणियं- भयवं ! केरिसं ओहिनाणिनीयचरियकहणं ति ? भयवया भणियं, सुण - अत्थि इहेव विजए रायउरं नाम नयरं । तन्निवासी अहं भवसरूवओ चेव तयिरत्तमणो चिट्ठामि जाव, आगओ अणेयसमणसामी थेवदियहुप्पन्नोहिनाणोवलद्धपुण्णपावो अमरगत्तो नाम आयरिओ ति। जाओ य लोए लोयवाओ 'अहो अयं महातवस्सी खीणासवदारो समुप्पन्नओहिनाण प्रतिपन्नोऽसि ? । ततो भगवता भणितम्-'भो महाश्रावक ! नास्ति इदानीमकालःश्रामण्यस्य । कि न प्रभवति अकाले निर्जितसुरासुरः सकलमनोरथशैलवज्राशनिः प्रियजन वियोगैकपरमहेतुर्विबुधजनसंवेगवर्धनो मृत्युरिति । अन्यच्च-महाश्रावक ! शोभनभावात् चरमकालेऽपि यदि सेव्यते धर्मः, स एव प्रथमं किमयुक्त: ?' राज्ञा भणितं-'भगवन् ! नायुक्तः, किंतु नाऽनिमित्तो निर्वेद इति निर्वेदकारणं पृच्छामि ।' भगवता भणितम्-'संसार एव निर्वेदकारणम्, तथाऽपि पुनविशेषत अवधिज्ञानिनिजचरित्रकथनमि'ति । राज्ञा भणितम्- 'भगवन् ! किदृशमवधिज्ञानिनिजचरित्रकथनम् ।' भगवता भणितम्, 'शृणु अस्ति इहैव विजये राजपुरं नाम नगरम् । तन्निवा स्यहं भवस्वरूपत एव तद्विरक्तमनाः तिष्ठामि यावत् , आगतोऽनेकश्रमणस्वामी स्तोकदिवसोत्पन्नावधिज्ञानोपलब्धपुण्यपापः अमरगुप्तो नाम आचार्य इति । जातश्च लोके लोकवादः 'अहो अयं महातपस्वी क्षीणास्रवद्वारः समुत्पन्नावधि इस समय में ही आप मुनि बन गये ?" तब भगवान् ने कहा, "हे महाश्रावक ! यह श्रमण दीक्षा का काल नहीं हो, ऐसा नहीं है। क्या असमय में समस्त देवताओं और असुरों को जीतने वाली, समस्त मनोरथ रूपी पर्वतों के लिए घोर वज्र के समान मृत्यु नहीं होती है जो कि प्रियजनों के वियोग की एकमात्र कारण है तथा मनीषियों के संवेग (वैराग्य) को बढ़ाने वाली है । महाश्रावक ! दूसरी बात यह है कि शुभ होने से यदि अन्तिम समय में धर्म का सेवन किया जाता है तो उसी का पहले सेवन करना क्या अयुक्त है ?" राजा ने कहा, "भगवन् ! अयुक्त नहीं है, किन्तु वैराग्य अकारण नहीं होता है, अत: वैराग्य का कारण पूछता हूँ। भगवान् ने कहा, “संसार ही वैराग्य का कारण है, तथापि विशेष रूप से अवधिज्ञानी द्वारा अपने चरित्र का कथन कारण है।" राजा ने कहा, "कैसा अवधिज्ञानी द्वारा अपने चरित्र का कथन ?" भगवान ने कहा, “सुनो - इसी देश में राजपुर नाम का नगर है। उसका निवासी मैं जब संसार के स्वरूप से ही विरक्तमन होकर रह रहा था तो अनेक श्रमणों के स्वामी कुछ ही समय पहले अवधिज्ञान को प्राप्त होने के कारण पुण्यपाप को जानने वाले अमरगुप्त नाम के आचार्य आये। लोगों में चर्चा फैल गयी 'अरे यह महातपस्वी आस्रवद्वार Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [समराइच्चकहा नयणो जहट्टियधम्मदेसणालद्धिसंपन्नों' त्ति । तओ तन्नयरसामी अरिमणो नाम राया, अन्नो य न रजणवओ निग्गओ तस्स दंसणवडियाए', संपत्तो से पायमूलं । वंदिओ भयवं नरवइणा नयरजवएण य। अहिणंदिओ य धम्मलाहेण भयवया नरवई नयरजणवओ य। उवविट्ठो य गुरुवयणबहुमाणमहग्यो अहाफासुए धरणिव? राया नयरजणवओ य । पुच्छिओ य भयवं अहाविहारं राइणा । अणुसासिओ य तेणं। राइणा भणियं-भयवं! संपन्नं ते भयभविस्सवत्तमाणस्थगाहगं ओहिनाणं । ता करेहि मे अनुग्गहं । आइक्ख निययचरियं, कया कहं वा भयवया संपत्तं सासयसिवसोक्खपायवेक्कबीयं सम्मत्तं, देसविरई वा, इह अन्नभवेसु वा सामण्णं' ति। भयवया भणियं, सुण. अत्थि इहेव विजए चंपावासं नाम नयरं । तत्थाईयसमयम्मि सुधणू नाम गाहावई होत्था, तस्स घरिणी धणसिरी नाम, ताण य सोमाभिहाणा अहं सुया आसि । संपत्तजोव्बणा य दिन्ना तन्नयरनिवासिणो नंदसत्थवाहपुत्तस्स रुदेवस्स । कओ य ण विवाहो । जहाणुरुवं विसयसुहमणुज्ञाननयनो यथास्थितधर्मदेशनालब्धिसम्पन्न' इति । ततस्तन्नगरस्वामी अरिमर्दनो नाम राज, अन्यश्च नगरजनपदो निर्गतः तस्य दर्शनवृत्तितया, सम्प्राप्तस्तस्य पादमलम् । वन्दितो भगवान् नरपतिना नगरजनपदेन च। अभिनन्दितश्च धर्मलाभेन भगवता नरपतिः, नगरजनपदश्च । उपविष्टश्च गुरुवचनबहुमानमहा? यथाप्रासुके धरणीपृष्ठे राजा नगरजनपदश्च । पृष्टश्च भगवान् यथाविहारं राज्ञा । अनुशिष्टस्तेन । राज्ञा भणितम्-'भगवन् ! सम्पन्नं ते भूतभविष्यद्वर्तमानार्थग्राहकमवधिज्ञानम् । ततः कुरु मे अनुग्रहम् । आचक्ष्व निजकचरितम् , कदा कथं वा भगवता सम्प्राप्तं शाश्वतशिवसौख्यपादपैकबोजं सम्यक्त्वम्, देशविरतिर्वा, इहान्यभवेषु वा धामण्यम् -इति? भगवता भणितम् । शृणु अस्ति इहैव विजये चम्पावासं नाम नगरम् । तत्रातीतसमये सुधन्वा नाम गाथापतिरासीत्, तस्य गहिणी धनश्री म, तयोश्च सोमाभिधानाऽहं सुताऽऽसम् । सम्प्राप्तयोवना च दत्ता तन्नगरनिवासिने नन्दसार्थवाहपुत्राय रुद्रदेवाय । कृतश्च तेन विवाहः । यथाऽनुरूपं विषयसुखमनुभवाव को नष्ट कर अवधिज्ञान रूपी नेत्र से युक्त हो गये हैं और यथास्थित धर्मदेशना-लब्धि से सम्पन्न हैं।' तब उस नगर का स्वामी अरिमर्दन नाम का राजा और दूसरे नगरवासी उनके दर्शन के लिए निकले और उनके पादमूल में गये। भगवान की राजा और नगरनिवासी जनों ने वन्दना की। धर्मलाभ देकर भगवान् ने राज और नगर निवासियों का अभिनन्दन किया। गुरु के बहुमूल्य वचनों का आदर करते हुए जीवजन्तु रहित पृथ्वी पर राजा और नगरनिवासी बैठ गये । राजा ने पूछा, "भगवन् ! कैसे आगमन हुआ है ?" भगवान् ने उन्हें शिक्षा दी। राजा ने कहा, "भगवन् ! आपको भूत, भविष्यत् और वर्तमान पदार्थ को ग्रहण करने वाला अवधिज्ञान उत्पन्न हुआ है अतः मेरे ऊपर अनुग्रह कीजिए । अपना चरित्र कहिए । भगवान् ने कब और कैसे शाश्वत मोक्ष रूपी सुख का एक मात्र बीज सम्यग्दर्शन, देशविरति अथवा इस भव और अन्य भवों में मुनि-अवस्था प्राप्त की ?" भगवान ने कहा, "सुनो ___ इसी देश में चम्पावास नामक नगर है । उसमें प्राचीन काल में सुधन्वा नामक गृहस्थ था, उसकी स्त्री का नाम धनश्री था। उन दोनों की (मैं) सोमा नाम की पुत्री थी । यौवनावस्था प्राप्त होने पर उसी नगर के निवासी नन्द नाम के सार्थवाह (व्यापारी) के पुत्र रुद्रदेव को दी गयी । उसने विवाह किया। यथानुरूप दोनों ने १. बढियाए-क., च.। २. वंदियो -च. । Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीवोभवो। १०५ हवामो त्ति । जाव तत्थ अहाकप्पविहारेण विहरमाणा विविहतवखदियदेहा सुयरयणपसाहिया रूवि व्व सासणदेवधा समागया बालचन्दा नाम गणिणि त्ति । दिशा य सा मए 'सुरकुलाओ माइकुल"महिगच्छन्तीए विहारनिग्गमपएसे । तं च मे दळूण समुप्पन्नो पमोओ, वियसियं लोयणेहि, पणटुं पावणं, ऊससियमंहि, वियंभियं धम्मचित्तेणं । तओ मए नाइदूरओ चेव विणयरइयकरयलंजलीए सबहुमाणमभिवंदिया भयवई । तीए वि य दिन्नो सयलसुहसरस वीयभूओ धम्मलाभो त्ति । जायाओ य मे तं पइ अईव भत्तिपीईओ। पुच्छिओ य मए भयवईए पडिस्सओ, साहिओ साहुणीहिं । तओ अहं जहोचिएण विहिणा पज्जुवासिउं पवत्ता। साहिओ मे भयवईए कम्मवणदावाणलो दुक्खसेलवज्जासणी सिवसुहफलकप्पपायवो वीयरागदेसिओ धम्मो। तओ कम्मक्खओवसमभावओ पत्तं सम्मत्तं, भाविओ जिणदेसिओ धम्मो, विरत्तं च मे भवचारयाओ चित्तं । तओ य सो रुहदेवो कम्मदोसेण पओसं काउमारद्धो। भणियं च तेण - 'परिच्चय एवं विसयसुहविग्घकारिणं धम्मं ।' तओ मए भणियं 'अलं विसयसुहेहिं । अइचंचला जीवलोयठिई,दारुणो य विवाओ विसयपमायस्स।' इति । यावत् तत्र यथाकल्पविहारेण विहरन्ती विविधतपःक्षपितदेहा श्रुतरत्नप्रसाधिता रूपिणीव शासनदेवता समागता बालचन्द्रा नाम गणिनीति । दृष्टा च सा मया श्वसुरकुलाद् मातकुलमभिः गच्छन्त्या विहारनिर्गमप्रदेशे । तां च मम दृष्ट्वा समुत्पन्नः प्रमोदः, विकसितं लोचनाभ्याम्; प्रनष्टं पापेन, उच्छ्वसितमङ्गः, विजम्भितं चित्तेन । ततो मया नातिदूरत एव विनयरचितकरतलाञ्जल्या सबहुमानमभिवन्दित! भगवती । तयाऽपि च दत्तः सकलसुखसस्यबीजभूतो धर्मलाभ इति । जाताश्च मे तां प्रति अतीवभक्तिप्रीतयः। पृष्टश्च मया भगवत्याः प्रतिश्रयः । कथितः साध्वीभिः । ततोऽहं यथोचितेन विधिना पर्युपासितुं प्रवृत्ता। कथितश्च मह्य भगवत्या कर्मवनदावानलो दुःखशैलवज्राशनिः शिवसुखफल कल्पपादपो वीतरागदेशितो धर्मः । ततः कर्मक्षयोपशमभावतः प्राप्तं सम्यक्त्वम्, भावितो जिनदेशितो धर्मः; विरक्तं च मे भवचारकात् चित्तम् । ततश्च स रुद्रदेवः कर्मदोषेण प्रद्वेष कर्तमारब्धः। भणितं च तेन- 'परित्यज एतं विषयसुखविघ्नकारिणं धर्मम्' ततो मया भणितम्-'अलं विषयसुखैः, अतिचञ्चला जीवलोकस्थितिः, दारुणश्च विपाको विषयप्रमादस्य । तेन भणितम् - विप्र. विषय-सुख का अनुभव किया। वहां पर इच्छानुसार विहार करती हुई बालचन्द्रा नामक गणिनी (प्रधान साध्वी) आयी। उसका शरीर अनेक प्रकार के तपों से क्षीण हो रहा था। वह मानो शास्त्ररूपी रत्न से सजायी गयी शरीर. धारी शासनदेवी थी। उसे मैंने श्वसुर के कुल से माता के कुल को जाते हुए रास्ते में देखा । उसे देखकर मुझे हर्ष हमा और मेरे दोनों नेत्र खिल गये,पाप नष्ट हो गया, शरीर में रोमांच हो माया और धर्ममय चित्त खिल उठा। तब मैंने पास से विनयपूर्वक हाथ जोड़कर सम्मानपूर्वक भगवती को नमस्कार किया। उसने भी समस्त सुखों का बीजभूत धर्मलाभ दिया । मेरे मन में उसके प्रति अत्यन्त भक्ति और प्रीति उत्पन्न हुई और भगवती से प्रतिश्रय (निवास स्थान) पूछा । साध्वियों ने बतलाया (कहा) । तब मैं यथोचित विधि से उनकी उपासना करने में प्रवृत्त हुई। भगवती ने मुझसे कर्मरूपी वन के लिए दावानल के समान, दुःखरूपी पर्वत के लिए वज्र के समा न तथा मोक्षसुखरूपी फल के लिए कल्पवृक्ष के समान वीतराग के द्वारा निरूपित धर्म कहा । तब कर्मों के क्षयोपशम के कारण मुझे सम्यक्त्व की प्राप्ति हुई और मैंने जिनेन्द्र भगवान् के द्वारा प्ररूपित धर्म की भावना की। संसाररूपी कारागार से मेरा चित्त विरक्त हो गया। तब वह रुद्रदेव कर्म के दोष के कारण मुझसे द्वेष करने लगा। उसने कहा-"विषयसुख में विघ्न डालने वाले इस धर्म का परित्याग कर दो।" तब मैंने कहा, "विषयसुख से बस कर संसार की स्थिति अत्यन्त चंचल है । विषयों के कारण प्रमाद करने का फल दारुण है।" उसने कहा, "तुम ठगी १. नाइकुल -ग। Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ [ समराइच्च कहा तेण भणियं - 'वियारिया तुमं, मा दिट्ठ परिच्चइय अदिट्ठ े रई करेहि ।' मए भणियं - 'किमेत्थ दिट्ठ' नाम ?' पसुगणसाहारणा इमे विसया, पच्चक्खोवलब्भमाणसुहफलो य कहं अदिट्ठो धम्मो ति ? तओ सो एवम हिलप्पमाणो अहिययरं पओसमावन्नो । परिच्चत्तो य तेण मए सह संभोगो । वरिया य नागदेवाभिहाण सत्थवाहस्स धूया नागसिरी नाम कन्नगा, न संपाइया तायबहुमाणेणं नागदेवसत्थवाहेण । रुद्ददेवेण चिन्तियं । न एयाए जीवमाणीए अहं दारियं लहामि, ता वावाएमि एयं । तओ मायाचरिएणं कहिंचि घडगयमासीविसं काऊण संठविओ एगदेसे घडओ | अइक्कते पओससम ए संपत्ते य कामिणिजणसमागमकाले भणियाऽहं तेण - 'उवणेहि मे इमाओ नवघडाओ कुसुममालं' ति । तओ अहं तस्स मायाचरियमणववुज्झमाणा गया घडसमीवं । अवणीयं तस्स दुवारढक्कणं' धरणिमाउलिंगं । तओ हत्थं छोढूण गहिओ भुषंगो । डक्का अहं तेण । तओ तं ससंभ्रमं उज्झिऊण सज्झसभयवेविरंगी समल्लीणा तस्स समीवं । 'डक्का भुयंग मेणं' ति सिट्ठ रुद्ददेवस्स । नियडीपहाणओ य आउलीहूओ रुद्ददेवो । पारद्धो तेण निरत्थओ देव कोलाहली । एत्थंतरम्मि य सीइयं मे अगेहि, 1 वारिता त्वम् मा दृष्टं परित्यज्य अदृष्टे रतिमकार्षीः । मया भणितम् - 'किमत्र इष्टं नाम ? पशुगणसाधारणा हमे विषया:, प्रत्यक्षोपलभ्यमानसुखफलश्च कथमदष्टो धर्म' इति ? । ततः स एवमभिप्यमानोऽधिकतरं प्रद्वेषमापन्नः । परित्यक्तश्च तेन मया सह सम्भोगः । वृता च नागदेवाभिधानस्य सार्थवाहस्य दुहिता नागश्रीर्नाम कन्यका, न सम्पादिता तातबहुमानेन नागदेव सार्थवाहेन । रुद्रदेवेन चिन्तितम् -- न एतस्यां जीवन्त्यामहं दारिकां लभे । ततो व्यापादयामि एताम् । ततो मायाचरितेन कथंचिद् घटगतमाशीविषं कृत्वा संस्थापित एकदेशे घटकः । अतिक्रान्ते च प्रदोषसमये सम्प्राप्ते च कामिनीजनसमागमकाले भणिताऽहं तेन - उपनय मामस्माद् नवघटात् कुसुममालामिति । ततोऽहं तस्य मायाचरितमनवबुध्यमाना गता घटसमीपम् | अपनीतं तस्य द्वारच्छादनं धरणीमातुलिङ्गम् । ततो हस्तं क्षिप्त्वा गृहीतो भुजङ्गः । दष्टाहं तेन । ततस्तं ससम्भ्रममुज्झित्वा साध्वसभयवेपमानाङ्गी समालीना तस्य समीपम् । 'दष्टा भुजङ्गमेन' इति शिष्टं रुद्रदेवस्य । निकृतिप्रधानकश्च आकुलीभूतो रुद्रदेवः । प्रारब्धस्तेन निरर्थक एवं कोलाहलः । अत्रान्तरे च सन्नं गयी हो । प्रत्यक्ष को छोड़कर परोक्ष के प्रति प्रेम मत करो।” मैंने कहा, "प्रत्यक्ष क्या है ? ये विषय पशुओं में भी सामान्य रूप से पाये जाते हैं। जिसका प्रत्यक्ष सुखरूप फल प्राप्त होता है, ऐसा धर्म परोक्ष कैसे है ?" तब वह ऐसा कहे जाने पर मुझसे और अधिक द्वेष करने लगा । उसने मुझसे सहवास करना त्याग दिया । नागदेव नामक व्यापारी की पुत्री नागश्री नामक कन्या की उसने मांग की, किन्तु पिताजी के प्रति अत्यधिक सम्मान होने के कारण नागदेव व्यापारी ने वह कन्या उसे नहीं दी । रुद्रदेव ने सोचा, इसके जीवित रहते हुए मैं इस कन्या को नहीं पा सकता । अत: इसे मार देता हूँ। तब छलपूर्वक किसी प्रकार भयंकर सर्प को घड़े के अन्दर करके उसे एक कोने में रख दिया । सन्ध्या समय बीत जाने और कामिनी स्त्रियों के समागम का काल उपस्थित होने पर उसने मुझसे कहा, "मुझे इस नये घड़े में से फूलों की माला ला दो ।" तब में छलकपट को न समझकर घड़े के समीप गयी । घड़े का मुंह खोला । अनन्तर हाथ डालकर सर्प ले लिया। उसने मुझे डस लिया । तब घबड़ाहट के साथ उसे छोड़कर शीघ्र ही भय से करती हुई उसके पास गयी। 'सर्प ने काट खाया' ऐसा रुद्रदेव से कहा । कपट की प्रधानता से रुद्रदेव आकुल व्याकुल हो गया। उसने निरर्थक कोलाहल प्रारम्भ किया। इसी बीच मेरा अंग शून्य हो गया १. घट्टणं । Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीओ भयो ] १०७ वियलियं संधीहि, उव्वत्तियं पिव' हियएणं, भमियं पिव पासायंतरेण', परिवत्तियं पिव पुहवीए, अवसा अहं निवडिया धरणिवट्ठ । अओ परमणाचिक्खणीयमवत्थंतरं पाविऊण पुवसम्मत्ताणुभावओ चइऊण देहं सोहम्मे कप्पे लीलावयंसए वरविमाणे पलिओवमट्ठिई देवत्ताए उववन्नो म्हि। तत्थ य पवरच्छरापरिगओ दिव्वे भोए उवभुंजामि जाव, रुद्ददेवो वि तं नागदत्तसत्थवाहधूयं परिणीय तीए सद्धि जहाणुरूवे भोए उवभुंजिऊण कालमासे कालं काऊण रयणप्पभाए पुढवीए खट्टक्खडाभिहाणे नरए पलिओवमाऊ चेव नारगो उववन्नो त्ति । तओ अहं अहाउयं अणुपालिऊण चुओ समाणो इहेव विजए सुंसुमारे रण्णे सुंसुमारगिरिम्मि हत्थित्ताए उववन्नो, संपत्तो य कलभगावत्थं । एत्थंतरम्मि य इयरो वि नरयाओ उव्वट्टिऊण तम्मि चेव गिरिवरे सुगपक्खित्ताए उववन्नो त्ति । अइक्कतो य सिसुभावं, विट्ठीय अहं तेण तम्मि चेव गिरिवरे सहावरमणीएसु नलवणेसु करेणुसंघायपरिगओ सलीलं परिभमंतो त्ति । तओ में दळूण पुत्वभवन्भासाओ उक्कडकम्मोदयाओ य समप्पन्नो ममोवरि वेरपरिणामो। चितियं च तेण-कहं पुण एस कुंजरो इमाओ भोगसुहाओ वंचिय मेऽङ्गः, विचलितं सन्धिभिः, उद्वतितमिव हृदयेन, भ्रान्तमिव प्रासादान्तरेण, परिवर्तितमिव पृथिव्या, अवशाऽहं निपतिता धरणीपृष्ठे । अतः परमनाख्येयमवस्थान्तरं प्राप्य पूर्वसम्यक्त्वानुभावतस्त्यक्त्वा देहं सौधर्म कल्पे लीलावतंसके वरविमाने पल्योपमस्थितिर्देवत्वेन उपपन्नोऽस्मि । तत्र च प्रवराप्सर परिगतो दिव्यान् भोगानुपभुजे यावद्, रुद्रदेवोऽपि तां नागदत्तसार्थवाहदुहितरं परिणीय तया साद्धं यथानुरूपान् भोगानुपभुज्य कालमासे कालं कृत्वा रत्नप्रभायां पृथिव्यां खट्टक्खडाभिधाने नरके पल्योपमायुरेव नारक उपपन्न इति । ततोऽहं यथायुष्कमनुपाल्य च्युतः सन् इहैव विजये सुंसुमारे अरण्ये सुंसुमारगिरौ हस्तित्वेनोपपन्नः, सम्प्राप्तश्च कलभकावस्थाम् । अत्रान्तरे च इतरोऽपि नरकादुद्वत्य तस्मिन्नेव गिरिवरे शुकपक्षित्वेनोपपन्न इति। अतिक्रान्तश्च शिशुभावं, दृष्टश्चाहं तेन तस्मिन्नेव गिरिवरे स्वभावरमणीयेषु न(ड)लवनेषु करेणुसंघातपरिगतः सलीलं परिभ्रमन्निति । ततो मां दृष्ट्वा पूर्वभवाभ्यासाद् उत्कटकर्मोदयाच्च समुत्पन्नो ममोपरि वैरपरिणामः। चिन्तितं च तेन-कथं पुनरेष कुञ्जरोऽस्माद् भोगसुखाद् वञ्च यतव्य इति । उपायान् गवेषयितुमारब्धः । जोड़ ढीले पड़ गये, हृदय मानो निकलने लगा, महल घूमने-सा लगा, पृथ्वी मानो उलट पड़ी और अवश होकर मैं पृथ्वी पर गिर पड़ी । (मेरा जीव) परम अनिर्वचनीय अवस्था को प्राप्त कर पूर्व सम्यक्त्व के प्रभाव से शरीर के लीलावतंसक उत्कृष्ट विमान में एक पल्य की आयुवाला देव हुआ । वहाँ पर श्रेष्ठ अप्सराओं से घिरा होकर दिव्य भोगों को भोगा। रुद्रदत्त भी उस नागदत्त व्यापारी की कन्या को विवाह कर उसके साथ अनुरूप भोगों को भोगकर समय आने पर मृत्यु को प्राप्त होकर रत्नप्रभा पृथ्वी के खडक्खडा नामक नरक में एक पल्य की आयु वाला नारकी हुआ । तब मैं यथावत् आयु पूरी कर वहाँ से च्युत होकर इसी देश के सुंसुमार नामक जंगल में सुसुमार नामक पर्वत पर हाथी के रूप में पैदा होकर बाल्यावस्था को प्राप्त हुआ। इसी बीच वह दूसरा भो नरक से निकलकर उसी पर्वत पर तोते के रूप में पैदा हुआ। बाल्यावस्था बीत जाने पर उसी पर्वत पर स्वभाव से रमणीय नरकट वन में हथिनियों से घिरे होकर लीलापूर्वक घूमते हुए उसने मुझे देखा । तब मुझे देखकर पूर्वभव के अभ्यास वश उत्कट कर्मोदय से मेरे ऊपर (उसका) वैरभाव उत्पन्न हुआ। उसने सोचा-कैसे यह हाथी इस सुखभोग से वञ्चित हो । उसने उपाय खोजना प्रारम्भ कर दिया। एक १. चिय-क । २. रेहि-क। ३. सोहम्म कप्पे-च। ४. संपत्तो -ख। Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [समराइच्चकहा यन्वो त्ति । उवाए गवेसिउमारद्धो । अन्नया लीलारई नाम विज्जाहरो, सो मियंकसेणस्स विज्जाहरस्स भइणि चंदलेहाभिहाणि अवह रिऊण तब्भएणेवागओ तमुद्देसं । भणिओ य तेण सो सुगो- 'अहं एत्थ गिरिनिगुंजे चिट्ठामि; आगमिस्सइ य एत्थ एगा विज्जाहरा, तओ न तुमए तस्स अहं साहियव्वो गओ य सो ममं साहियव्वो, तओ ते किंचि पडिरूवमुवयारं करिस्सामि, एवं कए सुट्ठ मे उकयं' ति जंपिऊणमोइण्णो वियडतडाभोगसंठियं गिरिनिगुंजं । इयरो वि तम्मि चेवुद्देसे नारंगपायवसाहागए नोडे चिट्ठइ, जाव आगंतूण गओ मियंकसेणो। एत्थंतरम्मि य करेणुपरिगओ अहं आगओ तमुद्देसं । तओ मं दळूणं चितिथं सुगेण ---अथिइयाणि अवसरो मे समीहियस्स । तओ नियडिबहुलेण सजायाए सहाभिमंतिऊण मम सवणगोयरे भणियं- 'सुंदरि! सुयं मए भयवओ वसिट्ठमहरिसिस्स समीवे, जहा इहं सुंसुमारपबए सव्वकामियं नाम पडणमत्थि; जो जं अभिलसिऊण पडइ, सो तक्खणेण चेव तं पावई' ति । तओ मए पुच्छियं-'भयवं ! कहिं पुण तमुद्देसं ?' तेण साहियं'जहा इमस्स सालतरुवरस्स वामपासेणं ति। ता अलं इमिणा तिरियभावेण, एहि, विज्जाहरपणिहाणं अन्यदा लोलारति म विद्याधरः, स मगासेनस्य विद्याधरस्य भगिनी चन्द्रलेखाभिधानामपहृत्य तद्भयेनैवागतस्तमुद्देशम्। भणितश्च तेन स शुक:--'अहमत्र गिरिनिकुञ्जे तिष्ठामि; आगमिष्यति चात्र एको विद्याधरः; ततो न त्वया तस्याहं कथयितव्यः, गतश्च स मम कथयितव्यः, ततस्ते किञ्चित्प्रतिरूपमुपकारं करिष्यामि, एवं कृते 'सुष्ठ मम उपकृतमिति कथयित्वा अवतीर्णो विकटतटाभोगसंस्थितं गिरिनिकुञ्जम् । इतरोऽपि तस्मिन् एव उद्देशे नारङ्गपादपशाखागते नीडे तिष्ठति, यावदागत्य गतो मृगाङ्कसेनः। अत्रान्तरे च करेणुपरिगतोऽहं आगतस्तमुद्देशम्। ततो मां दृष्ट्वा चिन्तितं शुकेन-अस्ति इदानीमवसरो मे समीहितस्य । ततो निकृतिबहुलेन स्वजायया सहाभिमन्त्र्य मम श्रवणगोचरे भणितम् -'सुन्दरि ! श्रुतं मया भगवतो वशिष्टमहर्षेः समीपे, यथा इह सुंसुमारपर्वते सर्वकामितं नाम पत्तनमस्ति; यो यदभिलष्य पतति, स तत्क्षणेनैव तत्प्राप्नोति' इति । ततो न! क्व पनः स उद्देशः?' तेन कथितम-'यथाऽस्य सालतरुवरस्य वामपार्वेणेति। ततोऽलं अनेन तिर्यग्भावेन, एहि, विद्याधरप्रणिधानं कृत्वा तत्र निपतावः ।' प्रतिश्रुतं च मे इदं बार लीलारति नामक विद्याधर मृगांकसेन नामक विद्याधर की चन्द्रलेखा नामक बहिन का अपहरण कर उसी के भय से उस स्थान पर आया। उसने उस तोते से कहा-"मैं इस पर्वत के लता-मण्डप में रुकता हूँ। यहाँ एक विद्याधर आयेगा । उसे मेरे विषय में मत बतलाना । वह चला जाय तब मुझे बतला देना । मैं आपका भी कुछ प्रत्युपकार करूँगा।" ऐसा करने पर आपने मुझे ठीक उपकृत किया'-ऐसा कहकर भयंकर किनारे की सीमा में स्थित लताकुंज में उतर गया। दूसरा भी (तोता भी) उसी स्थान पर भरंगी वृक्ष की शाखा में बने हुए घोंसले में बैठ गया। तभी आकर मृगांकसेन चला गया। इसी बीच हथिनियों से घिरा मैं उस स्थान पर आया । तब मुझे देखकर तोते ने विचार किया। मेरे इष्ट कार्य का यह अवसर है । तब छल की बहुलता से अपनी स्त्री से सलाह करते हुए, मुझे सुनाई पड़ जाय, इस प्रकार कहा, "सुन्दरि ! भगवान् वशिष्ठ महर्षि के पास मैंने सुना कि इस सुंसुमार पर्वत पर सर्वकामित नाम का पत्तन (गिरने का स्थान) है। जो जिसकी अभिलाषा कर वहां से गिरता है, वह उसी क्षण वही वस्तु प्राप्त कर लेता है। तब मैंने पूछा- भगवन् ! वह स्थान कहाँ है ?" उसने कहा, "इस सालवृक्ष के बायीं ओर है। अतः यह तिर्यंचगति व्यर्थ है, आओ हम दोनों विद्याधर होवें, ऐसा ध्यान करके वहां से कूदें।" पत्नी ने यह स्वीकार कर लिया। वे दोनों उस स्थान पर गये । ध्यान किया Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीमो भवो] १०६ काऊणं तहि निवडामो।' पडिस्सुयं च मे इमं जायाए। गयाइं तमुद्देसं, कओ पणिही, निवडियाई गिरिनिगुंजे, साहियं लीलारइणो । समुप्पइओ य सह चंदलेहाए गयणयलमलंकरेन्तो लीलारई । दिट्ठो य अम्हेहिं । समुप्पन्ना मे चिता -- 'अहो सव्वकामियपडणाणुभावो, जमेयं सुगमिहुणयं कयविज्जाहरपणिहाणमिह निवडिऊण तक्खणा चेव विज्जाहरमिहणयं जायं। ता अलं अम्हाण पि इमिणा तिरियभावेण ।' तओ देवपणिहि काऊण निवडामो एत्थ अम्हे वि त्ति। एवं च संपहारिऊण पणिहं काऊण निवडिया तत्थ अम्हे। एत्थंतरमि य उप्पइयं सुयमिहुणयं, न लक्खियमम्हेहिं । तओ संचुणियं गोवंगो अहं किलेसमणहविऊण अकामनिज्जराए कम्मं खविऊण उववन्नो कुसुमसेहराभिहाणे वंतरभोम्मनयरे देसूणपलिओवमाऊ वंतरो त्ति । तत्थ य उदारे भोए भुंजामि जाव, इयरो वि सुयत्ताए मरिऊण रयणप्पभाए चेव पुढवीए लोहियामुहाभिहाणे नरए समुप्पन्नो देसूणपलिओवमट्टिई नारगो त्ति । तओ अहं अहाउयमणुपालिऊण चुओ समाणो एत्थ चेव विदेहे अन्नम्मि विजए चक्कबालउरे नयरे अप्पडिहयचक्कस्स सत्थवाहस्स सुमंगलाए भारियाए कुच्छिसि पुत्तत्ताए उववन्नो ति । जाओ य उचियसमएण, पइट्ठावियं च मे नामं चक्कदेवो, पत्तो य बालभावं । एत्थंतरम्मि जायया । गतौ त.मुद्देशम्, कृतः प्रणिधिः, निपतितौ गिरिनिकुञ्ज, कथितं लीलारतेः । समुत्पतितश्च सह चन्द्रलेखया गगनतलमलंकुर्वन् लीलारतिः । दृष्टश्चावाभ्याम् । समुत्पन्ना मे चिन्ता-'अहो ! सर्वकामितपतनानुभावः, यदेकं शुकमिथुनं कृतविद्याधरप्रणिधानमिह निपत्य तत्क्षणादेव विद्याधरमिथुनकं जातम् । ततोऽलम् आवयोरपि अनेन तिर्यग्भावेन ।' ततो देवप्रणिधिं कृत्वा निपताव: अत्र आवामपीति । एवं च सम्प्रधार्य प्रणिधिं कृत्वा निपतितौ तत्रावाम् । अत्रान्तरे च उत्पतितं शुकमिथुनम्, न लक्षितमावाभ्याम् । ततः संचूणिताङ्गोपाङ्गोऽहं क्लेशमनुभूय अकामनिर्जरया कर्म क्षपयित्वा उपपन्नः कुसुमशेखराभिधाने व्यन्तरभौमनगरे देशोनपल्योपमायुर्व्यन्तर इति । तत्र चोदारान् भोगान् भुजे यावत्, इतरोऽपि शुकतया मृत्वा रत्नप्रभायामेव पृथिव्यां लोहितमुखाभिधाने नरके समुत्पन्नो देशोनपल्योपमस्थिति रक इति । ततोऽहं यथायुष्कमनुपाल्य च्युतः सन् अत्रैव विदेहे अन्यस्मिन् विजये चक्रवालपुरे नगरे अप्रतिहतचक्रस्य सार्थवाहस्य सुमङ्गलाया: भार्यायाः कुक्षौ पुत्रतयोपपन्न इति । जातश्च उचितसमयेन, प्रतिष्ठापितं च मे नाम चक्रदेवः, पर्वतीय लतागृह से कूद पड़े, लीलारति से कहा था ही ।आकाशतल को अलंकृत करता हुआ लीलारति चन्द्रलेखा के साथ उड़कर आया । हम दोनों ने उसे देखा। मैंने विचार किया, 'ओह ! सभी कामनाओं को पूरा करने वाले स्थान का प्रभाव जो कि एक तोते का जोड़ा विद्याधर का ध्यान कर यहाँ से गिरकर उसीक्षण विद्याधर युगल हो गया। अतः हम दोनों का यह तिर्यंचगति धारण करना व्यर्थ है । अतः देव का ध्यान कर हम दोनों भी यहीं गिर पड़ें ।' इस प्रकार निश्चय कर ध्यानकर हम दोनों वहाँ से गिर पड़े। इसी बीच तोते का जोड़ा उड़ गया। हम लोगों को दिखाई नहीं दिया । तब अंगोपांग टूट जाने पर क्लेश का अनुभव कर अकामनिर्जरा से कर्म का नाश कर कुसुमशेखर नामक व्यन्तरों के नगर में कुछ कम एक पल्प की आयु वाला व्यन्तर हुआ। वहाँ पर अनेक भोगों को भोगा। दूसरा भी शुकयोनि से मरकर रत्नप्रभा पृथ्वी में कहीं लोहित नामक नरक में कुछ कम एक पल्य की आयु वाला नारकी हुआ। तदनन्तर मैं आयु को भोगकर च्युत होकर इसी विदेह क्षेत्र के दूसरे विजय (देश) में चक्रवालपुर नगर में अप्रतिहतचक्र नामक व्यापारी की सुमंगला नामक पत्नी की कोख में पुत्र के रूप में आया। उचित समय पर मेरा जन्म हुआ। मेरा नाम चक्रदेव रखा गया और बाल्यावस्था को प्राप्त हुआ। इसी १. जमयं-क। २. संचुरिय-क । ३. वंतरसुरो त्ति-क। Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० [ समराइचकहा य सो सुपनारगो नरगाओ उवट्टिऊण तत्थ चेव नयरे सोसम्मस्स निवपुरोहियस्स नन्दिवद्धणाभिहाणाए भारियाए कुच्छिसि पुत्तताए उववन्नो त्ति, जाओ य कालक्कमेणं, पइद्वावियं च से नामं जन्नदेवो, पत्तो य कुमारभावं । एत्यंतरम्मि य जाया मम तेण सह पीई सम्भावओ, तस्स उण कइयवेणं । तओ पुत्वभवन्मत्थकम्मदोसेणं उज्जयस्स वि अणुज्जुओ मम संपयामच्छरी वंचणाछलेण छिद्याइं गवेसिउमारद्धो । अलहमाणेण य परिचितियमणेण-न एसो एवं छलिउं पारियइ, ता एस एत्थ उवाओ। चंदणसत्थवाहगेहं मुसिऊण एयस्स गेहे रित्थं मुयामि, पच्छा य केणइ उवाएणं निवेइऊण राइणो संपयाओ भंसइस्सं ति । अणुचिट्ठियं च णेण जह चितियं । उवणेऊण य मे गेहे रित्थं भणियमणेण--- 'वयंस ! एयं पयत्तेण संगोवावेसु' त्ति । ए वि य अकालाणयणजायसंकेण अणिच्छमाणेणावि एयरस दक्खिण्णबहुलयाए संगोवियं ति । पक्त्तो य नयरे जणरवो, जहा मुटुं चंदणसत्थवाहगेहं ति। तओ आसंकियं मे हिया एणं-नणमेयं एवं भविस्सइ त्ति । गओ जन्नदेवसमीवं, पुच्छिओ य सो मए – 'कहमेयं ववत्थियं हि । तेण भणियं-'मा अन्नहा समत्थेहि। तायभएण मए एयं प्राप्तश्च बालभावम् । अत्रान्तरे च स शुकनारको नरकादुद्वत्त्य तत्रैव नगरे सोमशर्मणो नपपुरोहितस्य नन्दिवर्धनाभिधानायाः भार्यायाः कुक्षौ पुत्रत्वेनोपपन्न इति, जातश्च कालक्रमेण । प्रतिष्ठा च तस्य नाम यज्ञदेवः। प्राप्तश्च कुमारभावम् । अत्रान्तर च जाता मम तेन सह प्रीतिः सद्भावतः, तस्य पुनः कैतवन । ततः पूर्वभवाभ्यस्तकर्मदोषण ऋजक स्यापि अनजको मम सम्पन्मत्सरी वञ्चनाच्छलेन छिद्राणि गवेषयितुमारब्धः। अलभमानेन च परिचिन्तितमनेन-न एष एवं छलितुं पार्यते, तत एषोऽत्र उपायः । चन्दनसार्थवाहगृहं मुपित्वा एतस्य गृहे रिक्थं मुञ्चामि, पश्चात्केनचिदुपायेन निवेद्य राज्ञः सम्पदः भ्रंशयिष्ये इति । अनुष्ठितं च तेन यथाचिन्तितम् । उपनीय च मे गेहे रिक्थं भणितमनेन वयस्य ! एतत् प्रयत्नेन संगोपये ति। मयापि च अकालानयनजातशङ्कन अनिच्छताऽपि एतस्य दाक्षिण्यबहुलतया संगापितमिति । प्रवृत्तश्च नगरे जनरवः, यथा मुष्ट चन्दनसार्थवाहगेहमिति । तत आशङ्कितं मे हृदयेन-नूनमेतदेवं भवि ष्यतोति । गतो यज्ञदेवसमोपम्, पृष्टश्च स मया-'कथमेतद् व्यवस्थितमिति । तेन भणितम्-'मा अन्यथा समर्थय, तातभयेन मया एतद् भवतः बीच में वह नरकगामी तोता नरक से निकलकर उसी नगर में सोमशर्मा नाम के राजा के पुरोहित की नन्दिवर्धना नामक पत्नी के गर्भ में पुत्र रूप में आया और कालक्रम से उत्पन्न हुआ। उसका नाम यज्ञदेव रखा गया। वह कुमारावस्था को प्राप्त हुआ। इसी बीच सद्भाव के कारण मेरी उसके साथ प्रीति हो गयी। उसने धूर्तता के कारण मैत्री की । अनन्तर पूर्वभव के अभ्यस्त कर्मदोष से सरल के लिए भी कुटिल बनने वाले उसे मेरी सम्पत्ति से डाह हो गयी और उसने मुझे धोखा देने के लिए मेरे दोषों को ढूंढना प्रारम्भ कर दिया । कोई दोष न पाकर उसने सोचा-यह छला नहीं जा सकता है अत: इसका यह उपाय है । चन्दन व्यापारी के घर में चोरी कर इसके घर में चुराया हुआ धन रख देता हूँ, बाद में किसी उपाय से राजा से निवेदन कर सम्पत्ति का नाश करा दूंगा। उसने जैसा सोचा था, वही किया। मेरे घर धन लाकर इसने कहा, "मित्र ! इसे यत्नपूर्वक छिपात्रो।" असमय में लाने के कारण यद्यपि मुझे शंका हई तथापि उसकी चतुरई के कारण न चाहते हुए भी मैंने छुपा लिया। नगर में लोगों का शोर मचा कि वन्दन व्यापारी के घर चोरी हो गयी। तब मेरा हृदय आशंकित हुआ, निश्चित रूप से वह माल यही होगा । मैं यज्ञदत्त के पास गया और रससे पूछा, "यह कैसे हुआ ?' ''अन्यथा मत समझिए, पिता जी के भय के कारण मैंने इसे आपको समर्पित कर दिया है, दूसरे किसी कारण से नहीं ।" तब मेरी शंका Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीसो भयो] भवओ समप्पियं, न पुण अन्नह' ति । तओ अवगया मे संथा। एत्थंतरम्मि य जाणावियं चंदणसत्थवाहेण राइणो, जहा 'देव ! गेहं मे मट्ट"ति । 'किमवहरिय'ति पुच्छ्यिं राइणा। 'निवेइयं चंदणेणं लिहावियं च राइणा, भणियं च णेण -- 'अरे ! आघोसेह डिडिमेणं, जहा-मुट्ठ चंदणसत्थवाहगेहं, अवहरियमेयं रित्थजायं । ता जस्स गेहे केणइ ववह रजोएण तं रित्थं रित्थदेसो वा समागओ, सो निवेएउ राइणो चंडसासणस्स । अणिवेइओवलंभे य राया सव्वधणावहारेण सरीरदंडेण य नो खमिस्सइ त्ति । तओ पयट्टमाघोसणं । अइक्कते य तम्मि' गएस पंचसु दिणेसु जाणावियं जन्नदेवेण राइणो । जहा-'देव ! न जुत्तं चेव मित्तदोसपयासणं, कि तु परलोयइहलोयविरुद्धसेविणा अहियायरणेण अत्तणो वि य अमित्तेण अलं मे मित्तेणं । न उवेक्खियव्वं जाणंतेणं रायजणाहियं । अओ ईइसं पि देवस्स निवेईयइ ।' राइणा भणियं-'भणाउ अज्जो। जन्नदेवेण भणियं-- 'देव ! सुण । सुयं मए चक्रकदेवासन्नपरियणाओ, जहा इमं चंदणसत्थवाहगेहं चक्क देवेण मुटुं, संगोवियं रित्थं निययगेहे । समर्पितम्, न पुनरन्यथेति । ततोऽपगता मे शङ्का । अत्रान्तरे च ज्ञापितं चन्दनसार्थवाहेन राज्ञः, यथा 'देव ! गेहं मे मुष्टम्' इति । 'किमपहृतम्' इति पृष्टं राज्ञा । निवेदितम् चन्दनेन, लेखितं च राज्ञा । भणितं च तेन-'अरे ! आघोषय डिण्डिमेन, यथा---मुष्टं चन्दनसार्थवाहगहम्, अपहृतमेतद् रिक्थजातम् । ततो यस्य गेहे केनचिद् व्यवहारयोगेन तद् रिक्थं रिक्थदेशो वा समागतः, स निवेदयतु राज्ञश्चण्डशासनस्य । अनिवेदितोपलम्भे च राजा सर्वधनापहारेण शरीरदण्डेन च नो अमिष्यते' इति । ततः प्रवृत्तमाघोषणम् । अतिक्रान्ते च तस्मिन् गतेषु पञ्चसु दिनेषु ज्ञापितं यज्ञदेवेन राज्ञः। यथा--'देव ! न युक्तमेव मित्रदोषप्रकाशनम् , किन्तु परलोकेहलोकविरुद्धसेविना अहिताचरणेन आत्मनोऽपि चामित्रेण अलं मे मित्रेण । नोपेक्षितव्यं जानता राजजनाऽहितम् । अत ईदृशमपि देवस्य निवेद्यते ।' राज्ञा भणितम्-'भणतु आर्यः।' यज्ञदेवेन भणितम्-'देव ! शृणु । श्रुतं मया चक्रदेवासन्नपरिजनात्, यथेदं चन्दनसार्थवाहगेहं चक्रदेवेन मुष्टम्, संगोपितं रिक्थं निजकगेहे।' एवं दूर हो गयी। इसी बीच में चन्दन व्यापारी ने राजा को बतलाया, “महाराज ! मेरे घर में चोरी हो गयी।" "क्या चुरा लिया गया ?" यह राजा ने पूछा । चन्दन ने निवेदन किया, राजा ने लिखवाया। उसने कहा, "अरे डोंडी बजाकर घोषणा करवाओ कि चन्दन व्यापारी के घर में चोरी हो गयी और यह धन चोरी गया है। जिसके घर किसी व्यापारी के माध्यम से वह धन या उसका अंश आया हो, वह राजा चण्डशासन से निवेदन करे । यदि किसी ने नहीं बतलाया और बाद में उसी के घर प्राप्त हुआ तो राजा उसके समस्त धन का अपहरण कर लेगा, उसे शारीरिक दण्ड देगा, उसे क्षमा नहीं किया जायगा।" तब घोषण हुई। उस घटना के पांच दिन बाद यज्ञदेव ने राजा से कहा, "महाराज ! मित्र के दोषों को प्रकाशन करना उचित नहीं है। किन्तु परलोक और इहलोक के विरुद्ध कार्य करने वाले तथा अहिताचरण करने के कारण अपने भी शत्रु रूप मित्र से मुझे क्या? राजा और प्रजा के प्रतिकूल कार्य को जानते हुए उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। अतः महाराज ऐसा भी निवेदन करता हूँ।" राजा ने कहा, "आर्य कहें ।" यज्ञदेव ने कहा, "महाराज ! सुनो। मैंने चक्रदेव के समीप में रहने वाले उसके सेवकों कि इस चन्दन व्यापारी के घर पर चक्रदेव ने चोरी की तथा चोरी के धन को अपने घर पर १. घोषणे - क । Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ [ समराइच्चकहा एवं सोऊण 'देवो पमाणं' ति । राइणा भणियं - 'श्रज्ज ! असंभावणिज्जमेयं, कुलप्पसुओ क्खु सो, ता कहं इमं अच्चतविरुद्धं करिस्सइ ।' जन्नदेवेण भणियं - 'देव ! नत्थि अन्नाणलोभवसगाण मसंभावणिज्जं । को य दोसो कुलस्स, किं न हवंति सुरभिकुसुमेसु किमिओ । ता निरूवावेहि ताव केणइ पयारेण तस्स गेहूं' ति । तओ 'जुत्तमेयं' ति चितिऊण समाणत्तं चंडसासणेण करणं । भणिया य कारणियानयर महंत गेहं सह घेत्तूण चंदणसत्थवाहभंडारियं पलोएह चक्कदेवस्स गेहे तं पणट्ठ रित्थं ति । तओ 'किमेइणा असंभावणिज्जेणं, अहवा आएसगारिणो श्रम्हे' 'त्त मंतिऊण, मेलविय नयरमहंतगे घेत्तूण चंदणसत्यवाहभंडारियं जाममेत्ते वासरे समागया मे गेहं पहाणनयरजणा हिट्टिया कारणिय त्ति । पुच्छिओ य तेहिं अहं - 'सत्थवाहपुत्त ! न ते किंचि केणइ एवंजाइयं रित्थं संववहारवडियाए उवणीयं ति । तओ मए असंजायसंकेण भणियं - 'नहि नहि' त्ति । तेहि भणियं - 'न तए कुप्पियध्वं रायसासणमिणं, गेहमवलोइयत्वं ति । मए भणियं - 'म एत्थ अवसरो कोवस्स, पयापरिरक्खणनिमित्तं समारंभी देवस्स । तओ पविट्ठा में गेहं सह नयरबुड्ढेहिं रायपुरिसा । अव - श्रुत्वा 'देवः प्रमाणमिति । राज्ञा भणितम् - 'आर्य ! असम्भावनीयमेतद्, कुलप्रसूतः खलु सः, ततः कथमिदमत्यन्तविरुद्धं करिष्यति ।' यज्ञदेवेन भणितम् - 'देव ! नास्ति अज्ञानलोभवशगानामसम्भावनीयम् । कश्च दोषः कुलस्य, किं न भवन्ति सुरभिकुसुमेषु कृमयः ? । ततो निरूपय तावत्केनचित्प्रकारेण तस्य गेहमिति । ततो 'युक्तमेतत्' इति चिन्तयित्वा समाज्ञप्तं चण्डशासनेन करणम् । भणिताश्च कारणिकाः— नगरमहद्भिः सह गृहीत्वा चन्दनसार्थवाहभाण्डागारिणं प्रलोकयत चक्रदेवस्य गृहे तत्प्रनष्टं रिक्थमिति । ततः किमेतेना सम्भावनीयेन, अथवा आदेशकारिणो वयम् इति मन्त्रयित्वा मेलयित्वा नगर महतो गृहीत्वा चन्दनसार्थवाहभाण्डागारिकं याममात्रे वासरे समागता मम गेहं प्रधाननगरजनाधिष्ठिताः कारणिका इति । पृष्टश्च तैरहम् - सार्थवाह पुत्र ! न ते किञ्चित् केनचिद् एवंजातिकं रिक्थं संव्यवहारपतितया उपनीतमिति । ततो मयाऽजातशङ्केन भणितम्'नहि नहि' इति । तैर्भणितम् - 'न त्वया कुपितव्यम्; राजशासनमिदम्, यत्ते गेहमवलोकयितव्यमिति । मया भणितम् - नात्र अवसर : कोपस्य, प्रजापरिरक्षणनिमित्तं समारम्भो देवस्य ।' ततः प्रविष्टा मे गेहं सह नगरवृद्धैः राजपुरुषाः । अवलोकितं च तैर्नानाप्रकारं द्रविणजातम्, दृष्टं च श्रेष्ठ कुल में उत्पन्न और लोभ के वशीमें कीड़े नहीं हो चण्डशासन ने घर बड़े-बड़े लोगों तथा छिपा लिया । यह सुनकर महाराज प्रमाण हैं ।” राजा ने कहा, "आर्य यह असम्भव है, वह हुआ है अतः अत्यन्त विरुद्ध ऐसे कार्य को कैसे करेगा ?" "यज्ञदेव ने कहा, "महाराज ! अज्ञान भूत हुए लोगों के लिए कुछ भी असम्भव नहीं है। कुल का क्या दोष है, क्या सुगन्धित पुष्प हैं । अतः किसी प्रकार उसके घर की तलाशी ली जाय। तब 'यह उचित है' ऐसा सोचकर की तलाशी लेने की आज्ञा दी । नगर-रक्षक राज्याधिकारियों से कहा गया कि नगर के चन्दनव्यापारी के भण्डारी को लेकर चक्रदेव के घर चोरी हुई सम्पत्ति को देखो । तदनन्तर इस असम्भव कार्य से क्या ? अथवा हम लोग राजा की आज्ञा मानने वाले हैं, ऐसा विचारकर नगर के बड़े-बड़े लोगों के साथ चन्दन व्यापारी के भण्डारी को लेकर प्रहर मात्र दिन बीत जाने के बाद मेरे घर नगर-रक्षक राज्याधिकारी आये । उन्होंने मुझसे पूछा, "वणिकपुत्र ! आपके पास इस प्रकार की कोई वस्तु तो नहीं आपने ली हो ।" तब मैंने कुछ भी शंका न कर कहा, "नहीं नहीं।” उन्होंने की आज्ञा है कि हम लोगों को आपके घर की तलाशी लेनी चाहिए।" प्रजा की रक्षा के लिए राजा ने कार्य किया है ।" तब नगर के बड़े बड़े है जो वणिकपति होने के कारण कहा, "आप कुपित मत हों । यह राजा मैंने कहा, "यह कोप का अवसर नहीं है । लोगों के साथ राजपुरुष मेरे घर में प्रविष्ट, Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीको भवो] लोइयं च तेहिं नाणापयारं दविणजायं, दिट्टच पयत्तट्ठावियं चंदणनामंकियं हिरण्णवासणं, नीणियं बाहि, दंसियं चंदणभंडारियस्स । अवलोइऊण सटुक्खमिव भणियं च तेण-अणुहरइ ताव एयं, न उण निस्संसयं वियाणामि त्ति । कारणिएहि' भणियं-वाएहि ताव अवहरियनिवेयणापत्तगं, कि तत्थ इमं ईइसं अभिलिहियं न व त्ति । वाइयं पत्तगं, दिट्ठमभिलिहियं सज्झसीभूया नायरकारणिया। भणियं च तेहि-सत्यवाहपुत्त ! कुओ तुह इमं ? तओ मए वि चितियं-कहं सम्भावठावियं मित्तनासं पयासेमि । मा नाम तेणावि कहि चि एसो एवं हेव समासाइओ भवे। ता कहं नियपाणबहुमाणओ मित्तपाणे परिच्चयामित्ति चितिऊण भणियं मए- 'नियगं चेव एयं' ति । तेहिं भणियंकहं चंदणनामंकियं ? मए भणियं-- न याणामो, कहिंचि वासणपरावत्तो भविस्सइ । तेहि भणियंकिसंखियं किं वा हिरण्णजायमेथं ति ? मए भणियं-न सुठ्ठ सुमरामि, सईचेव जोएह । कारणिएहि भणियं-वाएह पत्तगं, किदविणजुत्तं किंसंखियं वा तं चंदणसत्थवाहवासणं ति । वाइयं पत्तगं जाव बीणारदविणजुत्तं दससहस्ससंखियं च । तओ छोडावियमणेहि मिलिओ पत्तगत्थो। प्रयत्नस्थापितं चन्दननामाङ्कितं हिरण्यभाजनम्, नीतं वहिः, दर्शितं चन्दनभाण्डागारिणः । अवलोक्य सदुःखमिव भणितं तेन-अनुहरति तावदेतत् न पुननिःसंशयं विजानामीति । कारणिकैर्भणितमवाचय तावदपहृतनिवेदनापत्रकम्, किं तत्र इदमीदशमभिलिखितं न वेति । वाचितं पत्रकम्, दृष्टमभिलिखितम् । साध्वसीभूता नागरकारणिकाः । भणितं च तैः-सार्थवाहपुत्र ! कुतः तवेदम्। ततो मयाsपि चिन्तितम्-कथं सद्भावस्थापितं मित्रन्यासं प्रकाशयामि । मा नाम तेनापि कथंचिद् एष एवमेव समासादितो भवेत् । ततः 'कथं निजप्राणबहमानतो मित्रप्राणान परित्यजामि' इति चिन्तयित्वा भणितं मया-'निजकमेवैतद्' इति । तैर्भणितम्-कथं चन्दननामाङ्कितम् ? मया भणितम्-न जानीमः, कथंचिद् भाजनपरावर्तो भविष्यति । तैर्भणितम्-किसंख्यं किं वा हिरण्यजातमत्र इति ? मया भणितम्-न सुष्ठु स्मरामि, स्वयमेव पश्यत। कारणिकभणितमवाचय पत्रकम, किं द्रविणयुक्तं किसंख्यं वा तत् चन्दनसार्थवाहभाजनम् इति ? । वाचितं पत्रं यावद् दीनारदविणयुक्तं दशसहस्रसंख्यं च। ततो मोचितं तैः, मिलितः पत्रकार्थः । विस्मिता नागर हुए । उन्होंने अनेक प्रकार के धन को देखा; चन्दन नाम लिखे हुए सोने के बर्तन को प्रयत्नपूर्वक रखा हुआ देखा। वे उसे बाहर लाये और चन्दन व्यापारी के भण्डारी को दिखाया । उसने मानो दुःखी होते हुए कहा, "यह उसके समान है, किन्तु मैं निस्सन्देह रूप से नहीं जानता है।" नगररक्षक राज्याधिकारियों ने कहा, "चोरी के विषय में दिये गये निवेदन-पत्र को पढ़ो, उसमें इसप्रकार का लिखा है अथवा नहीं ?" पत्र को पढ़ा गया। अभिलेख को देखा गया। नगरपुरुष और जांच करने वाले अधिकारी घबरा गये । उन्होंने कहा, “वणिकपुत्र ! ये आपने कहाँ से पाये ?" तब मैंने भी विचार किया कि सद्भावपूर्वक रखे गये मित्र की धरोहर को कस प्रकट करूं। कदाचित् उसने इसी प्रकार (धरोहर के रूप में) प्राप्त न किया हो, अत: अपने प्राणों को मूल्यवान मानकर कैसे मित्र के प्राणों को त्यागू-"ऐसा विचारकर मैंने कहा, "यह अपना ही है।" उन्होंने कहा, "चन्दन नाम कैसे पड़ा है" मैंन कहा, "नहीं जानता हूँ। हो सकता है बर्तन किसी प्रकार बदल गया हो।" उन्होंने कहा, “सोने की कितनी वस्तुएँ यहाँ हैं ?" मैंने कहा, "मुझे भलीभाँति स्मरण नहीं है, स्वयं ही देख लो।" नगररक्षक राज्याधिकारियों ने कहा, "पत्र पढ़ो, चन्दनव्यापारी का पात्र कितने धन से युक्त है।" पत्र बाँचा गया-दश हज़ार दीनारें उसमें लिखी हुई थीं। तब बर्तन को कब्जे में लिया गया। पत्र में लिखी बातें मिल गयीं। नगरवासी और जांच अधिकारी १, कारिणिहिं-च। २. मएण विय तणावि कहंचि-कहिवि-च। ३. सयं-ख। ४. छोडावियमणेहिं वासणं-च । | Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ [समराहच्या विम्हिया नागरकारणिया । परिचिंतियं च तेहिं । कहं अप्पडिहयचक्कसत्थवाहपुत्ते चक्कदेवे एवं भविस्सइ ति ?। पुणो वि पुच्छिओ-सत्यवाहपुत्त ! नरिंदसासणमिणं; ता कहेहि फुडत्थं, 'कुओ तुह इम'ति । तओ मए तं चेवाणुचितिऊण तं चेव स्टुिति। तेहिं चिय 'धिरत्थ देव्यस्स' त्ति भणिऊण मंतियं । अन्न पि ते न किंचि परसंतियं गेहे चिट्ठइ?। मए भणियं- न किंचि । तओ तेहि पत्तगं वाइऊण सविसेसमवलोइयं मे गेहं, दिट्ठच जहावाइयं निरवसेसमेव रित्थं । एत्यंतरम्मि य कुविया ममोवरि आरक्खिगा' । नीओ तेहिं नरवइसमीवं । साहिओ वृत्तंतो चंडसासणस्स । भाणओ म्हि राइणा । सत्थवाहपुत्त ! विन्नाउभयलोयमग्गो तुमं, ता न तुह एयमेरिसमसाहुचरियमसंभावणिज्जं संभावमि ति। ता कहेहि ताव, को एत्थ परमत्थो त्ति ? तओ मए तं चेव चितिऊण बाहजलभरियलोयणेणं न किंपि जंपियं नरवइपुरओ त्ति । तओ राइणा समुप्पन्नासंकेणावि तायबहुमाणओ असरिसं वयणमभासिऊण कयत्थणं चाकाऊण निविसओ समाणत्तो म्हि, नीणिओ य रायपुरिसेहि नयराओ, मुक्को य नयरदेवयावणसमोवे । पडिनियत्ता रायपुरिसा। समुप्पन्ना य मे चिंता-किमे कारणिकाः। परिचिन्तितं च तैः । कथमप्रतिहतचक्रसार्थवाहपुत्रे चक्रदेवे एवं भविष्यति इति । पुनरपि पष्ट:-सार्थवाहपुत्र ! नरेन्द्रशासनमिदम्, ततः कथय स्पष्टार्थम् 'कुतः तवैतद्' इति । ततो मया तदेवानुचिन्त्य तदेव शिष्टमिति । तैरेव 'धिगस्तु देवस्य' इति भणित्वा मन्त्रितम् । अन्यदपि ते न किञ्चित्परसत्कं गेहे तिष्ठति ? । मया भणितम् - न किञ्चित् । ततस्तै; पत्रकं वाचयित्वा सविशेषमवलोकितं मे गेहम , दृष्टं च यथावाचितं निरवशेषमेव रिक्थम् । अत्रान्तरे च कुपिता ममोपरि आरक्षकाः । नीतस्तैनरपतिसमीपम् । कथितो वृत्तान्तश्चण्डशासनस्य। भणितोऽस्मि राज्ञा । सार्थवाहपुत्र ! विज्ञातोभयलोकमार्गस्त्वम्, ततो न तवैतदीदशमसाधुचरितमसम्भावनीयं सम्भावयामोति । ततः कथय तावत्कोऽत्र परमार्थ इति । ततो मया तदेव चिन्तयित्वा वाष्पजलभृतलोचनेन न किमपि कथितं नरपतिपुरत इति । ततो राज्ञा समुत्पन्नाशकेनापि तातबहुमानतोऽसदृशं वचनमभाषित्वा कदर्थनां चाऽकृत्वा निर्विषयः समाज्ञप्तोऽस्मि, नीतश्च राजपुरुषैर्नगरात, मुक्तश्च नगर. देवतावनसमीपे । प्रतिनिवृत्ता राजपुरुषाः । समुत्पन्ना च मे चिन्ता-किमेतावन्मात्रपरिभव आश्चर्यचकित हुए। उन्होंने विचार किया-अप्रतिहतचक्र वणिकपुत्र चक्रदेव से यह कैसे हो सकता है ? पुनः पूछा, "वणिक्पुत्र ! यह राजा की आज्ञा है अतः सही-सही बात कहो । यह कहाँ से प्राप्त हुआ ?" तब मैंने वही सोचकर वही कहा । उन्होंने 'भाग्य को धिक्कार हो' ऐसा कहकर विचार किया। उन्होंने पूछा, "तुम्हारे घर में और भी दूसरे का धन है ?" मैंने कहा, "कुछ भी नहीं है।" तब उन्होंने पत्र को बाँचकर मेरे घर की विशेष रूप से तलाशी ली। जैसा उन्होंने बांचा था उसी प्रकार सम्पूर्ण धन को देखा । इसी बीच मेरे ऊपर नगररक्षक राज्याधिकारी कुपित हुए । वे मुझे राजा के पास ले गये। चण्डशासन से सभी वृत्तान्त कहा। राजा ने कहा, "वणिकपुत्र ! तुम इस लोक और परलोक दोनों के मार्ग के ज्ञाता हो। अत: तुम जैसे अच्छे चरित्र वाले से इस असम्भव बात की सम्भावना नहीं करता हूँ । अतः सही बात कहो।" तब मैंने वही सोचकर राजा के सामने आँखों में आंसू भरकर कुछ भी नहीं कहा। तब राजा ने आशंकित होकर भी पिता को बहुत मानने के कारण अयोग्य वचनों को न कहकर तथा अपमान भी न कर घर से निकालने की आज्ञा दे दी। राजपुरुष मूझे ले गये और नगरदेवी के वन के समीप छोड़ आये। राजपुरुष लौट आये। मैंने विचार किया-इस प्रकार अपमान के पात्र हुए भी मेरा आज जीना १. आरक्खखना-च। Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीजो भयो ] दहमेत्तपरिभवभायणेणं अज्ज वि जीविएणं । ता एयम्मि नयरदेवयावणसमासन्ने नग्गोहपायवे उक्कलंवेमि अप्पाणं ति । चितिऊण पट्टो नग्गोहसमीवं । एत्यंतरम्मि य कर्हिचि आभोइऊण इमं वयर मोहिणा समुन्ना' ममोवार नयरदेवयाए अणुकंपा | आवेसिऊण रायजर्णाण साहियं जहट्टि - यमेव एवं तीए राइणो । भणिओ य राया- इमाए मइलणाए अमुगम्मि नयरुज्जाणासन्ने नग्गोहपायवे उब्बंधणेण अत्ताणयं परिच्चइउं ववसिओ चक्कदेवो । ता लहुं निवारेहि, तं सम्माणिऊण य पवेसेहि नयरं ति । तओ कोहनेहा उलयाए संकिष्णं रसमणुहवंतो राया 'अरे गेण्हह दुरायारं जन्मदेवं' ति आइसिऊण पहाणवाख्यारूढो समं अहासन्निहियपरियणेणं तुरियतुरियं निग्गओ नयराओ, पत्तोय नरुज्जाणं । दिट्ठो य अहं राइणा नग्गोहपायव साहागओ उत्तरीयनिबद्धपासम्म ढोइयाए सिरोहराए अत्ताणयं पवाहिकामो त्ति । तओ सो दूरओ चेव संभमाइसय निव्वडियसारं 'भो चक्कदेव ! मा साहसं मा साहस' ति भणमानो सिग्घयरतज्जियाए वाख्याए समल्लीणो पायवसमीवं । सयमेव अवणीओ पासओ, गेव्हिऊण य करम्मि ठाविओ अहं तेण बारूयापट्टियाए । भणिओ य भाजनेन अद्यापि जीवितेन । तत एतस्मिन्नगरदेवतावनसमासन्ने न्यग्रोधपादपे उल्लम्बयामि आत्मानमिति चिन्तयित्वा प्रवृत्तो न्यग्रोधसमीपम् । अत्रान्तरे च कथंचिदाभोग्येयं व्यतिकरमवधिना समुत्पन्ना ममोपरि नगरदेवताया अनुकम्पा । आवेश्य राजजननीं कथितं यथास्थितमेव एवं तथा राज्ञः । भणितश्च राजा - अनया मलीनतया अमुकस्मिन् नगरोद्यानासन्ने न्यग्रोधपादपे उद्बन्धनेनात्मानं परित्यक्तुं व्यवसितश्चक्रदेवः । ततो लघुनिवारय, तं सन्मान्य च प्रवेशय नगरमिति । ततः क्रोधस्नेहाकुलतया संकीर्णं रसमनुभवन् राजा 'अरे गृह्णीत दुराचारं यज्ञदेवं' इत्यादिश्य प्रधान हस्तिन्यारूढः समं यथासन्निहितपरिजनेन त्वरितत्वरितं निर्गतो नगरात् प्राप्तश्च नगरोद्यानम् । दृष्टश्चाहं राज्ञा न्यग्रोधपादपशाखागत उत्तरीय निबद्धपाशे ढौकितया शिरोधरया आत्मानं प्रबाधितुकाम इति । ततः स दूरत एव सम्भ्रमातिशयनिर्वर्तिसारं 'भोश्चक्रदेव ! मा साहसं मा साहसम्' इति भणन् शीघ्रतरतजितया हस्तिन्या समालीनः पादपसमीपम् । स्वयमेवापनीतः पाशकः, गृहीत्वा च करे स्थापितोऽहं हस्तिनीपृष्ठे । भणितश्च सबहुमानम् - भोः सार्थवाहपुत्र ! युक्तं नाम भवतो ११५ निरर्थक है | अतः इसी नगरदेवी के वन के समीप वटवृक्ष पर अपने को लटकाता हूँ। ऐसा सोचकर वटवृक्ष के समीप आया। इसी बीच अवधिज्ञान से यह सारी घटना विस्तारपूर्वक जानकर नगरदेवी को मुझ पर दया आयी । राजमाता में आविष्ट होकर उन्होंने राजा को यथास्थिति से परिचित कराया। राजा से इस देवी ने यह भी कहा कि खिन्नता के कारण इसी नगर के उद्यान के पास के वटवृक्ष पर अपनी फाँसी लगाने का चक्रदेव ने निश्चय किया है । अतः शीघ्र ही बचाओ और उसे सम्मान सहित नगर में प्रवेश कराओ । तब क्रोध और स्नेह से व्याप्त होकर परस्पर मिले हुए रस का अनुभव करते हुए राजा ने 'अरे ! दुराचारी यज्ञदेव को पकड़ो' ऐसी आज्ञा देकर प्रधान हथिनी पर सवार हो समीपवर्ती लोगों के साथ शीघ्रातिशीघ्र नगर से निकला और नगर के उद्यान में गया । राजा ने मुझे वटवृक्ष की शाखा से दुपट्टे को बांधकर अपनी गर्दन को बाँधने की इच्छा वाला देखा । तब वह दूर से ही घबड़ाकर 'हे चक्रदेव ! दुःसाहस मत करो, दुःसाहस मत करो' कहते हुए शीघ्र ही हथिनी से उतरकर वृक्ष के समीप आया। स्वयं ही फन्दे को दूर किया और हाथ पकड़कर हथिनी की पीठ पर बैठाया । सम्मानपूर्वक कहा, "हे सार्थवाहपुत्र ! मेरे भी प्रश्न का वास्तविक उत्तर न देना क्या आपके लिए उचित १. समुप्पण्णा । Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ [ समराइच्चकहा स बहुमाणं -- भो सत्थवाहपुत्त ! जुत्तं नाम भवओ मए वि पुच्छियस्स सम्भावासाहणं ? तओ भए चितियं - हन्त किमेयं ति, पयामियं भविस्सइ केणइ मित्तगुज्झं । एत्थंतरम्मि य भणियं राइणाभो सत्थवाहपुत्त ! साहिओ मम एस वइयरो अम्बं पविसिऊण भयवईए नयरदेवयाए, जहा निद्दोसो तुमं, दोसयारी य एत्थ दुरायारो जन्नदेवो । ता खमियन्वं तुमए, जं मए अमुणियपरमत्थेणं कयथिओसिति । तओ मए 'हन्त संपत्तो वसणं जन्नदेवो' त्ति चितिऊण भणिओ राया-देव ! रायधम्मोऽयं, पयापरिरक्खणसमुज्जयस्स नत्थि दोसो देवस्स । जन्नदेवमूलसुद्धि पि गवेसेउ देवो, न तस्मि महाणुभावे अणायरणं संभावीयइ । राइणा भणियं-गविट्ठा मूलसुद्धी, साहियं भयवईए'सव्वमिगं तेण पावेण ववसियं' ति । साहियं देवयाकहियं राइणा । ठियं च मे चित्ते तुह दोसपयासणेणं ति भणिऊण साहिओ जन्नदेवकहियवृत्तंतो । तओ मए चितियं-हंत किमेयं असंभावणिज्जं । एत्थंतरम्मिय आणिओ रायपुरिसेहिं बंधेऊण जन्नदेवो, निवेइओ राइणो । भणियं च तेण - अरे एयस्स जिन्भं छिंदिऊण उप्पाडेह लोवणाई । विसण्णो जन्नदेवो । तओ मए चरणेसु निर्वाडिउण मयाऽपि पृष्टस्य सद्भावाऽकथनम् ? ततो मया चिन्तितम् - हन्त किमेतदिति प्रकाशितं भविष्यति केनचिद् मित्रगुह्यम् । अत्रान्तरे च भणितं राज्ञा - भोः सार्थवाहपुत्र ! कथितो मम एष व्यतिकरो - Sम्बां प्रविश्य भगवत्या नगरदेवतया, यथा निर्दोषस्त्वम्, दोषकारी च अत्र दुराचारो यज्ञदेवः । ततः क्षमितव्यं त्वया, यन्मया अज्ञातपरमार्थेन कदर्थितोऽसीति । ततो मया 'हन्त सम्प्राप्तो व्यसनं यज्ञदेवः' इति चिन्तयित्वा भणितो राजा - देव ! राजधर्मोऽयम्, प्रजापरिरक्षणसमुद्यतस्य नास्ति दोषो देवस्य । यज्ञदेवमूलशुद्धिमपि गवेषयतु देवः, न तस्मिन् महानुभावे अनाचरणं सम्भाव्यते । राज्ञा भणितम् - गवेषिता मूलशुद्धिः कथितं भगवत्या - सर्वमिदं तेन पापेन व्यवसितम्' इति । कथितं देवताकथितं राज्ञा । स्थितं च मे चित्ते तव दोषप्रकाशनेन इति भणित्वा कथितो यज्ञदेवकथितवृत्तान्तः । ततो मया चिन्तितम् - हन्त किमेतदसम्भावनीयम् । अत्रान्तरे चानीतो राजपुरुषवा यज्ञदेव, निवेदितश्च राज्ञः । भणितं च तेन - अरे एतस्य जिह्वां छित्वा उत्पाटयत लोचने । विषण्णो यज्ञदेवः । ततो मया चरणयोर्निपत्य विज्ञप्तो राजा - देव ! ममैषोऽपराधः क्षम्यताम्, , यह सोचकर राजा से । यज्ञदेव के मूल कारण था ?" तब मैंने सोचा, 'हाय यह क्या ? किसी ने मित्र की गोपनीय बात को प्रकट कर दिया !' इसी बीच राजा ने कहा, 'हे वणिक्पुत्र ! नगर की देवी ने प्रवेश कर माता द्वारा इस घटना के विषय में कहा, जिससे मुझे ज्ञात हुआ कि तुम निर्दोष हो और यज्ञदेव दुराचारी है । अतः वास्तविकता को न जानकर जो मैंने तुम्हारा अपमान किया उसे क्षमा करो।" तब मैंने 'हाय यज्ञदेव आपत्ति में पड़ गया कहा, 'महाराज ! यह राजधर्म है, प्रजा की रक्षा में उद्यत राजा का (कोई) दोष नहीं है की भी विशद खोज कर लें, उस महानुभाव के द्वारा अनाचार किये जाने की सम्भावना नहीं है ।" राजा ने कहा, "मूल कारण की विशद खोज कर ली है। भगवती ने कहा है सब कुछ उस पापी ने निश्चित किया ।" राजा ने देवी द्वारा कही गयी बात बतायी। मेरे चित में था कि तुम्हारे दोषों के प्रकाशन के लिए यज्ञदेव ने यह सब किया है" – ऐसा कहकर यज्ञदेव द्वारा कहे गये वृत्तान्त को कहा। तब मैंने विचार किया - 'हाय ! यह क्या असम्भव बात है ?' इसी बीच राजपुरुष बाँधकर यज्ञदेव को लाये और राजा से निवेदन किया । उसने कहा, "अरे इसकी जीभ छेदकर दोनों नेत्र उखाड़ लो ।” यज्ञदेव दुःखी हुआ । तब मैंने चरणों में पड़कर राजा से Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोलो भयो] विन्नत्तो राया - देव ! मम एस अवराहो खमीयउ, मुच्चउ जन्नदेवो। राइणा भणियं-सत्यवाहपुत्त ! न जुत्तमेयं, दुरायारो ख एसो, ता अन्नं विन्नवेहि त्ति । मए भणियं-देव ! अलमन्तणं ति, जइ ममोवरि बहुमाणो देवस्स, ता इमं चेव संपाडेउ देवो। राइणा भणियं-अलंघणीयवयणो तुम ति, तुमं चेव जा गासि । तओ मए 'देवपसाओ' त्ति भणिऊण निवडिओ(अ) चलणेसु मोयाविओ जानदेवो, पेसिओ य अहं राइणा निययभवणं तओ सम्माणिऊण महया विभूईए गओ सभवणं ति । जाओ ष लोयवाओ, अहो ! जन्नदेवस्स जहन्नत्तं। समुप्पन्नो य मे निव्वेओ। पेच्छ, ईइसाणं पि मित्ताणं ईइसो परिणामो ति । अहो ! असारया संसारस्स, विचित्तया कम्मपरिणईए, दुल्लक्खाणि पाणिचित्ताणि । ता न याणामो किमेत्थ जुत्तं ति। एत्थंतरम्मि य समागओ तत्थ सुगिहियनामो अग्गिभूई नाम गणहरो। ठिओ य नयरुज्जाणे दिट्ठो म ए बाहिरियागएणं । जाओ य मे तं पइ बहुमाणो, पणमिओय सो मए, धम्मलाभिओ य तेणं उवविट्ठो तस्स पायमूले । पुच्छिमो भयवं सव्वदुक्खविउडणसमत्थं धम्मं । साहिओ भगवया मुच्यतां यज्ञदेवः। राज्ञा भणितम् -सार्थवाहपुत्र! न युक्तमेतद्, दुराचार: खल्वेषः, ततोऽन्यद् विज्ञापयेति । मया भणितम् -देव ! अलमन्येनेति, यदि ममोपरि बहुमानो देवस्य, तत इदमेव सम्पादयत देवः। राज्ञा भणितम-अलसनीयवचनस्त्वमिति, त्वमेव जानासि । ततो मया 'देवप्रसादः' इति भणित्वा, निपत्य चरणयोः, मोचितो यज्ञदेवः, प्रेषितश्चाहं राज्ञा निजभवनं, ततः सन्मान्य महत्या विभूत्या गत स्वभवनमिति । जातश्च लोकवादः, अहो यज्ञदेवस्य जघन्यत्वम् । समुत्पन्नश्च मे निर्वेदः । पश्य, ईदृशानामपि मित्राणामीदृशः परिणाम इति । अहो ! असारता संसारस्य, विचित्रता कर्मपरिणत्याः, दुर्लक्ष्याणि प्राणिचित्तानि । ततो न जानीमः किमत्र युक्तमिति । ___अत्रान्तरे च समागतस्तत्र सुगृहीतनामा अग्निभूतिर्नाम गणधरः । स्थितश्च नगरोद्याने। दृष्टश्च मया बहिरागतेन । जातश्च मे तं प्रति बहुमानः, प्रणतश्च स मया, धर्मलाभितश्च तेन, उपविष्टस्तस्य पादमूले । पृष्टो भगवान् सर्वदुःखविकुटनसमर्थं धर्मम् । कथितो भगवता क्षमादिकः निवेदन किया, “महाराज ! मेरे इस अपराध को क्षमा करें, यज्ञदेव को छोड़ दें।" राजा ने कहा, "वणिकपुत्र ! यह उचित नहीं है, यह दुराचारी है अतः कोई दूसरा निवेदन करो।" मैंने कहा, "इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं। यदि महाराज मुझे बहुत मानते हों तो महाराज यही करें।" राजा ने कहा, "आपके कथन का उल्लंघन नहीं किया जा सकता अतः तुम्हीं जानो।" तब मैंने 'महाराज ने कृपा की' ऐसा कहकर दोनों चरणों में गिरकर यज्ञदेव को छुड़ा लिया। राजा मुझे ससम्मान बहुत बड़ी विभूति के साथ अपने घर भेजकर, अपने भवन चला गया। लोगों में चर्चा फैल गयी, ओह ! (इस) यज्ञदेव की नीचता (देखो) ! मुझे विरक्ति हो गयी-देखो ऐसे मित्रों का भी ऐसा परिणाम होता है। ओह ! संसार की असारता, कर्मों के फल की विचित्रता तथा प्राणियों के चित्त के खोटे लक्ष्य आश्चर्यजनक हैं । अतः नहीं जानता हूँ, यहाँ क्या युक्त है ? . इसी बीच वहाँ पर सुगृहीत नाम वाले अग्निभूति नाम के गणधर आये। नगर के उद्यान में ठहर गये । मैंने बाहर से आते हए देखा। मेरे मन में उनके प्रति सम्मान पैदा हआ। उनको मैंने प्रणाम किया। उन्होंने मुझे धर्मलाभ दिया। मैं उनके पादमूल में बैठ गया। भगवान से मैंने समस्त दु.खों को नष्ट करने में समर्थ धर्म Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११५ [समराज्यकहा खमाइगो साहुधम्मो। तं च सुणमाणस्स समुप्पन्ना देसविरइपरिणई, पवड्ढमाणसंवेगस्स जाओ भवविरागो। चितियं च मए-अलं संसारपवड्ढणामेत्तफलेणं इमिणा परिकिलेसेणं, पवज्जामो पव्वज्जं ति। . एत्थंतरम्मि य गलिओ कम्मसंघाओ, पयलिया बंधणदिई, विहावियं अत्तविरिएणं, समुप्पन्ना सव्वविरइपरिणइ त्ति । कहावसाणे य विन्नत्तो मए भयवं गुरू । अणुग्गिहीओ अहं भयवया, विरत्तं च मे चित्तं भवपवंचाओ, ता आइसउ भयवं कि मए कायव्वं ति। तओ तेण सुय(या)सयनाणिणा मम भावं वियाणिऊण भणियं-जुज्जइ भवओ महापुरिससेवियं समगत्तणं काउं ति । तओ मए तस्स समावम्मि चेव पवग्नं समणत्तणं, परिवालियं च विहिणा । तओ अहाउयं पालिऊण कालमासे कालं किच्चा देहं चइऊण नवसागरोवमाऊ वेमाणियत्ताए उववन्नो म्हि बम्भलोए, इयरो वि य जन्नदेवो तिसागरोवमठिई सक्करप्पभाए नारगो त्ति । तओं अहमहाउयं पालिऊण देवलोगानो चुओ समागो इहेव विदेहे गंधिलावईविजए रयणपुरे नयरे रयणसागरस्स सत्थवाहस्से सिरिमईए साधुधर्मः। तं च शृण्वतः समुत्पन्ना देशविरतिपरिणतिः, प्रवर्धमानसंवेगस्य जातो भवविरागः । चिन्तितं च मया--अलं संसारप्रवर्धनामात्रफलेन अनेन परिक्लेशन, प्रपद्यामहे प्रव्रज्यामिति । अत्रान्तरे च गलितः कर्मसंघातः, प्रचलिता बन्धनस्थितिः, विभावितमात्मवीर्येण, समुत्पन्ना सर्वविरतिपरिणतिरिति । कथाऽवसाने च विज्ञप्तो मया भगवान् गुरुः । अनुगृहोतोऽहं भगवता, विरक्तं च मे चित्तं भवप्रपञ्चात्, तत आदिशतु भगवान् किं मया कर्तव्यमिति । ततस्तेन श्रुताशयज्ञानिना मम भावं विज्ञाय भणितम्-युज्यते भवतो महापुरुषसेवितं श्रमणत्वं कर्तुमिति । ततो मया तस्य समीपे एव प्रपन्नं श्रमणत्वम्, परिपालितं च विधिना। ततो यथाऽऽयुष्कं पालयित्वा कालमासे कालं कृत्वा देहं त्यक्त्वा नवसागरोपमायुर्वैमानिकतयोपपन्नोऽस्मि ब्रह्मलोके, इतरोऽपि च यज्ञदेवो त्रिसागरोपमस्थितिः शर्कराप्रभायां नारक इति। ततोऽहं यथाऽऽयुः पालयित्वा देवलोकात् च्युतः सन् इहैव विदेहे गन्धिलावतो विजये रत्नपुरे नगरे रत्नसागरस्य सार्थवाहस्य श्रीमत्या पूछा। भगवान् ने साधुओं का क्षमादिक धर्म कहा। उसे सुनकर (मेरे मन में) देशविरति रूप परिणाम उत्पन्न हुए। मेरा धर्मार नुराग बढ़ता गया और मुझे संसार से विराग हो गया। मैंने सोचा-संसार का बढ़ना ही जिसका फल है, ऐसा यह क्लेश व्यर्थ है । मैं दीक्षा धारण करता हूँ। इसी बीच कर्मों का समूह गलने लगा, बन्धन की स्थिति ढीली हो गयी। आत्मा पुरुषार्थ से चमकने लगा और सर्वविरतिरूप परिणाम उत्पन्न हुआ। प्रवचन के अन्त में मैंने गुरु भगवान् से निवेदन किया, "मैं भगवान् से अनुगृहीत हुआ हूँ। मेरा चित्त संसार रूपी प्रपंच से विरक्त हो गया है। अतः भगवान् मुझे आदेश दें, मैं क्या करूं ?" तब श्रुतज्ञान के अतिशय से मेरे भावों को जानने वाले उन्होंने कहा, "आप महापुरुषों द्वारा सेवित श्रमणदीक्षा धारण करने योग्य हैं।" तब मैं उनके समीप ही श्रमण हो गया और विधिपूर्वक उसका पालन किया। तब आयुकर्म के अनुसार आयु भोगकर समय व्यतीत होने पर मृत्यु प्राप्त कर, शरीर त्याग कर नौ सागर आयु वाले ब्रह्मलोक में वैमानिक देव हुआ। दूसरा यज्ञदेव भी तीन सागर स्थिति वाले शर्कराप्रभा नरक में नारकी हुआ। इसके बाद मैं आयु पूर्ण कर स्वर्गलोक से च्युत होकर इसी विदेहक्षेत्र में गन्धिलावती देश के रत्नपुर नामक नगर में रत्नसागर सेठ की श्रीमती नाम की पत्नी के गर्भ में पुत्र के रूप में आया । Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीको भयो ] भारियाए कुच्छिसि पुत्तत्ताए उववन्नोति । इयरो विय तओ नरगाओ उच्चट्टिऊण आहेडगसुणश्रो भबिय मरिऊण तिसागरोवमाऊ तत्थेव उववज्जिऊण तओ य उच्वट्टो नाणातिरिएस आहिडिऊण तत्थेव रयणपुरे तायघरदासीए नम्मयः भिहाणाए सुयत्ताए उववन्नोति । उचियसमयम्मि जाया अम्हे, पत्ता बालभावं । पइट्टावियाई नामाई, मज्झ चंदसारो, इयरस्स अणहगोति । पत्ता य जोन्वणं । कओ मए दारसंगहो । एवं च विसयासत्ता चिट्ठामो । पुव्वभवन्भासओ य न इमस्स ममोवरि वंचणापरिणामो अवेइ । अन्नया य आगो तत्थ मासकष्पबिहारी भयवं विजयबद्धणार्यार पवन्नो य मए इमस्स पायमूले सावगधम्मो । अन्नया य तं पुरं दीहदंडजत्तागए नरवइम्मि, गामंतरगए अम्हे विभकेउनामेण सवरसेणावइणा हयविहयं काऊण अवणीओ कोइ लोओ । सुयं च अम्हहिं । समागया तं पुरं । दिट्ठे च मसाणागारमणुर्गारितं, गवेसावियं माणुसं जाव सव्वमेव धरइ, नवरं चन्दकता मे भारिया अवड्ड त्ति । तओ समुष्वन्ना मे अरई, जाया य चिंता - हा ! कहं सा तबस्सणी ममादिविओगा पाणे धारिस्सइ त्ति । एत्थंतरम्मि य भणिओ देवसम्माभिहाणेणं वुड्ढ । भार्यायाः कुक्षौ पुत्रत्वेनोपपन्न इति । इतरोऽपि च ततो नारकादुद्वृत्त्य आखेटकशुनको भूत्वा मृत्वा त्रिसागरोपमा युस्तत्रैवोपपद्य ततश्चोद्वृत्तो नानातिर्यक्षु आहिण्ड्य तत्रैव रत्नपुरे तातगृहदास्यां नर्मदाऽभिधानायां सुतत्वेनोपपन्न इति । उचितसमये जातौ च आवाम्, प्राप्तौ च बालभावम् । प्रतिष्ठापिते नामनी, मम चन्दसार:, इतरस्य अणहक (अनधक) इति । प्राप्तौ च यौवनम् । कृतो मया दारसंग्रहः एवं च विषयासक्तौ तिष्ठावः । पूर्वभवाभ्यासतश्च नास्य ममोपरि वञ्चनापरि णामोऽपैति । अन्यदा च आगतस्तत्र मासकल्पविहारी भगवान् विजयवर्द्धनाचार्य: । प्रपन्नश्च मया अस्य पादमूले श्राववधर्मः । अन्यदा च तत्पुरं दीर्घदण्डयात्रागते नरपतौ, ग्रामान्तरगतेषु अस्मासु विन्ध्यकेतुनाम्ना शबरसेनापतिना हतविहतं कृत्वाऽपनीतः कोऽपि लोकः । श्रुतं चास्माभिः । समागता तत् पुरम् दृष्टं च श्मशानाकारमनुकुर्वत्, गवेषितं मानुषं यावत्सर्वमेव धरति, नवरं चन्द्रमे भार्या अपहृतेति । ततः समुत्पन्ना मेऽरतिः, जाता च चिन्ता हा ! कथं सा तपस्विनी ममादृष्टवियोगा प्राणान् धारयिष्यतीति । अत्रान्तरे च भणितो देवशर्माभिधानेन वृद्धब्राह्मणेन - सार्थ , ११६ दूसरा भी नरक से निकलकर शिकारी का कुत्ता होकर पुनः मरकर तीन सागर की आयु वाले उसी नरक में उत्पन्न हुआ। वहाँ से निकलकर तियंच योनियों में भ्रमणकर उसी रत्नपुर नगर में पिताजी की गृहदासी, जिसका नाम नर्मदा था, के पुत्र रूप में आया । उचित समय पर हम दोनों उत्पन्न हुए, बाल्यावस्था को प्राप्त हुए। दोनों का नामकरण हुआ - मेरा 'चन्दनसार' और दूसरे का 'अनधक' । दोनों यौवनावस्था को प्राप्त हुए । मैंने विवाह किया । इस प्रकार विषयासक्ति में रहे । पूर्वभव के अभ्यासवश मेरे प्रति छलकपट करने का ( इसका ) भाव दूर नहीं हुआ था । एक बार वहाँ एक माह विहार करने का नियम रखने वाले भगवान् विजयवर्द्धन नाम के आचार्य आये। मैंने इनके पादमूल में श्रावकधर्म ग्रहण किया। एक बार जब यात्रा (दीर्घकालीन विजययात्रा) पर गया हुआ था और हम लोग दूसरे गाँव शबरों के सेनापति ने क्षत-विक्षत कर कुछ आदमियों का अपहरण कर लिया। में आये और श्मशान के आकार का अनुसरण करने वाले उस नगर को देखा सभी थे, केवल मेरी पत्नी चन्द्रकान्ता का अपहरण किया गया था । तब मुझे अरति ! कैसे वह बेचारी मेरे अदृष्ट वियोग के कारण प्राण धारण करेगी । इसी । हाय उस नगर का राजा दीर्घदण्ड गये हुए थे तब विन्ध्यकेतु नामक हम लोगों ने सुना । उस नगर मनुष्यों की खोज की गयी । और चिन्ता उत्पन्न हुईबीच देवशर्मा नामक Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० [ समराइच्चकहा माहणेणं-सत्थवाहपुत्त ! मा संतप्प । पुणो वि एयम्मि चेव विसए सिरित्थलाभिहाणाओ सन्निवेसाओ एवं चेव सवरेहिं अवणीओ जणो आसि। सो निरवसेसो अखंडियचरित्तसव्वस्सो महया दविणजाएण मुक्को त्ति । तओ अहं एयवायण्णिऊण अइक्कतेसु कइवयदिणेसु सभूमिमुवगएसु सवरेसु अणहगदुइओ घेतूण सव्वसारं दविणजायं सुसणिद्धसंभियं च पाहेयं पयट्टो चंदकतावि मोक्खणनिमित्तं ति। इयो य तीए मम विओग विहुराए चारित्तखंडणासंकिणीए य कहिंचि सुण्णगामासन्नकूवयडावासियाए सवरवाहिणीए निसाचरमसमयम्मि, पवत्ते य पयाणगकोलाहले पेरंतरक्खणावावडेसु सवरसंघाएसु जी वयनिरवेक्खाए तम्मि चेवं जिण्णकूवम्मि पवाहिओ अप्पा । पडिया य जलमज्झे, न मया य जलप्पभावेणं । तओ तग्गयं चेव पडिकूवगमहिट्ठिऊण चिट्ठिउमारद्धा। किच्छपाणा य जीवियसेसेणं चेव जाव पाणे धारेइ, ताव पत्ता अम्हे तमुद्देसं । अणहगस्स वि य पुत्वभवनिमित्तओ तयत्थसंदरिसणओ य समुप्पन्नो ममोवरि वंचणापरिणामो। चितियं च णेणं--- 'कहमेसो वंचियव्वो' त्ति । तओ सो अणेयवियप्पसमाउलियहियओ अहं च सुद्धसहावो त्ति एवं पंचामो । पाहेयदविणवाहपुत्र ! मा सन्तप्यस्व । पुनरपि एतस्मिन्नेव विषये श्रीस्थलाभिधानात् सन्निवेशात् एवमेव शबरैरपनीतो जन आसीत् , स निरवशेषोऽखण्डितचारित्रसर्वस्वो महता द्रविणजातेन मुक्तं इति। ततोऽहं एतदाकार्ष्यातिक्रान्तेषु कतिपय दिनेषु स्वभूमिमुपगतेषु शबरेषु अणहकद्वितीयो गृहीत्वा सर्वसारं द्रविणजातं सुस्निग्धसम्भृतं च पाथेयं प्रवृत्तश्चन्द्रकान्ताविमोक्षणनिमित्तमिति ।। इतश्च तया मम वियोगविधुरया चारित्रखण्डनाऽऽशङ्किन्या च कथंचित्शन्यग्रामासन्नकपतटावासितायां शबरवाहिन्यां निशाचरमसमये, प्रवृत्ते च प्रयाणककोलाहले पर्यन्तरक्षणाव्यापृतेषु शबरसंघातेषु जोवितनिरपेक्षया तस्मिन्नेव जीर्णकूपे प्रवाहित आत्मा । पतिता च जलमध्ये; न मता च जलप्रभावेण । ततस्तद्गतमेव प्रतिकृपकमधिष्ठाय स्थातुमारब्धा। कृच्छ्रप्राणा च जीवितशेषेणैव यावत्प्राणान् धारयति, तावत्प्राप्तावावां तमुद्देशम् । अणहकस्यापि च पूर्वभवनिमित्ततः तदर्थसन्दर्शनतश्च समुत्पन्नो ममोपरि वञ्चनापरिणामः । चिन्तितं च तेन-'कथमेव वञ्चयितव्यः' इति । ततः सोऽनेकविकल्पसमाकुलितहृदयः, अहं च शुद्धस्वभाव इति एवं ब्रजावः । पाथेयद्रविण वृद्ध ब्राह्मण ने कहा, "वणिक् पुत्र ! दुःखी मत हो। इसी देश के श्रीस्थल नामक सन्निवेश से एक बार और इसी प्रकार शबरों ने मनुष्यों का अपहरण कर लिया था, उन्हें सम्पूर्णतः चरित्र खण्डित किये बिना बहुत-सा धन लेकर छोड़ दिया था।" तब यह सुनकर मैं कुछ दिन बीत जाने पर अपनी भूमि में आये शबरों के पास अनघक को साथ लेकर बहुमूल्य धन और चिकनाई से भरे हुए नाश्ते को लेकर चन्द्रकान्ता को छुड़ाने के लिए गया। इधर उसने मेरे वियोग से पीड़ित होकर चरित्र के खण्डन की आशंका से, जब शबरवाहिनी ने किसी शून्य ग्राम के कुएँ के समीप रात्रि में डेरा डाला और प्रयाण (गमन) का कोलाहल होने पर जब शबरसेना सीमा की रक्षा में लगी हुई थी, तब, उसी जीर्णकूप में जीवन की आशा छोड़कर अपने आपको गिरा दिया। जल के मध्य में गिरी । किन्तु जल के प्रभाव से मरी नहीं। तब उसी कुएँ के अन्दर की खोल में रहने लगी। आयु शेष रह जाने के कारण वह बड़ी कठिनाई से प्राण धारण कर रही थी कि हम दोनों वहाँ पहुँच गये। अनघक के मन में पूर्वभव के निमित्त से और धन के देखने से मुझे ठगने का भाव हुआ। उसने सोचा- इसको कैसे ठगा जाय। उसका हृदय अनेक विकल्पों से आकुलित था और मैं शुद्धस्वभाव था, इस प्रकार हम लोग जा रहे थे। नाश्ता और धन प्रत्येक के हाथ में होता था। एक बार मेरे हाथ में नाश्ता था, . उसके हाथ में धन Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीमो भवो] १२१ जायाणि य पत्तेयं हत्थगोयराणि हवंति। अन्नया य मम हत्थे पाहेयं तस्स दविणजायं ति। एवमणुगच्छमाणा पत्ता तमुद्देसं, जत्थ सा चंदकंता चिट्ठइ । दिट्ठो य सो कूवो । एत्थंसरम्मि य अत्थमिओ सहस्सरस्सी, लुलिया संझा । तओ चितियमणहगेणं- हत्थगयं मे दविणजायं, विजणं च कंतारं, समासन्नो य पायालगंभीरो कवो, पवत्तीय अवराहविवरसमच्छायगो अंधारो। ता एयम्मि एवं पक्खिविऊण नियत्तामो इमस्स थाणस्स त्ति चितिऊण भणियं च तेण-सत्थवाहपुत्त ! धणियं पिवासाभिभूओ म्हि। ता निहालेहि एवं जिण्णकवं "किमेत्थ उदगं अत्थि, नत्थि' त्ति ?' तओ मए गहियपाहेयपोटलेणं चेव निहालिओ कवो। एत्थंतरम्मि य सविसत्थहिययस्स लोयस्स विय मच्च आगओ मम समीवमणगो। सहसा पक्खित्तो तमिम अहमणगेण. पडिओय उदर यसो तओ विभागाओ। अहमवि य ससंभंतो लग्गो पडिकवगेक्कदेसे। परामदाय भय चंदकंता थीसहावओ भयकायरा । भणियं च तीए 'नमो अरिहंताणं'ति । तओ मए पच्चभिन्नाओ सद्दो। ऊससियं मे हियएणं । भणिया य सा 'अभयमभयं जिणसासरयाणं" ति। तीए वि य पंच जातानि च प्रत्येक हस्तगोचराणि भवन्ति । अन्यदा च मम हस्ते पाथेयं तस्य द्रविणजातमिति । एवमनुगच्छन्तौ प्राप्ती तमद्देशम्, यत्र सा चन्द्रकान्ता तिष्ठति । दृष्टश्च स कूपः । अत्रान्तरे च अस्तमितः सहस्ररश्मिः, लुलिता सन्ध्या । ततश्चिन्तितमणहकेन-हस्तगतं मे द्रविणजातम्, विजनं च कान्तारम्, समासन्नश्च पातालगम्भीरः कपः, प्रवृत्तश्चापराधविवरसमाच्छादकोऽन्धकारः। तत एतस्मिन एतं प्रक्षिप्य निवतस्मात्स्थानादिति चिन्तयित्वा भणितं च तेन-सार्थवाहपत्र ! भशं पिपासाऽभिभूतोऽस्मि, ततो निभालय एतं जीर्णकपं 'किमत्र उदकमस्ति, नास्ति' इति ? ततो मया गहीतपाथेयपोट्टलकेनैव निभालितः कपः । अत्रान्तरे च सुविश्वस्तहृदयस्य लोकस्येव मृत्युरागतो मम समीपमणहकः । सहसा प्रक्षिप्तस्तस्मिन्नहमणहकेन, पतितश्चोदकमध्ये । निवत्तश्च स ततो विभागात्। अहमपि च सम्भ्रान्तो लग्नो प्रतिकपकैकदेशे । परामृष्टा च भयविह्वलाङ्गी चन्द्रकान्ता, स्रीस्वभावतो भयकातरा । भणितं च तया 'नमोऽर्हद्भ्यः' इति । तत प्रत्यभिज्ञातः शब्दः, उच्छवसितं मे हृदयेन । भणिता च सा 'अभयमभयं जिनशासनरतानाम्' इति । तयाऽपि च प्रत्यभि था। इस प्रकार जाते हुए उस स्थान पर पहुंचे, जहाँ पर चन्द्रकान्ता बैठी थी। वह कुआँ दिखलाई पड़ा। इसी बीच सूर्य अस्त हो गया । सन्ध्या हो गयी। तब अनधक ने सोचा - 'मेरे हाथ में धन है और वन निर्जन है, समीप में ही पाताल के समान गहरा कुआं है और अपराध रूपी छिद्र को ढाँकने वाला अन्धकार हो गया है अतः इसमें इसे डालकर इस स्थान से निकल जाऊँगा'-ऐसा सोचकर उसने कहा, “वणिक्पुत्र ! मुझे बहुत प्यास लगी है, अतः इस जीर्ण कुएँ में देखिए, पानी है अथवा नहीं ।" तब पोटली में रखे हुए नाश्ते को लेकर ही मैंने कुएँ में देखा। इसी बीच विश्वस्त हृदय वाले व्यक्ति के पास जैसे मौत आती है, उसी प्रकार अनधक मेरे समीप आया। यकायक अनघक ने मुझे उसमें गिरा दिया और मैं जल के बीच जा गिरा । वह उस स्थान से चला गया। मैं भी घबड़ाकर कुएं के एक किनारे आ लगा। स्त्री स्वभाव के कारण भय से दुःखी एवं भय के कारण जिसके अंग विह्वल हो रहे थे, ऐसी चन्द्रकान्ता को छू गया। उसने कहा, "अर्हन्तों को नमस्कार हो।" तब शब्द पहचान कर मैंने हृदय से लम्बी सांस ली और कहा, "जिन-शासन में रत रहने वाले लोगों के लिए अभय है।" उसने भी मेरी आवाज पहचान ली। वह रोने लगी, मैंने उसे ढाढस बंधाया और वृत्तान्त पूछा। उसने कहा । १,.सासणरयाणं-च। Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ [समराइच्चकहा 'भिन्नाओ मे सद्दो । रोविउं पयत्ता समासासिया सा मए, पुच्छ्यिाय वुत्तंतं । साहिओ य तीए, भए वि य नियगो त्ति । भणियं च तीए-हा ! दुठ्ठ कयं अणहगेण । मए भणियं-सुंदरि ! न दुठ्ठ कयं, परमोवयारी ख सो महाणभावो, जं तुमं संजोइय त्ति । अप्पनिहाण य अइक्कंता रयणी, उग्गओ अंसुमाली। तओ मए दिन्नं चंद कंताए पाहेयं । भणियं च तीए-'कहमहं तुमए अगहियम्मि गेण्हामि' ति । तओ मए नेहकायरं से हिययं कलिऊणमकाले चेव गहियं पाहेयं, भुत्तं च अम्हेहि । तओ चितियं मए-केण पुण उवाएण अहे इमाओ भवसमुद्दाओ विव कूवगाओ उत्तरिस्सामो ति । एवं च चितयंताणं कइवयदिणेसु खीणं पाहेयं, पणट्ठा जीवियासा। जाया य मे चिंता-कहं पाविऊण जिणमयं अकाऊण पव्वज्जमकयस्थो मरिस्सामि ति । एत्थंतरम्मि फरियं से वामलोयणेणं, ममावि दाहिणेणं । जंपियं च तीए-'अज्जपुत्त ! वामं मे लोयणं फुरियं' ति । तओ साहिओ से मए हिययसंकप्पो इयरचक्ख फरणं च समासासिया य एसा। संदरि ! इमेहि निमित्तविसेसेहि अवस्स अम्हाणं न चिरकालाणुसारी एस किलेसो, ता न तुमए संतप्पियव्वं ति। पडिस्सुयमिमीए। एवं च जाव ज्ञातो मम शब्दः ! रोदितुप्रवृत्ता, समाश्वासिता सा मया, पृष्टा च वृत्तान्तम् । कथितश्च तथा, मयाऽपि च निजक (वृत्तान्तः कथितः) इति । भणितं च तया-हा ! दुष्ठ कृतमणहकेन । मया भणितम्सुन्दरि ! न दुष्ठ कृतम्, परमोपकारी खलु स महानुभावः, यत्त्वं संयोजिता इति । अल्पनिद्रयोश्चातिक्रान्ता रजनी. उदगतश्चांशमाली। ततो मयादत्तं चन्द्रकान्तायाः पाथेयम भणितं च तया-कथमई त्वय्यगहीते गृह्णामि' इति । ततो मया स्नेहकातरं तस्या हृदयं कलयित्वा अकाले एव गृहीतं पाथेयम्, भुक्तं चावाभ्याम् । ततश्चिन्तितं मया-केन पुनरुपायेन वयमस्माद् भवसमुद्रादिव कूपकादुत्तरिष्याव इति । एवं च चिन्तयतो: कतिपयदिनेषु क्षीणं पाथेयम्, प्रनष्टा जीविताशा । जाता च मे चिन्ता-- कथं प्राप्य जिनमतमकृत्वा प्रव्रज्यामकृतार्थो मरिष्यामि इति । अत्रान्तरे स्फुरितं तस्या वामलोचनेन, ममापि दक्षिणेन । कथितं च तया- 'आर्यपुत्र ! वामं मे लोचनं स्फुरितम्' इति । ततः कथितः तस्या मया हृदयसंकल्प इतरचक्षःस्फरणं च । समाश्वासिता च एषा--सुन्दरि ! एभिनिमित्तविशेषरवश्यमावयोर्न चिरकालानुसारी एषः क्लेश:, ततो न त्वया सन्तप्तव्यमिति । प्रतिश्रुतमनया । एवं मैंने भी अपना वृत्तान्त कहा । उसने कहा, "हाय ! अनधक ने बुरा किया।" मैंने कहा, "सुन्दरि ! बुरा नहीं किया, वह महानुभाव परम उपकारी है जिसने कि तुमसे मिलाया।" अल्प निद्रा वाले हम दोनों की रात्रि बीत गयी। सूर्योदय हो गया । तब मैंने चन्द्रकान्ता को नाश्ता दिया। तब उसने कहा, “यदि आप नहीं लेते हैं तो मैं कैसे ले सकती हूँ।" तब मैंने स्नेह से दुःखी उसके हृदय को मानकर असमय में ही नाश्ता ले लिया। हम दोनों ने खाया। तब मैंने सोचा--- किस उपाय से भवसागर के समान इस कूप से निकलें। इस प्रकार कुछ दिन विचार करते हुए नाश्ता समाप्त हो गया। जीने की आशा नष्ट हो गयी। मुझे चिन्ता उत्पन्न हुई कि जैन धर्म को पाकर बिना दीक्षा लिये कैसे अकृतार्थ होकर मरूंगा। इसी बीच उसकी बायीं आँख और मेरी दायीं आँख फड़की। उसने कहा, 'आर्यपुत्र ! मेरी बायीं आंख फड़की है।" तब मैंने उसके हृदय का संकल्प और दायीं आंख का फड़कना कहा। उसे मैंने आश्वासन दिया, "सुन्दरि ! इस विशेष निमित्त के कारण हम लोगों का यह क्लेश चिरकाल तक रहने वाला नहीं है। अतः तुम दुःखी मत होओ।" उसने स्वीकार किया। इस प्रकार जब एक दिन-रात १. पश्चाभिण्णाओ-च. २. पउत्ता-च, ३. पुच्छिआ। Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वोमो भवो] १२३ अहोरत्तं निवसामो, ताव समागओ सवररायहाणीओ रयणपुरनिवासिणो नंदिवद्धणाभिहाणस्स सत्थवाहस्स संतओ रयणपुरगामी चेव सत्थो ति। उयगनिमित्तं च समागया पुरिसा गहिऊण लंबणा। दिट्ठाइं अम्हे इमेहि। निवेइयं सत्थवाहस्स । कर मंचियापओएणं समुत्तारावियाइं तेणं, पच्चभिन्नायाणि य । पुच्छ्यिाइं वुत्तंतं, साहिओ वित्थरेणं, विम्हिओ एसो, तओ पत्थियाई रयणउरं जाव अइक्कतेसु पंचसु पयाणएसु परिवहंते सत्थे रायवत्तणीओ नाइदूरदेसभाए दिट्ठो कंकालमेत्तसेसो वामपासावडियदविणजाओ केसरिणा दीहनिद्दावसमुवणीओ अणहगो त्ति। दविणोवलम्भेण पच्चभिन्नाओ अम्हेंहिं । तओ तं तहाविहविवागं पेच्छिऊण समुप्पन्नो मे विवेगो, खओवसममुवगयं चारित्तमोहणीयं । संजाओ सयलजीवलोयदुल्लहो चरणपरिणामो। तओ अहं तहाविहपवड्ढमाणपरिणामो चेव आगओ सनयरं। पवन्नो य जहाविहीए विजयबद्धणायरियसमोवे पव्वज्ज । अहाउयमणुवालिऊण विहिणा य मोत्तूण देह, उववानो सोलसरसागरोवमाऊ' वेमाणियत्ताए महासुक्ककप्पम्मि, इअरो वि य अणहगो सीहवावाइयसरीरो सत्तसागरोवमट्टिई बालुगप्पहाए नारगो त्ति । च यावदहोरात्रं निवसावः, तावत्समागतः शबरराजधानीतो रत्नपुरनिवासिनो नन्दिवर्द्धनाभिधानस्य सार्थवाहस्य सत्को रत्नपुरगाम्येव सार्थ इति । उदकनिमित्तं च समागता पुरुषाः गहीत्वा लम्बनान । दृष्टौ आवामेभिः । निवेदितं सार्थवाहस्य । कृतमञ्चिकाप्रयोगेण समुत्तारितौ तेन प्रत्यभिज्ञातौ च । पृष्टौ वृत्तान्तम्, कथितो विस्तरेण । विस्मित एषः, ततः प्रस्थितौ रत्नपूरं यावदतिक्रान्तेष पञ्चसु प्रयाणकेषु परिवहति सार्थे राजवर्तनीतो नातिदूरदेशभागे दृष्टः कङ्कालमात्रशेषो वामपाश्र्वापतितद्रविणजात: केसरिणा दीर्घनिद्रावशमुपनीतोऽनहक इति । द्रविणोपलम्भेन प्रत्यभिज्ञात आवाभ्याम् । ततस्तं तथाविधविपाकं प्रेक्ष्य समुत्पन्नो मे विवेकः क्षयोपशममपगतं चारित्रमोहनीयम्, संजातः सकलजीवलोकदुर्लभश्चरणपरिणामः । ततोऽहं तथाविधप्रवर्द्धमानपरिणाम एव आगतः स्वनगरम् । प्रपन्नश्च यथाविधि विजयवर्द्धनाचार्यसमीपे प्रव्रज्याम । यथाssयुष्कमनुपाल्य विधिना च मुक्त्वा देहम्, उपपन्नः षोडशसागरोपमायुर्वैमानिकतया महाशक्रकल्पे, इतरोऽपि चाणहक: सिंहव्यापादितशरीरः सप्तसागरोपमस्थिति लुकाप्रभायां नारक इति । ततोऽहं व्यतीत हुआ, तभी शबरों की राजधानी से रत्नपुर के निवासी नन्दिवर्धन नामक व्यापारी का रत्नपुर को जाने वाला काफिला आया । पानी के लिए रस्सी लेकर आये हुए इन लोगों नेहम दोनों को देखा । वणिकपति से निवेदन किया । खटिया का प्रयोग कर हम दोनों को उसने निकाला और पहिचान लिया । (उन्होंने) वृत्तान्त पूछा, (हम लोगों ने) विस्तार से कहा। वह आश्चर्य-चकित हुआ। तब हम दोनों ने रत्नपुर को प्रस्थान किया । जब रास्ते में पांच पड़ाव पार करके काफिला जा रहा था (तब) सड़क के पास ही कंकाल मात्र जिसका शेष रह गया था और जिसकी बायीं ओर धन पड़ा था ऐसे अनघक को देखा, जो कि सिंह के द्वारा दीर्घनिद्रा (मृत्यु) को प्राप्त हो गया था । धन की प्राप्ति से हम दोनों ने पहिचाना। तब उसके फल को उस प्रकार देखकर मुझे विवेक उत्पन्न हुआ, चारित्रमोहनीय कर्म का क्षयोपशम हुआ, समस्त संसार के लिए दुर्लभ चरित्ररूप परिणाम उत्पन्न हुआ। तब मैं उसी प्रकार भावों के प्रकर्ष को प्राप्त हुआ अपने नगर को आया। विजयवर्द्धन नामक आचार्य के पास विधिपूर्वक दीक्षा ले ली। आयू पूरी कर विधिपूर्वक शरीर त्यागकर सोलह सागर की आयु वाले महशुक्र स्वर्ग में वैमानिक देव के रूप में उत्पन्न हुआ। दूसरा, अनघक भी सिंह के द्वारा मारा जाकर सात सागर की स्थिति वाला बालुकाप्रभा नरक में उत्पन्न १. सोलसागरोवमाऊ-च। Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ [समराइच्चकहा तओ अहमहाउयं पालिऊण देवलोगाओ चुओ समाणो इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे रहवीरउरे नयरे नंदिबद्धणस्त गाहावइस्स सुरसुंदरीए भारियाए कुच्छिसि पुत्तत्ताए उववन्नो म्हि । इयरो वि तओ नरगाओ उव्वट्टिऊण विझगिरिपब्धए अणेगसत्तवावायणपरो सीहत्ताए उववन्नो। तओ सोहत्ताए उववज्जिऊण पुणो वि मरिऊण सत्तसागरोवभाऊ तत्थेव उववज्जिय तओ य उव्वट्टो नाणातिरिएसु आहिडिय तत्थेव नयरे सोमसत्यवाहस्स नंदिमईए भारियाए पुत्तत्ताए उववन्नो त्ति । उचियसमयम्मि जाया अम्हे, पत्ता बालभावं । पइट्ठावियाइं नामाई मज्झं अणंगदेवो, इयरस्स धणदेवो त्ति । आबालभावओ जाया पिई मम सब्भावओ, इयरस्स कहवएणं । कुमारभावम्मि य पत्तो मए देवसेणगुरुसमीवे सव्वन्नुभासिओ धम्मो । पत्ता य जोव्वणं । संते विय पुव्वपुरिसज्जिए दविणजाए अभिमाणओ 'किमणेण पुवपुरिसज्जिएणं' ति दव्वसंगहनिमित्तं गया रयणदीवं । विढत्ताइं रयणाई, कया संजुत्ती, पयट्टा नियदेसमागंतुं। एत्यंतरम्मि य पुवकयकम्मदोसेण चितियं धणदेवेण- कहं पुणो वंचियव्वो एस अणंगदेवो । वियप्पिया य तेणं अणेगे मिच्छावियप्पा । ठाविओ सिद्धंतो। अवावाइओ यथाऽऽयुः पालयित्वा देवलोकात् च्युतः सन् इहैव जम्बूद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे रथवीरपुरे नगरे नन्दिवर्द्धनस्य गाथापतेः सुरसुन्दर्या भार्यायाः कुक्षौ पुत्रतयोपपन्नोऽस्मि । इतरोऽपि च ततो नरकादुवृत्त्य विन्ध्यगिरिपर्वते अनेकसत्त्वव्यापादनपरः सिंहतयोपपन्नः । ततः सिंहतयोपपद्य पुनरपि मृत्वा सप्तसागरोपमायुस्तत्रैवोपपद्य ततश्चोद्वत्तो नानातिर्यक्षु आहिण्ड्य तत्रैव नगरे सोमसार्थवाहस्य नन्दिमत्यां भार्यायां पुत्रतयोपपन्न इति । उचितसमये जातावावाम्, प्राप्तौ बालभावम् । प्रतिष्ठापिते नाम्नी-ममानङ्गदेवः, इतरस्य धनदेव इति । माबालभावात् जाता प्रीतिर्मम सद्भावतः, इतरस्य कैतवेन । कुमारभावं च प्राप्तो मया देवसेनगुरुसमीपे सर्वज्ञभाषितो धर्मः । प्राप्तौ च यौवनम् । सत्यपि पूर्वपुरुषसमजिते द्रविणजाते अभिमानतः 'किमनेन पूर्वपुरुषसमजितेन' इति द्रव्यसंग्रह निमित्तं गतौ रत्नद्वीपम् । अजितानि रत्नानि, कृता संयुक्तिः, प्रवृत्ता निजदेशमागन्तुम् । अत्रान्तरे च पूर्वकृतकर्मदोषेण चिन्तितं धनदेवेन-कथं पुनर्वञ्चयितव्य एषोऽनङ्गदेवः । विकल्पिताश्च तेनानेके मिथ्याविकल्पाः । स्थापितः सिद्धान्तः । अव्यापादित एष न पार्यते वञ्चयितुम् हुआ। अनन्तर मैं आयु पूर्ण कर स्वर्गलोक से च्युत होकर इसी जम्बूद्वीप के भारतवर्ष के 'रथवीरपुर' नगर में नन्दिवर्द्धन गृहस्थ गाथापति की सुरसुन्दरी नामक पत्नी के गर्भ में पुत्र के रूप में आया। दूसरा भी नरक से निकलकर विन्ध्यगिरि पर अनेक प्राणियों को मारने वाले सिंह के रूप में उत्पन्न हुआ। सिंह के रूप में उत्पन्न होकर पुनः मरकर सात सागर की आयु वाले उसी बालुकाप्रभा नरक में उत्पन्न होकर, वहाँ से निकलकर नाना तिर्यंच योनियों में भ्रमणकर, उसी नगर के सोम व्यापारी की नन्दिमती स्त्री के पुत्र के रूप में उत्पन्न हुआ। उचित समय पर हम दोनों उत्पन्न हुए। बाल्यावस्था को प्राप्त हुए। दोनों के नाम--मेरा 'अनंगदेव' और दूसरे का 'धनदेव' रखा गया। बाल्यावस्था से उसके प्रति मेरी प्रीति सद्भाव से और उसकी छल-कपट से हुई । कुमारावस्था प्राप्त होने पर मैंने देवसेन गुरु के समीप सर्वज्ञभाषित धर्म पाया। यौवनावस्था को प्राप्त हुआ। पूर्वजों द्वारा अर्जित धन होने पर भी अभिमानवश-पूर्वजों द्वारा अजित धन से हमें क्या ? ऐसा सोचकर धनसंग्रह के लिए दोनों रत्नद्वीप गये । रत्नों का अर्जन किया और इकट्ठा कर अपने देश को आने में प्रवृत्त हो गये। इसी बीच पूर्वकृत कर्म के दोष के कारण धनदेव ने विचार किया-यह अनंगदेव इस धन से कैसे वंचित किया जाय ? उसने अनेक झूठे विकल्प किये । सिद्धान्त स्थापित किया कि इसे बिना मारे नहीं ठगा जा सकता Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२५ बीओ भवो ] एस न तीरए वंचिउं ति, ता वावाएमि एवं । परिचितिओ उवाओ 'भोयणे से विसं देमि' त्ति । अन्ना सत्यमसन्निवेस मणुपत्ताणं भोयगनिमित्तं गो धणदेवो हट्टमगं । कारावियं च तेण भोयगं, पक्खित्तं च एगम्मि लड्डुगे' त्रिसं । चितियं च ते एयं से दाहामि त्ति । आगच्छंतस्स अणेगवियपावहरियचित्तस्स संजाओ विवज्जओ । भोयणवेलाए गहिओ तेण विसलड्डुगो, दिन्नो ममं च इयरोति । पभुत्ता अम्हे जाव थेववेलाए चैव थारिओ धणदेवो । तओ 'किमेयं ति आउलीहूओ अहं जाव किंकायव्वमूढो थेवकालं चिभि, ताव अच्चुग्गयाए विसस्स विचित्तयाए कम्मपरिणामस्स उवरओ धणदेवो । जाया चिता - ' हा केण उण एवं ववसियं' त्ति । तओ अमुणियवृत्तंतो महासोयाभिभूयमाणसो आगओ सनयरं । सिट्टो वुतो तस्स माणुसाणं । विइण्णं च ते स अमहिययरं रयगजायं । ससरयणजायं पिय जहाणुरूवं कुसलपक्खे निउज्जिऊण तन्निव्वेएण चेव तयभिमन्नायविसयसंगो पवन्नो देवसेणायरियसमीवे पव्वज्जं ति । परिवालिऊण अहाउयं विहिणा य मोतूण देहं पाणमि कथ्ये उववन्नो एगूणवीस सागरोवमाऊ देवो त्ति, इयरो वि विसमरणानंतरं I इति, ततो व्यापादयामि एतम् । परिचिन्तितश्वोपायः 'भोजने तस्य विषं ददामि' इति । अन्यदा च स्वस्तिमतिसन्निवेशमनुप्राप्तयोर्भोजननिमित्तं गतो धनदेवो हट्टमार्गम् । कारितं च तेन भोजनम्, प्रक्षिप्तं चैकस्मिन् लड्डुके विषम् । चिन्तितं च तेन - 'एतं तस्य दास्यामि' इति । आगच्छतोऽनेकविकल्पापहृतवितस्य संजातो विपर्ययः । भोजनवेलायां तेन गृहीतो विषलड्डुकः, दत्तश्च मह्यमितर इति । प्रभुक्तावावां यावत्स्तोकवेलायामेव स्तारितो धनदेवः । ततः 'किमेतद्' इति आकुलो भूतोऽहं यावर्ति स्तोककालं तिष्ठामि तावदत्युग्रतया विषस्य विचित्रतया कर्मपरिणामस्योपरतो धनदेवः । जाता मे चिन्ता - हा ! केन पुनरेतद् व्यवसितम् इति । ततोऽज्ञातवत्तान्तो महाशोकाभिभूतमानस आगतः स्वनगरम् । शिष्टो वृत्तान्तस्तस्य मानुषाणाम् वितीर्णं च तेभ्योऽधिकतरं रत्नजातम् । शेषरत्नजातमपि च यथानुरूपं कुशलपक्षे नियुज्य तन्निवेदेनैव तत्प्रभृति अज्ञातविषयसङ्गः प्रपन्नो देवसेनाचार्यसमीपे प्रव्रज्यामिति । परिपाल्य यथाssयुर्विधिना च मुक्त्वा देहं प्राणते कल्पे उपपन्न एकोनविंशतिसागरोपमायुर्देव इति इतरोऽपि विषमरणानन्तरं पङ्कप्रभायां पृथिव्यां नवसागरोपमायुर्नारक इति । ततोऽहं यथाऽऽयुरअतः इसको मारता हूँ । उपाय सोचा कि इसे भोजन में विष दूंगा। एक बार जब हम स्वस्तिमती सन्निवेश में पहुँच गये तो भोजन की प्राप्ति के लिए धनदेव बाजार के रास्ते की ओर गया । उसने भोजन बनवाया और एक लड्डू में विष डाल दिया । उसने सोचा - इसे उसे दे दूँगा । आते हुए अनेक विकल्पों के कारण जिसका चित्त हरा गया है, ऐसे उसका उल्टा ध्यान हो गया - भोजन के समय उसने तो विष का लड्डू ले लिया और मुझे दूसरा दे दिया । भोजन करने के थोड़ी ही देर बाद धनदेव बिस्तर पर पड़ गया । तब यह क्या हुआ ! इस प्रकार आकुल व्याकुल मुझको किंकर्तव्यविमूढ़ हुए थोड़ा ही समय बीता था कि विष की तीक्ष्णता से और कर्मपरिणाम की विचित्रता से धनदेव चल बसा। मुझे चिन्ता हुईं-हाय ! ये किसने किया ? तब वृत्तान्त को न जानकर महान् शोक से अभिभूत होकर अपने नगर आया। उसका वृत्तान्त उसके मनुष्यों (घरवालों) से कहा और उन्हें अधिक रत्न दिये । शेष रत्नों को भी यथायोग्य शुभकार्य में लगाकर उससे विरक्त हो तभी से विषय सुख का अनुभव न कर देवसेनाचार्य के समीप मैंने दीक्षा ले ली। आयु पूरी कर और विधिपूर्वक शरीर छोड़कर प्राणत स्वर्ग में उन्नीस सागर की आयुवाला देव हुआ, दूसरा भी विष से मरण होने के बाद पंकप्रभा पृथ्वी में १. लगे, ९. विसलट्टु गो । Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [समराइच्चकहा पंकप्पभाए पुढवीए नवसागरोवमाऊ नारगो त्ति । तओ अहमहाउयं अणुवालिऊण चुओ समाणो इहेव जंबुद्दीवे दीवे एरवए खेत्ते हथिणारे नयरे हरिनंदिस्स गाहावइस्स लच्छिमईए भारियाए कुच्छिसि पुत्तत्ताए उववन्नो। इयरो वि तओ नरगाओ उव्वट्टिय उरगत्तणं पाविऊणमणेगसत्तवावायणपरो दावाणलदड्ढदेहो मरिऊण तीए चेव पंकप्पभाए पुढवीए किंचणदससागरोवमाऊ नारगो होऊण तओ उव्वट्टो, तिरिएसु आहिडिय तम्मि चेव हथिणाउरे इंदनामस्स वुड्ढसे द्विस्त नंदिमईए भारियाए कुच्छिसि पुत्तत्ताए उववन्नो त्ति । उचियसमयम्मि जाया अम्हे । पइट्टावियाइं नामाइंमझ वीरदेवो, इयरस्स दोणगो त्ति । पत्ता य कुमारभावं, समप्पिया य लेहायरियस्स । जाया य अम्हाणं पुव्ववणिया चेव पिई। तओ गहियकलाकलावेणं मए पडिवन्नो माणभंगगुरुसमीवे जिणदेसिओ धम्मो, ममोवयारवंचणकुसलेण दव्वओ दोणएणावि । तओ य मे धम्माणुराएण तप्पभिई तं पइ समुप्पन्ना थिरयरा पिई । समप्पियं से पभूयं दविणजायं । भणिओ य एसो-'ववहरह अणिदिएण मग्गेण ।' तओ सो ववहरिउमारद्धो। विढत्तं च तेण पभूयं दविणजायं । एत्थंतरम्मि पुवकय नुपाल्य च्युतः सन् इहैव जम्बूद्वीपे द्वीपे ऐरवते क्षेत्रे हस्तिनापुरे नगरे हरिनन्देर्गाथापतेर्लक्ष्मीमत्या भार्यायाः कुक्षौ पुत्रतयोपपन्नः । इतरोऽपि ततो नरकादुद्वत्य उरगत्वं प्राप्यानेकसत्त्वव्यापादनपरो दावानलदग्धदेहो मृत्वा तस्यामेव पङ्कप्रभायां पृथिव्यां किञ्चिदूनदशसागरोपमायुर्नारको भूत्वा तत उद्वत्तः, तिर्यक्षु आहिण्ड्य तस्मिन्नेव हस्तिनापुरे इन्द्रनाम्नो वृद्धश्रेष्ठिनो नन्दिमत्या भार्यायाः कुक्षौ पुत्रतयोपपन्न इति । उचितसमये जातावावाम् । प्रतिष्ठापिते नाम्नी-मम वोरदेवः, इतरस्य द्रोणक इति । प्राप्तौ च कुमारभावम्, समर्पितौ च लेखाचार्यस्य । जाता चावयोः पूर्ववणिता एव प्रीतिः । ततो गृहोतकलाकलापेन मया प्रतिपन्नो मानभङ्गगुरुसमीपे जिनदेशितो धर्मः, ममोपचारवञ्चनाकुशलेन द्रव्यतो द्रोणकेनापि । ततश्च मे धर्मानुरागेण तत्प्रभृति तं प्रति समुत्पन्ना स्थिरतरा प्रीतिः । समर्पितं तस्य प्रभूतं द्रविणजातम् । भणितश्च एषः-व्यवहरत अनिन्दितेन मार्गेण । ततः स व्यवहतु मारब्धः। अजितं च तेन प्रभूतं द्रविणजातम् । अत्रान्तरे पूर्वकृतकर्मवासनादोषेण नव सागर की आवुवाला नारकी हुआ। तब मैं आयुकर्म के अनुसार आयु पूर्ण कर च्युत हो इसी जम्बूद्वीप के ऐरावत क्षेत्र के हस्तिनापुर नगर में हरिनन्द गृहस्थ (गाथापति) की लक्ष्मीमति नामक भार्या के गर्भ में पुत्र के रूप में आया। दूसरा भी उस नरक से निकलकर सर्पयोनि प्राप्त कर अनेक प्राणियों के मारने में रत हो दावानल से जलकर मरने के बाद उसी पंकप्रभा पृथ्वी में कुछ कम दशसागर आयुवाला नारकी हुआ । वहाँ से निकलकर तिर्यंच गति में भ्रमणकर उसी हस्तिनापुर नगर में इन्द्र नामक वृद्ध सेठ की नन्दिमती नामक स्त्री के गर्भ में पुत्र के रूप में आया। उचित समय पर हम दोनों उत्पन्न हुए । नाम रखे गये- मेरा 'वीरदेव' और दूसरे का 'द्रोणक' । कुमारावस्था को प्राप्त हुए दोनों लेखाचार्य (उपाध्याय) को समर्पित किये गये । हम दोनों की, जैसा हनप लेविर्ण कया गया है वैसी ही, प्रीति हो गयी। तब समस्त कलाओं को ग्रहण कर मैंने 'मानभंग' गुरु के समीप जिनप्रणीत धर्म प्राप्त किया । मुझे छलने में निपुण द्रव्यतः द्रोणक ने भी धर्म प्राप्त किया । तब धर्म के प्रति अनुराग होने के कारण तभी से लेकर उसके प्रति मेरी प्रीति अत्यधिक स्थिर हो गयी । उसे अत्यधिक धन दिया। उससे कहा-"जिसमें निन्दा न हो ऐसे मार्ग से व्यवहार (व्यापार) करो।" तब उसने व्यापार आरम्भ किया और खूब धन पैदा किया। इसी बीच पूर्वकृत कर्म के दोष से उसका मेरे प्रति और अधिक छल-कपट करने का भाव Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीमो भवो] १२० यम्म'वासणादोसेण जाओ से ममोवरि अहिगो वंचणापरिणामो। चितियं च तेणं- अज्जियं पभूयं बविणजायं, भागिओ य वीरदेवो एयस्स, ता केण उण उवाएण वंचियव्वो एसो, न य मुणइ जहद्वियं णे कोइ ववहारं । ता कि अवलंबामि ? अहवा एयम्मि परिपंथगे न मे अलियवयणं निव्वहइ । ता वावाएमि एयं । तओ 'जमहं भणिस्सामि, तं चेव अग्घिस्सइ' त्ति संपहारिऊण पारद्धो तेण समुवयारो। काराविओ महंतो पासाओ, उवरिभूमिभाए य तस्स अणिय मियखीलजालो निज्जहगो। चितियं च तेणं । वीरदेवं पासायपवेसनिमित्तं निमंतिऊण दसेमि से निज्जूहगं। तओ सो रम्मदंसणीययाए निज्जहगस्स सहसा आरोह इस्सइ । तओ य तन्निवडणेण निवडिओ समाणो न भविस्सइ त्ति । एवं च कए समाणे लोयवाओ वि परिहरिओ होइ । संपाइयं तेण जहासमोहियं । भुत्तुत्तरकालंमि य आरूढा दुवे वि अम्हे सपरिवारा पासायं । एत्थंतरंमि य पणट्ठा से मई । मम दंसणनिमित्तं केवलो चेवारूढो निज्जूहगं। जाव य नारोहामि अहयं, ताव निवडिओ। हाहारवं करेमाणो समोइण्णो अहयं जाव दिटो पंचत्तमुवगओ दोणगो ति । समुप्पन्नो मे निवेओ। चितियं मए। धिगत्यु जातस्तस्य ममोपरि अधिको वञ्चनापरिणामः । चिन्तितं तेन-अजितं प्रभूतं द्रविणजातम् भागिकश्च वीरदेव एतस्य, तत: केन पुनरुपायेन वञ्चयितव्य एषः, न च जानाति यथास्थिमावयोः कोऽपि व्यवहारम् । ततः किमवलम्बे ? अथवा एतस्मिन् परिपन्थिनि न मेऽलीकवचनं नि व्यापादयाम्येतम्। ततो 'यदहं भणिष्यामि, तदेव अहिष्यति' इति सम्प्रधार्य प्रारब्धस्तेन समुपचारः । कारितो महान् प्रासादः, उपरि भूमिभागे च तस्य अनियमितकीलजालो नियंहकः । चिन्तितं च तेन-वीरदेवं प्रासाद प्रवेशनिमित्तं निमन्त्र्य दर्शयामि तस्य नियूं हकम् । ततः स रम्यदर्शनीयतया निर्य हकस्य सहसा आरोक्ष्यति । ततश्च तन्निपतनेन निपतितः सन् न भविष्यति (जीविष्यति) इति । एवं च कृते सति लोकवादोऽपि परिहृतो भवति । सम्पादितं च तेन यथासमोहितम्। भुक्तोत्तरकाले चारूढौ द्वावपि आवां सपरिवारो प्रासादम् । अत्रान्तरे च प्रनष्टा तस्य मतिः । मम दर्शननिमित्तं केवल एवारूढो नियूं हकम् । यावच्च नारोहाम्यहं तावन्निपतितः । हाहारवं कुर्वन् समवतीर्णोऽहं यावद्दष्टो पञ्चत्वमुपगतो द्रोणक इति । समुत्पन्नो मे निर्वेदः। चिन्तितं मया--धिगस्तु जीवलोकस्य, उत्पन्न हुआ। उसने विचार किया, प्रभूत धन अर्जित कर लिया और इसका भागीदार वीरदेव भी है अतः किस उपाय से इसे धोखा दें। हम लोगों के सही व्यापार को कोई भी नहीं जानता है । अत: क्या करू? अथवा इस विरोधी के होने पर मेरे झूठ वचनों का निर्वाह नहीं होता है, अत: उसे मारता हूँ। जो मैं कहूँगा वही माना जायेगा' ऐसा निश्चयकर अपना प्रयत्न प्रारम्भ किया। उसने बहुत बड़ा महल बनवाया और उसकी ऊपरी मंजिल पर अनियमित कील समूह वाला छज्जा बनवाया । उसने सोचा-महल के बहाने वीरदेव को निमन्त्रित कर उसे छज्जा दिखाऊँगा। वह देखने में रमणीय होने के कारण इस पर यकायक चढ़ेगा। तब उसके गिरने से गिरा हुआ वह जीवित नहीं बचेगा । ऐसा करने पर लोक-निन्दा से भी छुटकारा मिलेगा । उसने इच्छित कार्य को पूरा कराया । भोजन करने के बाद हम दोनों सपरिवार महल पर चढ़े। इसी बीच उसकी बुद्धि नष्ट हो गयी । मुझे देखने अकेले ही छज्जे पर चढ़ गया। जब तक मैं नहीं चढ़ पाया तब तक (वह) नीचे जा गिरा । हाहाकार करते हुए ज्योंही मैं नीचे उतरा तो मैंने देखा कि द्रोणक मर चुका है। मुझे विराग हो गया। मैंने विचार किया-संसार को धिक्कार है, संसार की चेष्टाओं की समाप्ति इस प्रकार होती है। तब मैं ने उसके १. पुत्रकयकम्म Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ समराइच्चकहा जीवलोयस्स, एवमवसाणं संसारचेद्वियं । तओ अहं तस्स मयकिच्चं काऊण तन्निवेएण चेव पडिवन्नो माणगगुरुसमी मणलिंगं । परिवालिऊण अहाउयं उवबन्नो हेट्टिमोवरिमगेवेज्जए किंचूणपणुवीससागरोवमाऊ देवो; इयरो वि दोणओ तहाविहरुद्दज्झाणोवगओ धूमप्पभाए पुढवीए दुबालससागरोवमाऊ नारगो ति । तओ अहं सुराज्यमणुभ्रंजिऊण चुओ समाणो इहेव जांबुद्दीवे दीवे एत्थ चैव विजए चंपावासे नयरे माणिभद्दरस सेट्टिस्स धारिणीए भारियाए कुच्छिसि पुत्तताए उववन्नो, जाओ य उचियसमएणं । पइट्टावियं मे नामं पुष्णभद्दो त्ति । पढमं च किल मए घोसमुच्चारयंतेण 'अमर' त्ति संत्तं । अओ दुइयं पि मे नामं अमरगुत्तोति । सावयगिहुप्पत्तीए य आ बालभावाओ aa पवन्नो मए जिणदेसिओ धम्मो । एत्यंतरंमि य इयरो वि तओ नरगाओ उव्वट्टिऊण सयंभुरमणे समुद्दे महामच्छो भविय अच्चतपावदिट्ठी मओ समाणो तीए चेव धूमप्पभाए दुबालससागरोवमाऊ' चैव नारगो होऊण उब्वट्टो समाणो नाणातिरिएसु आहिंडिय तंमि चेव नयरे नंदावत्तरस सेट्ठिस्स सिरिनंदाए भारियाए कुच्छिसि धूयत्ताए उववन्नो जाया य उचियसमएणं । पइठा वियं च से नामं १२ एवमवसानं संसारचेष्टितम् । ततोऽहं तस्य मृतकृत्यं कृत्वा तन्निर्वेदेनैव प्रतिपन्नो मानभङ्गगुरुसमीपे श्रमणलिङ्गम् । परिपालय यथाऽऽयुरुपपन्नोऽधस्तनोपरितनग्रैवेयके किञ्चिदूनपञ्चविंशतिसागरोपमायुर्देवः इतरोऽपि द्रोणकस्तथाविधरौद्रध्यानोपगतो धूमप्रभायां पृथिव्यां द्वादशसागरोपमायुर्नारिक इति । ततोऽहं सुरायुरनुभुज्य च्युतः सन् इहैव जम्बूद्वीपे द्वीपे अत्रैव विजये चम्पावर्षे नगरे मणिभद्रस्य श्रेष्ठो धारिण्या भार्यायाः कुक्षौ पुत्रतयोपपन्नः, जातश्चोचितसमयेन । प्रतिष्ठापितं नाम पूर्णभद्र इति । प्रथमं च किल मया घोषमुच्चारयता 'अमर' इति संलपितम्, अतो द्वितीयमपि मे नाम अमरगुप्त इति । श्रावकगृहोत्पत्या च आबालभावादेव प्रपन्नो मया जिनदेशितो धर्मः । अत्रान्तरे च इतरोऽपि ततो नरकाद्वृत्त्य स्वयंभूरमणे समुद्रे महामत्स्यो भूत्वा अत्यन्तपापदृष्टिर्मृतः सन् तस्यामेव धूमप्रभायां द्वादशसागरोपमायुरेव नारको भूत्वा उद्वृत्तः सन् नानातिर्यक्ष आहिण्ड्य तस्मिन्नेव नगरे नन्दावर्तस्य श्रेष्ठिनः श्रीनन्दाया भार्यायाः कुक्षौ दुहितृतयोपपन्नः, जाता चोचितसमयेन । प्रतिष्ठापितं च तस्या नाम नन्दयन्तो इति । प्राप्ता च यौवनम् वितीर्णा च मह्यम् । मरणकार्य कर उसी विरागता के कारण मानभंग गुरु के समीप श्रमण दीक्षा ले ली। आयुकर्मानुसार आयु पूरी कर उपरितर तीसरे ग्रैवेयक के नीचे कुछ कम पच्चीस हजार सागर की आयुवाला देव हुआ। दूसरा, द्रोणक भी उस प्रकार रौद्रध्यान को प्राप्त हुआ । धूमप्रभा पृथ्वी में बारह सागर की आयुवाला नारकी हुआ । अनन्तर मैं देवायु भोगकर, च्युत होकर इसी जम्बूद्वीप के इसी देश की चम्पानगरी में मणिभद्र सेठ की धारिणी स्त्री के गर्भ में आया और उचित समय पर उत्पन्न हुआ। मेरा नाम 'पूर्णभद्र' रखा गया । प्रथम शब्द उच्चारण करते हुए मैंने 'अमर' शब्द का उच्चारण किया अतः मेरा दूसरा नाम 'अमरगुप्त' भी रखा गया । श्रावक के घर में उत्पन्न होने के कारण बाल्यावस्था से ही मैंने जिनेन्द्रदेव द्वारा प्रणीत धर्म पाया । इसी बीच दूसरा भी उस नरक से निकलकर स्वयंभूरमण समुद्र में महामत्स्य होकर अत्यन्त पाप दृष्टि वाला होने के कारण मरकर उसी धूमप्रभा में बारहसागर की आयुवाला नारकी हुआ। वहाँ से निकलकर अनेक तिर्यंच योनियों में भटकता हुआ उसी नगर में नन्दावर्तसेठ की श्रीनन्दा पत्नी के गर्भ में पुत्री के रूप में आया । उचित समय पर वह उत्पन्न हुई । उसका नाम 'नन्दयन्ती' रखा गया । वह यौवनावस्था को प्राप्त हुई और मुझे दी गयी । पाणिग्रहण संस्कार पूरा हुआ। मुझे १. दिट्ठो च २ सागरोबमाउ–च Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीओ भयो १२४ नंदयंति ति । पत्ताय जोव्वणं, विइण्णा य मज्झं । निव्वत्तियं पाणिग्गहणं । समुप्पन्नो य मे तं पह सिणेहो, तीए वि य तहेव । एवं च विसयसुहमणुहवंताणं गओ कोइ कालो। पुवकयकम्मदोसेण य से ममोवरि वंचणापरिणामो नावेइ, जेण समप्पियसव्वघरसारा वि मायाए ववहरइ। साहियं च मे परियणेणं, न उण पत्तियामि त्ति । अन्नया य साहियं मे तीए । जहा पण सव्वसारं कुडलजुयलं । तं पुण सयं चेव अवहरिऊण समाउलीभूया । भणिया य तओ मए-सुंदरि, थेवमेयं ति, किमेहहमेत्तेणं संरंभेण । अन्नं ते कुंडलजुयलं कारावेमि । कारावियं कुंडलजुयलं। अइक्कतेसु कइवयदिणेसु अभंगणवेलाए समप्पियं से नामंकियमुद्दारयणं, संगोवियं च तीए निययाभरणकरंडए। वत्ते य ण्हाणभोयणसमए काऊणमंगरायं परिगेण्हिऊण तंबोलं असंजायासंकेण चेव तओ करंडगाओ सइंचेव गहियं मए मुद्दारयणं । दिट्ठच पुश्वनट्ठ सव्वसारं कुंडलजुयलं। जाया य मे चिता 'किमयं पुणी लद्धति । एत्थंतरम्मि ससज्झसा विय आगया नंदयंती। दिट्ठच तीए मज्झ हत्थंमि मुहारयणं । विलिया सा । लक्खिओ से भावो । तओ अहं सिग्यमेव निग्गओ गेहाओ। चितियं च तीए-विट्ठ पाणिग्रहणम् । समुत्पन्नश्च मे तां प्रति स्नेहः, तस्या अपि च तथैव । एवं च विषयसुखमनुभवतोर्गतः कोऽपि कालः। पूर्वकृतकर्मदोषेण च तस्या ममोपरि वञ्चनापरिणामो ना पैति, येन समर्पितसर्वगृहसाराऽपि मायया व्यवहरति । कथितं च मम परिजनेन, न पुनः प्रत्येमोति । अन्यदा च कथितं मे तया, यथा-प्रनष्टं सर्वसारं कुण्डलयुगलम्, तत्पुनः स्वयमेवापहृत्य समाकुलीभूता। भणिता च ततो मया-सुन्दरि ! स्तोकमेतदिति, किमेतावन्मात्रेण संरम्भेण ? अन्यत्ते कुण्डलयुगलं कारयामि । कारितं च कुण्डलयुगलम् । अतिक्रान्तेषु कतिपयदिनेषु अभ्यङ्गनवेलायां समर्पितं तस्य नामाङ्कितं मुद्रारत्नम्, संगोपितं च तया निजकाभरणकरण्डके । वृत्ते च स्नानभोजनसमये कृत्वाऽङ्गराग परिगृह्य ताम्बूलमसंजाताशङ्केणैव ततः करण्डकात् स्वयमेव गृहीतं मया मुद्रारत्नम् । दृष्टं च पूर्वनष्टं सर्वसारं कुण्डलयुगलम् । जाता च मे चिन्ता । 'किमेतत्पुनर्लब्धम्' इति । अवान्तरे साध्वसा इवागता नन्दयन्ती। दृष्टं च तया मम हस्ते मुद्रारत्नम् । व्यलीका सा, लक्षितस्तस्या भावः । ततोऽहं शीघ्रमेव निर्गतो गेहात् । चिन्तितं च तया-दृष्ट मनेन कुण्डलयुगलम्, ततः विमत्र कर्तव्यम् । जातं उसके प्रति स्नेह उत्पन्न हुआ और उसे भी मेरे प्रति प्रेम उत्पन्न हुआ। इस प्रकार विषयसुख का अनुभव करते हुए कुछ काल व्यतीत हो गया । पूर्वकृत कर्म के दोष के कारण उसका मेरे प्रति छलकपट का भाव दूर नहीं हुआ, जिससे घर का सभी धन समर्पित करने पर भी मेरे प्रति माया का व्यवहार करने लगी। मेरे स्वकीय इन्धुषों ने कहा फिर भी मैंने विश्वास नहीं किया। एक बार उसने मुझसे कह दिया कि सोने के कुण्डल का जोड़ा चोरी चला गया है और फिर उसे स्वयं ही अपहरण कर वह आकुल-व्याकुल हो उठी । तब मैंने उससे कहा-'यह बहुत थोड़ा है, इतने मात्र के लिए क्यों व्याकुल होती हो? तुम्हें दूसरा कुण्डल का जोड़ा बनवा दूंगा।" कुण्डलों का जोड़ा बनवा दिया गया। कुछ दिन बीत जाने पर उबटन करते समय नाम से अकित मुद्रारत्न उसे दिया। उसने अपने गहनों की सन्दूक में छिपा लिया । स्नान और भोजन का समय होने पर चूर्ण लगाकर, पान लेकर, आशंका न उत्पन्न होने के कारण उस सन्दूक में से मैंने मुद्रारत्न को स्वयं ही ग्रहण कर लिया और पहले खोये हुए बहुमूल्य कुण्डल का जोड़ा देखा । मझे चिन्ता उत्पन्न हुई कि यह पुनः कैसे प्राप्त हुआ। इसी बीच मानो घबड़ाती हुई नन्दयन्ती आयी । उसने मेरे हाथ में मुद्रारत्न देखा । वह लज्जित हुई । (झूठी है इस प्रकार) उसका भाव लक्षित हुआ। तब मैं शीघ्र ही घर से निकल गया। उसने सोचा--'इसने कुण्डल का जोड़ा देख लिया है अतः इस विषय . Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [समराइचकहा इमेण कुंडलजुयलं ता किमेत्थ कायव्वं । जायं मे लहत्तं, पणटो एसो वि। ता जाव सयणवग्गे वि मे लाघवं न उप्पज्जइ, ताव वावाएमि एवं ति। एसो य एत्थ उवाओ, सज्जघायणं से कम्मणजोगं पउंजामि । कओ तीए केवलाए चेव अणेयमरणावहदश्वसंजोएणं जोगो। संठवंती य तमे गदेसे उक्का भुयंगमेणं । साहियं च मे पुरोहिएणं रुद्ददेवेणं। गओ अहं ससंभंतो गिहं । दिट्ठा य कसिणमंडलविसवावियसरीरा जीवियमेत्तसेसा नंदयंती। तं च तहाविहं ठूण समुप्पन्ना मे चिता। धिरत्थु माइंदजालसरिसरस जीवलोयस्स। वाहजलभरियलोयणेणं च सगग्गयवखरं भणिया मएसुंदरि, किं ते वाहइ ? जाव न जंपइ त्ति । तओ विसण्णो अहं, पणट्ठा जीवियासा। तहावि 'गारुडिया एत्थ पमाणं, अचिता मंतसत्ति'त्ति सहाविया गारुडिया। विद्वा य तेहिं। विसण्णा य ते । भणिओय हिं । सत्थवाहपुत्त, कालदट्टा खु एसा न गोयरा मंतस्स। ता न कुप्पियव्वं तुमए त्ति भणिऊण निग्गया गारुडिया। तओ अवकंदविलवणवावडस्स मे परियणरस विमुक्का जीविएणं, कयं से उद्धदेहियं । तओ अहं तन्निव्वेएणं चेव पवड्डमाणसंवेगो ‘धिरत्थु जीवलोयस्स' ति परिचितिऊण य मे लघुत्वम्, प्रनष्ट एषोऽपि । ततो यावत्स्वजनवर्गेपि मे लाघवं नोत्पद्यते तावद् व्यापादयाम्येतमिति। एष चात्रोपायः, सद्योघातनं तस्य कार्मणयोगं प्रयुञ्ज । कृतस्तया एव अनेकमरणावहद्रव्यसंयोगेन योगः । संस्थापयन्ती च तमेकदेशे दष्टा भुजङ्गमेन । कथितं च मे पुरोहितेन रुद्रदेवेन । गतोऽहं ससम्भ्रान्तो गृहम्, दृष्टा च कृष्णमण्डलविषव्याप्तशरीरा जीवितमात्रशेषा नन्दयन्ती। तां तथाविधां दृष्ट्वा समुत्पन्ना मे चिन्ता, धिगस्तु मायेन्द्र जालसदृशं जीवलोकम् । वाष्पजलभृतलोचनेन च सगद्गदाक्षरं भणिता मया-सुन्दरि ! किं ते बाधते ? यावन्न जल्पति इति । ततो विषण्णोऽहं, प्रनष्टा जीविताशा । तथाऽपि 'गारुडिका अत्र प्रमाणम्, अचिन्त्या मन्त्रशक्तिः' इति शब्दायिता गारुडिकाः । दृष्टा च तैः । विषण्णाश्च ते । भणितश्च तैः-सार्थवाहपुत्र ! कालदष्टा खलु एषा, न गोचरा मन्त्रस्य । ततो न कुपितव्यं त्वयेति भणित्वा निर्गता गारुडिकाः । तत आक्रन्दनविलपनव्याप्तस्य मे परिजनस्य विमुक्ता जीवितेन, कृतं तस्यौवंदैहिकम् । ततोऽहं तन्निर्वेदेनैव प्रवर्धमानसंवेगो, 'धिगस्तु जीवलोकस्य' इति परिचिन्त्य च असारं त्यक्त्वा क्लेशायासकारिणं सङ्गं प्रपन्नः प्रवज्यामें क्या करना चाहिए? मैं लघुता को प्राप्त हो गयी और यह भी चला गया है। अतः अपने लोगों के बीच जब तक मेरी लघुता प्रकट नहीं होती है तब तक इसको मार डालू । अब एक यह उपाय है - शीघ्र मारने वाले वशीकरण (अभिचार) का प्रयोग करूंगी।' उसने अकेले ही मारक द्रव्यों के संयोग से मिश्रण तैयार कर लिया। जब वह उसे एक स्थान पर रख रही थी तब साँप ने उसे काट खाया । मुझसे पुरोहित रुद्रदेव ने कहा । मैं घबड़ाया हुआ घर गया । काले मुंह और विष से व्याप्त शरीर वाली प्राणमात्र शेष वाली नन्दयन्ती को मैंने देखा । उसे उस प्रकार देखकर मुझे चिन्ता उत्पन्न हुई-मायामयी इन्द्रजाल के समान (इस) संसार को धिक्कारा। नेत्रों में जल भरकर गद्गद अक्षरों में मैंने कहा--"सुन्दरि ! तुम्हें कौन-सी बाधा है ?" वह नहीं बोली, तब मैं खिन्न हो गया । उसके जीने की आशा मिट गयी । तो भी सर्पविद्या के जानकार (गारुडिक) यहाँ प्रमाण हैं, मन्त्र की शक्ति अचिन्त्य है, ऐसा सोचकर सर्पविद्या के ज्ञाता बुलाये । उन्होंने देखा। वे खिन्न हो गये । उन्होंने कहा-"णिकपुत्र ! इसे काल ने उस लिया है अतः यह मन्त्र के गोचर नहीं है । अत: आप कुपित न हों"ऐसा कहकर सर्पविद्या के जानकर (गारुडिक) निकल गये । जब कि मेरे परिजन जोर-जोर से रो रहे थे, विलाप कर रहे थे, कि इसी बीच वह) निष्प्राण हो गयी। उसकी पारलौकिक क्रियाएं की। उस घटना से मुझे वैराग्य हुआ, मेरा धर्मानुराग बढ़ा, "संसार को धिक्कार". ऐसी संसार की असारता सोचकर दुःख और परिश्रम उत्पन्न करने १. लोयणेण। • Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीओ भवो] १३१ असारयं चइऊण किलेसायासकारिणं संगं पवन्नो पव्वज्ज ति। सा उण तवस्सिणी तहा मरिऊण समुप्पन्ना तमप्पहाभिहागाए नरयपुढवीए । आउं च से इगवीसं सागराइं। एयं मे चरियं ति । एवं च सोऊण संजाओ रायनायराणं निव्वेओ। पुच्छियं च राइणा। भयवं, को उण तीए भवओ य परिणामो भविस्सइ ? भयवया भणियं-तीसे अणंतसंसारावसाणे मुत्ती, मम उण इहेव जम्मे त्ति। __ तओ अहमेवमायण्णिऊण' तस्स चेव भयवओ समीवे अणेयनायरजणपरिगओ पवन्नो पव्वज्जं । एयं मे विसेसकारणं ति। सीहकुमारेण भणियं-सोहणं ते निव्वेयकारणं । अह कइगइसमावन्नरूवो उण एस संसारो, किविसिट्ठाणि वा इह सारीरमाणसाणि सुहदुक्खाणि अणुहवंति पाणिणो, को वा एत्थ संसारचारगविमोयणसमत्थो भयवं ! धम्मो ति ? धम्मघोसे ग भणियं -वच्छ ! सुण, जं तए पुच्छियं एत्थ ताव चउगइसमावन्नरूवो संसारो। गईओ पुण इमाओ। तं जहा-नरयगई, तिरियगई, मणुयगई, देवगई । सुहदुर्वांचंताए पुण, कुओ संसारसमावन्नाणं जाइजरामरणपीडियाणं रागाइमिति । सा पुनः तपस्विनी तथा मृत्वा समुत्पन्ना तमःप्रभाभिधानायां नरकपृथिव्याम् । आयुश्च तस्या एकविंशतिः सागराणि । एतन्मे चरितमिति । एतच्च श्रुत्वा संजातो राजनागराणां निवेदः । पष्टं च राज्ञा-भगवन् ! कः पुनस्तस्याः भवतश्च परिणामो भविष्यति ? भगवता भणितम्-तस्या अनन्तसंसारावसाने मुक्तिः , मम पुनरिहैव जन्मनीति । ततोऽहमेतदाकर्ण्य तस्यैव भगवतः समीपे अनेकनागरजनपरिगतः प्रपन्नः प्रवज्याम् । एतन्मे विशेषकारणमिति । सिंहकूमारेण भणितम-शोभनं ते निर्वेदकारणम् । अथ कतिगतिसमापन्नरूपः पुनरेष संसारः, किविशिष्टानि वा इह शारीरमानसानि सुखदुःखानि अनुभवन्ति प्राणिनः, को वाऽत्र संसारचारकविमोचनसमर्थो भगवन् ! धर्म इति ? धर्मघोषण भणितम्-वत्स ! शृणु, यत्त्वया पृष्टम् अत्र तावच्चतुर्गतिसमापन्नरूपः संसारः । गतयः पुनरिमाः । तद्यथा-नरकगतिः, तिर्यग्गतिः, मनुजगतिः, देवगतिः । सुखदुःखचिन्तया पुनः, कुतः संसारसमापन्नानां जातिजरामरणपीडितानां वाली, आसक्ति त्यागकर दीक्षा धारण कर ली । वह बेवारी पुनः मरकर तमःप्रभा नामक नरक की पृथ्वी में उत्पन्न हई। उसकी आयु २१ सागर की है । यह मेरा चरित है । इसे सुनकर राज्य के नागरिकों को वैराग्य हो गया। राजाने पछा-'भगवन ! उसका और आपका क्या परिणाम होगा ?" भगवान ने कहा-"उसकी अनन्त संसार की समाप्ति होने पर मुक्ति होगी और मेरी इसी जन्म में होगी।" "तब मैंने यह सुनकर उन्हीं भगवान् के समीप अनेक नागरिक जनों से घिरे हुए होकर दीक्षा ले ली। यह मेरे वैराग्य का विशेष कारण है।" सिंहकुमार ने कहा - "आपका वैराग्य का कारण ठीक है। (कृपया यह बतलाइए कि) कितनी गतियों के बाद इस संसार का अन्त हो जाता है ? प्राणी किस प्रकार के शारीरिक और मानसिक दुःखों का अनुभव करते हैं ? भगवन् ! कौन-सा धर्म संसार-भ्रमण से छुटकारा दिलाने में समर्थ है ?" धर्मघोष ने कहा-"वत्स ! सुनो, जो तुमने पूछा ___ "चार गतियों में समाप्त हो जाने वाला संसार है । गतियां ये हैं-नरकगति, तिर्यग्गति, मनुष्यगति और देवगति । सुख-दुख के विषय में सोचें तो स्पष्ट है-जन्म-जरा-मरण से पीड़ित, रागादि दोषों से गृहीत, विषय १. मायण्णिय-ख Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ समराइच्च कहा दोहियाणं विसय विसावहियचेयणाणं च सत्ताणं सुहं ति ? न किंचि सुहं, बहुं च दुक्खं । एत्थ मे सुण नायं १३२ जह नाम कोइ पुरिसो धणियं दालिदुक्ख संतत्तो । मोत्तूण नियं देस परदेसं गंतुमारद्धो ॥१७४॥ लंघेऊण य देसं' गामागर'नयरपट्टणसणाहं । दहि' नवरं कहंचि पंथाउ पढभट्टो ॥१७५॥ पत्तो य सालसरल - तमाल-तालालि-वउल-तिलय-निचुल-अकोल्ल-कदंब - बंजुल - पलास - सल्लई - तिणिस - निंब- कुडय - नग्गोह- खइर-सज्जऽज्जुणम्ब - जंबुयनियर गुविलं दरियमयणाहखरनहर सिहरावायदलियम त्तमायं गकुंभत्थल गलिय वहल रुहिरारत्तमुत्ता हल कुसुमपयरच्चियवित्थिण्णभूमिभागं वणकोलसरह-वसह-पसय-बग्घ-तरच्छ-ऽच्छभल्ल - जम्बुय-गय- गवय-सीह-गंडयाइ- रुटुटुट्टसावयभोसणं वणमहिसजू हंसमालोडियासे सपल्ललजलु च्छ्लं तुत्तत्थ जलयरमुक्कनायवहिरियदिसं महार्डीवं । तीए रागादिदोषगृहीतानां विषयविषापहृतचेतनानां च सत्त्वानां सुखम् इति ? न किंचित्सुखम्, बहु च दुःखम् । अत्र मम शृणु ज्ञातं दरिय यथा नाम कोऽपि पुरुषो भृशं दारिद्र्यदुःखसन्तप्तः । मुक्त्वा निजं देशं परदेश गन्तुमारब्धः ॥ १७४॥ लङ्घित्वा च देशं ग्रामाकरनगरपत्तनसनाथम् । स्तोकदिवसैर्नवरं कथंचित्पथः प्रभ्रष्टः ।। १७५।। प्राप्तश्च साल-सरल-तमाल-तालालि- बकुल- तिलक-निचुला-ऽङ्कोल्ल-कदम्ब - वञ्जुल - पलाशसल्लीक- तिनिश- निम्ब- कुटजन्यग्रोध- खदिर-सर्जार्जु' नाम्र जम्बूकनिकरगुपिलां दृप्तमृगनाथखरनखरशिखरापातदलित मत्तमातङ्गकुम्भस्थल गलित वहलरुधिरारक्तमुक्ताफल कुसुम प्रकराचितविस्तीभूमिभागां वनकोल- शरभ - वृषभ- पसय- व्याघ्र-तरच्छाच्छभल्ल - जम्बूक- गज- गवय-सिंह- गण्डकादिरुष्टदुष्टश्वापदभीषणां दृप्तवनमहिषयूथ समालोडिताऽशेषपल्वल जलोच्छल दुत्त्रस्तजलचरमुक्तनादरूपी विष से जिनका चित्त हर लिया गया है ऐसे संसार आये 'हुए प्राणियों को सुख कहाँ ? सुख कुछ भी नहीं है । दुःख बहुत है । इस विषय में मेरी जो जानकारी है उसे सुनो जैसे अत्यन्त निर्धनता रूपी दुःख से दुःखी किसी पुरुष ने अपने देश को छोड़कर परदेश में जाना प्रारम्भ किया । ग्राम, आकर, नगर और पत्तन से युक्त देश का उल्लंघन कर थोड़े ही दिनों में वह मार्गभ्रष्ट होकर किसी दूसरे मार्ग पर चलने लगा ।। १७४-१७५।। वह बहुत बड़े वन में पहुँचा जो कि साल, सरल, तमाल, ताड़वृक्षों के समूह, मौलसिरी, तिलक, बेंत, पिश्ता, कदम्ब, अशोक, ढाक, सल्लकी, तिनिश ( शीशम की जाति का एक वृक्ष), नीम, कमल, बरगद, खेर, सर्ज (एक विशेष प्रकार का साल), अर्जुन, आम और जामुनों के समूह से गहन था । गर्वीले सिंह के पैने नाखूनों के अग्रभाग से हाथियों के गण्डस्थल को विदीर्ण करने से झरते हुए अत्यधिक खून से रँगे मुक्ताफलरूपी फूलों के समूह से जहां का विस्तृत भूमिभाग व्याप्त था तथा जो जंगली सुअर, शरभ, साँड़, पसय ( मृग विशेष ), व्याघ्र, लकड़बग्घा, सफ़ेद भालू, शृगाल, हाथी, नीलगाय, सिंह तथा गैंडा आदि क्रुद्ध जंगली जानवरों से भीषण था और गर्वयुक्त जंगली भैसों के समूह के लोटने से समस्त छोटे तालाबों के जल के उछलने से डरे हुए जलचरों द्वारा उस विशाल वन में भ्रमण करते हुए उसने एक छोड़ी हुई आवाज से जहाँ पर दिशाएँ बहरी हो रही थीं, १. तं सोख, २. गामायर, ३. वहि दियहेहि कहूं - ख, ४. सल्लइ - च ५५ तस्थ - ख । Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीमो भयो। य तण्हाछुहाभिभएण दरियवणदुटुसावयरवायग्णणुतथलोयणेणं दोहपहपरिस्समुप्पन्नसे यजलधोयगत्तेणं मूढदिसाचक्क विसमपहखलंतपयसंचारं परिभमतेण तेण दिट्ठो य पलयघणवंदसन्निहो नि?वियाणेयपहियजणवडिउच्छाहो गद्दन्भगज्जियरवावूरिय वियडरष्णुद्देसो मग्गओ तुरियतुरिय धावमाणो उद्धीकउइंडसुंडो वणहत्थि त्ति । तह य निसियकरवालवावडग्गहत्था विगरालवयणकाया भीमहट्टहाससंजुत्ता असियवसणा पुरओ महादुट्ठरक्खसि त्ति । तओ य ते दळूण मच्चुभयवेविरंगो अवलोइयसयलदिसामंडलो पुव्वदिसाए उदयगिरिसिहरसन्निहं निरुद्धसिद्धगंधव्वमिहुणगयण पयारमग्गं महंतं नग्गोहपायवं अवलोइऊण परिचितिउं पयत्तो। कहं ? जइ नाम कहवि एवं रवितुरयखुरग्गछिन्नघणपत्तं । नग्गोहमारहेज्जा छुट्टज्ज तओ गइंदस्स ॥१७६॥ इय चितिऊण भीओ कुससूईभिन्नपायतलमग्गो। वेगेण धाविऊणं वियडं वडपायवं पत्तो ॥१७७॥ वधिरितदिशं महाटवीम् । तस्यां च तृष्णा-क्षुदभिभूतेन दप्तवनदुष्टश्वापदरवाकर्णनोत्त्रस्तलोचनेन दीर्घपथपरिश्रमसमुत्पन्नस्वेदजलधौतगात्रेण मढदिक्चक्रं विषमपथस्खलत्पदसंचारं परिभ्रमता तेन दृष्टश्च प्रलयघनवृन्दसन्निभो निष्ठापितानेकपथिकजनवद्धितोत्साहो गर्दभगजितरवापूरितविकटा. रण्योद्देशो मार्गतः त्वरितत्वरितं धावन् ऊर्वीकृतोद्दण्डशुण्डो वनहस्तीति । तथा च निशितकरवालव्यापताग्रहस्ता विकरालवदनकाया भीमादृट्टहाससंयुक्ता असितवसना पुरतो महादुष्ट राक्षसी इति । ततश्च तां दष्टवा मत्युभयवेपामानाङ्गोऽवलोकितसकलदिग्मण्डलः पूर्वदिशि उदयगिरिशिखरसन्निभं निरुद्धसिद्धगान्धर्वमिथुनगगनप्रचारमार्ग महान्तं न्यग्रोधपादपमवलोक्य परिचिन्तयितु प्रवृत्तः । कथम् ? यदि नाम कथमप्येतं रविरगखुराग्रच्छिन्नधनपत्रम् । न्यग्रोधमारोहेयं मुच्येय ततो गजेन्द्रात् ॥१७६॥ इति चिन्तयित्वा भीतः कुशसूचिभिन्नपादतलमार्गः । वेगेन धावित्वा विकटं वटपादपं प्राप्तः ॥१७७॥ जंगली हाथी देखा। उस समय वह यात्री भूख तथा प्यास से सताया हआ था, गर्वीले जंगली दष्ट जानवरों के शब्दों के सुनने से भयभीत उसकी आँखें थीं, लम्बा रास्ता तय करने के कारण परिश्रम से उत्पन्न पसीने की बूंदों से वह अपने शरीर को धो रहा था, दिशा-भ्रमित था तथा ऊँचा-नीचा रास्ता होने के कारण उसके पैर लडखडा रहे थे। वह हाथी प्रलयकालीन मेघों के समूह के समान था, ठहरे हुए अनेक पथिक लोगों का वह उत्साहवर्द्धन कर रहा था। गधे की गर्जना के समान शब्द से उसने भयंकर जंगलों को परिपूर्ण कर दिया था और दण्ड की तरह सूड़ को ऊपर किये हुए वह मार्ग में जल्दी-जल्दी दौड़ रहा था । हाथ में तीक्ष्ण तलवार लिये हए भयंकर मुख और शरीर वाली, भयंकर अट्टहास करती हुई, काले वस्त्र पहिने हुए उसके सामने थी एक महादुष्ट राक्षसी । अनन्तर उसे देखकर मृत्यु के भय से जिसका शरीर काँप रहा था ऐसे उसने समस्त दिशाओं में देखा और पूर्वदिशा में उदयगिरि के शिखर के समान तथा सिद्धों और गन्धों के जोड़ों को आकाश मार्ग में अवरुद्ध करने वाले बड़े बरगद को देखकर सोचना प्रारम्भ किया सर्य के घोड़ों के खुरों के अग्रभाग से जिसके घने पत्ते तोड़ दिये गये हैं ऐसे इस बरगद के पेड़ पर यदि चढ़ जाऊँ तो हाथी से मुक्त हो जाऊँगा । ऐसा सोचकर वह भयभीत पुरुष जिसके पैरों के तल कुश के सुई जैसे सिरों से बिंध गये थे, वेग से दौड़कर भयंकर बरगद के पेड़ के समीप आया। ॥१७६-१७७t १. चक्क वि०-क-ख, २. वाऊरिय, ३. तुरियं-ख-ग+च, ४. गमण-ख, ५. णवरि-क। Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [समराइयका तं पेच्छिउं विसण्णो नग्गोहं गयणगोयराणं पि। दुल्लंघणिज्जमुत्तुंगखंधमारुहिउमसमत्थो॥१७८॥ ताव वणदुहत्थि मंथरगंडालिजालपामुक्कं । हुलियं समल्लियंत दटुं वडपायवुद्देसं ॥१७॥ अब्भहियभयपवेविरसव्वंगो वुण्ण'वयणतरलच्छं। एत्तो इओ नियंतो पेच्छइ कूवं तणोछन्नं ॥१०॥ अह मरणभीरुएणं नग्गोहासन्नजिण्णकूवम्मि। अप्पा निरावलंबं मुक्को खणजीवलोहेण ॥१८॥ उतंगभित्तिजाओ सरथंभो तम्मि तत्थ य विलग्गो। पडणाभिघायकुविए पेच्छइ य भुयंगमे भीमे ॥१८२॥ चउसु वि तडीसु दरिए विसलवसंवलियनयणसिहिजाले। उन्भडफडाकराले पवेल्लिरंगे डसिउ कामे ॥१३॥ तं प्रेक्ष्य विषण्णो न्यग्रोधं गगनगोचराणामपि । दुर्लङ्घनीयमुत्तुङ्गस्कन्धमारोढुमसमर्थः ॥१७॥ तावद् वनदुष्टहस्तिनं मन्थरगण्डालिजालप्रमुक्तम् । हुलितं (शीघ्र) समालोयमानं दृष्ट्वा वटपादपोद्देशम् ।।१७९।। अभ्यधिकभयप्रवेपमानसर्वाङ्गस्त्रस्तवदनतरलाक्षम् । इत इतो गच्छन् पश्यति पश्यति कूपं तृणोच्छन्नम् ॥१८॥ अथ मरणभीरुकेन न्यग्रोधासन्नजीर्णकपे। आत्मा निरावलम्बं मुक्तः क्षणजीवलोभेन ॥१८१॥ उत्तुङ्गभित्तिजातः शरस्तम्भस्तस्मिन् तत्र च विलग्नः । पतनाभिघातकुपितान् पश्यति च भुजङ्गमान् भीमान् ॥१२॥ चतसृष्वपि तटीषु दृप्तान् विषलवसंवलितनयनशिखिजालान् । उद्भटस्फटाकरालान् प्रवेल्लमानाङ्गान् दशितुकामान् ॥१३॥ ____ आकाशगामी जीवों के द्वारा भी कठिनाई से लाँघने योग्य उस वटवृक्ष को देखकर वह खिन्न हो गया। उसके ऊंचे तने पर चढ़ने में जब वह असमर्थ हो रहा था तभी जिसके चौड़े कपोलस्थल पर भौंरों का समूह उड़ रहा था ऐसे दुष्ट जंगली हाथी को बरगद के पेड़ के समीप शीघ्र आते देखकर अत्यधिक भय से उसका सारा शरीर कांप गया। मुह पर घबड़ाहट छा गयी, आंखें अस्थिर हो गयीं। इधर-उधर जाते हुए उसने तृणों से ढका हुआ एक कुआं देखा । मरण के भय से क्षणमात्र जीवन के लोभ से वटवृक्ष के समीप के ही जीर्ण-शीर्ण कुएं में अपने आपको निरालम्ब छोड़ दिया। ऊँची दीवारों से उत्पन्न सरपत का गुच्छ वहाँ पर लगा हुआ था; वहाँ वह लटक गया और गिरने के आघात से कुपित हुए भयंकर सो को उसने देखा । वे सर्प कुएं के चारों ओर की दीवारों पर लगे थे। उनकी आंखों से विषाग्नि की लपटें निकल रही थीं। उनके फण विशाल और भयावह थे । उनके शरीर हिल रहे थे । वे डसने को उतारू थे। ॥१७८-१८३॥ १. पुण्य-क-म, २, तणोचछइयं-क, ३. डसिऊ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फुकारपवणपिसुणियमवयच्छियवयणमयगरमहो य। दिग्गयकरोरुकायं कसिणं रत्तच्छिवीभच्छं ॥१८४॥ जावेसो सरथंभो ताव महं जीवियं ति चितंतो। अवयच्छइ उद्धमुहो पेच्छइ य सुतिक्खदाढिल्ले ॥१८॥ धवलकसिणे य तुरियं दुवे तहिं मूसए महाकाए । निच्चं वावडवयणे छिदंते तस्स मूलाई ॥१८६॥ ताव वणवारणेण य विज्झाई' नरं अपावमाणेणं। कुविएण विइण्णाइं धणियं नग्गोहरुक्खम्मि ॥१८७॥ संचालियम्मि तम्मि य अवडोवरि वियडसाहसंभूयं । खुडिऊण तम्मि पडियं महुजालं जिण्णकूवम्मि ॥१८॥ तो कुवियदुटुमहुयरिनियरडसिज्जंतसव्वगत्तस्स । सीसम्मि निवडिया कह वि नवरं जोएण महुविंदू ॥१८॥ फुत्कारपवनपिशुनितं प्रसारितवदनमजगरमधश्च । दिग्गजकरोरुकायं कृष्णं रक्ताक्षिवीभत्सम् ॥१८४॥ यावदेष शरस्तम्भस्तावन्मम जीवितमिति चिन्तयन् । अवकासते ऊर्ध्वमुखः पश्यति च सुतीक्ष्णदाढावतः ॥१८॥ धवलकृष्णो च त्वरितं द्वौ तत्र मूषको महाकायौ । नित्यं व्यापृतवदनो छिन्तस्तस्य मूलानि ॥१६॥ तावद् वनवारणेन च अभिघातनानि नरमप्राप्नुवता । कुपितेन वितीर्णानि भृशं न्यग्रोधवृक्षे ॥१८७॥ संचालिते तस्मिश्च अवटोपरिविकटशाखासम्भूतम् । त्रुटित्वा तस्मिन् पतितं मधुजालं जीर्णकूपे ॥१८॥ ततः कुपितदुष्टमधुकरीनिकरदश्यमानसर्वगात्रस्य । शीर्षे निपतिताः कथमपि नवरं योगेन मधुबिन्दवः ॥१६॥ नीचे एक काला और अपनी लाल-लाल आँखों से भयानक लगने वाला जो अपने फुफकार से मानों अपना होना सूचित कर रहा था, अजगर था। उसने अपना मुंह फाड़ रखा था। दिग्गज की सूड की तरह उसका शरीर मोटा था। जब तक यह सरपत का गुच्छ (मरकण्डों का समूह) है तभी तक मेरा जीवन है, ऐसा सोचकर जब वह ऊपर मुह करता है तो देखता है कि पैनी दाढों वाले सफेद और काले, बड़े बड़े शरीर वाले दो चूहे जल्दी जल्दी उस गुच्छ की जड़ को काटने में निरन्तर लगे हुए हैं । जंगली हाथी को जब मनुष्य नहीं मिला तो वह कुपित होकर बड़ी तेजी से वटवृक्ष पर अभिघात करने लगा। वृक्ष के हिलाने पर कुएँ के ऊपर की विकट शाखा में लगा हुआ मधु का छत्ता टूटकर उस पुराने कुएँ में गिर पड़ा। इससे कुपित होकर मधुमक्खियों के समूह ने सारे शरीर को डस लिया। किसी योग से उसके सिर पर कुछ मधुविन्दु पड़े। ।।१८४-१८९॥ १, वेज्झाइ-ख, २, महुबिंदु-च । - Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओयलि'ऊण य वयणं कहवि पविट्ठा उ उत्तिमंगाओ। खणमासाइउमिच्छइ पुणो वि अन्ने निवडमाणे ॥१०॥ अगणेउमयगरोरगकरिमूसयविलयमहुयरिभयाइं। महुविदुरसासायणगेहिवसा हरिसिओ जाओ॥१६१॥ भवियजणमोहविउडणपच्चलमच्चत्थमियमुदाहरणं । परिगप्पियमेयस्स य उवसंहारं निसामेह ॥१९२॥ जो पूरिसो सो जीवो चउगइभमणं च रण्णपरियडणं । वणवारणो य मच्चू निसारिं जाण तह य जरं ॥१९॥ वडरुक्खो उण मोक्खो मरणगइंदभयवज्जिओ नवरं । आरुहिउं विसयाउरनरेहि न य सक्कणिज्जो त्ति ॥१९४॥ मणुयत्तं पुण कूवो भुयंगमा तह य होंति उ कसाया। खइओ जेहि मणुस्सो कज्जाकज्जाई' न मुणेइ ॥१९॥ अवतीर्य च वदनं कथमपि प्रविष्टास्तूत्तमाङ्गात् । क्षणमास्वादितुमिच्छति पुनरपि अन्यान् निपततः ॥१०॥ अगणयित्वाऽजगरोरगकरिमषकविलयमधुकरीभयानि । मधुबिन्दुरसास्वादनगृद्धिवशाद् हर्षितो जातः ॥१९॥ भविकजनमोहविकुटनप्रत्यलमत्यर्थमिदमुदाहरणम् । परिकल्पितमेतस्य च उपसंहारं निशामयत ॥१९२॥ यः पुरुषः स जीवः चतुर्गतिभ्रमणं चारण्यपर्यटनम् । वनवारणश्च मृत्युनिशाचरी जानीहि तथा च जराम् ॥१६३।। वटवृक्षः पुनर्मोक्षो मरणगजेन्द्रभयवजितो नवरम् । आरोढ विषयातुरनरैः न च शकनोय इति ॥१६४।। मनुजत्वं पुनः कूपो भुजङ्गमास्तथा च भवन्ति तु कषायाः। खादितो यैर्मनुष्यः कार्याकार्यं न जानाति ॥१६॥ कषाएं हैं जिनके द्वारा खाया जाकर मनुष्य कार्य तथा अकार्य को नहीं जानता है। ॥१८०-१९२ ये बिन्दु सिर से उतरकर किसी प्रकार मुंह में पड़े। वह क्षण भर के लिए उनका तथा बाद में गिरने वाली बूदों का स्वाद लेना चाहने लगा। अजगर, साँप, हाथी और चूहों द्वारा किये जाते ध्वंस और मधुमक्खियों के समूह के भय को न मानता हुआ वह मधुबिन्दु के आस्वादन को लालसा से हर्षित हो गया । भव्यजनों के मोह को नष्ट करने के लिए यह कल्पित उदाहरण अत्यधिक अर्थ से भरा हुआ है । अब इसके उपसंहार को सुन लीजिए । जो वह पुरुष है वह जीव है । जंगल में भ्रमण करना, चारों गतियों में भ्रमण करना है। जंगली हाथी मत्य है और वृद्धावस्था को निशाचरी जानना चाहिए । वटवृक्ष मोक्ष है जो कि मरणरूपी हाथी के भय से रहित है, उस पर विषयों के प्रति आतुर मनुष्य चढ़ने में समर्थ नहीं हो पाते हैं। कुआँ मनुष्यभव है और सर्प कषायें हैं जिनके द्वारा खाया जाकर कार्य-अकार्य नहीं जान पाता है ॥ १६०.१९५॥ १, ओयरि-ख, २. कज्जाकजजाइ-च । Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीमो भयो] १३6 . जो वि य पुण सरथंभो सो जीये जेण जीवइ जीवो। तं किण्हधवलपक्खा खणंति दढमुंदुरसमाणा ॥१९६॥ जाओ य महुयरीओ डसंति तं ते उ वाहिणो विविहा। अभिभूओ जेहि नरो खणं पि सोक्खं न पावेइ ॥१९७॥ घोरो य अयगरो जो सो नरओ विसयमोहियमणो ति। पडिओ उ जम्मि जीवो दुक्खसहस्साई पावेइ ॥१९८॥ महुविदुसमे भोए तुच्छे परिणामदारुणे धणियं । इय वसणसंकडगओ विबुहो कह मद्दइ भोत्तुं जे ॥१६॥ तो भे भणामि सावय ! विसयसुहं दारुणं मुणेऊण । चवलतडिविलसियं पिव मणुयत्तं भंगुरं तह य ॥२०॥ सुयणसमागमसोक्खं चवलं जोव्वणं पि य असारं। सोक्खनिहाणम्मि सया धम्मम्मि मई दढं कुणसु ॥२०१॥ योऽपि च पुनः शरस्तम्बः स जीवितं येन जीवति जीवः । तत्कृष्णधवलपक्षौ खनतो दृढमुन्दुरसमानौ ॥१९६॥ जाताश्च मधुकर्यो दशन्ति तं, ते तु व्याधयो विविधाः । अभिभूतश्च यैर्नरो क्षणमपि सौख्यं न प्राप्नोति ।।१९७॥ घोरश्चाजगरो यः स नरको विषयमोहितमना इति । पतितस्तु यस्मिन् जीवो दुःखसहस्राणि प्राप्नोति ॥१६॥ मधुबिन्दुसमान् भोगान् तुच्छान् परिणामदारुणान् भृशम् । इति व्यसनसंकटगतो विबुध; कथं काङ्क्षति भोक्तुं यान् ॥१६॥ ततो भवन्तं भणामि श्रावक ! विषयसुखं दारुणं ज्ञात्वा। चपलतडिविलसितमिव मनुजत्वं भङ्गुरं तथा च ॥२०॥ सुजनसमागमसौख्यं चपलं यौवनमपि चासारम् । । सौख्यनिधाने सदा धर्मे मतिं दृढं कुरु ॥२०१॥ जो सरपत का गुच्छ है वह जीवन है जिससे प्राणी जीवित रहता है । काले और सफेद चूहे के समान कृष्ण तथा शुक्ल पक्ष दृढ़ता से आयु की जड़ें खोद रहे हैं ! जो अनेक मधुमक्खियाँ काटती हैं, शरीर में होने वाली अनेक प्रकार की व्याधियाँ हैं, जिनसे अभिभूत होकर मनुष्य क्षण भर भी सुख को नहीं पाता है। जो घोर अजगर है वह नरक है । विषयों से जिनका मन मोहित है ऐसे जीव उसमें पड़कर हजारों दुःख प्राप्त करते हैं । अत्यन्त दारुण परिणाम वाले तुच्छ भोग मधुबिन्दुओं के समान हैं। इसलिए विवेकशील मनुष्य आसक्ति के दुःख में फंसकर क्यों उन्हें भोगना चाहे ? अतः हे श्रावक ! तुझसे कहता हैं कि सांसारिक विषयसख को दारुण. मनुष्यत्व को चंचल बिजली के समान, सुजनों के समागम रूप सुख को विनाशशील तथा चंचल यौवन को असार जानकर सुख के सागररूप धर्म में सदा दृढ़मति करो ॥१६६-२०१।। १. दुक्खसहस्साइ-च, २. ता भो-ख, ३. मुणेउणं Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [समराइज्यकहा सीहकुमारेण भणियं - भयवं ! केरिसो धम्मोति । भगवया भणियं - सुण, खमाइगो । भणियं च १३५ खंती य मद्दवज्जवमोत्ती तवसंजमे य बोद्धव्वे । सच्चं सोयं आकिंचनं' च बंभं च जइधम्मो ॥ २०२ ॥ तत्थ खंती नाम सम्मन्नाणपुथ्वगं वत्थुसहावालोयणेण कोहस्स अणुदयो,' उदयपत्तस्स वा विफलीकरणं । एवं मद्दवया वि माणस्स अणुदओ, उदयपत्तस्स वा विफलीकरणं । एवमज्जवया वि मायाए अणुदयो,' उदयपत्ताए वा विफलीकरणं । एवं मुत्ती वि लोहस्स अगुदयो,' उदयपत्तस्स वा विफलीकरणं ति । तवो पुण दुविहो - बाहिरो अभितरो य । बाहिरओ अणसणाइगो । भणियं चअणसण मूणोरिया वित्तीसंखेवओ रसच्चाओ । कायको संलीणया य वज्भो तवो होइ ॥ २०३ ॥ 1 अभितरओ पुण पायच्छित्ताइओ । तं जहा ― सिंहकुमारेण भणितम् - भगवन् ! कीदृशो धर्म इति । भगवता भणितम् - शृणु, क्षमादिकः । भणितं च - क्षान्तिश्च मार्दवार्जवमुक्तितपः संयमाश्च बोद्धव्याः । सत्यं शौचमाकिञ्चन्यं च ब्रह्म च यतिधर्मः ॥ २०२ ॥ तत्र क्षान्तिर्नाम सम्यग्ज्ञानपूर्वकं वस्तुस्वभावालोचनेन क्रोधस्यानुदयः, उदयप्राप्तस्य वा विफलीकरणम् । एवं मार्दवमपि मानस्यानुदयः, उदयप्राप्तस्य वा विफलीकरणम् । एवं आर्जवमपि मायाया अनुदय:, उदयप्राप्ताया वा विफलीकरणम् । एवं मुक्तिरपि लोभस्यानुदयः, उदयप्राप्तस्य वा विफलीकरणम् । तपः पुनर्द्विविधम्-- बाह्यः अभ्यन्तरश्च । बाह्योग्नशनादिकः । भणितं चअनशनमूनोदरिका वृत्तिसंक्षेपो रसत्यागः । कायक्लेशः संलीनता च बाह्य तपो भवति ॥ २०३ ॥ अभ्यन्तरः पुनः प्रायश्चित्तादिकः । तद् यथा सिंहकुमार ने कहा - "भगवन् ! धर्म कैसा है ?" भगवान् ने कहा, "सुनो क्षमादिक धर्म हैं । कहा भी है-क्षमा, मार्दव, आर्जव, मुक्ति, (त्याग) तप, संयम, सत्य, शौच, आकिचग्य तथा ब्रह्मचर्य को यतिधर्म जानना चाहिए ॥ २०२ ॥ सम्यग्ज्ञानपूर्वक वस्तुस्वभाव को जानकर क्रोध का उदय न होना क्षान्ति (क्षमा) है अथवा क्रोध उदय में आये तो उसको विफल कर देना क्षमा है । मान का उदय न होना अथवा उदय में आये हुए मान को विफल कर देना मार्दव है । इसी प्रकार आर्जव भी माया का रदय न होना अथवा उदय में आयी हुई माया को विफल कर देना है | लोभ का उदय न होना अथवा उदय में आये हुए को विफल कर देना होता है-बाह्य और अन्तरंग | मुक्ति है । तप दो प्रकार का बाह्य तप अनशनादिक हैं। कहा भी है अनशन, ऊनोदर्य, वृत्तिसंक्षेप, रसपरित्याग, कायक्लेश और संलीनता - ये बाह्य तप हैं । ॥२०३॥ प्रायश्चित्तादि आभ्यन्तर तप हैं। यथा 2. आगिचणं - क, २, अणुदओ-च, ३. अणुदओ, ४ अणुदओ - च, Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोजो भवो ] . १३४ पायच्छित्तं विणओ वेयावच्चं तहेव सज्झाओ। झाणं उस्सग्गो वि य अभितरओ तवो होइ ॥२०४॥ संजमो य सत्तरसविहो । भणियं च पंचासववेरमणं पंचिंदियनिग्गहो कसायजओ। वंडत्तिगविरई संजमो उ इय सत्तरसभेओ ॥२०॥ सच्चं पुण निरवज्जभासणं । सोयं च संजमं पइ निरुवलेवया । आकिंचणं च धम्मोवयरणाइरेगेणमपरिग्गया । बंभं च अट्ठारसविहाऽबंभवज्जणं ति' । एसो एवंभूओ जइधम्मो त्ति। एयं च सोऊण आविब्भूयसम्मत्तपरिणामेण भावओ पवन्नसावयधम्मेण भणियं सीहकुमारेणंभगवं! सोहणो जइधम्मो। एयं काउमसमत्थेण ताव कि कायव्वं ति ? धम्मघोसेण भणियं--'सावयत्तणं' । केरिसं तयं ति ? कहियं सम्मत्तमाइयं । पवन्नो दव्वओ वि। तओ अप्पाणं कयकिच्दं मन्नमाणो कंचि बेलं पज्जुवासिऊण धम्मघोसं वंदिऊण य सविणयं पविट्ठो नयरं । साहिओ तेण वुतंतो प्रायश्चित्तं विनयो वैयावृत्यं तथैव स्वाध्यायः ।। ध्यानमुत्सर्गोऽपि च अभ्यन्तरः तपो भवति ॥२०४॥ संयमश्च सप्तदशविधः । भणितं च पञ्चास्रवविरमणं पञ्चेन्द्रियनिग्रहः कषायजयः । . दण्डत्रिकविरतिः संयमस्तु इति सप्तदशभेदः ॥२०॥ सत्यं पुननिरवद्यभाषणम् । शौचं च संयम प्रति निरुपलेपता । आकिञ्चन्यं च धर्मोपकरणातिरेकेणापरिग्रहता। ब्रह्म च अष्टादशविधाऽब्रह्मवर्जनमिति । एष एवंभूतो यतिधर्म इति। एवं च श्रुत्वाऽविर्भूतसम्यक्त्वपरिणामेन भावतः प्रपन्नश्रावकधर्मेण भणितं सिंहकुमारेणभगवन् ! शोभनो यतिधर्मः । एवं कर्तुमसमर्थेन तावत् किं कर्तव्यम् इति ? । धर्मघोषेण भणितम्श्रावकत्वम्। कीदृशं तदिति ? कथितं सम्यक्त्वादिकम् । प्रपन्नो द्रव्यतोऽपि । तत आत्मानं कृतकृत्यं मन्यमानः कांचिद् वेलां पर्युपास्य धर्मधोषं वन्दित्वा च सविनयं प्रविष्टो नगरम् । प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान और उत्सर्ग-ये आभ्यन्तर तप हैं ॥२०४॥ संयम सत्रह प्रकार का होता है। कहा भी है पांच आस्रवों से विरक्त होना, पाँच इन्द्रियों को वश में करना, (चारों) कषायों को जीतना, तीन दण्डों (मन-वचन-काय के अशुभ-व्यापार) से विरति- इस प्रकार संयम के सत्रह भेद हैं ॥२०॥ निर्दोष वचन बोलना सत्य है, संयम के प्रति निरुपलेपता (अतिचारशून्यता) शौच है। धर्म के उपकरण को छोड़कर अन्य का परिग्रह न करना आकिंचन्य है । अठारह प्रकार के अब्रह्म का त्याग करना ब्रह्मचर्य है। इस प्रकार यह यति धर्म हुआ। यह सुनकर जिसे सम्यक्त्व भाव उत्पन्न हो गया है, ऐसे भाव रूप से श्रावक धर्म को प्राप्त सिंहकुमार में कहा, "भगवन् ! यतिधर्म सुन्दर है। इसका आचरण करने में यदि कोई असमर्थ हो तो क्या करें ?" धर्मघोष ने कहा, "श्रावकधर्म का पालन करो।" सिंहकुमार ने पूछा, "वह कैसा है ?" धर्मघोष ने सम्यक्त्वादि का निरूपण किया। तब वह द्रव्यरूप से भी श्रावक हो गया । अनन्तर अपने आपको कृतकृत्य मानता हुआ कुछ समय तक धर्मघोष की पर्युपासना (सान्निध्यलाम) कर विनयपूर्वक प्रणाम कर नगर में प्रविष्ट हुआ। उसने १. त्ति। Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० [समराइचकहा कुसुमावलीए । पवन्ना' य एसा वि कहंचि कम्मक्खओवसमओ सावयधम्म । अणुदियहं च धम्मघोसगुरुपज्जुवासणपराणं अइक्कतो मासो। भावियाणि जिणधम्मे । अन्नया य पुरिसदत्तो राया अमियतेयगुरुसमीवे सोऊण धम्म अहिसिंचिऊण रज्जे सोहकुमारं संजायसंवेगो सह महादेवीए सिरिकंताए पवन्नो मुत्तिमग्गं। सीहकुमारो वि धम्माधम्मववत्थपरिपालणरओ सयलजणमणाणंदयारी अणरत्तसामंतमंडलो दोणाणाहकिविणजणोवयारसंपायणरई जहोइयगुणजुत्तो रायरिसी समुवजाओ तिा एवं च अच्चंताणुरत्तं च पियपणइणि पिव मेइणि भुजंतस्स अइक्कंतो कोइ कालो। एत्थंतरम्मि सो अग्गिसम्मतावसदेवो तओ विज्जुकुमारकायाओ चविऊणं संसारमाहिडिय अणंतरभवे य किपि बालसवविहाणं काऊण मोतूण तं देहं पुवकम्मवासणाविवागदोसेण समुप्पन्नो कुसुमावलीए कच्छिसि । दिट्ठो तीए सुमिणओ। जहा-पविट्ठो ने उयरं भुयंगमो, तेणं च निग्गच्छिऊण डक्को राया निवडिओ सिंघासणाओ। तं च दठूण ससज्झसा विय विउद्धा कुसुमावली । अमंगलं ति कलिऊण न साहिओ तीए दइयस्स। पवड्डमाणगम्भा य तद्दोसओ चेव न वहु मन्नए नरवई। राया कथितश्च तेन वृत्तान्तः कुसुमावल्याः । प्रपन्ना च एषाऽपि कथंचित् कर्मक्षयोपशमतः श्रावकधर्मम । अनदिवसं च धर्मघोषगुरुपर्युपासनपरयोरतिक्रान्तो मासः। भावितौ जिनधर्मे । अन्यदा च पुरुषदत्तो राजा अमिततेजोगुरुसमीपे श्रुत्वा धर्म अभिषिच्य राज्ये सिंहकुमारं संजातसंवेगः सह महादेव्या श्रीकान्तया प्रपन्नो मुक्तिमार्गम् । सिंहकुमारोऽपि धर्माधर्मव्यवस्थापरिपालनरतः सकलजनमनआनन्दकारी अनुरक्तसामन्तमण्डलो दीनानाथकृपणजनोपकारसम्पादन रतिर्यथोचितगुणयुक्तो राजर्षिः समुपजात इति । एवं चात्यन्तानुरक्तां च प्रियप्रणयिनीमिव मेदिनीं भजतोऽतिक्रान्तः कोऽपि कालः। अत्रान्तरे सोऽग्निशर्मतापसदेवस्ततो विद्युत्कुमारकायाच्च्युत्वा संसारमाहिण्ड्य अनन्तरभवे च किमपि बालतपोविधानं कृत्वा मुक्त्वा तं देहं पूर्वकर्मवासनाविपाकदोषण समुत्पन्नः कुसुमावल्याः कक्षौ । दष्टस्तया स्वप्नः । यथा-प्रविष्टो मे उदरं भुजङ्गमः, तेन च निर्गत्य दष्टो राजा निपतितो सिंहासनात, तं च दष्ट्वा साध्वसा इव विबुद्धा कुसुमावली। अमङ्गलमिति कलित्वा न कथितस्तया दयितस्य । प्रवर्धमानगर्भा च तद्दोषत एवन बहु मन्यते नरपतिम् । राजा चाधिकं स्नेहपरवशः । कुसुमावली से वृत्तान्त कहा । कथंचित् कर्म के क्षयोपशम से यह भी श्रावकधर्म को प्राप्त हई। प्रतिदिन धर्मघोष गुरु की उपासना करते हुए एक मास बीत गया। वे दोनों जिनधर्म से अनुभावित होते रहे । एक बार राजा पुरुषदत्त ने अमिततेज गुरु के समीप धर्म सुनकर राजसिंहासन पर सिंहकुमार का अभिषेक कर (संसार के प्रति) भयभीत होकर महादेवी श्रीकान्ता के साथ मोक्षमार्ग का अवलम्बन किया। सिंहकुमार भी यथोचित गुणों से युक्त हो राजर्षि हो गये । वे धर्माधर्म की व्यवस्था के परिपालन में रत रहते थे। समस्त लोगों के मन को आनन्द देते थे। सामन्त-समूह को अनुरक्त करते थे। दीनों, अनाथों तथा दुःखी मनुष्यों के उपकार में उन्हें अनुराग था । इस प्रकार प्रिय प्रेमिका के समान अत्यन्त अनुरक्त पृथ्वी का भोग करते हुए कुछ समय व्यतीत हो गया। इसी बीच वह अग्निशर्मा तापस देव उस विद्युत्कुमार के शरीर से च्युत होकर संसार में भ्रमण करता हा अनन्तर भव में कुछ बालतप तपकर उस देह को छोड़कर पूर्वकर्मों के संस्कार के फलरूप दोष से कुसुमावली के गर्भ में आया । कुसुमावली ने स्वप्न में देखा-मेरे उदर में सर्प प्रवेश कर रहा है, उसने निकल कर राजा को इस लिया और राजा सिंहासन से गिर पड़ा। उसे देखकर घबड़ाती हुई-सी कुसुमावली जाग उठी। अमंगल मानकर उसने पति से नहीं कहा। बढ़ते हुए गर्भ के दोष से वह राजा को अधिक नहीं मानती थी। १. पवन्नो-च २. धम्मे-ख, Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीमो भवो य अहियं सिणेहपरवसो। भणिया य परियणेणं 'सामिणि ! न जुत्तमेयं ति। तीए भणियं-'किमहं करेमि' ? साहियं परियणेणं-जहा देवं न बहु मन्नसि ति। तीए भणियं-नूणं एस गब्भदोसो भविस्सइ । अन्नहा कहमहं अज्जउत्तं न बहु मन्नेमि । अन्नया समुप्पन्नो से दोहलो, जहा - इम्मस्स चेव राइणो अंताणि खाइज्ज ति। चितियं च तीए-पाधयारी मे एस गब्भो, ता अलं इमिणा। इत्थीसहावओ य भत्तारनेहओ य समुप्पन्नो से ववसाओ, जहा पाडेमि एवं ति। तओ आलोचिऊण पहाणपरियणं कज्जगरुययाए य अणुन्नाया तेण गब्भपरि साउणं काउमारद्धा। न य सो निकाइयकम्मदोसेण पडइ त्ति । तओ सा अणेगोसहपाणणं डोलयासंपत्तीए य परिदुब्बला जाया। पुच्छ्यिा य राइणा-संदरि ! कि ते न संपज्जइ, केण वा ते खंडिया आणा, किं वा मए पडिकलमासेवियं, जं निवेएण तुम अप्पोयगा विव कुमुइणी' एवं झिज्जसि ति? तओ पडिस्यियलद्धनेह भणियं कुसुमावलीए-अज्जउत्त ! ईचिसो मे निवेओ, जेण चितेमि 'अत्ताणयं वावाएमित्ति। राइणा भणियं-सुंदरि ! कि निमित्तो ति? कुसुमावलीए भणिवं-अज्जउत्त ! भागधेयाणि मे पुच्छसु त्ति भणिऊण वाहजलभरियलोयणा सगग्गया संजुत्ता । तओ राइणा 'महंतो से निवेओ, ता अलं भणिता च परिजनेन-स्वामिनि ! न युक्तमेतदिति । तया भणितम्-किमहं करोमि ? कथितं परिजनेन-यथा देवं न बहु मन्यसे इति । तया भणितम् ---ननमेष गर्भदोषो भविष्यति ; अन्यथा कथमहमार्यपुत्रं न बहु मन्ये । अन्यदा समुत्पन्नस्तस्या दोहदः, यथा-अस्यैव राज्ञोऽन्त्राणि खादामोति चिन्तितं च तया-पापकरी मम एष गर्भः, ततोऽलमनेन। स्रीस्वभावतश्च भर्तृ स्नेहतश्च समुत्पन्नस्तस्य व्यवसायः, यथा पातयाम्येतमिति । तत आलोच्य प्रधानपरिजनं कार्यगुरुतयाऽनुज्ञाता तेन गर्भपरिशाटनं कर्तुमारब्धा । न च स निकाचितकर्मदोषेण पततीति । ततः साऽनेकौषधपानेन दोहदासम्प्राप्त्या च परिदुर्बला जाता। पृष्टा च राज्ञा-सुन्दरि ! किं तेन संपद्यते, केन वा तव खण्डिताज्ञा, किं वा मया प्रतिकलमासेवितम्, यद् निदेन त्वमलोदका इव कुमुदिनी एवं क्षीयसे इति । ततः प्रतिहृदयलब्धस्नेहं भणितं कुसुमावल्या-आर्यपुत्र ! ईदृशो मे निर्वेदः, येन चिन्तयामि ‘आत्मानं व्यापादयामि' इति। राज्ञा भणितम्-सुन्दरि ! किं निमित्तं इति ? कुसुमावल्या भणितम्-आर्यपुत्र ! भागधेयानि मम पच्छ इति भणित्वा वाष्पजलभतलोचना सगद्गदा संवत्ता । ततो राज्ञा 'महान् राजा अत्यधिक स्नेह से परवश था। सेवकों ने कहा, "स्वामिनि ! यह ठीक नहीं है।" उसने कहा, "मैं क्या करती हूँ?" सेवकों ने कहा, "आप महाराज को अधिक नहीं मानती हैं।"उसने कहा, "निश्चित रूप से यह गर्भ का दोष होगा अन्यथा आर्यपुत्र को कैसे अधिक न मानती।" एक बार उसे दोहला हुआ कि इसी राजा की आँतों को खाऊँ । उसने बिचार किया --मेरा यह गर्भ पापी है अत: इससे क्या लाभ ? स्त्री स्वभाव और पति के प्रति स्नेह होने से उसने निश्चय किया कि इसे गिरा हूँ। तब प्रधान सेविकाओं से विचार-विमर्श कर उनकी सम्मति से गर्मपात करना प्रारम्भ किया। तीव्रकर्मों के बन्ध के दोष से वह गर्भ नहीं गिरा । तब वह अनेक औषधियों के पीने और दोहले के पूरे न होने के कारण अत्यधिक दुर्बल हो गयी। राजा ने पूछा, "सुन्दरि ! तेरा क्या कार्य पूरा नहीं होता है ? किसने तुम्हारी आज्ञा खण्डित की अथवा मैंने क्या प्रतिकूल कार्य किया जिससे दुःखी होकर थोड़े जलवाली कुमुदिनी के समान क्षीण हो रही हो ?" तब हार्दिक स्नेह प्राप्त कर कुसुमावली ने कहा, "मेरा विषाद ऐसा है जिससे सोचती हूँ कि अपने आपको मार डालू।" राजा ने कहा, "सुन्दरि ! इसका क्या कारण है ?" कुसुमावली ने कहा, "आर्यपुत्र ! मेरे भाग्य से पूछो"-ऐसा कहकर आँखों में आँसू भरकर विह्वल हो गयी। तब राजा ने 'इसका १. सिणेहपीडिओ-ख, २. थीसहावओ-ख, ३. कमलिपी-ख। Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ [ समराइच्चकहा ताव इमिणा कहाए चेव, अहं एयं 'अक्खिवामि ति चितिऊण अक्खित्ता कहा, कओ अन्नो पसंगो । पुणो य से समाहूओ मयणलेहापमुहो परियणो, सबहुमाणं च भणिओ राइणा । कि जुत्तं तुम्हाणं सुणिय निबंधणाणं पि एवं कसिणपक्खचंदलेहं व परिखिज्जमाणि देवि उवेक्खिउं ति । न य असम्भ वत्युविसओ एस निव्वेओ, अओ जीवलोयसारभूया मे देवी । किं च तं वत्युं जं मे पाणेसु धरतेसु चैव देवोए न संपज्जइति । मयणलेहाए भणियं - महाराय ! एवमेयं; नवरमित्थीयणसुलहो अविवेगो चैव केवलं एत्थ अवरज्झइ । ता सुणउ महाराओ । महाराय ! न एयमियाणि पि कहिउं पारीयs, तहा वि 'न अन्नो उवाओ' त्ति काऊण कहीयइ । राइणा भणियं - अणुरूवमेयं संभमस्स; जं उवावसज्यं तं सयमेव कीरइ, इयरं निवेइयइति, ता कहेउ भोई, को एत्थ परमत्यो त्ति ? तओ मयणलेहाए ससज्झसाए विय आचिक्खिओ गन्भसंभवाओ दोहलयदोसेण गब्भसाडणावसाणो ववहारोति । राइणा चितियं-अहो ! से देवीए ममोवरि असाहारणो नेहो, जेणावच्चजम्मं पि न बहु मन्नइ त्ति । असंपायणेणं च दोहलयस्स मा गब्भविवत्ती से भविस्सइ त्ति उवायं चितेमि । 1 तस्य निर्वेदः, ततोऽलं तावदनया कथया एव, अहमेतामाक्षिपामि' इति चिन्तयित्वाऽऽक्षिप्ता कथा, कृतोऽन्यः प्रसङ्गः । पुनश्च तस्या समाहूतो मदनलेखाप्रमुखः परिजनः, सबहुमानं च भणितो राज्ञा । किं युक्तं युष्माकं श्रुतनिबन्धनानामपि एवं कृष्णपक्षचन्द्रलेखामिव परिखिद्यमानां देवीमुपेक्षितुमिति ? न चासाध्यवस्तुविषय एव निर्वेदः, यतो जीवलोकसारभूता मे देवी । किं च तद् वस्तु, यन्मया प्राणेषु धार्यमाणेषु एव देव्या न सम्पद्यते इति । मदनलेखया भणितम् - महाराज ! एवमेतद् नवरं स्त्रीजनल भोऽविवेक एव केवलमत्रापराध्यति । तत शृणोतु महाराजः । महाराज ! नैतदिदानीमपि कथयितुं पार्यते, तथाऽपि नान्य उपाय इति कृत्वा कथ्यते । राज्ञा भणितम् अनुरूपमेतत् सम्भ्रमस्य यदुपायसाध्यं तत्स्वयमेव क्रियते, इतरद् निवेद्यते इति । ततः कथयतु भवती, कोऽत्र परमार्थ इति ? ततो मदनलेखया ससाध्वसयेव आख्यातो गर्भसम्भवाद् दोहददोषेण गर्भशातनावसानो व्यवहार इति । राज्ञा चिन्तितम् - अहो ! तस्या देव्या ममोपरि असाधारणः स्नेहः, येनापत्यजन्मापि न बहु मन्यते इति । असम्पादनेन च दोहदस्य मा दुःख बड़ा है, अतः इस कथा से क्या ? मैं इससे यह कहता हूँ'--- ऐसा विचार कर वह चर्चा बन्द की और दूसरा प्रसंग उपस्थित कर दिया । राजा ने रानी के मदनलेखा आदि प्रमुख परिजनों को बुलाया। राजा ने सम्मानपूर्वक कहा, "आप जैसे शास्त्रज्ञों को भी कृष्णपक्ष के चन्द्रमा की रेखा के समान क्षीण होती हुई देवी की उपेक्षा करना क्या योग्य है ? इसका दुःख ऐसा नहीं है, जिसका विषय असाध्य वस्तु हो, क्योंकि मेरी रानी प्राणिलोक में सारभूत है । वह वस्तु क्या है जो मेरे प्राण धारण करने पर भी महारानी को प्राप्त नहीं होती है ?" मदनलेखा ने कहा, "महाराज ! यह ऐसा ही है, स्त्रीजनों के लिए सुलभ अविवेक ही यहाँ अपराध करा रहा है। अतः महाराज सुनिए । महाराज ! यह कह नहीं सकती, तथापि अन्य उपाय नहीं है, अतः कहा जा रहा है ?” राजा ने कहा, "तुम्हारी घबड़ाहट उचित है कि जो उपाय से साध्य है, उसे स्वयं करते हैं और जो उपाय से साध्य नहीं है। उसका दूसरे से निवेदन करते हैं । अतः तुम कहो, वास्तविकता क्या है ?" तब मदनलेखा ने डरते हुए गर्भ की उत्पत्ति से लेकर दोहले का दोष तथा गर्भ गिराने के उपाय सम्बन्धी सारे वृत्तान्त को कहा । राजा ने सोचा-"ओह ! उस देवी का मुझ पर असाधारण स्नेह है, जिससे सन्तानोत्पत्ति को भी अधिक नहीं मानती है । दोहला १. अक्खिप्पामि च Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोमो भयो। १४३ विसज्जिओ य तेण 'जमहं कालोचियं भणिस्सामि, तं तहा कायस्वं' ति भणिऊण देवीपरियणो। सद्दाविओ मइसागरो नाम महामंती। सिट्ठो इमस्स एस वृत्तातो। चितियं च तेणं,' जुत्तं देवीए बवसियं । अहवा मा से इमिणा उवाएण तीसे वि देहपीडा भविस्सइ । ता एस ताव एत्थ उवाओबक्खियस्स राइणो कारिमा अता पोट्टवाहि दाऊण नेत्तपट्टाइणा सुसिलिट्ठा य करिय पेच्छमाणीए चेव देवीए कडिऊण दिज्जति । पच्छा य पसूयाए चेव गब्भमंतरेण चितिस्सामो त्ति चितिऊण निवेइओ नरवइस्स निययाहिप्पाओ। बहुमन्निओ राइणा । भणिया य मइसायरेण देवी-सामिणि ! तहा कडढेमि देवस्स अ'ते, जहा एसोन विवज्जह त्ति गभसहावकरत्तणेण पडिसयं तीएक सो उवाओ, संपन्नो दोहलो। पच्छा विसायमुवगयाए दरिसिओ से राया। तओ समासत्था एसा। भणिया य मंतिणा-सामिणि ! पढमपस्याए न ताव देवस्स निवेयणीओ गन्भजम्मो, अवि य ममं ति; पच्छा जहोचियं करिस्सामि ति । पडिसुयं तीए। अन्नया उचियसमए परिणयप्पाए दियो गर्भविपत्तिः तस्याभद् इति उपायं चिन्तयामि । विसर्जितश्च तेन 'यदहं कालोचितं भणिष्यामि, तत्तथा कर्तव्यम्' इति भणित्वा देवीपरिजनः । शब्दायितो मतिसागरो नाम महामन्त्री। शिष्ट एतस्य एष वृत्तान्तः । चिन्तितं तेन, युक्तं देव्या व्यवसितम् । अथवा मा तस्या अनेनोपायेन तस्या अपि देहपीडा भूत् । तत एष तावदत्रोपायः-बुभुक्षितस्य राज्ञः कृत्रिमानन्त्रान् पेट्टबहिर्दत्वा नेत्रपटादिना सुश्लिष्टांश्च कृत्वा पश्यन्त्या एव देव्या कर्षित्वा दीयन्ते । पश्चात्प्रसूताया एव गर्भमन्तरेण चिन्तयिष्याम इति चिन्तयित्वा निवेदितो नरपतेनिजकाभिप्रायः । बहु मतो राज्ञा। भणिता च मतिसागरेण देवी-स्वामिनि ! तथा कर्षयामि देवस्यान्त्रान् यथा एष न विपद्यते इति । गर्भस्वभावरत्वेन प्रतिश्रुतं तया। कृतः स उपायः, सम्पन्नो दोहदः । पश्चाद् विषादमुपगताया दर्शितस्तस्या राजा। ततः समाश्वस्ता एषा. भणिताच मन्त्रिणा-स्वामिनि । प्रथमसतान तावद देवस्य निवेदनीयं गर्भजन्म, अपि च ममेति; पश्चाद् यथोचितं करिष्यामि इति । प्रतिश्रतं तया । अन्यदा उचितसमये परिणतप्राये दिवसे प्रसूता देवी. शब्दायितो तया मतिसागरः । भणिता पूरा न होने पर उसके गर्भ को विपत्ति न हो अत: उपाय सोचता हूँ। जो समयोचित कहूँ, तुम लोग वैसा करना, ऐसा कहकर उसने महारानी के सेवकों को विदा कर दिया। राजा ने मतिसागर नामक महामन्त्री को बुलाया। उससे यह वृत्तान्त कहा । उसने विचार किया देवी का निश्चय ठीक है अथवा इस उपाय से रानी के ही शरीर को पीडा न हो। यह उपाय है कि भूखे राजा के पेट के बाहर कृत्रिम आंतों को नेत्रपटादि से अच्छी तरह बांधकर महारानी के देखते-देखते ही खींचकर दे दी जायें। अनन्तर गर्भ का प्रसव हो जाने पर आगे सोचेंगे, ऐसा विचारकर राजा से अपना अभिप्राय निवेदन किया । राजा ने उसे बहुमान दिया । मतिसागर ने महारानी से कहा-"स्वामिनि ! महाराज की आँतों को इस प्रकार खीचता हूँ जिससे इन्हें कष्ट नहीं होगा।” गर्भ के स्वभाव की करता से उसने यह स्वीकार किया। मतिसागर मन्त्री ने वह उपाय किया। दोहला पूरा हो गया । पश्चात् विषाद को प्राप्त हुई उसे राजा को दिखलाया गया, उससे यह आश्वस्त हुई । मन्त्री ने कहा, "स्वामिनि ! जन्म होने पर सबसे पहले राजा को निवेदन नहीं किया जाय अपितु मुझे बतलाया जाय । बाद में जो उचित होगा बह करूंगा।" रानी ने स्वीकार किया। अनन्तर उचित समय पर दिन के अस्त होने के समय महारानी ने २. तेण-च, २. एसो वि-क, ग, ३. कुरेतणेण । Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ [समराइच्चकहा पसूया देवी। सहाविओ तीए मइसायरो। भणिया य तेण - सामिणि ! अकुसलो विय देवस्स एस गब्भो लक्खीयइ । ता अलं इमिणा, अन्नत्थ संवड्ढउ, मओ देवस्स निवेइयइ ति। तीए भणियंजुत्तमेयं ति । ममं चिय हियएण मंतियं अमच्चेणं ति। तओ पयट्टाविओ' माहवीयाभिहाणाए दासचेडीए दारओ । गया थेवं भूमिभागं । एत्थंतरम्मि दिट्ठा राइणा, पुच्छिया य 'किमयं' ति ? तओ ससझसाए वेवमाणीए भणियं माहवियाए 'देव ! न किंचि' त्ति। एत्थंतरम्मि रुइयं बालेण । तओ दारयं दळूण कुविएणेव भणियं राइणा--आ पावे ! किमेयं ववसियं ति? तओ थोसहावकायरयाए साहिओ सयलवुत्तंतो माहवीयाए। तओ राइणा गहिओ दारओ। चितियं च णेणं, न एस एयाण हत्थे पुणो भविस्सइ त्ति । समप्पिओ अन्नधावोणं सावियाओ य ताओ। जइ कहवि दारयस्स पमाओ भविस्सइ, ता विणट्ठा मम हत्थाओ तुब्भे। निभच्छिया देवी मइसायरो य, कारावियं च देवीमंतिचित्ताणुरोहिणा ईसि पच्छन्नभूयं तहाविहं बद्धावणयं । एवं च अइक्कंतो कोइ कालो । पइट्ठावियं नामं दारयस्स आणंदो त्ति । वढिओ एसो, गाहिओ कलाकलावं। पुव्वकम्मदोसेण नरवई च तेन-स्वामिनि ! अकुशल इव देवस्य एष गर्भो लक्ष्यते । ततोऽलमनेन, अन्यत्र संवर्ध्यताम, मतो देवस्य निवेद्यते इति । तया भणितम्-युक्तमेतदिति । ममैव हृदयेन मन्त्रितममात्येनेति । ततः प्रवर्तितो माधविकाभिधानया दासीचेट्या दारकः । गता स्तोकं भूमिभागम् । अत्रान्तरे दष्टा राज्ञा, पष्टा च किमेतद् इति ? ततः ससाध्वसया वेषमानया भणितं माधविकया-'देव ! न किंचिद' इति । अत्रान्तरे च रुदितं बालकेन । ततो दारकं दृष्ट्वा कुपितेनेव भणितं राज्ञा-आः पापे ! किमेतद व्यवसितम इति ? ततः स्त्रीस्वभावकातरतया कथितः सकलवत्त माधविकया। ततो राज्ञा गृहीतो दारकः । चिन्तितं च तेन, नैष एतासां हस्ते पुनर्जीविष्यति)भविष्यतीति समपितोऽन्यधात्रीणाम, शापिताश्च ताः। यदि कथमपि दारकस्य प्रमादो भविष्यति, ततो विनष्टा मम हस्ताद ययम्। निर्भत्सिता देवी मतिसागरश्च, कारितं च देवी मन्त्रिचित्तानुरोधिना ईषत्प्रच्छन्नभूतं तथाविधं वर्धापनकम् । एवं चातिक्रान्तः कोऽपि कालः । प्रतिष्ठापितं नाम दारकस्य आनन्द इति। धित एषः, ग्राहितः कलाकलापम् । पूर्वकर्मदोषेण नरपति प्रति विषमचित्तः । दत्तं प्रसव किया। उसने मतिसागर मन्त्री को बुलवाया । मतिसागर ने कहा, "स्वामिनि ! महाराज के लिए यह गर्भ अशुभ प्रतीत होता है अतः इससे बस अर्थात इससे क्या लाभ है ? इसको दूसरी जगह बढ़ाएँ तथा महाराज से निवेदन कर दें कि मर गया।" रानी ने कहा, “यह ठीक है। मेरे हृदय से ही मन्त्री ने विचार किया।" तब माधविका नामक दासी को बच्चा देकर भेजा। वह कुछ दूर गयी। इसी बीच राजा ने उसे देख लिया. पूछा, “यह क्या है ?" तब घबड़ाहट से कांपती हुई माधविका ने कहा, "कुछ नहीं महाराज !" इसी बीच बालक रो पड़ा। सब बच्चे को देखकर राजा ने क्रुद्ध होकर कहा, ''अरी पापिन ! यह क्या करने जा रही है ?" तब स्त्रीस्वभावजन्य भीरुता से माधविका ने समस्त वृत्तान्त कह दिया। तब राजा ने बालक ले लिया । उसने सोचा-यह इनके हाथों जीवित नहीं रहेगा, अतः अन्य धायों को दे दिया और उन लोगों को डांटा-"यदि किसी प्रकार बच्चे के विषय में प्रमाद हुआ तो अपने हाथ से तुम लोगों को मार डालूगा।" राजा ने महारानी तथा मतिसागर मन्त्री की निन्दा की। फिर महारानी और मन्त्री के विचार के अनुसार साधारण-सा बधाई-समारोह करवाया । प्रच्छन्न महोत्सव कराया। इस प्रकार कुछ समय बीत गया । बालक का नाम 'आनन्द' रखा गया । वह बढ़ा, कलाओं के समूह को प्राप्त हुआ । पूर्वकर्म के दोष से वह राजा के प्रति विषम चित्त हो गया। उसे युवराज बनाया १.परिट्ठाविओ, २. कुविएण। Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीओ भवो] १४५ पइ विसमचित्तो। दिन्नं से जुवरज्जं। अन्नया पच्चंतवासी आडविओ दुम्मई नाम सामंतराया दुग्गभूमिबलगविओ वित्थक्को सोहरायस्स । निवेइयं राइणो। विसज्जिओ तेण तस्सुवरि विक्खेवो। सभूमिबलगुणणं च सो पराजिओ तेण । निवेइए य कुदिओ राया, पयट्टो सयमेव अमरिसेणं। गओ पयाणयतियं । एत्थंतरम्मि सिंधुनईपुलिणे परिवहंते पयाणए करिवरोध रिहिएणं जलाओ नाइदूरम्मि 'अहो कट्ठ"ति जंपिरं दिटुं मणुविदं । गओ तं चेव भूमिभागं राया जाद दिट्ठो तेण महाकाओ अइकसिणदेहच्छवी विणितनयणविसजालाभासुरो गहियरसंतमंडुक्कगासो भयाणयवियरियाणणदुप्पेच्छो' दुययरपवेल्लिरंगो महया कुररेण गसिज्जमाणो जुण्णभुयंगमो, कुरशे वि दिगयकरोरुकाएण रत्तच्छवीभच्छएणं अयगरेण । जहा जहा य अयगरो कुररं गसइ, तहा तहा सो वि जुष्णभुयंगमं, जुण्णभुयंगमो वि य रसंतमंडुक्कयं ति। तं चेव एवंविहं जीवलोयसहावविन्भमं मूढहिय्याणंदकारयं सप्पुरिसनिव्वेय हेउं तस्य यौवराज्यम्। अन्यदा प्रत्यन्तवासी आटबिको दुर्मतिमि सामन्तराजो दुर्गभूमिबलगवितो वित्रस्तः सिंहराजस्य । निवेदितं राज्ञः। विवजितस्तेन तस्योपरि विक्षेपः । स्वभूमिबलगुणेन च स पराजितस्तेन । निवेदिते च कुपितो राजा प्रवृत्तः स्वयमेवामर्षेण । गतः प्रयाणक त्रिकम् । अत्रान्तरे सिन्धनदीपुलिने परिवहमाने प्रयाणके करिवरोपरिस्थितेन जलाद् नातिदूरे 'अहो कष्टम' इति जल्पद दृष्टं मनुजविन्दम् । गतस्तमेव भूमिभागं राजा यावद् दृष्टस्तेन महाकायोऽतिकृष्णदेहच्छविविनियन्नयनविषज्वालाभासुरो गृहीतरसमण्डूकग्रासो भयानकविवरिताननदुष्प्रेक्ष्यो द्रुततरप्रवेपमानाङ्गो महता कुररेण ग्रस्यमानो जीर्णभुजङ्गमः, कुररोऽपि दिग्गजकरोरुकायेन रक्ताक्षवीभत्सेनाजगरेण । यथा यथा च अजगरः कुररं असते, तथा तथा सोऽपि जीर्णभुजङ्गमम्, जीर्णभजङ्गोऽपिच रसमण्डूकमिति । तदेव एवंविधं जीवलोकस्वभावविभ्रमं मूढहृदयानन्दकारकं सत्पुरुषनिर्वेदहेतं गया। एक बार सीमावर्ती वन का दुर्मति नामक सामन्तराज दुर्गभूमि और बल के गर्व से गर्वित होकर सिंहराज की राज्यसीमा को पार कर गया। राजा को यह निवेदित किया गया। उसने उस पर सेना भेजी। अपनी भमि और सेना की विशेषता के कारण वह सेना उससे (दुर्मति से) पराजित हो गयी। निवेदन किये जाने पर कुपित राजा स्वयं ही क्रोधवश उद्यत हुआ। वह तीन प्रयाणों पर गया। इसी बीच जबकि सिन्धु नदी के तट पर उनका सैन्य समुदाय गमन कर रहा था, हाथी पर बैठे हुए राजा ने जल के समीप ही 'अहो कष्ट है', ऐसा कहते हए मनुष्यों के समूह को देखा । जब वह राजा उस स्थान पर गया तो उसने अत्यन्त विशाल और काले शरीर वाले बढे सर्प को देखा जो नेत्रों से निकलने वाली विष की ज्वाला से देदीप्यमान था, शब्द करते हुए मेंढक को निगल रहा था। वह साँप भयानक खुले हुए मुख से कठिनाई से देखा जाने योग्य था। उसके अंग अत्यधिक काँप रहे थे और वह एक बड़े क्रौंच पक्षी द्वारा निगला जा रहा था। क्रौंच पक्षी को भी हाथी की सूड के समान शरीर वाला तथा लाल-लाल नेत्रों वाला भयंकर अजगर निगल रहा था। जैसे-जैसे अजगर क्रौंच पक्षी को निगलता था. वैसे-वैसे क्रौंच पक्षी भी बढ़े सांप को निगलता था तथा जैसे-जैसे क्रौंच पक्षी बूढ़े सांप को निगलता था, वैसे-वैसे ही बुढ्ढा साँप टर्र-टर्र करते हुए मेंढक को निगलता था । इस प्रकार की घटना को देखकर राजा खिन्नचित्त हो गया। वह घटना संसार के स्वभाव का विभ्रम थी, मूर्ख लोगों को आनन्द देने वाली थी तथा अच्छे १. भयाणयदुप्पेच्छाणणो-च। Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ [समराइच्चकहा वइयरमवलोइऊण विसण्णो राया। चितियं च णेणं, हंत ! एवं ववत्थिए को' उण इह उवाओ? गसियप्पाओ कुररो अयगरेण, कुररेण वि भुयंगमो, भुयंगमेण मडुक्को त्ति कंठगयपाणा वि एते न अन्नोन्नं विरमंति, अवि य अहिययरं पवत्तंति, न यं अन्नयरविणासणाए मोयाविया एए संपयं जीवंति। ता कि इमिणा अपडियारगोयरेण वत्थुणा एलोइएणं। तज्जाविओ मत्तवारुणो, गओ आवासणियाभूमि, आवासिओ सह कडएणं, कयं उचियकरणिज्जं। तओ अद्धखीणाए जामिणीए सुत्तविउद्धो राया। अयगराइवइयरं सरिऊण चितिउं पयत्तो । कहं आवायमेत्तमहरा विवागविरसा विसोवमा विसया। अवुहजणाण बहुमया विबुहजणविवज्जिया पावा ॥२०६॥ एयाणमेस लोओ कएण मोत्तूण सासयं धम्म। सेवेइ जीवियत्थी विसं व पावं सुहाभिरओ॥२०७॥ दुक्खं पावस्स फलं नासओ पावस्स दुक्खिओ निच्चं । सुहिओ वि कुणउ धम्मं धम्मस्स फलं वियाणंतो ॥२०॥ वलोक्य विषण्णो राजा। चिन्तितं च तेन, हन्त ! एवं व्यवस्थिते कः पून रिहोपायः ? ग्रसितप्रायः कररोऽजगरेण, कुररेणापि भुजङ्गमः, भुजङ्गमेनापि मण्डूक इति । कण्टगतप्राणा अप्येते नान्योन्यं विरमन्तिः अपि चाधिकतरं प्रवर्तन्ते, न चान्यतर विनाशनया मोचिता एते साम्प्रतं जीवन्ति । तकिमनेनाप्रतीकारगोचरेण वस्तुना प्रलोकितेन । तद्यापितो मत्तवारणः, गत आवसनिकाभूमिम्, आवासितः सह कटकेन, कृतमुचितकरणीयम् । ततोऽर्धक्षीणायां यामिन्यां सुप्तविबुद्धो राजा। अजगरादिव्यतिकरं स्मृत्वा चिन्तयितु प्रवृत्तः । कथम् आपातमात्रमधुरा विपाकविरसा विषोपमा विषयाः। अबुधजनानां बहुमता विबुधजनजिताः पापाः ॥२०६।। एतेषामेव लोकः कृतेन मुक्त्वा शाश्वतं धर्मम् । सेवते जीवितार्थी विषमिव पापं सुखाभिरतः ॥२०७॥ दुःखं पापस्य फलं नाशको पापस्य दुखितो नित्यम् । सुखितोऽपि करोतु धर्म धर्मस्य फलं विजानन् ॥२०८।। सामियों के वैराग्य का कारण थी। उसने सोचा-हाय ! ऐसी स्थिति होने पर अब क्या उपाय है ? अजगर क्रौंच पक्षी को, क्रौंच पक्षी सर्प को, सर्प मेंढक को निगल रहे हैं । कण्ठगत प्राण रहने पर भी ये एक-दूसरे से विराम नहीं ले रहे हैं, अपितु अधिकाधिक रूप से प्रवृत्त हो रहे हैं । एक-दूसरे के विनाश को न छोड़ते हुए ये इस समय जी रहे हैं । अतः अप्रतिकार मार्ग वाली इस वस्तु को देखने से क्या लाभ ? मतवाले हाथी को वहाँ से का। राजा ठहरने के स्थान पर गया और कटक के साथ ठहर गया। उसने करने योग्य उचित कार्यों को किया। जब रात आधी बीत गयी तब राजा सोकर उठा। अजगरादि की घटना का स्मरण कर विचार करने लगा पापरूप विषय भोगते समय तो बड़े मधुर लगते हैं, किन्तु इनका फल नीरस होता है, अत: ये विष के समान हैं। मखों द्वारा ये सम्मानित होते हैं, किन्तु बुद्धिमान व्यक्ति इन्हें छोड़ देते हैं । इनके कारण यह लोक शाश्वत धर्म को छोड़ देता है । जीवनार्थी सुख में रत रहते हुए इनका विष के समान सेवन करता है । पाप का फल दुःख है, धर्म पाप का नाशक है। धर्म के फल को जानता हुआ प्राणी, चाहे वह दुःखी हो या सुखी, धर्म करे ॥२०६-२०८॥ १. का-च, २. नासो-च। Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वोमो भवो] १४७ मंडुक्को इव लोओ तुच्छो इयरेण पन्नएणं व । एत्थ गसिज्जइ सो वि हु कुररसमाणेण अन्नेण ॥२०॥ सो वि हु न एत्थ सवसो जम्हा अयगरकयंतवसगो त्ति । एवंविहे वि लोए विसयपसंगो महामोहो ॥२१०॥ ता अलं मे अणेयदुक्खतरुबीयभूएण अहोपुरिसिगाविझारपाएणं रज्जेणं ति। रज्जं हि नाम पायालं पिव दुप्पूरं, जिण्णभवणं पिव सुलहविवरं, खलसंगयं पिव विरसावसाणं, वेसित्थियाहिययं पिव अत्थवल्लहं, वम्मीयं पिव बहुभुयंग, जीवलोयं पिव अणिट्ठियकज्ज, सप्पकरंडयं पिव जत्तपरिवालणिज्जं अणभिन्नं विसंभसुहाणं, वेसाजोव्वणं पिव बहुजगाभिलसणीयं, अकारणं च सुद्धपरलोयमग्गस्स ति। ता एवं परिच्चइय पव्वज्जामो धीरपुरिससेवियं उभयलोयसुहावहं समणत्तणं ति। अह कहं पुण पत्थुयवत्थुविसए लाघवं न भविस्सइ ? अहवा थेवमेयं एगजम्मपडिबद्धं ति। एवं चितयंतस्स अइक्कंता रयणी, कयं गोसकिच्चं, पविट्ठ मंतिमंडलं । मण्डूक इव लोकस्तुच्छ इतरेण पन्नगेनैव । अत्र ग्रस्यते सोऽपि खलु कुररसमानेनान्येन ॥२०॥ सोऽपि खलु नात्र स्ववशो यस्मादजगरकृतान्तवशग इति । एवंविधेऽपि लोके विषयप्रसङ्गो महामोहः ॥२१०॥ ततोऽलं मेऽनेकदुःखतरुबीजभतेन आहोपुरुषिकाविकारप्रायेण राज्येनेति ।राज्यं नाम हि पातालमिव दुष्पूरम्, जीर्णभवनमिव सुलभविवरम्, खलसंगतमिव विरसावसानम्, वेश्यास्त्रीहृदयमिव अर्थवल्लभम्, वल्मिकमिव बहुभुजङ्गम्, जीवलोकमिवानिष्ठितकार्यम्; सर्पकरण्डकमिव यत्नपरिपालनीयम्, अनभिज्ञ विश्रम्भसुखानाम्, वेश्यायौवनमिव बहुजनाभिलषणीयम्, अकारणं च शुद्धपरलोकमार्गस्येति तत एतत्परित्यज्य प्रपद्यामहे (प्रब जामः) धीरपुरुषसे वितमुभयलोकसुखावहं श्रमणत्वमिति । अथ कथं पुनः प्रस्तुतवस्तुविषये लाघवं न भविष्यति ? अथवा स्तोकमेतदेकजन्मप्रतिबद्धमिति । एवं चिन्तयतोतिक्रान्ता रजनी, कृत प्रातःकृत्यम्, प्रविष्टं मन्त्रिमण्डलम् । मेंढक के समान तुच्छ लोक दूसरे सर्प के समान किसी दूसरे व्यक्ति द्वारा निगला जाता है। वह भी क्रौंच पक्षी के समान अन्य से निगला जाता है। अन्य भी (कुरर भी) अपने वश में नहीं है; क्योंकि वह मत्यू रूपी अजगर के वश में है। इस प्रकार के संसार में भी विषयों के प्रति आसक्ति रखना महामोह है ॥२०९-२१०॥ अतः अनेक दुःखरूपी वृक्ष के बीजभूत और प्रायः अहंकाररूपी विकार से युक्त यह राज्य व्यर्थ है। राज्य पाताल के समान कठिनाई से पूरा करने योग्य है। पुराने मकान के समान है, इसमें छेद होना सुलभ है ; दुष्टों की संगति के समान है; जिसकी समाप्ति नीरस होती है; वेश्या स्त्री के हृदय के समान है, जिसको धन ही प्यारा होता है; जिसमें बहुत से साँप रहते हैं ऐसी बाँबी के समान है क्योंकि यह बहुत से लम्पट मित्रों से युक्त है । संसार के समान है, जिसमें कार्य अस्थिर हैं; साँप के पिटारे के समान है, जिसकी प्रयत्न से रक्षा करनी होती है। विश्वस्त सुखों से अनभिज्ञ है, वेश्या के योवन के समान अनेक लोगों की अभिलाषा रखने वाला है और शुद्ध परलोक मार्ग का यह बाधक है। अतः इसे छोड़कर धीरपुरुषों द्वारा सेवित और उभय लोक में सुख देने वाली जिनदीक्षा को धारण करता हूँ। तब प्रस्तुत वस्तु के विषय में कैसे लाघव नहीं होगा ? अथवा एक जन्म से जुड़ा हुआ लाघव थोड़ा है। इस प्रकार चिन्ता करते हुए रात्रि बीत गयी; प्रात:कालीन कृत्यों को किया, मन्त्रिमण्डल में प्रविष्ट Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ [समराइच्चकहा एत्यंतरमि निवेइयं से विजयवइनामाए पडिहारीए-महाराय ! एसो खु दुम्मई देवं सयमेव पत्थियं वियाणिय चंडं च देवसासणमवगच्छिय सिरोहराबद्धपरसू देवसासणाइक्कमणजायपच्छायावो कइवयपुरिसपरिवारिओ इहेवागओ देवदंसणसुहाभिलासी पडिहारभूमीए' चिट्टइ। एयं सोऊण देवो पमाणं ति। तओ पुलोइओ राइणा मइसायरो। भणियं च तेण इंगियागारकुसलेण-पविसउ, को एत्थ दोसो ? सरणागयवच्छला चेव राइणो हवंति। तओ राइणा अणुन्नाओ पविट्ठो दुम्मई 'देव एसा सिरोहरा एसो य कुहाडों' त्ति भणिऊण पडिओ चलणेसु । तओ अभयं दाऊण बह माणिओ राइणा, कओ से अहिययरसक्कारो। नियत्तिऊण य राया गओ जयउरं । निवेइओ राइणा निययाभिप्पाओ मंतिमंडलस्स। तेण वि य 'किच्चमेवेयमिह वंससंभवाणं रायाणं सेसयाणं पि, कि पुण तुम्हाणं जिणवयणभावियमईणं ति, उभयलोयसाहारणं च सफलं जीवियं देवस्स, वणदवसन्निहा य कामभोगा इंधणाओ चेव जलंति किपागफलसमाणा य विवागे, अयंडमणोरहभंगकारी य पहवइ विणिज्जियसुरासुरो मच्चु ति कलिऊण बहु मन्निओ। तओ सद्दाविया संवच्छरिया, भणिया य अत्रान्तरे निवेदितं तस्य विजयवतीनामया प्रतिहार्या–महाराज ! एष खलु दुर्मतिर्देवं स्वयमेव प्रस्थितं विज्ञाय चण्डं च देवशासनमवगत्य शिरोधराबद्धपरशुर्देवशासनातिक्रमणजातपश्चात्तापा कतिपयपुरुषपरिवारित इहैवागतो देवदर्शनसुखाभिलाषो प्रतिहारभूम्यां तिष्ठति। एतच्छ त्वा देवः प्रमाणमिति । ततः प्रलोकितो राज्ञा मति सागरः । भणितं च तेनेङ्गिताकारकुशलेन । प्रविशतु, कोऽत्र दोषः ? शरणागतवत्सला एव राजानो भवन्ति । ततो राज्ञाऽनुज्ञातः प्रविष्टो दुर्मतिः 'देव ! एषा शिरोधरा एष च कुठारः' इति भणित्वा पतितश्चरणयोः । ततोऽभयं दत्त्वा बहुमानितो राज्ञा, कृतस्तस्याधिकतरसत्कारः। निवर्त्य च राजा गतो जयपुरम् । निवेदितो राज्ञा निजाभिप्रायो मन्त्रिमण्डलस्य। तेनापि च ‘कृत्यमेवैतद् इह वंशसम्भवानां राज्ञां शेषाणामपि, किं पुनर्युष्माकं जिनवचनभावितमतीनाम्, उभयलोकसाधारणं च सफलं जीवितं देवस्य, वनदवसंन्निभाश्व कामभोगा इन्धना एव ज्वल न्ति किपाकफलसमानाश्च विपाके, अकाण्डमनोरयभङ्गकारी च प्रभवति विनिर्जितसुरासुरो मृत्युरिति कलयित्वा बहु मतः । ततः शब्दायिताः सांवत्सरिकाः, भणिताश्च तेन-निरूपयत आनन्द इसी बीच राजा की विजयवती नामक प्रतीहारी ने कहा, "महाराज! यह दुर्मति स्वयं राजा के प्रस्थान को जानकर और महाराज के शासन को कठोर अवगत कर, गर्दन में कुठार बांधकर, महाराज के शासन का अतिक्रमण करने से पश्चात्ताप करता हुआ, कुछ लोगों से घिरा होकर, महाराज के दर्शन रूप सुख का अभिलाषी होकर यहीं आया है, और द्वारभूमि पर स्थित है। यह सुनकर महाराज प्रमाण है।" तब राजा ने मतिसागर की ओर देखा । अभिप्राय को जानने में कुशल उसने कहा, "प्रवेश करे, क्या हानि है ? राजा लोग शरण में आये हुए लोगों के प्रति प्रेम करने वाले होते हैं।" तब राजा की अनुमति से दुर्मति प्रविष्ट हुआ। "महाराज ! यह गर्दन है, यह कुठार है-" ऐसा कहकर चरणों में गिर गया। तब अभय देकर राजा ने उसका अधिकाधिक सत्कार किया। राजा लौट कर जयपुर गया । राजा ने अपना अभिप्राय मन्त्रिमण्डल से कहा । मन्त्रिमण्डल ने भी इसका स्वागत किया। उसने कहा, "इस वंश में जन्म लेने वाले शेष राजाओं का यह कृत्य है। जिनेन्द्रवचनों में श्रद्धाबुद्धि रखनेवाले आपके विषय में तो कहना हो क्या ? महाराज का जीवन दोनों लोकों-इस लोक और परलोक -में साधारण और सफल है । बन के दावानल के सदृश कामभोग ईंधन के समान जलाते हैं, काम भोगों का फल किंपाकफल के समान होता है। सुर और असुरों को जीतने वाली मृत्यु असमय में ही मनोरथ को नष्ट करने में समर्थ है-यह देखकर आपने इस ओर विशेष ध्यान दिया है। अनन्तर ज्योतिषियों को बुलवाया और १. पडिहारभूमिए-च। Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीवो भवो] १४६ तेण-निरूवेह आणंदकुमारस्स रज्जाभिसेयदिवसं । तेहिं भणियं -जं देवो आणवेइ। निरूविऊण साहिओ णेहि पंचमो दिवसो । तओ उवणीयाई अहिसेयमंगलाई। तं जहा-मच्छजुयलं पुष्णकलसो धवल कुसुमाइं महापउमा सिद्धत्थया पुढविपिंडो वसहो महंतयं दहियपुण्णं च भंडयं महारयणाई गोरोयणा सोहचम्मं धवलायवत्तं भद्दासणं चामराओ दुरुव्वा अच्छसुरा महाधओ गयमओ धन्नाई दुगुल्लाणि अन्नाणि' य एवमाइयाइं पसत्थदव्वाई ति । एत्थंतरम्मि परिचितियं राइणा-काऊणमाणंदकुमारस्स रज्जाहिसेयं तओ गमिस्सामि धम्मघोसगुरुससीवं ति । एवं व चितयंतो' अहिसेयदिणं पडिच्छमाणो चिट्ठइ। इओ य पुवकयकम्मदोसओ अमुणियनरिंदाहिप्पाओ घडिओ दुम्मइणा सह आणंदकुमारो। मंतियं च तेहिं 'कहंचि वंचणापओएण वावाएमो महारायं' ति । सुओ अहिसेयवुत्तंतो। मिच्छाहिनिवेसेण सचित्तदुट्टयाए य विपरोओ परिणओ आणंदस्स। चितियं च तेणं - नूणमहमणेण इमिणा ववएसेण मारिउं ववसिओ। ता कहमहमेवं छलिज्जामि। अहवा सच्चए वि एयम्मि वुत्तंते अलं मे कुमारस्य राज्याभिषेकदिवसम् । तैर्भणितम्-यद् देव आज्ञापयति । निरूप्य च कथितस्तैः पञ्चमो दिवसः। तत उपनीतानि अभिषेकमङ्गलानि । तद् यथा---मत्स्ययुगलं पूर्णकलशो धवलकुसुमानि महापद्माः सिद्धार्थाः पृथ्वीपिण्डो वृषभो महद् दधिपूर्णं च भाण्डं महारत्नानि गोरोचना सिंहचर्म धवलातपत्रं भद्रासनं चामरा दूर्वा अच्छसुरा महाध्वजो गजमदो धान्यानि दुकूलानि अन्यानि चैवमादिकानि प्रशस्तद्रव्याणि इति । अत्रान्तरे च परिचिन्तितं राज्ञा-कृत्वाऽऽनन्दकुमारस्य राज्याभिषेकं ततो गमिष्यामि धर्मघोषगुरुसमीपमिति । एवं चिन्तयन् अभिषेकदिनं प्रतीक्षमाणस्तिष्ठति । इतश्च पूर्वकृतकर्मदोषतोऽज्ञातनरेन्द्राभिप्रायो घटितो दुर्मतिना सहानन्दकुमारः । मन्त्रितं च ताभ्यां 'कथंचिद् वञ्चनाप्रयोगेण व्यापादयावो महाराजम्' इति । श्रु तोऽभिषेकवृत्तान्तः। मिथ्याभिनिवेशन स्वचित्तदुष्टतया च विपरोतः परिणत आनन्दस्य । चिन्तितं च तेन-ननमहमनेन एतेन व्यपदेशेन मारितुं व्यवसितः । ततः कथमहमेवं वञ्च्ये। अथवा सत्येऽपि एतस्मिन् वृत्तान्ते अलं मे उनसे कहा-“आनन्द कुमार के राज्याभिषेक का समय बतलायो।" उन्होंने कहा-"जो महाराज की आज्ञा ।" खकर उन्होंने पाँवा दिन बतलाया। तब अभिषेक के लिए मांगलिक वस्तुएँ लायी गयीं । जैसे मछली का जोड़ा, भरा हुआ कलश, सफेद फूल, कमल, सरसों, मिट्टी का ढेला, बैल, दही से भरे हुए मिट्टी के बड़े बर्तन, महारत्न, गोरोचन, सिंह का चमड़ा, सफेद छत्र, सुन्दर आसन, चमर, दूब, निर्मल मदिरा, महाध्वज, हाथी का मद, धान्य, रेशमी वस्त्र तथा अन्य दूसरे शुभ द्रव्य । इसी बीच राजा ने विचार किया-आनन्दकुमार का राज्याभिषेक करने के बाद धर्मघोष गुरु के पास जाऊँगा, ऐसा सोचकर अभिषेक के दिन की प्रतीक्षा करता रहा। इधर पूर्वकृत कर्म के दोष से राजा के अभिप्राय को न जानकर दुर्मति से आनन्द कुमार मिल गया। दोनों ने विचार किया-किसी प्रकार छल से राजा को मार डालें । अभिषेक का वृत्तान्त सुना । मिथ्या अभिप्राय रखने के कारण और चित्त की दुष्टता के कारण आनन्द पर इसका विपरीत प्रभाव पड़ा । उसने सोचा-निश्चित ही इसने इस बहाने मारने का निश्चय किया है । अत: इस प्रकार मैं कैसे छलू" ? अथवा यह वृत्तान्त सही भी हो तो १. अन्नाणि अन्नाणि-च, २. एवं चितयंतो-च. ३. महाराय-च। Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० [ समराइचकहा रज्जेण, जं मे एएण दिन्नं संपज्जइ। तं पुण सलाहणिज्ज, जमेयं वावाइऊण वला घेप्पइ त्ति । एत्थंतरम्मि सद्दाविओ राइणा आणंदो। जाव नेच्छइ आगंतु, तओ मडिहारदुइओ गओ कुमारभवणं राया। तेण वि य 'न इओ सुंदरतरो पत्यावो' ति कलिऊण पुवाणुसयदोसेण सहसा 'हण हण'त्ति भणिऊण उक्खायासिणा अकयपरिरक्खणोवाओ सुविसथचित्तो पडिहारं वावाइऊण गाढप्पहारीकओ राया। एत्यंतरम्मि समुट्ठाइओ कलयलो, संजाओ नयरसेन्नसंखोहो, परिवेढिओ समंतओ रायसाहणेण आणंदो, पारद्धो संगामो। तओ राइणा नियसरीरदोहसवहेण सावियं सेन्नं । भणियं च ण । किं भे इयाणि जुझिएणं ? अहं ताव वावाइओ चेव दट्टव्वो, मा एवं पि वावाएह, ता करेह रायाभिसेयं एयस्स, एस भे राय त्ति । एत्थंतरम्मि समाणतो दुम्मई 'बंधेहि णं निविडबंधेहि' । तओ 'जं कुमारो आणवेइ' त्ति भणिऊण आसन्नीभूओ य से दुम्मई। पाडिया कुलपुत्तया, निन्भच्छिओ नायरजणो । तो बंधाविऊण पच्चइयपुरिसेहि सुकयपरिरक्खणोवाओ को राया । अहिट्टियं रज्ज, ठावियाओ ववत्थाओ, वसीकयं सामंतमंडलं। तओ अणुसयवसेण नेयाविओ नयरचारयं नरवई । राज्येन, यन्मे एतेन दत्तं सम्पद्यते । तत्पूनः श्लाघनीयम, यदेतं व्यापाद्य बलाद् गह्यते इति । अत्रान्तरे शब्दायितो राज्ञा आनन्दः । यावद् नेच्छति आगन्तुम्, तत: प्रतीहारद्वितीयो गतः कुमारभवन राजा । तेनापि च 'न इतः सुन्दरतरः प्रस्तावः' इति कलयित्वा पूर्वानुशयदोषेण सहसा 'ध्नत घ्नत' इति भणित्वा उत्खातासिनाऽकृतपरिरक्षणोपायः सुविश्वस्तचित्तः प्रतीहारं व्यापाद्य गाढप्रहरीकृतो राजा। अत्रान्तरे समुत्थितः कलकलः, संजातो नगरसैन्यसंक्षोभः, परिवेष्टितः समन्ततो राजसाधनेनानन्दः, प्रारब्धः संग्रामः । ततो राज्ञा निजशरीरद्रोहशपथेन शापितं सैन्यम् । भणितं च तेन-कि युष्माकमिदानी युद्धेन, अहं तावद् व्यापादित एव द्रष्टव्यः, मा एतमपि व्यापादयत, ततः कुरुत राज्याभिषेकमेतस्य, एष युष्माकं राजेति । अत्रान्तरे समाज्ञप्ता दुर्मतिः ‘वधान तं निविडबन्धैः, ततो 'यकुमार आज्ञापयति' इति भणित्वाऽऽसन्नीभूतश्च तस्य दुर्मतिः । पातिताः कुलपुत्रकाः, निर्भत्सितो नागरजनः। ततो बन्धयित्वा प्रत्ययितपुरुषैः सुकृतपरिरक्षणोपायः कृतो राजा। अधिष्ठितं राज्यम् स्थापिता व्यवस्थाः, वशीकृतं सामन्तमण्डलम् । ततोऽनुशयवशेन नायितो नगरचारकं नरपतिः । मुझे इसके द्वारा दिये गये राज्य से क्या प्रयोजन है ? वही प्रशंसनीय होगा जो इसको मारकर बलात् ग्रहण किया जायगा। इसी बीच राजा ने आनन्द को बुलाया। जब उसने आने की इच्छा नहीं की तब द्वारपाल को साथ लेकर राजा कुमार के भवन में गया। उसने भी, इससे सुन्दरतर समय कोई दूसरा नहीं है-यह मानकर पूर्वकर्मों के दोष से यकायक 'मारो, मारो,' ऐसा कहकर तलवार खींचकर, जिसने रक्षा का उपाय नहीं किया है, ऐसे विश्वस्त मन वाले द्वारपाल को मारकर, राजा के ऊपर गाढ़ प्रहार किया। इसी बीच कोलाहल हुआ । नगर की सेना में क्षोभ उत्पन्न हो गया। आनन्द चारों ओर राजसेना से परिवेष्टित हो गया। संग्राम प्रारम्भ हो गया। तब राजा ने अपने शरीर के प्रति द्रोह की शपथ दिलाकर सेना को आज्ञा दी। उसने कहा, "इस समय आप लोगों के युद्ध करने से क्या लाभ ? मुझे मरा देख ही लिया है, इसे मत मारो। इसका राज्याभिषेक करो। यह तुम्हारा राजा है।" इसी बीच आनन्द ने दुर्मति को आज्ञा दी-''उसे (राजा को) बेड़ियों से बांध दो।" तब 'जो कुमार आज्ञा दें ऐसा कहकर दुर्मति उसके करीब हो गया। कुलपुत्रों को मार दिया गया, नागरिकों की निन्दा की गयी। तब विश्वस्त पुरुषों से राजा को बंधवाकर उससे रक्षा का उपाय कर लिया। (स्वयं) राज्य पर अधिष्ठित हो गया, व्यवस्था स्थापित की, सामन्त मण्डल को वश में किया। तब घोर शत्रुतावश राजा को नगर के कारागार में ले Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वामो भवो] १५१ तं च अच्चंतनिम्महमाणपुरीसकलमल गंधं फडियभित्तिपसुत्तसिरीसिवं भिणिभिणायमाणमसयमविखयाजालं दरिविवरमहविणिग्गयमसउक्केरं उरिविलंबमाणोरयनिम्मोयं लयातंतुविरइयवियाणयं, वासहरं पिव दुस्समाए, लीलामि पिव अधम्मस्स, सहोयरं पिव सीमंतयस्स, सहा विव' सव्वदुक्खसमुदयाणं, कुलहरं पिव सव्वजायणाणं, विस्सासभूमि पिक मच्चुणो, सिद्धिखेत्तं पिव कयंतस्स त्ति । तओ 'महाचारयं नीओ देवो' त्ति सोऊण सहसा विमक्कपकंदभेरवं अणवरयनिवडमाणेहिं महल्लमुत्ताहलसरिसेहिं अकज्जलवाहबिर्हि संपाइयहारसोहं देवसोएणं चेव परिमिलाणदेहं निरुज्झमाणं पि निउत्तपुरिसेहि मंगलमणिवलयझणझणारवुद्दाम सभूयाहि बलाओ पेल्लिऊण ते उरपोट्टकुट्टणुज्जयं तओ य अणुइयधरणिपरिसक्कणेणं साससमाऊरियाणणं परिचत्तकुडिलभावत्तणेण वि य 'अदंसणीया देवावत्थ' त्ति सूयगेहि पिव लंबालएहि निरुद्धनयणपसरं चारयमेव पत्तं कुसुमावलीपमुहमंतेउरं ति । दिट्ठो य तेण काललोहमयनियलसमाऊरिओ नरवई। तओ असोयपल्लवागारेहि हत्यहिं 'अणुचियातच्चात्यन्तनिर्मथ्यमानपुरीषकलमलगन्धं स्फुटितभित्तिप्रसुप्तसरीसृपं भणभणायमानमशकमक्षिकाजालं दरी विवरमुखविनिर्गतमूषकोत्करं उपरिबिलम्बमानोरगनिर्मोकं लूतातन्तुविरचितवितानकं, वासगृहमिव दुःषमायाः, लीलाभूमि रिवाधर्मस्य, सहोदरमिव सिमन्तकस्य, सखा इव सर्वदुःखसमुदयानाम्, कुल गृहमिव सर्वयातनानाम्, विश्वासभूमिरिव मृत्योः, सिद्धिक्षेत्रमिव कृतान्तस्येति । ततो 'महाचारकं नीतो देवः' इति श्रुत्वा सहसा विमुक्ताक्रन्दभैरवं अनवरतनिपतद्भिर्महन्मुक्ताफलसदृशैरकज्जलवाष्पबिन्दुभिः समादितहारशोभं देवशोकेनैव परिम्लानदेहं निरुध्यमानमपि नियुक्तपुरुषैः मङ्गलमणिवलयझणझणारवोद्दामं स्वभुजाभिर्बलात् पीडयित्वा तान् उरःपेट्टकट्टनोद्यतं ततश्चाऽनुचितधरणीपरिष्वष्कनेन श्वाससमापूरिताननं परित्यक्तकुटिलभावत्वेनापि च 'अदर्शनीया देवावस्था' इति सूचकैरिव लम्बालकनिरुद्धनयनप्रसरं चारकमेव प्राप्तं कुसुमावलीप्रमुखमन्तःपुरम् इति । दृष्टस्तेन काललोहमयनिगडसमापूरितो नरपतिः । ततोऽशोकपल्लवाकारैर्हस्तैः जाया गया। वह कारागार अत्यन्त मथे गये मल की दुर्गन्धि से युक्त था, वहाँ पर टूटी-फूटी दीवारों में सांप, बिच्छू सो रहे थे । मक्खी-मच्छरों के समूह का 'भन भन' शब्द हो रहा था, बिलों के मुख से चूहे निकल रहे थे। ऊपर सांप की केंचुली लटकी हुई थी। मकड़ियों ने जाल का समूह बना रखा था। वह कारागार मानो दुःखमा काल (अथवा नरक) का निवासगृह था, अधर्म की लीलाभूमि था, नरकाधिपति का सगा भाई था, समस्त दुःखों के समुदाय का सखा था, समस्त यातनाओं का कुलगृह था, मृत्यु की विश्वासभूमि था, तथा यम का सिद्धिक्षेत्र था। तदनन्तर 'महाराज को कारागार ले जाया गया है' सुनकर, कुसुमावली जिनमें प्रधान थी, ऐसा समस्त अन्तःपुर कारागार आया। यकायक उन्होंने जोर-जोर से रोना शुरू किया। लगातार गिरते हुए बड़े-बड़े मोतियों जैसे उनके सफेद अश्रु बिन्दुओं से हार की शोभा बन रही थी। महाराज के शोक से ही उनका शरीर म्लान हो गया था। नियुक्त पुरुषों द्वारा रोकी जाने पर भी मंगलमणियों से निर्मित झन झन शब्द करते कंगनों से उत्कट, अपनी भुजाओं से बलात् उन्हें पीटकर वक्षःस्थल और उदर के ताडन में उद्यत थीं। तदनन्तर अनुचित धरती पर पड़े होने से श्वास से जिनका मुख पूर्ण हो रहा था, कुटिल भावों को छोड़ देनेवाले, 'महाराज की अवस्था देखने योग्य नहीं है' ऐसी सूचना देनेवाले लम्बे-लम्बे बालों ने जिनके नेत्रों का विस्तार को रोक दिया था, ऐसी वे कारागार में आयीं। उसने काली लोहे की बेड़ी से बँधे हुए राजा को देखा । तब अशोक के नूतन किसलयों के समान हाथों से 'संसार बहुलता से अनुचित सेवन करने वाला है'-मानो यह दर्शाते हुए अथवा हार रूपी लता को धारण करने १, सह पिव--क-ग, २. रण-ख. ३. सभुयाहि-च । Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ [ समराइज्यकहा सेवणवहुलो संसारों' त्ति दंसयंत पिव हारलयावहणजणियखेयं पिव वच्छत्थलं ताडयंतं अहिययरमक्कंदिउं पवत्तं ति । तओ राइणा आरक्खिगेहिं च कहकहवि निवारियं । भणियं च राइणा-किमणेणायासमेत्तफलेण अहम्माणुबंधिणा य सोएणं । अइबहुविचित्तरूवो खु एस संसारो, खेलणयभूया इमस्स सत्वे सरीरिणो, दुन्निवारो य पसरो पुवकयकम्मस्स, जलहरंतरविणिग्गयसोयामणीवलयचंचला लच्छी, सुविणयसमो संगमो । एवमवसाणाणि एत्थ रागविलसियाणि । ता किमेइणा अविवेयजणाणुसरिसेण पलविएण ? पत्तमेव तुम्भेहि जीवलोयसारभूयं जिणव यणं । ता तं चेव अणुचिट्ठह। न तं मोत्तूण अन्नो दुक्खक्खओवाओ ति । तओ तमेयमायण्णिय एवमेवेयं न अन्नह' त्ति कलिऊण य अणुजाणाविऊण नरवई जीवियनिरवेक्खयाए वलाचेवाणंदस्स गंधव्वदत्ताए विज्जाहरसमणियाए सयासे पवन्नं पव्वज्ज ति। इओ य पइदिणं कयत्थणाए वि कोहवसमगर छमाणेण 'एहहमेत्तं मे जीवियं कालोइयं संपयमणसणं ति पडिवन्न राइणा । आरविखगेहि निवेइयं आणंदस्स, कुविओ एसो, पेसिओ तेण देवसम्मो 'अनुचितासेवनबहुलः संसारः' इति दर्शयन्तमिव हारलतावहनज नितखेदमिव वक्षःस्थलं ताडयन्तमधिकतरमाक्रन्दितु प्रवृत्तमिति । ततो राज्ञा आरक्षकैश्च कथंकथमपि निवारितम् । भणितं राज्ञाकिमनेनायासमात्रफलेन अधर्मानुबन्धिना च शोकेन ? अतिबहुविचित्ररूपः खलु एष संसारः, खेलनकभूता अस्य सर्वे शरीरिणः, दुनिवारश्च प्रसरः पूर्वाकृतकर्मणः, जलधरान्तरविनिर्गतसोदामिनीवलयचञ्चला लक्ष्मीः, स्वप्नसमः संगमः, एवमवसानानि अत्र रागविलसितानि । ततः किमेतेनाविवेकजनानुसदृशेण प्रलपितेन । प्राप्तमेव युष्माभिर्जीवलोकसारभूतं जिनवचनम् । ततस्तदेवानुतिष्ठत, न तन्मुक्त्वाऽन्यो दुःखक्षयोपाय इति । ततस्तदेतदाकर्ण्य 'एवमेतद् नान्यथा' इति कलयित्वा चानुज्ञाप्य नरपति जीवितनिरपेक्षतया बलावेवानन्दस्य गन्धर्वदत्ताया विद्याधर श्रमण्या सकाशे प्रपन्ना प्रव्रज्येति ।। इतश्च प्रतिदिनं कदर्थनयाऽपि क्रोधवशमगच्छता 'एतावन्मात्रं मे जीवितं, कालोचितं साम्प्रतमनशनम्' इति प्रतिपन्नं राज्ञा । आरक्षकैनिवेदितमानन्दस्य, कुपित एषः, प्रेषितस्तेन के खेद से ही मानो वक्षःस्थल को पीटते हुए अत्यधिक रोना-चिल्लाना शुरू किया । तब राजा और पहरेदारों ने बडी कठिनाई से ही उन्हें रोका। राजा ने कहा-"कष्ट मात्र ही जिसका फल है और अधर्म का जो बन्ध कराने घाला है, ऐसे शोक से क्या लाभ ? यह संसार अत्यन्त विचित्ररूप वाला है। सभी प्राणी इस संसार के खिलौने हैं और पूर्वकृत कर्मों का विस्तार दुनिवार है। मेघों से निकली हुई बिजली के समान लक्ष्मी चंचल है। संयोग स्वप्न के समान है। राग के विलासों का यहां इस प्रकार से ही अन्त होता है। अतः अविवेकी मनुष्यों के समान इस प्रलाप से क्या ? आप लोगों ने संसार के सारभूत जिनेन्द्र भगवान् के वचनों को प्राप्त किया है । अतः उसी का अनुष्ठान करो। से छोड़कर दु:ख के नाश का कोई उपाय नहीं है। अनन्तर इसे सुनकर 'यह ऐसा है, अन्य प्रकार का नहीं ऐसा मानकर राजा का अनुमोदन करती हुई, जीवन की निरपेक्षता के कारण आनन्द की आज्ञा लिये बिना ही, उन्होंने गन्धर्वदत्ता नामक विद्याधर श्रमणी के पास दीक्षा स्वीकार कर ली। इधर प्रतिदिन के अपमान पर भी क्रोध न करता हुआ 'मेरा जीवन इतना ही है, अब अनशन समयोचित हैं इस भाव को प्राप्त हुआ । सिपाहियों ने आनन्द से निवेदन किया। यह कुपित हुआ। उसने देवशर्मा नामक एक १. दसणंत-च. २. आज्ञाम गृहीत्वेति शेषः । Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीमो भयो] १५३ नाम नियमहल्लओ 'गच्छ भुंजावेहि'त्ति । वसवो य एसो 'अ जमाणं नियमा वावाएमिति । गओ देवसम्मो, दिट्ठो ते ग राया, भणिओ य- देव ! देव्ववसया पाणिणं विसमा कज्जगइ त्ति । एसो य देवो नाम अणाराहणीओ विणएण, अगुणाही गुणीणं, अकालन्न समीहियस्स, केवलमणत्थो जणाणं, मत्तहत्थि व्व सच्छंदयारी, गंगापवाहो व्व उज्जडिलो महाहवो व्व' निवायदक्खो, विसगंठि व्व नाणकलो रसाणं, पडिकलो या समीहियाणं, अणकलो असमीहियस्स। ता जइ वि एस एवंभओ, तहावि पुरिसेण खणमवि न पुरिसयारो मोत्तव्वो ति। जेण महाराय ! पुवोवज्जियाणं कम्माणं चेव एवं नामं देवतो, तं च पुरिसयारजेयमेव वट्टइ ति। ता अवलंबेउ देवो पुरिसयारं, करेउ आहारगहणं । जीवमाणो हि पुरिसो लंघिऊणाक्यं अवस्सं देव ! संपयं पावेइ त्ति । राइणा भणियंभो देवसम्म ! न मक्को मए चेव अहाकालापरूवो परिसथारो। पडिवन्ना य भावओ पध्वज्जा। अओ न संपयाभिलासरं मे चित्तं । उचियकालं च नाऊण पडिवन्न अणसणं। अओ न आहारगहणं करेमि त्ति । तेण भणियं-- अकीरमाणम्मि हार गहणे सुओ ते कुप्पिस्सइ । राइणा भणियंदेव शर्मा नाम निजमहत्तर: ‘गच्छ भोजय' इति । वक्तव्यश्चैष अभुञ्जानं नियमाद् व्यापादयामि' इति । गतो देवशर्मा, दृष्टस्तेन राजा, भणितश्च- देव ! दैववशगानां प्राणिनां विषमा कार्यगतिरिति । एष च देवो नाम अनाराधनीयो विनयेन, अगुणग्राही गुणिनाम्, अकालज्ञः समीहितस्य, केवलमनर्थो जनानाम्, मत्तहस्तीव स्वच्छन्दचारी, गङ्गाप्रवाह इव ऋजुकुटिलः, महाहव इव निपातदक्षः, विषयग्रन्थिरिव नानुकूलो रसानाम्, प्रतिव लश्च समीहितानाम्, अनुकूलोऽसमीहितस्य । ततो यद्यपि एष एवंभूतः, तथापि पुरुषेण क्षणमपि न पुरुषकारो मोक्तव्य इति । येन महाराज ! पूर्वोपार्जितानां कर्मणामेवेतन्नाम देवम्, तच्च पुरुषकारजेयमेव वर्तते इति । ततोऽवलम्बतां देवो पुरुषकारम्, करोतु आहारग्रहणम् । जीवन् हि पुरुषो लङ्घित्वाऽऽपदं अवश्यमेव संपदं प्राप्नोतीति । राज्ञा भणितम्-भो देवशर्मन् ! न मुक्त एव मया यथाकालानुरूपः पुरुषकारः, प्रतिपन्ना ॥ च भावतः प्रव्रज्या। अतो न संपदभिलाषपरं मे चित्तम । उचितकालं च ज्ञात्वा प्रतिपन्नमनशनम् । अतो न आहारग्रहणं करोमि इति । तेन भणि तम्-अक्रियमाणे आहारग्रहणे सुतस्तुभ्यं अपने बड़े व्यक्ति को भेजा और कहा-"जाओ, भोजन कराओ और इससे कहो, 'यदि भोजन नहीं करता है तो निश्चित रूप से मैं मार डालूगा।" देव शर्मा गया, उसने राजा के देखा और कहा--"महाराज ! भाग्य के वश प्राणियों के कार्य की गति विषम होती है। यह देव विनय से राधन करने योग्य नहीं है, गणी व्यक्तियों के दोषों को ग्रहण करने वाला है, इष्ट कार्य का समय नहीं जानता ।', मनुष्यों के लिए केवल अनर्थ रूप है, मदमत्त हाथी के समान स्वच्छन्द विचरण करने वाला है, गंगा के प्रवाह के समान सीधा और कुटिल है, महायुद्ध के समान मारने में निपुण है, विषयग्रन्थि के समान रसों के अनुकूल नहीं है, इष्ट वस्तुओं के प्रतिकल तथा अनिष्ट व्यक्तियों के अनुकूल है अतः यद्यपि यह इस प्रकार हुआ है तथा पुरुष को क्षण भर भी पुरुषार्थ नहीं छोड़ना चाहिए । चूकि महाराज ! पूर्वोपार्जित कर्मों का ही नाम देव है, वह पौरुष से ही जीते जा सकने योग्य होता है । अतः महाराज पुरुषार्थ का अवलम्बन कीजिए, भोजन ग्र ण कीजिए । जीता हुआ व्यक्ति आपत्तियों को पारकर अवश्य ही सम्पदा पा लेता है।" राजा ने कहा--- "हे देवशम ! मैंने समय के अनुरूप पुरुषार्थ को नहीं छोड़ा है। अब मैंने भावपूर्वक दीक्षा ग्रहण कर ली है। अतः मेरा मन स पत्ति की अभिलाषा वाला नहीं है। उचित समय को पाकर अनशन को प्राप्त हो गया हूँ, अतः आहार ग्रहण नहीं करूंगा।" उसने कहा- "यदि आप आहार नहीं १, अंधयारो ब्व-ख। Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ [ समराइच्चकहा अकारणो से कोवो, सच्चपना खु तब रिसणाहवंति । तेण भणियं देव ! विइयवृत्तंतो चेव तुमं कुमारचरियस्स; ता मा ते पमायं करिस्सह । एत्थंतरम्मि 'चिरायइ देवसम्भो 'त्ति संजायामरिसवेगो तूण खगं आगओ आणंदो । भणियं च तेण - जइ न आहारगहणं करेसि, ता इमिणा कयंतजीहाणुगारिणा करवालेण सीसं ते छिन्दामि । राइणा भणियं जाणतो मरणंतं देहावासं असासयमसारं । को उम्बिएज्जं नरवर ! मरणस्स अवस्स गंतव्वे ॥२१॥ भभिमावीई सलिलच्छेए सरं व सूतं । अणुसमयं मरमाणं जियइ त्ति जणो कहं भणइ ॥ २१२ ॥ संपत्थियाण पर लोग मेगसत्थेण सत्थियाणं व । जइ तत्थ कोइ पुरओ वच्चइ भयकारणं किमिह ॥ २१३ ॥ जीयमणिच्चमवस्सं मरणं ति भणम्मि निच्छ्यं जस्स । सूणायारपसुस्त व का आसा जीविए तस्स ॥ २१४॥ कृषिष्यति । राज्ञा भणितम् - अकारणस्तस्य कोप:, सत्यप्रतिज्ञाः खलु तपस्विनो भवन्ति । तेन भणितम् - 'देव ! विदितवृत्तान्त एवं त्वं कुमारचरितस्य ततो मा ते प्रमादं कार्षीत् । अत्रान्तरे 'चिरायते देवशर्मा' इति संजातामर्षवेगो गृहीत्वा खङ्गमागत आनन्दः । भणितं च तेन - यदि नाहारग्रहणं करोषि ततोऽनेन कृतान्तजिह्वानुकारिणा करवालेन शीर्षं ते छिनद्मि । राज्ञा भणितम् जानन् मरणान्तं देहावासमशाश्वतमसारम् । क उद्विज्याद् नरवर ! मरणादवश्यगन्तव्ये ॥ २११ ॥ गर्भप्रभृति आवीच्या सलिलच्छेदे सर इव शुष्यत् । अनुसमयं म्रियमाणं जीवतीति जनः कथं भणति ॥ २१२ ॥ सम्प्रस्थितानां परलोकमेकसार्येण सार्थिकानामिव । यदि तत्र कोपि पुरतो व्रजति भयकारणं किमिह ॥ २१३ || जीवितमनित्यमवश्यं मरणमिति मनसि निश्चयं यस्य । नागारपशोरिव काशा जीविते तस्य ॥ २१४॥ करेंगे तो आपका पुत्र कुपित होगा ।" राजा ने कहा - "उसका क्रोध अकारण है; क्योंकि तपस्वी सत्यप्रतिज्ञा वाले होते हैं ।” उसने कहा- "महाराज ! आप कुमार के चरित्र को जानते ही हैं अत आपको प्रमाद नहीं करना चाहिए ।" इसी बीच 'देवशर्मा देर कर रहा है' इस प्रकार क्रुद्ध हुआ आनन्द तलवार लेकर आया। उसने कहा -"यदि आहार नहीं लेते हो तो यम की जीभ का अनुकरण करने वाली इस तलवार से तुम्हारा सिर काट डालूंगा ।" राजा ने कहा देह में आत्मा का वास केवल मरण तक अतः उसे अशाश्वत और असार जानकर हे नरश्रेष्ठ ! कौन अवश्य प्रापणीय (पाप योग्य) मरण से भयभीत होगा । गर्भ से लेकर निरन्तर पानी कम होते हुए सूखे तालाब के समान प्रति समय मरते हुए को जीता है, ऐसा जन कैसे कहलाता है ? प्रस्थान करते हुए व्यापारियों में से जिस प्रकार एक व्यापारी पहले चला जाता है, उसी प्रकार यदि कोई पहले परलोक चला जाता है, तो यहाँ भय का क्या कारण है ? जीवन अनित्य है, मरण आवश्यक है, ऐसा जिसके मन में निश्चय है उस व्यक्ति को कसाईखाने में बँधे हुए पशु के समान जीवन की क्या आशा है ? ।।२११-२१४ ।। Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीओ भवो 1 हंदि ! जराधणुहत्थो वाहिसयविइण्णसायगो एइ | माणुसमय जहवहं विहाणवाहो करेमाणो ॥ २१५॥ न गणेइ पच्चवायं न य पडियारं चिराणुवत्त वा । सच्छंदहं विहरइ हरि व्व मच्चू मयकुलेसु ॥ २१६॥ एक्के च्चिय निव्विण्णा पुणो पुणो जाइउं च मरिउं च । जे भवमच्चुव्विग्गा भवरोगहरं अणुचरंति ॥ २१७॥ जरमरणरोगसमणं जिणवयणरसायनं अमयसारं । पाउं परिणामसुहं नाहं मरणस्स बीहेमि ॥२१८॥ शोसियपावमलाणं परिसाडियबंधलोहनियलाणं । कि कुणइ फालमरणं कयपडियारं मणुस्साणं ॥ २१६ ॥ अज्जियतवोधणाणं कलेवरहरे विनिष्पिवासाणं । सं लिहियसरीराणं मरणं पि वरं सुविहियाणं ॥ २२० ॥ हन्त ! जराधनुर्हस्तो व्याधिशतवितीर्णसायक एति । मानुषमृगयूथवधं प्रभातव्याधः कुर्वन् ॥ २१५॥ न यति प्रत्यवायं न च प्रतिकारं चिरानुवृत्ति वा । स्वच्छन्दसुखं विहरति हरिरिव मृत्युमृगकुलेषु ॥२१६॥ एके एव निर्विण्णाः पुनः पुनर्जनितुं च मतु च । ये भवमृत्यूद्विग्ना भवरोगहरमनुचरन्ति ॥ २९७॥ जरामरणरोगशमनं जिनवचन रसायनममृतसारम् । प्राप्य परिणामसुखं नाहं मरणाद् बिभेमि ॥२१८॥ त्यक्तपालानां परिशाटितबन्धलोभनिगडानाम् । किं करोति कालमरणं कृतप्रतिकारं मनुष्याणाम् ॥ २१६ ॥ अर्जिततपोधनानां कलेवरगृहेऽपि निष्पिपासानाम् । संलिखितशरीराणां मरणमपि वरं सुविहितानाम् ॥ २२०॥ हाय ! बुढ़ापे रूपी धनुष को हाथ में लेकर सैकड़ों बीमारियों रूपी बाणों को बिखेरता हुआ विधाता रूपी बहेलिया मनुष्य रूपी मृगों के झुण्ड को वध करता हुआ आ रहा है । न तो बाधाओं को गिनता है, न प्रतीकार को और न चिरकालीन अनुसरण को ही गिनता है । सिंह जिस प्रकार मृगों के बीच स्वच्छन्द विहार करता है, उसी प्रकार मृत्यु भी मृतों के समूह में स्वच्छन्द सुख से विहार करती है । कुछ विरक्त पुरुष होते हैं जो पुनः जन्म और मृत्युरूप संसार से उद्विग्न होकर संसार रूपी रोग को हरण करने वाले वचन का अनुसरण करते हैं । बुढ़ापा और रोग को शान्त करने वाले परिणाम में सुखकारी जिनेन्द्र-वचन रूप अमृतमयी सारभूत रसायन को पाकर मैं मृत्यु से नहीं डरता हूँ । जिसने पापरूपी मल को दूर कर दिया है, बन्धनरूप लोभ की बेड़ियों को तोड़ डाला है, इस प्रकार प्रतीकार करने वाले मनुष्यों का मृत्यु क्या कर सकती है ? तपरूप धन का जिन्होंने अर्जन कर लिया शरीर रूप घर में भी जो प्यासे नहीं हैं, जिनका शरीर सल्लेखनामय है, इस प्रकार सत्कार्य करने वालों के लिए मरण भी अच्छा है ॥२१५-२२०॥ 老父認 Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [समराइच्चकहा सुगहियतवपत्ययणा निविसिऊण नियमेण अप्पाणं । मरणं मग्गंति मणारहेहि धोरा धिइसहाया ॥२२१॥ जस्स मयस्सेगयरो सग्गो मोक्खो व होइ नियमेण । मरणं पि तस्स नरवर ! ऊसवभूयं मणूसस्स ॥२२२॥ अणवरयरोगभासुरवसणविसाणुगयदीहदाढस्स। कत्थ गओ वा मु-वइ कयंतकण्हाहिपोयस्स ॥२२३॥ न वि जद्धं न पलायं कयंतहस्थिम्मि अग्घइ भयं वा। न य से दीसइ हत्थो गेण्हइ य दढं अमोक्खो य ॥२२४॥ जह वा लुणाइ सासाइ कासओ परिणयाइ कालेण। इय भूयाई' कयंतो लुणाइ जायाई जायाइं ॥२२५॥ जइ ताव मच्चुपासा सच्छंदसुहं सुरेसु वियरंति। अच्चतमणोयारो नत्थ जरारोगवाहीणं ॥२२६।। सुगहीततपःपथ्यद ना निर्वेश्य नियमेनात्मानम् । मरणं मार्गयन्ति मनोरथै/रा धतिसहायाः ॥२२॥ यस्य मृतस्यैकतरः स्वर्गो मोक्षो वा भवति नियमेन । मरणमपि तस्य नरवर ! उत्सवभूतं मनुष्यस्य ।।२२२।। अनवरतरोगभासुरव्यसनविषानुगतदीर्घदा(ढात्)ढस्य । कुत्र गतो वा मुच्यते कृतान्तकृष्णाहिपो(तात्)तस्य ॥२२३॥ नापि युद्धं न प्रलाप कृतान्तहस्तिनि अर्घति भयं वा । न च तस्य दश्यते हस्तो गृह्णाति च दढममोक्षश्च ॥२२४॥ यथा वा लुनाति सत्यानि कर्षक: परिणतानि कालेन । इति भूतानि कृतान्तो लुनाति जातानि जातानि ॥२२५।। यदि तावन्मृत्युपाशाः स्वच्छन्द सुखं सुरेषु विचरन्ति । अत्यन्तमनवतारो यत्र जरारोगव्याधीनाम् ॥२२६।। जो तपरूप पथ्य को अच्छी तरह ग्रहण कर चुके हैं, नियमपूर्वक आत्मा को स्थिर बना लिया है ऐसे धीर एवं आत्मबली पुरुष स्वयं मृत्यु से भ्रान्त नहीं होते। जिस मृत व्यक्ति के एक ओर निश्चित रूप से स्वर्ग या मोक्ष होता है, हे नरश्रेष्ठ ! उसके लिए मरण भी उत्सव के तुल्य होता है । जिनकी दाढ़े निरन्तर पीड़ा देने वाले रोगों से उद्दीप्त हैं तथा जो विपत्ति रूपी विष से परिपूर्ण हैं ऐसे उमराज रूपी काले सांप के बच्चे से कोई मनुष्य कहाँ जाकर छूट सकता है ? कौन मुक्त हो सकता है ? यम रूपी हाथी के समक्ष युद्ध, प्रलाप और भय का कोई मूल्य नहीं है। उसका हाथ दिखाई नहीं देता है पर इतनी दृढ़ता से वह हाय किड़ लेता है कि उससे छुटकारा नहीं हो सकता। जैसे कृषक पकने पर धान्य को काट डालता है उसी प्रकार यराज उत्सन्न होने वाले प्राणियों को काटता जाता है। अथवा जैसे काश नामक रोगविशेष काल से परिणत वसों को काट डालता है उसी प्रकार जन्म लेने वाले प्राणियों को यम भी काटता है। जहाँ पर जरा, रोग और पाधियों का अवतरण नहीं है उन देवताओं में भी मृत्यु के पाश स्वच्छन्द और सुखपूर्वक घूमते हैं। १. भयाइ-च, 2. जायाइ-च, 3. वाहिणि च । Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोबो भयो] १२. किं पुण वाहिजरारोगसोगनिच्य म्मि माणुस्से । मच्चुस्स सो पमाओ जं जियइ नरो निमेसं पि ॥२२७।। ता मा अधीरजणसेवियस्स अयसस्स देहि उ(अ)वयासं । न हु मच्चुदाढलीढं इंदो वि पहू नियत्तेउं ।।२२८॥ इय मयमारणमेत्तेण वच्छ ! मा नियकुलं कलंकेहि। गेण्हामि कहं चत्तं हंत ! सवायाए आहारं ॥२२६।। सोऊण इयं वयणं कोवाणलजलियरत्तनयणेण । 'जंपइ अज्जाऽवि कहं' पहओ सोसम्मि खग्गेणं ॥२३०।। परिचितियं च तेणं 'नमो जिणाणं' ति मुणियतत्तेणं । 'पुवकयकम्मदोसो एसो' त्ति विसुद्धभावेणं ॥२३१॥ सव्वो पव्वकयाणं कम्माणं पावए फलविवागं । अवराहेसु गुणेसु य निभित्तमेत्तं परो होइ ॥२३२॥ किं पुनर्व्याधिजरारोगशोकनित्योद्रुते मानुषे । मत्योः स प्रमादो यज्जावति नरो निमेषमपि।।२२७॥ ततो माऽधीरजनसेवितस्यायशसो देह अवकाशम् । न खलु मृत्युदाढालोढं इन्द्रोऽपि प्रभुनिवतयितुम् ॥२२८।। इति मतमारणमात्रेण वत्स ! मा निजकुलं कलङ्कय । गामि कथं त्यक्त हन्त ! स्ववाचा आहारम् ॥२२६।। श्र त्वेदं वचनं कोपानलज्वलितरक्तनयनेन । जल्पति अद्यापि कथं प्रहतः शीर्षे खङ्गन ।।२३०।। परिचिन्तितं च तेन 'नमो जिनेभ्यः' इति ज्ञाततत्त्वेन । पूर्वकृतकर्मदोष एष इति विशुद्धभावेन ॥२३१॥ सर्वः पूर्वकृतानां कर्मणां प्राप्नोति फलविपाकम् । अपराधेषु गुणेषु च निमित्तमात्रं परो भवति ॥२३२।। फिर यदि व्याधि, जरा,रोग और शोक से नित्य पीड़ित मनुष्य क्षण भर भी जीता है तो यह मृत्यु का प्रमाद ही है। अतः अधीर मनुष्यों के द्वारा सेवित अयश को अवकाश न दो, मृत्यु की दाढ़ में गया हुआ इन्द्र जैसा समर्थ प्राणी भी छुटकारा नहीं पा सकता। अत: वत्स ! मात्र मरे हुए को मारकर अपने कल को कलंकित मत करो। जब मैंने अपनी वाणी से आहार का त्याग कर दिया तो बडे खेद की बात है. उसे मैं ग्रहण कैसे करूँ ?" इस वचन को सुनकर क्रोधरूपी अग्नि में जलते हुए नेत्रों वाले उसने 'आज भी ता है'-कहकर तलवार से सिर पर प्रहार किया। जिसने तत्त्वों को जान लिया था ऐसे उस राजा ने 'यह मेरे पूर्वकृत कर्मों का ही दोष है' ऐसा विशुद्ध भावों से चिन्तवन कर 'जिनेन्द्र भगवान् को नमस्कार हो ऐसा कहा। सभी प्राणी पूर्वकृत कर्मों के फल के विपाक को प्राप्त करते हैं। अपराधों और गुणों में दूसरा कोई निमित्त मात्र ही होता है ॥२२७-२३२॥ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० एवं च चितयंतो पुणो वि हंतुण पावकम्मेणं । fafarsओ महत्पा अकलुस चित्तो सकलुसेणं ॥ २३३॥ मरिऊण य उववन्नो सणकुमारम्भ सुरवरो जुइमं । अह पंचसागराऊ लीलारामे विमाणम्मि || २३४ ॥ इयरोविय काऊणं रज्जं मरिऊण रयणपुढवीए । saarat नेरइओ उक्कोसाऊ महाघोरा ॥ २३५।। समराइच्चकहाए बोओ भवो समत्तो । एवं च चिन्तयन् पुनरपि हत्वा पापकर्मणा । विनिपातितो महात्माsकलुषचित्तः सकलुषेण ॥२३३॥ मृत्वा चोपपन्नः सनत्कुमारे सुरवरो द्युतिमान् । अथ पञ्चसागरायुर्लीलारामे विमाने ॥ २३४ ॥ इतरोऽपि च कृत्वा राज्यं मृत्वा रत्नपृथिव्याम् । उपपन्नो नैरयिक उत्कृष्टायुर्महाघोरः ।। २३५॥ याकिनीमहत्तरासूनु- परमगुणानुरागि परम सत्यप्रिय-भगवत् - श्रीहरिभद्रसूरिवररचितायां समरादित्यकथायां द्वितीयो भवः समाप्तः । [ समराइच्चकहा जब वह ऐसा सोच रहा था तब उस पापी के द्वारा पुनः मारा गया वह महात्मा निर्मल चित्त होकर मरा और सनत्कुमार नामक स्वर्ग में लीलाराम, विमान में पाँच सागरोपम आयु वाले कान्तिमान देव के रूप में उत्पन्न हुआ। दूसरा भी (आनन्द) राज्य करके मरने पर रत्नप्रभा पृथ्वी में उत्कृष्ट आयु वाला महाघोर नारकी के रूप में उत्पन्न हुआ ।।२३३-३३५।। ॥ दूसरा भव समाप्त ॥ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तइओ भवो वक्खायं जं भणियं सोहा णंदा य तह पियापुत्ता । सहि-जालिणिमाइसुआ एत्तो एअं पवक्खामि ॥२३६॥ अस्थि इव जंबुद्दीवे, अवरविदेहे खेत्ते अपरिमियजणनिवास, अणणुहूयवाहिवेयणं, अदिट्ठपरचक्कविभमं, सुंदरपुरनायगभूयं कोसंबनाम नयरं । जत्थ सरलसहावो, थिरसिणेहाणुबंधो, अगराहाणी, धम्मफलकप्पो इत्थियाजणो । जत्थ पियंबओ, सच्चवयणो, पढमाभिभासी, धम्मनिरओ य मणुस्वग्गो । तत्थ य अणेयसमर संघट्टविणिज्जियद रियनरि दावणयपत्हत्थवियडमउडकोडिरयणप्पहारज्जियचरणजुयलो राया नामेण अजियसेणी त्ति । तस्स य सयलरज्जचितओ, अत्तानिविसेस इंदसम्मो नाम माहणसचिवो । सुहंकरा से भारिया । इओ य सो आणंदनारओ सागरोवमंतम्मि नरए खविऊण, अन्ने वि किंचूर्ण चत्तारि सागरोवमे संसारे समाहिंडिय इंदसम्मस्स व्याख्यातं यद् भणितम् सिंहाऽऽनन्दौ च तथा पितृपुत्रौ । शिखि - जालिनिमातृसुते इत एतत् प्रवक्ष्यामि ॥२३६॥ अस्ति इहैव जम्बुद्वीपे अपरविदेहे क्षेत्रे अपरिमितजन निवासम्, अननुभूतव्याधिवेदनम्, अदृष्टपरचक्रविभ्रमम्, सुन्दरपुरनायकभूतं कौशाम्बं नाम नगरम् । यत्र सरल स्वभाव:, स्थिरस्नेहानुबन्धः, अनङ्गराजधानी, धर्मफल कल्पः स्त्रीजनः । यत्र प्रियंवदः, सत्यवचनः, प्रथमाऽभिभाषी धर्मनिरतो मनुष्यवर्गः । तत्र च अनेकसमरसंघट्टविनिजित दृप्तनरेन्द्रावनतपर्यस्त विकटमुकुटकोटिरत्नप्रभारञ्जितचरणयुगलो राजा नाम्ना अजितसेन इति । तस्य च सकल राज्यचिन्तकः, आत्मनिर्विशेष इन्द्रशर्मा नाम ब्राह्मणसंचिवः । शुभंकरा तस्य भार्या । इतश्च स आनन्दनारकः सागरोपममन्ते नरके क्षपयित्वा अन्यानि अपि किञ्चिदूनानि चत्वारि सागरोपमाणि संसारे समा , पिता-पुत्र के रूप में सिंह और आनन्द के विषय में जो वर्णन किया, उसकी व्याख्या हो गयी । अब यहाँ पर पुत्र और माता के रूप में शिखि और जालिनी के विषय में कहूँगा || २३६ || इसी जम्बूद्वीप के अपरविदेह क्षेत्र में कौशाम्ब नाम का नगर निवास था । वहाँ पर किसी रोग की वेदना का अनुभव नहीं होता था, और वह नगर सुन्दर नगरों के नायक के समान था । वहाँ की स्त्रियाँ उद्देश्य रखने वाली, काम की राजधानी और धर्मरूप फल के सदृश थीं । वहाँ पर मनुष्यवर्ग प्रिय बोलने वाला, सत्यभाषी, प्रथम बोलने वाला तथा धर्म में रत था । वहाँ का राजा अजितसेन था । उस राजा के दोनों चरण अनेक युद्धों की टक्कर में जीते गये गर्वीले राजाओं के झुके हुए अस्त-व्यस्त भयंकर मुकुटों के अग्रभाग में लगे हुए रत्नों की प्रभा से रंजित थे । उसका समस्त राज्य की चिन्ता करने वाला, अपने समान इन्द्र शर्मा नामक ब्राह्मण मन्त्री था । उसकी पत्नो शुभंकरा थी । इधर वह आनन्द नारकी नरक में एक सागर की आयु व्यतीत कर १. सुरपुरनायभूयं - ख । था । उस नगर में अपरिमित जनों का शत्रुओं का भ्रमण नहीं देखा जाता था सरल स्वभाब वाली, स्थिर स्नेह का Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० [ समराइज्यकहा माहणस्स सुहंकराए भारियाए कुच्छिसि इत्थियत्ताए उववन्नोति । जाया उचियसमएणं । कयं से नाम जालिणित्ति कहाणयविसेसेण । पत्ता जोव्वणं । दिन्ना तस्स चेव राइणो बुद्धिसागराभिहाणसचिवपुत्तस्स बंभदत्तस्स । कयं पाणिग्रहणं । भुंजमाणाण भोए गओ कोइ कालो । इओ सो सहदेवो तओ देवलोगाओ चविऊण अचितमाहप्पयाए कम्मरस, तीसे चेव जालिजीए कुच्छिसि पुत्तत्ताए उववन्नोति । दिट्ठो य तोए तीए चैव रयणीए सुमिणओ- जहा किर सुवण्णमयपुण्णकलसो मे उयरं पविट्टो, सो य असंजायपरिओसाए विणिग्गओ समाणो कहकह वि भग्गो त्ति । त च दट्ठूण ससज्झसा वि य विउद्धा एसा । जाओ से संकिण्णो सुहरसो । न साहिओ य तीए सुमिणओ दइयस्स । तओ बडिउं पयत्तो गन्भो । जाया से देहमणपीडा । चितियं च तीए - 'वावाएमि ताव एवं पावगन्भं ति । पउत्ताइं गब्भसाडणाई । कम्मविवागओ न विदन्नो गन्भो । मुणिओ य वुत्तन्तो बंभदत्तेण । निउत्तो तेण परियणो पसूइसमए, जहा गब्भविवत्ती न हवइ तहा तुम्भेहिं जइयध्वं अवि य भट्टिणीपरिओसनिमित्तं कचि चित्तं से वंचिऊण मम निवेइयन्वो हिण्ड्य इन्द्रशर्मणो ब्राह्मणस्य शुभंकरता भार्याया कुक्षौ स्त्रिकतया उपपन्न इति । जाता उचितसमयेन । कृतं तस्या नाम जालिनी इति कथानकविशेषेण । प्राप्ता यौवनम् । दत्ता तस्य एव राज्ञो बुद्धिसागराभिधान सचिवपुत्रस्य ब्रह्मदत्तस्य । कृतं पाणिग्रहणम् । भुञ्जानयोर्भोगान् गतः कश्चित् कालः । इतश्च सः सिंहदेवः ततो देवलोकात् च्युत्वा अचिन्त्य माहात्म्यतया कर्मणः, तस्या एव जालिन्या: कुक्षौ पुत्रतया उपपन्न इति । दृष्टश्च तया तस्यामेव रजन्यां स्वप्नकः - यथा किल सुवर्णमयपूर्णकलशो मम उदरं प्रविष्टः स च असंजातपरितोषाया विनिर्गतः सन् कथंकथमपि भग्न इति । तं च दृष्ट्वा ससाध्वसा इव विबुद्धा एषा । जातस्तस्या संकीर्णः सुखरसः । न कथितश्च तया स्वप्नको दयितस्य । ततः स वधितुं प्रवृत्तो गर्भः । जाता तस्य देह-मनः पीडा । चिन्तितं च तया -- 'व्यापादयामि तावद् एतं पापगर्भम्' इति । प्रयुक्तानि गर्भशातनानि । कर्मविपाकतो न विपन्नो गर्भः । ज्ञातश्च वृत्तान्तो ब्रह्मदत्तेन । नियुक्तस्तेन परिजन: प्रसूतिसमये, यथा गर्भविपत्तिनं भवति तथा युष्माभिः यतितव्यम् अपि च भर्त्रीपरितोषनिमित्तं कथंचित् चित्तं तस्य वञ्चित्वा 1 और भी कुछ कम चार सागर प्रमाण संसार में भ्रमण कर इन्द्र शर्मा ब्राह्मण की शुभंकरा नामक पत्नी के गर्भ में स्त्री के रूप में आया । उचित समय पर उसका जन्म हुआ । उसका कथानक विशेष से जालिनी नाम रखा गया । ( वह) यौवनावस्था को प्राप्त हुई । उसी राजा के बुद्धिसागर नामक मन्त्री (सचिव) के पुत्र ब्रह्मदत्त को वह दी गयी । पाणिग्रहण संस्कार किया । भोग भोगते हुए दोनों के कुछ समय व्यतीत हो गया । इधर वह सिंहदेव उस स्वर्ग से च्युत होकर कर्म की अचिन्त्य महिमा से उसी जालिनी के गर्भ में पुत्र के रूप में आया। जालिनी ने उसी रात्रि में स्वप्न देखा कि स्वर्ण से भरा हुआ पूर्ण कलश उसके गर्म में प्रविष्ट हुआ और उसके असन्तुष्ट होने के कारण निकलकर किसी प्रकार टूट गया। उसे देखकर घबड़ायी हुई के समान वह जाग गयी। उसे कुछ कम सुख हुआ। उसने पति से स्वप्न के विषय में नहीं कहा। तब वह गर्भ बढ़ने लगा । उसके शरीर और मन में पीड़ा हुई। उसने सोचा इस पापी गर्भ को मार डालू" । गर्भ के नष्ट करने के उपाय किये । कर्म के फल से गर्भ नष्ट नहीं हुआ । ब्रह्मदत्त को वृत्तान्त ज्ञात हुआ । उसने जन्म के समय सेवक नियुक्त किये ( और उनसे कहा कि ) जिस प्रकार गर्भ विपत्ति में न पड़े वैसा तुम लोग उपाय करना और स्वामिनी के सन्तोष के लिए किसी प्रकार उसके चित्त को धोखा देकर मुझे निवेदन करना । उसे दोहला हुआ कि मैं सभी Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तहको भवो ति। तओ जाओ से दोहलओ-करेमि सव्वसत्ताणमाणदं, संपाडेमि देवयाययणाणं महापूयाओ, पूएमि भगवंते धम्मनिरए महातवस्सी, सुणिमो किंचि परलोयमग्गं ति। संपाडिओ से भत्तारेण डोहलो। गब्भपभावेण जामा मणोरमा लोयस्स। पत्तो य सइसमओ। पसूया एसा। चितियं च तीए- वहं पुण एस एहमेत्तपरियणसमक्खं वावाइयव्यो ति ? एत्थंतरम्मि मुणियतयभिप्पायाए बंभदत्तवयणं सरिऊण भणियं बंधुजीवाभिहाणाए बालसहीए । भट्टिणि' ! पावो खु एस गब्भो।ता अलमिमिणा किलेसाऽऽयासकारएण, वरं विइंचिको एसो त्ति । तओ कसायपरवसाए वावायणम्मि सहियणलज्जालुयाए भणियं जालिणीए--'तुम्भे जाणह' त्ति । तओ अवणीओ दारओ, निवेइओ बंभदत्तस्स । कयं से तेण सयलं सुत्थं । नीणिओ लोगवाओ 'वावन्नगब्भा भट्टिणि' त्ति । एवं च अइक्कंतो कोइ कालो । पइद्वावियं नाम बालयस्स 'सिहि' ति । वढिओ सो कलाकलावेण देहोवचएण य । संपाइयं से निरवसेसं कालोचियं बंभदत्तणं। गहिओ पच्छा "उदरपुत्तओ' त्ति । विन्नाओ य वृत्तंतो इमिणा सुमिणयदंसण-गब्भसाडणाइओय जणणीए। वेरग्गिओ एसो। मम निवेदयितव्य इति । ततो जातस्तस्या दोहदा-करोमि सर्वसत्त्वानामानन्दम् , सम्पादयामि देवतायतनानां महापूजाः, पूजयामि भगवतो धर्मनिरतान् महातपस्विनः, शृणुमः कञ्चित् परलोकमार्गम्-इति । सम्पादितस्तस्या भ; दोहदः । गर्भप्रभावेण जाता मनोरमा लोकस्य । प्राप्तश्च सूतिसमयः । प्रसूता एषा । चिन्तितं च तया-कथं पुनरेष एतावन्मात्रपरिजनसमक्षं व्यापादयितव्य इति । अत्रान्तरे ज्ञाततदभिप्रायया ब्रह्मदत्तवचनं स्मृत्वा भणितं बन्धुजीवाभिधानया बालसख्या। भत्रि ! पापः खलु एष गर्भः। ततोऽलमनेन क्लेशाऽऽयासकारकेन, वरं विभक्त (विनाशितः) एष इति । ततः कषायपरवशया व्यापादने सखीजनलज्जालु तया भणितं जालिन्या-'ययं जानीत' इति । ततोऽपनीतो दारकः, निवेदितो ब्रह्मदत्तस्य । कृतं तस्य तेन सकलं सुस्थम् । नीतो लोकवादः 'व्यापन्नगर्भा भी' इति । एवं च अतिक्रान्तः कश्चित् कालः । प्रतिष्ठापितं नाम बालकस्य 'शिखी' इति। वधितः स कलाकलापेन देहोपचयेन च । सम्पादितं तस्य निरवशेष कालोचितं ब्रह्मदत्तेन । गहीतः पश्चात् 'उदरपुत्रः' इति । विज्ञातो वृत्तान्तोऽनेन स्वप्नदर्शन-गर्भशातनादिकश्च जनन्याः। वैराग्यित एषः। प्राणियों का आनन्द करूं, देवमन्दिरों की महापूजा कराऊँ, धर्म में रत महातपस्वियों की पूजा कराऊँ और कुछ परलोक के मार्ग के विषय में सुनू'। उसके पति ने दोहला पूरा किया । गर्भ के प्रभाव से लोगों के लिए वह मनोरम हो गयी। प्रसव का समय आया । इसने प्रसव किया। उसने सोचा-कैसे इसे इतने सेवकों के सामने मार शल? इसी बीच उसके अभिप्राय को जानकर ब्रह्मदत्त का वचन सारण कर बन्धुजीवा नामक उसकी बालसखी ने कहा- "स्वामिनि ! यह गर्भ पापी है अतः क्लेश और परिश्रम को करने वाले इस गर्भ से बस अर्थात् यह गर्भ व्यर्थ है, अच्छा है इसको नष्ट कर डालें।" तब कषाय के वशीभूत होकर मारने की इच्छुक जालिनी ने सखीजनों के प्रति लज्जाशोल होने के कारण कहा--"आप लोग जाने।" तब पुत्र को ले जाया गया । ब्रह्मदत्त से निवेदन किया। उसका सब कुछ ठीक कर दिया। लोगों में अफवाह फैला दी कि स्वामिनी का गर्भ मरा निकला । इस प्रकार कुछ समय व्यतीत हुआ। बालक का नाम शिबी रखा (या । वह कल ओं के समूह और शरीर से बढ़ता गया। उसकी सारी समयोचित क्रियाएँ ब्रह्मदत्त ने सम्पन्न की। बाद में उसे गोद ले लिया। इसने माता के स्वप्नदर्शन और गर्भ नष्ट करने सम्बन्धी वृत्तान्त को जाना । इसे वैराग्य हो गया। १. वहिणि-ख। Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [समराइचकहा एत्थंतरम्मि मणियवृत्तंता पुत्तरस कसाइया से जणणी। चितियं च तेण-किह ? एवंविहा कसाया पावा भवविडविमूलजलओघा'। मोक्खत्थमुज्जएहि वज्जेयव्वा पयत्तेण ॥२३७॥ एत्तो कम्मविवुड्डी, तओ भवो, तत्थ दुक्खसंघाओ। तत्तो उब्वियमाणो पयहेज्ज तए महापावे ॥२३॥ भणियं च कलुसफलेण न जुज्जइ कि चित्तं तत्थ जं विगयरागो । संते वि जो कसाए निगिण्हइ सो वि तत्तल्लो॥२३६॥ तक्कसाओदएणं च सा कुविया बंभदत्तस्स। परिचत्तं च सयलकरणिज्जं। भणिओ बंभदत्तो। एयं वा पियं करेहि, ममं व त्ति, एयम्मि अपरिचत्ते नाहं पाणसाहारणं उदयं पि गेण्हामि ति। निसामिओ एस वुत्तंतो सिहिकुमारेण । अच्चुग्विग्गो' निग्गओ गेहाओ। चितियं च तेण-पेच्छ मे अत्रान्तरे ज्ञातवृत्तान्ता पुत्रस्य कषायिता तस्य जननी । चिन्तितं च तेन-कस्मात् ? एवंविधाः कषायाः पापा भवविटपिमलजलदोषाः । मोक्षार्थमुद्यतैः वर्जयितव्या. प्रयत्नेन ॥२३७॥ इतः कर्मविवृद्धिः, ततो भयः, तत्र दुःखसंघातः । तत उद्विजमानः प्रजह्यात् तान् महापापान् ॥२३८।। भणितं च कलुषफलेन न युज्यते किं चित्रं तत्र यद् विगतरागः । सतोऽपि यः कषायान् निगृह्णाति सोऽपि तत्तुल्यः ।।२३६॥ तत्कषायोदयेण च सा कुपिता ब्रह्मदत्तस्य । परित्यक्तं सकलकरणीयम् । भणितो ब्रह्मदत्तः । एतं वा प्रियं कुरु, मां वा इति, एतस्मिन् अपरित्यक्ते नाऽहं प्राणसन्धारणमुदकमपि गृह्णामि इति । निशमित एष वृत्तान्तः शिखिकुमारेण । अत्युद्विग्नो निर्गतो गेहात् । चिन्तितं च तेन-प्रेक्षस्व मम इसी बीच पुत्र का वृत्तान्त जानकर उसकी माता कषाय से युक्त हुई। उसने (पुत्र ने) सोचा-कैसे ? संसार रूपी वृक्ष के मूल के लिए जो बादलों के समूह के समान हैं, इस प्रकार की पापमयी कषायों को मोक्षरूप प्रयोजन के लिए उद्यत व्यक्तियों को प्रयत्नपूर्वक छोड़ देना चाहिए । इनसे कर्मों की वृद्धि होती है। कर्मों की वद्धि से भय होता है और उससे दुःखों का समूह पैदा होता है । उससे भयभीत होकर उन महापापों को छोड़ देना चाहिए । ॥२३७-२३८॥ कहा भी है जो वीतराग है वह कलुष रूप (पाप रूप) फल से युक्त नहीं होता है, इसमें आश्चर्य क्या है ? (तब फिर) जो कलुष फल से युक्त होते हुए भी कषायों का निग्रह करता है, वह भी वीतरागी के तुल्य है ॥२३६।। उस कषाय के उदय से वह (जालिनी) ब्रह्मदत्त पर क्रोधित हुई। (उसने) समस्त कार्यों को छोड़ दिया । ब्रह्मदत्त से कहा- 'इसका प्रिय करो अथवा मेरा प्रिय करो। इसको त्यागे बिना मैं प्राण धारण के लिए जल भी ग्रहण नहीं करूंगी'- इस वृत्तान्त को शिखिकुमार ने सुना। अत्यन्य दुःखी होकर घर से निकल गया। उसने १. दोघा-ग, २. अच्चम्यिागओ-ख । Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तमो भवो ] १६३ पाव परिणई, जेण जणणी वि एवं वइति । एयवइयरेणं च ताओ वि मे दुहिओ । ता न जुतं मे इह अच्छिउं । एवं चितिऊणमणापुच्छिऊण तायं निग्गओ नयराओ । असोज्जा । दिट्ठो य तत्थ असोयपायवतलगओ, ससिस्सपपरिवारिओ, एगविहसंजमरओ, दोअसज्भाणविरहिओ', तिदंडरहिओ, चउक्कसाय महणो, पंचिदियनिग्गहपरो, छज्जीवनिकायवच्छलो, सत्तभयविष्पमुक्को, अट्टमयट्ठाणरहिओ, नवबंभचेरगुत्तो' दसविहधम्मसुट्टियमणो, एक्कारसंग नाणी, वारसतवचरणकम्मनिरओ य विजयसिंहो नामायरिओ त्ति । तओ तं दट्ठूण समुपपन्ना तस्स पीती । चितियं च तेण -धन्नो खु एसो, जो अणवट्टियसिणेहविभमे संसारे, एवं धम्मेरिओति । ता पुच्छामि ताव एयं किं पुण एयस्स निव्वेयकारणं, जेण एसो एवं धम्मे निरओ त्ति । गओ तस्स समोवं । सविणयं पणमिओ भयवं । कओ से गुरुणा वि धम्मलाहो । उवविट्ठो तस्स पायमूले । पुच्छिओ य भयवं - किं ते निव्वेयकारणं ? जेणं तुमं एवं पि सव्वंगसुंदरा हिरामो, पापपरिणतिम्, येन जनन्यपि एवं वर्तत इति । एतद्वयतिकरेण च तातोऽपि मम दुःखितः । ततो न युक्तं मम इह आसितुम् । एवं चिन्तयित्वा अनापृच्छ्य तातं निर्गतो नगरात् । गतोऽशोकवनोद्यानम् । दृष्टश्च तत्र अशोकपादपतलगतः, स्वशिष्यपरिवारितः, एकविध - संयमरतः, द्विअसद्ध्यानविरहितः, त्रिदण्डरहितः, चतुष्कषायमथनः, पञ्चेन्द्रियनिग्रहपरः, षड्जीवनिकायवत्सलः, सप्तभयविप्रमुक्तः, अष्टमदस्थानरहितः, नवब्रह्मचर्यगुप्तः, दशविधधर्म सुस्थितमनाः, एकादशाङ्गज्ञानी, द्वादशतपश्च रणकर्मनिरतश्च विजयसिंहो नाम आचार्य इति । ततः तं दृष्ट्वा समुत्पन्ना तस्य प्रीतिः । चिन्तितं च तेन-धन्यः खलु एषः, योऽनवस्थितस्नेहविभ्रमे संसारे एवं धर्मे निरत इति । ततः पृच्छामि तावत् एनं किं पुनः एतस्य निर्वेदकारणं ? येन एष एवं धर्मे निरत इति । गतस्तस्य समीपम् । सविनयं प्रणतो भगवान् । कृतस्तस्य गुरुणा अपि धर्मलाभः । उपविष्टस्तस्य पादमूले । पृष्टश्च भगवान् - किं तव निर्वेदकारणम् ? येन त्वम् एवम् अपि सर्वाङ्गसुन्दराऽ सोचा- मेरे पाप का फल तो देखो जो कि माता भी ऐसी है । इस घटना के कारण मेरे पिताजी भी दुःखी हैं, अतः मेरा यहाँ रहना ठीक नहीं है-ऐसा विचारकर पिता से बिना पूछे ही घर से निकल गया । (शिखी) अशोकवन नामक उद्यान में गया । वहाँ पर उसने विजयसिंह नामक आचार्य को देखा । वे अपने शिष्यों से घिरे हुए अशोकवृक्ष के नीचे बैठे थे, एक प्रकार के संयम में रत थे, दोनों प्रकार के खोटे ध्यान (आर्त और रौद्र) से रहित थे, तीन दण्डों से रहित थे, चार कषायों ( क्रोध, मान, माया और लोभ) को ग्रष्ट करने वाले थे, पाँच इन्द्रियों को वश में करने के लिए तत्पर थे। छहकाय के जीवों के प्रति प्रेम रखते थे, त प्रकार के भयों से मुक्त थे, आठ मदस्थानों से रहित थे, नौ प्रकार के ब्रह्मचर्य से रक्षित थे, दस प्रकार के धर्मों में उनका मन भलीभांति स्थित था, ग्यारह अंगों के ज्ञाता थे और बारह प्रकार के तपों में रत थे । उन्हें देखकर उसे प्रीति उत्पन्न हुई । उसने सोचा-ये धन्य हैं जो कि अस्थिर स्नेह का विभ्रम प्रकार से धर्मरत हैं । अतः इनसे पूछता हूँ कि इस विरक्ति का क्या कारण है ? जिससे कि ये इस प्रकार धर्म में निरत हैं । ( वह) उनके पास गया । विनय सहित भगवान् को नमस्कार किया। उसके गुरु ने भी धर्मलाभ दिया । वह उनके चरणों में बैठ गया । उसने भगवान् से पूछा - " आपके वैराग्य का क्या कारण है ? आप समस्त पैदा करने वाले संसार में इस २. सुससिस - ख ३. विस्श्रो -- ख. ४. गुप्तिगुत्तो-ख ५. विजयसिंघ - ख, १. इहासिक, ६. गुरुचा धम्मलाहो' Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ समराइचकहा संदराहिरामयाओ चेव पिसुणियनियविभववित्थारो, विभववित्थारा संघियसयणवग्गो, सयणवग्गनिरवेक्खमिमं ईइसं निस्संग पवन्नो सि । गुरुणा भणियं-सुण, किमिह अद्विमंसरुहिरसंगए सरीरे वि संवरत्तं? को वा आयासमेत्तफले विहववित्थारे पडिबंधो, को वा सुमिणयसमागमचंचले सयणे त्ति । अवि य सयणस्स वि मज्झगओ रोगाभिहओ किलिस्सइ इहेगी। सयणो वि य से रोगं न विरिचइ' ने य नासेइ ॥२४०॥ मज्झम्मि बंधवाणं एक्को मरइ कलुणं रुयंताणं। न य णं धारेइ तओ बंधुजणो नेव दाराइं ॥२४॥ एक्को करेइ कम्मं फलमवि तस्सेक्कओ समणुहोइ। एक्को जायइ मरइ य परलोयं एक्कओ जाइ ॥२४२॥ पत्तेयं पत्तेयं नियगं कम्मफलमणुहवंताणं। को कस्स जए सयणो को कस्स व होइ अन्नजणो ॥२४३॥ भिसामः, सन्दराभिरामतया एव पिशुनितनिविभवविस्तारः, विभवविस्तारात् संघितस्वजनवर्गः, स्वजनवर्गनिरपेक्षामिमाम् ईदृशीं निस्संगतां प्रपन्नोऽसि । गुरुणा भणितम्-शृण, किमिह अस्थिमांसरुधिरसंगते शरीरेऽपि सौन्दर्यम् ? को वा आयासमात्रफले विभवविस्तारे प्रतिबन्धः ? को वा स्वप्नकसमागमचञ्चले स्वजने इति ? अपि च स्वजनस्याऽपि मध्यगतो रोगाभिहतः क्लिश्यति इहैकः । स्वजनोऽपि च तस्य रोगं न विभजति नैव नाशयति ।।२४०॥ मध्ये बान्धवानामेको म्रियते करुणं रुदताम् । न च तं धारयति ततो बन्धुजनो नैव दाराः ॥२४१।। एकः करोति कर्म फलमपि तस्य एकः समनुभवति । एको जायते म्रियते च परलोकमेकको याति ॥२४२।। प्रत्येकं प्रत्येकं निजकं कर्मफलमनुभवताम् । कः कस्य जगति स्वजनः कः कस्य वा भवति अन्यजनः ॥२४३॥ अंगों से सुन्दर और अभिराम लग रहे हैं । आपकी सुन्दरता और अभिरामता ही आपके निजी वैभव के विस्तार की सूचना दे रही है । वैभव के विस्तार से आपको स्वजनों का समूह मिला होगा। अपने बग्ध-बान्धवों से निरपेक्ष होकर कैसे इस प्रकार की निरासक्ति को प्राप्त हुए हैं ?" गुरु ने कहा- "सुनो-इस हड्डी, मांस और खून से मिले हुए शरीर में सौन्दर्य क्या है ? परिश्रम मात्र जिसका फल है, ऐसे वैभव के विस्तार में अविच्छिन्न सम्बन्ध क्या है ? अथवा स्वप्न के समागम के समान चंचल' स्वजनों से क्या सम्बन्ध है ? कहा भी है इस संसार में हरएक अपने स्वजनों (बन्धुबान्धवों) के बीच भी रोग से पीड़ित होकर दुःखी होता है। स्वजन भी न तो उसके रोग को बाँट सकते हैं और न ही नष्ट कर सकते हैं । बन्धुओं के मध्य करुण क्रन्दन करते हुए कोई एक मर जाता है। उसे न तो बन्धुजन बचा पाते हैं और न स्त्री बचा पातो है। अकेला ही (जीव) कर्म को करता है और उसके फल को भी अकेला ही भोगता है । अकेला जन्म लेता है, अकेला मरता है और अकेला ही परलोक जाता है। प्रत्येक प्राणी अपने-अपने कर्म का फल भोगता है। संसार में कौन किसका स्वजन है और कौन किसका परजन ।।२४०-२४३।। १. विगिव्हइ-ख। Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरिऊण वेरिओ वि हु जायइ जणगो', सुओ विहु रिवति । ता अणवदियभावे सयणे संगो ति मोहफलं ॥२४४॥ अन्नं च । सुण, अम्हाणमेव जं वत्तं अस्थि इहेव विजए लच्छिनिलयं नाम नयरं । तत्थ सागरदत्तो नाम सत्थवाहो, सिरिमई से भारिया, ताणं अहं सुओ ति । कुमारभावे वट्टमाणो गओ तन्नयरासन्नमेव लच्छिपव्वयं । दिट्ठो य तत्थ एगम्मि विभागे सिणिद्धपत्तसंचओ, धरापविद्वदीहपायगो, नालिएरिपायवो ति। तं च दटठण सम्प्पन्नं मे कोउयं । चितिय च मए--अहो ! अच्छरियं । एइहमेत्तस्सवि पायवस्स एहमेत्ताओ विभागाओ ओयरिऊण पायओ धरणि पविट्ठो त्ति । ता नूणमेत्थ कारणेण होयव्वं । एत्थंतरम्मि य अयडम्नि चेव संजाओ मे पमोओ, वियंभिओ सुरहिमारुओ, विमुक्को सहजो वि वेराणुबंधो पसुगणेहि, भुवणसिरीए विय स्मद्धासिओ लच्छिपवओ, सव्वोउयकुसुमेहि वि पुप्फियाई काणणुज्जाणाई, पमुइया विहंगसंघाया, मणहरुत्तालरम्मं च गुंजियं छप्पयावलीहि, विसुद्धपया मृत्वा वैरिकोऽपि खलु जायते जनकः, सुतोऽपि खलु रिपुरिति । ततोऽनवस्थितभावे स्वजने संग इति मोहफलम् ।।२४४॥ अन्यच्च । शृणु, अस्माकमेव यद् वृत्तम् - अस्ति इहैव विजये लक्ष्मीनिलयं नाम नगरम् । तत्र सागरदत्तो नाम सार्थवाहः, श्रीमती तस्य भार्या । तयोरहं सुत इति । कुमारभावे वर्तमानो गतो तन्नगरासन्नमेव लक्ष्मीपर्वतम् । दृष्टश्च तत्र एकस्मिन् विभागे स्निग्धपत्रसंचयः, धराप्रविष्टदीर्घपादकः, नालिकेरीपादप इति । तं च दृष्ट्वा समुत्पन्नं मम कौतुकम् । चिन्तितं च मया-अहो ! आश्चर्यम् । एतावन्मात्रस्यापि पादपस्य एतावन्मात्राद् विभागाद् अवतीर्य पादको धरणीं प्रविष्ट इति । ततो नूनमत्र कारणेन भवितव्यम् । ___ अत्रान्तरे च अकाण्ड एव संजातो मम प्रमोदः, विजम्भितः, सुरभिमारुतः, विमुक्तः सहजोऽपि वैरानुबन्ध ः पशुगणः, भुवनश्रिया अपि समध्यासितो लक्ष्मीपर्वतः, सर्वऋतुककुसुमैरपि पुष्पितानि काननोद्यानानि, प्रमुदिता विहंगसंघाताः, मनोहरोत्ताल रम्यं च गुञ्जितं षट्पदावलीभिः, विशद्ध मरकर पिता वैरी हो जाता है, पुत्र भी वैरी हो जाता है, अतः अस्थिररूप स्वजनों में आसक्ति करना मोह का ही फल है ॥२४४॥ दूसरी बात और भी है, सुनो, हमारे ही ऊपर जो घटित हुई इसी देश में लक्ष्मीनिलय नाम का नगर है। वहाँ पर सागरदत्त नाम का वणिक् (सार्थवाह) और उसकी श्रीमती नामक पत्नी थी। उन दोनों का मैं पुत्र हूँ । कुमारावस्था में मैं उसी नगर के पास लक्ष्मीपर्वत पर गया। वहाँ एक स्थान पर चिकने पत्तों के समूह वाला एक नारियल का वृक्ष देखा, जिसको बहुत बड़ी शाखा पथ्वी में घुसी थी। उसे देखकर मुझे कोलूहल उत्पन्न हुआ। मैंने सोचा--अरे आश्चर्य है ! इतने से वृक्ष के इतने विभाग से निकल कर यह शाखा पृथ्वी में प्रविष्ट हुई है । इसका निश्चित ही कारण होना चाहिए। इसी बीच असमय में ही मुझे हर्ष हुआ, सुगन्धित हवा चलने लगी, पशुओं ने सहज वैर सम्बन्ध छोड़ दिया, लक्ष्मीपर्वत लोक की शोभा से युक्त हो गया, वन और उद्यानों में सभी ऋतुओं के फूल खिल गये, पक्षियों का समूह प्रमुदित हो गया, भौंरों की पंक्तियों ने मनोहर, उच्च स्वर वाला और रमणीय गुंजन किया, विशुद्ध प्रकाश १. जणणी-ख, २. य-ख, ३. रिउ-ख, ४. लच्छितिलयं-ग। Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ [ समराइज्यका समतावं च तमुद्देसमुज्जोइउं पयतो रवी । तओ मए चितिथं 'अह पुण कि इमं भुवणच्छेरयं' ति । एत्थंतरम्मि तरुण रविमंडलनिहं, सुविसुद्ध जच्चकंचणं, अणेयरयणमंडियं, जयजयरवावूरियनहंगणं, गिज्जंततिय समंगलं, निवडंतकुसुमबुद्धि, अणेयतियसपरियरियं विजियसंसारचक्कपिसुणयं, अवरदिसाओ समोवयं तं भगवओ अजियदेवतित्थवरस्स दिट्ठ मए धम्मचक्कं ति । तयणंतरं च महगुणरयणभूसिया सियंबरधारिणो अगे साहवो, तओ सुरधरियकुंदधवलायवत्तो दुंदुहिनिणायब - हिरियनहंगणो, विरायंत दिव्वभामंडलो, सुरवइसमुक्खित्तचारुचामरो, सुरासुर मणुयवंद्रसंधुओ, कालायरुपवर तुरुक्क धूव महमहंत गंधो, गंधवट्टिभूओ अच्चतसोमो कंचणमय दिव्वकमलावलीए परिसक्कमाणो भयवं, तिलोयनाहो, नित्थिण्णभवसमुद्दो अजियदेवतित्थयरोति । तं च दट्ठूण समुप्पण्णो मे पमोओ, पणट्ठ मिच्छत तिमिरेणं, वियंभियं धम्मववताएणं । चितियं च मए-धन्नो अहं, जेण मए तिलोर्याचतामणी भयवं उवलद्धो त्ति | प्रकाशमतापं च तमुद्देशमुद्द्द्योतयितुं प्रवृत्तो रविः । ततो मया चिन्तितम् - अथ पुनः किमिदं भुवनाश्चर्यकम् - इति । अत्रान्तरे तरुण रविमण्डलनिभम्, सुविशुद्ध जात्यकाञ्चनम्, अनेकरत्नमण्डितम्, जयजयपूरित भोऽङ्गणम्, गोयमानत्रिदशमङ्गलम्, निपतत्कुसुमवृष्टि, अनेकत्रिदशपरिकरितम्, विजितसंसारचक्रपिशुनकम्, अपरदिशः समवपतद् भगवतोऽजितदेवतीर्थंकरस्य दृष्टं मया धर्मचक्रम् - इति । तदनन्तरं च महार्घ गुणरत्नभूषिताः सिताम्बरधारिणोऽनेके साधवः, ततः सुरधृतकुन्दधवलातपत्रः, दुन्दुभिनिनादवधिरितनभोऽङ्गणः, विराजमानदिव्यभामण्डलः, सुरपतिसमुत्क्षिप्तचारुचामरः, सुरा - सुरमनुजवन्द्रसंस्तुतः, कालागुरुप्रवरतुरुष्क धूपप्रस रद्गन्धः, गन्धवर्तिभूतः, अत्यन्तसौम्यः, काञ्चनमयदिव्य कमलावल्या परिसरन् भगवान्, त्रिलोकनाथः, निस्तीर्णभवसमुद्रः, अजितदेवतीर्थंकर इति । तं च दृष्ट्वा समुत्पन्नो में प्रमोदः, प्रनष्टं मिथ्यात्वतिमिरेण, विजृम्भितं धर्मव्यवसायेन, चिन्तितं च मया -- धन्योऽहम् येन मया त्रिलोकचिन्तामणिर्भगवान् उपलब्ध इति । और धूप से उस स्थान को उद्योतित करता हुआ सूर्य निकला । तब मैंने सोचा -लोक का यह क्या आश्चर्य है ? इसी बीच मैंने भगवान् तीर्थंकर अजितनाथ का धर्मचक्र देखा । वह तरुण सूर्यमण्डल के समान था, विशुद्ध नवीन स्वर्ण से युक्त था तथा अनेक रत्नों से मण्डित था । उस समय 'जय जय' शब्दों से सारा आकाश व्याप्त था तथा देवगण मंगलगान कर रहे थे, फूलों की वर्षा हो रही थी। अनेक देवगण से वह धर्मचक्र घिरा था, उसने बुरे संसारचक्र को जीत लिया था और वह पश्चिम दिशा में उतर रहा था । तदनन्तर मैंने अनेक गुणरूपी रत्नों से विभूषित सफेद वस्त्र धारण किये हुए अनेक साधु देखे । अनन्तर मैंने तीर्थंकर अजितदेव को देखा । देवताओं द्वारा उनके ऊपर सफेद कुन्द पुष्प के समान छत्र लगाया गया था। ( उस समय ) आकाशरूपी आँगन दुन्दुभिनाद से बहरा हो रहा था । (उनके पीछे ) दिव्य भामण्डल शोभित हो रहा था । इन्द्र उनके ऊपर सुन्दर चंवर ढोर रहा था। सुर, असुर और मानवों का समूह उनकी स्तुति कर रहा था । श्रेष्ठ तुर्की कालागरू की धूप की गन्ध उनके चारों ओर फैल रही थी । वे स्वयं सुगन्धित और अत्यन्त सौम्य थे । स्वर्णमय दिव्य कमलों की पंक्ति पर उनका आसन था। तीनों लोकों के वे नाथ थे और उन्होंने संसार रूपी समुद्र को पार कर लिया था । उनको देखकर मुझे हर्ष उत्पन्न हुआ । ( मेरा मिथ्यात्व रूपी अन्धकार नष्ट हो गया । धर्म पुरुषार्थ वृद्धिगत हो गया तथा मैंने सोचा --- मैं धन्य हूँ जो कि मैंने तीनों लोकों के चिन्तामणि भगवान् को पा लिया । 1 ) Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सानो भवो] ११७ एत्थंतरम्मि य कयं तियसेहिं भयवओ मणिकणयकलहोयमयनिम्मियपायारतियं, सुविहत्तदिव्वतोरणं, रयणमयविचित्तकविसीसयं, ऊसियमहाकेउनिवह, गुंजंतमहुयरामोयसोहियं, ऊसियसियायवत्तमणहरं, वेरुलियदिव्वसीहासणं, महल्लसीहधयचक्कमंडियं समोसरणं ति । पविट्ठो भयवं । पत्युया धम्मकहा । कहिओ भगवया असासओ जीवलोगो । अवगओ अम्हाणं । तओ तं पुत्वकोउयं समणुस्सरतेण पुच्छिओ भयवं मए तिलोयनाहो। भयवं ! किं पुण तस्स नालिएरिपायवस्स पायओ ओइण्णो, कि अत्थि तत्थ दविणजायं कि वा नहि (निही), किपरिमाणं वा, केण वा तं ठवियं, कोइसो वा तस्स विवागो त्ति ? भगवया भणियं-सुण, लोहदोसेण पायओ ओइण्णो। अस्थि तत्थ दविणजायं । तं च दीणारसत्तलक्खपरिमाणं । तुमए तेणं च नालिएरिजीवेण ठावियं । धम्मसाहओ य विवागो एयस्स । मए भणियं-भयवं! कहं पुण मए इमिणा य ठवियं, कहं च मम ईदिसो विवागो इमस्स वि ईदिसो त्ति । भगवया भणियं-सुण, अत्थि इहेव विजए अमरउरं नाम नयरं। तत्थ अमरदेवो नाम गाहावई होत्था। सुंदरी से अत्रान्तरे च कृतं त्रिदशैर्भगवतो मणिकनकवलधौतमयनिर्मितप्राकारत्रिकम , सुविभक्तदिव्यतोरणम्, रत्नमयविचित्रक पिशीर्षकम्, उच्छितमहाकेतुनिवहम्, गुञ्जन्मधुकराऽऽमोदशोभितम्, उच्छ्रितसिताऽऽतपत्रमनोहरम्, वैडूर्यदिव्यसिंहासनम् , महासिंहध्वजचक्रमण्डितं, समवसरणम्इति । प्रविष्टों भगवान् । प्रस्तुता धर्मकथा । कथितो भगवता अशाश्वतो जीवलोकः । अवगतोऽस्माभिः । ततस्तं पूर्वकौतुकं समनुस्मरता पृष्टो भगवान् मया त्रिलोकनाथः । भगवन् ! कि पुनस्तस्य नालिकेरीपादपस्य पादकोऽवतीर्णः, किम् अस्ति तत्र द्रविणजातं किं वा निधि:. किंपरिमाणं वा, केन वा तत् स्थापितम् , कीदृशो वा तस्य विपाक इति ? भगवता भणितम्-- शृणु, लोभदोषेण पादकोऽवतीर्णः । अस्ति तत्र द्रविणजातम् । तच्च दीनारसप्तलक्षपरिमाणम् । त्वया तेन च नालिके रोजीवेन स्थापितम् । धर्मसाधकश्च विपाक एतस्य । मया भणितम्-भगवन् ! कथं पुनर्मया अनेन च स्थापितम्, कथं मम ईदृशो विपाकः, एतस्याऽपि ईदृश इति । भगवता भणितम् , शृणु-- अस्ति इहैव विजये अमरपुरं नाम नगरम् । तत्र अमरदेवो नाम गृहपतिरभवत् । सून्दरी इसी बीच देवों ने भगवान का समवसरण बनवाया । उस समवसरण की तीन दीवारें रत्न, स्वर्ण और चांदी की बनी थीं। उनमें अच्छी तरह से विभाजित दिव्य तोरण लगे थे । रत्नमय नाना प्रकार के प्राकार के कंगूरे थे और बहुत बड़ी पताकाओं का समूह फहरा रहा था । गुंजार करते हुए भौंरों की सुगन्ध से वह शोभित था। ऊपर उठे हुए सफेद छत्र से वह मनोहर था। वैडूर्यमणि का वहाँ पर दिव्य सिंहासन रखा हुआ था तथा महासिंह की ध्वजाओं के समूह से वह मण्डित था। (उसमें) भगवान प्रविष्ट हुए । उन्होंने धर्मकथा प्रस्तुत की। भगवान ने कहा कि संसार अनित्य है। हम लोगों ने जानकारी प्राप्त की। अनन्तर उस पूर्वकौतुक को स्मरण कर मैंने भगवान से पूछा-''भगवन् ! उस नारियल के वृक्ष का पादक क्यों अवतीर्ण हुआ हैं, क्या वहाँ धन है अथवा कोष है, वह कितने परिमाण का है, किसने उसको रखा है और उसका फल कैसा है ?" भगवान् ने कहा- "सुनो, लोभ के दोष से पादक अवतीर्ण हुआ है। वहाँ पर धन है । वह सात लाख दीनार प्रमाण है । तुमने और उस नारियल के जीव ने रखा था। इसका फल धर्मसाधक है।" मैंने कहा--"भगवन् ! कैसे मैंने और इसने रखा था, मेरा ऐसा फल कैसा और इसका ऐसा कैसे ?' भगवान् ने कहा--सुनो, इसी देश में अमरपुर नामका नगर है । वहाँ पर अमरदेव नामका गृहस्थ हुआ। उसकी पत्नी सुन्दरी Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ समसान्चक भारिया। ताणं च तुन्भे दुवे थि उप्परोप्परजायगा गुणचंदबालचंदाभिहाणा य पुत्तय त्ति। संपत्तजोव्वणा य महंतं चेलाइभंडं घेत्तूण वाणिज्जवडियाए आगया इमं देसं। विणिओइयं भंडं, समासाइओ इठ्ठलाहो। एत्थंतरम्मि विजयवम्मनरः इणा आढत्तो लच्छिनिलयसामी सूरतेओ नाम नरचई। सो य नयरे गज्झं छोढण गहियसारनयरलोओ आरूढो इमं पदयं । तुम्भे वि तेणेव नरवडणा सह घेत्तूण दविणजायं परबलभएण आरूहा लच्छिपव्दयं । ठिया य एयम्मि पएसे निहाणीकयमालोचिऊण इमं दविणजायं। अइक्कतो कोइ कालो। तओ लोहदोसेण 'भागिओ' ति करिय विसपओमकरणेणं वाशविओ तुमं गुणचंदेण । सुद्धसहावत्तणेणं च उववन्नो वंतरसुरेसु । गुणदो वि य अपरि जिऊण तं दव्वं एत्थ चेव पन्वए महाभयंगडक्को मरिऊण उप्पन्नो रयणप्पहाए नरयपुढवीए नारओ। तओ तुम देसण पलिओवममहाउयं पालिऊण तओ चुओ एत्थेव विजए टंकणाउरे' नयरे हरिणंदिस्स सत्थवाहस्स वसुमईए भारियाए कुच्छिसि पुत्तत्ताए उववन्नो सि। जाओ कालक्कमेणं । पइद्वावियं च ते नामं देवदत्तो त्ति । पत्तो कुमारभावं। एत्थंतरम्मि तओ वि गुणचंदो नरगाओ तस्य भार्या । तयोश्च युवां द्वावपि उपर्युपरिजातको गुणचन्द्र-बालचन्द्राऽभिधानौ च पुत्रकौ इति । सम्प्राप्तयौवनौ च महत् चेलादिभाण्डं गृहीत्वा वाणिज्यवृत्तिकया आ गतौ इमं देशम् । विनियोगितं भाण्डम् , समासादित इष्टलाभः । अत्रान्तरे विजयवर्मनरपतिना आक्रान्तो लक्ष्मीनिलयस्वामी सूरतेजा नाम नरपतिः । स च नगरे ग्राह्य (असारं)क्षिप्त्वा गृहीतसारनगरलोकः आरूढ इमं पर्वतम् । युवामपि तेनैव नरपतिना सह गृहीत्वा द्रविणजातं परबलभयेन आरूढी लक्ष्मीपर्वतम्। स्थितौ चैतस्मिन प्रदेशे निधानीकृतमालोच्य इदं द्रविणजातम् । अतिक्रान्तः कीयानपि कालः । ततो लोभदोषेण 'भागिकः' इति कृत्वा विषप्रयोगकरणेन व्यापादितस्त्वं गुणचन्द्रेण । शुद्धस्वभावत्वेन च उपपन्नो व्यन्तरसूरेषु । गुणचन्द्रोऽपि च अपरिभुज्य तद् द्रव्यम् अत्र चैव पर्वते महाभुजङ्गदष्टो मृत्वा उत्पन्नो रत्नप्रभायां नरकपृथिव्यां नारकः । ततरत्वं देशोनप-योपममथाऽऽयुः पालयित्वा ततश्च्युतः अत्रैव विजये टङ्कणापुरे नगरे हरिनन्दिनः सार्थवाहस्य वसुमत्या भार्यायाः कुक्षौ पुत्रतया उपपन्नोऽसि । जातः कालक्रमेण । प्रतिष्ठापितं च तव नाम देवदत्त इति । प्राप्तः कुमारभावम् । अत्रान्तरे थी। उन दोनों के तुम दोनों क्रमशः गुणचन्द्र और बालचन्द्र नामक पुत्र हुए। यौवनावस्था प्राप्त होने पर बहुत सारे कपड़े आदि माल लाकर व्यापार करते हुए इस देश में आये । माल को बेचा, इष्ट लाभ हुआ। इसी बीच विजयवर्मा राजा के द्वारा लक्ष्मी के निवास का स्वामी सूरतेजा नामक राजा आक्रान्त हुआ । वह नागरिकों की निःसार वस्तुओं को फेंककर सारपूर्ण वस्तुओं को लेकर इस पर्वत पर चढ़ गया । आप दोनों भी उसी राजा के साथ धन लेकर शत्रुओं के भय से लक्ष्मी पर्वत पर चढ़ गये। एक स्थान पर धन गाड़कर उसकी देखभाल करते हए आप दोनों ठहर गये । कुछ समय बीत गया । तदनन्तर लोभ के दोषवश आपको साझीदार समझकर गुणचन्द्र ने विष देकर मार डाला । शुद्ध स्वभाव के कारण तुम व्यन्तर देवों में उत्पन्न हुए । गुणचन्द्र भी उस धन का भोग न कर इसी पर्वत पर बड़े भारी सांप के द्वारा काटा जाकर मर गया और रत्नप्रभा नामक नरक की पृथ्वी में नारकी हआ । तदनन्तर तुम एक पल्य से कम की आयु भोगकर वहाँ से च्युत होकर इसी देश के टंकणापुर नगर में हरिनन्दिन व्यापारी की वसुमती नामक स्त्री के गर्भ में पुत्र के रूप में आये और कालक्रम से उत्पन्न हुए। तुम्हारा नाम देवदत्त रखा गया। तुम कुमारावस्था को प्राप्त हुए। इसी बीच गुणचन्द्र उस नरक से निकलकर १. ढंकणाउरे-ख। Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तइयो भयो] उव्वट्टिऊण लोहदोसेणमेत्थेव लच्छिपव्वए एयस्स चेव निहाणस्स पच्चासन्नपएसे उप्पन्नो भुयंगमो त्ति । परिग्गहियं च ण तं दव्वं । एत्थंतरम्मि लच्छिनिवासिणीदेवयामहम्मि समागओ तुम लच्छिपव्वयं । कश देवयाए पूया। दिन्नं दीणाणाहाण दविणजायं। संपाइओ भोयणोवयारो। तओ तुम पुत्वभवसिणेहेणं रम्मयाए पन्नयस्स परिम्भमंतो आगओ इमं उद्देसं । दिट्ठो भयंगमेणं । तओ लोहदोसेण 'एस एयं दविणजायं गेण्हिस्सइ, त्ति डक्को चरणदेसम्मि । अच्चुग्गयाए विसस्स तक्खणा चेव निवडिओ धरणिबढ़े। पासवत्तिणा य ते परियणेण वावाविओ भुयंगमो। उप्पन्नो एत्थेव पव्वए सीहत्ताए त्ति। तुम पि मरिऊण एत्थेव विजए कयंगलाए नयरीए सिवदेवस्स कुलउत्तयस्स जसोहराए भारियाए कुच्छिसि पुत्तत्ताए उववन्नो सि । जाओ कालक्कमेण । पइट्ठावियं च ते नामं इंददेवो त्ति । पत्तो जोव्वणं । इओ य तेण सीहजीवेण पुत्वभवभत्थभावणाओ ओहसन्नाए परिग्गहियं तं दव्वं । एवं च गओ कोइ कालो। अन्नया य वीरदेवनरवइणा नियसामिएण पेसिओ तुमं लच्छिनिलयसामिणो माणहंगस्स समीवं । आगच्छमाणो य क इवयपुरिसपरिवारिओ कालक्कमेण पत्तो इमं ततोऽपि गुणचन्द्रो नरकाद् उद्वत्य लोभदोषेण अत्रैव लक्ष्मीपर्वते एतस्य चैव निधानस्य प्रत्याऽऽसम्नप्रदेशे उत्पन्नो भुजङ्गम इति । परिगृहीतं च तेन तद् द्रव्यम् । अत्रान्तरे लक्ष्मीनिवासिनीदेवतामहसि समागतस्त्वं लक्ष्मीपर्वतम् । कृता देवतायाः पूजा। दत्तं दीनानाथानं द्रविणजातम् । सम्पा. दितो भोजनोपचारः। ततस्त्वं पूर्वभवस्नेहेन रम्यतया पर्वतस्य परिभ्रमन् आगतः इममुद्देशम् । दृष्टो भुजङ्गमेन । तसो लोभदोषेण एष एतद् द्रविणजातं ग्रहीष्यति इति दष्टश्चरणदेशे। अत्युग्रतया विषस्य तत्क्षणं चैव निपतितो धरणिपृष्ठे। पाश्र्ववर्तिना च ते परिजनेन व्यापादितो भुजनमः । उत्पन्नोऽत्रैव पर्वते सिंहतया इति । त्वमपि मत्वाऽत्रैव विजये कृतङ्गलायां नगर्यां शिवदेवस्य कुलपुत्रस्य यशोधराया भार्यायाः कुक्षौ पुत्रतया उपपन्नोऽसि । जातः कालक्रमे । प्रतिष्ठापितं च ते नाम इन्द्रदेव इति । प्राप्तो यौवनम् । इतश्च तेन सिंहजीवेन पूर्वभवाभ्यस्तभावनात् ओघसंज्ञया परिगृहीतं तद् द्रव्यम् । एवं च गतः कीयान् कालः । अन्यदा च वीरदेवनरपतिना निजस्वामिकेन प्रेषितस्त्वं लक्ष्मीनिलयस्वामिनो मानभङ्गस्य समीपम् । आगच्छंश्च कतिपयपुरुषपरिवृतः काल मोभ के दोष से इसी लक्ष्मी पर्वत पर, इसी गड़े हुए धन के पास के स्थान में सर्प के रूप में उत्पन्न हुआ। उसने उस धन को ले लिया। इस बीच लक्ष्मी पर्वत पर निवास करने वाली देवी के उत्सव में तुम लक्ष्मी पर्वत पर आये। देवी की पूजा की। दीनों और अनाथों को धन दिया। भोजनादि कार्य किये । अनन्तर पूर्वभव के स्नेह से पर्वत की रमणीयता के कारण घूमते हुए इस स्थान पर आये । सांप ने तुम्हें देखा। तब लोभ के दोष से 'यह इस धन को ले लेगा ऐसा सोपकर पैर में डस लिया। विष की अत्यन्त उग्रता के कारण उसी क्षण तुम धरती पर गिर गये । समीपवर्ती तुम्हारे बन्धु-बान्धवों ने साँप को मार डाला । वह सर्प इसी पर्वत पर सिंह के रूप में उत्पन्न हुआ। तुम भी मरकर इसी देश की कृतमंगला नगरी में शिवदेव कुलपुत्र की यशोधरा रानी के गर्भ में पुत्र के रूप में आये । समयानुसार जन्म हुआ। तम्हारा नाम इन्द्रदेव रखा गया । यौवनावस्था को प्राप्त हुए । इधर उस सिंह के जीव ने पूर्वभव की अभ्यस्त भावना से लोभवश उस धन को ग्रहण कर लिया। इस प्रकार कुछ समय बीता। एक बार तुम्हारे स्वामी वीरदेव राजा ने तुम्हें लक्ष्मीनिलय के स्वामी मानभंग के पास भेजा। कुछ लोगों के साथ आते हुए कालक्रम से तुम इस स्थान पर आये और कदम्ब वृक्ष के नीचे बैठे। इसी बीच पर्वतीय गुफादार Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० [ समराइच्चकहा उद्देसं । उवविट्ठो नीवपायवस्स हेट्ठे । एत्थंतरम्मि गिरिगुहामुहगएणं दिट्ठो सि सीहेणं । तओ लोहसन्नाविवज्जासियचित्तेणं वावाविओ सि इमिणा, इमो विय तुमए त्ति । उववन्ना य तुम्भे एत्थेव विजयम्मि सिरित्थलगे पट्टणे जक्खदाससन्नियस्य चण्डालस्स माइजक्खाए भारियाए जमलभाउगत्ताए त्ति | जाया कालक्कमेणं । पइट्ठावियाई नामाइं तुझं' कालसेणो, इयरस्स चण्डसेणो त्ति । पत्ता य जोव्वणं । अन्नया आहेडयनिमित्तं गया लच्छिपव्वयं, वावाइओ कोलो । सो य एयम्मि चेव निहाणयपए से विससिओ । पज्जालिओ जलणो । जलणपक्कं तं खाइउं पयत्ता । एत्थंतरम्मि कट्टारयं निसाणिऊण कहंचि अणत्थदंडओ चेव धणि खणमाणेण उवलद्धो निहाणयकलसस्स एगदेसो चंडसेणेणं । पवतो गोविउं, लक्खिओ य तुमए । तओ दव्वलोहेणं वीसत्थो' तुमं वावाइओ तेण । उववन्नो वालुप्पहाए नरगपुढवीए पंचसागरोवमाऊ नारगो । इमो वि तद्दव्वलोभेण तं चेव देसं अमुंचमाणो अइक्कतेसु कइवयवरिसेसु अभुंजिऊण तं दव्वं अन्नवेरियचडालविनिवाइओ समाणो उप्पन्नो तमाभिहाणाए नरयपुढवीए अट्ठारससागरोवमाऊ नारगो ति । तओ तुमं पडिपुण्णे अहाउए नरगाओ क्रमेण प्राप्त इममुद्देशम् । उपविष्टो नीपपादपस्याऽधः । अत्रान्तरे गिरिगुहामुखगतेन दृष्टोऽसि सिंहेन । ततो लोभसंज्ञाविपर्यासितचित्तेन व्यापादितोऽसि अनेन, अयमपि च त्वया इति । उपपन्नौ च युवामत्रैव विजये श्रीस्थल के पट्टने यक्षदास संज्ञितस्य चाण्डालस्य मातृयक्षायां भार्यायां यमलभ्रातृकतया इति । जातौ कालक्रमेण । प्रतिष्ठापिते नाम्नी तव कालसेनः, इतरस्य चण्डसेन इति । प्राप्तौ च यौवनम् । अन्यदा आखेटकनिमित्तं गतो लक्ष्मीपर्वतम् । व्यापादितः कोलः । स च एतस्मिन् चैव निधानकप्रदेशे विशसितः । प्रज्वालितो ज्वलनः । ज्वलनपक्वं तं खादितुं प्रवृत्तौ । अत्रान्तरे कट्टारकं निशाण्य कथञ्चिद् अनर्थदण्डत एव धरणीं खनता उपलब्ध निधानककलशस्य एकदेशश्चण्डसेनेन । प्रवृत्तो गोपयितुम्, लक्षितश्च त्वया । ततो द्रव्यलोभेन विश्वस्तस्त्वं व्यापादि • तस्तेन । उपपन्नो बालुकाप्रभायां नरकपृथिव्यां पञ्चसागरोपमायुर्नारकः । अयमपि तद्द्द्रव्यलोभन तं चैव देशममुञ्चन् अतिक्रान्तेषु कतिपयवर्षेषु अभुक्त्वा तद् द्रव्यम् अन्यवैरिकचाण्डालविनिपातित: सन् उत्पन्नस्तमाऽभिधानायां नरक पृथिव्यामष्टादशसागरोपमायुर्नारक इति । ततस्त्वं प्रतिपूर्ण की ओर गये हुए सिंह ने तुम्हें देखा । तब लोभ की संज्ञा से विपरीत बुद्धि वाले इसने तुम्हें मार डाला और इसे भी तुमने मार डाला । तुम दोनों इसी देश के श्रीस्थल नामक शहर में यक्षदास नामक चाण्डाल की मातृयक्ष नामक स्त्री के गर्भ में जुड़वे भाई के रूप में आये । कालक्रम से तुम दोनों का जन्म हुआ। तुम दोनों के नाम रखे गये - तुम्हारा नाम कालसेन और दूसरे का चण्डसेन रखा गया। दोनों युवावस्था को प्राप्त हुए। एक बार शिकार खेलने के लिए दोनों लक्ष्मीपर्वत पर गये । सुअर मारा । वह इसी धन गाड़े हुए स्थान पर मारा गया । अग्नि जलायी । आग में पकाकर उसे ( सुअर को ) खाने लगे । इसी बीच कटार पैनी करते हुए व्यर्थ ही पृथ्वी खोदते समय चण्डसेन को गाड़े हुए घड़े का एक भाग मिला। वह छिपाने लगा, तुमने देख लिया । तब धन के लोभ से उसने विश्वस्त तुम्हें मार डाला । तुम बालुकाप्रभा नामक नरक की पृथ्वी में पाँच सागर की आयु वाले कुछ वर्ष बीत जाने पर उस धन का नरक की पृथ्वी में अठारह सागर की इसी देश के श्रीमती सन्निवेश में शालि नारकी हुए। उसने भी उस धन के लोभ से ही उस स्थान को नहीं छोड़ा। भोग किये बिना ही दूसरे वैरी चाण्डाल के द्वारा मारे जाकर तमा नामक आयुवाला नारकी हुआ । अनन्तर तुम आयु पूर्णकर नरक से निकलकर १. तुब्भंक, २. सुवासत्थोक | Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तइमो भयो १७१ उध्वट्टिऊण एत्थेव विजए सिरिमईए सन्निवेसम्मि सालिभद्दस्स गाहावइस्स नंदिणीए भारियाए कुच्छिसि पुत्तत्ताए उबंवन्नो त्ति । जाओ य कालक्कमेण । पइट्ठावियं ते नाम बालसुंदरो त्ति । पत्तो जोवणं । एत्थंतरम्भि सोलदेवाणगारसमीवे पत्तो तए अपत्तपुव्वो जिणवरपणीओ धम्मो। परिपालियं साववत्तणं । कओ य जहाविहि' देहच्चाओ। उववन्नो तयाभिहाणे देवलोए किंचूणतेरससागरोवमाऊ वेमाणिओ ति । तत्थ परि जिऊण दिव्वभोए अहाउयपरिक्खएण चुओ समाणो एत्थेव विजए हथिणाउरे नयरे सुहत्थिस्स नगरसेट्टिस्स कंतिमईए भारियाए कुच्छिसि पुत्तत्ताए उववन्नो सि, इयरो वि तओ नरगाओ उन्वट्टिऊण तत्थेव नयरे तुज्झ चेव पिउणो सोमिलाभिहाणाए घरदासीए कुच्छिसि पुत्तत्ताए त्ति । जाया कालक्कमेण । पइट्ठावियाइं नामाइं-तुझ समुदत्तो, इयरस्स मंगलगो ति । पत्ता य तुन्भे अहाकमेणेव कुमारभावं । एत्यंतरम्मि पवन्नो तए अणगदेवगणिसमोवे जिणदेसिओ धम्मो । कया देसविरई। परिणीया य लच्छिनिलयवासिणो सावयस्स अचलसत्थवाहस्स धूया जिणमई । अन्नया य मंगलदुइओ जिणमईनिमित्तमेव पयट्टो लच्छिविलयं । आगओ य कइवय यथाऽऽयुष्के नारकात उदवत्त्य अत्रैव विजये श्रीमतौ सन्निवेशे शालिभद्रस्य गहपतेनन्दिन्यां भार्यायां कुक्षौ पुत्रतया उपपन्न इति । जातश्च कालक्रमेण । प्रतिष्ठापितं तव नाम बालसुन्दर इति । प्राप्तो यौवनम् । अत्रान्तरे शीलदेवाऽनगारसमीपे प्राप्तस्त्वया अप्राप्तपूर्वो जिनवरप्रणीतो धर्मः। परिपालितं श्रावकत्वम् । कृतश्च यथाविधि देहत्यागः । उपपन्नो लान्तकाऽभिधाने देवलोके किञ्चिदूनत्रयोदशसागरोपमायुर्वैमानिक इति । तत्र परिभुज्य दिव्यभोगान् यथाऽऽयुष्कपरिक्षयेण च्युतः सन् अव विजये हस्तिनापुरे नगरे सुहस्तिनो नगरष्ठिनः कान्तिमत्या भार्यायाः कुक्षौ पूत्रतया उपपन्नोऽनि, इतरोऽपि ततो नरकाद् उद्वत्त्य तत्रैव नगरे तत्र चैव पितुः सोमिलाऽभिधानाया गहदास्याः कुक्षौ पुत्रतया इति । जातौ कालक्रमेण । प्रतिष्ठापिते नाम्नी-तव समुद्रदत्तः इतरस्य मङ्गलक इति । प्राप्तो च युवां यथाक्रमेण कुमारभावम् । अत्रान्तरे प्रपन्नस्त्वया अनङ्गदेवगणिसमीपे जिनदेशितो धर्मः । कृता देशविरतिः । परिणीता च लक्ष्मीनिलयवासिनः श्रावकस्य अचलसार्थवाहस्य दुहिता जिनमतिः । अन्यदा च मङ्गलद्वितीयो जिनमतिनिमित्तमेव प्रवृत्तो लक्ष्मीनिल भद्र गृहपति की नन्दिनी नामक पत्नी के गर्भ में पुत्र • रूप में आये । कालक्रम से तुम्हारा जन्म हुआ। तुम्हारा नाम बालसुन्दर रखा गया। (तुम) यौवनावस्था को प्राप्त हुए । इसी बीच शीलदेव नामक मुनि के पास तुमने जिनेन्द्रदेव द्वारा प्रणीत अपूर्व धर्म को पाया। श्रावकधर्म का तुमने पालन किया और विधिपूर्वक शरीर छोड़ा। (तुम) लान्तक नामक स्वर्ग में तेरह सागर से कुछ कम आयु वाले वैमानिक देव हुए । वहाँ दिव्य भोगों को भोगकर आयु का क्षयकर इसी देश के हस्तिनापुर नगर में सुहस्ती नामक नगरसेठ की कान्तिमती नामक स्त्री के गर्भ में पुत्र के रूप में आये । दूसरा भी उस नरक से निकलकर उसी नगर में तुम्हारे ही पिता की सौमिला नामक गृहदासी के गर्भ में पुत्र के रूप में आया । कालक्रम से दोनों का जन्म हुआ। दोनों के नाम रखे गये-तुम्हारा समुद्रदत्त और दूसरे का मंगलक । तुम दोनों क्रमशः कुमारावस्था को प्राप्त हुए। इसी बीच तुमने अनगदेव गणि के समीप जिनप्रणीत धर्म पाया । देशविरति की और लक्ष्मीनिलय के वासी अचल नामक व्यापारी की पुत्री जिनमति से विवाह किया। एक बार मंगलक के साथ जिनमति के निमित्त लक्ष्मीनिलय पर आये। कुछ दूर १. जहाविहिणा-खा Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ [समताइन्वाहा पयाणगेहिं । पतो तमुद्देस, जत्थ निहाणं ति। तओ बहुलपत्तलयाए पएसस्स वीसमिओ मुहत्तयं । दिवो य तए' पामाडझाडयस्स इमम्मि पएसे विणिग्गओ पायओ। भणियं कोउगेण भो मंगलग ! एत्थ पएसे केणइ दविणजाएण होयव्वं । तेण भणियं-'निहालेमो' ति । तए भणियं-- अलं इमिणा। कोउगमेत्तमेव मे कहणनिमित्तं, न उण दविण लोहो। तेण भणियं-अहिययरं मे कोउयं; ता निहालेमो, को एत्थ परमत्थो त्ति ? तओ अणभिप्पेयं पि भवओ पयट्टो तं तहाविहेण तिक्खसारकट्ठण खणि ति । दिट्टो य तेण थेवभूमिभाए कलसकंठओ। तओ पुवकयकम्मलोहदोसेण चितियं मंगलगेण । अहो ! महत्थो एस निही । जइ कहंचि भट्टिदारयं वंचिउ गिहिउं पारियइ ति । एत्थंतरम्मि दिट्ठो तुमए वि कलसकंठगो। भणिओ य एसो -भद्द मंगलग ! अलं इमिणा; एहि, नयरं गच्छामो त्ति । तओ पूरिऊण तमुद्देसं हिट्ठो विय पयट्टो मंगलगो। भणिओ य तुमए- भद्द ! न तए कस्सइ पुरओ एस वइयरो अहिगरणहेउभूओ जंपियव्यो ति । तेण भणियं-भट्टिदारय ! न जंपामो। चितियं णेण-मए वि विणा एस एयं गेण्हिस्सइ ति । अओ से एस पयासो। ता कहं अहं इमिणा यम् । आगतश्च कतिपयप्रयाणकैः । प्राप्तस्तमुद्देशम्, यत्र निधानमिति । ततो बहुलपत्रतया प्रदेशस्य विश्रान्तो मुहूर्तकम् । दृष्टश्च त्वया पामाडवृक्षस्य अस्मिन् प्रदेशे विनिर्गतः पादकः । भणितं कौतुकेन-भो मङ्गलक ! अत्र प्रदेश केनचिद् द्रविणजातेन भवितव्यम् । तेन भणितम्-निभालयामः इति । त्वया भणितम्-अलमनेन। कौतुकमात्रमेव मम कथननिमित्तम्, न पुनविणलोभः । तेन भणितम्-अधिकतरं मम कौतुकम् ; ततो निभालयामः, कोऽत्र परमार्थ इति ? ततोऽनभिप्रेतमपि भवतः प्रवृत्तस्तं तथाविधेन तीक्ष्णसारकाष्ठेन खनितुमिति । दृष्टश्च तेन स्तोक भूमिभागे कलशकण्ठकः । ततः पूर्वकृतकर्मलोभदोषेण चिन्तितं मङ्गलकेन-अहो ! महार्थ एष निधिः । यदि कथंचिद् भर्तुदारकं वञ्चित्वा ग्रहीतुं पार्यत इति। अत्रान्तरे दृष्टस्त्वयाऽपि कलशकण्ठकः । भणितश्चषः-भद्र मङ्गलक! अलमनेन; एहि, नगरं गच्छाम इति । ततः पूरयित्वा तमुद्देश हृष्ट इव प्रवृत्तो मङ्गलकः । भणितश्च त्वया-- 'पद्र ! न त्वथा कस्यचित् पुरत एष व्यतिकरोऽधिकरणहेतुभूतः कथयितव्य इति । तेन भणितम्--भर्तदारक ! न कथयामः । चिन्तितं तेन- मयापि विना एष एतं ग्रहीष्यति इति । अतस्तस्य एष प्रयासः । ततः कथमहमनेन वञ्च्ये ? ततो यावच्चैव न चलकर उस स्थान पर आये जहाँ धन गड़ा हुआ था । तब बहुत पत्तों वाला स्थान होने के कारण वहाँ मुहर्त भर विश्राम किया। तुमने पामाड़ वृक्ष के इस स्थान पर पादप निकलते हुए देखा । कौलूहलवश कहा--- "हे मगलक ! इस स्थान पर कुछ धन होना चाहिए ।" उसने कहा-"खोदते हैं।" तुमने कहा--"खोदना व्यर्थ है। मेरे कहने का कारण मात्र कौतुक है, धन का लोभ नहीं।" उसने कहा-"मुझे अधिक कौतुक है अतः खोदते हैं, इसमें क्या वास्तविकता है ?" तब वह आपके न चाहते हुए भी नुकीली मजबूत लकड़ी से खोदने में प्रवृत्त हो गया । उसे "भूमि के एक ओर कलश का कण्ठ दिखाई पड़ा । तब पहले किये हुए लोभ-कर्म के दोषवश मंगलक ने सोचाअरे, यह निधि बहुत मूल्यवान् है । काश ! स्वामिपुत्र को धोखा दे ग्रहण कर पाऊँ।" इसी बीच तुमने भी कलश के कण्ठ को देखा । इससे कहा-"भद्र मंगलक ! खोदना व्यर्थ है, आओ नगर को चलें।" तब उस स्थान को पूरकर मानो हर्षित हुआ मंगलक चल पड़ा । तुमने कहा- "भद्र ! किसी के भी सामने तुन इस घटना के सम्बन्ध में मत कहना।" उसने कहा-स्वामिपुत्र ! नहीं कहेंगे।" उसने सोचा- यह मेरे भी बिना इसको ग्रहण कर लेगा अतएव इसका यह प्रयास है। अतः मैं इसको कैसे धोखा। अतः जब तक यह इसे ग्रहण नहीं १. पोमाड-ख, २. दव-ख। Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तामो भयो ] १७६ वंचिज्जामि । ता जाव चेव न गेण्हइ एस एयं, ताव चेव अहं केणइ उवाएण वावाइस्सं ति । एत्थंतरम्मि पत्ता नयरं। आरामसमीवठिएणं भणिओ तुमए मंगलगो। भद्द मंगलग ! गच्छ, ससुरकुलपत्ति मे कुओ वि उवलहिय संवाएहि, जेण पविसामो नधरं ति । पयट्टो मंगलगो। चितियं च णं-पविट्ठो खु एसो लहुं चेव एवं गेण्हिस्सइ। ता तह. गुचिट्ठामि, जहा न एस एत्थ पविसइ । गच्छंतो य मे सुहवावायणिज्जो भविस्सइ। ता एवं से निवेएमि। जहा, इत्थिसहावओ कुलविरुद्धमाचरिऊण पविसिया ते घरिणी । अओ अच्चंतमुस्विग्गं ते ससुरकुलं । सुयं च अम्हाणमागमणमेपहि, अओ अहिययरं लज्जियाणि । ता न जुत्तमेत्थ पविसि ति संपहारिय तओ नयरं पविसिऊण कयकालक्खेवो मायाचरिएण विवण्णमुहच्छाओ आगओ ते समोवं । निवेइयं जहा चितियं । तओ विसण्णो तुम। चितियं च तुमए-धिरत्थु इत्थिभावस्स, जमे वहा वि सावयकुलुप्पन्ना वि सुविन्नायजिणवयणसारा वि उभयलोयविरुद्धमायरइ । अहवा नत्थि दुक्करं मोहभावस्स । ता अलं मे इयाणि पि गिहवासेण । पवज्जामो तित्थयरभासियं साहुधम्मं । एवमवसाणो खु एस सिणेहबंधो। ता अलं गृह्णाति एष एनम् , तावच्चैव अहं केनचिदुपायेन व्यापादयिष्य इति । अत्रान्तरे प्राप्तौ नगरम् । आरामसमीपस्थितेन भणितस्त्वया मङ्गलकः---भद्र मङ्गलक ! गच्छ, श्वसुरकुलप्रवृत्ति मम कुतोऽपि उपलभ्य सम्पादय, येन प्रविशामो नगरमिति । प्रवृत्तो मङ्गलकः । चिन्तितं च तेन--विष्टः खलु एष लध्वेव एतं ग्रहीष्यति। ततस्तथाऽनुतिष्ठामि, यथा नैषोऽत्र प्रविशति । गच्छंश्च मम सुखव्यापादनोयो भविष्यति । तत एतत् तस्य निवेदयामि । यथा, स्त्रीस्वभावतः कुलविरुद्धमाचर्य प्रविष्टा (अन्यगृहे) तव गृहिणो । अतोऽत्यन्तमुद्विग्नं तव श्वसुरकुलम् । श्रुतं च अस्माकमागमनमेतैः, अतोऽधिकतरं लज्जितानि । ततो न युक्तमत्र प्रवेष्टुमिति सम्प्रधार्य ततो नगरं प्रविश्य कृतकालक्षेपः मायाचरितेन विवर्णमुखच्छाय आगतस्तव समीपम् । निवेदितं यथा चिन्तितम् । ततो विषपणस्त्वम् । चिन्तितं च त्वया-धिगस्तु स्त्रोस्वभावम् , यदेवंविधाऽपि श्रावककुलोत्पन्नाऽपि, सुविज्ञातजिनवचनसाराऽपि उभयलोकविरुद्ध माचरति । अथवा नास्ति दुष्करं मोहभावस्य । ततोऽलं मम इदानीमपि गृहवासेन। प्रपद्यामहे तोर्थंकरभाषितं साधुधर्मम् । एवमवसानः खलु एष स्नेह कर लेता है तब तक मैं इसे किसी उपाय से मार डालू । इसी बीच दोनों नगर आये । उद्यान के समीप स्थित तुमने मंगलक से कहा-“भद्र मंगलक ! जाओ, कहीं से श्वपुर का हालचाल जानकर मुझे बतलाओ, जिससे (हम लोग) नगर में प्रवेश करें।" मंगलक गया। उसने सोचा- प्रवेश करने पर यह शीघ्र ही ग्रहण कर लेगा अतः वैसा उपाय करता हूँ जिससे यह प्रवेश न करे । मेरे जाने पर यह आसानी से मारा जायेगा । अत: इससे यह कहता हूँ कि स्त्री स्वभाव के कारण कुल के विरुद्ध आचरण कर तुम्हारी पत्नी दूसरे के घर गयी। अतः तुम्हारे श्वसुर का परिवार अत्यन्त उद्विग्न है । इन लोगों ने हम लोगों के आने का समाचार सुना है, अतः अत्यधिक लज्जित हैं । अतः यहाँ प्रवेश करना उचित नहीं है' ऐसा निश्चय कर पश्चात् नगर में प्रवेश कर कुछ विलम्ब कर कपटी मलिनमुख बनाकर तुम्हारे पास आया। जैसा सोचा था वैसा निवेदन किया । तब तुम खिन्न हो गये । तुमने सोचा--स्त्री स्वभाव को धिक्कार कि जिसने इस प्रकार के कुल में उत्पन्न होकर और भली-भाँति जिनवचनों के सार को जानकर भी दोनों लोकों के विरुद्ध आचरण किया । अथवा मोह के लिए कुछ भी दुष्कर नहीं है । अतः मेरा घर में रहना व्यर्थ है। मैं तीर्थंकर के द्वारा कहे हुए साधुधर्म को प्राप्त होता हूँ। स्नेह के बन्धन की समाप्ति इस प्रकार होती है। मेरा अब अपने घर जाना व्यर्थ है । यहाँ से ही जहां भगवान् बनंदेगव हैं वहां - Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ [ समराइच्चकही मे सहगमणं पि । इओ चैव गच्छामि, जत्थ भगवं अगंगदेवो । एसो वि मंगलगो इओ चेव वच्चउ घरं, किमिमा किलिसिएणं ति संपहारिऊण भणिज जहाचितियमेव मंगलगो । चितियं च णेणंअहो ! एस मायाचरिएणं मं वंचिऊं उज्जओ । ता कहमहमिमिणा वंचिज्जामिति । ता भणामि ताव एयं । जाव तुमं न चितियदेसं पत्तो सि, ताव कहमहं भवंतं परिच्चयामि । एवं कइवयदिणा णि इमिणा सह गच्छिऊण वावाइस्सं इमं ति । चितिऊण भणिओ तुमं इमिणा । पडिभणियं च तुमए । भद्द मंगलग ! जइ ते निब्बंधो, ता एवं हवउ ति । तओ पुच्छिस्सामो कंचि साहु, कहिं भयवं अनंगदेवो त्ति ? मंतिऊण पत्थिया तुम्भे पडिवहेण । अइक्कंता कवि वासरा । अन्नया अइविसमरoणमज्झत्तिन हयलस रंतरमभिगए दिणयरम्मि 'महासाहस' ति कलिऊण अच्चतखुद्द हियएणं लोहदोसओ तहा वि अणियत्तमाणेणं सुवोसत्थहियओ चैव पहओ तुमं पिट्ठिदेसम्म छुरिगाए मंगलगेणं ति । एत्यंतर म्मि अद्धाणपडिवन्नो अणेयसमणपरियरिओ तत्थेव पएसे सहसा समागओ अणंगदेवो । दिट्ठो तुमं अग्गगामिएहि साहूहि । एत्थंतरम्मि सज्झसेण छुरियमवहाय नट्टो मंगलगो । चितियं च तुमए - हा ! किमेयं ति । कि तक्करा समागया भवे । जोवियं' पिटुओ, जाव दिट्ठो ससंभ्रमाउलं बन्धः । ततोऽलं मम स्वगृहगमनेनाऽपि । इत एव गच्छामि, यत्र भगवान् अनङ्गदेवः । एषोऽपि मङ्गलक इत एव व्रजतु गृहम्, किमनेन क्लेशितेनेति सम्प्रधार्यं भणितो यथाचिन्तितमेव मङ्गलकः । चिन्तितं च तेन - अहो ! एष मायाचरितेन मां वञ्चितुं उद्यतः । ततः कथमहमनेन वञ्च्ये इति । ततो भणामि तावद् एतम् । यावत् त्वं न चिन्तितदेशं प्राप्तोऽसि तावत् कथमहं भवन्तं परित्यजामि । एवं कतिपयदिनानि अनेन सह गत्वा व्यापादयिष्ये इममिति चिन्तयित्वा भणितस्त्वमनेन । प्रतिभणितं च त्वया । भद्र! मङ्गलक ! यदि तव निर्बन्धः, तत एवं भवतु इति । ततः प्रक्ष्यामः कञ्चित् साधुम् कुत्र भगवान् अनङ्गदेव इति मन्त्रयित्वा प्रस्थितो युवां प्रतिपथेन । अतिक्रान्ताः कतिचिद् वासराः । अन्यदा !अतिविषमारण्यमध्यवर्तिनभस्तलसरोन्तरमभिगते दिनकरे महासाहसम् इति कलयित्वा अत्यन्तद्रहृदयेन लोभदोषतस्तथाऽपि अनिवर्तमानेन सुविश्वस्तहृदय एव प्रहतस्त्वं पृष्ठदेशे छुरिया मलकेन इति । अत्रान्तरे अध्वप्रतिपन्नोऽनेकश्रमणपरिवृतः तत्रैव प्रदेशे सहसा समागतोऽनङ्गदेवः । दृष्टस्त्वमग्रगामिकैः साधुभिः । अत्रान्तरे साध्वसेन छुरिकामपहाय नष्टो मङ्गलकः । चिन्तितं च त्वया -हा ! किमेतदिति । किं तस्कराः समागता भवेयुः ? जाऊँगा । यह मंगलक यहीं से घर जाये । इसे क्लेश देने से क्या लाभ है - ऐसा निश्चय कर मंगलक से अपना विचार कहा । उसने सोचा- आश्चर्य है, यह मायामयी आचरण द्वारा मुझे ठगने के लिए उद्यत है । अतः कैसे मैं इसे ठगू । अतः मैं इससे कहता हूँ, 'जब तक आप चिन्तित स्थान को नहीं पहुँचते हैं तब तक मैं आपको कैसे छोड़ दूँ ?' इस प्रकार कुछ दिन इसके साथ जाकर इसे मार डालूँगा--इस प्रकार सोचकर इसने आप से कहा । आपने भी प्रत्युत्तर में कहा - " भद्र ! मंगलक ! यदि तुम्हारा आग्रह है तो ऐसा ही हो।" तब किसी साधु से पूछेंगे - भगवान् अनंगदेव कहाँ हैं ? ऐसा विचाकर आप दोनों रास्ते में चल पड़े। कुछ दिन बीत गये । एक बार अत्यन्त विषम जंगल के बीच जाते हुए, जब सूर्य आकाश रूपी सरोवर में प्रविष्ट गया तब 'महान् साहस' की बात है, सोचकर अत्यन्त क्षुद्रहृदयवाले दोष से मंगलक ने पीछे न हटे हुए तथा विश्वस्त हृदयवाले तुम्हारी पीठ पर छुरी से प्रहार किया। इसी बीच मार्ग तय करते हुए अनेक श्रमणों से घिरे हुए अनंगदेव उसी स्थान पर यकायक आये । अग्रगामी साधुओं ने आपको देखा। तभी बीच घबराहट से छुरी को छोड़कर मंगलक भाग गया । तुमने सोचा- हाय यह क्या है ? क्या चोर आये होंगे ? पीछे की ओर देखा, घबराहट से व्याकुल मंगलक १. जोइयं क । Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तानो भयो। १७१ पलायमाणो मंगलगो। चितियं च मए- न एत्थ अन्ने चोरा दीसंति, पलायइ य एसो। ता किमेयं ति ? एत्थंतरम्मि दिवा सोणियाणुरंजिया छरिया। गहिया य सा तए पच्चभिन्नाया य। तमो संजाओ ते वियप्पो । किमेयं मंगलगेण वन सियं भवे ? अ वा न एयस्स किपि एवं ववसायकारणं उपपेक्खामि । ता सद्देमि ताव एवं ति । एसेव मे एत्थ परमत्थं साहिस्सइ। सहिओ मंगलगो, जाव अहिययरं पलाइउमारद्धो। तओ अवगओ ते वियप्पो । हंत ! एएण चेव ववसियं ति । ता किं पुण से इमस्स ववसायस्स कारणं । आभोइओ निहाणयवृत्तंतो। चितियं च तुमए-नत्थि अकरणिज्ज नाम लोहवसगाणं ति । अओ चेव निमित्तओ जिणमईवुत्तो वि इमिणा विगप्पिओ भवे। अन्नहा कहं तारिसी महाकुलपसूया सुविन्नायजिणवयणसारा य तारिसं उभय लोगविरुद्धं करिस्सइ । एत्थंतरम्मि पत्ता ते साहवो तमुद्देस । पच्चभिन्नाओ य तेहिं । वंदिया य तुमए । धम्मलाहिओ साहूहि । पुच्छिओ य तेहिं । सावय ! किमेयं ति? साहिओ तुमए तेसि कहावत्तो वत्तंतो। समासासिओ साहूहि । एत्थंतरम्मि दिट्ठो अर्णगदेवेणं । वंदिओ सा तए। अभिणंदिओ तुम इमिणा धम्मलाहेण । दृष्टं पृष्ठतः, यावद् दृष्ट: ससम्भ्रमाकुलं पलायमानः मङ्गलकः । चिन्तितं च त्वया--न अत्र अन्ये चौरा दृश्यन्ते, पलायते च एषः। ततः किमेतदिति । अत्र न्तरे दृष्टा शोणिताऽनुरक्ता छुरिका । गहीता च सा त्वया प्रत्यभिज्ञता च । ततः सञ्जातस्तव विकल्पः । किमेतद् मङ्गलकेन व्यवसितं भवेत् ? अथवा न एतस्य किमपि एवं व्यवसायवारण मुत्प्रक्षे । ततः शब्दयामि तावद् एतमिति । एष एव ममात्र परमार्थ व थयिष्यति । शब्दितो मङ्गलकः, यावद् अधिकतरं पलायितुमारब्धः। ततोऽपगतस्तव विकल्पः । हन्त ! एतेन एव एतद् व्यवसितमिति । ततः किं पुनः तस्याऽस्य व्यव. सायस्य कारणम् ? आभोगितो निधानकवृत्तान्तः। चिन्तितं च त्वया--नास्ति अकरणीयं नाम लोभवशगानामिति । अत एव निमित्ततो जिनमतोवृत्तान्तोऽपि अनेन विकल्पितो भवेत् । अन्यथा कथं तादृशी महाकुलप्रसूता सुविज्ञातजिनवचनसारा च तादृशं उभयलोकविरुद्धं करिष्यति । अत्रान्तरे प्राप्तास्ते साधवस्तमुद्देशम् । प्रत्यभिज्ञातश्च तैः। वन्दिताश्च त्वया। धर्मलाभितः साधुभिः । पृष्टश्च तैः। श्रावक ! किमेतदिति । कथितस्त्वया तेषां यथावृत्तो वृत्तान्तः। समाश्वासितस्साधुभिः । अत्रान्तरे दृष्टोऽनङ्गदेवेन । वन्दितः स त्वया । अभिनन्दितस्त्वमनेन धर्मलाभेन । पृष्टः भागता हुआ दिखाई दिया। तुमने सोचा यहाँ पर दूसरे चोर भी दिखाई नहीं दे रहे हैं और यह भागा जा रहा है, अतः यह क्या है ? इसी बीच खून से सनी हुई छुरी देखी। उसे तुमने उठा लिया और पहचान लिया । अतः तुम्हारे मन में विकल्प हुआ---क्या यह मंगलक ने किया है ? इसके ऐसा करने का कारण दिखाई नहीं पड़ता है। अतः मंगलक को आवाज देता हूं। यही मुझे सही बात कहेगा । मंगलक को आवाज दी । उसने अधिक तेजी से भागना प्रारम्भ किया । अतः तुम्हारा विकल्प दूर हो गया। हाय ! इसी ने यह किया है। तब इसके इस कार्य का कारण क्या है ? गड़े हुए धन का वृत्तान्त ज्ञात हुआ । तुमने सोचा--लोभ के वशीभूत हुए प्राणियों के लिए कुछ भी अकरणीय नहीं है । इसी कारण इसी ने जिनमती के वृत्तान्त को गढ़ लिया । अन्यथा उस प्रकार की महान् कुल में उत्पन्न, जिनवचनों के सार को भलीभांति जानने वाली दोनों लोकों के विरुद्ध वैसा आचरण कैसे करेगी? इसी बीच वे साधु उस स्थान पर आ गये। उन लोगों ने पहिचान लिया । तुमने वन्दना को। साधुओं ने धर्मलाभ दिया । उन लोगों ने पूछा-'श्रावक ! यह क्या है ?" तुमने उन लोगों से घटित वृत्तान्त कहा । साधुओं ने आश्वासन दिया। इसी बीच अनंगदेव को देखा । तुमने वन्दना की । इन्होंने धर्मलाभ देकर तुम्हारा अभिनन्दन किया। १, जोइयं-क। Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ [समराहकहा पुच्छिओ पउत्ति । साहियातुमए । समासासिओ गुरुणा। नियत्तो तुमं समं साहुगच्छेण । पत्तो थाणेसरं नाम सन्निवेसं । ठिओ तत्थ गुरू मासकप्पं । पउणो ते पहारो। उवलद्धा जहटिया जिणमईपउत्ती। चितियं च तुमए-अहो ! मंगलस्स वेचणापगारो, अहो ! विचित्तया मोहस्स, अहो ! अणुवाएयया संसारस्स। ता जइ वि अखंडियसीला जिणमई, तहावि अलं गिहासमेण । संपाडेमि उभयलोगसुहावहं समीहियं । सुविन्नाय जिणवयणसारा य सा तुल्लचित्ता य मे पाएण। ता सोऊण इमं वइयरं सा वि य पव्वइस्सइ त्ति । एवं च कए सा वि हु तस्सिणी इमाओ दुक्खबहुलाओ भवसमुद्दाओ समुत्तारिया हवइ । अलं च अपव्वइयस्स तीए दसणेणं । बहुविग्घा चरणपडिपत्ती, सुहावहा य एसा चेव त्ति चितिऊण पव्वइओ अणंगदेवगुरुसमीवे । ___ अइक्कंतो कोई कालो। सुओ एस वइयरो कुओवि जिणमईए। संविग्गा एसा। चितियं च तीए । सोहणमणुचिट्टियं अज्ज उत्तेण । किलेसायासबहुलो एस संसारो, विओगावसाणो य संगमो, दारुणो य विवागो विसयपरिभोगस्स, दुल्लहं च मणुयभाव मि जिणमयं, उभयलोयसुहावहं च एवं प्रवृत्तिम् । कथिता त्वया । समाश्वासितो गुरुणा । निवृत्तस्त्वं समं साधुगच्छेन । प्राप्तः स्थानेश्वरं नाम सन्निवेशम् । स्थितः तत्र गुरुर्मासकल्पम्। प्रगुणस्तव प्रहारः। उपलब्धा यथास्थिता जिनमतीप्रवृत्तिः। चिन्तितं च त्वया-- अहो ! मङ्गलकस्य वञ्चनाप्रकारः, अहो ! विचित्रता मोहस्य, अहो ! अनुपादेयता संसारस्य । ततो यद्यपि अखण्डितशीला जिनमती, तथाऽपि अलं गहाश्रमेण । सम्पादयामि उभयलोकसुखावहं समीहितम् । सुविज्ञात जिनवचनसारा च सा तुल्यचित्ता च मम प्रायेण । ततः श्रुत्वा इमं व्यतिकरं साऽपि च प्रव्रजिष्यतीति । एवं च कृते साऽपि खलु तपस्विनी अस्माद् दुःखबहुलाद् भवसमुद्रात् समुत्तारिता भवति । अलं च अप्रव्रजितस्य तस्या दर्शनेन । बहविघ्ना चरणप्रतिपत्तिः; सुखावहा च एषा एव इति चिन्तयित्वा प्रवजितोऽनङ्गदेवगरुसमीपे । - अतिक्रान्तः कश्चित् कालः। श्रुत एष व्यतिकरः कुतोऽपि जिनमत्या। संविग्ना एषा। चिन्तितं च तथा- शोभन मनुष्ठितमार्यपुत्रेण । क्लेशायासबहुल एष संसारः, वियोगावसानश्च संगमः, दारुणश्च विपाको विषयपरिभोगस्य, दुर्लभं च मनुजभावे जिनमतम् , उभयलोकसुखावहं -- हालचाल पूछा । तुमने कहा । गुरु ने आश्वासन दिया। तुम साधु-समूह के साथ ही निकले। स्थानेश्वर नामक. सन्निवेश में पहुँचे । वहाँ पर गुरु एक माह के लिए ठहर गये । तुम्हारा घाव ठीक हुआ। जिनमती का आचरण पहले जैसा ठीक मिला । तुमने सोचा-मगलक के धोखा देने का प्रकार आश्चर्यमय है । अह विचित्र है। ओह ! संसार ग्रहण करने योग्य नहीं है। अतः यद्यपि जिनमती अखण्डित शील वाली है. फिर भी गृहाश्रम व्यर्थ है। दोनों लोकों के लिए सुखकर इष्टकार्य करूंगा। जिनवचनों के सार को भलीभांति जानने वाली वह मेरे चित्त के अनुरूप ही है। अत: इस घटना को सुनकर वह भी दीक्षा ले लेगी। ऐसा करने पर वह बेचारी दुःखबहुल संसारसमुद्र से तिर जायगी। बिना दीक्षा लिये उसका दर्शन करना ठीक नहीं है । चारित्र की प्राप्ति बहत विघ्नों वाली होती है और यही सुख को लाने वाली है---ऐसा विचार कर अनंगदेव गुरु के समीप दीक्षित हो गया। कुछ समय बीत गया। इस घटना को किसी के द्वारा जिनमती ने भी सुना । यह डर गयी। उसने सोचा-आर्यपुत्र ने अच्छा किया। यह संभार दुःख और परिश्रम से परिपूर्ण है । संयोग का अन्त वियोग के रूप में होता है, विषयों के भोग का फल भयंकर होता है, मनुष्यभव में जिनधर्म की प्राप्ति दुर्लभ है और यह दोनों Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तइओ भवो १७७ चेव ति। तओ सा एवं विचितिऊण अणुन्नविय जणणिजणए अणुन्नाया तेहिं आगया तं अन्नेसमाणी, जत्थ तुमं । दिट्ठो य अणाए। पेच्छिऊण निव्वुइपुरपट्ठियं तुमं भणियं च अणाए। अज्जउत्त, सोहणमणुचिट्ठियं तुमए । छिन्ना मोहवल्ली। अवलंबियं सप्पुरिसचरियं । समुत्तारिया अहं अप्पा य इमाओ भवसमुद्दाओ ति। आहेणंदिऊण पवन्ना पवज्ज अणंगदेवगुरुसमीवे । अइक्कतो कोइ कालो। निरइयारं सामण्णमणुवालिऊण तुमं कालक्कमेण मओ समाणो उववन्नो पणुवीससागरोवमाऊ गेवेज्जगसुरो त्ति । इयरो वि मंगलगो तमत्थं परिग्गहिय महासिलासंचओच्छाइयं च काऊण तम्ममत्तेण तत्थेव देसे कुणिमाहारेण किलेससंपाइयवित्ती अहाउयं पालिऊण मओ समाणो उववन्नो तमाभिहाणाए नरयपुढवीए वावीससागरोवमाऊ नारगो त्ति। तओ य महया परिकिलेसेण तमहाउयं पालिऊण उव्वट्टो समाणो एत्थेव विजए रट्ठबद्धणए गामे वेल्लियगस्स चंडालस्स गेहे छेलगताए उववन्नो ति । पत्तो य जोव्वणं। अन्नया य बहुछेलगमझगओ तओ रट्टबद्धणाओ जयत्थले निज्जमाणो पत्तो इमं निहाणगुद्देसं । समुप्पन्नं च से तमुद्देसमवलोइऊण पुव्वभवब्भासओ जाइस्सरणं । च एतदेव इति । ततः सा एवं विचिन्त्य अनुज्ञाप्य जननी--जनको अनुज्ञाता ताभ्याम्, आगता त्वामन्वेषमाणा यत्र त्वम् । दृष्टश्च अनया । प्रेक्ष्य निर्वतिपुरप्रस्थितं त्वां भणितं चानया। आर्यपुत्र ! शोभनमनुष्ठितं त्वया। छिन्ना मोहवल्ली। अवलम्बितं सत्पुरुषचरितम्। समुत्तारिताऽहम् मात्मा च अस्माद् भवसमुद्राद् इति । अभिनन्द्य प्रपन्ना प्रव्रज्याम् अनङ्गदेवगुरुसमीपे । अतिक्रान्तः कश्चित् कालः । निरतिचारं श्रामण्यमनुपाल्य त्वं कालक्रमेण मृतः सन् उपपन्नः पञ्चविंशतिसागरोपमायुप्रैवेयकसुर इति । इतरोऽपि मङ्गलकस्तमर्थं परिगृह्य महाशिलासंचयावच्छादितं च कृत्वा तन्ममत्वेन तत्रैव देशे कुणिमाहारेण क्लेशसम्पादितवृत्तिर्यथायुष्कं पालयित्वा मृत: सन् उपपन्न: तमाभिधानायां नरकपृथिव्यां द्वाविंशतिसागरोपमायुरिक इति । ततश्च महता परिक्लेशेन तद् यथायुष्क पालयित्वा उद्वत्तः सन् अत्रैव विजये राष्ट्रवर्धनके ग्रामे वेल्लितकस्य चाण्डालस्य गेहे छागकतया उपपन्न इति । प्राप्तश्च यौवनम् । अन्यदा च बहुछागमध्यगतः ततो राष्ट्रवर्धनाद जयस्थले नीयमानः प्राप्त इमं निधानकोद्देशम् । समुत्पन्नं च तस्य तमुद्देशमवलोक्य पूर्वभवाभ्या लोकों में सुख देने वाला है । ऐसा सोचकर उसने माता-पिता से अनुमति मांगी। माता-पिता दोनों ने अनुमति दे दी । वह आपको ढूढती हुई उस स्थान पर आयी, जहाँ तुम थे। इसने देखा । मोक्षरूपी नगर को प्रस्थान करते देखकर इसने कहा, "आर्यपुत्र ! आपने ठीक किया । मोहरूपी लता को तोड़ डाला। सत्पुरुषों के चरित्र का अवलम्बन किया । मैंने अपने आपको संसार रूपी समुद्र से पार कर लिया।" अभिनन्दन कर (वह) अनंगदेव गुरु के समीप दीक्षित हो गयी। कुछ समय बीत गया। अतिचार रहित श्रमणधर्म का पालन करते हुए तुम कालक्रम से मरण को प्राप्त हो गये और पच्चीस सागर आयु वाले ग्रैवेयक में देव हुए। दूसरा, मंगलक भी उस धन को लेकर, उसे बड़ी-बड़ी शिलाओं से ढककर, धन के प्रति मोह के कारण उसी स्थान पर अन्न के दानों से क्लेशपूर्वक जीविकोपार्जन करता हुआ आयु पूरी कर, मरकर तमा नामक नरक की पृथ्वी में बाईस सागर की आयु वाला नारकी हुआ। तदनन्तर बड़े क्लेश से वहाँ की आयु पूरी कर वहां से निकलकर इसी देश के राष्ट्रवर्धनक नामक ग्राम में वेल्लितक चाण्डाल के घर बकरे के रूप में उत्पन्न हुआ । यौवनावस्था को प्राप्त हुआ। एक बार बहुत से बकरों के साथ उस राष्ट्रवर्धनक ग्राम से जयस्थल को ले जाये जाते हुए इस गड़े हुए धन के स्थान पर आया। उस स्थान को देखकर पूर्वजन्म के अभ्यास से जातिस्मरण हो गया । तब लोभवश वेल्लितक द्वारा बार-बार खींचने Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ समराइच्च कहा तओ लोहदोसेण वियड्डो वेल्लियगस्स नेच्छइ तओ उद्देसाओ अन्नत्थमभिगन्तुं चोइज्जतो वि पुणो पुणो नियत्तइति । कोहाभिभूएणं वावाइओ वेल्लियगेण । उप्पन्नो तत्थैव निहाणगुद्देसे मूसओ । परिग्गहियं च णेण ओहसन्नाए तं दव्वं । अणुवालियं कंचि कालं । अन्नया सोमचंडो नाम जूयारिओ कहचि परिभमंतो आगओ तमुद्देसं । उवविट्ठो सालपायवसमीवे । तओ अन्नाणलोहदोसेण तस्स पुरओ सामरिसमिव परिभमिउमाढतो । वावाइओ य तेणं । समुत्पन्नो य तस्सेव पणट्टसवणनासिगाए दुग्गलिंगा'भिहाणाए भारियाए कुच्छिसि पुत्तत्ताए ति । जाओ कालक्कमेणं । पट्टावियं च से नामं रुद्दचंडोति । पत्तो अणेगजणसंतावगारयं विसपायवो व्व नोव्वणं । असमंजसं च ववहरि - उमारो | अन्नया गहिओ खत्तमुहे । उवणीओ राइणो समरभासुरस्स । समाणत्तो बज्यो । भिन्नो सूलियाए आरक्यिनरेहिं । मओ य समाणी समुप्पन्नो सक्कराभिहाणाए नरयपुढवीए किचनतिसागरोवमाऊ नारगो त्ति । तओ अहाउयमणुबालिऊण उब्वट्टो समाणो समुत्पन्नो एत्थेव विजए एत्थेव लच्छिनिलए असोगदत्तस्स सेट्ठिस्स सुहंकराए भारियाए कुच्छिसि इत्थिगत्ताए त्ति । जाया १७८ सतः जातिस्मरणम् । ततो लोभदोषेण विकृष्टो वेल्लितकस्य नेच्छति तत उद्देशाद् अन्यत्राऽभिगन्तुम्, चोद्यमानोऽपि पुनः पुनः निवर्तते इति । क्रोधाभिभूतेन व्यापादितो वेल्लितकेन । उत्पन्नस्तत्रैव निधानकोद्देशे मूषकः । परिगृहीतं चानेन ओघसंज्ञया तद् द्रव्यम् । अनुपालितं कञ्चित् कालम् । अन्यदा सोमचण्डो नाम द्यूताचार्यः कथञ्चित् परिभ्रमन् आगतस्तमुद्देशम् । उपविष्टः शालपादपसमीपे । ततोऽज्ञानलोभदोषेण तस्य पुरतः सामर्षमिव परिभ्रमितुमारब्धः । व्यापादितश्च तेन । समुत्पन्नश्च तस्यैव प्रनष्टश्रवणनासिकाया दुर्गिलिकाऽभिधानाया भार्यायाः कुक्षौ पुत्रतया इति । जातः कालक्रमेण । प्रतिष्ठापितं च तस्य नाम रुद्रचण्ड इति । प्राप्तोऽनेकजन सन्तापकारकं विषपादप इव यौवनम् । असमञ्जसं च व्यवहर्तुमारब्धः । अन्यदा गृहीतः खात्रमुखे । उपनीतो राज्ञः समरभासुरस्य । समाज्ञप्तो बध्यः । भिन्नः शूलिकया आरक्षितनरैः । मृतः सन् समुत्पन्नः शर्कराभिधानायां नरकपृथिव्यां किंचिदून त्रिसागरोपमायुर्नारिक इति, ततः यथायुष्कमनुपालय उद्वृत्तः सन् समुत्पन्नः अत्रैव विजये, अत्रैव लक्ष्मीनिलये अशोकदत्तस्य श्रेष्ठिनः शुभङ्कराया भार्यायाः " पर भी उस स्थान से दूसरी जगह जाने को तैयार नहीं हुआ । हाँकने पर भी बार-बार लौट आता था । इस कारण क्रुद्ध होकर वेल्लितक ने मार डाला । (अनन्तर) उसी धन वाले स्थान पर चूहा हुआ । लोभवश इसने वह धन ले लिया । कुछ समय तक उसकी रक्षा की। एक बार सोमचण्ड नामक द्यूताचार्य कहीं से घूमता हुआ उस स्थान पर आया । (वह) शालवृक्ष के नीचे बैठ गया । तब अज्ञान तथा लोभ के दोष से ( इसने ) उसी के सामने ईष्र्यावश घूमना शुरू कर दिया । उसने ( द्यूताचार्य ने) मार दिया । उसी की नाक-कानविहीन दुर्गिलिका नामक स्त्री के गर्भ में पुत्र के रूप में आया । कालक्रम से जन्म हुआ । उसका नाम रुद्रचण्ड रखा गया । अनेक लोगों को दु:ख पहुँचाने वाले विषवृक्ष के समान यौवनावस्था को प्राप्त हुआ । उसने अनुचित व्यवहार करना प्रारम्भ कर दिया । एक बार जंगल में पकड़ा गया । राजा समरभासुर के पास ले जाया गया । ( राजा ने) वध की आज्ञा दे दी । सिपाहियों ने शूली पर चढ़ाकर मार डाला । मरकर वह शर्कराप्रभा नामक नरक की पृथ्वी में कुछ कम तीन सागर की आयुवाला नारकी हुआ। वहाँ पर आयु पूर्णकर निकलकर इसी देश के इसी लक्ष्मीनिलय में अशोकदत्त सेठ की शुभंकरा पत्नी के गर्भ में स्त्री के रूप में आया । उचित समय पर (कन्या) उत्पन्न हुई । उसका नाम श्रीदेवी १. दुग्गुल्लिया - ख २. संधिमूहे- ख । Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेभो भवो ] उचियसमएणं । पट्टावियं च से नामं सिरियादेवि त्ति । पत्ता जोव्वणं । दिन्ना सागरदत्तसत्थवाहपुत्तस्स समुद्ददत्तस्स । वत्तो विवाहो भुंजंति भोए त्ति । एत्थंतरम्मि तुमं गेवेज्जगहितो चविऊण इमाए चैव कुच्छिसि समुप्पन्नो सत्ताए त्ति । जाओ कालक्कमेण । पइट्टावियं च से नामं सागरदत्तो त्ति । पत्तो जोव्वणं । पडिबुद्धो य देवसम्मायरियसमीवे। परिणीया ईसरक्खंदसावगस्स धूया नंदिणि' ति । भोगसुहमणुहवंताणं कालक्कमेणं जाओ ते पुत्तो । अन्नया य पुत्तजम्मन्भुदयनिमित्तेणं चेव सपरिवारो आगओ उज्जाणिगाए इमं चेव निहाणगुद्देसं । दिट्ठो य तुमए पुत्तज्भयनिवेसण निमित्तं खड्ड खणमाणेणं निहाणगकलसकंठेगदेसो त्ति । तओ तमन्नत्य निवेसिऊण तं च पएसं पुणरवि तहेब करिऊण भुत्तत्तरकाले पविट्ठो नयरं । चितियं तुमए । किमेत्थ जुत्तं ति अंब ताव पुच्छामि । साहिओ इम एस वइअ । पुच्छिया एसा 'किमेत्थ जुत्तं' ति । तीए भणियं । मम ताव तं पएसं दंसेहि ; तओ जं जुत्तं तं भणिस्सामिति । दाविओ से पएसो । अन्नाणलोहदोसेण चितियं च तीए । वावा- ' एम एयं तओ एगाइणी हिस्सामि । एवं चितिऊण भणिओ तुमं । पुत्तय, पभूयमेयं दव्वं । एयंमि कुक्षौ स्त्रीकतया इति । जाता उचितसमयेन । प्रतिष्ठापितं च तस्या नाम 'श्रीदेवी' इति । प्राप्ता यौवनम् । दत्ता सागरदत्तसार्थवाहपुत्रस्य समुद्रदत्तस्य । वृत्तो विवाहः । भुञ्जाते भोगान् इति । अत्रान्तरे त्वं ग्रैवेयकेभ्यश्च्युत्वा अस्याश्चैव कुक्षी समुत्पन्नः पुत्रतया । जातः कालक्रमेण । प्रतिष्ठापिलं च तव नाम सागरदत्त इति । प्राप्तो यौवनम् । प्रतिबुद्धश्च देवशर्माचार्यसमीपे । परिणीता ईश्वरस्कन्दश्रावकस्य दुहिता नन्दिनी इति । भोगसुखमनुभवतः कालक्रमेण जातस्तव पुत्रः । अन्यदा च पुत्रजन्माभ्युदयनिमित्तेन चैव सपरिवार आगत उद्यानिकायाम् - इमं चैव निधानकोद्देशम् । दृष्टश्च त्वया पुत्रध्वजनिवेशननिमित्तं गर्ता खनमानेन निधानककलशकण्ठैकदेश इति । ततः तमन्यत्र निवेश्य तं च प्रदेशं पुनरपि तथैव कृत्वा भुक्तोत्तरकाले प्रविष्टो नगरम् । चिन्तितं त्वया - किमत्र युक्तमिति अम्बा तावत् पृच्छामि । कथितोऽस्या एष व्यतिकरः । पृष्टा एषा 'किमत्र युक्तम्' इति । तया भणितम् - मम तावत् तं प्रदेशं दर्शय, ततो यद् युक्तम्, तद् भणिष्यामि इति । दर्शितस्तस्याः प्रदेशः । अज्ञानलोभदोषेण चिन्तितं च तया - व्यापादयामि एतम्, तत एकाकिनी ग्रहीष्यामि । एवं चिन्तयित्वा भणितस्त्वम् । पुत्रक ! प्रभूतमेतद् द्रव्यम् । एतस्मिन् गृह्यमाणे १७६ रखा गया । ( वह) यौवनावस्था को प्राप्त हुई और सागरदत्त व्यापारी के पुत्र समुद्रदत्त को दी गयी । विवाह हुआ । दोनों ने भोग भोगे । इसी बीच तुम ग्रैवेयक से निकलकर इसी के गर्भ में पुत्र के रूप में आये । कालक्रम से तुम्हारा जन्म हुआ । तुम्हारा नाम सागरदत्त रखा गया। तुम यौवनावस्था को प्राप्त हुए और देवशर्माचार्य के पास ज्ञान प्राप्त किया । ईश्वरस्कन्द नामक श्रावक की पुत्री नन्दिनी से विवाह किया । भोगसुख का अनुभव करते हुए कालक्रम से तुम्हारे पुत्र उत्पन्न हुआ। एक बार पुत्र जन्म के अभ्युदय निमित्त सपरिवार उद्यान में इसी गड़े हुए धन के स्थान पर आये । तुमने पुत्र की ध्वजा स्थापना करने के लिए गड्ढा खोदा और खोदते हुए गड़े हुए कलश के कण्ठ का एक भाग देखा । तदनन्तर उसे दूसरे स्थान पर रखकर और उस स्थान को पुनः वैसा कर भोजन करने के बाद नगर में प्रविष्ट हुए। तुमने सोचा - यहाँ पर क्या उचित है, माता से पूछता हूँ । माता को यह घटना कह सुनायी । इससे ( माता से) पूछा, "यहाँ क्या युक्त है ?" उसने कहा--' - "मुझे वह स्थान दिखलाओ तब जो ठीक होगा, वह मैं कहूँगी।" उसे वह स्थान दिखलाया । अज्ञानवश लोभ के दोष से उसने सोचा- इसको मार डालू तब अकेले ही धन को ले लूँगी। ऐसा सोचकर उसने तुमसे कहा - "पुत्र ! यह धन बहुत है । इस धन के १. नंदणि ख, २. पसाखेद्दि - ख । Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० [ समराइच्चकहा घेप्पमाणे कथाइ नरवई अवगच्छे । तओ य सो सेसदव्वावहार पि मा करिस्सइ ता अलं ताव एइणा, अवसरेण गेण्हिस्सामो त्ति । तए भणियं, अंब, जं तुमं आणवेसि । पविट्ठाई नयरं । अइक्कंता का वि दियहा तुज्झं सुहेणं, इमीए पुण पुत्वभवभत्थलोहदोसेण तुह मरणचितोवायपज्जाउलाए दुक्खेणं ति । परिचितिओ उवाओ। देमि से पोसहोववासपारणयभोयणे विसं ति। तओ उववासलहुसरोरो विसप्पओएण लहुं चेव न भविस्सइ त्ति चितिऊण पउत्तं विसं । लद्धो तुमं तेणं । एत्थंतरम्मि दिट्ठो नंदिणीए । कओ अणाए कोलाहलो। तओ अहिययरं ते कूजिउं पयत्ता जणणी। संमिलिओ लोयनिबहो । तओ एक्केण सिद्धपुत्तेण विसावहारमंतसामत्थओ 'साहम्मिओ' त्ति कलिऊण जीवाविओ। समुप्पन्ना य ते चिता। एवमणेगोवद्दयभायणं मणुयाण जीवियं । ता अलं गिहवासेणं। मा पुणो वि मे पमत्तस्स एवमेव पाणावगमो भविस्सइ । अओ पवज्जामि पव्वज्जं ति चितिऊण जहोचिएण विहिणा पवन्नो देवसम्मगुरुसमीवे पव्वज्ज ति। परिवालिऊण निरइयारं काऊण य कालमासे कालं उववन्नो तोससागरोवमाऊ गेवेज्जगसुरो ति। एसा च ते जणणो तद्दव्वलोभेण तत्थ चेव सहत्थ कदाचिद् नरपतिरवगच्छेत् ततश्च स शेषद्रव्यापहारमपि मा करिष्यति, ततोऽलं तावद् एतेन, अवसरेण ग्रहीष्याम इति । त्वया भणितम्-अम्ब ! यत् त्वमाज्ञापयसि। प्रविष्टौ नगरम् । अति. क्रान्ताः कतिचिद् दिवसाः तव सुखेन, अस्याः पुनः पूर्वभवाभ्यस्तलोभदोषेण तव मरणचिन्तोपायपर्याकुलाया दुःखेनेति । परिचिन्तित उपायः । ददामि तस्य पौषधोपवासपारणकभोजने विषमिति । तत उपवासलघुशरीरो विषप्रयोगेण लघ्वेव न भविष्यति इति चिन्तयित्वा प्रयुक्तं विषम्। लब्धस्त्वं तेन । अत्रान्तरे दृष्टो नन्दिन्या। कृतोऽनया कोलाहलः। ततोऽधिकतरं तव कजितुं प्रवृत्ता जननी । सम्मिलितो लोकनिवहः । तत एकेन सिद्धपुत्रेण विषापहारमन्त्रसामर्थ्यतः 'साधर्मिक' इति कलयित्वा जोवितः । स मुत्सन्ना च तव चिन्ता । एवमकोपद्रवभाजनं मनुजानां जीवितम् । ततोऽलं गहवासेन । मा पुनरपि मम प्रमत्तस्य एवमेव प्राणापगमो भविष्यति । अत: प्रपद्ये प्रव्रज्यामिति चिन्तयित्वा यथोचितेन विधिना प्रपन्नो देवशर्मगरुसमीपे प्रव्रज्यामिति । परिपाल्य निरतिचाराम् । कृत्वा च कालमासे कालमुपपन्नः त्रिंशत्सागरोपमायुरॅवेयकसुर इति । एषा च तव जननी तद्रव्य ग्रहण करने पर कदाचित् राजा जान लेगा तब वह शेष द्रव्य का भी अपहरण कर ले, अत: इससे बस, अवसर पाकर ग्रहण कर लेंगे।" तुमने कहा-"माता, जैसी तुम्हारी आज्ञा।" दोनों नगर में प्रविष्ट हुए । तुम्हारे कुछ दिन सुख से बीते । इसके (दिन) पुनः पूर्वभव के अभ्यास से लोभ के दोष से तुम्हारे मारने की चिन्ता के उपाय से आकुलित होने के कारण दुःखपूर्वक बीते । (उसने) उपाय सोचा कि उसे प्रोषधोपवास के बाद भोजन में विष दे दूंगी। तब उपवास से हल्के शरीर वाला वह विषप्रयोग से शीघ्र ही नहीं रहेगा अर्थात् मर जायेगा । ऐसा विचारकर विष मिला दिया । उसने तुम्हें दिया। इसी बीच नन्दिनी ने देख लिया। उसने शोरगुल मचाया । तब तुम्हारी माता और भी अधिक चिल्लाने लगी। लोगों की भीड़ एकत्रित हो गयी । तब एक सिद्धपुरुष ने विष उतारने वाले मन्त्र की सामर्थ्य से आपको साधर्मी मानकर जिला दिया। तुम्हें चिन्ता उत्पन्न हुई। मनुष्यों का जीवन इस प्रकार अनेक उपद्रवों का पात्र है । अतः घर में रहना व्यर्थ है । प्रमादी मेरे प्राण न निकल जाएँ अतः दीक्षा लेता हूँ, ऐसा सोचकर उचित विधिपूर्वक देवशर्मा नामक गुरु के पास दीक्षा ले ली। निरतिचार व्रत का पालन करते हुए; एकएक मास में आहार ग्रहण करते हुए, मरण प्राप्त कर तीस सागर की आयुवाले ग्रैवेयक में देव हुए । तुम्हारी यह Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तइको भयो ] ११ सिप्पनिम्मियं महापेढं काऊण पुत्तवहपरिणामजणियनरयाउया अभुंजिऊण तं दव्वं मया समाणी धूमप्पभाए नरयपुढवीए उववन्ना पन्नरससागरोवमट्टिई नारगो त्ति । तओ उव्वट्टा समाणी नाणातिरिएसु आहिडिय पुत्वभवम्भत्थलोभदोसओ एत्थ नालिएरिपायवत्ताए उववन्न ति । तुम पि य तओ चविऊण सागरदत्तसेटिगेहे सिरिमईए कुच्छिसि पुत्तताए उववन्नो सि । दोण्हं पि तुम्हाणं संपयं इमा अवत्था । एस एत्थ व इयरो त्ति । तओ ममेयं सोऊण समुप्पन्नो संवेगो, विरत्तो भवचारगाओ मणो । अणुन्नविओ भयवंतसन्निहाणे तद्दव्ववइयरं नरवई । अणुन्नाओ य तेण तओ तं गेहाविय सयलदुहियसत्ताणं दाऊण पवन्ना मए विजयधम्मगणहरस्स समीवे पव्वज्ज ति। सिहिकुमारेण भणियं-भयवं ! एवमेयं, ईइसो चेव एस संसारो। धन्नो तुमं, जो एवमभिपव्वइओ त्ति । अह कइविहो पुण दाणाइभेयं पडुच्च पणीओ भयवया धम्मो । भयवया भणियंसुण । लोभेन तत्रैव स्वहस्तशिल्पनिर्मितं महापोठं कृत्वा पुत्रवधपरिणामजनितनरकायुष्का अभुक्त्वा तद् द्रव्यं मृता सती धूमप्रभायां नरकपथिव्यामुपपन्ना पञ्चदश सागरोपमस्थिति रक इति । तत उद्वृत्ता सती नानातिर्यक्ष आहिण्ड्य पूर्वभवाभ्यस्तलोभदोषतोऽत्र नालिकेरीपादपतया उपपन्ना इति । त्वमपि च ततश्च्युत्वा सागरदत्तश्रेष्ठिगेहे श्रीमत्याः कुक्षौ पुत्रतया उपपन्नोऽसि । द्वयोरपि युवयोः साम्प्रतमियमवस्था । एषोऽत्र व्यतिकर इति । ततो मम एतत् श्रुत्वा समुत्पन्नः संवेगः, विरक्तं भवचारकाद् मनः। अनुज्ञापितो भगवत्सन्निधाने तद्रव्यव्यतिकरं नरपतिः। अनुज्ञातश्च तेन, ततस्तद् ग्राहयित्वा सकलदुःखितसत्त्वेभ्यो दत्त्वा प्रपन्ना मया विजयधर्मगणवरस्य समापे प्रव्रज्या इति । शिखिकुमारेण भणितम्-भगवन् ! एवमेतत् , ईदृश एव एष संसारः, धन्यस्त्वम् , यः एवमभिप्रवजित इति । अत्र कतिविधः पुनर्दानादिभेदं प्रतीत्य प्रणोतो भगवता धर्मः। भगवता भणितम्-शृणु। मां उस धन के लोभ से वहीं आने हस्तशिल से निर्मित महापीठ बनाकर पुत्रवध के परिणामस्वरूप नरकायु बांधकर, उस द्रव्य का भोग न भोगकर, धूमप्रभा नामक नरक की पृथ्वी में उत्पन्न हुई। पन्द्रह सागर की उस नरक की स्थिति थी। वहां से निकलकर अनेक तिर्यंच योनियों में भ्रमण कर, पूर्वभव के संस्कारवश लोभ के दोष से यहाँ पर नारियल के वृक्ष के रूप में उत्पन्न हुई । तुम भी वहाँ से च्युत होकर सागरदत्त सेठ के घर श्रीमती के गर्भ में आये । तुम दोनों की इस समय यह अवस्था है। यह घटना इस प्रकार है। तब यह सुनकर मैं भयभीत हो गया और भवभ्रमण से मन विरत हो गया। भगवान के समीप की उस धन की घटना को राजा के सामने निवेदन किया। उनसे अनुमति प्राप्त कर, पश्चात् उसे ग्रहण कर, समस्त दुःखी जीवों को देकर मैंने विजयधर्म गणधर के पास दीक्षा ले ली। शिखिकुमार ने कहा-"भगवन् ! ठीक है, संसार ऐसा ही है, आप धन्य हैं जो कि इस प्रकार दीक्षित हुए हैं।" (प्रश्न)-"भगवान् ने दानादिक के भेद से धर्म कितने प्रकार का बतलाया है ?" भगवान् ने कहा- "सुनो ! Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ [ समापन कहाँ धम्मो चउम्विहो दाण-सोल-तव-विविहभावणामइओ। सावय ! जिणेहि भणिओ तियसिंद-नरिंदनमिएहि ॥२४॥ दाणं च होइ तिविहं नाणाऽभय-धम्मुवग्गहकरं च । जं तत्थ नाणदाणं तमहं वोच्छं समासेणं ॥२४६॥ दिन्नेण जेण जीवो विन्नाया होइ बंध-मोक्खाणं । तं होइ नाणदाणं सिवसुहसंपत्तिवीयं तु ॥२४७॥ दिन्नेण तेण जीवो पुण्णं पावं च बहुविहमसेसं। सम्मं वियाणमाणो कुणइ पवित्ति निवित्ति च ॥२४८॥ पुण्णम्मि पवतंतो पावइ य लहुं नरामरसुहाई। नारयतिरियदुहाण य मुच्चइ पावाउ सुणियत्तो ॥२४॥ तिरियाण व मणुयाण व असुरसुराणं च होइ जं सुक्खं । तं सव्वपयत्तेणं पावइ नाणप्पयाणेणं ॥२५०॥ धर्मश्चतुर्विधो दान-शील-तो-विविधभावनामयः । श्रावक ! जिनर्भणितः त्रिदशेन्द्र-नरेन्द्रनतैः ॥२४५।। दानं च भवति त्रिविधं ज्ञानाऽभय-धर्मोपग्रहकरं च । यत् तत्र ज्ञानदानं तदहं वक्ष्ये समासेन ॥२४६॥ दत्तेन येन जीवो विज्ञाता भवति बन्ध-मोक्षयोः। तद् भवति ज्ञानदानं शिवसुखसम्पत्तिबीजं तु ॥२४७।। दत्तेन तेन जीवः पुण्यं पापं च बहुविधमशेषम् । सम्यग् विजानन् करोति प्रवृत्ति निवृत्ति च ॥२४८।। पुण्ये प्रवर्तमानः प्राप्नोति च लघु नराऽमरसुखानि । नारकतिर्यग्दु:खेभ्यश्च मुच्यते पापात् सुनिवृत्तः ॥२४६॥ तिरश्चां वा मनुजानां वा असुरसुराणां च भवति यत् सौख्यम् । तत् सर्वप्रयत्नेन प्राप्नोति ज्ञानप्रदानेन ॥२५०॥ हे श्रावक ! नरेन्द्र और देवेन्द्र के द्वारा नमस्कृत जिनेन्द्रों ने दान, शील, तप और अनेक प्रकार की भावना के रूप में दान चार प्रकार का बतलाया है । ज्ञान, अभय और धर्म में प्रोत्साहित करने वाला दान तीन प्रकार का होता है । इनमें से जो ज्ञानदान है उसे मैं संक्षेपतः कहूंगा । जिसे देने पर जीव बन्ध और मोक्ष का ज्ञाता हो जाता है उसे ज्ञान दान कहते हैं। वह मोक्षसुख रूपी सम्पत्ति का बीज है। उसे देने पर जीव अनेक प्रकार के सभी पुण्य और पाप को ठीक तरह से जानकर पुण्य में प्रवृत्ति और पाप से निवृत्ति करता है । पुण्य में प्रवृत्ति करने वाला शीघ्र ही मनुष्य और देवों के सुख को प्राप्त करता है। पाप से भली-भांति निवृत्त हुआ नरक और तिर्यच गति के दुःखों से छूटता है । तिर्यच, मनुष्य, सुर अथवा असुरों को जो सुख होता है, वह सब प्रयत्नपूर्वक ज्ञान के प्रदान करने से प्राप्त होता है ॥२४५-२५०।। Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तईनी भवो] १५३ पावेइ य सुविसालं मोक्खसुहं सुहपरंपरेणेव ।। तस्सेव पहावेणं सुंदर ! विमलस्स नाणस्स ॥२५१॥ एवं इहलोयम्मि वि परलोयम्मि य सुहाइ नाणेणं । पावेइ जेण जीवो तम्हा तं दाणपवरं तु ॥२५२॥ इहलोयपारलोइयसुहाई सव्वाइं तेण दिन्नाई। जीवाण फुडं सव्वन्नुभासियं देइ जो नाणं ॥२५३॥ गयरागदोसमोहो सम्वन्नू होइ नाणदाणेणं । मणुयासुरसुरमहिओ कमेण सिद्धि च पावेइ ॥२५४॥ एवं खु नाणदाणं सुंदर ! संखवओ समक्खायं । देंतस्स गाहगस्स य हियमेगंतेण विन्नेयं ॥२५५॥ पुढवि-दग-अगणि-मारुय-वणस्सईकाइयाण जीवाणं । वेइंदिय-तेइंदिय-चउरो-पंचिदियाणं च ॥२५६॥ प्राप्नोति च सुविशालं मोक्षसुखं सुखपरम्परेणैव । तस्यैव प्रभावेण सुन्दर ! विमलस्य ज्ञानस्य ॥२५॥ एवमिहलोकेऽपि परलोके च सुखानि ज्ञानेन । प्राप्नोति येन जीवस्तस्मात् तद् दानप्रवरं तु ॥२५२॥ इहलोकपारलौकिकसुखानि सर्वाणि तेन दत्तानि । जीवानां स्फुटं सर्वज्ञभाषितं ददाति यो ज्ञानम् ॥२५३॥ गतरागद्वेषमोहः सर्वज्ञो भवति ज्ञानदानेन । मनुजाऽसुरहितः क्रमेण सिद्धि च प्राप्नोति ॥२५४॥ एतत् खलु ज्ञानदानं सुन्दर ! संक्षेपतः समाख्यातम् । ददानस्य ग्राहकस्य च हितमेकान्तेन विज्ञेयम् ॥२५॥ पृथिव्युदक-अग्नि-मारुत-वनस्पतिकायिकानां जीवानाम् । द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रिय पञ्चेन्द्रियाणां च ॥२५६।। हे सुन्दर ! उसी निर्मल ज्ञान के प्रभाव से ही सुख-परम्परा द्वारा सुविस्तृत मोक्ष-सुख को प्राप्त करता है । चूकि ज्ञान से जीव इस लोक और परलोक में सुख प्राप्त करता है इसलिए ज्ञानदान श्रेष्ठ है । जीवों को स्पष्ट रूप से जो सर्वज्ञभाषित ज्ञानदान देता है, उसने इस लोक और परलोक में सुख देने वाले सभी दान दे दिये । ज्ञानदान से राग, द्वेष और मोह से रहित होता हुआ सर्वज्ञ होता है तथा मनुष्यों और असुरों से पूजित होकर क्रम से सिद्धि को प्राप्त करता है । सुन्दर ! यह ज्ञानदान संक्षेप से कहा गया है। यह देने वाले और लेने वाले का एकान्त रूप से हितकारी है-ऐसा जानना चाहिए । पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पतिकायिक जीवों तथा द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय जीवों की मन, वचन और काय के योग से की गयी-॥२५१-२५६॥ Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८१ जा एयाणहिंसा सम्म मण-वयण-कायजोएहि । तं होइ अभयदाणं सुसाहुजणसेवियं पवरं ॥२५७॥ इच्छंति सव्वजीवा निब्भरदुहिया वि जीविउं जम्हा। तम्हा तं चेव पियं तेसि कुसलेण विन्नेयं ॥२५॥ जम्हा य नरवरिंदो मरणम्मि उवद्वियम्मि रज्जं पि। देइ सजीवियहेउं तम्हा तं चेव इट्टयरं ॥२५॥ दायव्वं च मइमया जं इ8 होइ गाहगाणं तु। तं दाणं परलोए सुहमिच्छतेण सुविसालं ॥२६०॥ दीहाऊ उ सुरूवो नीरोगो होइ अभयदाणेणं। जम्मंतरे वि जीवो सयलजणसलाहणिज्जो य ॥२६१॥ एयं तु अभयदाणं तियसिंदरिंदनमियचलणेहिं । सावय ! जिणेहि भणियं दुज्जयकम्मट्ठदलणेहि ॥२६२॥ या एतेषामहिंसा सम्यग् मनो-वचन-काययोगः । तद् भवति अभयदानं सुसाधुजनसेवितं प्रवरम् ॥२५७॥ इच्छन्ति सर्वजीवा निर्भरदुःखिता अपि जीवितुं यस्मात् । तस्मात् तदेव प्रियं तेषां कुशलेन विज्ञेयम् ॥२५८॥ यस्माच्च नरवरेन्द्रो मरणे उपस्थिते राज्यमपि । ददाति स्वजीवितहेतुं तस्मात् तदेव इष्टतरम् ॥२५६।। दातव्यं च मतिमता यदिष्टं भवति ग्राहकाणां तु । तद् दानं परलोके सुखमिच्छता सुविशालम् ॥२६०॥ दीर्घायुस्तु सुरूपो नीरोगो भवति अभयदानेन । जन्मान्तरेऽपि जीवः सकलजनश्लाघनीयश्च ।।२६१।। एतत् तु अभयदानं त्रिदशेन्द्रनरेन्द्रनतचरणैः । श्रावक ! जिनैर्भणितं दुर्जयकर्माष्टदलनैः ।।२६२।। (जो) अहिंसा है-वह अभयदान है । इस श्रेष्ठ दान का सेवन उत्कृष्ट अच्छे साधुजन करते हैं। अत्यधिक दु:खी भी सभी जीव जीने की इच्छा करते हैं, अत: उनका वही प्रिय है ऐसा निपुण व्यक्ति को जानना चाहिए। चूंकि मनुष्यों में श्रेष्ठ राजा मरण उपस्थित होने पर अपने जीवन के लिए राज्य भी दे देता है क्योंकि वही (प्राण) इष्टतर है । ग्राहकों को जो दान इष्ट हो उस सुविशाल दान को परलोक में सुख की इच्छा रखने वाले बुद्धिमानों को देना चाहिए। अभयदान से दीर्घायु, अच्छे रूप वाला और नीरोग होता है और दूसरे जन्म में भी समस्त मनुष्यों के द्वारा प्रशंसनीय होता है । यह अभयदान हे श्रावक ! देवेन्द्र और नरेन्द्रों ने जिनके चरणों को नमस्कार किया है और दुर्जेय आठ कर्मों का जिन्होंने नाश कर दिया है ऐसे जनों ने कहा है ॥२५७-२६२।। Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पायो भवो] १८५ धम्मोवग्गहदाणं भण्णइ सयमेव दमविरुद्धं । नवकोडीपरिसुद्धं दिज्जइ जंधम्मियजणस्स ॥२६३॥ तं पुण असणं पाणं वत्थं पत्तं च भेस जोग्गं । दायव्वं तु मइमया तहेव सयणासणं पवरं ॥२६४॥ दायव्वं पुण सज्झायझा निरयस्स निरुवगारिस्स। जो संजमतवभारं वहइ सया तेणुवग्गहिओ ॥२६५॥ कम्मलहयत्तणेण य सो अप्पाणं परं च तारेइ। कम्मगुरू अतरंतो सयंपि कह तारए अन्नं ॥२६६॥ दायव्वं पुण तं कारणेहि एएहि चउहि परिसुद्धं । जिणभणिएहिं दायग-गाहग-तहकाल-भावेहि ॥२६७॥ दायगसुद्धं भण्णइ जो दाया देइ नाणसंपन्नो। अट्ठमयट्ठाणरहिओ सद्धारोमचियसरीरो ॥२६८॥ धर्मोपग्रहदानं भण्यते स्वयमेव द्रव्यमविरुद्धम् । नवकोटिपरिशुद्धं दीयते यद् धार्मिकजनाय ॥२६३॥ तत् पुनरशनं पानं वस्त्रं पात्रं च भेषजं योग्यम् । दातव्यं तु मतिमता तथैव शयनाऽऽसनं प्रवरम् ॥२६४॥ दातव्यं पुनः स्वाध्यायध्याननिरतस्य निरुपकारिणः । यः संयमतपोभारं वहति सदा तेनोपगृहीतः॥२६॥ कर्मल घुत्वेन च स आत्मानं परं च तारयति । कर्मगुरुरतरन् स्वयमपि कथं तारयेदन्यम् ॥२६६।। दातव्यं पुनस्तत् कारणैरेतैश्चतुभिः परिशुद्धम् । जिनभणितैर्दायक ग्राहक-तथाकाल-भावैः ॥२६७।। दायकशुद्ध भण्यते यो दाता ददाति ज्ञानसम्पन्तः । अष्टमदस्थानरहितः श्रद्धारोमाञ्चितशरीरः ॥२६८॥ नवकोटि से परिशुद्ध जो अनुकूल द्रव्य (वस्तु) धामि व्यक्ति के लिए दिया जाता है वह (दान) धर्मोपग्रहदान कहलाता है । बुद्धिमानों को योग्य भोजन, पान, वस्त्र, पात्र, दवाई तथा उत्कृष्ट शयन और आसन दान करना चाहिए । निष्प्रयोजन जो उपकार करते हैं और जो सदा स्वाध्याय और ध्यान में रत रहते हैं, उन्हें दान देना चाहिए। जो सदा संयम और तप के भार को वहन करता है उससे सदैव उपगृहीत होना चाहिए । दानी व्यक्ति के कर्मों का भार हल्का हो जाता है अतः वह अपने को तारता है और दूसरे को भी तारता है। जिसके स्वयं कर्म भारी हैं वह दूसरे को कैसे तार सकता है ? जिनेन्द्रदेव के द्वारा कथित दाता, ग्रहीता, काल और भाव-इन चार कारणों से परिशुद्ध दान देना चाहिए। ज्ञान से युक्त, श्रद्धा से रोमांचित शरीरवाला, आठ मदों से रहित जो दाता दान देता है उसे दायकशुद्ध कहते हैं ॥२६३-२५८॥ 1.चेव-ख। Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ नाओवगयं दध्वं फासुगमविरुद्धगं च लोगम्मि। इहपरलोयासंसं मोत्तूणं निज्जरट्ठी उ ॥२६॥ सुक्खेतम्मि व बीयं विक्खित्तं तस्स बहुफलं होइ । तं दाणं मणुयामर सिवसुहसंपत्तिजणयं तु ॥२७०॥ जो पुण सद्धारहिओ दाणं देइ जसकित्तिरेसम्मि'। अहिमाणेण व एसो देइ अहं कि न देमि त्ति ॥२७१॥ तं सद्धाजलरहियं बोयं व न होइ बहुफलं तस्स । दाणं बहु पि पवरं दूसियचित्तस्स मोहेण ॥२७२॥ काऊण य पाणिवह जो दाणं देइ धम्मसद्धाए। दहिऊण चंदणं सो करेइ अंगारवाणिज्जं ॥२७३॥ मूढो लोयविरुद्धं धम्मविरुद्धं च देइ जो दाणं। सो अप्पाणं तह गाहगं च पाडेइ संसारे ॥२७४॥ न्यायोपगतं द्रव्यं प्रासुकमविरुद्धकं च लोके । इहपरलोकाशंसां मुक्त्वा निर्जरार्थी तु ॥२६९॥ सुक्षेत्रे इव बीजं विक्षिप्तं तस्य बहुफलं भवति । तद् दानं मनुजाऽम रशिवसुखसम्पत्तिजनकं तु ॥२७०॥ यः पुनः श्रद्धारहितो दावं ददाति यश कीर्तिनिमित्तम् । अभिमानेन वा एष ददाति अहं किं न ददामीति ॥२७१॥ तत् श्रद्धाजलरहितं बीजमिव न भवति बहुफलं तस्य । दानं बहु अपि प्रवरं दूषितचित्तस्य मोहेन ॥२७२।। कृत्वा च प्राणिवधं यो दानं ददाति धर्मश्रद्धया। दग्ध्वा चन्दनं स करोति अङ्गारवाणिज्यम् ॥२७३॥ मूढो लोकविरुद्ध धर्मविरुद्धं च ददाति यो दानम् । स आत्मानं तथा ग्राहकं च पातयति संसारे ॥२७४॥ कर्मों की निर्जरा के इच्छुक व्यक्ति को इरा लोक और परलोक की प्रशंसा की अभिलाषा छोड़कर न्यायपूर्वक अजित, शुद्ध और लोक से जो विरुद्ध न हो, लोकाविरुद्ध दान देना चाहिए। जिस प्रकार उत्तम भूमि में बोया गया बीज अत्यधिक फल को प्रदान करता है उसी प्रकार उत्तम पात्र को दिया गया दान मनुष्य, देव और मोक्षसुख रूप सम्पत्ति का जनक होता है। जो यश और कीर्ति अथवा अभिमानवश कि यह देता है, मैं क्यों नहीं द, इस प्रकार श्रद्धा रहित होकर दान देता है वह दान श्रद्धारूपी जल से रहित बीज के समान उसे (दाता को) अधिक फल नहीं देता है । जो अत्यधिक दूषित चित्त वाला होकर मोह से विपुल दान करता है अथवा धर्म के प्रति श्रद्धा होने के कारण प्राणिवध करके दान देता है वह चन्दन को जलाकर कोयले का व्यापार करता है । जो मूढ़ व्यक्ति लोकविरुद्ध और धर्मविरुद्ध दान देता है वह अपने आपको और लेने वाले को संसार में गिराता है ॥२६६-२७४।। 1, रेसम्मि (अव्य०) निमित्तएँ। Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हमो मनो] १८७ जाणह गाहगसुद्धं पंचमहन्वयधरो उ जो नियमा। गुरुसुस्सूसानिरओ जोगम्मि समाहियप्पा य ॥२७॥ तह खंति-मद्दव-ऽज्जवजुत्तो धणियं च विगयलोहो उ । मण-वयण-कायगुत्तो पंचिदियनिग्गहपरो य ॥२७६॥ सज्झायझाणनिरओ सुद्धप्पा सुद्धसाहुचरिओ य। इह परलोए य तहा सव्वत्थ दढं अपडिबद्धो ॥२७७॥ मेरु व्व जो न तोरइ उवसग्गसमीरणेहि चालेउ । एयारिसम्मि दाणं गाहगसुद्धं तु विन्नेयं ॥२७॥ सीलव्वयरहियाणं दिज्जइ जं पुण धणं कुपत्ताणं । तं खलु धोवइ वत्थं रुहिरकयं सोणिएणेव ॥२७६॥ दिन्नं सुहं पि दाणं होइ कुपत्तम्मि असुहफलमेव । सप्पस्स जह व दिन्नं खोरं पि विसत्तणमुवेइ ॥२०॥ जानीत ग्राहकशुद्धं पञ्चमहाव्रतधरस्तु यो नियमात् । गुरुशुश्रूषानिरतो योगे समाहितात्मा च ॥२७५।। तथा शान्ति-मार्दवा--ऽऽर्जवयुक्तो बाढं च विगतलोभस्तु । मनो-वचन-कायगुप्तः पञ्चेन्द्रियनिग्रहपरश्च ।।२७६॥ स्वाध्यायध्याननिरतः शुद्धात्मा शुद्धसाधुचरितश्च । इह परलोके च तथा सर्वत्र दृढमप्रतिबद्धः ॥२७७॥ मेरुरिव यो न शक्यते उपसर्गसमीरणैश्चालयितुम् । एतादृशे दानं ग्राहकशुद्धं तु विज्ञेयम् ॥२७८।। शीलवतरहितानां दीयते यत् पुनर्धनं कुपात्राणाम् । तत् खलु धावयति वस्त्रं रुधिरकृतं शोणितेनेव ॥२७६।। दत्तं शुभमपि दानं भवति कुपात्रे अशुभफलमेव । सर्पस्य यथा वा दत्तं क्षीरमपि विषत्वमुपैति ॥२०॥ - ग्राहक शुद्ध वह है जो नियम से पांच महाव्रतों को धारण करता है, गुरु की सेवा में रत रहता है बोर योग में अपने को समाहित किये रहता है तथा क्षमा, मार्दव, आर्जव से युक्त और लोभरहित रहता है। मन, वचन, काय - इस प्रकार तीन गुप्तियों का पालन करता है, पाँच इन्द्रियों को वश में करता है । स्वाध्याय और ध्यान में रत है, शुद्धात्मा है, शुद्ध साधुचरित वाला है । इसलोक और परलोक के प्रति जिसकी कोई कामना नहीं है तथा जो उपसर्ग रूपी वायु के द्वारा मेरु के समान चलायमान नहीं हो सकता है। इस प्रकार के ग्राहक को दान देना शुद्ध पात्र को दान देना है । जो शील और व्रत से रहित कुपात्रों को धन दान देता है वह खून से रंगे वस्त्र को खून से ही धोता है। शुभ दान भी कुपात्र में (देने से) अशुभ फल वाला ही होता है । जैसेसांप को पिलाया गया दूध भी विष हो जाता है ॥२७५-२८०॥ | Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [समराइन्धकहा १८ तुच्छं पि सुपत्तम्मि उ दाणं नियमेण सुहफलं होइ । जह गावीए विइण्णं तणं पि खीरत्तणमुवेइ ॥२८१॥ होइ सुहासुहफलयं पत्तविसेसेण दाणमेगं पि। गावी-भुयंगपीयं जह उदगं होइ खीर-विसं ॥२८२॥ भण्णइ य कालसुद्धं दाणं कालोववन्नयं जं तु।। दिज्जइ तवस्सिदेहोवयारकालम्मि सुविसुद्धं ॥२८३॥ कालम्मि कीरमाणं किसिकम्मं बहुफलं जहा होइ। इय कालम्मि वि दिन्नं दाणं पि हु बहुफलं नेयं ॥२४॥ होइ अयालम्मि जहा अवयारपरं पइण्णयं वीयं । देन्तस्स गाहगस्स य एवं दाणं पि विन्नेयं ॥२८॥ जाणह य भावसुद्धं सद्धा-संवेगपयडपुलयो य। कयकिच्चं मन्नेन्तो अप्पाणं देइ जो दाणं ॥२८६॥ तुच्छमपि सुपात्रे तु दानं नियमेन शुभफलं भवति । यथा गवि वितीर्णं तृणमपि क्षीरत्वमुपैति ॥२८१।। भवति शुभाशुभफलदं पात्रविशेषेण दानमेकमपि । गो-भुजंगपीतं यथा उदकं भवति क्षीर-विषम् ॥२२॥ भण्यते च कालशुद्धं दानं कालोपपन्नकं यत् तु । दीयते तपस्विदेहोपचारकाले सुविशुद्धम् ॥२८३॥ काले क्रियमाणं कृषिकर्म बहफलं यथा भवति । इति कालेऽपि दत्तं दानमपि खलु बहुफलं ज्ञेयम् ॥२८४॥ भवति चाऽकाले यथा अपकारपरं प्रकीर्णकं बीजम् । ददतो ग्राहकस्य च एवं दानमपि विज्ञेयम् ॥२८॥ जानीत च भावशद्धं श्रद्धा-संवेगप्रकटपुलकश्च । कृतकृत्यं मन्यमान आत्मानं ददाति यो दानम् ॥२८६॥ सुपात्र को दिया गया तुच्छ (थोड़ा-सा) दान भी नियम से शुभ फल' वाला होता है । जैसे-गाय को दिया गया तृण भी दुग्ध के रूप में परिणत हो जाता है। पात्र विशेष की अपेक्षा वही एक दान भी शुभ और अशुभरूप फल को देने वाला हो जाता है । जिस प्रकार गाय और साँप के द्वारा पिया गया पानी क्रमशः दूध और विष हो जाता है । समयानुसार दिया गया दान कालशुद्ध कहा जाता है जो कि तपस्वीजनों की सेवा के निमित्त समय पर विशुद्ध रूप से दिया जाता है । जैसे- समय पर की गयी खेती बहुत फल देती है, उसी प्रकार समय पर दिया गया दान भी निश्चय ही बहुत फल देता है। अकाल में बोया गया बीज जिस प्रकार अपकारी होता है, उसी प्रकार असमय में पात्र को दिया गया दान भी अपकारी होता है- ऐसा जानना चाहिए । श्रद्धा और संवेग भाव से रोमांच प्रकट कर अपने आपको कृतकृत्य मानते हुए जो दान दिया जाता है उसे भावशद्ध दान जानो ॥२८१-२८६।। Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तमो भवी ] नवकोडी परिसुद्धं दसदोसविवज्जियं च देयं पि । एपि भावसुद्धं पन्नत्तं वीयरागेहं ॥२८७॥ अट्टवसट्टोवगओ अवि सुद्धं देइ कलुसियमणो उ । सनिदाणं च न एवं भावविसुद्धं हवइ दाणं ॥ २८८॥ मोक्खत्थं जं दाणं तं पइ एसो विही मुणेयव्वो । अणुपादाणं पुण जिहि न कहिंचि पडिसिद्धं ॥ २८६ ॥ एसो उ दाणमइओ धम्मो संखेवओ समक्खाओ । एतोय सीलमइयं तु भण्णमाणं निसामेह ॥ २६०॥ जाह य सीलमइयं पाणवहा ऽलिय- अदिन्नदाणाणं । मेण परिग्गहाण विरई जा सव्वहा सम्मं ॥२१॥ तह कोह - माण - माया - लोहस्स य निग्गहो दढं जो उ । खंतीय मद्दव - ऽज्जव-संतोसविचित्तसत्र्थोहिं ॥२६२॥ नवकोटिपरिशुद्धं दशदोषविवर्जितं च देयमपि । एतद् अपि भावशुद्धं प्रज्ञप्तं वीतरागः ॥ २८७ ॥ आर्तवार्तोपगतोऽपि शुद्धं ददाति कलुषितमनास्तु । सनिदानं च न एतद् भावविशुद्धं भवति दानम् ॥२८८॥ मोक्षार्थं यद् दानं तत् प्रति एष विधिर्ज्ञातव्यः । अनुकम्पादानं पुनर्जिनैर्न कुत्रचित् प्रतिबद्धम् ॥ २८६ ॥ एष तु दानमयो धर्मः संक्षेपतः समाख्यातः । इतश्च शीलमयं तु भण्यमानं निशामयत ॥ २६०॥ जानीत च शीलमयं प्राणवधा ऽलीका - दत्ताऽऽदानानाम् । मैथुन - परिग्रहाणां च विरतिर्या सर्वथा सम्यक् ॥ २६१॥ तथा क्रोध-मान- माया लोभस्य च निग्रहो दृढं यस्तु । क्षान्त्या मार्दवाऽऽर्जव - सन्तोषविचित्रशस्त्रैः ॥२६२॥ यह भी नव प्रकार से परिशुद्ध और दश दोषों से रहित होकर देना चाहिए। इस भावशुद्ध दान का भी उपदेश वीतरागों ने दिया है। आर्तध्यानवश अथवा आर्तध्यान का अनुभव करते हुए कलुषित मन से जो शुद्ध दान देता है वह निदान है, भावविशुद्ध दान नहीं है। मोक्ष की प्राप्ति के लिए जो दान दिया जाता है उसकी यह विधि जाननी चाहिए । पुनः अनुकम्पादान का जिनों ने कहीं भी निषेध नहीं किया है । यह दानमय धर्म संक्षेप से कहा । अब शीलमय धर्म कहा जाता है सुनो। प्राणों का वध, झूठ बोलना, बिना दी हुई वस्तु को लेना, मैथुन और परिग्रह से सर्वथा और सम्यक् जो विरति है उसे शीलमय धर्म जानो । तथा क्रोध, मान, माया, लोभ का क्षमा, मार्दव, आर्जव और सन्तोषरूप नाना प्रकार के शस्त्रों से दृढ़तापूर्वक निग्रह करना ।। २८७ - २४२ ॥ १५६ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18. [समपाकहा खणलवपडिवुज्झणया सद्धा-संवेगफासणा तह य । चित्तेण निरीहेणं मेत्ती वि य सव्वजीवेसु ॥२६३॥ एयं च से विऊणं धम्म जिणदेसियं सुसीलमयं । सुगइं पावंति नरा ठएंति सइ दुग्गइदुवारं ॥२६४॥ एसो उ सीलमइओ भणिओ धम्मो जिणेहि सव्वेहि । सावय ! परमगुरूहि दुज्जयजियरागदोसेहिं ।।२६५।। भण्णइ तवोमइओ स बाहिर-ऽभंतरस्स य तवस्स । जमणुट्ठाणं कोरइ असेसकम्मक्खयनिमित्तं ॥२६६॥ अणसणमूणोयरिया वित्तीसंखेवणं रसच्चाओ। कायकिलेसो संलोणया य वज्झो तवो होइ ॥२६७॥ पायच्छित्तं विणओ वेयावच्चं तहेव सज्झाओ। झाणं उस्सग्गो वि य अभितरओ तवो होइ ॥२६॥ क्षणलवप्रतिबोधनता श्रद्धा-संवेगस्पर्शना तथा च । चित्तेन निरीहेण मैत्री अपि च सर्वजीवेषु ॥२६३॥ एवं च सेवित्वा धर्म जिनदेशितं सुशीलमयम् । सुगति प्राप्नुवन्ति नराः, स्थगयन्ति सदा दुर्गतिद्वारम् ॥२६४॥ एष तु शीलमयो भणितो धर्मो जिनैः सर्वैः । श्रावक ! परमगुरुभिर्दुर्जयजितराग-द्वेषैः ॥२६५।। भण्यते तपोमयः सबाह्या-ऽभ्यन्तरस्य च तपसः । यद् अनुष्ठानं क्रियते अशेषकर्मक्षयनिमित्तम् ॥२६॥ अनशनमूनोदरिका वृत्तिसंक्षेपणं रसत्यागः । कायक्लेशः संलीनता च बाह्य तपो भवति ॥२६७।। प्रायश्चित्तं विनयो वैयावत्यं तथैव स्वाध्यायः । ध्यानमुत्सर्गोऽपि च आभ्यन्तरं तपो भवति ॥२६॥ 'क्षण और निमेष में प्रतिबद्ध रहने, श्रद्धा और संवेग के प्रति लगाव तथा कामना रहित मन से समस्त जीवों के प्रति मैत्रीभाव रखना-इस प्रकार जिनेन्द्रभाषित सुशीलमय धर्म का सेवन कर मनुष्य सुगति प्राप्त करते हैं और दुर्गति के द्वार को सदा रोकते हैं । श्रावक ! कठिनाई से जीतने योग्य, रागद्वेष को जीतने वाले, परमगुरुभूत समस्त जिनों ने यह शीलमय धर्म कहा है । अब बाह्य और आभ्यन्तर तपरूप जो धर्म है वह कहा जाता है, जिसका अनुष्ठान समस्त कर्मों के क्षय के लिए किया जाता है । अनशन, ऊनोदर्य, वृत्तिसंक्षेप, रसत्याग, कायक्लेश और संलीनता में बाह्य तप हैं। प्रायश्चित्त, विनय, वयावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान और उत्सर्ग-आभ्यन्तर तप हैं ॥२६३-२६॥ Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एवं चरिऊणं तवं जीवा इह-पारलोइयसुहाई। पार्वेति विसालाइं करेंति दुक्खक्खयं तह य ॥२६॥ एसो उ तवोमइओ धम्मो संखेवओ समक्खाओ। निसुणह एत्तो सुंदर ! धम्म पुण भावणामइयं ॥३०॥ सम्मं सम्मईसण-नाण-चरित्ताण भावणा जाओ।। वेरग्गभावणा वि य परमा तित्थयरभत्ती य ॥३०१॥ संसारजगुच्छणया कामविरागो सुसाहु-जिणसेवा। तित्थयरभासियस्स य धम्मस्स पभावणा तह य ॥३०२॥ मोक्खसहम्मि य राओ अणाययणवज्जणा य सुपसत्था। सइ अप्पणो य निदा गरहा य कहिंचि खलियस्स ॥३०३॥ एसो जिणेहि भणिओ अणंतनाणीहि भावणामइओ। धम्मो उ भीमभववणसुजलियावाणलब्भुओ ॥३०४॥ एवं चरित्वा तपो जीवा इह-पारलौकिकसुखानि । प्राप्नुवन्ति विशालानि कुर्वन्ति दुःखक्षयं तथा च ॥२६॥ एष तु तपोमयो धर्मः संक्षेपत: समाख्यातः। निशृणुत इतः सुन्दर ! धर्म पुनर्भावनामयम् ॥३०॥ सम्यक सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणां भावना याः । वैराग्यभावनाऽपि च परमा तीर्थङ्करभक्तिश्च ॥३०१॥ संसारजुगुप्सनता कामविरागः सुसाधु-जिनसेवा । तीर्थङ्करभाषितस्य च धर्मस्य प्रभावना तथा च ।।३०२॥ मोक्षसुखे च रागोऽनायतनवर्जना च सुप्रशस्ता। सदा आत्मनश्च निन्दा गर्दा च कुत्रचित् स्खलितस्य ॥३०३॥ एष जिनैणितोऽनन्तज्ञानिभिर्भावनामयः । धर्मस्तु भीमभववनसुज्वलितदावानलभूतः ॥३०४॥ इस प्रकार के तपों का आचरण कर जीव इस लोक और परलोक के विशाल सुखों को पाते हैं और दुःखों का क्षय करते हैं । यह तपोमय धर्म संक्षेप से कहा । अब हे सुन्दर ! भावनामय धर्म को सुनो-सम्यग दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की भावना, वैराग्य भावना, परमतीर्थकर भक्ति, संसार के प्रति घृणा, काम से विरक्ति, अच्छे साधु और जिनेन्द्र की सेवा, तीर्थंकरभाषित धर्म की प्रभावना, मोक्षसुख में राग, सुप्रशस्त बनायतन वर्जना, सदा कहीं-कहीं पर स्खलित होने वाले अपने आपकी निन्दा तथा गर्हा-यह अनन्तज्ञानवाले जीवों ने भावनामय धर्म कहा है। यह धर्म संसार रूपी भयंकर वन के लिए अच्छी तरह जलता हुआ दावानल है ॥२८६-३०४॥ Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ एयं चव्विहं फासिऊण धम्मं जिणेहि पन्नत्तं । सुंदर ! अनंतजीवा पत्ता मोक्खं सदासोक्खं ॥ ३०५ ॥ तओ एमायणऊण आविन्भूओ सिहिकुमारस्स जिणधम्मवोहो । भणिओ य णेण भयवं विजय सिंघो भयवं ! एवमेवं, ईदिसो चेव एस धम्मो, न एत्थ संदेहो ति । किं तु दाणमइयं मोत्तूण न सेसमेया इमस्स सम्मं अवियला तीरंति गिहत्थेण काउं । ता आचिक्ख भयवं ! केरिलो पुण इस महापुरिससेवियस्स, सयलदुक्खाणलजलस्स, सिद्धिबहुसंग मेक्कहेउणो समणत्तणस्स जोगो त्ति । भगवया भणियं - सुण, समणत्तणारिहो आरियदेसुप्पन्नो, विसिट्टजाइकुलसमन्निओ, खीणप्पायकम्ममलो, तओ चेव विमलबुद्धी 'दुल्लहं माणुसत्तणं, जम्मो मरणनिमित्तं, चलाओ संपयाओ, दुक्खहेयवो विसया, संजोगे, विओगो, अणुसमयमेव मरणं, दारुणो विवागो' त्ति अहिगयसंसारसरूवो, तओ चेव तव्विरत्तो, पयणुकसाओ, थेवहासो, अकोउगो, कयन्नू, विणोअ, पुव्वं पि राया- मच्च-पउरजणबहुमओ, अदोसगारी, कल्लागंगो, सद्धावंतो, थिरसद्धो समुवसंपन्नोय । सिहिकुमारेण भणियं --- एवं चतुर्विधं स्पृष्ट्वा धर्मं जिनैः प्रज्ञप्तम् । सुन्दर ! अनन्तजीवाः प्राप्ता मोक्षं सदासौख्यम् ॥ ३०५ ॥ [ समदाइच्चकहा तत एतद् आकण्यं आविर्भूतः शिखिकुमारस्य जिनधर्मबोधः । भणितश्च तेन भगवान् विजयसिंहः - भगवन् ! एवमेव, ईदृश एव एष धर्मः, न अत्र सन्देह इति । किं तु दानमयं मुक्त्वा न शेषभेदा अस्य सम्यग् अविकलास्तीर्यन्ते (शक्यन्ते) गृहस्थेन कर्तुम् । तत आचक्ष्व भगवन् ! कीदृशः पुनरस्य महापुरुषसेवितस्य, सकलदुःखाऽनलजलस्य, सिद्धिवधू सङ्गमैकहेतोः श्रमणत्वस्य योग्य इति । भगवता भणितम् - शृणु, श्रमणत्वार्ह आर्यदेशोत्पन्नः, विशिष्टजातिकुलसमन्वितः क्षीणप्रायकर्ममलः, ततश्चैव विमलबुद्धि, 'दुर्लभं मनुष्यत्वम् जन्म मरणनिमित्तम्, चलाः सम्पदः, दुःखहेतवो विषयाः, संयोगे वियोग:, अनुसमयमेव मरणम्, दारुणो विपाकः' इति अधिगत संसारस्वरूपः, ततश्चैव तद्विरक्तः, प्रतनुकषायः, स्तोकहास्यः, अकौतुकः, कृतज्ञः, विनीतः पूर्वमपि राजा -- मात्यपौरजनबहुमतः, अद्वेषकारी, कल्याणाङ्गः, श्रद्धावान्, स्थिरश्रद्धः समुपसम्पन्नश्च । शिखिकुमारेण सुन्दर ! जिनों द्वारा उपदिष्ट इन चार धर्मों का स्पर्श ( अनुभव ) कर अनन्तजीव सदा सुखरूप मोक्ष को प्राप्त हुए हैं ॥ ३०५ ॥ अनन्तर इसे सुनकर शिखिकुमार को जिन धर्म का बोध हुआ । उसने भगवान् विजयसिंह से कहा“भगवन् ! यही है, यह धर्म ऐसा ही है, इसमें सन्देह नहीं है । किन्तु दानमय धर्म को छोड़कर शेष धर्मों को गृहस्थ अविकल रूप से नहीं कर सकता है। अतः हे भगवन् ! कहिए, महापुरुषों के द्वारा सेवित, समस्त दुख. रूप अग्नि के लिए जल के समान, मोक्षरूपी रमणी के समागम के एक मात्र हेतु श्रमणत्व के योग्य व्यक्ति कैसा होता है ?" भगवान् ने कहा – “सुनो, आर्यदेश में उत्पन्न हुआ, विशिष्ट जाति और कुल से युक्त, जिसके कर्ममल क्षीणप्राय हैं, उसकी बुद्धि इस प्रकार की हो कि मनुष्यभव दुर्लभ है । मरण का कारण जन्म है । सम्पत्ति चंचल है, विषय दुःख के कारण हैं । संयोग में वियोग होता है । प्रति समय मरण होता रहता है। ( संसार का कल ) भयंकर होता है। इस प्रकार जिसने संसार के स्वरूप को जान लिया है, अतः उससे विरक्त है । कषायों को जिसने बहुत कम कर दिया है । मन्दहास्य करने वाला है, कौतूहल रहित, कृतज्ञ और विनीत है । पहले भी राजा, मन्त्री, नगर निवासी जिसे बहुत मानते थे, जो द्वेष नहीं करता है, कल्याणमत्र आकृति वाला है, श्रद्धावान् है और स्थिर Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तइलो भयो ] भयवं ! सोहणी समणत्तणारिहो भयवया पवेइओ । अहं पुण समुदसंपन्नो । ता एवं निवेइए भयवं पमा ति । तओ परिचितियं भयवया जहा खु एसो महाभागवंतो सुहुमप सिणेसु बियवखणो, अच्चंत - पसंतरुवो, अइणिउणभणिइकुसलो वि य लक्खिज्जइ, तहा भवियव्वमणेणं महाकुलपसूएणं भवविरत्तचित्तेण य । ता इमं ताव एत्थ पत्तकालं, जं एसो उवसंगहिज्जइ त्ति चितिऊण भणियं च णेणंमहासावय ! न से सगुण विप्पहूणो इहं उवसंपज्जइ । जुत्तं च पयइनिग्गुणे संसारवासे जमिणं समणत्तणं, किंतु दुक्करमिदं । एत्थ खलु सव्वकालमेव समसत्तुमित्तभावेण पाणाइवायविरई, अप्प - मत्तयाए अलिय भासणं, दंतसोहणमेत्तस्स वि अदिन्नस्स वज्जणा, मण-वयण काहिं अब्बंभचेर - निरोहो, वत्थ- पत्तो - वगरणेहिं पि निम्ममत्तया, चउव्विहराइभत्तविरई, उपाय- सणावसुद्धपिंडगहणं, संजोयणाइपंच दोसर हियमियकाल भोयणं, पंचसमियत्तणं, तिगुत्तया, इरियासमिया इभावणाओ, अणसण - पायच्छित्त-विणयाइसबाहिरब्भिंतरतवोविहाणं, मासाइया य अणेगाओ पडिमाओ, भणितम् - भगवन् ! शोभनः श्रमणत्वार्हो भगवता प्रवेदितः, अहं पुनः समुपसम्पन्नः । तत एवं निवेदिते भगवान् प्रमाणमिति । ततः परिचिन्तितं भगवता - यथा खलु एष महाभागवान् सूक्ष्मप्रश्नेषु विचक्षणः, अत्यन्त प्रशान्तरूपः, अतिनिपुणभणितिकुशलोऽपि च लक्ष्यते, तथा भवितव्यमनेन महाकुलप्रसूतेन भवविरक्त चित्तेन च । तत इदं तावद् अत्र प्राप्तकालम्, यद् एष उपसंगृह्यते इति चिन्तयित्वा भणितं च तेन - महाश्रावक ! न शेषगुणविप्रहीन इह उपसम्पद्यते । युक्तं च प्रकृतिनिर्गुणे संसारवासे यद् इदं श्रमणत्वम्, किं तु दुष्करमिदम् । अत्र खलु, सर्वकालमेव समशत्रु मित्रभावेन प्राणातिपातविरतिः, अप्रमत्ततया अनलीकभाषणम्, दन्तशोधनमात्रस्यापि अदत्तस्य वर्जना, मनोवचन-कार्यंरब्रह्मचर्यनिरोधः, वस्त्रपात्रोपकरणेष्वपि निर्ममत्वता, चतुविधरात्रिभक्तविरतिः, उद्गमोत्पादनैषणाविशुद्ध पिण्डग्रहणं, संयोजनादिपञ्च दोषरहितमितकाल भोजनम्, पञ्चसमितत्वम्, त्रिगुप्तता, ईर्यासमित्यादिभावना:, अनशन - प्रायश्चित्त-विनयादिसबाह्याभ्यन्तरतपोविधानम्, १६३ श्रद्धा से युक्त है, ऐसा व्यक्ति श्रमण पद के योग्य है ।" शिखिकुमार ने कहा- "भगवन् ! श्रमण पद के योग्य व्यक्ति का भगवान् ने ठीक वर्णन किया, मैं इन गुणों से युक्त हूँ अतः ऐसा निवेदन करने पर भगवान् प्रमाण हैं। अर्थात् अब आप जैसी आज्ञा दें, वैसा करूँ ।" तब भगवान् ने सोचा- यह बहुत भाग्यवान् है, सूक्ष्म प्रश्न करने में निपुण है, अत्यन्त शान्तरूप है, अत्यन्त निपुण उक्तियों में कुशल भी दिखाई पड़ता है अत: महाकुल में उत्पन्न हुए इसे संसार के प्रति विरक्त चित वाला होना चाहिए। अतः अब इसका समय आ गया है जब कि यह धर्म ग्रहण करे - ऐसा विचार कर उन्होंने कहा - "हे महाश्रावक ! शेष गुणों से हीन व्यक्ति इस पद के योग्य नहीं है । स्वभावतः गुणरहित यह जो संसारवास है इसमें श्रमणपना ठीक है, किन्तु इसका पालन करना कठिन है । इसमें सब समयों में शत्रु और मित्र के प्रति समताभाव रखकर प्राणियों की हिंसा से विरक्त होना पड़ता है । प्रमादी न होकर सत्यवचन बोला जाता है । दाँतों को साफ करने के लिए भी दूसरे द्वारा दी गयी वस्तु का निषेध है, मन, वचन और काय से अब्रह्मचर्य का निरोध है, वस्त्र, पात्र और उपकरणों में भी ममत्वभाव छोड़ना पड़ता है । चार प्रकार के रात्रि भोजन से विरत रहते हैं। उद्गम, उत्पादन, एषणा से विशुद्ध ग्रास का ग्रहण तथा संयोजनादि पाँच दोषों से रहित, हितकारी, परिमित और समय पर भोजन करते हैं। पाँच समिति, तीन गुप्ति और ईर्या समिति आदि की भावना की जाती है। अनशन, प्रायश्चित्त, विनय आदि बाह्य और आभ्यन्तर तपों Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ [समराइज्यकहा विचित्ता य दव्वादओ अभिग्गहा, अण्हाणं, भूमिसयणिज्ज, केसलोओ, निप्पडिकम्मस्सरीरया, सवकालमेव गुरूणं निद्देसकरणं, खुहा-पिवासाइपरीसहाहियासणं, दिवाइउवसग्गविजओ, लद्धावलद्धवित्तिया-कि बहुणा ? अच्चंतदुव्वहमहापुरिसबूढअट्ठारससीलंगसहस्सभरवहणमविस्सामं ति । ता तरियन्वो खलु अयं वाहाहि महासमुद्दो, भविखयव्यो निरासाय(ए) एव वालुगाकरलो, परिसक्कियव्वं निसियकरवालधाराए, पायव्वा सुहुयहुयवहजालावली, भरियन्वो सुहमपवणकोत्थलो, गंतव्वं गंगापवाहपडिसोएणं, तोलियन्वो तुलाए मंदरगिरी, जेयत्वमेगागिणा चाउरंगबलं, विधेयव्वा विवरीयभमंतद्धचक्कोवरिथिउल्लिया, गहियव्वा अगहियपुवा तिहुयणजयपडागा। एओवमं दुक्करं समणत्तणं ति। तओ एयमायण्णिऊण पहट्ठवयणकमलेण भणियं सिहिकुमारेण-भयवं ! एवमेयं, जहा तुम्भे आणवेह। किं तु विइयसंसारसरुवस्स पाणिणो तविओगुञ्जयस्स तस्सुच्छेयकारणं न किंचि दुक्कर मासादिकाश्च अनेकाः प्रतिमाः, विचित्राश्च द्रव्यादयोऽभिग्रहाः, अस्नानम्, भूमिशयनीयम्, केशलोचः, निष्प्रतिकर्मशरीरता, सर्वकालमेव गुरूणां निर्देशकरणम्, क्षुत्-पिपासादिपरिषहादिसहनम्, दिव्याद्यपसर्गविजयः, लब्धाऽपलब्धवृत्तिता- किं बहुना ? अत्यन्तदुर्वहमहापुरुषव्यूढाष्टादशशीलाङ्गसहस्रभरवहनमविश्रामम्- इति । ततस्तरीतव्यः खलु अयं बाहुभ्यां महासमुद्रः, भक्षयितव्यो निरास्वाद एव बालुकाकवलः, परिसर्तव्यं निशितकरवालधारायाम्, पातव्या सुहुतहुतवहज्वालावली, भर्तव्यः सूक्ष्मपवनकोत्थलः, गन्तव्यं गङ्गाप्रवाहप्रतिस्रोतसा, तोलयितव्यः तुलायां मन्दरगिरिः, जेतव्यमेकाकिना चातुरङ्गबलम , वेधितव्या विपरीतभ्रमदर्धवक्रोपरिस्त्रीपुत्तलिका, ग्रहीतव्या अगहीतपूर्वा त्रिभुवनजयपताका । एतदुपमं दुष्करं श्रमणत्वमिति । तत एतद् आकर्ण्य प्रहृष्टवदनकमलेन भणितं शिखिकुमारण-भगवन् ! एवमेतद, यथा ययम् आज्ञापयत । किं तु विदितसंसारस्वरूपस्य प्राणिनः तद्वियोगोद्यतस्य तस्योच्छेदकारणं न को किया जाता है । मासादिक अनेक प्रतिमाओं का पालन, नाना प्रकार के द्रव्यादि का अभिग्रह, अस्नान भूमिशयन, शरीर की सजावट का त्याग तथा समस्त समयों में गुरु की आज्ञा का पालन किया जाता है । क्षुधा, पिपासा आदि परीषहों को सहा जाता है, देवताओं आदि द्वारा किये गये उपसर्गों पर विजय प्राप्त की जाती है, प्राप्त या अप्राप्त में सन्तोष धारण करना पड़ता है । अधिक कहने से क्या, यह अत्यन्त कठिनाई से करने योग्य, निरन्तर महापुरुषों द्वारा वहन किये गये अठारह हजार शील के भेदों से युक्त है । अतः यह दोनों भुजाओं से महासमुद्र को तैरना, बिना स्वाद वाली बालू का भक्षण करना, तीक्ष्ण तलवार की धार पर चलना या सरकना, अच्छी प्रकार होती गयी अग्नि में (अपने आपको) गिराना, सूक्ष्म वायु को पोटली में भरना, गंगा के प्रवाह के विपरीत तैरना, तराजू पर सुमेरु को तोलना, अकेले ही चतुरंग सेना को जीतना, विपरीत भ्रमण करते हुए अर्धचक्र के ऊपर की स्त्री पुतलिया को वेधना तथा जिसे पहले ग्रहण नहीं किया है ऐसी तीनों लोकों की विजयपताका को ग्रहण करना है । इनके समान श्रमणपना दुष्कर है।" अनन्तर इसे सुनकर प्रसन्न मुखकमल वाले शिखिकुमार ने कहा- "भगवन् ! यह ऐसा ही है, जैसी कि आपने आज्ञा दी, किन्तु संसार के स्वरूप को जानने वाले प्राणी के लिए, जो कि संसार को छोड़ने के लिए उद्यत Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तइओ भवो ति। भयवया भणियं -एवमेयं, किंतु तं चेव संसारसरूवं पच्चक्खोवलब्भमाणासुंदरं पि अणेयभवभावणाओ मोहेइ पाणिणं, मूढो य सो न चितेइ तस्सरूवं, न गणेइ आयई, न मन्नए उवएसं, नाभिगंदइ गुरुं, न पेच्छइ कुलं, न सेवइ धम्मं, न बोहेइ अयसस्स, न रक्खइ वयणिज्जं। सव्वहा तं तमायरइ, जेण जेण सो इहलोए परलोए य किलेसभायणं होइ। ता निहणियव्वो खलु एस मोहो ति । सिहिकुमारेण भणियं -भयवं! तस्स वि य निहणणे एसेव उवाओ, न य अणाढत्तकज्जो पुरिसो फलं साहेइ, आढत्ते य संसओ, अहवा उवायपवत्तो असंसयं चेव साहेइ। उवाओ य एस, जं भयवओ समीवे समणत्तणपवज्जणं । नित्थरंति खलु कायरा वि पोयनिज्जामयगुणेण महण्णवं । न य अप्पपुण्णाणं कुसलबुद्धी हवइ। न य समुप्पन्नाए वि इमीए एवं विहसयलगुणसंपओववेयगुरुलाहो । ता करेहि मे भयवं ! अणुग्गहं ति । भयवया भणियं-वच्छ ! कओ चेव तुह मए अणुग्गहो । कि तु एसा समयट्ठिई अम्हाणं, जं संसिऊण थेवमागमत्थं, सिक्खाविऊणाऽऽवस्सयं अइक्कतेषु कइवयदिणेसु तओ किञ्चिद् दुष्करमिति । भगवता भणितम्-एवमेतत् , किं तु तदेव संसारस्वरूपं प्रत्यक्षोपलभ्यमानाऽसून्दरमपि अनेकभवभावनातो मोहयति प्राणिनः, मढश्च स न चिन्तयति तत्स्वरूपम, न गणयति आयतिम् , न मन्यते उपदेशम्, नाऽभिनन्दति गुरुम् , न प्रेक्षते कुलम् , न सेवते धर्मम । न विभेति अयशसः, न रक्षति वचनीयम् । सर्वथा तत तद् आचरति, येन येन स इहलोके परलोके च क्लेशभाजनं भवति । ततो निहन्तव्यः खलु एष मोह इति । शिखिकुमारेण भणितम्-भगवन ! तस्यापि च निहनने एष एव उपायः, न च अनारब्धकार्यः पुरुषः फलं साधयति, आरब्धे च संशयः, अथवा उपायप्रवृत्तोऽसंशयमेव साधयति । उपायश्च एषः, यद् भगवतः समीपे श्रमणत्वप्रपदनम । निरस्त रन्ति खलु कातरा अपि पोत-निर्यामकगुणेन महार्णवम । न च अल्पपुण्यानां कुशलबुद्धिभवति । न च समुत्पनया अपि अनया एवंविधसकलगुणसम्पदुपेतगुरुलाभः । ततः कुरु मम भगवन ! अनुग्रहम -इति । भगवता भणितम -वत्स! कृत एव तुभ्यं मयाऽनुग्रहः। किं तु एषा समयस्थितिरस्माकम , यत् शंसित्वा स्तोकमागमार्थम , शिक्षयित्वाऽवश्यकम , अतिक्रान्तेष कतिपय है, कुछ भी दुष्कर नहीं है ।" भगवान ने कहा- "ऐसा ही है, किन्तु संसार के असुन्दर स्वरूप को प्रत्यक्ष प्राप्त करते हुए भी अनेक भवों के संस्कारवश प्राणी मोहित होते हैं, मूढ़ प्राणी उस संसार के स्वरूप का विचार नहीं करता है, भादी फल को नहीं गिनता है, उपदेश को नहीं मानता है, गुरु का अभिनन्दन नहीं करता है। कुल को भी नहीं देखता है, धर्म का सेवन नहीं करता है, अपयश से नहीं डरता है, निन्दा से रक्षा नहीं करता है । सब प्रकार से वही-वही आचरण करता है, जिससे इसलोक और परलोक में निन्दा का पात्र बनता है । अतः इस मोह को मारना चाहिए।" शिखिकुमार ने कहा-"भगवन् ! उसके मारने का यही उपाय है, पुरुष कार्य को प्रारम्भ किये बिना फल को प्राप्त नहीं करता है, प्रारम्भ करने पर (फल के विषय में) संशय रहता है अथवा उपायपूर्वक कार्य करने पर बिना संशय के ही इष्टसिद्धि कर लेता है। उपाय यही है कि भगवान् के पास श्रमणपने को प्राप्त हो जाता है । कातर व्यक्ति भी जहाज चलाने वाले के गुण से बहुत बड़े समुद्र को पार कर लेते हैं । अल्पपुण्य वालों की कुशल बुद्धि नहीं होती है। यदि अल्पपुण्य वालों के कुशल बुद्धि उत्पन्न हो भी जाय तो भी इस प्रकार की समस्त गुणों की सम्पत्ति से युक्त गुरु का लाभ भी प्राप्त नहीं हो पाता । अतः भगवन् ! मेरे ऊपर अनुग्रह करो।" भगवान् ने कहा-"तुम्हारे ऊपर मैंने अनुग्रह कर ही दिया है। किन्तु हमारे शास्त्र की यह मर्यादा है कि आगम के अर्थ का ज्ञान कराकर, आवश्यक की शिक्षा देकर, कुछ दिन बीत जाने के अनन्तर दीक्षा Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ [समराइच्चकहा दिक्खिज्जइ त्ति । सिहिकुमारेण भणियं-भयवं! अणुगिहीओ म्हि । अन्नं च-निक्खंतेण वि मए समयट्टिई चेव पालियव्वा । ता एवं हवउ ति। एवं च जाव मंतयंता चिट्ठति, ताव आगओ कहिंचि तप्पत्ति सोऊण अणेयलोयपरिगओ करेणुयारूढो इमस्स चेव जणओ बंभयत्तो त्ति। पणमिओ तेण भयवं विजयसिंहायरिओ। अहिणंदिओ भयवया धम्मलाहेण । उवविठ्ठो गरुपायमूले । पणमिऊण भणिओ सिहिकुमारेण-ताय ! संपाएहि अभग्गपणइपत्थणो मे एगं पत्थणं ति । बंभयत्तण भणियं-वच्छ ! भणसु । तुहायत्तमेव मे जीवियं । सिहिकुमारेण भणियं-ताय! विइयत्ततो चेव तुम ससारसहावस्स। दुल्लह खलु माणुसत्तण, अणिच्चा पियजणसमागमा, चचलाओ रिद्धीओ, कुसुमसारं जोव्वण, परलोयपच्चत्थिओ अणंगो, दारुणो विसयविवागो, पहवइ सया अणिवारियपसरो मच्चू । ता करेहि मे पसाय । एवमवसाणे इह जावलोए अणुन्नाओ तुमए वीयरायप्पणीयजइधम्मासेवणेण करेमि सफलं मणुयत्तणं । तओ सुयसि हेण बाहजलभरियलोयणेणं सगग्गयं भणिय बंभयत्तेण-पुत्त ! अयालो एस जइधम्मस्स। सिहिकुमारेण भणियं-ताय! मच्चुणो विय नत्थि अयालो जइधम्मस्स त्ति। दिनेषु ततो दीक्ष्यते इति । शिखिकुमारेण भणितम् --भगवन् ! अनुगहीतोऽस्मि । अन्यच्च--निष्कान्तेनापि मया समयस्थितिरेव पालयितव्या । तत एवं भवतु इति । एवं स यावद् मन्त्रयन्तौ तिष्ठतः, तावद् आगतः कुत्रचित् तत्प्रवृत्ति श्रुत्वा अनेकलोकपरिगतः करेणुकाऽऽरूढोऽस्यैव जनको ब्रह्मदत्त इति । प्रणतश्च तेन भगवान् विजयसिंहाचार्यः । अभिनन्दितो भगवता धर्मलाभेन । उपविष्टो गुरुपादमले। प्रणम्य भणितः शिखिकुमारेण-तात ! सम्पादय अभग्नप्रणयिप्रार्थनो मम एकां प्रार्थनामिति । ब्रह्मदत्तेन भणितम्-वत्स! भण । तवायत्तमम जीवितम् । शिखिकुमारेण भणितम्-तात ! विदितवृत्तान्त एव त्वं संसारस्वभावस्य । दुर्लभं खलु मनुष्यत्वम्, अनित्याः प्रियजनसमारामाः, चञ्चला ऋद्धयः, कुसुमसारं यौवनम्, परलोकप्रत्यथिकोऽनङ्गः, दारुणो विषयविपाकः, प्रभवति सदा अनिवारितप्रसरो मृत्युः । ततः कुरु मम प्रसादम् । एवमवसाने इह जीवलोके अनुज्ञातस्त्वया वीतरागप्रणीतयतिधर्माऽसेवनेन करोमि सफलं मनुजत्वम् । ततः सुतस्नेहेन वाष्पजलभृतलोचनेन सगद्गदं भणितं ब्रह्मदत्तेन--पुत्र ! अकाल एष यतिधर्मस्य । शिखिकुमारेण भणितम्-तात ! मृत्योरिव नास्ति अकालो यतिधर्मस्य इति । देते हैं ।" शिखिकुमार ने कहा-"भगवन् ! मैं अनुगृहीत हूँ। दूसरी बात यह है कि निकले हुए भी मुझको शास्त्र की मर्यादा का पालन करना ही चाहिए । अतः यही हो।" इस प्रकार जब बातचीत करते हुए बैठे थे तब कहीं से इस बात को सुनकर अनेक लोगों के साथ हथिनी पर सवार हुए पिता ब्रह्मदत्त आ पहुँचे। उन्होंने विजयसिंह आचार्य को प्रणाम किया। भगवान ने धर्मलाभ के द्वारा (उनका) अभिनन्दन किया। वे गुरु के चरणों में बैठ गये । शिखिकुमार ने प्रणामकर कहा -"पिता जी ! याचकों की प्रार्थना को न टालने वाले आप मेरी एक प्रार्थना स्वीकर करें।" ब्रह्मदत्त ने कहा-"वत्स! कहो, मेरे प्राण तुम्हारे ही अधीन हैं ।" शिखिकुमार ने कहा-"पिता जी ! आप संसार के स्वभाव के वृत्तान्त को जानते ही हैं । मनुष्यपना दुर्लभ है, प्रियजनों के समागम अस्थिर हैं, ऋद्धियां चंचल हैं। यौवन फूलों के समान सार वाला है। काम परलोक का विरोधी है। विषयों का फल भयंकर है। जिसके प्रसार को रोका नहीं जा सकता, ऐसी मृत्यु सदैव समर्थ है । अत: मेरे ऊपर प्रसन्न होओ। इस प्रकार की समाप्ति वाले इस संसार में आपकी अनुमति प्राप्त कर मैं वीतरागप्रणीत यतिधर्म का सेवन कर मनुष्यभव को सफल करूँगा।" अनन्तर पुत्रस्नेह से आँखों में आंसू भरकर ब्रह्मदत्त से गद्गद होकर कहा-"पुत्र ! यह यतिधर्म का समय नहीं है।" शिखिकुमार ने कहा-"पिता जी ! मृत्यु की तरह, यतिधर्म के लिए कोई अकाल (निश्चित समय) नहीं होता है।" Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तइमो भयो ] १९७ एत्थंतरम्मि बंभयत्तपरिचारगेण नाहियवादिणा भणियं पिंगकेण-भो कुमार! केण तुम विप्पयारिओ ? न खलु एत्थ पंचभूयवइरित्तो परलोगगामी जीवो समत्थीयइ । अवि य एयाणि चेव भूयाणि सहावओ चेव एयप्पगारपरिणामपरिणयाणि 'जीवो' त्ति भण्णंति । जया य एयाणि चइऊण समुदयं पंचत्तमुवगच्छंति, तया 'मओ पुरिसो' त्ति अहिहाणं पवत्तए । न उण एत्थ कोइ देहं चइऊण घडचिडओ विव परभवं गच्छड। ता मा तमं असंते वि परलोगे मिच्छाहिणिवेसभावियमई सहावसुंदरं विसयसुहं परिच्चयसु, वंसेहि वा देहवइरित्तं देहिणं । अओ जं तए भणियं-जहा दुल्लहं मणयत्तणं, तमसंबद्धमेव। जओ न तं सुकय-दुक्कयाणुभावेण लब्भइ, अवि य भूयपरिणईओ, अओ किमियमाउलत्तणं। तहा जं च भणियं 'अणिच्चा पियजणसमागमा', एयं पि अकारणं । जओ न ते निक्खंताणं पि अन्नहा होति । तहा जं च भणियं 'चंचलाओ रिद्धीओ', एयस्स वि न निक्खमणमेव पडिवक्खो, अवि य उवाएण परिरक्खणं ति। तहा जं च भणियं 'कुसुमसारं जोव्वणं', एत्थ वि य अत्रान्तरे ब्रह्मदत्तपरिचारकेण नास्तिकवादिना भणितं पिङ्गकेन--भोः कुमार ! केन त्वं रितः ? न खल अत्र पञ्चभूतव्यतिरिक्तः परलोकगामी जीवः समर्थ्यते, अपि चैतानि एव भूतानि स्वभावत एव एतत्प्रकारपरिणामपरिणतानि 'जीवः' इति भण्यन्ते। यदा च एतानि त्यक्त्वा समुदयं पञ्चत्वमुपगच्छन्ति तदा 'मृतः पुरुषः' इति अभिधानं प्रवर्तते । न पुनरत्र कश्चिद देहं त्यक्त्वा घटचटक इव परभवं गच्छति । ततो मा त्वमसत्यपि परलोके मिथ्याभिनिवेशभावितमतिः स्वभावसुन्दरं विषयसुखं परित्यज, दर्शय वा देहव्यतिरिक्तं देहिनम् । अतो यत् त्वया भणितम् -यथा दुर्लभं मनुजत्वम् , तद् असम्बद्धमेव । यतो न तत्. सुकृतं-दुष्कृतानुभावेन लभ्यते, अपि च भूतपरिणतितः । अतः किमिदमाकुलत्वम् । तथा यच्च भणितम् 'अनित्याः प्रियजनसमागमाः एतदपि अकारणम् । यतो न ते निष्क्रान्तानामपि अन्यथा भवन्ति । तथा यच्च भणितम् 'चञ्चला ऋद्धयः', एतस्यापि न निष्क्रमणमेव प्रतिपक्षः, अपि च उपायेन परिरक्षणमिति । तथा यच्च भणितम् 'कुसुमसारं यौवनम्', अत्रापि च रसायनं युक्तम्, न पुननिष्क्रमणमिति । तथा यच्च इसी बीच ब्रह्मदत्त के सेवक नास्तिकवादी पिंगक ने कहा-“हे कुमार ! किसने तुम्हें ठग लिया है ? पांच भूतों के अतिरिक्त किसी परलोकगामी जीव का समर्थन नहीं होता है । ये ही (पंच) भूत स्वभावतः इसी प्रकार परिणत होकर 'जीव' नाम से कहे जाते हैं। जब इनको छोड़कर समुदय पंचत्व को प्राप्त हो जाता है तो 'जीव मर गया'-ऐसा कहा जाता है। कोई भी जीव यहां देह छोड़कर घटचटक (एक हिंसा प्रधान सम्प्रदाय) के समान परलोक नहीं जाता है । अतः परलोक न होने के कारण मिथ्या अभिप्राय से युक्त बुद्धि वाले होकर स्वभाव से सुन्दर विषयसुख को मत छोड़ो अथवा शरीर के अतिरिक्त जीव को दिखायो। जो तुमने कहा कि 'मनुष्यजन्म दुर्लभ है' वह असम्बद्ध ही है। क्योंकि मनुष्यजन्म पुण्य-पाप के फलस्वरूप अनुभव में नहीं आता अपितु पांच भूतों की परिणति रूप से ही अनुभव में पाता है । अत: इसके विषय में आकुलित होने से क्या लाभ ? तथा जो कहा है कि 'प्रियजनों के समागम अनित्य हैं', इसमें कुछ भी कारण नहीं है, क्योंकि बाहर निकलने वालों (घर छोड़ने वालों) के लिए भी वे (प्रियजन) अन्यथा नहीं होते हैं। जो कहा कि 'ऋद्धियां चंचल हैं' -- इसका भी विरोधी घर से बाहर निकलना नहीं है अर्थात् घर से निष्क्रमण कर जाने से ऋद्धियाँ स्थिर नहीं हो जाती; अपितु चंचल होने से प्रयत्नपूर्वक उसकी रक्षा ही करनी चाहिए। जो कहा कि 'यौवन फूलों के समान सारवाला है' इसका स्वाद लेना ही युक्त है, छोड़ना नहीं। और जो कहा कि 'काम परलोक का विरोधी है' यह भी ठीक नहीं १.पिंगकेसेण-ग। Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - [ समराइच्चकहा रसायणं जुत्तं, न उण निक्खमणं ति । तहा जं च भणियं 'परलोयपच्चत्थिओ अणंगो' त्ति, एवं पिन सोहणं, जओ परलोओ चैव नत्थि, न य कोइ तओ आगंतूणमप्पाणयं दंसेइ । एवमवि य परिगप्पणे अइप्पसंगो त्ति । तहा जं च भणियं 'दारुणो विसयविवागो' त्ति, एवं पि न जुत्तिसंगयं; जओ आहारस्स वि विवागो दारुणो चेव, एवं च भोयणमवि परिच्चइअव्वं । न य 'हरिणा विज्जंति त्ति जवा चेव न वुप्पंति । [ जयट्टिई य एस त्ति ] न य उवायन्नुणो पुरिसस्स दारुणतं पि संभवइ । तहा जं च भणियं 'पहवइ य सया अणिवारियपसरो मच्चु'त्ति, एवं पि बालवयणमेत्तं जेण निक्खंतस्स वि एस अणिवारियप्पसरो चेव, तेण वि य समणेण पज्जंते मरियव्वं ति । न य 'पज्जंते मरियव्वं' ति मसाणे चेवावत्थाणमुववन्नं । न य संते वि परलोए दुक्खसेवणाओ सुहं, अवि य सुहसेवणाओ चेव । जओ जं चेव अम्भसिज्जइ, तस्सेव पगरिसो लोए दिट्ठो, न उण विवज्जओ त्ति । ता विरम एयाओ ववसाओ त्ति । सिहिकुमारेण भणियं - सव्वमिदमसंगयं । सुण । अहवा न जुत्तं भयवओ समक्खं मम जंपिउं । ता भयवं चैव एत्थ भणिस्सइति । तओ भयवया भणियं-भो महामाहण ! सुण । जं तए भणियं, भणितम् - "परलोकप्रत्यर्थिोऽनङ्गः' इति एतदपि न शोभनम्, यतः परलोक एव नास्ति, न च कोऽपि तत आगत्य आत्मानं दर्शयति । एवमपि च परिकल्पने अतिप्रसंग इति । तथा यच्च भणितम 'दारुणो विषयविपाकः' इति, एतदपि न युक्तिसंगतम, यत आहारस्यापि विपाको दारुण एवं, एवं च भोजनमपि परित्यक्तव्यम् । न च 'हरिणा विद्यन्ते इति यवा एव नोप्यन्ते ।' (जगत्स्थितिश्च एषा इति) न च उपायज्ञस्य पुरुषस्य दारुणत्वमपि सम्भवति । तथा यच्च भणितम् ' प्रभवति च सदा अनिवारितप्रसरो मृत्यु:' इति, एतदपि बालवचनमात्रम् ; येन निष्क्रान्तस्यापि एष अनिवारितप्रसर एव तेनाऽपि च श्रमणेन पर्यन्ते मर्तव्यमिति । न च ' पर्यन्ते मर्तव्यम्' इति श्मशाने एव अवस्थानमुपपन्नम् । न च सत्यपि परलोके दुःखसेवनातः सुखम् अपि च सुखसेवनादेव । यतो यदेव अभ्यस्यते, तस्यैव प्रकर्षो लोके दृष्टः, न पुनर्विपर्यय इति । ततो विरम एतस्माद् व्यवसायादिति । शिखिकुमारेण भणितम् - सर्वमिदमसंगतम् । शृणु । जल्पितुम् । ततो भगवान् एव अत्र भणिष्यति इति । ततो अथवा न युक्तं भगवतः समक्षं मम भगवता भणितम् - भो महाब्राह्मण ! है; क्योंकि परलोक ही नहीं है । कोई भी वहाँ से आकर अपने को प्रकट नहीं करता है । इस प्रकार की कल्पना में अतिप्रसंग दोष आता है तथा जो कहा गया कि 'विषयों का फल भयंकर होता है' यह भी युक्तिसंगत नहीं है क्योंकि आहार का भी फल भयंकर होता है अतः भोजन भी त्याग देना चाहिए ? हरिणों के डर से कोई जौ को न बोये, ऐसा नहीं है । संसार की स्थिति ऐसी ही है । उपाय को जानने वाले पुरुष के लिए संसार दारुण नहीं हो सकता है तथा जो कहा गया कि सदा निवारण करने के अयोग्य मृत्यु समर्थ है, यह भी बालवचन के तुल्य है, क्योंकि घर छोड़ने पर भी इसके विस्तार को रोका नहीं जा सकता है, मुत्यु के द्वारा श्रमण भी मरण को प्राप्त होते हैं। यदि वे मरते न हों तो श्मशान में ही रहना ठीक है । परलोक हो भी तो भी के सेवन से सुख नहीं हो सकता, अपितु सुख के सेवन से ही सुख हो सकता है। जाय उसी का ही प्रकर्ष लोक में देखा जाता है, इसका विपर्यय नहीं देखा जाता है। छोड़ दो।" 'दुःख जिसका अभ्यास किया अतः इस निश्चय को शिखिकुमार ने कहा- "यह सब असंगत है -- सुनो । अथवा भगवान् के समक्ष कुछ अतः भगवान् ही इस विषय में कहेंगे ।" तब भगवान् ने कहा- "हे महाब्राह्मण ! सुनो, जो कहना ठीक नहीं है। तुमने कहा कि 'तुम Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सइओ भवो ] जहा 'केण तुमं पयारिओ' त्ति एस जम्मंतरम्भत्थकुसल भावणाभावियमई अप्पावरणसंजुओ वीयरागवयणाविन्भूय खओवसमभावेण समुप्पन्नतत्तनाणी जहट्ठियं भवसहावमवबुज्झिऊण तओ विरत्तो, न उण केइ विप्पयारिओ त्ति । तहा जं च भणियं - न खलु एत्थ पंचभूयवइरित्तो पर लोगगामी जीवो समत्थी, अवि य एयाणि चेव भूयाणि सहावओ चेव एयप्पगारपरिणामपरिणयाणि जीवो ति भण्णंति', एयं पि न जुत्तिसंगयं । जओ सव्वहा अचेयणाणि भूयाणि । ता कहं इमाणं एयप्पगारपरिणामपरिणयाण वि एसा पच्चवखपमाणाणुभूयमाणा गमणाइचेट्टानिबंधणा चेयणा जुज्जइ त्ति । न हि जं जेसु पत्तेयं न विज्जए, तं तेसि समुदए वि हवइ, जहा बालुगाथाणए तेल्लं । अह 'पत्तेयं पि इमाणि चेयणाणि' त्ति, तओ सिद्धमणेगचेयन्नसमुदओ पुरिसो, एगिंदिया य जीवा, घडादीणं च चेयणत्तणं ति । न य घडादीणं चेयण त्ति । अओ अत्थि खलु पंचभूयवइरित्तो चेयणारूवो परलोगगामी जीवो त्ति । तओ य जं भणियं - 'जया एयाणि चइऊण समुदयं पंचत्तमुवगच्छंति, तया "मओ शृणु । यत् त्वया भणितम्, यथा 'केन त्वं प्रतारितः' इति एष जन्मान्तराभ्यस्त कुशलभावनाभावितमतिरल्पावरणसंयुतो वीतरागवचनाऽऽविर्भूतक्षयोपशमभावेन समुत्पन्नतत्त्वज्ञानो यथास्थितं भवस्वभावमवबुध्य ततो विरक्तः, न पुनः केनचिद् विप्रतारित इति । तथा यच्च भणितम् -- खलु अत्र पञ्चभूतव्यतिरिक्तः परलोकगामी जीवः समर्थ्यते, अपि च एतानि एव भूतानि स्वभावत एव एतत्प्रकारपरिणामपरिणतानि जीव इति भण्यन्ते, एतदपि न युक्तिसंगतम् । यतः सर्वथा अचेतनानि भूतानि । ततः कथमेषामेतत्प्रकारपरिणामपरिणतानामपि एषा प्रत्यक्षप्रमाणानुभूयमाना गमनादिचेष्टानिबन्धना चेतना युज्यत इति । नहि यद्येषु प्रत्येकं न विद्यते, तत् तेषां समुदयेऽपि भवति, यथा बालुकास्थानके तैलम् । अथ 'प्रत्येकमपि इमानि चेतनानि' इति, ततः सिद्धमनेकचैतन्यसमुदयः पुरुषः, एकेन्द्रियाश्च जीवाः घटादीनां च चेतनत्वमिति । न च घटादिनां चेतनेति । अतोऽस्ति खलु पञ्च भूतव्यतिरिक्तश्चेतनारूपः परलोकगामी जीव इति । ततश्च यद् भणितम् — 'यदा एतानि त्यक्त्वा समुदयं पञ्चत्वमुपगच्छन्ति, तदा "मृतः पुरुषः" इत्यभिधानं प्रवर्तते, तदपि " १६६ किससे उगाये गये हो' यह दूसरे जन्मों में अभ्यास की हुई शुभभावना वाली बुद्धि से युक्त होकर अल्प आवरण सहित, वीतराग पुरुषों के वचनों से प्रकटित हुए, क्षयोपशम भाव से जिसे तत्त्वज्ञान प्राप्त हो गया है, ऐसा होकर संसार के स्वभाव को ठीक-ठीक जानकर यह विरक्त हो गया है, किसी के द्वारा यह ठगा नहीं गया है तथा जो कहा कि पांच भूतों के अतिरिक्त परलोक जाने वाला जीव समर्थित नहीं होता है और ये भूत ही स्वाभाविकतया इस प्रकार के परिणाम से परिणत होकर जीव कहे जाते हैं - यह भी युक्तिसंगत नहीं है; क्योंकि भूत सर्वथा अचेतन है । वहाँ प्रत्यक्ष प्रमाण से अनुभव में आनेवाला गमनादि चेष्टाओं का कारण चेतनायुक्त होना है । इस प्रकार के परिणाम से परिणत वस्तु चेतना कैसे हो सकती है । जो प्रत्येक में विद्यमान नहीं होता है, वह उनके समूह में भी विद्यमान नहीं होता है । जैसे -- बालू के ढेर में तेल । यदि प्रत्येक में ये चेतनाएं विद्यमान हैं तो अनेक चेतन का समूह पुरुष सिद्ध होता है, एकेन्द्रिय जीव भी सिद्ध होते हैं और घटादिकों में भी चेतना सिद्ध होती है ! किन्तु घटादिकों में चेतना नहीं है, अतः पांच भूतों से अलग चेतना रूप जीव है जो परलोक में जाता है। जो आपने कहा कि 'जो इन्हें छोड़कर समुदय पंचस्व को प्राप्त होते हैं । वे जीव मृत कहे जाते हैं' यह भी १ पयारिओ क । Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० समराच्या पुरिसो" त्ति अभिहाणं पवत्तइ', एयं पि क्यणमेतं । चेव चेयन्नस्स तदइरेगभाववित्तीओ। न याणुभूयमाणसरूवा चेव चेयणा निसेहिउं पारीयइ। तहा जं च भणियं-'न उण एत्थ कोइ देहं चइऊण घडचिडओ विव परभवं गच्छइ' ति, एयं पि अओ चैव पडिसिद्ध वेइयव्वं, चेयणस्स अचेयणभेयाओ त्ति। तहा जं च भणियं-ता मा तुमं असंते वि परलोए मिच्छाभिणिवेसभावियमई सहावसुंदरं विसयसुहं परिच्चयसु, दंसेहि वा मे देहवइरित्तं देहिणं', एत्थ वि य सुण-चेयन्न भेयसिद्धीए कहं नत्थि परलोगो ? विज्जमाणे य तम्मि कहं एयस्स मिच्छाभिणिवेसो ? कहं च पसुगणसाहारणा विडंबणामेत्तरूवा चितायासबहुला मणनिव्वाणवेरिणो अविनायवीसम्भसुहसरूवा सहावसुंदरा विसय ति, किं च तेहितो सुहं ? जं पुण 'सो देहभिन्नो न दोसई', एत्थ कारणं सुण-सुहुमो अणिदिओ य सो वत्तए, अओ न दोसइ त्ति । पेच्छंति पुण सव्वन्नू । भणियं च वीयराहि अणिदियगुणं जीवं अविस्सं मंसचक्खुणो। सिद्धा पस्संति सव्वन्नू नाणसिद्धा य साहुणो॥३०६॥ वचनमात्रमेव । चैतन्यस्य तदतिरेकभाववृत्तितः । न चानुभूयमानस्वरूपा एव चेतना निषेद्धं शक्यते । तथा यच्च भणितम्-'न पुनरत्र कोऽपि देहं त्यक्त्वा घटचटक इव परभवं गच्छति' इति, एतदपि अत एव प्रतिषिद्धं वेदितव्यम् , चेतनस्य अचेतनभेदाद् इति । तथा यच्च भणितम्-'ततो मा त्वं असत्यपि परलोके मिथ्याभिनिवेशभावितमतिः स्वभावसुन्दरं विषयसुखं परित्यज, दर्शय वा मम देहव्यतिरिक्तं देहिनम्', अत्राऽपि च शृणु-चैतन्यभेदसिद्धया कथं नाऽस्ति परलोकः ? विद्यमाने च तस्मिन् कथमेतस्य मिथ्याभिनिवेशः ? कथं च पशु गणसाधारणा विडम्बनामात्ररूपाश्चिन्ताऽऽयासबहुला मनोनिर्वाणवैरिणोऽविज्ञातविस्रम्भसुखस्वरूपाः स्वभावसुन्दरा विषया इति ? किं च तेभ्यः सुखम् ? यत् पुनः ‘स देहभिन्नो न दृश्यते', अत्र कारणं शृण-सूक्ष्मोऽनिन्द्रियश्च स वर्तते, अतो न दृश्यत इति । प्रेक्ष्यन्ते पुनः सर्वज्ञाः । भणितं च वीतरागैः अनिन्द्रियगुणं जीवमदृश्यं मांसचक्षुषः । सिद्धाः पश्यन्ति सवज्ञा ज्ञानसिद्धाश्च साधवः ॥३०६॥ वचन मात्र है; क्योंकि चैतन्य अतिशयता को लिये हुए है। जिसका अनुभव होता है-ऐसी चेतना का निषेध नहीं किया जा सकता है तथा जो कहा कि घटचटक के समान कोई शरीर छोड़कर परलोक नहीं जाता है-यह भी इसी से खण्डित समझना चाहिए; क्योंकि चेतन का अचेतन से भेद होता है, तथा आपने जो कहा कि असत्य परलोक में मिथ्या अभिप्रायवश बुद्धि कर स्वभाव से सुन्दर विषय सुखों को मत त्यागो अथवा देह के अतिरिक्त मुझे देही दिखलाओ, इस विषय में भी सुनो-चैतन्य की पृथक् सिद्धि होने पर परलोक कैसे नहीं है ? परलोक के विद्यमान होने पर इसके विषय में मिथ्या अभिप्राय कैसा ? पशुओं में भी पाये जाने वाले, विडम्बना मात्र रूप वाले, चिन्ता और परिश्रम की जिसमें बहुलता है, जो मन की मुक्ति के वैरी हैं, जिनका विश्वस्त रूप ज्ञात नहीं है ऐसे विषय स्वभाव से सुन्दर कैसे हैं ? उनसे सुख क्या है ? जो कि 'शरीर से भिन्न वह दिखाई नहीं पड़ता है', उसका कारण भी सुनो-वह सूक्ष्म तथा अनिन्द्रिय है अतः वह दिखाई नहीं देता है। पुनः सर्वज्ञ देखते हैं। वीतरागों ने कहा है अनिन्द्रिय गुण वाला जीव मांस के नेत्रों से दिखाई नहीं देता है। सर्वज्ञ, ज्ञानसिद्ध साधु और सिद्ध (उसे) देखते हैं । ॥३०६॥ १. चेयण-क-ख । Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तहमो भवो __ एवं च पयंपिरंपि विजयसिंहायरिए ईसि विहसिऊण भणियं पिंगकेण-भयवं! सव्वमसंबद्धमेव भणियं भयवया। कहं ? सुण-जं ताव भणियं-'सव्वहा अचेयणाणि भूयाणि, ना कहं इमाणं एयप्पगारपरिणामपरिणयाण वि एसा पच्चक्खप्पमाणाणुभूयमाणा गमणाइचेट्ठानिबंधणा चेयणा जुज्जइ त्ति; न हि जं जेसु पत्तेयं न विज्जए तं तेसि समुदए वि हवइ, जहा वालगाथाणगे तेल्लं', एयं कहं जज्जइ त्ति ? । न हि कारणाणुरूवमेव कज्जं भवइ । किण्ण होइ सिंगाओ सरो? किं वा अदेस्सपरमाणुनिप्पन्नं घडाइ देस्सं ति ? एवं चेयणा वि तक्कज्जा य भविस्सइ, भूयविलक्खणा य त्ति को विरोहो? जं च भणियं-'अह पत्तेयं पि इमाणि चेयणाणि त्ति, तओ सिद्धमणेयचेयन्नसमुदओ पुरिसो, एगिदिया य जीवा घडादीणं च चेयण त्ति' इच्चेवमादि, तं पि न सोहणं । तेसि चेव तहाविहपरिणामभावओ, तदभावओ चैव न घडादीणं च चेयण त्ति। भयवया भणियं-सुण, जं भणियं-'किण्ण होइ सिंगाओ सरों' ति ? सो होइ, न ऊण कारणाणणुरुवो, इयरसरविलक्खण मसिण-घण-लण्हाइतद्धम्मसंकमाओ त्ति । अह मन्नसे, न सो एवं च प्रजल्पति विजयसिंहाचार्ये ईषद् विहस्य भणितं पिङ्गकेन-भगवन् ! सर्वमसंबद्धमेव भणितं भगवता । कथम् ? शृणु, यत् तावद् भणितम्-'सर्वथा अचेतनानि भूतानि, ततः कथमेषामेतत्प्रकारपरिणामपरिणतानामपि एषा प्रत्यक्षप्रमाणानुभूयमाना गमनादिचेष्टानिबन्धना चेतना युज्यते इति ? न हि यद् येषु प्रत्येकं न विद्यते, तत् तेषां समुदयेऽपि भवति, यथा बालुकास्थानके तैलम्', एतत् कथं युज्यते इति ? न हि कारणानुरूपमेव कार्य भवति । किं न भवति शृङ्गात् शरः ? किं वा अदृश्यपरमाणुनिष्पन्नं घटादि दृश्यमिति ? एवं चेतनाऽपि तत्कार्या च भविष्यति भूतविलक्षणा च इति को विरोधः ? यच्च भणितम् -- 'अथ प्रत्येकमपीमानि चेतनानि इति, ततः सिद्धमनेकचैतन्यसमुदयः पुरुषः, एकेन्द्रियाश्च जीवाः घटादीनां च चेतना इति' इत्येवमादि, तदपि न शोभनम् । तेषामेव तथाविधपरिणामभावतः, तदभावतश्चैव न घटादीनां चेतनेति । भगवता भणितम्-शृणु, यच्च भणितम् - 'कि न भवति शृङ्गात् शरः' इति ? स भवति, न पुनः कारणाननुरूपः, इतरशरविलक्षणमसृण-घन-श्लक्ष्णादितद्धर्मसंक्रमाद्-इति । अथ मन्यसे, न स विजयसिंहाचार्य के ऐसा कहने पर कुछ हँसकर पिंगक ने कहा-"भगवन् ! आपने सब असम्बद्ध कहा।" कैसे ? सुनो, जो आपने कहा कि भूत सर्वथा अचेतन हैं तो कैसे इस प्रकार के परिणामों से परिणत यह प्रत्यक्ष प्रमाण से अनुभव की जाने वाली, गमनादि चेष्टाओं की कारण चेतना युक्तियुक्त है ? जो प्रत्येक में नहीं होता है वह उनके समूह में भी नहीं होता है। जैसे बालू के ढेर में तेल-यह कैसे ठीक है ? कारण के अनुरूप ही कार्य नहीं होता है । क्या सींग से बाण नहीं बनता है ? अथवा अदृश्य परमाणु से बनाये गये घड़े आदि नहीं होते है ? इसी प्रकार चेतना भी भूतों का कार्य है जो उससे विलक्षण है-इसमें क्या विरोध है ? जो कहा गया कि 'इन सबमें चेतना है तो चैतन्यों का प्रत्येक समूह जीव सिद्ध है, एकेन्द्रियादि जीव तथा घटादि में भी चेतना सिद्ध है. इत्यादि-यह भी कहना ठीक नहीं है; क्योंकि जिन वस्तुओं में उस प्रकार का परिणाम होता है उन में ही चेतना होती है। जिनमें इस प्रकार का परिणाम नहीं है, उनमें चेतना भी नहीं है। इसी से घटादि में (उस प्रकार के परिणामों के अभाव के कारण) चेतना नहीं है।" भगवान् ने कहा- "सुनो, जो कहा गया कि क्या सींग से बाण नहीं बनता है ? (इस पर हमारा कहना है कि) वह बनता है किन्तु वह कारण के अनुरूप न हो, ऐसी बात नहीं है । क्योंकि दूसरे बाणों से विलक्षण, चिकना, १. विलक्खगो-क-ग। Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ [समरामकहा विसेसो वहारिन्जइ ति । अस्थि ताव सो इयरसरहेउसिंगाणमभेयप्पसंगओ, विसेसावहारणे उज्जमो कायव्वो त्ति । न हि अयं थाणुस्स अवराहो, जमंधो न पस्सइ ति। जं च भणियं-अदेस्सपरमाणुनिप्पन्नं घडाइ देस्सं ति, एयं पि न जुत्तिक्खमं । जओ न एगतेण अहेसा परमाणवो, जोगिदंसणाओ कज्जदसणाओ य। न य एवं भयधम्मसंकमो चेयणाए त्ति, एयं पि अओ चैव पडिसिद्धं वेइयव्वं, चेयणस्स अचेयणभेयाओ त्ति । अह मन्नसे, सत्तालक्खणधम्मसंकमाओ न दोसो ति। एयं पि न सोहणं ति । तस्स सयलभावसाहारणत्तेणमणियामगत्ताओ त्ति । तओ संगयं चेव मए भणियं ति । तहा जंच भणियं--'तहाविहपरिणामाभावाओ चैव न घडादीणं चेयण' त्ति । एत्थ नत्थि पमाणं; भूयसमुदयवइरित्तपरिणामन्भुवगमे य अन्नाभिहाणो जीवन्भुवगमो ति। तओ सविलियं भणियं पिंगकण-भयवं ! जइ एवं अणिदियगुणो जीवो, ता सरीराओ वि भिन्नो। एवं च होतगे मम पियामहो महुपिंगो नाम, सो अणेयसत्तसंघायणरओ आसि त्ति । तुह दरिसणेण नियमेण नरए समुप्पन्नो। ममोवरि अइसिणेहसंगओ य आसि, इहलोयाकरणिज्जनिवाविशेषोऽवधार्यते इति । अस्ति तावत् स इतरशरहेतुशृङ्गाणामभेदप्रसंगतः, विशेषावधारणे उद्यमः कर्तव्य इति । न हि अयं स्थाणोरपराधः, यद् अन्धो न पश्यति इति । यच्च भणितम्–'अदृश्यपरमाणुनिष्पन्नं घटादि दृश्यम्' इति, एतदपि न युक्तिक्षमम् । यतो नैकान्तेन अदृश्याः परमाणवः, योगिदर्शनात् कार्यदर्शनाच्च । न च एवं भूतधर्मसंक्रमश्चेतनायामिति, एतदपि अतएव प्रतिषिद्धं वेदितव्यम् , चेतनस्य अचेतनभेदादिति । अथ मन्यसे, सत्तालक्षणधर्मसंक्रमाद् न दोष इति । एतदपि न शोभनमिति । तस्य सकलभावसाधारणत्वेन अनियामकत्वादिति । ततः संगतमेव मया भणितमिति । तथा यच्च भणितम्-'तथाविधपरिणामाभावादेव न घटादीनां चेतना' इति, अत्र नास्ति प्रमाणम् ; भूतसमुदयव्यतिरिक्तपरिणामाभ्युपगमे च अन्याभिधानो जीवाभ्युपगम इति । ततः सव्यलीकं भणितं पिङ्गकेन-भगवन् ! यदि एवमनिन्द्रियगुणो जीवः, ततः शरीरादपि भिन्नः । एवं च भवति (सति) मम पितामहो मधुपिङ्गो नाम, सोऽनेकसत्त्वसंघातनरत आसीदिति। तव दर्शनेन (मतेन) नियमेन नरके समुत्पन्नः, ममोपरि अतिस्नेहसंगतश्च आसीत्, इहलोकाऽकरकठोर, चमकदार आदि धर्म उसमें विद्यमान रहते हैं। यदि मानते हो कि विशेषों का अवधारण नहीं होता है तो दूसरी वस्तु से बनाये जाने वाले बाणों में अभेद हो जायेगा। विशेष का निश्चय करने का उद्यम करना चाहिए । यहठ का अपराध नहीं है जो कि (उसे) अन्धा नहीं देखता है । जो कहा कि 'अदृश्य परमाणु से बना घड़ा दृश्य है' यह भी युक्ति युक्त नहीं है; क्योंकि एकान्त रूप से परमाणु अदृश्य नहीं हैं; क्योंकि उनका योगियों को प्रत्यक्ष होता है और कार्य भी दिखाई देता है। इसी प्रकार भूतों के धर्म का संक्रम चेतना में नहीं कह सकते, क्योंकि चेतन और अचेतन में भेद होता है । इसी से आपकी बात का निषेध हो जाता है। यदि मानते हो कि सत्ता लक्षण धर्म विद्यमान रहने के कारण दोष नहीं है तो यह भी ठीक नहीं है। क्योंकि सत्ता तो सभी पदार्थों में साधारण रूप से विद्यमान है, अत: सत्ता इस विषय में नियामक नहीं है । अत: मेरा कहना ठीक है तथा जो कहा गया कि उस प्रकार के परिणामों के अभाव के कारण घटादि में चेतना नहीं है तो इसका (आपके पास) कोई प्रमाण नहीं है । भूतों के समूह से अलग परिणाम मानने पर अन्य नाम वाला जीव मान लेना चाहिए।" तब कपटपूर्वक बोलते हुए पिंगक ने कहा-"भगवन् ! यदि इस प्रकार जीव अनिन्द्रिय है तो वह शरीर से भी भिन्न है । ऐसा होने पर मेरा पितामह मधुपिंग नाम का था । वह अनेक प्राणियों के मारने में रत था। आपके मतानुसार निश्चित रूप से नरक में उत्पन्न हुआ है । मेरे ऊपर उसका अत्यधिक स्नेह था, इस लोक में जो Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०३ समो भयो रणसोलो य । ता कहं सो तओ नरयाओ आगच्छिऊण दिटुविवागो वि मंन निवारेइ। भयवया भणियं-सुण, जहा महावराहयारी, तिक्खनरवइसमाएसगहिओ, रोहिं चारयपुरिसेहि लोहसंकलानिबद्धदेहो, घोरंधयारचारयनिवासी, परतंतओ सुप्पियं पि सयणं ददु पि न लहए, किमंग पुणाणुसासिउं? एवमेव ते नारगा पमायावराहकारिणो तिव्वयरकम्मपरिणामगहिया चंडेहि निरयपालेहि वज्जसंकलानिबद्धदेहा तिव्वंधयारदुरुत्तरनरनिवासिणो कम्मपरतंता कहं निक्खमि लहंति, जेण देवाणुप्पियं अणुसासेंति ? भणियं च निरयाउए अझोणे' निक्खमिउं नो लहंति नरगाओ। कम्मेण पावयारी नेरइया ते निहन्नति ॥३०७॥ पिंगकेण भणियं-भयवं! जइ एवं, ता ममं चेव पिया सोपिंगो नाम, सो अच्चंतपरलोयभीरू, पाणवहाइविरओ, अकसायसीलो, अणेगजागयारी पच्छा य समणवयं घेत्तूण कंचि कालं परिवालिय मओ। सोय सुह दसणेण नियमेण देवेसु उववन्नो। अच्चंतवल्लहो य अहं तस्स आसि । णोयनिवारणशीलश्च। ततः कथं स ततो नरकाद् आगत्य दृष्टविपाकोऽपि मां न निवारयति । भगवता भणितम्-शृणु, यथा महापराधकारी, तीक्ष्णनरपतिसमादेशगृहीतः, रौद्रैश्चारकपुरुषैर्लोहश्रृंखलानिबद्धदेहः, घोरान्धकारचारकनिवासी, परतन्त्रकः सुप्रियमपि स्वजनं द्रष्टुमपि न लभते, किमङ्ग पुनरनुशासितुम् ? एवमेव ते नारकाः प्रमादापराधकारिणस्तीव्रतरकर्मपरिणामगृहीताश्च. ण्डैनिरयपालैर्वजशृङ्खलानिबद्धदेहास्तीवाऽन्धकारदुरुत्तरनरकवासिनः कर्मपरतन्त्राः कथं निष्क्रमितु लभन्ते, येन देवानुप्रियमनुशासयन्ति । भणितं च निरयायुषि अक्षीणे निष्क्रमितुं नो लभन्ते नरकात् । कर्मणा पापकारिणो नैरयिकास्ते निहन्यन्ते ॥३०७॥ पिङ्गकेन भणितम्-भगवन् ! यदि एवम् । ततो ममैव पिता सोमपिङ्गो नाम, सोऽत्यन्तपरलोकभीरुः; प्राणवधादिविरतः, अकषायशीलः, अनेकयागकारी, पश्चाच्च श्रमणव्रतं गहीत्वा कञ्चित् कालं परिपाल्य मतः । स च तव दर्शनेन नियमेन देवेषु उपपन्नः। अत्यन्तवल्लभश्चाहं करने योग्य नहीं था, उसके लिए मुझे मना करता था । तो फल भोग कर भी वह क्यों नरक से आकर मुझे नहीं रोकता है ?" भगवान् ने कहा - ''सुनो, जैसे बहुत बड़े अपराधी को राजा की कठोर आज्ञा से पकड़कर रुद्र रूपधारी सिपाही उसके शरीर को लोहे की सांकलों से बाँधकर भयानक अन्धकार वाले कारागार में डाल देते हैं। (वहाँ पर) परतन्त्र होकर अपने प्रिय स्वजनों को देख भी नहीं पाता है, उनको शिक्षा देने की तो बात ही क्या है ? इसी प्रकार वे नारकी जीव जो कि प्रमादवश अपराध कर अत्यधिक तीव्र परिणामों से भयंकर नरकपालों द्वारा ग्रहण किये जाकर वज की साँकल से बांध दिये जाते हैं तीव्र अन्धकार वाले उत्तर न देने योग्य नरक में रहते हैं । कर्म से परतन्त्र हुए वे (वहाँ से) कैसे निकल सकते हैं ताकि अपने प्रियजनों को शिक्षा दे सकें । कहा भी है नरक की आयु क्षीण हुए बिना नरक से नहीं निकल सकते हैं । कर्मवश पापकारी नारकी उसे मारते है ॥३०७॥ पिंगक ने कहा--"भगवन् ! यदि ऐसा है तो मेरा पिता जिनका नाम सोमपिंग था, परलोक से बहुत डरते थे। प्राणिवध आदि से विरत थे, कषायरहित थे, अनेक यज्ञ कराने वाले थे, बाद में श्रमण दीक्षा १, अपवीणे-क। Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ [समराइच्चकहा धम्मं च मे देसियव्वं ति भणियमासी । ता कहं सो अपरतंतो वि समाणो इहागच्छिऊण मं न पडिबोहेइ। भयवया भणियं--सुण, जहा नाम कोइ दरिद्दपुरिसो, होणजाइकुलरूवो ववसायं काऊण गहियकलाकलावो देसंतरमुवगंतूण तप्पसायओ कहिंचि पत्तरज्जो, कयविविहसुंदरीपरिग्गहो, महानरिंदपूइओ, संजायाणेगसुंदरावच्चो, महासोक्खसागरावगाढो न सुमरए लज्जावणिज्जस्स कुकलत्तपुत्तभंडगस्स, एवं चेव ते देवा मणुयत्तणमसारं मन्नमाणा धम्मववसायं काऊण गहियपरलोगकलाकलावा' सुरालयं पाविऊण पुव्वसुकयपसायओ देविाट्ट पाविऊण तियससुंदरोपरियरिया, महाणेगदेवगणपूइया, समप्पन्नाणेयरइनिबंधणा, अच्चंतरइसागरावगाढा न सुमरंति वि मणुयभावस्स, किमंग पुण आगच्छंति ? ता कहं समणुसासइंति ? भणियं च "संकंतदिव्वपेमा विसयपसत्ताऽसमत्तकत्तव्वा । अणहीणमणुयकज्जा नरभवमसुहं न एंति सुरा" ॥६०८॥ तस्यासम् । धर्मश्च मम देष्टव्य इति भणितमासीत् । ततः कथं सोऽपरतन्त्रोऽपि सन् इहागत्य मां न प्रतिबोधयति । भगवता भणितम्-शृणु, यथा नाम कोऽपि दरिद्रपुरुषः, हीनजातिकुलरूपो व्यवसायं कृत्वा गृहीतकलाकलापो देशान्तरमुपगत्य तत्प्रसादतः कुत्रचित् प्राप्तराज्यः, कृतविविधसुन्दरीपरिग्रहः, महानरेन्द्रपूजितः, संजातानेकसुन्दरापत्यः, महासौख्य सागरावगाढो न स्मरति लज्जापनेयस्य कुकलत्र-पुत्रभाण्डकस्य, एवं चैव ते देवा मनुजत्वमसारं मन्यमानाः, धर्मव्यवसायं कृत्वा गृहीतपरलोककलाकलापाः, सुरालयं प्राप्य पूर्वसुकृतप्रसादतो देवद्धि प्राप्य त्रिदशसुन्दरीपरिकरिताः, महानेकदेवगणपूजिताः, समुत्पन्नानेकरतिनिबन्धनाः, अत्यन्तरतिसागरावगाढा न स्मरन्त्यपि मनुजभावस्य. किमङ्ग पुनरागच्छन्ति ? ततः कथं समनुशासयन्ति ? भणितं च संक्रान्तदिव्यप्रेमाणो विषयप्रसक्ता असमाप्तकर्तव्याः। अनधीनमनुजकार्या नरभवमशुभं नाऽयन्ति सुराः ॥३०॥ लेकर, कुछ समय पालन कर मृत्यु को प्राप्त हो गये। वे आपके मत से निश्चित रूप से देवों में उत्पन्न हुए होंगे। मैं उनका अत्यन्त प्रिय था । वे मुझे धर्म का उपदेश देंगे- ऐसा उन्होंने कहा था। तो वे स्वतन्त्र होते हुए भी, क्यों नहीं यहां आकर मुझे प्रतिबुद्ध करते हैं ?" भगवान् ने कहा-"जैसे कोई दरिद्रपुरुष हीन जाति और कुल के अनुरूप व्यवसाय कर, कलाओं के समूह को प्राप्त कर दूसरे देश को जाकर, कलाओं के कारण उसे कहीं से राज्य प्राप्त हो, बहुत-सी स्त्रियों से विवाह कर बड़े-बड़े राजाओं द्वारा पूजित होने लगे और उसके अनेक सन्ताने हो जाय । (तब) महान् सुख रूपी सागर में लीन होकर वह लज्जा के कारण छोड़ने योग्य उन दीन कलत्र-पुत्रों को याद नहीं करता है । उसी प्रकार वे देव भी मनुष्यपने को असार मानकर, धर्मपुरुषार्थ कर, परलोक की कल्पनाओं के समह को ग्रहण कर स्वर्ग प्राप्त कर तथा पूर्वपूण्य के प्रताप से देवों की ऋद्धि और देवांगनाओं को पाकर, अनेक बड़े-बड़े देवों से पूजित होकर, अनेक प्रकार की रति के कारण उपस्थित होने पर अत्यन्त रतिरूप सागर में लीन होकर, मनुष्यपने को याद भी नहीं करते हैं, आने की तो बात ही क्या ? अतः वे कैसे शिक्षा देंगे? कहा भी है दिव्य प्रेम में रिले-मिले, विषयों में लगे हुए, जिनके कार्य समाप्त नहीं हुए हैं, जिनके अधीन मनुष्य के कार्य नहीं हैं ऐसे देव मनुष्यभव को अशुभ मानकर नहीं आते है ॥३०॥ १. गहियपरलागकलावा-क.गहियकलाकलावा-ख। Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तो भयो ] २०३ पिंगकेण भणियं - भयवं ! जइ एएण हेउणा नागच्छंति, देह भिन्नो य जीवो, ता इमं इह नयरवत्तं चैव सव्वलोयपच्चवखं विरुज्झइ । भयवया भणियं -कहेहि, किं तं नरयवत्तं त्ति ? पिंगकेण भणियं-सुण, एत्थ नयरे एगेण तक्करेण नरवइभंडावारं मुट्ठमासी । सो य कहंचि निग्गच्छमाणो गहिओ निउत्तरिहि । गेहिऊण सलोत्तगो चेव उवणीओ नरवइस्स । राइणा भणियं वावाएह एयं । तओ सो वहनिउत्तेण लोहकुम्भोए पक्खित्तो; पक्खिविऊण य ठइया लोहकुम्भी । सम्मं ठइयाई छियाई तत्तसीसणं । तओ दिन्ना रक्खवालया । तहि च सो उवगओ पंचत्तं । नदिट्ठो सुमो वि से निगमणमग्गो त्ति । अओ अवगच्छामो, न अन्नो जीवो त्ति । भगवया भणियं भद्द ! जं किचि एयं ति । सुण, इहेगम्मि नयरे एगो संखिगो विन्नाणपगरिसं संपत्तो सीहदारे वि संखं धर्मेतो सव्वनयरजणस्स करणे वि य धमेइ । सो य राइणा पुच्छिओ कियद्दूरे धमेसि ? तेण भणियं - देव ! सोहदारम्मि । राइणा भणियं -कहं मम ठइयदुवारे वि वासहरए पविसइ त्ति ? तेण भणियं - नत्थि से पडिघाओ ति । तओ राइणा असद्दहंतेण सो पुरिसो ससंखगो चेव उड्ढियाए पक्खित्तो, वृत्तो पिङ्गकेन भणितम् — भगवन् ! यदि एतेन हेतुना नागच्छन्ति, देहभिन्नश्च जीवः, तत इदमिह नगरवृत्तं चैव सर्वलोकप्रत्यक्षं विरुध्यते । भगवता भणितम् - कथय, किं तद् नगरवृत्तम् - इति ? पिङ्गकेन भणितम् - शृणु, अत्र नगरे एकेन तस्करेण नरपतिभाण्डागारं मुष्टमासीत् । स च कथंचिद् निर्गच्छन् गृहीतो नियुक्तपुरुषः । गृहीत्वा सलोप्त्रक एव उपनीतो नरपतेः । राज्ञा भणितम्व्यापादयत एतम् । ततः सो वधनियुक्तेन लोहकुम्भ्यां प्रक्षिप्तः प्रक्षिप्य च स्थगिता लोहकुम्भी । सम्यक् स्थगितानि छिद्राणि तप्तसीसकेन । ततो दत्ता रक्षपालकाः । तत्र च स उपगतः पञ्चत्वम् । न दृष्टः सूक्ष्मोऽपि तस्य निर्गमनमार्ग इति । अतोऽवगच्छामः, न अन्यो जीव इति । भगवता भणितम् - भद्र । यत् किञ्चिद् एतद् इति । शृणु । इहैकस्मिन् नगरे एकः शाङ्खिको विज्ञानप्रकर्षं सम्प्राप्तः सिंहद्वारे ( मुख्यद्वारे) अपि शङ्ख धमन् सर्वनगरजनस्य कर्णेऽपि च धमति । स च राज्ञा पृष्ट:- कियदूरे घमसि ? तेन भणितम देव । सिंहद्वारे । राज्ञा भणितम् - कथं मम स्थगितद्वारेऽपि वासगृह के प्रविशति - इति । तेन भणितम् - नास्ति तस्य प्रतिघात इति । ततो राज्ञाऽश्रद्दधता स पिंग ने कहा - "यदि इस हेतु को आप नहीं मानते हैं और देह से भिन्न जीव मानते हैं तो सभी लोगों के द्वारा देखी हुई इस नगर की घटना से विरोध आता है।" भगवान् ने कहा - "कहो, वह नगर की घटना क्या है ?" पिंगक ने कहा - "सुनो, इस नगर में एक चोर ने राजा के भण्डार में चोरी की। कहीं से निकलते हुए उसे नियुक्त पुरुषों ने पकड़ लिया। उसे चोरी के माल के साथ पकड़कर वे राजा के पास लाये । राजा ने कहा - 'इसे मार डालो ।' तब वध के लिए नियुक्त पुरुष ने उसे लोहे की कुम्भी में डाल दिया, डालकर लोहे की कुम्भी बन्द कर दी । तपाये हुए शीशे से भली प्रकार छेद बन्द कर दिये । अनन्तर रखवाली करने वालों को ( रक्षपालों को ) दे दिया । उस लोहे की कुम्मी में वह पंचत्व को प्राप्त हो गया ( मर गया ) । उसके निकलने का सूक्ष्म भी मार्ग दिखाई नहीं पड़ा । अतः हम लोग जानते हैं कि देह से भिन्न जीव नहीं है ।" भगवान् ने सुनो - इस नगर में एक शंख बजाने वाला ज्ञान के प्रकर्ष को प्राप्त था। जब बजाता था तो नगर के सभी लोगों के कान में उसकी ध्वनि पहुँचती थी। राजा पर शंख बजाते हो ?' उसने कहा--' मुख्यद्वार पर ।' राजा ने कहा--' दरवाजा बन्द रहने पर भी मेरे निवासगृह में कैसे आवाज प्रवेश करती है ।' उसने कहा - 'आवाज़ के लिए कोई रुकावट नहीं है ।' तब राजा ने विश्वास न कहा- "एक बात यह हैमुख्यद्वार ( सिंहद्वार) पर शंख ने उससे पूछा - 'कितनी दूर Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ य 'वाएज्जसि संखं। ठइया उड्ढिया' जउसारीकया य। वाइओ' तेण संखो। विनिग्गओ से सद्दो, उवलद्धो राइणा नायरेहिं । न य तस्स निग्गमणछिद्दमुवलद्धं ति । एवं इहावि भवे, को विरोहो त्ति? पिंगण भणियं---भयवं ! न एवमेयं ति। सुण । इहेवेगो तक्करजुवाणओ मित्तेण मे कालदंडवासिएण मम वयणाओ तुलाए तोलिऊण गलकरमोडएण वावाइओ। सो य पुणो वि तोलिओ जाव जत्तिओ सजीवो, तत्तिओ अजोवो वि । अओ अवगच्छामो, न अन्नो जीवो; अन्नहा ऊणगरूवो होतो त्ति। भगवया भणियं-भद्द ! जं किचि एयं । सुण, इहेगेणं गोवालेण वायभरिओ वत्थिपुडगो तुलाए तोलाविओ, रिक्को पुणो वि तोलाविओ, जाव जत्तिओ भरिओ, तत्तिओ रिक्को वि। अह य अन्नो तओ वाओ त्ति । अह मन्नसे, सो मणागं उणगो त्ति । एवं च होतगे इयरम्मि वि समो पसंगो। पिंगकेण भणियं-भयवं! न एवमेयं ति। सुण, इहेव नयरे मित्तण मे कालदंडवासिएण मम पुरुषः सशङ्खक एव ऊध्विकायां प्रक्षिप्तः, उक्तश्च 'वादय शङ्खम । स्थगिता ऊध्विका जतुसारीकृता च । वादितस्तेन शङ्खः । विनिर्गतस्तस्य शब्दः, उपलब्धो राज्ञा नागरैः । न च तस्य निर्गमनच्छिद्रमपलब्धमिति । एवमिहाऽपि भवेत, को विरोध इति ? पिङ्गकेन भणितम् -भगवन् ! नैवमेतद् इति । शृणु। इहैवैकः तस्करयुवको मित्रेण मम कालदण्डपाशिकेन मम वचनात् तुलायां तोलयित्वा गलकरमोटकेन व्यापादितः। स च पुनरपि तोलितः। यावद् यावान् सजीवः, तावान् अजीवोऽपि। अतोऽवगच्छामः, न अन्यो जीवः, अन्यथा ऊनकरूपोऽभविष्यद् इति । भगवता भणितम्-भद्र ! यत् किञ्चिद् एतत् । शृणु, इहैकेन गोपालेन वातभतो वस्तितुटकस्तुलायां तोलितः, रिक्तः पुनरपि तोलितः, यावद् यावान भतः, तावान् रिक्तोऽपि । अथ च अन्यस्ततो वात इति । अथ मन्यसे, स मनाग ऊनक इति । एवं च भवति इतरस्मिन्नपि समः प्रसङ्गः । पिङ्गकेन भणितम -भगवन् ! न एवमेतद् इति । शृण. इहैव नगरे . .. कर उसे शंख सहित अविका (शयनगृह विशेष) में पहुँचा दिया और कहा---'शंख बजाओ।' अविका (शयनगृह विशेष) को बन्द करा दिया और (दरवाजों वगैरह में) लाख भरवा दी। उसने शंख बजाया। शंख का शब्द निकला। राजा और नगरनिवासियों ने उसे सुना, किन्तु शंख की आवाज़ के निकलने का छेद प्राप्त नहीं हुआ। इसी प्रकार से यहां भी होना चाहिए। (इसमें) क्या विरोध है ?" पिंगक ने कहा-'भगवन् ! ऐसा नहीं है । सुनो, यहाँ पर मेरे मित्र कालदण्डपाशिक ने मेरे कहने के अनुसार एक चोर युवक को तराजू पर तोलकर हाथ से गला दबाकर मार डाला। उसे फिर तोला गया। जितना वह जीवित था उतना ही मरा निकला । अतः जानता हूं कि जीव भिन्न नहीं है नहीं तो मृत शरीर (अवश्य ही) कम हो जाना चाहिए था।" भगवान् ने कहा-"भद्र ! एक बात यह है-सुनो, यहाँ पर एक ग्वाले ने हवा भरी हुई बकरे की खाल की मसक को तुला पर तोला, खाली करने पर पुनः तोला। जितनी भरी हुई थी, उतने ही वजन की रिक्त निकली। (यह बात आधुनिक विज्ञान के सिद्ध है।) यदि वायु को जीव से भिन्न मानो अथवा उससे न्यून मानो तो ऐसा दूसरी जगह भी मानना पड़ेगा।" पिंगक ने कहा-"भगवन् ! नहीं, यह ऐसा है, सुनो १. उडुढिणा, २, पकाइओ-क । Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सइओ भवो ] arणाओ एगस्स तक्करस्स सरीरयं संवत्तुव्वत्तयं करेंतेण वि मग्गिओ जीवो, न य दिट्ठो । तओ से सरीरयं खंड खंडाई' करेंतेण पुणो वि मग्गिओ, न य दिट्ठोत्ति । अओ अवगच्छामो-न अन्नो जीवो । भयवया भणियं - भद्द ! जं किचि एयं । सुण, इहेगेण मणुस्सेण अणि संवत्तुव्वत्तयं करेंतेण वि afrओ अग्गी, न य दिट्ठो । तओ तेण अणि खंडखंडाइ करेंतेग पुणो वि मग्गिओ, न य दिट्ठोत्ति । ता किं सो न तम्मि अस्थि त्ति ? अह मन्नसे नत्थि त्ति, एवं तओ अणुप्पायपसंगो । एवं च भणिए उत्तरप्पयाणाभावेण विलियमिव पिंगकं पेच्छिऊण भणियं भयवया-ता एवं रुक्खसाहापयलणनिमित्तपवणो व्व अदिस्समाणो वि चक्खुणा सरीरचेट्टानिमित्तभूओ जीवो अस्थि ति सद्धेयं । अह मन्नसे, पवणो फासिदिएण घेप्पइ । हंत! जीवो वि चित्तचेयणाइधम्माणुहवेण घेप्पइ ति । भणियं च - चित्तं चेयण सन्ना विन्नाणं धारणा य बुद्धी य । ईहा मई वियक्का जीवस्स उ लक्खणा एए ॥ ३०६ ॥ मित्रेण मम कालदण्डपाशिकेन मम वचनाद् एकस्य तस्करस्य शरीरकं संवर्तोद्वर्तकं कुर्वताऽपि मार्गितो जीवः, न च दृष्टः । ततस्तस्य शरीरकं खण्डखण्डानि कुर्वता पुनरपि मार्गितः न च दृष्ट इति । अतोऽवगच्छामः -न अन्यो जीवः । भगवता भणितम् - भद्र ! यत् किञ्चिद् एतत् । शृणु, इहैकेन मनुष्येण अणि संवर्तोद्वर्तकं कुर्वताऽपि मार्गितोऽग्निः, न च दृष्टः । ततस्तेन अरणि खण्डखण्डानि कुर्वता पुनरपि मार्गितः, न च दृष्ट इति । ततः किं स न तस्मिन्नस्ति इति ? अथ मन्यसे नास्तीति । एवं ततोऽनुत्पादप्रसङ्गः । एवं च भणिते उत्तरप्रदानाभावेन व्यलीकं ( लज्जितम् ) इव पिङ्गकं प्रेक्ष्य भणितं भगवता - तत एवं वृक्षशाखाप्रचलन निमित्तपवन इव अदृश्यमानोऽपि चक्षुषा शरीरचेष्टानिमित्तभूतो जीवोऽस्ति इति श्रद्धेयम् । अथ मन्यसे, पवनः स्पर्शेन्द्रियेण गृह्यते । हन्त ! जीवोऽपि चित्तचेतनादिधर्मानुभवेन गृह्यत इति । भणितं च- ין २०७ चित्तं चेतना संज्ञा विज्ञानं धारणा च बुद्धिश्च । हा मतिवितर्का जीवस्य तु लक्षणानि एतानि ॥ ३०६ ॥ इसी नगर में मेरे मित्र कालदण्डपाशिक ने मेरे कथनानुसार एक चोर के शरीर को हिला-डुलाकर जीव देखा, किन्तु नहीं दिखाई दिया । तब उसके शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर पुनः जीव देखा किन्तु दिखाई नहीं दिया, अतः जीव नहीं है । भगवान् ने कहा "भद्र ! एक बात यह है- सुनो, यहाँ पर एक मित्र ने लड़ी को हिला-डुलाकर अग्नि देखी किन्तु दिखाई नहीं दी । तब उसने लकड़ी के खण्ड-खण्डकर पुनः अग्नि खोजी किन्तु वह न मिला । तो क्या वह उसमें नहीं है ? यदि मानते हो नहीं है तो पुनः उससे कभी अग्नि की उत्पत्ति नहीं हो सकती है ।" I ऐसा कहने पर उत्तर न दे पाने के कारण लज्जित हुए पिगक को देखकर भगवान् ने कहा - "वृक्षों की शाखाओं को चलाने में जैसे पवन निमित्त है, उसी प्रकार शरीर की चेष्टा का कारण जीव है, जो कि नेत्रों से दिखाई नहीं देता । ऐसी श्रद्धा करनी चाहिए। यदि मानते हो कि वायु स्पर्शन से ग्रहण की जाती है तो जीव भी चित्त चेतनादि धर्म के अनुभव से ग्रहण किया जाता है। कहा भी है चित्त, चेतना, संज्ञा, विज्ञान, धारणा, बुद्धि, ईहा, मति और वितर्क ये जीव के लक्षण हैं ॥ ३०६ ॥ १. खंडाई क । Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०५ [समराइच्चकहा ता अस्थि जीवो ति । एवं च होतए जं तुमए भणियमासि, जहा-'दुल्लहं खलु एवं माणुसत्तणं ति, एयमसंबद्धं चेव ; जओ न तं सुकयदुक्कयाणुभावेण लगभइ, अवि य भूयपरिणईओ त्ति, अओ किमियमाउलत्तणं' त्ति, एयमजुत्तं । न हि परलोगगामुए जीवे विज्जमाणे चेव एवं समत्थधम्मारम्भसाहगं माणुसत्तणं भूयपरिणइमेत्तलम्भं ति । तहा जं भणियं-'अणिच्चा पियजणसमागम त्ति, एयं पि अकारणं, जो न ते निक्खंताणं पि अन्नहा होंति,' एवं पि न सोहणं ; जओ निक्खंताणमिह मुणीणं पिया-ऽपियवियप्पो चेव नत्थि ति । तहा जं च भणियं-'चंचलाओ रिद्धीओ ति, एयस्स वि न निक्खमणं चेव पडिवक्खो, अवि य उवाएण परिक्खणं' ति, एयं पि बालवयणसरिसं चेव । जओ न धम्ममेव मोतूणं अन्नो परिक्खणोवाओ, असाराओ य इमाओ दव्वरिद्धीओ अणेयसत्तावयारिणीओ य । तहा जं च भणियं-'कुसुमसारं जोव्वणं ति, एत्थ वि य रसायणं जत्तं, न पुणो निक्खमणं' ति, एवं पि न संगयं । जओ न निक्खमणधम्मसाहरणरसायणाओ परमत्थचिताए अन्नं रसायणं ति । तहा जं च भणियं-'परलोयपच्चत्थिओ अणंगो त्ति, एयं पि न सोहणं; ततोऽस्ति जीव इति । एवं च भवति यत् त्वया भणितमासीत्, यथा-'दुर्लभं खलु एतद् मनुष्यत्वम्-इति, एतद् असम्बद्धमेव; यतो न तत् सुकृतदुष्कृताऽनुभावेन लभ्यते, अपि च भूतपरिपतित इति, अतः किमिदमाकुलत्वम्' इति , एतद् अयुक्तम् । न हि परलोकगामुके जीवे विद्यमाने, एव एतत् समस्तधर्मारम्भसाधकं मनुष्यत्वं भूतपरिणतिमात्रलभ्यमिति। तथा यद् भणितम्'मनित्याः प्रियजनसमागमा इति, एतदपि अकारणम् , यतो न ते निष्क्रान्तानामपि अन्यथा भवन्ति एतदपि न शोभनम् ; यतो निष्क्रान्तानामिह मुनीनां प्रियाऽप्रियविकल्प एव नास्ति इति । तथा यच्च भणितम्--'चञ्चला ऋद्धय इति, एतस्यापि न निष्क्रमणमेव प्रतिपक्षः, अपि च उपायेन परिरक्षणम्' इति, एतदपि बालवचनसदृशमेव । यतो न धर्ममेव मुक्त्वा अन्यः परिरक्षणोपायः, असाराश्च इमा द्रव्यर्द्धयोऽनेकसत्त्वापकारिण्यश्च । तथा यच्च भणितम्-'कुसुमसारं यौवन मिति, अत्रापि च रसायनं युक्तम्, न पुननिष्क्रमणम्' इति, एतदपि न सङ्गतम् । यतो न निष्क्रमणधर्मसाधनरसायनात् परमार्थचिन्तायामन्यद् रसायनमिति । तथा यच्च भणितम्-'परलोकप्रत्यर्थिको अतः जीव है, ऐसा सिद्ध होने पर जो तुमने कहा था कि 'यह मनुष्यभव दुर्लभ है, यह असम्बद्ध है; क्योंकि यह पाप-पुण्य के फलस्वरूप प्राप्त नहीं होता है अपितु यह भूतों की परिणति है, अत: इससे क्या घबड़ाना'—यह अयुक्त सिद्ध होता है । परलोक जाने वाले जीव के विद्यमान रहने पर समस्त धर्मों के आरम्भ का साधक यह मनुष्यत्व भूतों की परिणति मात्र से प्राप्त नहीं होता है तथा जो आप ने कहा कि 'प्रियजनों का समागम अनित्य है, इसमें कोई कारण नहीं है। क्योंकि घर से निकलने वालों का भी प्रियजनों का समागम नित्य नहीं हो जाता है', यह भी ठीक नहीं है: क्योंकि घर से निकलने वाले मुनियों के प्रिय अथवा अप्रिय विकल्प ही नहीं है तथा जो आपने कहा कि 'ऋद्धिर्या चंचल हैं, इसका विरोधी घर से बाहर निकलना नहीं है । अपितु ऋद्धियों की उपाय से रक्षा करना ही इसका विरोधी है', यह भी बच्चों के वचनों जैसा है; क्योंकि धर्म को छोड़कर अन्य कोई रक्षा करने का उपाय नहीं है, ये धन और ऋद्धियाँ असार हैं; क्योंकि इससे अनेक प्राणियों का अपकार होता है तथा जो कहा कि 'यौवन फूल के समान निःसार है, यहाँ पर भी यौवन का रस लेना युक्तियुक्त है। प्रव्रज्या नहीं', यह भी ठीक नहीं है; क्योंकि प्रव्रज्या रूपी धर्मरसायन के अतिरिक्त परमार्थ चिन्ता का अन्य कोई रसायन नहीं है ; आपने जो कहा कि Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सइओ भयो ] २०६ जओ परलोओ चेव नत्थि, न य कोइ तओ आगंतणमप्पाणयं दंसेइ, एवमवि य परियपणे अइप्पसंगो' त्ति, एवं पि हु असारं । विचित्तकिरियाणुहव-जाइस्सरणोवलंभ तक्क 'हियपच्चया विज्जमाणुपायासिद्धो कहं परलोओ चेव नत्थि ? अप्पाणयादंसणे य भणियं कारणं । तह जं च भणियं - 'दारुणो विसय विवागो त्ति, एवं पि न जुत्तिसंगयं; जओ आहारस्स विवागो दारुणो चेव, एवं च भोयणमवि परिचइयत्वं न य 'हरिणा विज्जति त्ति जवा चेव न वप्पति'त्ति, न य उवापन्नुणो पुरिसस्स दारुणत्तं पि संभवइत्ति एयं पि अणालोइयवयणं । जओ सव्वं चैव संसारियं वत्युं विवागदारुणं ति । तं च कमेण वज्जिज्जए, अहिप्पेओ य पव्वज्जाफलं संसारक्खओ चेव सि । न य बन्धुपरिवज्जणेण दिसयपरिभोगो' तीरइ ति । अओ च्चिय न तेसु दारुणत्तं पि संभवइति । तह जं च भणियं - 'पहवइ सया अणिवारियपसरो मच्चु त्ति, एवं पि बालवयणमेत्तं ति; जेण निक्तस्स विएस अनिवारियपसरो चेव; न य पज्जंते मरियव्वं ति मसाणे चेवावत्थाणमुववन्नं, नय संतेवि परलोए दुक्ख सेवणाओ सुहं, अवि य सुहसेवणाओ चेव, जओ जं चेव अब्भसिज्जह J नङ्ग इति एतदपि न शोभनम् यतः परलोक एव नास्ति, न च कश्चित् तत आगत्य आत्मानं दर्शयति एवमपि च परिकल्पने अतिप्रसङ्गः' इति एतदपि खलु असारम् । विचित्र क्रियानुभवजातिस्मरणोपलम्भतकं हितप्रत्ययाद् विद्यमानोत्पादादिसिद्धः कथं परलोक एव नास्ति ? आत्मादर्शने च भणितं कारणम् । तथा यच्च भणितम् - दारुणो विषयपाक इति एतदपि न युक्तिसङ्गतम् ; यत आहारस्य विपाको दारुण एव एवं च भोजनमपि परित्यक्तव्यम्; न च 'हरिणा विद्यन्ते' इति वा एव नोप्यन्ते इति न च उपायज्ञस्य पुरुषस्य दारुणत्वमपि सम्भवति' इति एतदपि अनालोचितवचनम् । यतः सर्वमेव सांसारिकं वस्तु विपाकदारुणमिति । तच्च क्रमेण वर्ज्यते, अभिप्रेतश्च प्रव्रज्या फलं संसारक्षय एवेति । न च बन्धुपरिवर्जनेन विषयपरिभोगः शक्यते इति । अत एव न तेषु दारुणत्वमपि सम्भवतीति । तथा यच्च भणितम् - प्रभवति सदा अनिवारितप्रसरो मृत्युरिति, एतदपि बालवचनमात्रमिति येन निष्क्रान्तस्याऽपि एष अनिवारितप्रसरः; एव न च पर्यन्ते मर्तव्यमिति श्मशाने एव अवस्थानमुपपन्नम् न च सत्यपि परलोक दुःखसेवनात् सुखम् अपि च सुख 'काम परलोक का विरोधी है, यह भी ठीक नहीं है; क्योंकि परलोक ही नहीं है; क्योंकि वहाँ से कोई आकर अपने बापको नहीं दिखलाता है, इस प्रकार की कल्पना में अतिप्रसंग दोष है - इसमें कुछ भी सार नहीं है । नाना प्रकार की क्रियाओं का अनुभव, जातिस्मरण होना, तर्क के द्वारा हित का निश्चय करना, इससे जिसकी उत्पत्ति आदि सिद्ध है, ऐसा परलोक कैसे नहीं है ? आत्मा दिखाई नहीं देती है, इसका कारण कह ही चुके हैं। जो आपने कहा कि विषयों का फल दारुण है, यह भी युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि आहार का विपाक भी दारुण होता है । अतः भोजन भी त्याग देना चाहिए । हरिणों के होने के कारण कोई जो को नहीं बोये, ऐसा नहीं है। उपाय को जानने वाले पुरुष के लिए दारुणपना भी सम्भव नहीं है - यह भी बिना सोचे-समझे कह गये; क्योंकि सारी सांसारिक वस्तुओं का फल दारुण होता है। उसका क्रमशः त्याग किया जाता है और अभिप्रेत प्रव्रज्या का फल संसार का नाश ही है । बन्धु-बाधवों के त्यागने से विषयों का भोग सम्भव नहीं है, अत जो आपने कहा कि जिसका विस्तार रोका नहीं जा सकता, ऐसी मृत्यु सदैव है; क्योंकि घर छोड़ देने पर भी मृत्यु अनिवार्य रूप से आती ही है, यदि ठीक है, परन्तु परलोक होने पर भी दुःख सेवन करने से सुख नहीं हो सकता है १, बलं मंतक्कक च, २. बान्धवपरिख, ३. विसयापरि कन्ग । त्याग में दारुणता सम्भव नहीं है तथा मर्थ है, यह भी बच्चों के कथन जैसा मृत्यु न हो तो श्मशान में भी रहना अपितु सुख का सेवन करने से ही Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० [समराइच्चकहा तस्सेव पगरिसो लोए दिट्ठो न उण विवज्जए ति, ता विरम एयाओ ववसायाओ' त्ति, एयं पि मद्धजणमोहणं । जओ न निक्खमणसाहियफलस्स एस अनिवारियपसरो ति । निक्खमणस्स हि फलं जम्हा जम्माभावजं निव्वाणं, निव्वाणपत्तस्स य इमस्स जीवस्स न जम्मो, न जरा, न वाही, न मरणं, न इविओगो, न अणिट्ठसंपओगो, न बुभुक्खा, न पिवासा, न रागो, न दोसो, न कोहो, न माणो, न माया, न लोहो, न भयं, न य अन्नो वि कोइ उवद्दवो त्ति, किं तु सव्वनू सव्वदरिसी निरुवमसुहसंपन्नो तिलोयचूडामणीभूओ मोक्खपए चिठ्ठइ । अओ कहं तत्थ मच्चुणो पसरो? न य अपयट्टकज्जारंभो पुरिसो फलं साहेइ। कहं च पइसमयमेव मरणाभिभूयाणं कापुरिसाणं तस्स पडियारमचितयंताणं अवत्थाणं पसंसिज्जइ ! अओ 'न य पज्जते मरियध्वं ति मसाणे चेवावत्थाणमववन्नं ति पहसणप्पायं। न य सयलसंगचाईण वीयरागवयणेण कम्मक्खउज्जयाणं परिणयचरित्तभावणाणं समणाणं जं सुहं, तं चक्कट्टिणो वि न जुज्जइ ति। भणियं च भयवया-"इह खलु संसारे न सम्वहा सुहमत्थि, अणभिन्नाय सुहसरूवा य एत्थ पाणिणो, कम्मसंजोए दुक्ख तन्तिवित्ती सुहं, आजाई सेवनादेव, यतो यच्चैव अभ्यस्यते तस्यैव प्रकर्षों लोके दुष्टो न पूनविपयेये इति, ततो विरम एतस्माद व्यवसायाद' इति, एतदपि मुग्धजनशोजनम् । यतो न निष्क्रमणसाधितफलस्य एष अनिवारितसर इति । निष्क्रमणस्य हि फलं यस्माद् जन्माभावजं निर्वाणम्, निर्वाणप्राप्तस्य चास्य जीवस्य न जन्म, न जरा, न व्याधिः, न मरणम् ; न इष्टवियोगः, न अनिष्टसम्प्रयोगः, न बुभक्षा, न पिपासा, न रागः, न द्वेषः, न क्रोधः, न मानः, न माया, न लोभः, न भयम्, न च अन्योऽपि कोऽपि उपद्रव इति, किं तु सर्वज्ञो सर्वदर्शी निरुपम सुखसम्पन्नस्त्रिलोकचडामणीभूतो मोक्षपदे तिष्ठति । अतः कथं तत्र मृत्योः प्रसरः ? न चाप्रवृत्तकार्यारम्भः पुरुषः फलं साधयति । कथं च प्रतिसमयमेव मरणाभिभूतानां कापुरुषाणां तस्य प्रतीकारमचिन्तयतामवस्थानं प्रशस्यते? अतो 'न च पर्यन्ते मर्तव्यमिति श्मशाने एवावस्थानमुपपन्नम्' इति प्रहसनप्रायम् । न च सकलसङ्गत्यागिनां वीतरामवचनेन कर्मक्षयोद्यतानां परिणतचारित्रभावनानां श्रमणानां यत् सुखम् , तत् चक्रवर्तिनोऽपि न यज्यते इति । भणितं च भगवता-"इह खल संसारे न सर्वथा सुखमस्ति, अनभिज्ञातसुखस्वरूपाश्च परलोक में सुख हो सकता है। क्योंकि जिसका अभ्यास किया जाता है, संसार में उसी का प्रकर्ष देखा जाता है, विपरीत का नहीं, तो इस निश्चय से विरत होओ, यह भी मूढ़ जनों के लिए शोभा देता है; क्योंकि निष्क्रमण की माधना का फल मत्यू के प्रसार को रोकना नहीं है। निष्क्रमण का फल तो जन्म वे. अभाव से उत्पन्न निर्वाण है। निर्वाण को प्राप्त हुए इस जीव का जन्म, जरा, व्याधि, मरण, इष्टवियोग, अनिष्ट संयोग, भूख, प्यास, राम, द्वष, क्रोध, मान, माया, लोभ, भय तथा अन्य भी किसी प्रकार का उपद्रव नहीं है किन्तु सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, अनुपमेय सुख से सम्पन्न होकर तीनों लोकों के चूडामणिस्वरूप मोक्षपद पर स्थित होता है । अत: वहाँ मृत्यु का विस्तार कहाँ है ? कार्य को आरम्भ किये बिना मनुष्य फल की सिद्धि नहीं करता है। प्रति समय मरण से अभिभूत कायर पुरुषों का उसके प्रतिकार की चिन्ता में लगे रहना कैसे प्रशंसनीय हो सकता है ? अतः मृत्यु न हो तो श्मशान में रहता भी ठीक है, यह हास्य मात्र ही है अर्थात् इसमें कोई वास्तविकता नहीं है। समस्त आसक्तियों का त्याग करने वाले वीतराग के वचन से कर्म का क्षय करने के लिए उद्यत चारित्रभाव को क्रियान्वित करने वाले श्रमणों को जो सुख है वह चक्रवर्तियों को भी नहीं है । भगवान् ने कहा है - "इस संसार में सर्वथा सुख नहीं है। यहाँ पर प्राणी सुख के स्वरूप से अनभिज्ञ है । कर्म का संयोग दुःख है, उससे छुटकारा सुख है, बुढ़ापा दुःख है, उससे छुट १. अविन्नाय"-ख । Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समो भयो ] २११ सुक्खं तन्निवित्ती सुहं, जरा दुक्खं तन्निवित्ती सुहं, इच्छा दुक्खं तन्निवित्ती सुहं, पियं दुक्खं तन्निवित्ती सुहं, संकिलेसे दुक्खं तन्निवित्ती सुहं मरणं दुक्खं तन्निवित्ती सुहं, अणाइकम्मसंजोगओ य णं इमे पाणिण अणभिन्ना य सुहसरूवस्स त्ति वेमि । एवं आजाइ- जरा इच्छा - पिय-संकिलेस मरणेसु विविभासा से जहा नाम केइ पुरिसा आजाइरोगखे तुप्पन्ना आजाइरोगगहिया अदिट्ठारोगपुरसाइया आमरणं तभावा अणभिन्ना आरोग्गसुहसरूवस्स, एवं चेव समणाउसो ! अगाइअपज्जयसातवासी इमे पाणिणो ति । जेण दट्टूण वि य णं जहा ते अरोगिपुरिसं तेसु तेसु रोगिपुरिसाणुकूलेस समाधारेसु अवट्टमाणं सव्वरोगनिग्धार्याणि किरियमणुसासयंतं अत्थेगे उपस्संति', अत्थेगे उवहसंति, अत्थेगे अवहीरंति, अत्थेगे सुगंति, अत्येगे न परिणामेंति, अत्थेगे परिणामेंति अत्थेगे नाणुचिट्ठति, अत्थेगे अणुचिट्ठति, अत्थेगे सज्झं विराहेंति; अत्येगे किच्छसज्झं विराहेंति ; अत्थे न विराहेंति अविराहणाए य णं अस्थि केइ सव्वदुक्ख विमोक्खं करेंति, करेत्ता तब्भावं विउति, तओ अइक संततग्भावे खलु अयं पुरिसेऽवियट अभिन्नायारोग सुहसरूवे भवइ, अत्र प्राणिनः कर्मसंयोगे दुःखं तन्निवृत्तिः सुखम्, जरा दुःखं तन्निवृत्तिः सुखम्, इच्छा दुःखं तन्निवृत्तिः सुखम् प्रियं दुःखं तन्निवृत्तिः सुखम्, संक्लेशो दुःखं तन्निवृत्तिः सुखम् मरणं दुःखं तन्निवृत्तिः सुखम्, अनादि कर्मसंयोगतश्च इमे प्राणिनोऽनभिज्ञाश्च सुखस्वरूपस्येति ब्रवीमि । एवम् आजातिजरा इच्छा-प्रिय-संक्लेश- मरणेषु अपि विभाषा । तद् यथानाम - केचित् पुरुषा आजातिरोगक्षेत्रोत्पन्ना आजाति रोगगृहीता अदृष्टाऽरोगपुरुषादिका आमरणं तद्भावाद् अनभिज्ञा आरोग्यसुखस्वरूपस्य, एवमेव श्रमणायुष्मन् ! अनाद्यपर्यवसानावर्तक्षेत्रवासिन इमे प्राणिनः इति । दृष्ट्वाऽपि च यथा ते अरोगिपुरुषं तेषु तेषु रोगिपुरुषानुकूलेषु समाचारेषु अवर्तमानं सर्वरोगनिर्घातिनीं क्रियामनुशासयन्तं सन्त्येके ( पुरुषाः ) द्विषन्ति सन्त्येके उपहसन्ति, सन्त्येके अवधीरयन्ति, सन्त्येके श्रृण्वन्ति, सन्त्येके न परिणमयन्ति, सन्त्येके परिणमयन्ति सन्त्येके नानुतिष्ठन्ति सन्त्ये केनुतिष्ठन्ति सन्त्ये साध्यं विराधयन्ति, सन्त्येके कृच्छ्रसाध्यं विराधयन्ति, सन्त्येके न विराधयन्ति, अविराधना च सन्ति केचित् सर्वदुःखविमोक्षं कुर्वन्ति कृत्वा तद्भावं विकुट्टयन्ति, ततोऽतिक्रान्तवृद्भावे खलु अयं पुरुषोऽवि संवादितम् - अभिज्ञाताऽऽरोग्यसुखस्वरूप इति भवति, श्रमणपरिणामगामिकारा सुख है, इच्छा दुःख है, उसकी निवृत्ति सुख है, प्रिय दुःख है उससे निवृत्ति सुख है, संक्लेश दुःख है उससे निवृत्ति सुख है, मरण दुःख है उससे निवृत्ति सुख है । अनादिकालीन कर्मों के संयोग से अनभिज्ञ ये प्राणी सुख के स्वरूप से अनभिज्ञ हैं—ऐसा मैं कहता हूँ । जन्म से लेकर जरा, इच्छा, प्रिय, संक्लेश तथा मरण की भी परिभाषा ठीक नहीं है । जैसे कुछ पुरुष जन्म से ही रोगक्षेत्र में उत्पन्न हैं, जन्म से उन्हें रोग घेरे हुए है, उन्होंने 'अरोगी पुरुष आदि नहीं देखे हैं, मरणपर्यन्त रोगी होने के कारण वे आरोग्य रूपी सुख के स्वरूप से अनभिज्ञ हैं, इसी प्रकार आयुष्मन् श्रमण ! अनादि अनन्त चक्रवाले क्षेत्र के ये प्राणी हैं । वे अरोगी पुरुष को देखकर भी उनउन रोगी पुरुषों के आचरणों को न करते हुए समस्त रोग का नाश करने वाली क्रियाओं का उपदेश देते हैं । इन्हें देखकर कुछ लोग द्वेष करते हैं, कुछ उपहास करते हैं, कुछ तिरस्कार करते हैं, कुछ सुनते हैं, कुछ परिणमन नहीं करते हैं, कुछ परिणमन करते हैं, कुछ लोग अनुष्ठान नहीं करते हैं, कुछ अनुष्ठान करते हैं, कुछ लोग साध्य की विराधना ( खण्डन करना, तोड़ना) करते हैं, कुछ कठिन साध्य की विराधना करते हैं, कुछ विराधना नहीं करते हैं, कुछ विराधना न करते हुए समस्त दुःखों से मुक्त होते हैं। उसके भाव ( आत्मभाव ) को प्रस्फुटित करते हैं, तदनन्त तद्भाव के अतिक्रान्त होने से यह जीव अविसंवादी हो जाता है अर्थात् आरोग्य सुख के स्वरूप से वह प्रिंश ९. पुरिस पठा Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ [समराहचकहा समणपरिणामगामी वि अवियट्टमभिन्नायारोग्गसुहसरूवा भवंति, एवमेव समणाउसो! आवट्टखेत्तवासी इमे पाणिणो वठूण वि य णं भावरोग्ग-पुरिसं तेसु तेसु कम्म-संजोगाइदुक्खगहियपुरिसाणुकूलेसु समायारेसु अवट्टमाणं तदुक्खनिग्याणि च किरियमणुसासयंतं अत्थेगे (जाव-) अवियट्टमभिन्नायारोग्गसुहसरूवा भवंति, न पुण अन्नहत्ति"। अओ न दुक्खसेवणं साहुकिरिया, अवि य सुहं चेव । भणियं च - तिणसंथारनिवन्नो वि मुणिवसे भट्टराग-मय-मोहो। जं पावइ मुत्तिसुहं कत्तो तं चक्कवट्टी वि ॥३१०॥ अओ सुहसेवणाओ चेव सुहपयरिसोऽत्ति सव्वं चेवोववन्नं ति । एत्थंतरम्मि आणंदवाहजलभरियलोयणेणं निव्वडियहिययसब्भावं पवट्टमाणसम्मत्तपरिणामेण भणियं बंभयत्तेण-भयवं ! एवमेयं, न अन्नह त्ति । भाविओ तेण जिणदेसिओ धम्मो, पवन्नं सम्मत्तं, चितियं च विगयसम्मोहं'अहो ? मे सुयस्स सोहणो ववसाओ' त्ति। पिंगकेण वि य पवन्नसुहपरिणामेणं चेव भणियं-भयवं ! नोऽपि अविसंवादितमभिज्ञाताऽऽरोग्यसुखस्वरूपा भवन्ति, एवमेव श्रमणायुष्मन् ! आवर्तक्षेत्रवासिन इमे प्राणिनः दृष्ट्वाऽपि च तं भावाऽऽरोग्यपुरुषं तेषु तेषु कर्मसंयोगादिदुःखगृहीतपुरुषानुकूलेषु समाचारेषु अवर्तमानं तद्दुःखनिर्धातिनों च क्रियामनुशासयन्तं सन्त्येके (यावत्-) अविसंवादितमभिज्ञाताऽरोग्यसुखस्वरूपा भवन्ति, न पुनरन्यथा" इति । अतोन दुःखसेवनं साधुक्रिया, अपि च सुखमेव । भणितं च तृणसंस्तारनिपन्नोऽपि मुनिवरो भ्रष्टराग-मद-मोहः । यत् प्राप्नोति मुक्तिसुखं कुतस्तत् चक्रवर्त्यपि ॥३१०॥ अतःसुखसेवनादेव सुखप्रकर्ष इति सर्वमेवोपपन्नमिति । अत्रान्तरे आनन्दवाष्पजलभतलोचने निर्वर्तितहृदयसद्भावं प्रवर्तमानसम्यक्त्वपरिणामेन भणितं ब्रह्मदत्तेन-भगवन् ! एवमेतत्, न अन्यथेति। भावितस्तेन जिनदेशितो धर्मः, प्रपन्नं सम्यक्त्वम्, चिन्तितं च विगतसम्मोहम्-'अहो! मम सुतस्य, शोभनो व्यवसायः' इति । पिङ्गकेनापि च प्रपन्नशुभपरिणामेन एव भणितम्बन जाता है। श्रमण परिणामगामी ही अविसंवादी होते हैं अतः वे ही आरोग्य सुख स्वरूप के जानकार होते हैं। इसी प्रकार हे श्रमण आयुष्मन् ! संसारक्षेत्र में रहने वाले ये प्राणी उन-उन कर्म संयोगादि के दुःखों से गृहीत पुरुषों के अनुकूल आचारों में न रहने वाले उसके दुःखों को नाश करने वाली क्रिया का उपदेश देने वाले भावारोग्य परुष को देखकर भी कुछ लोग अविसंवादी होकर आरोग्य सुख स्वरूप के जानकार हो जाते हैं, अन्य किसी प्रकार से नहीं। अतः दुःख का सेवन करना साधु की क्रिया नहीं, अपितु साधु की क्रिया सुख रूप है । कहा भी है तण के बिस्तर पर बैठे हुए भी राग, मद और मोह को छोड़ने वाले मुनिवर जो मुक्ति का सुख प्राप्त करते हैं, वह चक्रवर्तियों के भी कहाँ (प्राप्त) है ? ॥१३०।। ___ अतः सुख के सेवन करने से ही सुख होता है-यह सब ठीक है। इसी बीच आनन्द के कारण जिनके मैत्रों में आंसू भर आये हैं, हृदय का सद्भाव जिनका प्रकट हो गया है, सम्यक्त्व परिणाम रूप जो प्रवृत्त हो रहे हैं ऐसे ब्रह्मदत्त ने कहा-"भगवन् ! ऐसा ही है, अन्यथा नहीं है। उसने जिनप्रणीत धर्म की भावना की, सम्यक्त्व प्राप्त किया और मोहरहित होकर विचार किया-अरे ! मेरे पुत्र का निश्चय ठीक है। पिंगक ने भी शुभ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "तामो भयो] २॥ एवमेयं ति । अह कहं पुण पुण्ण-पावाणं विसेसो लक्खिज्जइ ? भयवया भणियं-सण, पच्चक्ख चेव अविरयडज्झंतागुरु'विसंखलुच्छलियधूमपडिहत्य । एक्के वसंति भवण निबद्धमणिनिम्मलुल्लोए ॥३११॥ अन्ने बि रइयफुफुमविणितधूमोलिपूरिउच्छंगे। जुण्णनिहेलणविवरंतरालपरिसंठियभुयंगे ॥३१२॥ एक्के धवलहरोवरि मियंककरदंतुरे सह पियाहि । लीलाए गमिति निसि पेसलरयचाडुयम्मेहिं ॥३१३॥ अन्ने वि सिसिरमारुयसोयपवेविरसमुद्धसियदेहा । कहकह वि पियारहिया वाएंता दंतवीणाओ॥३१४॥ एरे कंचणपडिबद्धथोरमुत्ताहलुब्भडाहरणा । विलसंति वहलकुंकुमभसलियवच्छत्थलाभोया ॥३१॥ भगवन् ! एवमेतद् इति । अथ कथं पुनः पुण्य-पापयोविशेषो लक्ष्यते ? भगवता भणितम्-शृण, प्रत्यक्षमेव अविरतदह्यमानागुरुविशृङ्खलोच्छलितधूमप्रतिहस्ते (प्रतिपूर्णे)। एके वसन्ति भवने निबद्धमणिनिर्मलोल्लोचे ॥३११॥ अन्येऽपि रचितफुम्फुमाविनिर्यधूमावलिपूरितोत्सङ्गे ।। जीर्णनिलयनविवरान्तरालपरिसंस्थितभुजङ्ग ॥३१२।। एके धवलगृहोपरि मृगाङ्ककरदन्तुरे सह प्रियाभिः ।। लीलया गमयन्ति निशां पेशलरतचाटुकर्मभिः ॥३१३॥ अन्येऽपि शिशिरमारुतशीतप्रवेपमानसमुधुपितदेहः । कथंकथमपि प्रियारहिता वादयन्तो दन्तवीणाः ॥३१४॥ एके काञ्चनप्रतिबद्धस्थूलमुक्ताफलोद्भटाभरणः । विलसन्ति वहलकुङ कुमभ्रमरितवक्षस्थलाभोगाः ।।३१५॥ परिणामों को प्राप्त कर कहा- "भगवन् ! ठीक है । (कृपया यह बतलाइए) पुण्य-पाप में भेद किस प्रकार लक्षित होता है ?" भगवान् ने कहा-"सुनो प्रत्यक्ष ही है कुछ लोग निरन्तर जलते हुए अगुरु के उठते हुए शृंखलाविहीन धुएं से भरे हुए निर्मल मणियों से निर्मित ऊँचे-ऊँचे भवनों में रहते हैं। दूसरे फुफकार करने से निकले हुए धुएं के समूह से जिसका मध्य भाग पूर्ण है, ऐसे तथा खेतों में स्थित सांपों से युक्त टूटे-फूटे आवासों में रहते हैं। कुछ चन्द्रमा की किरणों से धवलगृह में प्रियाओं के साथ चाटुकारी के कार्य में रत रहते हुए लीलापूर्वक रात्रि व्यतीत करते हैं। दूसरे शिशिरकालीन शीतल वायु से काँपते हुए, जिनके शरीर में रोमांच हो आया है तथा जो दाँत रूपी वीणा को बजा रहे हैं, इस प्रकार प्रिया रहित जैसे-तैसे रात बिताते हैं। कुछ स्वर्ण और बड़े-बड़े मोतियों से निर्मित आभूषणों से शोभायमान होते है चोर उनके वक्षःस्थल अत्यधिक केसर से घिरे रहते हैं । ॥३११-३१५॥ Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RE अन्ने वि सई महियल निसोयणुप्पन्नकिणियपोंगिल्ला । मलिणजर कपडो च्छ्इयविग्गहा कह वि हिडंति ॥ ३१६ ॥ एक्के प्रति मणोरहाइ जं मंगिराण पणतीणं । अन्ने पुर्ण परघराहणेण कुच्छि पि न भरेंति ॥३१७॥ इय पुण्णा पुण्णफलं पच्चक्खं चैव दीसई लोए । तह वि जणो रागंधो धम्मम्मि अणावरं कुणइ ॥ ३१८ ॥ एत्तो य तव्विसेसो लक्खिज्जइ आगमबलेण । अन्नं च भयवया good महासोक्खा चक्की देवा य सिद्धिगामी य । पावेण कुमाणुस - तिरिय-नारया होंति जीवा उ ॥ ३१६ ॥ पिंगकेण भणियं - भयवं ! एवमेवं; अह किं पुण पुण्णकारणं, पावकारणं वा अणुट्ठाणं ति ? भणियं -सुण, पुण्णकारण ताव सवलपाणिवह मुसावायाऽदत्तादाण मेहुण- परिग्गहाण अन्येऽपि सदा महितल निषदनोत्पन्नकिणितपरिपक्वा: । मलिनजीर्ण कर्पट (वस्त्र) उच्छदितविग्रहाः कथमपि हिण्डन्ते || ३१६ | एके पूरयन्ति मनोरथादि यद् मार्गयमाणानां प्रणयिनाम् । अन्ये पुनः परगृहहिण्डनेन कुक्षिमपि न भरन्ति ॥३१७॥ इति पुण्यापुण्यफलं प्रत्यक्षमेव दृश्यते लोके । तथाऽपि जनो रागान्धो धर्मे अनादरं करोति ॥ ३१८ ॥ इतश्च तद्विशेषो लक्ष्यते आगमबलेन । अन्यच्च पुण्येन महासौख्याश्चक्रिणो देवाश्च सिद्धिगामिनश्च । पापेन कुमानुष्य - तिर्यग्-नारका भवन्ति जीवास्तु ॥३१९॥ [सम पिङ्गकेन भणितम् - भगवन् ! एवमेतत्, अथ किं पुनः पुण्यकारणम्, पापकारणं वा अनुष्ठानमिति । भगवता भणितम् - शृणु, पुण्यकारणं तावत् सकलप्राणिवध मृषावादाऽदत्तादान दूसरे सदा पृथ्वी पर बैठने से उत्पन्न चट्टों से परिपक्व होकर मैले फटे कपड़ों से शरीर ढककर किसी प्रकार भ्रमण करते हैं । कुछ लोग याचना करने वाले याचकों के मनोरथ को पूरा करते हैं । दूसरे – दूसरे के घर घूमते हुए भी पेट नहीं भर पाते हैं । इस प्रकार पुण्य और पाप का फल लोक में प्रत्यक्ष दिखाई देता है तो भी राग अन्धा हुआ व्यक्ति धर्म में आदर नहीं करता है ।। ३१६-३१८ ।। आगम के बल से पुण्य और पाप का भेद लक्षित होता है और भी - पुण्य से जीव महान् सुख वाले चक्रवर्ती, देव और मोक्ष प्राप्त करने वाले होते हैं और पाप से जीव कुमनुष्य, तियंच और नारकी होते हैं ।" ।। ३१६ ।। पिंगक ने कहा--" भगवन् ! यह ठीक है, पुण्य और पाप के भगवान् ने कहा - "सुनो, समस्त प्राणियों का वध, झूठ बोलना, बिना कारणभूत कार्य क्या-क्या हैं ?" दी हुई वस्तु को लेना, मैथुन और Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ती भवो २१५ विरई, निसिभत्तवज्जणं, रागदोसादिनिग्गहो य । पावकारणं पुण इणमेव विवरीयं ति । तओ एयमायणिऊण पवन्नो सावयधम्मं समं बंभदत्तेण पिंगको । भणियं च बंभदत्तेण - भयवं ! एस मे सिहिकुमारो सुओ होइ; ववसिओ य एसो महापुरिसोचिए अणुट्ठाणे | अणुमयं च मे संपयमिमं एयस्स ववसियं, ताकि एयस्स अणुट्टाणस्स उचिओ, अणुचिओ त्ति वा ? भयवया भणियं - न रयणायरप्पसूयं रयणं पडिबंधस्स अणुचियं । तओ हरिसवसुप्पुलइयंगेण 'करेउ एस इमं ममं पि मणोरहगोयरं' ति चितिऊण भणियं बंभयत्तेण वच्छ ! अणुन्नाओ मए तुमं, करेहि तवसंजमुज्जोयं ति । तभ सहरिसं पणमिऊण भणियं सिहिकुमारेण - ताय ! अणुग्गिहोओ म्हि । तओ वंदिऊण गुरुं पविट्ठा नयरं । बंभयत्तेण वि य दवावियमाघोसणापुव्वयं महादाणं, कराविया जिणाययणाईसु अट्ठाहिया महिमा । तओ पसत्थे तिहि करण महत्त-जोगे महया पमोएण, दिव्वाए बिभूईए, परियरिओ रायनायर एहि, दिव्वं सिवियमारूढो, वज्र्ज्जतेहि मंगलतूर संघाएहि, पसंसिज्जमाणो विवहलोएणं, सक्खमालोएज्जमाणो पुरसुंदरीहि, देतो जहासमीहियं अस्थिजणाण दाणं निग्गओ नयराओ सिहि मैथुन - परिग्रहाणां विरतिः, निशाभक्त (भोजन) वर्जनम्, रागद्वेषादिनिग्रहश्च । पापकारणं पुनरिदमेव विपरीतमिति । तत एतद् आकर्ण्य प्रपन्नः श्रावकधर्मं समं ब्रह्मवत्तेन पिङ्गकः । भणितं च ब्रह्मदत्तेन - भगवन् ! एष मम शिखिकुमारः सुतो भवति; व्यवसितश्च एष महापुरुषोचिते अनुष्ठाने | अनुमतं च मया साम्प्रतमिदमेतस्य व्यवसितम् । ततः किमेतस्य अनुष्ठानस्य उचितः अनुचित इति वा ? भगवता भणितम् - न रत्नाकरप्रसूतं रत्नं प्रतिबन्धस्यानुचितम् । ततो हर्षवशोत्पुलकिताङ्गेन 'करोतु एष इमं ममाऽपि मनोरथगोचरम्' इति चिन्तयित्वा भणितं ब्रह्मदत्तेन - वत्स ! अनुज्ञातो मया त्वम्, कुरु तपसंयमोद्योगम् - इति । ततः सहर्षं प्रणम्य भणितं शिखिकुमारेणतात ! अनुगृहीतोऽस्मि । ततः वन्दित्वा गुरुं प्रविष्टो नगरम् । ब्रह्मदत्तेनापि च दापितमाघोषणापूर्वकं महादानम्, कारिता जिनायतनादिपु अष्टाहिका महिमा । ततः प्रशस्ते तिथि - करण-मुहूर्त - योगे महता प्रमोदेन, दिव्यया विभूत्या, परिकरितो राजनागरकैः, दिव्यां शिविकामारूढः, वाद्यमानैः मङ्गलतूर्यसंघातैः प्रशस्यमानो विवुधलोकेन, सदुःखमालोक्यमानः पुरसुन्दरीभिः ददद् यथासमीहितमर्थिजनेभ्यो दानं निर्गतो नगरात् शिखिकुमार: । गतो यत्र भगवान् विजयसिंहाचार्य परिग्रह - इनसे विरक्त होना, रात्रि-भोजन का त्याग तथा राग-द्वेषादि का निग्रह करना - ये पुण्य के कारण : हैं और पाप के कारण इनसे विपरीत हैं ।" इसे सुनकर ब्रह्मदत्त के साथ पिंगक ने श्रावक धर्म धारण कर लिया । ब्रह्मदत्त ने कहा "भगवन् ! यह शिखिकुमार मेरा पुत्र है और इसने महापुरुषों के योग्य कार्य का निश्चय किया है । इस समय मैंने इसके निश्चय की अनुमोदना की है। तो इसका यह कार्य उचित है अथवा अनुचित ?” भगवान् ने कहा - "रत्नाकर में उत्पन्न रत्न का रोकना अनुचित नहीं है ।" तब हर्ष से विकसित अंगों वाले ब्रह्मदत्त ने 'यह मेरे भी मनोरथ के मार्ग को करे - ऐसा विचार कर कहा - "पुत्र ! मैंने तुम्हें आज्ञा दे दी है, तप और संयम का उद्योग करो ।" तब हर्षपूर्वक प्रणाम कर शिखिकुमार ने कहा - 'पिता जी ! मैं अनुगृहीत हूँ ।" तब गुरु की वन्दना कर दोनों नगर में प्रविष्ट हुए । ब्रह्मदत्त ने भी घोषणा कराकर महादान दिया, जिनायतनादि में अष्टाह्निक पूजा करायी । तब उत्तम तिथि, करण और मुहूर्त के योग में बड़े आनन्द से दिव्य विभूति के साथ शिखिकुमार नगर से निकला । उसे राज्य के नागरिक घेरे हुए थे। वह दिव्य पालकी में सवार था। मंगल बाजों का समूह. बजाया जा रहा था । विद्वान् लोग उसकी प्रशंसा कर रहे थे। नगर की स्त्रियाँ उसे दुःखपूर्वक देख रही थीं जोर वह याचकों को उनकी इच्छानुसार दान दे रहा था । शिखिकुमार वहाँ गया जहां भगवान् विजयसिंह आचार्य Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [समराइचकहा, कुमारो । गओ जत्थ भयवं विजयसिंघायरिओ ति। ओइण्णो सिवियाओ। वंदिओ गुरू। गुरुणा वि कए आवस्सए तं वामपासे ठविऊण वदिया परमगुरवो। तओ विहिवंदणं दाऊण भणियं सिहिकुमारेण- इच्छाकारेण पव्यावेह । तओ गुरुणा 'इच्छामो' त्ति भणिऊण नमोक्कारपाढण विहिपुत्वयं अप्पियं से रयहरणं 'साहुलिंगं ति । बहुमाणओ गहियं सिहिकुमारेणं । वंदिऊण गुरुं पुणो भणियमणेण---इच्छाकारेण मुडावेह । तओ 'इच्छामो' त्ति भणिऊण नमोक्कारपुव्वयं अतुट्टाओ गुरुणा गहियाओ तिणि अट्ठाओ। तओ बंदिऊण गुरुं, भणियं सिहिकुमारेण- इच्छाकारेण सामाइयं मे आरोवेह । 'इच्छामो' त्ति भणिऊण तदारोवणनिमित्तं समं सिहिकुमारेण कोण काउस्सग्गो, चितिओ थओ, पारिओ नमोक्कारेण तओ। नमोक्कारपुग्वयं तिण्णि वाराओ कढियं सामाइयं, महासंवेगसारं अणुकड्ढ्यिं सिहिकुमारेण । तओ गहिया वासा गुरुणा दिन्ना परमगुरुपाएसु, तहा सन्निहियाणं साहमादीण य । एत्थंतरम्मि वंदिऊण गुरुं भणियं सिहिकुमारेण-संविसह, कि भणामि ? गुरुणा भणियं-वंदित्तु पवेएह । तओ वंदिऊण जंपियमणेण-तुम्भेहिं मे सामाइयमारोवियं, इच्छामि इति । अवतीर्णः शिविकातः । वन्दितो गुरुः । गुरुणा अपि कृते आवश्यके तं वामपार्वे स्थापयित्वा वन्दिताः परमगुरवः । ततो विधिवन्दनं दत्त्वा भणितं शिखिकुमारेण-इच्छाकारेण प्रवाजयत । ततो गुरुणा 'इच्छामः' इति भणित्वा नमस्कारपाठेन विधिपूर्वकमर्पितं तस्य रजोहरणं 'साधलिङ्गम्'-इति । बहुमानतो गृहीतं शिखिकुमारेण। वन्दित्वा गुरुं पुनर्भणितमनेन-इच्छाकारेण मुण्डयत । ततः 'इति भणित्वा नमस्कारपूर्वकम् अत्रुटिता गुरुणा गृहीतास्त्रयोऽर्थाः । ततो वन्दित्वा गुरुं भणितं शिखिकुमारेण-इच्छाकारेण सामायिकं मम आरोपयत । 'इच्छामः' इति भणित्वा तदाऽरोपणनिमित्तं समं शिखिकुमारेण कृतोऽनेन कायोत्सर्गः, चिन्तितः स्तवः, पारितो नमस्कारेण । ततो नमस्कारपूर्वकं त्रीन वारान् कर्षितं सामायिकम्, महासंवेगसारमनुकर्षितं शिखिकुमारेण । ततो गृहीता गुरुणा वासाः, दत्ता: परमगुरुपादेषु, तथा सन्निहितानां साध्वादीनां च । अत्राऽन्तरे वन्दित्वा गुरुं भणितं शिखिकुमारेण-संदिशत, किं भणामि ? गुरुणा भणितम्-वन्दित्वा प्रवेदयत । ततो वन्दित्वा जल्पितमनेन- युष्माभिर्मम सामायिकमारोपितम्, इच्छामि अनुशिष्टिम् थे। (वह) पालकी से उतरा, गुरु की वन्दना की। गुरु ने भी आवश्यक कार्य करने पर उसे बायीं ओर बैठाकर परम गुरुओं की वन्दना की। तब विधिपूर्वक वन्दनाकर शिखिकुमार ने कहा- "इच्छाकार से प्रवजित करो।" तब गुरु ने 'इच्छामः' कहकर नमस्कार मन्त्र का पाठ कर विधिपूर्वक उसको साधु का चिह्न 'रजोहरण' दिया। बहुत आदर के साथ शिखिकुमार ने लिया । गुरु की वन्दना कर पुनः कहा- "इच्छाकार से मुण्डन करो।" तब 'इच्छामः' ऐसा कहकर नमस्कारपूर्वक गुरु से गृहीत तीन पदार्थ तोड़े । तब गुरु की वन्दना कर शिखिकुमार में कहा- "इच्छाकार से मुझ पर सामायिक आरोपित करो।" 'इच्छामः' ऐसा कहकर गुरु ने उस पर सामायिक आरोपण करने के निमित्त शिखिकुमार के साथ ही कायोत्सर्ग किया, स्तुति सोची, नमस्कार से पारित किया । तब नमस्कारपूर्वक तीन बार सामायिक किया। महान् वैराग्य से युक्त हो शिखिकुमार ने उसका अनुसरण किया। तब गुरु से कपड़े लिये, परम गुरु तथा साधुओं के चरणों में नमस्कार किया। इस बीच शिखिकुमार ने गुरु को प्रणाम कर कहा-"आज्ञा दो क्या कहूँ ?" गुरु ने कहा--"नमस्कार कर कहो।" तब नमस्कार कर इसने कहा "आपने मुझ पर सामायिक आरोपित किया। अब मैं कर्त्तत्याकर्त्तव्य चाहता हूँ।" वस्त्रदानपूर्वक गुरु ने कहा Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सानो भयो] अणुस(सि)छि ति । वासप्पयाणपुव्वयं भणियं गुरुणा-नित्थारगपारगो गुरुगुणेहिं बड्ढाहि । तओ वंदिऊण भणियं सिहिकुमारेणं-तुम्भं पवेइयं, संदिसह, साहूणं पवेएमि। गुरुणा भणियं-पवेएह । तओ वंदिऊण नमोक्कारपाढेण कयं पयाहिणमणेण। नित्थारगपारगो गुरुगणेहि वड्ढाहि त्ति भणमाणेहि दिन्ना गुरुमादीहि वासा । ठिओ मणागमग्गओ। एवं तिणि वारे । तओ पडिओ परमगुरुपाएस, आयरियस्स य निसण्णस्स, कयं निरुद्धं अणुसासिओ गुरुणा। एवं पवन्नो इमस्स पायमले विसुज्झमाणेणं परिणामेणं जिणोवदिठेणं विहिणा सयलदुक्खपरमोसहि महापव्वज्जं ति। अहिणन्दिओ आणंदवाहजलभरियलोयणेणं राइणा बंभयत्तेणं नयरजणवएण य । अओ कइवयदियो तत्थाऽऽसिऊण समत्ते मासकप्पे गओ भगवया सह खेत्तंतरम्मि। एवं च निरइयारं सामण्णमणुवालेंतस्स अइक्कन्ता अणेगे वरिसलक्खा । इओ य समुप्पन्नो जालिणीए अणुयावो। हा! दुठ्ठ मए ववसियं, जेण एसो अवावाविओ चेव निग्गओ त्ति । ता पेसेमि से पेसलक्यणसारं संदेसयपुव्वयं किंचि उवायणं, जेण एसो पुणो वि कहंचि इहागच्छइ, तओ वावाइस्सं ति। अणुचिठ्ठियं इति । वासप्रदानपूर्वकं भणितं गुरुणा-निस्तारकपारगो गुरुगुणैर्वर्धस्व । ततो वन्दित्वा भणितं शिखि कुमारेण-तुभ्यं प्रवेदितं, सन्दिशत, साधूनां प्रवेदयामि । गरुणा भणितम्-प्रवेदयत । ततो वन्दित्वा नमस्कारपाठेन कृतं प्रदक्षिणमनेन । निस्तारक-पारगो गुरुगुणैर्वर्धस्वेति भणद्भिः दत्ता गुर्वादिभिर्वासाः। स्थितो मनाग् मार्गतः, एवं श्रीन् वारान् । ततः पतितः परमगुरुपादेषु, आचार्यस्य निषण्णस्य च, कृतं निरुद्धम्-अनुशासितो गुरुणा। एवं प्रपन्नोऽस्य पादमूले विशुद्धयमानेन परिणामेन जिनोपदिष्टेन विधिना सकलदुःखपरमौषधि महाप्रवज्याम्-इति । ___ अभिनन्दित आनन्दवाष्पजलभृतलोचनेन राज्ञा ब्रह्मदत्तेन नगरजनपदेन च । ततः कतिपयदिवसान तत्र आसित्वा समाप्ते मासकल्पे गतो भगवता सह क्षेत्रान्तरम् । एवं च निरतिचारं श्रामण्यमनुपालयतोऽतिक्रान्तानि अनेकानि वर्षलक्षाणि । इतश्च समुत्पन्नो जालिन्या अनुतापः । हा ! दुष्ठ मया व्यवसितम्, येन एषोऽव्यापादित एव निर्गत इति । तावत् प्रेषयामि तस्य पेशलवचनसारं सन्देशपूर्वकं किंचिद् उपायनम्, येन एष पुनरपि कथंचिद् इह आगच्छति । ततो व्यापा"संसार से पार उतारने में प्रवीण गुरु के गुणों से वृद्धि को प्राप्त होओ।" तब वन्दना कर शिखिकुमार ने कहा"तुम्हारा कहा हुआ, आदेश दिया हुआ साधुओं के सामने कहता हूँ।" गुरु ने कहा-"कहो।" तब वन्दना कर नमस्कारपूर्वक इसने प्रदक्षिणा दी । 'संसार से पार उतारने वाले गुरु के गुणों में वृद्धि को प्राप्त हो ऐसा कहते हुए गुरु आदि ने वस्त्र दिये । इस प्रकार तीन बार याचना करते हुए कुछ समय स्थित रहा । तब परम गुरु आचार्य और बैठे हुए अन्य साधुओं के चरणों में पड़ गया और रोककर आचार्य ने उपदेश दिया। इस प्रकार चरणों में गिरे हुए, विशुद्ध परिणाम वाले इसने जिनोपदिष्ट विधि से समस्त दुःखों के लिए परम औषधि स्वरूप दीक्षा ले ली। आनन्द से आंखों में आंसू भरकर ब्रह्मदत्त और नगरनिवासियों ने अभिनन्दन किया । तब कुछ दिन वहाँ रहकर एक मास समाप्त होने पर भगवान् के साथ दूसरे क्षेत्र को गया। इस प्रकार निरतिचार मुनिधर्म का पालन करते हुए अनेक लाख वर्ष बीत गये। इधर जालिनी को दुःख हुआ कि मैंने बुरा किया जो कि यह बिना मारे ही निकल गया। अतः चिकनी-चुपड़ी बातों भरा सन्देश भेजकर कुछ भेंट भेजती हूँ, जिससे कदाचित् यह पुनः Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ [समराइचकहा च तीए जहासमीहियं पेसिओ बहुविहसंदेसगन्भिणं कंबलरयणमादाय सोमदेवो । गओ य सो देसविक्खायायरियपउत्तिपुच्छणणं तमालसन्निवेससंठियस्स सिहिकुमारस्स [समीवं] । दिट्ठो य तेण पच्चुच्चारएण साहूण सुत्तत्थमणुभासयंतो सिहिकुमारो। वंदिओ पहढवयणपंकएण। धम्मलाहिओ तेणं । पच्चभिन्नाओ य पच्छा। पुच्छिओ य 'कओ भवं' ति ? तेण भणियं-देव ! कोसंबनयराओं अचंच्तमणुतावाणलडज्झमाणदेहाए जणणीए भवओ चेव पउत्तिनिमित्तं पेसिओ म्हि । सिहिकुमारेणं भणियं-को वि य अणुयावो अंबाए ? सोमदेवेण भणियं-जं तुम पव्यइओ ति। तओ सिहिकुमारेण चितियं-अहो णु खलु नेहकायराणि अपरमत्थपेच्छीणि जणणिहिययाइं होंति, दुप्पडियाराणि य मायापितीणि त्ति चितिऊण भणियं-भो सोमदेव ! न खलु अहं अंबानिव्वेएणं पव्वइओ, अवि य भवनिव्वेएणं ति । ता अकारणं अणुतप्पइ अंबा। सोमदेवेण भणियं-देव ! भणियं ते जणणीए, जहा—'जाय! थेव हियओ, अविवेगभायणं, अविमिस्सयारी, चंचलसहावो, पभवंतमच्छरी, असग्गाहनिरओ, पच्छाणुयावी महिलायणो होइ। पुरिसो उण गंभीरहियओ, विणयभायणं, सुवि दयिष्य इति । अनुष्ठितं च तया यथासमीहितम् । प्रेषितो बहुविधसन्देशगभितं कम्बलरत्नमादाय सोमदेवः । गतश्च स देशविख्याताचार्यप्रवृत्तिप्रच्छनेन तमालसन्निवेश संस्थितस्य शिखिकुमारस्य (समीपम्)। दृष्टश्च तेन प्रत्युच्चारकेन साधूनां सूत्रार्थमनुभासयन् शिखिकुमारः। वन्दितः प्रहृष्टवदनपङ्कजेन । धर्मलाभितश्च तेन । प्रत्यभिज्ञातश्च पश्चात् । पृष्टश्च-'कुतो भवान् ?' इति। तेन भणितम्-देव ! कोशाम्बनगराद् अत्यन्तमनुतापानलदह्यमानदेहया जनन्या भवत एव प्रवृत्तिनिमित्तं प्रेषितोऽस्मि । शिखिकुमारेण भणितम्-कोऽपि च अनुतापोऽम्बायाः ? सोमदेवेन भणितम-यत् त्वं प्रवजित इति । ततः शिखिकुमारेण चिन्तितम--'अहो ! नु खल स्नेहकातराणि अपरमार्थप्रेक्षीणि जननीहृदयानि भवन्ति, दुष्प्रतीकाराश्च मातापितर इति चिन्तयित्वा भणितम्भोः सोमदेव ! न खलु अहं अम्बानिर्वेदेन प्रवजितः, अपि च भवनिर्वेदेन इति । ततोऽकारणमनुतप्यतेऽम्बा । सोमदेवेन भणितम्-देव ! भणितं तव जनन्या, यथा-जात ! स्तोकहृदयः, अविवेकभाजनम. अविमश्यकारी, चञ्चलस्वभावः, प्रभवत्मत्सरी, असदग्राहनिरतः, पश्चादनतापी आ जायेगा । तब मैं मार डालूगी। उसने अभिलषित कार्य को किया। अनेक प्रकार का सन्देश देकर रत्नकम्बल के साथ उसने सोमदेव को भेजा। वह देश में विख्यात आचार्य का समाचार पूछने के लिए तमाल सन्निवेश में स्थित शिखिकुमार के पास गया । उसने सूत्र के अर्थ का भाष्य करते हुए शिखिकुमार को देखा । साधु लोग उनके कहने के अनुसार उच्चारण कर रहे थे। हर्षित मुखकमल वाले सोमदेव ने उनकी वन्दना की। शिखिकुमार ने धर्मलाभ दिया, पश्चात् पहचान लिया और पूछा-"आप कहाँ से ?" उसने कहा-"महराज! कोशाम्ब नगर से अत्यन्त दुःख रूपी अग्नि से जलते हुए शरीरवाली माता ने आपका हालचाल जानने के लिए मुझे भेजा है। शिखिकुमार ने कहा-“माता को क्या दुःख है ?" सोमदेव ने कहा--- "आप दीक्षित हो गये।" तब शिखिकुमार ने विचार किया-आश्चर्य है, परमार्थ को न जानने वाली माताओं के हृदय स्नेह से दुःखी होते हैं। माता-पिता के दुःख का प्रतिकार कठिन है, ऐसा विचारकर कहा- "हे सोमदेव ! मैं माता से विरक्त होकर दुःखी नहीं हुआ हूँ अपितु संसार से विरक्त होकर दुःखी हुआ हूँ । अतः माता अकारण दुःखी हो रही है ।" सोमदेव ने कहा-"महाराज! आपकी माता ने कहा है कि हे पुत्र ! महिलाएं तुच्छ हृदय वाली, अविवेक की पात्र, बिना विचारे कार्य करने वाली, चंचल स्वभाव वाली, जन्मतः द्वेष रखने वाली, असत् को ग्रहण करने में रत तथा बाद में दुःखी होने वाली 1. कौसन०-क-ग। Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तहको भवो] २१६ मिस्सयारी, अचंचलसहावो, कयन्न, दढाणुराओ, बहुयावेक्खगो त्ति । ता कि तए मम हिययं अयाणिऊण एवं ववसियं ति । अन्नं च-पवन्मपरलोयमग्गेण वि भयवया अवस्समहं पेक्खियव्व ति। उवणीयं च ते कंबलरयणं । एयं च भयवया अवस्सं घेत्तव्वं ति । सिहिकुमारेण भणियं-भो सोमदेव! भणियं मए- 'अकारणे अणतप्पइ अंबा' । जं च भणियं, अवस्समहं पेक्खियव्व ति', एत्थ वि गुरू पमाणं । अणहियारो मम अपवसयत्तणस्त । एवं पि कंबलरयणं अणुचियं चेव साहूणं, तहा वि भयवओ निवेएहि त्ति । तओ दंसिओ से एगेण साहुणा गुरू । निवेइओ तेण एस वुत्तंतो भयवओ। उवणीयं च कंबलरयणं । कुमारबहुमाणओ गहियं गरुणा, भणियं च-मोत्तूणमंतरायं पेसिस्सं अहिगयसुयसमत्तीए कुमारं । सोमदेवेण भणियं-- भगवं ! अणुग्गिहीया से जणणी । एवं च कइवयदियहे चिट्टिऊण गओ सोमदेवो। अइक्कंतो कोइ कालो कुमारस्स तव-संजमं करेंतस्स। अन्नया य कोसंबनयरासन्नविसयविहारेण कुओइ पुरिसाओ 'उवरओ बंभयत्तो'त्ति समुवलद्धपउत्तिणा सयणामहिलाजनो भवति । पुरुषः पुनः गम्भीरहृदयः, विनयभाजनम्, सुविमृश्यकारी, अचञ्चलस्वभावः, कृतज्ञः, दृढानुरागः, बहुकावेक्षक इति। ततः किं त्वया मम हृदयमज्ञात्वा एतद् व्यवसितमिति । अन्यच्च-प्रपन्नपरलोकमार्गेणाऽपि भगवता अवश्यमहं प्रेक्षितव्या इति । उपनीतं च तव कम्बलरत्नम् । एतच्च भगवता अवश्यं ग्रहीतव्यमिति । शिखिकुमारेण भणितम्-भोः सोमदेव ! भणितं मया-'अकारणे अनुतप्यते अम्बा' । यच्च भणितम् 'अवश्यमंहं प्रेक्षितव्या' इति, अत्राऽपि गुरवः प्रमाणम् । अनधिकारो मम आत्मवशगत्वस्य । एतदपि कम्बलरत्नमनुचितमेव साधनाम् । तथापि भगवतो निवेदय इति । ततो दर्शितस्तस्य एकेन साधुना गुरुः । निवेदितस्तेन एष वृत्तान्तो भगवतः। उपनीतं च कम्बलरत्नम् । कुमारबहुमानतो गृहीतं गुरुणा, भणितं च-मुक्त्वा अन्तरायं प्रेषयिष्ये अधिकृतश्रुतसमाप्तौ कुमारम् । सोमदेवेन भणितम्-भगवन् ! अनुगृहीता तस्य जननी । एवं च कतिपयदिवसान स्थित्वा गतः सोमदेवः । अतिक्रान्तः कश्चित् कालः कुमारस्य तपः-- संयम कुर्वतः । अभ्यदा च कोशाम्बनगरासन्नविषयविहारेण कुतश्चित् पुरुषात् 'उपरतो ब्रह्मदत्तः' इति समुपलब्धया पश्चात्ताप करने वाली होती हैं और पुरुष गम्भीर हृदय, विनय के पात्र, भलीभाँति सोचकर कार्य करने वाले, चंचल स्वभाव से रहित, कृतज्ञ, दृढ़ अनुराग रखने वाले और अनेक प्रकार से निरीक्षण करने वाले होते हैं । अतः आपने मेरे हृदय को बिना जाने ही यह क्या निश्चय किया ? दूसरी बात यह है कि परलोक के मार्ग को प्राप्त होने पर भगवान् को मुझे अवश्य दर्शन देना चाहिए था। आपका मैं कम्बलरत्न लाया हूं। इसे भगवन्, अवश्य ग्रहण करें।" शिखिकुमार ने कहा- "हे सोमदेव ! मैंने कहा-माता अकारण दुःखी होती हैं तथा जो कहा कि मुझे अवश्य दर्शन करना चाहिए, इस विषय में गुरु प्रमाण हैं, अर्थात् गुरु से आज्ञा लूगा। मुझे स्वच्छन्द होने का अधिकार नहीं है। यह कम्बलरत्न भी साधुओं के लिए अनुचित है। तो भी भगवान् से निवेदन करेंगे। तब उसे एक साधु ने गुरु दर्शन करया। उसने गुरु से यह वृत्तान्त निवेदन किया और रत्नकम्बल लाया। कुमार के प्रति आदर के कारण गुरु ने ग्रहण किया और कहा-"अन्तराय को छोड़कर श्रुताधिकार समाप्त होने पर कुमार को भेजूंगा।" सोमदेव ने कहा-"भगवान् ! उनकी मां अनुगृहीत हुईं।" इस प्रकार कुछ दिन ठहरकर सोमदेव चला गया। कुछ समय तप और संयम करते हुए कुमार का काल व्यतीत हुआ। एक बार जबकि संघ कोशाम्ब नगर के निकटवर्ती देश में विहार कर रहा था, किसी पुरुष से 'ब्रह्मदत्त की मृत्यु हो गयी' यह समाचार Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० [समरापहा लोयणनिमित्त चेव साहिऊण एयरस वुत्तंतं कइवयनुसाहुपरिवारिओ पेसिओ सिहिकुमारो भयवया विजयसिंहायरिएण कोसंबनयरं ति । पत्तो य सो तयं । आवासिओ मेहवणाभिहाणे उज्जाणे। जाओ य जणवाओ, अहो ! आगओ भयवं सिहिकुमारो। पूइओ राय-नायरेहिं । कया य तेणमक्खेवणी धम्मकहा। आवज्जयिा य नायरया। बिइयदियहम्मि गओ जणमिसयासं । दिट्ठा य तेणं पावोदएण विय बंभयत्तमरणेण अच्चंतझोणविहवा असंभाविज्जमाणावत्था सजणणी। न पच्चभिन्नाया य । पच्चभिन्नाओ य एसो तीए। तओ सहजमायासहावेण बाहजलभरियलोयणं सदुक्खमिव भेरवसरं परइया एसा। समासासिया सिहिकुमारेणं । कया य से धम्मदेसणा। अंब ! ईइसो चेव एस संसारवासो । ता कि एत्य कीरउ ति। अवि य अत्थेण विक्कमेण य सयणेण बलेण चाउरंगेण । नो तीरइ धरिलं जे मच्च देवाऽसरेहि पि ॥३२॥ वाहि-जराखरदाढो वसणसयनिवायतिक्खनहजालो। जीवमयघायणरओ मरणमइंदो जगे भमह॥३२१॥ प्रवत्तिना स्वजनाऽऽलोकनिमित्तं चैव कथयित्वा एतस्य वृत्तान्तं कतिपयसुसाधुपरिवारितः प्रेषितः शिखिकुमारो भगवता विजयसिंहाचार्येण कोशाम्बनगरमिति । प्राप्तश्च स तत् । आवासितो मेघवनाभिधाने उद्याने । जातश्च जनवादः, अहो ! आगतो भगवान् शिखिकुमारः। पूजितो राजनागरैः। कुता च तेन आक्षेपणी धर्मकथा । आवजिताश्च नागरकाः। द्वितीयदिवसे गतो जननीसकाशम् । दृष्टा च तेन पापोदयेन इव ब्रह्मदत्तमरणेन अत्यन्तक्षोणविभवा असम्भाव्यमानाऽऽवस्था स्वजननी।न प्रत्यभिज्ञाता च । प्रत्यभिज्ञातश्च एष तया। ततः सहजमायास्वभावेन वाष्पजलभूतलोचनं सदुःखमिव भैरवस्वरं प्ररुदिता एषा। समाश्वासिता शिखिकुमारेण। कृता च तस्य धर्मदेशना । बम्ब ! ईदृश एव एष संसारवासः । ततः किमत्र क्रियतामिति । अपि च अर्थेन विक्रमेण च स्वजनेन बलेन चातुरङ्गेण । न तीर्यते धतुं यो मृत्युर्देवाऽसूरैरपि ॥३२॥ व्याधि-जराखरदंष्ट्र: व्यसनशतनिवाततीक्ष्णनखजालः । जीवमृगघातनरतो मरणमृगेन्द्रो जगति भ्रमति ॥३२१॥ जानकर यह वृत्तान्त कहकर कुछ उत्तम साधुओं के साथ स्वजनों को देखने के लिए भगवान विजयसिंह आचार्य ने शिखिकुमार को कौशाम्बनगर भेजा । शिखिकुमार आये और मेघवन नामक उद्यान में ठहर गये। लोगों में चर्चा होने लगी कि ओह ! शिखिकुमार आये हैं। राज्य के नागरिकों ने उनकी पूजा की। शिखिकुमार ने आक्षेपिणी धर्मकथा की। नागरिक लोग लौट आये। दूसरे दिन माता के पास गये। उन्होंने ब्रह्मदत्त के मरने पर पापोदय से अत्यन्त क्षीण वैभववाली तथा जिस अवस्था की सम्भावना नहीं की जा सकती थी, ऐसी अवस्थावाली अपनी माता को देखा, किन्तु पहचाना नहीं। इसे माता ने पहिचान लिया । तब सहज मायामयी स्वभाव से आंखों में आँसू भरकर मानो दुःखसहित जोर का शब्द करती हुई यह रोने लगी। शिखिकुमार ने आश्वासन दिया, उसे धर्मोपदेश दिया-"माता ! संसार का निवास ऐसा ही है। अतः इस विषय में क्या किया जाय ! कहा भी है __ धन, पराक्रम, बन्धुबान्धवादि स्वजन, चतुरंग सेना, देव और असुरों के द्वारा भी जिस मृत्यु से रक्षा नहीं की जा सकती है, ऐसा वह मृत्युरूपी सिंह रोग और बुढ़ापा रूपी तीक्ष्ण दाढ़ों को धारण कर और सैकड़ों विपत्तियों में गिराने रूप तीक्ष्ण नाखूनों के समूह से जीवरूप मृगों को मारने में रत होकर संसार में भ्रमण करता है ॥३२०-१२॥ Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२॥ तहमो भयो । जेणं चिय उद्दामो हिंडई एसो जयम्मि अक्खलिओ। तेणं चिय सप्पुरिसा लग्गा परलोगमग्गमि ॥३२२॥ कालेण रूढपेम्मे परोप्परं हिययनिव्वडियभावे। अकलुणहियओ एसो विच्छोवइ सत्तसंघाए ३२३॥ न गणेइ कयाऽवकयं नावेक्खइ भावगम्भिणं पेम्मं । न य जोएइ अणज्जो आयइभावं पि मत्तो व्व ॥ ३२४॥ ता नस्थि किंचि सरणं एतेण अभियाण जीवाणं । सयलम्मि वि तेलोक्के मोत्तूणं जिणमयं परमं ॥ ३२५॥ एवं च अंब! जुत्तं तुझ वि चइऊण मोहविसयरसं। पाउं अच्चंतसुहं इणमो धम्मामयं चेव ॥३२६॥ एवं च भणिए समाणे समायं चेव भणियं जालिणीए-जाय ! देहि मे अवत्थोचियाई वयाई । तओ आलोचिऊण संपुण्णचरणाखमं तोए परिणामं संसिऊण सवित्थर गिहिधम्म दिन्नाणि येनैव उद्दामो हिण्डते एष जगति अस्खलितः । तेनैव सत्पुरुषा लग्नाः परलोकमार्गे ॥३२२॥ कालेन रूढप्रेम्णः परस्परं हृदयनिर्वतितभावान् । अकरुणहृदय एष विच्छोटयति सत्त्वसंघातान् ।।३२३॥ न गणयति कृताऽपकृतं नापेक्षते भावगभितं प्रेम । न च पश्यति अनार्य आयतिभावमपि मत्त इव ।।३२४॥ ततो नास्ति किंचित् शरणमेतेन अभिद्रुतानां जीवानाम् । सकलेऽपि त्रैलोक्ये मुक्त्वा जिनमतं परमम् ॥३२॥ एवं च अम्ब ! युक्तं तवाऽपि त्यक्त्वा मोहविषयरसम् । प्राप्तुमत्यन्तसुखमिदं धर्मामृतमेव ॥३२६।। एवं च भगिते सति समायमेव भणितं जालिन्या-जात ! देहि मम अवस्थोचितानि व्रतानि । तत आलोच्य सम्पूर्णचरणाऽक्षमं तस्याः परिणामं शंसित्वा सविस्तरं गृहिधर्म दत्तानि तस्यै अणु चंकि यह मत्यू-सिंह अस्खलित रूप से (स्वच्छन्द रूप से) इस संसार में घूमता रहता है. इसीसे सज्जन परुष परलोक के मार्ग में संलग्न रहते हैं। समय-समय पर जिनका प्रेम बढ़ता रहता है और जिनके हदय भावों से भरे ऐसे प्राणियों के समूह को यह निर्दय हृदय वाली मत्यू परस्पर अलग कर देती है। न तो यह कत. अपकत को गिनती है, न भाव पूर्ण प्रेम की अपेक्षा करती है, न मतवाले के समान अनार्य और आर्यभाव को देखती है। अतः इससे भयभीत जीवों का समस्त तीनों लोकों में श्रेष्ठ जिनधर्म को छोड़कर दूसरा कुछ भी शरण नहीं है । अतः हे माता ! तुम भी अत्यन्त सुखरूप इस धर्मामृत का पान करने के लिए मोहरूपी विषय के रस को त्याग दो ॥३२२-३२६॥ ऐसा कहने पर जालिनी ने मायापूर्वक कहा-"पुत्र ! मुझे अवस्था के योग्य व्रत दो। उसके परिणामों को सकलाचरण में असमर्थ जानकर विस्तृत रूप से, गृहस्थ धर्म की शिक्षा देकर अणुव्रत दिये उसे मारने हेतु | Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ (समराहचकहा से अणुव्वयाणि, तव्वावायणवीसंभसमुप्पायणनिर्मित्तं सम्भावेण विय गहियाई च तीए। तओ कंचि वेलं गमेऊण पयट्टो कुमारो। भणिओ य जालिणीए-जाय ! अज्ज तए इहेव भोत्तव्वं ति । सिहिकुमारेण भणियं-अंब ! अणायारो खु एसो समणाणं, जं मोतूण महुयरवित्ति एगपिंडभोयणं ति । जालिणीए भणियं-जाय ! तुम जाणसि त्ति । एवं च सो पइदिणं से करेइ धम्मदेसणं । चितेइ य जालिणी एयस्स मारणोवाए, न यावडइ कोइ सुहुमो उवाओ ति। अन्नया आगया चउद्दसी। ठिया साहुणो उववासेणं भिक्खाणहिंडणेणं । मुणिया य तीए। तओ चितिउं पयत्ता। जइ कहंचि कल्लं न एस वावाइज्जइ, तओ गमिस्सइ पक्खसंधीए । न एत्थ अन्नो कोइ उवाओ; ता करेऊण कंसारं तालपुडसंजुयं चेगं विसमोयगं गोसे उवणेमि एयाणं, निबंधओ य भुंजाविस्सामि एते । तओ सहत्थपरिवेसणेणं तम्मोयगप्पयाणणं वावाइस्सं इमं ति। संपाइयं जहासमोहियमिमाए। गया गोसे चेव भोयणं घेत्तूण तमुज्जाणं जालिणी । दिट्ठा सिहिकुमारेण, भणिया य तेणं--अंब ! किमेगागिणी किंपि अणुचियं घेतूण आगया सि ? जालिणीए भणियं-जाय ! अत्तणो चेव पुण्णाहिलासिणी तुम्हाण व्रतानि, तद्व्यापादनवित्रम्भसमुत्पादन निमित्तं सद्भावेनेव गहीतानि च तया। ततः कांचिद् वेला गमयित्वा प्रवृत्तः कुमारः । भणितश्च जालिन्या-जात ! अद्य त्वया इहैव भोक्तव्यमिति । शिखिकुमारेण भणितम्-अम्ब ! अनाचारः खलु एष श्रमणानाम्, यन् मुक्त्वा मधुकरवृत्तिमेकपिण्डभोजनमिति । जालिन्या भणितम् - जात ! त्वं जानासि इति । एवं च स प्रतिदिनं तस्यै करोति धर्मदेशनाम् । चिन्तयति च जालिनी एतस्य मारणोपायान, न चाऽऽपतति कश्चित् सूक्ष्म उपाय इति । अन्यदा आगता चतुर्दशी। स्थिताः साधव उपवासेन भिक्षाऽहिण्डनेन । ज्ञातश्च तया । ततश्चिन्तयितुं प्रवृत्ता। यदि कथंचित् कल्यं न एष व्यापाद्यते, ततो गमिष्यति पक्षसन्धौ । नाऽत्र अन्यः कोऽपि उपायः; ततः कृत्वा कंसारं (लपनश्रियम) ताल पुटसंयुतं चेकं विषमोदकं प्रत्युषसि उपनयामि एतेषाम्, निर्बन्धतश्च भोजयिष्यामि एतान । ततः स्वहस्तपरिवेषणेन तन्मोदकप्रदानेन व्यापादयिष्ये इममिति । सम्पादितं यथासमोहितमनया । गता प्रत्युषसि एव भोजनं गृहीत्वा तदुद्यानं जालिनी। दृष्टा शिखिकुमारेण, भणिता च तेन-अम्ब ! किमेकाकिनी किमपि अनुचितं गहीत्वा आगताऽसि ? जालिन्या भणितम्-जांत ! आत्मन एव पुण्याभिलाषिणी युष्माकं भोजनमिति । शिखिकुमारेण विश्वास उत्पन्न कराने के लिए ही मानो उसने उन व्रतों को ग्रहण कर लिया। तब कुछ समय बिताकर कुमार आया। जालिनी ने कहा- "पूत्र ! आज तुम यहीं भोजन करना।" शिखिकुमार ने कहा--- "माता ! यह लिए अनाचार है कि भ्रामरी वत्ति को छोडकर एक जगह भोजन करें।" जालिनी ने कहा-"पूत्र ! तम जानते हो।" इस प्रकार वह प्रतिदिन उसे धर्मोपदेश देता और जालिनी इसके मारने की उपाय सोचती, किन्तु कोई सूक्ष्म उपाय (समझ में) नहीं आ रहा था। एक बार चतुर्दशी आयी। साधु लोग भिक्षा के लिए भ्रमण न कर ठहर गये । उसे ज्ञात हुआ तब सोचने लगी-यदि यह कल नहीं मारा जाता है तो पखवाड़ा बीत जायोगा। इस में कोई अन्य उपाय नहीं है। तब कंसार बनाकर तालपट (तत्काल प्राणनाशक विषविशेष से युक्त एक विषभरा लड्डू प्रातः इसके पास ले जाऊँगी। आग्रह करके इसे खिला दूंगी और अपने हाथ से परोसे हुए उस लड्डू को देकर उसे मार डालूगी । अपनी इच्छा के अनुसार इसने कार्य किया। प्रातःकाल भोजन लेकर जालिनी उस बाग में गयी। शिखिकुमार ने देखा और कहा-"माता ! क्या अकेली कोई अनुचित वस्तु लेकर आयी हो?" जालिनी ने कहा-"पुत्र ! अपने पुण्य की अभिलाषा कर तुम्हारा भोजन लायी हूँ।" शिखिकुमार ने कहा Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साइनो भवो] २२३ भोयणं ति । सिहिकुमारेण भणियं-- अंब ! एसो वि खु अणायारो चेव समणाणं, जमाहाकडं आहर्ड च भुंजए त्ति । कहिओ से विही । तओ तीए भणियं-जाय ! न अन्नहा मे हिययनिवुई होइ, अफलं च मन्नेमि असंपाइए इमम्मि जायस्स आगमणं । ता अवस्सं तए इमं कायव्वं ति भणिऊण निवडिया चलणेसु । तओ य उज्जयसहावओ 'पेच्छह, से धम्मसड्ढा जायसिणेहो य, ता मा से विपरिणामो भविस्सइ' त्ति, तओ गुरुलाघवमालोचिऊणं भणियं सिहिकुमारेण-अंब ! जं तुम भणसि ति । कि तु न तुमए पुणो वि साहुनिमित्तमारंभो कायवो । जालिणीए भणियं-जाय ! एवं जं तुम भणसि त्ति । सिहिकुमारेण भणियं-जइ एवं, तो देहि एयस्स साहुणो भोयणजायं, तओ भुजिस्सामि त्ति। जालिणीए भणियं-जाय ! दंसियं चेव तुमए माइवच्छलत्तणं, ता कि इमिणा, मम हत्थाओ भोत्तव्वं ति । सिहिकुमारेण भणियं-अंब ! एवं; आगच्छउ पारणगवेल ति। तओ आगया पारणगवेला। कुमारवयणवहुमाणओ उवविट्ठा साहुणो। दिन्नाणि तीए जहोचिएण विहिणा भायणाई। परिविट्ठो य सुसंभिओ कासारो। पभुत्ता य साहुणो। दिन्नो य भुत्तसेसकासारसंगओ चेव कुमारस्स तालपुड भणितम-अम्ब ! एषोऽपि खलु अनाचार एव श्रमणानाम् , यद् आधाकृतम्, आहृतं च भुज्यते इति । कथितस्तस्यै विधिः । ततस्तया भणितम्-जात ! न अन्यथा मम हृदयनिर्वतिर्भवति, अफलं च मन्ये असम्पादिते अस्मिन् जातस्य आगमनम् । ततोऽवश्यं त्वया इदं कर्तव्यमिति भणित्वा निपतिता चरणयोः । ततश्च ऋजु कस्वभावतः 'प्रेक्षध्वम्, तस्या धर्मश्रद्धा जातस्नेहश्च, ततो मा तस्या विपरिणामो भविष्यति' इति, ततो गुरुलाघवमालोच्य भणितं शिखिकुमारेण-अम्ब ! यत् त्वं भणसि इति । किन्तु न त्वया पुनरपि साधुनिमित्तमारम्भः कर्तव्यः । जालिन्या भणितम्-जात ! एवं यत् त्वं भणसि इति । शिखिकुमारेण भणितम्-यदि एवम्, ततो देहि एतस्य साधो जनजातम्, ततो भोक्ष्ये इति । जालिन्या भणितम् --जात ! दशितमेव त्वया मातृवात्सल्यम् । ततः किमनेन ? मम हस्ताद् भोक्तव्यमिति । शिखिकुमारेण भणितम्-अम्ब ! एवम्, आगच्छतु पारणकवेला इति। तत आगता पारणकवेला । कुमारवचनबहुमानत उपविष्टा साधवः । दत्तानि तया यथोचितेन विधिना भाजनानि। परिवेषितश्च सुसम्भृतः कंसारः । प्रभुक्ताश्च साधवः । दत्तश्च भुक्तशेषकंसार"माता !यह श्रमणों के लिए अनाचार ही है कि वे आधाकृत कर्म के दोष से युक्त अथवा अभिप्रायवश बनाये गये। या (अपने लिए)लाये हुए भोजन को ग्रहण करें।" उसे विधि बतलायी। तब उसने कहा-"पुत्र!मेरे हृदय को दूसरे प्रकार से शान्ति नहीं मिलती है, इस कार्य के बिना मैं पुत्र का आगमन निरर्थक मानती हैं। अतः तुम्हें अवश्य ही यह करना चाहिए।" ऐसा कहकर पैरों में गिर गयी। तब सरल स्वभावी होने के कारण माता की धर्म के प्रति श्रद्धा और पुत्र के प्रति स्नेह देखकर इसकी विपरीत परिणति न हो, इस प्रकार गुरुता और साधुता का विचारकर शिखिकुमार ने कहा-"माता ! जैसा आप कहें । किन्तु आप साधु के निमित्त पुनः इस प्रकार के कार्य को न करें।" जालिनी ने कहा-"पुत्र! जैसा कहते हो वैसा ही करूंगी।" शिखिकुमार ने कहा-"यदि ऐसा है तो इस साधु को भोजन दो, अनन्तर मैं खाऊँगा । जालिनी ने कहा-"पुत्र! तुमने मातृप्रेम दिखलाया ही है अतः इससे क्या ? मेरे हाथ से भोजन कीजिए।" शिखिकुमार ने कहा-"अच्छा, भोजन का समय आने दो।" तब भोजन का समय आया। कुमार के वचनों का सम्मान कर साधु बैठे। उसने यथोचितविधि से पात्र दिये । भली प्रकार भरे हुए कंसार को परोसा । साधुओं ने खाया। खाने से बचे हुए कंसार के साथ ही कुमार को तालपुट विष से युक्त लड्डू दे दिया और उसने खा लिया। साधुओं ने जल पिया और पात्र हटा दिये। इसी बीच विष ने Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ [समराइज्यव्हा लड्डुओ, भुत्तो य तेणं । आयंता य साहुणो । अवणीयाइं भायणाइं। एत्थंतरम्मि आढत्तो धारिज्जिउ सिहिकुमारो । चिंतियं तेण 'किमयं' ति? पलोइया य साहुणो, जाव सत्था चिट्ठति। तओ गहियमणेण । एवं च जाव थेवा वेला अइक्कमइ, ताव पणट्टा से वाया। चितियं च णेणं-नूणं न भविस्सामि त्ति । निवडिओ धरणिवट्ठ। आउलीहूया साहवो, जालिणी य। चितियं च तेहिकिमयं अकज्जं जणणीए से ववसियं भविस्सइ ? घारिज्जतो य तओ विसेण काऊणमणसणं विहिणा। परिचितिउं पयत्तो हंत ! अपुव्वं किमेयं ति ? ॥३२७॥ धी संसारसहावो अंबा (ब) किल धम्मचरणजोएण। संसारकिलेसाओ मोयविस्सामि अचिरेण ॥३२८॥ जाव न संपन्नमिणं समीहियं अविगलं अपुण्णस्स। तह पाडिया य एसा पमायओ अयसपंकम्मि ॥३२६॥ संकिस्सइ य अणज्जो लोओ एत्थं असंकणिज्जं पि। अंबाए पुववृत्तंतभाविओ मोहदोसेण ॥३३०॥ संगत एव कुमारस्य तालपुटलड्डुकः, भुक्तश्च तेन । आचान्ताश्च साधवः। अपनीतानि भाजनानि । अत्रान्तरे आरब्धो (विषेण) ग्राहयितं शिखिकुमारो। चिन्तितं च तेन 'किमेतत्' इति ? प्रलोकिताश्च साधवः, यावत् स्वस्थास्तिष्ठन्ति । ततो गहितमनेन । एवं च यावत् स्तोका वेला अतिक्रामति, तावत् प्रनष्टा तस्य वाचा। चिन्तितं च तेन। नूनं न भविष्यामि इति । निपतितो धरणिपृष्ठे । आकुलीभूताः साधवो, जालिनी च । चिन्तितं च तैः-किमेतद् अकार्य जनन्या तस्य व्यवसितं भविष्यति? ग्राह्यमाणश्च ततो विषेण कृत्वाऽनशनं विधिना। परिचिन्तयितु प्रवृत्तो हन्त ! अपूर्व किमेतद् इति ।।३२७॥ धिक संसारस्वभावः अम्बां किल धर्मचरणयोगेन । संसारक्लेशाद् मोचयिष्यामि अचिरेण ॥३२८।। यावद् न सम्पन्नमिदं समीहितमविकलमपुण्यस्य । तथा पातिता चैषा प्रमादतः अयशःपङ्के ।।३२६॥ शङ्किष्यते चाऽनार्यो लोकोऽत्र अशङ्कनीयमपि । अम्बायाः पूर्ववृत्तान्तभावितो मोहदोषेण ॥३३०।। शिखिकुमार को थाक्रान्त कर लिया। उसने सोचा-यह क्या है ? साधुओं ने देखा, जब तक स्वस्थ न हो तब तक उसे (कपड़े से) ढक दिया। इस प्रकार जब कुछ समय व्यतीत हुआ तब उसकी वाणी रुक गयी। उसने सोचा-निश्चित रूप से (अब) नहीं रहूँगा। धरती पर पड़ गया। साधु और जालिनी व्याकुल हो गये। उन्होंने (साधुओं ने) सोचा-क्या यह अकार्य उसकी माता ने किया होगा? अनन्तर विष से ग्रसित होकर (शिखिकुमार) विधिपूर्वक अनशन कर सोचने लगा-हाय ! यह अपूर्व क्या है ? संसार के स्वभाव को धिक्कार । धर्माचरण के द्वारा संसार के क्लेश से माता को शीघ्र ही छुड़ाऊँगा। यदि इस पुण्यहीन का यह दुष्टकार्य पूरी तरह से सम्पन्न नहीं हो जाता तो यह प्रमाद से कीचड़ में गिरा दी जायेगी । अनार्य लोग इस विषय में अशंकनीय बात की भी शंका करेंगे। मोह के दोष से अपयशरूपी माता का पहिले का वृत्तान्त विचारा ॥३२७-३३०॥ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हो भयो] भणियं च भणितं च इमिणा जम्मे अंबाए संकिलेसजणएणं । अहवा एवंविह एव एस पावो त्ति संसारो ॥ ३३१॥ पावेंति अयसपंकं केवि ह अकए वि एत्थ दोसम्मि । परभवनियाणओ च्चिय केइ न पावेंति हु कए वि ॥ ३३२ ॥ जं चित्ता कम्मगई ता एयं चिय इमीए पच्छितं । पुवि दुच्चिण्णाणं फलमसुहं चैव कम्माणं ॥ ३३३॥ अहवा न सोयणिज्जा संपयमेसा वि जीवलोयम्मि । सिवसुफल कप्पतरुं जिणधम्मं पाविया जेण ॥ ३३४॥ ता सुमरामो परमं परमपयसाहगं जिणवखायं । अह प नमोक्कारं संपइ कि सेसचिताए ॥ ३३५ ॥ तो सो सुहपरिणामो पंचनमोक्कारभावणाजुत्तो । मरिऊणं उववन्नो तियसवरो बंभलोग म्मि ॥ ३३६ ॥ धिगनेन जन्मना अम्बायाः संक्लेशजनकेन । अथवा एवंविध एव एष पाप इति संसारः ॥३३१॥ प्राप्नुवन्ति अयशः पङ्क केsपि खलु अकृतेऽपि अत्र दोषे । परभवनिदानत एव केचिद् न प्राप्नुवन्ति खलु कृतेऽपि ॥ ३३२ ॥ यत् चित्रा कर्मगतिः तत एतदेव अस्याः प्रायश्चित्तम् । पूर्वं दुश्चीर्णानां फलमशुभमेव कर्मणाम् ।। ३३३॥ अथवा न शोचनीया साम्प्रतमेषाऽपि जीवलोके । शिवसुखफलकल्पतरुं जिनधर्मं प्रापिता येन ॥ ३३४॥ ततः स्मरामः परमं परमपदसाधकं जिनाख्यातम् । अथ पञ्चनमस्कारं सम्प्रति किं शेषचिन्तया ॥ ३३५ ॥ ततः स शुभपरिणामः पञ्चनमस्कार भावनायुक्तः । मृत्वा उपपन्नः त्रिदशवरो ब्रह्मलोके ॥ ३३६|| माता के संक्लेशजनक इस जन्म को धिक्कार हो अथवा यह पापी संसार ऐसा ही है । । ३३१|| कहा भी है इस संसार में कुछ लोग दोष न करने पर भी अपयश रूपी कीचड़ को प्राप्त करते हैं । कुछ लोग दोष करने पर भी परभव के निदान से अपयश को प्राप्त नहीं करते हैं । कर्म की गति विचित्र है, अतः इसका प्रायश्चित्त यही है । पहले किये हुए खोटे कर्मों का फल अशुभ ही होता है । अथवा मोक्षसुख रूप जिसका फल है ऐसे जिनधर्मरूप कल्पवृक्ष को जिसने पा लिया है उसको इस संसार में अब ऐसा नहीं सोचना चाहिए । अतः जिनोपदिष्ट उत्कृष्ट, मोक्ष सुख के साधक पंचनमस्कार मन्त्र का स्मरण करता हूँ, शेष की चिन्ता से क्या लाभ ? तब शुभपरिणाम वाला वह पंचनमस्कार मन्त्र से युक्त हो, मरकर ब्रह्मलोक में श्रेष्ठ देव हुआ ।। ३३२-३३६ ।। २२५ Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ नवसागरोवमाऊ रइल च्छ्सिमागमे विमाणम्मि । सामाणिओ महप्पा बंभसुरेसस्स दिव्वजुई ||३३७॥ इयरी वि कालसेसं गमिउं मरिऊण सक्करप्पहाए उववन्ना नेरइओ तिसागराऊ महाघोरो ॥३३८॥ नवसागरोपमायू रतिलक्ष्मीसमागमे विमाने । सामानिको महात्मा ब्रह्मसुरेशस्य दिव्यद्युतिः ॥ ३३७ ॥ इतराऽपि कालशेषं गमयित्वा मृत्वा शर्कराप्रभायाम् । उपपन्ना नैरयिकः त्रिसागरायुर्महाघोरः ॥ ३३८ ॥ याकिनीमहत्तरा सून - परमगुणानुरागि परमसत्यप्रिय भगवत् - श्रीहरिभद्रसूरिवररचितायां 'समराइच्चकहाए' तइओ भवो समत्तो । [समराइका रतिलक्ष्मी का जिसमें समागम था, ऐसे ब्रह्म ेन्द्र के विमान में दिव्य द्युति वाला नव सागर की आयु वाला महात्मा सामाजिक देव हुआ। दूसरी ( माता जालिनी) भी शेष समय को बिताने के बाद मरकर शर्कराप्रमा नामक नरक में तीन सागर की आयुवामी महा भयंकर नारकी हुई ।। ३३७-३३८ ॥ ॥ तृतीय भाव समाप्त ॥ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउत्थो भवो सिहिजालिणिमाइसुया जं भणियमिहासि तं गय मियाणि । वोच्छामि समासेणं धणधणसिरिमो य पइभज्जा ||३३|| अस्थि इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे सोहम्मसुरलोयपडिच्छंदयभूयं निन्चुस्सवाणंदपमुइयमहाजणं अविरयपवत्तपेच्छणय सोहियं सुरसरियासलिलनिद्धोयपेरंतं सुसम्मनयरं नाम पुरबरं तुलियसुरसुंदरीयण लडहत्तणरूबवे स विहवाहि पउरंगणाहि कलियं मयरद्धयपडायाहिं । मोत् सव्वमन्नं परत्यसंपायणेवक तल्लिच्छो । जत्थ पुरिसाण वग्गो वह जहत्थं नियं नामं ॥ ३४० ॥ तत्थ पडिवक्खन रणाहदोघट्टकेसरी सुधणू नाम राया । तस्स बहुमओ सव्वनयरेक्कसेट्ठी वीणाणाह किविणजणवच्छलो बंधवकुमुयायरससी लहुइयवेसमणविहवो तिवग्गसंपायणरई वेसमणो शिखिजालिनी मातृसुतौ यद् भणितं तद्गतमिदानीम् । वक्ष्ये समासेन धनधनश्रियौ च पतिभार्ये ॥ ३३६ ॥ अस्ति इहैव जम्बूद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे सौधर्मसुरलोकप्रतिछन्दकभूतम्, निल्मोत्सवानन्दप्रमुदितमहाजनम्, अविरतप्रवृत्तप्रेक्षणकशोभितम्, सुरसरित्सलिलनिद्धों तपर्यन्तं सुशर्मनगरं नम्म पुरवर तुलितसुरसुन्दरीजनल टभ (प्रशस्त ) त्वरूपवेशविभवाभिः पौराङ्गनाभिः कलितं मकण्वज- पताकाभिः । मुक्त्वा सर्वमन्यत् परार्थ सम्पादनैकतत्परः । यत्र पुरुषाणां वर्गों वहति यथार्थं निजं नाम ॥ ३४० ॥ तत्र प्रतिपक्ष नरनाथदोघट्ट ( हस्ति) केसरी सुन्वा नाम राजा । तस्य बहुमतः सर्वनगरैक श्रेष्ठी दोनानाथकृपणजनवत्सलो बान्धवकुमुदाकरशशो लघूकृत वैश्रमणविभवः त्रिवर्गसम्पादन रतिर्वैश्रमणो सिखी और जालिनी नामक पुत्र तथा माता के विषय में जो कहा गया वह यहाँ पूरा हो गया । अब धन और धनश्री नामक पति और पत्नी के विषय में संक्षेप में कहूँगा ॥ ३३९॥ इसी जम्बूद्वीप के भारतवर्ष में सुशर्मनगर नामक श्रेष्ठ नगर था । वह सौधर्म स्वर्ग के सदृश था । वहाँ के लोग नित्य उत्सव और आनन्द से प्रमुदित रहते थे । निरन्तर होने वाले नाटकों से वह नगर शोभित था । बाकाशगंगा के जल से उसका प्रान्तभाग धोया जाता था । वहाँ देवांगनाओं के समान प्रशस्त रूप, वेश और वैभव वाली पौरांगनाएं थीं जो कामदेव की पताका के समान लगती थीं । अन्य सब कुछ कार्य छोड़कर एकमात्र परोपकार करने में ही तत्पर वहाँ का पुरुषवर्ग अपने यथार्थ नाम की धारण करता था ॥ ३४० ॥ वहाँ पर शत्रु राजा रूपी हाथी सम्मानित सारे नगर का अद्वितीय सेठ, कुमुदों के लिए चन्द्रमा के तुल्य, कुबेर के के लिए सिंह के समान सुधन्वा नामक दीन, अनाथ और कृपण जनों पर प्रेम वैभव को तिरस्कृत करने वाला, धर्म, राजा था। उस राजा के द्वारा रखने वाला, बन्धुबान्धव रूप अर्थ और कामरूप त्रिवर्ग के Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२५ [समाइक नाम सत्यवाहो ति । तस्स समाणकुलरूव विहवसीला' सिरिदेवी नाम भारिया । ताणं च परोप्परं सिणेहसारं विसय सुहमणुहवंताण अइक्कंतो कोइ कालो । अन्नयावच्चचिता समुप्पज्जइ । तओ तन्नयरसन्निहियस्स घणदेवाभिहाणजक्खस्स महापूयं काऊण कयं उवाइयमणेहिं । भयवं, जइ नो तुह पभावओ सुउप्पत्ती भविस्सइ, तओ भगवओ सव्वनयरजणाहिट्ठियं महामहं करिस्साम, सुयस्स य भयवओ चैव नामं उक्खिविस्सामोति । तओ ताणं मज्झिमे वयसि वट्टमाणाणं सो बंभलोयकप्पवासी देवो अहाउयमणुवालिऊण तओ चुओ सिरिदेवीए गन्भे उववन्नोति । दिट्ठो य तीए सुमिणयंमि तीए चेव रयणीए पभायसमय सि उत्तुंगधवलकाओ अच्तलीलगामी अणवरयपयट्टदाणो गंडयलावडियछप्पयावली चउदसणभासुरो आरत्ततालू लुलंतलीलाकरो कणयसंकलाबद्ध घंटाजुयलो रत्तचमरभूसियाणणो अंकुसोच्छद्रयकुंभभाओ घुम्मंतचारुलोयगसिरो सम्बंगसुंदराहिरामो मत्तहत्थी वयणेणमुयरं पविसमाणो त्ति । नाम सार्थवाह इति । तस्य समानकुल रूप विभव - शोला 'श्रीदेवी' नाम भार्या । तयोश्च परस्परं स्नेहसारं विषयसुखमनुभवतोरतिक्रान्तो कोऽपि कालः । अन्यदाऽपत्यचिन्ता समुत्पद्यते । ततस्तन्नगरसन्निहितस्य धनदेवाभिधानयक्षस्य महापूजां कृत्वा कृतमुपयाचितमाभ्याम् - भगवन् ! यदि आवयोस्तव प्रभावतः सुतोत्पत्तिर्भविष्यति ततो भगवतो सर्वनगरजनाधिष्ठितं महामहं करिष्याम इति । सुतस्य च भगवत एव नाम उत्क्षेप्स्याम इति । ततस्तयोर्मध्यमे वयसि वर्तमानयोः स ब्रह्मलोक कल्पवासी देवो यथाऽऽयुष्कमनुपालय ततश्च्युतः श्रीदेव्या गर्भे उत्पन्न इति । दृष्टश्च तया स्वप्ने तस्यामेव रजन्यां प्रभातसमये उत्तुङ्ग - धवलकायोऽत्यन्तलीलागामी अनवरत प्रवृत्तदानो गण्डतलापतितषट्पदावलिश्चतुर्दशन भासुर आरक्ततालुर्लीलालुलत्करः कनकशृङ्खलाबद्धघण्टायुगलो रक्तचामरभूषिताननः अङ्क शावच्छादितकुम्भभागः घूर्णच्चारुलोचनश्रीः सर्वाङ्गसुन्दराभिरामो मत्तहस्ती वदनेनोदरं प्रविशन्निति । दृष्ट्वा सम्पादन में आसक्त वैश्रमण नाम का व्यापारी ( सार्थवाह ) था । उसकी समान कुल, रूप और वैभव वाली श्रीदेवी नामक पत्नी थी। उन दोनों का स्नेह ही जिसमें सार था, ऐसे विषयसुख का अनुभव करते हुए कुछ समय व्यतीत हो गया । एक बार दोनों को सन्तान की चिन्ता उत्पन्न हुई । तब उस नगर के पास के धनदेव नामक यक्ष की महापूजा कर इन दोनों ने याचना की, “भगवन् ! यदि आपके प्रभाव से हम दोनों के पुत्र की उत्पत्ति होगी तो भगवान् की समस्त नगरनिवासियों के साथ बहुत बड़ी पूजा करेंगे और पुत्र का नाम भगवान् के ही नाम पर रखेंगे ।" अन्तर उन दोनों के युवावस्था में वर्तमान होने पर वह ब्रह्मस्वर्ग का वासी देव आयु पूरी कर वहाँ से च्युत हो श्रीदेवी के गर्भ में आया। श्रीदेवी ने स्वप्न में उसी रात्रि को रात्रि के अन्तिम समय में मुख से उदर में प्रवेश करते हुए एक मतवाले हाथी को देखा । वह हाथी ऊँचा और सफेद शरीर वाला था और अत्यन्त लीलापूर्वक गमन करने वाला था । निरन्तर उससे मद झर रहा था, उसके कपोलस्थल पर भौंरों की पंक्ति मँडरा रही थी । चार दाँतों से वह देदीप्यमान था । लाल तालु वाला वह सूड को लीलापूर्वक डुला रहा था, उसके ऊपर सोने की सकिल से दो घण्टे बँधे थे, लाल-लाल चामर से उसका मुँह विभूषित था, उसका कुम्भस्थल अंकुश से ढका हुआ १. सीलसिरिया सिरि, सीला सिरियादेवी, २. मिहाणस्स जक, ३. लावबद्ध । Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परत्ती भयो] ትዝኛ पासिऊण य सुहविबुद्धा एसा । सिट्टो य तोए जहाविहि' दइयस्स । हरिसवसुभिन्नपुलएणं भणिया य तेणं । सुंदरि ! सयलसयणगणनायगो ते पुत्तो भविस्सइ । तओ सा एवं ति भत्तारवयणमहिणंदिऊण पहलुमुहपंकया जाया । तओ विसेसओ तिवग्गसंपायणरयाए संपूरियसयलमणोरहाए अभज्जमाणपसरं पुण्णफलमणुहवंतीए पत्तो पसूइसमओ । तओ पसत्थे तिहिकरणमुत्तजोए सुहंसुहेण पसूया एसा । जाओ से दारओ। निवेइओ परिओसयारिणीए गेहदासीए वेसमणस्स। परितुट्ठो सेट्ठी। दिन्नं तीए पारिओसियं । दवावियं च तेण महादाणं, कारावियं वद्धावणयं । तओ अइक्कते मासे महाविभईए सयलनयरजणपरिगओ घेत्तूण दारयं गओ धणदेवजक्खालयं सेट्टी। संपाइया तस्स महिमा, पाडिओ चलणेसु दारओ। कयं से नामं धणं त्ति । तओ कालक्कमेण पत्तो कुमारभावं । __एत्यंतरम्मि सो जालिणीजीवनारओ तओ नरयाओ उव्वट्टिऊण पुणो संसारमाहिडिय अणंतरभवे तहाऽकामनिज्जराए मरिऊण तमि चेव नयरे पुण्णभद्दस्स सत्थवाहस्स गोमईए भारियाए च सुखविबुद्धा एषा । शिष्टश्च तया यथाविधि दयिताय । हर्षवशोद्भिन्नपुलकेन भणिता च तेन । सन्दरि ! सकलस्वजनगणनायकस्तव पुत्रो भविष्यति । ततः सा एवमिति भर्तृवचनमभिनन्द्य प्रहृष्टमुखपङ्कजा जाता। ततो विशेषतस्त्रिवर्गसम्पादनरताया सम्पूरितसकलमनोरथाया अभज्यमानप्रसरं पुण्यफलमनुभवन्त्याः प्राप्तः प्रसूतिसमयः। ततः प्रशस्ते तिथि-करण-मुहूर्त-योगे सुखेन प्रसूता एषा । जातस्तस्या दारकः । निवेदितः परितोषकारिण्या गेहदास्या वैश्रमणाय । परितुष्टः श्रेष्ठी। दत्तस्तस्यै पारिताषिकम्। दापितं तेन महादानम्, कारितं च वर्धापनकम् । ततोऽतिक्रान्ते मासे महाविभूत्या सकलनगरजनपरित्तो ग होत्वा दारकं गतो धनदेवालयं श्रेष्ठी। सम्पादितस्तस्य महिमा, पातितश्चरणयोर्दारकः । कृतं तस्य नाम 'धन' इति । ततः कालक्रमेण प्राप्तो कुमारभावम् । अत्रान्तरे स जालिनीजीवनारकस्ततो नरकादुवृत्य पुनः संसारमाहिण्ड्य अनन्तरे भवे तथाऽकामनिर्जण्या मृत्वा तस्मिन्नेव नगरे पूर्णभद्रस्य सार्थवाहस्य गोमत्या भार्यायाः कुक्षौ दुहितत्वेथा। वह घूमती हुई सुन्दर आंखों की शोभा से युक्त था तथा उसके सभी अंग सुन्दर और अभिराम थे। स्वप्न देखकर वह सुखपूर्वक जाग गयी। उसने (स्वप्न के विषय में) विधिपूर्वक पति से निवेदन किया। हर्ष के वश रोमांचित हो उसने कहा-"सुन्दरि ! समस्त बन्धुओं में श्रेष्ठ तुम्हारा पुत्र उत्पन्न होगा।" तब 'अच्छा' इस प्रकार कह पति के वचनों का अभिनन्दन कर प्रफुल्लित मुखकमल वाली हो गयी। तब धर्म, अर्थ और काम के सम्पादन में रत, समस्त लोगों के मनोरथ को पूरा करने वाली, जिसके प्रसार को रोका नहीं जा सकता, ऐसे पुण्य के फल का अनुभव करती हुई श्रीदेवी का प्रसूति समय आ गया। तब प्रशंसनीय तिथि, करण, मुहूर्त तथा योग में इसने सुखपूर्वक प्रसव किया। उसके पुत्र उत्पन्न हुआ। सन्तुष्ट करने वाली गृहदासी ने वैश्रमण से कहा। सेठ प्रसन्न हुआ। उसने गृहदासी को पारितोषिक दिया। उसने महादान दिलाया और उत्सव कराया । अनन्तर एक माह का समय बीतने पर बड़ी विभूति के साथ सभी नगरनिवासियों से घिरा हुआ सेठ बालक को लेकर धनदेव (वैश्रमण) के मन्दिर में गया। उसकी पूजा की और चरणों में बालक को रख दिया। बालक का नाम धन रखा। अनन्तर कालक्रम से बालक कुमारावस्था को प्राप्त हुआ। इसी बीच वह जालिनी का जीव नारकी उस नरक से निकलकर पुन: संसार में भ्रमण कर तथा दूसरे भव में अकामनिर्जरा से भरकर उसी नगर में पूर्णभद्र सार्थवाह (व्यापारी) की गोमती नामक पत्नी के गर्भ में पुत्री के १ जहाबिह-ख, २. अमरगमाण"-, ३. दिन्नं -ख. ४. धणदेवालयक । Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुच्छिसि धूयत्ताए उववन्नो । जाया उचियसमएणं । कय से नामंधणसिरि ति। पत्ता जोव्वर्ण। दिदा य तेणं अमीचंदमहूसवे मयणलीलाहरुज्जाणाओ रइरूवधारिणी सहियणसमेया सभवणमवगच्छंती धणसिरि ति। तओ पुत्वभवन्मत्थमेत्तीगुणाओ साहिलासं पलोइया' धणेणं । तीए वि य तहम्मत्थमच्छराओ सुइरमवलोइओ धणो ति । लक्खिओ से भावो पासवत्तिणा सोमदेवाभिहाणेणं पुरोहियसुएणं । सवणपरंपराए समागओ सवणगोयरं एस वुत्तंतो वेसमणस्स। तओ वरिया तेणं धनिमित्त धणसिरी। दिना सबहुमाणं पुण्णभद्देण । मुणिओ एस वुत्तंतो परोप्परमिमेहि । परितुद्वोधणो नियहियएणं, दूमिया धणसिरी । कयाई वेसमणपुण्णभद्देहि महावद्धावणयाई। वत्तो महाविभूईए सयलनयरच्छेरयभूओ विवाहो।। तओ अइक्कतो कोइ कालो । घडिया एसा तस्स चेव घरपसूएणं नंदयाभिहाणेणं चेडेणं । सो य किल अग्गिसम्मस्स तावसपरियाए वट्टमाणस्स अज्जवकोडिंण्णपरियारओ संगममो नाम परममित्तो आसि त्ति । तओ तोए सद्धि विसेसओ विडंबणापायं विसयसुहमणुहवंतस्स नोत्पन्नः । जाता उचितसमयेन । कृतं तस्या नाम धनश्रोरिति । प्राप्ता यौवनम् । दृष्टा च तेन अष्टमोचन्द्रमहोत्सव मदनलोलागृहोद्यानाद् रतिरूपधारिणो सखोजनसमेता स्वभवनमुपगच्छन्ती धनश्रीरिति । ततः पूर्वभवाभ्यस्तमैत्रीगुणात् साभिलाष लोकिता धनेन । तयाऽपि च तथाऽभ्यस्तमत्सरात सूचिरमवलोकितो धन इति । लक्षितस्तस्य भावः पार्श्ववतिना सोमदेवाभिधानेन परोहितसतेन । श्रवणपरम्परया समागतः श्रवणगोचरमेष वृत्तान्तो वैश्रमणस्य । वतो वता तेन निमित्तं धनश्रोः । दत्ता सबहुमानं पूर्णभद्रेण । ज्ञात एष वृत्तान्तः परस्परमाभ्याम् । परितुष्टः धनो निजहृदयेन, दना धनश्रीः । कृतानि वैश्रमणपूर्णभद्राभ्यां महावर्धापनकानि । वृत्तो महाविभत्या सकलनगराश्चर्यभूतो विवाहः । ततोऽतिक्रान्तः कोऽपि कालः। घटितैषा तस्यैव गृहप्रसूतेन नन्दकाभिधानेन चेटेन । स च किल अग्निशर्मणः तापसपर्याये वर्तमानस्य आर्जवकोण्डिन्यपरिचारक: संगमको नामपरममित्रमासीदिति । ततस्तया साध विशेषतो विडम्बनाप्रायं विषयसुखमनुभवतोऽतिक्रान्तः कोऽपि कालः रूप में आयी। उचित समय पर जन्म हुआ। उसका नाम धनश्री रखा गया। वह यौवनावस्था को प्राप्त हुई। धन ने अष्टमी के चन्द्रमा के महोत्सव पर मदनलीला गृह नामक उद्यान से अपने घर को जाती हुई रति से समान हप को धारण करने वाली धनश्री को सखियों के साथ देखा । पूर्वभवों में अभ्यस्त मैत्रीगुण के कारण धन ने उसे अभिलाषायुक्त होकर देखा। उसने भी पूर्वजन्मों में अभ्यस्त ईर्ष्या के वश देर तक धन को देखा । धन के भाव को समीपवर्ती सोमदेव नामक पुरोहित के पुत्र ने देखा। कानों-कान यह बात वैश्रमण ने सुनी। तब उसने धन के लिए धनश्री को चुना। पूर्णभद्र ने बड़े आदरपूर्वक स्वीकृति दी। यह वृत्तान्त इन दोनों ने भी परस्पर सुना । धन अपने हृदय से सन्तुष्ट हुआ। धनश्री दुःखी हुई। वैश्रमण और पूर्णभद्र ने बहुत बड़े उत्सव कराये । सम्पूर्ण नगर को आश्चर्य में डालने वाले बड़े वैभव के साथ विवाह हुआ। ___ अनन्तर कुछ समय व्यतीत हुआ। यह उसी घर में उत्पन्न हुए नन्दक नामक चेट (सेवक) से मिल गयी। जब अग्निशर्मा तापस पर्याय में था तब नन्दक आर्जवकौण्डिन्य का परिचारक संगमक नामक परम मित्र था। तदनन्तर उसके साथ में विशेष रूप से छल से भरे हुए, विषय सुख का अनुभव करते हुए धन का कुछ समय बीत १. पुलझ्या -क। Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पसाचो भो] अइक्कंतो कोइ कालो धणस्स। पत्तो य से कालवकमेणं नवजलभरियसरोवरविरायंतकमलायरो कमलायरपसत्तउम्मत्तमहुरगुजंतभमिरभमरउलो भमरउलुच्छाहियसुरयखिन्नसहरिसकलालाविहंसउलमुहलो मुहलगोयालजुवइपारद्धसरसगेयरवोच्छइयच्छेत्तमग्गो सरयसमओ त्ति । अवि य निन्भरकुसुमभरोणयरसाउमुहलेहि असणवाहिं। कासकुडएहि य दढं जत्थ हसंति व्व रण्णाई ॥३४१॥ निस्सेसं लवणोयहिसलिलं मोत्तूण जत्थ सोहंति । धवला घणा पुणो पीयसरसदुद्धोयहिजल व्व ॥३४२॥ दीसंति जत्थ सत्तच्छयाण मयवारणेहि भग्गाई। गंधायड्डियगण्डालिजालरुसिएहि व वणाई॥३४३॥ चिरसंचियं च विउणं मुक्को घणबंधणस्स व मियंको। सरउम्मत्तो व्व जहिं जणस्स जोण्हं पविविखरइ ॥३४४॥ धनस्य । प्राप्तश्च तस्य कालक्रमेण नवजलभतसरोवरविराजकमलाकरः कमलाकर: सक्तोन्मत्तमधुरगुञ्जभ्रमितृभ्रमर कुलो भ्रमर कुलोत्साहितसुरतखिन्नसहर्षकलालापिहंसकुलमखरो मुखरगोपालयुवतिप्रारब्धसरसगेयरवोच्छादितक्षेत्रमार्गः शरत्समय इति । अपि च निर्भरकुसुमभरावनतरसायु(भ्रमर)मुखरैरशनबाणैः । काशकुटजैश्च दृढं यत्र हसन्तीव अरण्यानि ।।३४१॥ निःशेषं लवणोदधिसलिलं मुक्त्वा यत्र शोभन्ते । धवला घनाः पुनः पीतसरसदुग्धोदधिजला इव ॥३४२॥ दृश्यन्ते यत्र सप्तच्छदानां मदवारणैर्भग्नानि । गन्धाकर्षितगण्डालिजालरुष्टैरिव वनानि ॥३४३॥ चिरसंचितां च विगुणां मुक्तो घनबन्धनादिव मृगाङ्कः । शरदुन्मत्त इव यत्र जनस्य ज्योत्स्ना प्रविष्किरति ॥३४४॥ गया। कालक्रम से शरद् ऋतु आ गयी। उस समय नवीन जल से भरे हुए तालाब में कमलों का समूह सुशोभित हो रहा था। कमलों के समूह पर मधुर गुंजन करते हुए मतवाले भ्रमरों का समूह मंडरा रहा था । भौरों के समूह से उत्साहित सुखक्रीड़ा से खिन्न हंसों का समूह हर्ष से युक्त होकर धीमी और कोमल गुनगुनाहट का शब्द कर रहा था। शब्द करती हुई ग्वालयुवतियों द्वारा प्रारम्भ किये हुए सरस गाने की ध्वनियों से खेतों का रास्ता व्यस्त हो रहा था। पुनश्च अत्यधिक फूलों के समूह से झुके हुए भौंरों की गुनगुनाहट, चित्रकवृक्ष, बाण; कास और कमलों से जहां पर जंगल मानो अत्यधिक रूप से हँस रहे थे। सम्पूर्ण लवणसागर के जल की वर्षा कर जहाँ सफेद बादल शोभित हो रहे थे । वे ऐसे लग रहे थे मानो उन्होंने क्षीरसागर के सरस जल को पी लिया हो। जहाँ पर मतवाले हाथियों के द्वारा तोड़े हुए सप्मच्छद वृक्षों की गन्ध से आकर्षित गैंडों और भौंरों के समूह से वन रुष्ट हुए-से दिखाई देते थे। लम्बे समय से बहुत कसकर रस्सी से बांधे हुए चन्द्रमा को मानो छोड़ दिया गया हो, इस प्रकार उन्मत्त की तरह शरदऋतु जहाँ पर लोगों पर चाँदनी बिखेर रही थी॥३४१-३४४॥ Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ एवं गुणाहिरामे सरयसमए दिट्टो धणेण तन्नयरवत्थत्वओ चेव समिद्धिदत्तो नाम सत्यवाहपुत्तो ति। देसंतराओ बहुयं दविणजायं विढविऊण महाकत्तिगीए दीणाणाहाणमणिवारिय महादाणं देंतो त्ति । तओ तं दळूण चितियं धणेण। धन्नो खु एसो, जो एवं नियभुयज्जिएणं दविणजाएणं परोवयारं करेइ । जाओ विमणो। भणिओ य पासपरिवत्तिणा नंदएणं । सत्थवाहपुत्त, किमुव्विग्गो विय तुमं जाओ त्ति। साहिओ य तेणं निययाहिप्पाओ। नंदएणं भणियं-सत्थवाहपुत्त, थेवमिय; अत्थि भवओ वि महापुण्णोवज्जियं दविणजायं । ता देउ इमाओ वि विसेययरं भवं पि। धणेण भणियं--किमणेण पुवपुरिसज्जिएणं । भणियं च लोए सलाहणिज्जो सो उ नरो दोणपणइवग्गस्स। जो देइ नियभुयज्जियमपत्थिओ दव्वसंघायं ॥३४५॥ न य मे किंचि नियभुयज्जियं अस्थि । ता विन्नवेहि तायं । करेमि अहं पुव्वपुरिससेवियं वाणिज्जं, गच्छामि दिसायत्ताए। कालोचियमकुवमाणो पुरिसो जीवियं विहलीकरेइ । कालो य मे एवं गुणाभिरामे शरत्समये दृष्टो धनेन तन्नगरवास्तव्य एव समृद्धिदत्तो नाम सार्थवाहपुत्र इति । देशान्तराद् बहुकं द्रविणजातं अर्जयित्वा महाकार्तिक्यां दीनानाथेभ्योऽनिवारितं महादानं दददिति । ततस्तं दृष्ट्वा चिन्तितं धनेन-धन्यः खल्वेषः, य एवं निजभुजाजितेन द्रविणजातेन परोपकारं करोति । जातो विमनस्कः। भणितश्च पार्श्वपरिवर्तिना नन्दकेन । सार्थवाहपुत्र ! किमुद्विग्न इव त्वं जात इति । कथितश्च तेन निजाभिप्रायः। नन्दकेन भणितम्-सार्थवाहपुत्र ! स्तोकमिदम्, अस्ति भवतोऽपि महापुण्योपार्जितं द्रविणजातम्, ततो ददातु अस्मादपि विशेषिततरं भवानपि । धनेन भणितम्-किमनेन पूर्वपुरुषोपार्जितेन ? भणितं च लोके श्लाघनीयः स तु नरो दोनप्रणयिवर्गाय । यो ददाति निजभुजार्जितमप्रार्थितो द्रव्यसंघातम् ॥३४५॥ न च मम किञ्चिद् निजभुजार्जितमस्ति, ततो विज्ञपय तातम्, करोमि अहं पूर्वपुरुषसेवितं वाणिज्यम्, गच्छामि दिग्यात्रया। कालोचितमकुर्वन् पुरुषो जीवितं विफलीकरोति । कालश्च मे इस प्रकार के गुणों से सुन्दर शरदऋतु में धन ने उसी नगर में रहने वाले समृद्धिदत्त नामक व्यापारी के पुत्र को देखा । वह दूसरे देश से बहुत धनोपार्जन कर महाकार्तिकी के अवसर पर दीन तथा अनाथ लोगों को इच्छानुसार बे-रोकटोक महादान दे रहा था। उसे देखकर धन ने विचार किया-यह समृद्धि दत्त धन्य है जो अपनी भुजाओं से अर्जित धन से परोपकार करता है। धन अन्यमनस्क हो गया। समीपवर्ती नन्दक ने उससे कहा-"सार्थवाहपुत्र !(वणिकपुत्र)तुम उद्विग्न से क्यों हो गये हो ?" धन ने अपना अभिप्राय कहा। नन्दक ने कहा"यह तो बहुत थोड़ा है। आपके पास भी महान् पुण्य से उपार्जित किया हुआ धन है । अतः आप भी इससे अधिक दान दीजिए।" धन ने कहा-"पूर्वजों के द्वारा कमाये हुए इस धन को दान देने से क्या ? कहा भी है लोक में वही मनुष्य प्रशंसनीय होता है जो बिना मांगे ही दीन-याचकों को अपनी भुजाओं से उपार्जित द्रव्यसमूह दान में देता है ॥३४५।। मेरी स्वयं की भुजाओं से कमाया हुआ कुछ भी नहीं है, अत: पिता जी से निवेदन करो कि मैं पूर्वजों के द्वारा सेवित वाणिज्य (व्यापार) को करूंगा, दिशाओं की यात्रा पर जाऊँगा । समयोजित कार्य को न करता हुआ Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बजत्यो भवो] २३३ तिवग्गसाहणमलं अस्थमुवज्जिङ । ता करेहि मे पसायं समीहियसंपायणेणं ति। विन्नत्तो तेणं सेट्री। भणियं च णेण-नंदय, एवं भणाहि मे जायं । जहा-वच्छ, अत्थि चेव तुह सयलनयरसेट्टिहितो वि अमहियं तिवग्गसाहणमूलं अत्थजायं । ता करेहि इमिणा चेव जहासमीहियं ति । नंदएण भणियंताय, अस्थि एवं; तहवि पुण न एयस्स अन्नहा धिई हवइ । सेट्ठिणा भणियं-जहा एयस्स धिई हवइ तहा करेउ त्ति । निवेइयमिणं नंबएण धणस्स । परितुट्ठो खु एसो। कया संजत्ती। पयट्टियं नाणापयारं भंडजायं। कारावियमाघोसणं। जहा-धणो सत्थवाहपुत्तो इमाओ नयराओ तामलित्ति गच्छिस्सइ । ता तेण समं जो कोइ तन्नयरगामी, सो पयट्टउ । जस्स जं न संपज्जइ पाहेयमुवगरणं वा, तस्स तं एस संपाडेइ त्ति । पयट्टो जणो। एत्थंतरम्मि चितियं धणसिरीए । सोहणं मे भविस्सइ एयस्स पवसणेणं । आयणियं च पच्चासन्ने गमणदियहे, जहा नंदओ वि इमिणा सह गमिस्सइ त्ति । तओ मायावत्तिए भणिओ सत्थवाहपुत्तो । अज्जउत्त, पत्थिओ तुमं; मए उण किं कायव्वं ति । तेण भणियं-सुंदरि, गुरूणं त्रिवर्गसाधनमूलमर्थमुपार्जितुम् । ततः कुरु मे प्रसादं समीहितसम्पादनेनेति । विज्ञप्तस्तेन श्रेष्ठी। भणितं च तेन-नन्दक ! एवं भण मे जातम, यथा वत्स ! अस्त्येव तव सकलनगरवेष्ठिभ्योऽपि अभ्यधिक त्रिवर्गसाधनमलमर्थजातम, ततः करु अनेनैव यथासमीहितमिति । नन्दकेन भणितमतात ! अस्त्येतद्, तथाऽपि पुन तस्यान्यथा तिर्भवति । श्रेष्ठिना भणितम-यथैतस्य धतिभवति तथा करोतु इति । निवेदितमिदं नन्दकेन धनस्य । परितुष्ट: खल्वेषः। कृता संयात्रा (यात्रायै समूद्योग:)। प्रवर्तितं च नानाप्रकारं भाण्डजातम। कारितमाघोषणम । यथा-धनः सार्थवाहपुत्रोऽस्मान्नगशत् ताम्रलिप्ती गमिष्यति, ततस्तेन समं यः कोऽपि तन्नगरगामी स प्रवर्तताम, यस्य यम्न सम्पद्यते पाथेयमुपकरणं वा तस्य तदेष सम्पादयतीति । प्रवृत्तो जनः। अत्रान्तरे चिन्तितं धनश्रिया-शोभनं मे भविष्यति एतस्य प्रवसनेन, आकणितं च प्रत्यासन्ने गमनदिवसे, यथा नन्दकोऽपि अनेन सह गमिष्यतोति । ततो मायावृत्त्या भणितः सार्थवाहपुत्रः। आर्यपुत्र ! प्रस्थितस्त्वम्, मया पुनः किं कर्तव्यमिति । तेन भणितम्-सुन्दरि । गुरूणां शुश्रूषा। पुरुष जीवन को विफल करता है। धर्म, अर्थ और काम तीनों के मूल साधन धन के उपार्जित करने का मेरा यह समय है । अतः इष्ट कार्य की सिद्धि कर मुझ पर अनुग्रह करो।" नन्दक ने सेठ से कहा। सेठ ने कहा-"नन्दक ! मेरे पुत्र से यह कहो कि पुत्र ! तुम्हारे नगर के सेठों से भी अधिक धर्म, अर्थ कामरूप त्रिवर्ग के साधन का मूलधन (मेरे पास) है । अतः इसी से इष्टकार्य करो।" नन्दक ने कहा-"पिता जी ! ऐसा ही है फिर भी इसका धैर्य अन्य प्रकार से कायम नहीं रहता है।" सेठ ने कहा- "जिससे इसे धैर्य हो वही करे।" नन्दक ने यह बात धन से निवेदन की। यह (धन) सन्तुष्ट हुआ। उसने यात्रा की तैयारी की। अनेक प्रकार का माल लिया । घोषणा करा दी-"धन नामक वणिकपुत्र इस नगर से ताम्रलिप्ती जायेगा। अत: उसके साथ जो कोई उस नगर को जानेवाला हो, वह चले । जिसके पास नास्ता अथवा अन्य कोई वस्तु न हो, वह यह देगा।" लोग तैयार हो गये। इसी बीच धनश्री ने सोचा-- इसके जाने से मेरा अच्छा होगा । जाने का दिन निकट आने पर इसने सुना कि नन्दक भी इसके साथ जायेगा । तब बनावटी रूप से वणिकपुत्र से कहा-"आर्यपुत्र ! आप जा रहे हैं, मैं क्या करूंगी।" उसने कहा-"सुन्दरि ! बड़ों की सेवा करना।" तब कपट की प्रधानता के कारण आँखों में आंसू भरकर Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ [समराइच्चकहा सस्ससा । तओ नियडिपहाणओ बाहजलभरियलोयणाए सदुक्खमिव भणियं धणसिरीए- अज्जउत्त, हिययसन्निहिया गुरू । जइ पुण तुमं मं उज्झिऊण गच्छहिसि, ता सिटुतुह इम, अवस्समहमप्पाणयं बाबाइस्सं' ति अन्वत्तसई रोविउं पवत्ता । एत्यंतरम्मि समागया धणस्स जणणी । अन्भुत्थिया तेण। निग्गया य धणसिरी । लक्खिओ से भावो इमीए। अणुसासिओ य तीए बहुविहं सुओ। जहाजाय, दीहाणि खु देसंतराणि, सुलहो विओगो, दुल्लहो पुणो वि संगमो, किलेसायासपउरं च अत्थोवाजणं, अविसामो य मूलं इमस्स । ता जइ वि तुमं सयलगुणसंजुओ, तहा वि विसेसओ खमाइगणेस जत्तो कायवो। अणवरयं च मे पउत्ती दायव्व ति। धणेण भणियं-अंब, जं तुमं आणवेसि । तओ गया से जणणी । विसज्जाविया य तीए वहू [पेईघराओ, अणजाणह तुम्भे धणेण सह धणसिरि गच्छमाणि ति । गता सहरिसं । अणुण्णाया तेहिं] पयट्रो सस्थो, अणवरयपयाणएहिं च पत्तो दुमासमेत्तेण कालेण तामलिति । विद्वो नरवई। बहमग्निओ तेणं । निओइयं भंडं। न समासाइओ जहिच्छियलाहो। तओ चितियमणेणं । कहमहं ततो निकृतिप्रधानतो वाष्पजलभृतलोचनया सदुःखमिव भणितं धनश्रिया-आर्यपुत्र ! हृदयसन्निहिता गुरवः, यदि पुनस्त्वं मामुज्झित्वा गमिष्यसि ततः शिष्टस्तवेदम्, अवश्यमहमात्मानं व्यापादयिष्यामीति अव्यक्तशब्दं रोदित प्रवृत्ता। अत्रान्तरे समागता धनस्य जननी। अभ्युत्थितस्तेन । निर्गता च धनश्रीः । लक्षितस्तस्या भावोऽनया। अनुशासितस्तया बहुविधं सुतः। यथाजात ! दीर्घाणि खलु देशान्तराणि, सुलभो वियोगः, दुर्लभः पुनरपि सङ्गमः, क्लेशायासप्रचुरं चार्थोपार्जनम्, अविषावश्च मूलमस्य । ततो यद्यपि त्वं सकलगुणसंयुतस्तथाऽपि विशेषतो क्षमादिगुणेषु यत्नः वर्तव्यः, अनवरतं च मे प्रवृत्तिर्दातव्या इति । धनेन भणितम्-अम्ब ! यत् त्वमाज्ञापयसि । ततो गता तस्य जननी । विसर्जिता च तया वधूः । [पितृगृहं, अनुजानीत यूयं धनेन सह गच्छन्ती धनश्रियमिति । गता सहर्षम् अनुज्ञाता तैः] - प्रवत्तः सार्थः, अनवरतप्रयाणकैश्च प्राप्तो द्विमासमात्रेण कालेन ताम्रलिप्तीम् । दृष्टो नरपतिः । बहुमतस्तेन । नियोजितं (विक्रीतं) भाण्डम् । न समासादितो यथेष्टलाभः । ततश्चिन्तित. मानो दुःख के साथ धनश्री ने कहा--- "आर्यपुत्र ! गुरुजन हृदय में विद्यमान हैं, यदि आप मुझे छोड़कर जाते हैं तो मैं आपसे कहती हैं कि मैं अवश्य आत्महत्या कर लूंगी।" ऐसा कहकर अव्यक्त वाणी में रोने लगी। इसी बीच धन की माता आयी । धन आसन छोड़ कर खड़ा हो गया और धनश्री निकल गयी। माता ने धनश्री के भाव को समझ लिया। उसने (माता ने)पुत्र को अनेक प्रकार की शिक्षा दीदीर्घ । जैसे-पुत्र! देशान्तर दीर्घ होते हैं, वियोग सुलभ है और संयोग दुर्लभ है, धन का उपार्जन करने में क्लेश और परिश्रम होता है और इसका मूल अविषाद है। अतः यद्यपि तुम समस्त गुणों से युक्त हो तथापि विशेष रूप से क्षमादि गुणों में यत्न करना और निरन्तर मुझे अपना समाचार भेजना।" धन ने कहा- “माता ! जो आज्ञा।" तब उसकी माता चली गयी। उसने बहू को भेज दिया। सार्थ (काफिला) चल पड़ा। निरन्तर दो माह चलने के बाद ताम्रलिप्ती पहुंचे। राजा ने देखा । उसने (राजा ने) आदर किया। (धन ने) माल बेचा (किन्तु) यथेष्ट लाभ नहीं हुआ। तब इसने विचार किया-बिना १.अयं कोष्ठान्तर्गत पाठः ख पुस्तक प्रान्ते वर्तते। Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बउत्यो भयो] २३५ असंपाडियमणोरहो गेहं गच्छामि ? ता पच्चासन्न एव भयवं रयणायरो, एयमवगाहामि ति।नय संसयमणारूढो पुरिसो एगंतावायभीरू सयलयणाणंदयारिणि संपयं पावेइ। किं वा तीए रहियस्स पुरिससंखामेत्तफलसाहएणं जीविएणं । ता अणुचिट्ठामि समुद्दतरणं । संपहारिऊण नंदएण धणसिरीए य सह ठाविओ सिद्ध तो। एत्थंतरम्मि य उवट्टियाए मज्जणवेलाए दुहत्थमेतजरचीरनिवसणो उद्दामनहरविलिहियंगो सेडियाघसणधवलपाणी तंबोलरायरज्जियाहरो परिमिलाणकुसुममुंडमाली जूययरवंद्रपेल्लिओ भयकायरं मग्गओ पलोएमाणो आगओ जययरो ति। भणियं च णेण-अज्ज, सरणागओ म्हि, ता रक्खउ अज्जो एएसि अणज्जयराण। धणेणं भणियं-भद्द, वीसत्यो होहि; अह किंनिमित्तं पण एए भह अहिहवंति । तेण भणियं-अज्ज, भागधेयाणि मे पुच्छ, न सक्कुणोमि आचिक्खिउं । तो धणेण 'अहो से भावगरुओ आलाओ' त्ति चितिऊण भणियं-भद्द, अलं विसाएण; कस्स वि समवसाविभाओ न होइ; ता कहेउ भद्दो एत्थ कारणं । तओ पच्चागयसंवेगेण बाहरुद्धनयणेणं सगग्गमनेन—'कथमहमसम्पादितमनोरथो गेहं गच्छामि ? ततः प्रत्यासन्न एव भगवान रत्नाकरः, एवमवगाहे इति । न च संशयमनारूढः पुरुष एकान्तापायभोरुः सकलजनानन्दकारिणी सम्पदं प्राप्नोति । किं वा तया रहितस्य पुरुषसंख्यामात्रफलसाधकेन जोवितेन? ततोऽनुतिष्ठामि समुद्रतरणम् । सम्प्रधार्य (आलोच्य) नन्दकेन धनश्रिया च सह स्थापितः सिद्धान्तः ।। अत्रान्तरे च उपस्थितायां मज्जनवेलायां द्विहस्तमात्रजीर्णचोवरनिवसन उद्दामनखरविलिखिताङ्गः सेटिकाघर्षणधवलपाणिः ताम्बूलरागरक्ताधरः परिम्लानकुसुममुण्डमाली द्यूतकारवन्दप्रेरितो भयकातरं मार्गतः (पृष्ठतः) प्रलोकमान आगतो द्यूतकार इति । भणितं च तेन-आर्य ! शरणागतोऽस्मि, ततो, रक्षतु आर्य एतेभ्योऽनार्य द्यूतकारेभ्यः । धनेन भणितम्-भद्र ! विश्वस्तो भव, अथ किं निमित्तं पुनरेते भद्रमभिभवन्ति ? तेन भणितम्-आर्य! भागधेयानि मे पृच्छ, न शक्नीमि आख्यातुम् । ततो धनेन 'अहो! तस्य भावगुरुक आलापः' इति चिन्तयित्वा भणितमभद्र ! अलं विषादेन । कस्यापि समदशाविभावो न भवति। ततः कथयतु भद्रोऽत्र कारणम् । ततः मनोरथ पूर्ण किये मैं कैसे घर जाऊँ ? समीप में ही भगवान् रत्नाकर (समुद्र) हैं अतः इसी में अवगाहन करता हूँ। संशय को प्राप्त हुआ, एकान्त हानि से भयभीत पुरुष समस्त लोगों को आनन्द देने वाली सम्पत्ति को नहीं प्राप्त करता है । सम्पत्ति से रहित तथा पुरुष की संख्या मात्र फल को साधने वाले के जीने से क्या लाभ ? अर्थात् ऐसे पुरुष का जीवित रहना व्यर्थ है अतः समुद्र तैरता हूँ । नन्दक और धनश्री के साथ विचारकर सिद्धान्त स्थापित कर लिया। इसी बीच स्नान करने क समय दो हाथ मात्र पुराना वस्त्र पहिने हुए, बड़े-बड़े नाखूनों से निशानयुक्त अंग वाला, सफेद मिट्टी की रगड़ से जिसके हाथ सफेद थे, पान से जिसका अधर लाल रंगा हुआ था, मुरझाये हुए फूलों से युक्त मुड़ी हुई माला वाला, जुआरीवृन्द द्वारा प्रेषित, भय से कातर तथा पीछे की ओर देखता हुआ एक जुभारी आया। उस जुआरी ने कहा-"आर्य ! (मैं) शरणागत हूँ, अतः आर्य इन अनार्य जुआरियों से मेरी रक्षा करें।" धन ने कहा-“भद्र ! आश्वस्त हो ओ । किस कारण से ये आपका तिरस्कार कर रहे हैं ?" उसने कहा"आर्य ! मेरे भाग्य से पूछो, कहने में समर्थ नहीं हूँ।" तब धन ने, इसका भावों से भरा हुआ कथन आश्चर्यकारक है, ऐसा सोचकर कहा-“भद्र ! विषाद मत करो। किसी की एक जैसी दशा या अवस्था नहीं होती है। अतः भद्र । इसका कारण कहो। तब संवेग से आँसुओं के कारण चन्द नेत्रों वाला होकर गद्गद वाणी में उसने Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ [समराइज्वाहा यक्खरं साहियं तेणं । अज्ज, वाणिययकुलफंसणो उभयलोयविरुद्धसेवी विबुहजनिदिओ विसपायवो व्व अवयारनिमित्तं चेव पाणिणं समप्पन्नो म्हि कुसुमउरनिवासी महेसरदत्तो नाम अहयं ति। सपण्णजणवज्जिएणं सयलदोसनिहाणभए गं जूएणं ईइसं अवत्थं पत्तो मिह । तओ धणेण चितियंअहो से विवेगो, एयावत्थागयं पि अप्पाषयं जाणइ अकज्जायरणं च परिवेएइ; ता गरुओ खु कोइ एसो त्ति चितिऊण भणियंभद्द, ता किं ते करीयउ ? तओ तेण अणुचियविन्भमं मिलायंतलोयणं सुस्संतवयणं खलंतक्खरं दरं जंपिउंन जंपियं चेव । तओ धणेण 'हारियं किपि भविस्सइ, तं न चएइ पत्थिळ' ति अत्थओऽवच्छिऊण भणिओ नंदओ-भद्द नंदय, पुच्छाहि एए वाहिं परिम्भमंते जूययरे, जहा 'भद्दाणं किमवरद्ध मिमिणा भद्देणं' ति। निग्गओ नंदओ। पुच्छिया तेण जययरा । सिट्ठ चिमेहिं । एसो खु वायामयगंथेणं सोलस सुवणे हारिऊण' अज्जसहिएण निरुद्धो वि छिदं लहिऊण छोहवावडाण अम्हाण अदाऊण सुवण्णयं पलाइऊण इह पविट्ठो त्ति । तओ साहियमिणं नंवएण धणस्स । भणिओ य तेण-देहि एयाण सोलस सुवण्ण। दिन्ना नंदएण। गया जययरा। प्रत्यागतसंवेगेन वापरुद्धनयनेन सगद्गवाक्षरं कथितं तेन-आर्य ! वाणिजककुलपांसन उभयलोकविरुद्धसेवी विबधजननिन्दितो विषपादप इव अपकारनिमित्तमेव प्राणिनां समत्पन्नोऽस्मि कसूमपूरनिवासी महेश्वरदत्तो नाम अहमिति । सपुण्यजनवजितेन सकलदोषनिधान भतेन द्य तेन ईदशामवस्थां प्राप्तोऽस्मि । ततो धनेन चिन्तितम्-अहा तस्य विवेकः, एतदवस्थागतमपि आत्मानं जानाति, अकार्याचरणं च परिवेदयति, ततो गुरुकः खलु कोऽप्येष इति चिन्तयित्वा भणितम् । भद्र ! ततः किं ते कियताम् ? ततस्तेन अनुचितविभ्रम मिलल्लाचनं शुष्यद्वदनं स्खलदक्षरं ईषद् जल्पित्वा न जल्पित. मेव । ततो धनेन 'हारितं किमपि भविष्यति तद् न शक्नोति प्रार्थितुम्' इति अर्थतोऽवगत्य भणितो नन्दक:-भद्र नन्दक ! पृच्छ एतान् बहिः परिभ्रमतो इतकारान्, यथा “भद्राणां किमपराद्धमेतेन भद्रेण इति । निर्गतो नन्दकः । पृष्टास्तेन द्यूतकाराः। शिष्टं च एभिः । एषः खलु वाचामयग्रन्थेन षोडश सुवर्णानि हारयित्वा अद्य सखिकेन (?) निरुद्धोऽपि छिद्रं लब्ध्वा क्षोभव्यापतेभ्याऽस्मभ्यमदत्त्वा सुवर्णकं पलाय्य इह प्रविष्ट इति । ततः कथितमिदं नन्दकेन धनाय। भणितश्च तेन । देहि कहा-"आर्य! वणिक् कुल' का कलंक, दोनों लोकों के विरुद्ध सेवन करने वाला, विद्वानों के द्वारा निन्दित, प्राणियों के उपकार के लिए विषवृक्ष के समान ही मानो मैं उत्पन्न हुआ हूँ। मेरा नाम महेश्वरदत्त है और मैं कुसुमपुर का रहने वाला है। पुण्यात्माओं के द्वारा निषिद्ध समस्त दोषो के निधानभूत जुए से इस अवस्था को प्राप्त हो गया हैं।" तब धन ने विचार किया-इसका विवेक आश्चर्यकारक है । इस अवस्था को प्राप्त हुआ भी अपने आपको जानता है और न करने योग्य कार्य को करने के कारण दुःखी हो रहा है। अतः यह कोई बड़ा आदमी होना चाहिए, ऐसा सोचकर कहा-"भद्र ! आपका क्या(कार्य)करूं ?" तब उसने अनुचित शंका से आंखें बन्द कर मुख को सुखाते हुए लड़खड़ाती वाणी में कुछ बड़बड़ाकर कुछ भी नहीं कहा । तब धन ने 'कुछ हार गया होगा' अत: कह नहीं सकता-इस प्रकार अभिप्राय जानकर नन्दक से कहा-"भद्र नन्दक! इन बाहर घूमने वाले जुआरियों से पूछो कि आप लोगों का इसने क्या अपराध किया है ?" नन्दक निकला। उसने जुआरियों से पूछा । जुआरियों ने बतलाया "यह वचन से सोलह स्वर्ण हारकर आर्य सखिक के द्वारा रोके जाने पर भी अवसर पाकर क्षोभयुक्त हम लोगों को स्वर्ण न देकर भागकर यहाँ घुस गया है ।" अनन्तर नन्दक ने धन से कहा । धन ने कहा- "इनको सोलह स्वर्ण दे १. हारविऊण-ख। Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पउत्तो भयो] २३७ भणिओ य सो धणेण -भद्द, उठेहि, मुंच विसायं। कज्जपहाणा खु पुरिसा हवंति, विसायबहुलो य इत्थियाजणो । ता मज्जेउ भद्दो । तओ विलिओ-विय उढिओ महेसरदत्तो, मज्जिओ सह धणेणं । दिन्नं से खोमजुयलं, परिहियं च तेणं। भुत्तुत्तरकालम्मि य भणिओ धणेणं-भद्द, एगजाइओ सज्जणभावओ य साहारणं ते इमं दविणजायं । ता इओ किंपि गिहिऊण सयं चेव निओयमणचिट्ठउ भद्दो । कि इमिणा भद्दस्स वि अणभिमएणं विबुहजनिदिएणं उभयलोयअईवकुच्छिएणं अहमजणतुठ्ठिजणएण जूययारचेट्ठिएणं ति । महेसरदत्तेण चितियं-अहो मे अहन्नया, तायरुहदेवकुलसरिसं इमस्स चेट्टियं, मम उण इमं ईइसं ति । अवि य न वि तह परोवयारं अकरतो लाघवं नरो लहइ । जह किज्जंतुवयारो परेण करुणापवन्नेणं ॥३४६॥ ता कि इमिणा, अवलंबेमि पोरिसं, करेमि संपयं पि सकुलसरिसं ति। चितिऊण भणियं महेसरदत्तेणं-अज्ज, धन्नो खु अहं, जस्स मे तुमए सह सणं समुप्पन्न । अओ परिचत्तं चेव मए संपयं एतेभ्यः षोडश सुवर्णानि । दत्तानि नन्दकेन । गता द्य तकाराः । भणितश्च स धनेन-भद्र ! उत्तिष्ठ, मुञ्च विषादम्, कार्यप्रधानाः खलु पुरुषा भवन्ति, विषादबहुलश्च स्त्रीजनः, ततो मज्जतु भद्र इति । ततो व्यलीक इव उत्थितो महेश्वरदत्तः, मज्जितो सह धनेन । दत्तं तस्मै क्षौमयुगलम् परिहितं च तेन । भुक्तोत्तरकाले च भणितो धनेन-भद्र ! एकजातिकः सज्जनभावतश्च साधारणं ते इदं द्रव्यम, तत इतः किमपि गृहीत्वा स्वयमेव नियोगमनुतिष्ठतु भद्रः। किमनेन भद्रस्याप्यनमिमतेन विवधजननिन्दितेन उभयलोकातिकुत्सितेन अधमजनतुष्टिजनकेन छू तकारचेष्टितेनेति । महेश्वरदत्तन चिन्तितम्-अहो ! मेऽधन्यता, तातरुद्रदेवकुलसदृशमस्य चेष्टितम्, मम पुनरिदमादशमिति । अपि च नापि तथा परोपकारमकुर्वन् लाघवं नरो लभते । यथा क्रियमाणोपकारः परेण करुणाप्रपन्नेन ।।३४६।। .. ततः किमनेन ? अवलम्बे पौरुषम्, करोमि साम्प्रतमपि स्वकुलसदशमिति चिन्तयित्वा भणितं महेश्वरदत्तन-आर्य ! धन्यः खल्वहम्, यस्य मे त्वया सह दर्शनं समुत्पन्नम्, अतः परित्यक्तमेव मया दो।" नन्दक ने दे दी। जुआ खेलने वाले (द्यूतकार) चले गये। धन ने महेश्वरदत्त से कहा-“भद्र ! उठो, विषाद छोड़ो, पुरुष लोग कर्मप्रधान होते हैं, स्त्रियाँ विषादप्रधान होती हैं । अतः भद्र ! स्नान करो।" तब लज्जित हुआ. मामदेवरदत्त उठा और उसने धन के साथ स्नान किया। धन ने उसे दो रेशमी वस्त्र दिये। उसने पहिन लिये। भोजन करने के बाद धन ने कहा-“भद्र ! एक जातिवाले और सज्जन भाववाले होने के कारण आपके लिए यह व्य साधारण है अर्थात् यह धन भी तुम्हारा है, अतः इसमें से कुछ लेकर आप स्वयं ही पुरुषार्थ करो। आपके लिए अनिष्ट, विद्वानों के द्वारा निन्दित, दोनों लोकों के लिए बुरा, नीच लोगों को सन्तुष्ट करने वाला यह जुआ खेलने का कार्य व्यर्थ है।" महेश्वरदत्त ने सोचा-अरे में कितना अधन्य हूँ ? इसका कार्य पिता रुद्रदेव के कुल के सदृश है और मेरा कार्य इस प्रकार का है ! कहा भी है परोपकार को न करता हुआ मनुष्य उतनी लघुता प्राप्त नहीं करता, जितनी करुणा को प्राप्त हुए दूसरे व्यक्ति के द्वारा उपकार किये जाने पर प्राप्त करता है ॥३४६॥ अत: इससे क्या ? मैं पुरुषार्थ का अवलम्बन करता हूँ और अपने कुल के सदृश कार्य करता हूँ-ऐसा सोचकर महेश्वरदत्त ने कहा-'बार्य ! मैं धन्य हूँ जो कि मैंने आपके दर्शन किये । अब मैंने इस समय विद्वावों के Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० [समराइच्चकहा बहुजणाणहिमयं चेट्ठियं, पडिवन्नो अहं पुरिसगुणेहि- विमुक्को अलच्छोए । ता कि बहुणा जंपिरणं । अवस्समहं अज्जप्पभावेणेव अज्जस्स उवएसपरिस्सम सफलं करेऊण अज्जं पेक्खामि त्ति भणिऊण निग्गओ गेहाओ नयरीओ य । तओ य 'किं करेमि, कि लंघेमि दविणजायनिमित्तं भगवंतं जलनिहिं । अत्थरहिओ खु पुरिसो अपुरिसो चेव । दरिद्दस्स हि न वित्थिरइ जसो; न वियंभए वित्ती, न सज्जणेण संगमो, न परोवयारसंपायणं ति। अहवां अयंडमणोरहभंगुरेसु विजियसुरासुरेसु य सहरसुद्दामभमिरेसु कालदंडेसु किमणेणालोइएणं । दुल्लहं माणुसजम्मणं, ता अंगीकरोमि भयवंतं उभयलोयसुहावहं धम्मं । एवं च कए समाणे इमस्स वि सत्यवाहपुत्तस्स परमत्थओ उवगयं चेव हवई त्ति चितिऊण पवन्नो पिउवयंसयस्स जोगीसराभिहाणस्स कावालियस्स समीवे पव्वज्जं ति।। इओ य निवेइओ निययाहिप्पाओ धणेणं नंदयधणसिरीणं। भणिओ य तेहिं-- के अम्हे भवओ समोहियंतरायकरणस्स ? जं वो रोयइ, तमेव अणुचिट्ठउ अज्जो ति। तओ गहियं धणेण परतोरगामियं भंडं, गवेसावियं पवहणं । साम्प्रतं बुधजनानभिमतं चेष्टितम्, प्रतिपन्नोऽहं पुरुषगुणः, विमुक्तोऽलक्ष्म्या। ततः किं बहना जल्पितेन ? अवश्यमहमार्थप्रभावेणंव आर्यस्य उपदेशपरिश्रमं सफलं कृत्वा आर्य प्रेक्षे (प्रेमिष्ये) इति भणित्वा निर्गतो गेहाद् नगरोतश्च । ततश्च किं करोमि ? 'किं लङ्घ द्रव्यजातनिमित्तं भगवन्तं जलनिधिम्, अर्थरहितः खलु पुरुषोऽपुरुष एव, दरिद्रस्य हि न विस्तीर्यते यशः, न विज़म्भते कोतिः, न सज्जनेन संगमो न परोपकारसम्पादन मिति । अथवा अकाण्डमनोरथभगुरेषु विजितसुरासुरेषु च सहर्षमुद्दामभ्रमितृषु कालदण्डेषु किमनेनालोचितेन ? दुर्लभं मानुषजन्म, ततः अङ्गीकरोमि भगवन्तमुभयलोकसुखावह धर्मम् । एवं च कृते सति अस्यापि सार्थवाहपुत्रस्य परमार्थत उपकृतमेव भवति' इति चिन्तयित्वा प्रपन्नः पितृवयस्यस्य योगीश्वराभिधानस्य कापालिकस्य समोपे प्रव्रज्यामिति । इतश्च निवेदिता निजाभिप्रायो धनेन नन्दकधनश्रीभ्याम् । भणितश्च ताभ्याम्-के वयं भवतः समीहितान्त रायकरणस्य ? यत्तुभ्यं रोचते तदेव अनुतिष्ठतु आर्य इति । ततो गृहोतं धनेन परतोरगामिक भाण्डम्, गवेषितं प्रवहणमिति । द्वारा अमान्य कार्य छोड़ दिया, मैंने पुरुष के गुणों को प्राप्त किया है और मुझे निर्धनता ने छोड़ दिया है। अतः अधिक कहने से क्या? मैं अवश्य ही आपके प्रभाव से आपके उपदेश रूपी परिश्रम को सफल कर आपके दर्शन करूंगा।" ऐसा कहकर घर से और नगर से निकल गया। अनन्तर क्या करूँ ? क्या धन के लिए सागर पार करूँ; क्योंकि धनरहित पुरुष पुरुष ही नहीं है। दरिद्र (निर्धन) का न तो यश बढ़ता है, न कीर्ति बढ़ती है, न सज्जनों के साथ मेल होता है और न वह परोपकार कर सकता है अथवा असमय में मनोरथ को नष्ट करने वाले, सुर और असुरों को जीतने वाले, हर्षपूर्वक उत्कट रूप से भ्रमण करने वाले कालदण्ड के होने पर इस प्रकार के सोचने से क्या लाभ ? अथवा इस प्रकार सोचना व्यर्थ है । मनुष्य जन्म दुर्लभ है अतः दोनों लोकों में सुख देने वाले भगवद् धर्म को अंगीकार करता हूँ। ऐसा करने पर इस वणिकपुत्र का यथार्थरूप से उपकार होता है-ऐसा सोचकर पिता के मित्र योगीश्वर नामके कापालिक के समीप प्रवजित हो गया। इधर धन ने अपना अभिप्राय नन्दक और धनश्री से कहा । उन दोनों ने कहा-"आपके इष्टकार्य में विघ्न डालने वाले हम कौन हैं ? भार्य ! आपको जो अच्छा लगे, वही करें।" तब पार ले जाने वाले माल को धन ने लिया और जहाज खोजा। Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्यो भवो ] २३६ -- एत्यंतर म्मि भणिओ धणसिरीए नंदओ । जहा - वावाएमो एयं गच्छामो अन्नत्थ, किं णे समुद्दतरणं । नंदएण भणियं हा न जुत्तमेयं, सामी खु एसो सम्भाविओ ८ । ता न तुमए एयं सुविणे fafafari ति । तओ चितियं धणसिरीए । न एस एयं ववसइ; ता अहं चेव केणइ उवाएण एवं करिस्सामिति । कओ तीए नागदत्तापरिव्वाइयाओ निसामिऊण आयंककारओ कालंतरनिवाई कम्मणजोगो त्ति । एत्यंतरम्मि संजत्तियं पवहणं, निमियं गरुयभंडं । तओ पसत्थदियहम्मि निग्गओ धणो, गओ वेलाउलं । दिन्नं दणाणाहाण दविणजायं । संपूइओ जलनिही । अग्घियं जाणवत्तं । आरूढो खु एसो सह परियणे । उक्खित्ता नंगरा, आऊरिओ संखकुंदधवलो सियवडो ॥ तो लंघिउ पवत्तं कच्छ हक रिमयर नियर तिमिकलियं । संखउ लाउलदेसं पायातलं व गंभीरं ॥३४७॥ जलगयजल हरप डिमापडिवारणदंसणेण अच्चत्थं । दष्पुद्ध र करिमय रुच्छलं तसं खोहियत रंगं ॥ ३४८ ॥ अत्रान्तरे भणितो धन श्रिया नन्दकः - यथा व्यापादयाव एतम्, गच्छावोऽन्यत्र, किमावयोः समुद्रतरणेन ? नन्दकेन भणितम् - हा ! न युक्तमेतद्, स्वामी खल्वेषः सद्भावितश्च ततो न त्वया एतत्स्वप्नेऽपि चिन्तयितव्यमिति । ततश्चिन्तितं धनश्रिया -न एष एतद् व्यवस्यति, ततोऽहमेव केनचिदुपायेन एतत्करिष्यामीति । कृतस्तया नागदत्तापरिव्राजिकातो निशम्य आतङ्ककारकः कालान्तरनिपाती कार्मणयोग इति । अत्रान्तरे संयात्रितं प्रवहणम्, स्थापितं गुरुकभाण्डम् । ततः प्रशस्ते दिने निर्गतो धनः गतो वेलाकुलम् । दत्तं दीनानाथेभ्यो द्रविणजातम् । सम्पूजितो जलनिधिः । अधितं यानपात्रम् । आरूढः खल्वेषः सह परिजनेन । उत्क्षिप्ता नाङ्गराः, आपूरितः शङ्खकुन्दघवलः सितपटः । ततो (यानपात्रं ) लङ्घितुं प्रवृत्तं कच्छपकरिमकरनिकरतिमिकलितम् । शङ्खकुल | कुलदेशं पातालतलमिव गम्भीरम् || ३४७॥ जलगतजलधरप्रतिमप्रतिवारणदर्शनेन अत्यर्थम् । दप्र्पोद्धुरकरिमकरोच्छलत्संक्षोभिततरङ्गम् ॥ ३४८ ॥ इसी बीच धनश्री ने नन्दक से कहा कि इसको मार डालो, दोनों दूसरी जगह चलें, हम दोनों को समुद्र पार करने से क्या लाभ ? अर्थात् समुद्र पार करना व्यर्थ है । नन्दक ने कहा- "हाय ! यह ठीक नहीं है, यह स्वामी है और सद्भाव वाला है अतः तुम्हें स्वप्न में भी ऐसा नहीं सोचना चाहिए ।" तब धनश्री ने विचार किया - यह नहीं करेगा, अतः मैं ही किसी उपाय से यह कार्य करूँगी । उसने नागदत्ता परिव्राजिका से दुःसाध्य रोग वाला कार्मणयोग (उच्चाटन प्रयोग ) सुना । जहाज पर भारी माल रखा। तब उत्तम दिन में धन निकला और समुद्र के तट पर गया । दीन और अनाथों को धन दिया, समुद्र की पूजा की, जहाज को अर्घ्य दिया और परिजनों के साथ यह जहाज पर सवार हो गया। लंगर खोल दिये और शंख तथा कुन्द के सामान सफेद वस्त्र (पाल) को लगा दिया । ( आतंक) उत्पन्न कर बाद में मार देने इसी बीच जहाज जाने लगा, अनन्तर जहाज कछुआ, करि, मगर, तिमि (एक बड़े अकारवाली समुद्री मछली) और शंख से व्याप्त, पाताल के समान गहरे स्थान को लांघने लगा। हाथी के सदृश जलगत मेघ को देखने से अत्यधिक अभिमान से मरे हुए करि और मगरों द्वारा उछाली हुई तरंगें क्षुब्ध हो रही थीं ॥ ३४७-३४८ ।। Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० [समराइचकहा वेलाउललवलीहरनिसण्णगधव्वमिहुणरमणिज्जं । होरिंदनीलमरगयमऊहपरिरंजियजलोहं ॥३४६॥ मलयाचलदरिमंदिरनिसण्णसिद्धबहुपुलइयसुवेलं । कप्परसंडमंडियहिंदकरिदलियवियडतडं ॥३५०॥ पवणधुयजललवाहयसइसरसरसंततीरतालवणं । विद्दुमलयाहिरामं सिंधुवई पवणवेगेण ॥३५१॥ एवं च जाव कइवयदियहे(हा) गच्छिंति, ताव दिन्नो धणसिरोए जोओ पुत्ववण्णिओ धणस्स । गहिओ य एसो थेवदियहेहि चेव अकयपडियारो महावाहिणा । जायं से महोयरं परिसुक्काओ भूयाओ, उस्सूणं वयणं, गंडियाओ जंघाओ, फुडिया करचरणा, न रोयइ से भोयणं बाहिज्जइ तिसाए, न चिट्ठइ पीयमुदयमुदरम्मि । तओ विसण्णो धणो। चितियं च तेण । किमेवमयंडे चेव पावविलसियं । अहवा नत्थि अयालो पावविलसियस्स । ता किं करेमि ? उत्तम्मइ वेलाकुल लवलीगहनिषण्णगान्धर्वमिथुनरमणीयम् । हीरेन्द्रनीलमरकतमयूखप्रतिरञ्जितजलौघम् ॥३४६॥ मलयाचलदरोमन्दिरनिषण्ण सिद्धवधप्रलोकितसुवेलम् । कर्पूरषण्डमण्डित-महेन्द्रकरिदलितविकटतटम् ॥३५०।। पवनधत-जललवाहत-सदासरसरसत्तीरतालवनम् । विद्रुमलताभिरामं सिन्धुपति पवनवेगेन ॥३५१॥ एवं यावत् कतिपयदिवसा गच्छन्ति तावद् दत्तो धनश्रिया योगः पूर्ववणितो धनस्य । गृहोतश्च एष स्तोकदिवसैरेव अकृतप्रतिकारो महाव्याधिना । जातं तस्य महोदरम्, परिशको मुजी, उच्छूनं वदनम्, गण्डिके (गलिते ?) जङ्घ स्फुटितो करचरणौ, न रोचते तस्य भोजनम्, बाध्यते तृषा, न तिष्ठति पीतमदकमदरे । ततो विषण्णो धनः । चिन्तितं च तेन–किमेवमकाण्डे एवं पापविलसितम्। अथवा नास्ति अकालो पापविलसितस्य । ततः किं करोमि? उत्ताम्यति में परिजनः, विषण्णा समुद्र के तटपर लवली नामक पीले रंग की एक लता से बने हुए घर में बैठा हुआ गन्धों का जोड़ा रमणीय लग रहा था। हीरा, इन्द्रनील और मरकत-मणियों की किरणों से जलसमूह रंजित हो रहा था। कपूर के समूह से जो मण्डित है तथा ऐरावत हाथी के द्वारा जिसके भयंकर तटों को उखाड़ा गया है ऐसे चित्रकूटाचल पर्वत को मलयपर्वत की गुफारूपी मन्दिर में बैठी हुई सिद्धवधुएँ देख रही थीं। वायु के द्वारा उड़ाये हुए जल के समूह से आहत किनारे का ताल का वन सदा सरस शब्द कर रहा था। वायु के वेग से समुद्र मूंगों के कारण मनोहर लग रहा था ॥ ३४६-३५१॥ इस प्रकार जब कुछ दिन बीते तब धनश्री ने धन को पूर्ववणित योग दे दिया। इसके लेने से जिसका प्रतिकार नहीं किया जा सकता, ऐसे बहुत बड़े रोग ने उसे जकड़ लिया । उसका पेट बड़ा हो गया, दोनों भुजाएँ सूख गयीं, मुंह सूख गया, जांघे गल गयीं, हाथ-पैरों में फोड़े हो गये । उसे भोजन के प्रति अरुचि हो गयी, प्यास सताने लगी, पेट में पानी भी नहीं ठहरता था। तब धन दुःखी हो गया। उसने सोचा-क्या असमय में ही पापकर्म का विलास हो गया अथवा पाप के विलास के लिए कोई असमय नहीं है। अतः क्या करूँ ? मेरे परिजन Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पात्यो भयो] २४१ मे परियणो, विसण्णा धणसिरी, पव्वायवयणो य नंदओ। तां कि इमम्मि चेव रयणायरे वावाएमि अप्पाणयं ति । अहवा न एवमेएसि सुहं होइ, अवि य अहिययरं दुहं ति । न य अकयपडियारस्स इमं कापुरिसचेट्ठियं जुज्जइ। भणियं च अंबाए 'अविसाइणा होयव्वं' ति । पच्चासन्नं च जहासमोहियं अवरकूलं । ता इमं ताव एत्थ पत्तकालं, नंदयं चेव भंडसामित्तणे निउंजामि । विचित्ताणि खु विहिणो विलसियाणि । को जाणइ, कि भविस्सइ त्ति? एसो य ताव तायसुकयं मम य भाइणेहं बहु मन्नमाणो एयं धणसिरि बंधवहत्थगयं करिस्सइ त्ति चितिऊण भणिओ य तेणं नंदओ धणसिरी य। वयंस नंदय, कंपपरिणइवसेण एसा मे अवत्था, पच्चासन्नं च जहिच्छियं अवरकलं, अणेगावायपीडियं च जीवियं सव्वसत्ताणं चेव विसेसओ वाहिपीडियसरीराणं अम्हारिसाणं ति । अहिछेहि इमं रित्थं, तुमं चेव एत्थ नायगो, समुत्तिण्णस्स य मे भयवंतं जलनिहिं पच्छन्नस्सेव जहोचियं उवक्कमकरेज्जासि । तओ जइ मे रोगावगमो भविस्सइ, तओ सुंदरं चैव; अन्नहा उ तायसुकयं बहुमन्नमाणेण ममं च भाउयसिणेहं पावियव्वा तए बंधवाणं एसा भत्तारवच्छला धणसिरी। सुंदरि, तए वि य इमो मोत्तूण पावं अहं विय दट्टव्वो, न खंडियव्वं इमस्स वयणं। एत्थंतरम्मि सदुक्खं चेव परुन्नो नंदओ धनश्री:, म्लानवदनश्च नन्दकः । ततः किमस्मिन्नेव रत्नाकरे व्यापादयाम्यात्मानमिति। अथवा न एवमेतेषां सुखं भवति, अपि च अधिकतरं दुःखमिति । न चाकृतप्रतिकारस्येदं कापुरुषचेष्टितं युज्यते। भणितं चाम्बया 'अविषादिना भवितव्यम्' इति। प्रत्यासन्नं च यथासमीहितमपरकुलम् । तत इदं तावदत्र प्राप्तकालम्, नन्दकमेव भाण्डस्वामित्वे नियुनज्मि । विचित्राणि खलु विधेविलसितानि । को जानाति किं भविष्यतीति? एष च तावत् तातसुकृतं मम च भ्रातृस्नेहं बहु मन्यमानं एतां धनश्रियं बान्धवहस्तगतां करिष्यतीति चिन्तयित्वा भणितश्च तेन नन्दको धनश्रीश्च । वयस्य नन्दक ! कर्मपरिणतिवशेन एषा मेऽवस्था, प्रत्यासन्नं च यथेष्टमपरकुलम्, अनेकापायपीडितं च जीवितं सर्वसत्त्वानामेव, विशेषतो व्याधिगीडितशरीराणामस्मादशामिति । ततोऽधितिष्ठ इदं रिक्थम्, त्वमेवात्र नायकः, समुत्तीर्णस्य च मे भगवन्तं जलनिधिं प्रच्छन्नस्यैव यथोचितमपक्रम कुर्याः । ततो यदि मे रोगापगमो भविष्यति ततः सुन्दरमेव, अन्यथा तु तातसुकृतं बह मन्यमानेन मम च भ्रातृस्नेहं प्रापयितव्या त्वया बान्धवानामेषा भर्तृवत्सला धनश्रीः। सुन्दरि ! त्वयाऽपि चायं मुक्त्वा पापं अहमिव द्रष्टव्यः, न खण्डितव्यमस्य वचनम् । अत्रान्तरे सदुःखमेव प्ररुदितो नन्दकः, धनश्रीश्च घबड़ा रहे हैं, धनश्री दुःखी है और नन्दक का मुंह फीका हो रहा है । अतः क्या इसी समुद्र में अपने को मार डालूं ? अथवा इन लोगों को इस प्रकार सुख नहीं होगा अपितु और अधिक दुःख होगा और इस रोग का प्रतिकार न करने की कायर पुरुषों की चेष्टा ठीक नहीं है। माता ने कहा था-विषाद रहित रहना । यथेष्ट परलोक समीपवर्ती है । मृत्यु का समय उपस्थित हो गया है, अतः नन्दक को ही माल का स्वामी नियुक्त करता हूँ। भाग्य की लीलाएँ विचित्र होती हैं। कौन जानता है, क्या होगा ? यह पिता के द्वारा किये गये सत्कर्म का और मेरे भ्रातृस्नेह का सम्मानकर इस धनश्री को बन्धु-बान्धवों को सौंपा देगा-ऐसा सोचकर उसने नन्दक और धनश्री से कहा-"मित्र नन्दक ! कर्मों के फलवश मेरी यह अवस्था है और परलोक निकट है। सभी प्राणियों का जीवन अनेक दुःखों से पीड़त है । विशेषकर मुझ जैसे रोग से पीड़ित शरीर वालों का । अत: इस सम्पत्ति के स्वामी होओ। तुम्ही इसके नायक हो, भगवान् समुद्र को पार करने पर गुप्त रूप से मेरे योग्य कार्य को करना । यदि मेरा रोग दूर हो जाता है तो सुन्दर ही है, नहीं तो पिता के स्नेह का सत्कार कर और मेरे प्रति भ्रातृ-स्नेह रखकर इस पतिभक्त धनश्री को बान्धवों तक पहुंचा देना । सुन्दरी, तुम भी पाप को छोड़कर इसे मेरी ही तरह मानना, इसकी आज्ञा का उलंघन मत करना।" इसी बीच दुख सहित नन्दक रोने लगा और धनश्री छल से रोने लगी। Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ [समराइच्चकहा धणसिरी य कइयवेणं । धणेण भणियं-वयंस नंदय, न एस कालो विसायस्स, ता अवलंबेहि पोरस, उज्झेहि काउरिसबहुमयं किलीवत्तणं, नियमेहि नियहिययम्मि कालोचियं कज्जं। सुंदरि, तुमं पि परिच्चय इत्थीयणहिययरायहाणिसोयं, विसुमरेहि चितायासकारिणं सिणेहं, अवलंबेहि कज्ज। एत्थ खलु सो पुरिसो इत्थिया वा पसंसिज्जइ, जो कालन्नू । कालन्नू य संतो उच्छाहवंतो अवस्समावयं लंघइ ति।। तओ पडिवन्नमणेहिं धनसासणं। पत्ताणि महाकडाहं नाम दीव । गओ नंदओ घेत्तूण पाहुडं नरवइमवलोइउं । बहुमन्निओ राइणा। दिन्नमावासत्थामं । ओयारियं भंडं । उवणीया धणस्स वेज्जा। पारद्धो उवक्कमो । तख्जोगदाणओ न य से वाहो अवेइ । तओ चितियं नंदएणं । न नियदेसमपत्तस्स इमस्स एस वाही अवेइ ति, तओ न जुत्तमिह कालमक्खिविउं । तओ निओइयं भंडं, गहियं च पडिभंडं, सज्जियं जाणवत्तं । दिट्ठो नरवई, संपूइओ तेण । पयट्टो नियदेसमागंतुं। अइक्कतेसु कइवयपयाणएसु' चितियं धणसिरीए। कहं न विवन्नो एसो। सदेसमबगयाए य दुल्लहो एयस्स वावायणोवाओ, जोवमाणो य एसो निच्च मे हिययसल्लभूओ त्ति। ता इमं कैतवेन । धनेन भणितम्-वयस्य नन्दक ! न एष कालो विषादस्य, ततोऽवलम्बस्व पौरुषम्, उज्झ कापुरुषबहुमतं क्लीवत्वम्, नियमय निजहृदये कालोचितं कार्यम्। सुन्दरि ! त्वमपि परित्यज स्त्रीजनहृदय राजधानीशोकम्, विस्मर चिन्ताऽऽयासकारिणं स्नेहम्, अवलम्बस्व कार्यम् । अत्र खलु स पुरुषः स्त्री वा प्रशस्यते यः कालज्ञः । कालज्ञश्च सन् उत्साहवान् अवश्यमापदं लङ्घयतीति । ततः प्रतिपन्नमाभ्यां धनशासनम् । प्राप्ता महाकटाहं नाम द्वोपम् । गतो नंदको गहीत्वा प्राभृतं नरपतिमवलोकितुम् । बहु मतो राज्ञा । दत्तमावासस्थानम् । अवतारितं भाण्डम् । उपनोता धनस्य वैद्याः । प्रारब्ध उपक्रमः । तद्योगदानतो न च तस्य व्याधिरपैति । ततचिन्तत नन्दकेन । न निजदेशमप्राप्तस्यास्य एष व्याधिरपैतीति, ततो न युक्तमिह कालमाक्षप्तुम् । ततो नियोजितं (विक्रीतं) भाण्डम्, गृहीतं च प्रतिभाण्ड, सज्जितं यानपात्रम्, दृष्टो नरपतिः, सम्पूजितस्तेन, प्रवृत्तो निजदेशमागन्तुम् । ___ अतिक्रान्तेषु कतिपयप्रयाणकेषु चिन्तितं धनश्रिया । कथ न विपन्न एषः । स्वदेशमुपगतया च दुर्लभ एतस्य व्यापादनोपायः । जीवंश्च एप नित्य मे हृदय शल्यभूत इति । तत इदमत्र प्राप्तकालम् । धन ने कहा-"मित्र नन्दक!यह समय विषाद का नहीं है, अत: पौरुष का अवलम्बन करो। कायर पुरुषों के द्वारा सम्मानित नपुंसकता को छोड़ो। अपने हृदय में समयोचित कार्य का निश्चय करो। सुन्दरी ! तुम भी स्त्रियों के हृदय की राजधानी रूप शोक को छोड़ो, चिन्ता और परिश्रम के कारणभूत स्नेह को भूल जाओ, कार्य का अवलम्बन करो। ऐसे मौके पर तो वही स्त्री अथवा पुरुष प्रशंसनीय होता है जो समय को जानने वाला हो। उत्साही व्यक्ति, समय को जानता हुआ अवश्य ही आपदाओं को लाँघ जाता है ।" अनन्तर इन दोनों ने धन की आज्ञा मान ली। महाकटाह द्वीप पर आये । नन्दक भेंट लेकर राजा का दर्शन करने गया। राजा ने सम्मान दिया, रहने का स्थान दिया। माल को उतारा। धन के लिए वद्य लाये गये। इलाज शुरू हआ। उनके इलाज से इसका रोग दूर नहीं हआ। तब नन्दक ने सोचा-बिना अपने देश को पहुँचे इसका रोग दूर नहीं होता अत: यहां पर समय गँवाना ठीक नहीं है। अनन्तर माल को बेचा और उसके बदले दूसरा माल लिया, जहाज में किये, उसने आदर किया, अपने देश को आने के लिए चल पड़े । कुछ रास्ता तय करने के बाद धनश्री ने सोचा- यह क्यों नहीं मरा। अपने देश में पहुँचकर इसके मारने का उपाय दुर्लभ हो जायगा । जीता हुआ यह नित्य मेरे लिए शल्य के समान है । अब यह समय आ गया है। यह 1. दिये हेसु-ख, २. णिच्चमेव-ख। Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडत्यो भवो] २४३ एत्थ पत्तकालं'। ठाइ चेव एसो पादक्खालयम्मि रयणीए, तओ इमम्मि चेव जलयरसत्तभासुरे सायरे पक्खिवामि त्ति । पक्खित्तो य एसो चवलभावओ जाणवत्तस्स अंधयारयाए रयणीए तहन्भट्ठो चेव निस्संसयं न भविस्सइ । एवं च कए समाणे एसो वि नंदओ मे सासओ भविस्सइ त्ति चितिऊण संपाइयं धणसिरीए जहासमोहियं । पक्खित्तो जमावसेसाए रयणीए पादक्खालयनिमित्तमुट्ठिओ पायालगंभीरे समुद्दम्मि सत्थवाहपुत्तो। ठिया कंचि कालं । कओ तीए हाहारवो । उढिओ नंदओ। पुच्छिया एसा 'सामिणि ! किमेयं किमयं' ति । तओ सा अत्ताणमणुताडयंती सदुक्खमिव अहिययरं रोविउं पवत्ता। 'हा अज्जउत्त हा अज्जउत्त' त्ति भणंती निवडिया धरगिवढे । तओ नंदएण संजायासंकेण सत्थवाहपुत्तसेज्जं निरूविय तमपेक्खमाणेण सगग्गयक्रं पुणो वि वाहित्ता 'सामिणि, किमेयं किमेयं' ति । धणसिरीए भणियं-एसो खु अज्जउत्तो आयमणनिमित्तमुट्टिओ पमायओ समुद्दे निवडिओ त्ति। तओ एयमायण्णिऊण बाहजलभरियलोयणो तन्नेहमोहियमई तम्मि चेव अत्ताणयं पक्खि विउमाढत्तो नंदओ, धरिओ परियणेण। तओ अच्चंतसोयाणलजलियमाणसो 'न एत्थ उवायंतरं कमइ' त्ति तिष्ठत्येव एष पादक्षालने रजन्याम्, ततोऽस्मिन्नेव जलचरसत्त्वभासुरे सागरे प्रक्षिपामोति । प्रक्षिप्तश्च एष चपलभावतो यानपात्रस्य अन्धकारतया रजन्यां तयाभ्रष्ट एव निःसंशयं 'एवं च कृते सति एषोऽपि नंदको मे शाश्वतो भविष्यति' इति चिन्तयित्वा सम्पादितं धनश्रिया यथासमोहितम् । प्रक्षिप्ता यामावशेषायां रजन्यां पादक्षालननिमित्तमुत्थितः पातालगम्भोरे समुद्रे सार्थवाहपुत्रः । स्थिता कञ्चित्कालम् । कृतस्तया हाहारवः । उत्यितो नन्दकः । पृष्टैषा-'स्वामिनि ! किमेतद् कि प्रेतद्' इति । ततः साऽऽत्मानमनुताडयन्ती सदुःखमिव अधिकतरं रोदितुं प्रवृत्ता । 'हा आर्यपुत्र!हा आर्यपुत्र!' इति भणन्ती निपतिता धरणीपृष्ठे । ततो नन्दकेन सजाताशङ्कन सार्थवाहपुत्रशय्यां निरूप्य तमप्रेक्षमाणेन सगद्गदाक्षरं पुनरपि व्याहृता 'स्वामिनि ! किमेतद् किमेतद्' इति । धनश्रिया भणितम्-एष खलु आर्यपुत्र आचमननिमित्तमुत्यितः प्रमादतः समुद्रे निपतित इति । तत एवमाकर्ण्य वाष्पजलभृतलोचनस्तत्स्नेहमोहितमतिस्तस्मिन्नेवात्मानं प्रक्षिप्तुमारब्धो नन्दकः । धृतः परिजनेन । ततोऽत्यन्तशोकानलज्वलितमानसः 'नात्रोपायान्तरं क्रमते' इति विषण्णः । धारितस्तेन पैर धोने के लिए रात में बैठता है अत: जलचर जीवों से देदीप्यमान समुद्र में इसे फेंक दूंगी। फेंकने पर जहाज की तेजी तथा रात्रि के अन्धकार के कारण यह गिरते ही निःसन्देह रूप से मर जायेगा। ऐसा करने पर यह नन्दक भी मेरे लिए सदा का हो जायगा -ऐसा सोचकर धनश्री ने इष्टकार्य कर लिया। रात्रि का प्रहर मात्र शेष रह जाने पर जब वणिक्पुत्र पैर धोने के लिए उठा तो इसने पाताल के समान गहरे समुद्र में फेंक दिया। कुछ देर तक ठहरी । (अनन्तर) उसने हाहाकार किया। नन्दक उठा। इसने पूछा-"स्वामिनि ! यह क्या है ? क्या है ?" तब वह अपने को पीटती हुई मानो दु:खी हो रही हो, और अधिक रोने लगी। 'हाय आर्यपुत्र!हाय आर्यपुत्र !' इस प्रकार कहती हुई पृथ्वी पर गिर पड़ी। तब नन्दक ने आशंकित होकर वणिकपुत्र की शैया को देखकर तथा उसे न पाकर गद्गद अक्षरों में पुनः कहा-"स्वामिनि!यह क्या है ? यह क्या है?" धनश्री ने कहा"यह आर्यपुत्र पानी पीने के लिए उठे थे, प्रमादवश समुद्र में गिर पड़े।" यह सुनकर आँखों में आँसू भरकर उसके स्नेह से मोहित बुद्धिवाला नन्दक अपने आपको गिराने लगा। परिजनों ने पकड़ लिया । अनन्तर अत्यधिक दुःखरूपी अग्नि में जिसका मन जल रहा है-ऐसा नन्दक 'यहाँ पर दूसरा कोई उपाय नहीं किया जा सकता है, यह १. पत्तयालं-ख, २. पाउक्खा ...-। Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ [समराइचकहा विसण्णो । धराविओ तेण वोहित्थो । अन्नेसिऊण गोसे उच्चाइया नंगरा, पयट्टो सदुक्खं अहिप्पेयदेसाभिमुहो। इओ य सो सत्थवाहपुत्तो पदणसमणंतरमेव समासाइयपुवभिन्नवोहित्थफलगो सत्तरत्तेण समत्तरिऊण सायरं लवणजलासेवणविगयवाही संपत्तो तीरभायं। उत्तिण्णो सायराओ पुणो जायमिव अत्ताणयं मन्नमाणो उवविट्ठो तिमिरपायवसमोवे। चितियं च तेणं-अहो मायाबहुलया इत्थियावग्गस्स, अहो निसंसया धणसिरीए, अहो असरिसो ममोवरि वेराणुबंधो, अहो लहुइयं उभयकुलमिमीए। ता कि पुण से इमस्स ववसायस्स कारणं? अहवा अविवेयबहुले इत्थियायणे को कारणं पुच्छइ त्ति ? इत्थिया हि नाम निवासो दोसाणं, निमित्तं साहसाणं, उप्पत्तो कवडाणं, खेत्तं मसावायस्स, दुवारं असेयमग्गस्स, आययणमावयाणं, सोवाणं नरयाणं, अग्गला कुसलपुरपवेसस्स । ता किं इमिणा चितिएणं, कज्जं चितेमि । न एस कालो एयस्स आलोचियवस्स, अवि य उच्छाहस्स। 'उच्छाहममुंचमाणो पुरिसो अवस्सं चेव ववसायाणरूवं फलं पावेइ, न य अतोयवथुचिता दढ कायव' त्ति वुड्ढवाओ। थेवं चिमं पओयणं पुरिसस्स, गरुयं च जणणिजणया; ते य मे सुंदरा चेव त्ति बोहित्थः । अन्वेष्य प्रातरुत्याजिता नाङ्गराः, प्रवृत्तः सदुःखमभिप्रेतदेशाभिमुखः। इतश्च स सार्थवाहपुत्रः पतनसमनन्तरमेव समासादितपूर्वभिन्नबोहित्थफलकः सप्तरात्रेण समुत्तीर्य सागरं लवणजलासेवनविगतव्याधिः सम्प्राप्तस्तोरभागम् । उत्तीर्णः सागरात् पुनर्जातमिवात्मानं मन्यमान उपविष्टः तिामरपादपसमीपे। चिन्तितं च तेन–'अहो मायाबहुलता स्त्रीवर्गस्य, अहो ! नृशंसता धनश्रियः, अहो ! असदृशो ममोपरि वैरानुबन्धः, अहो ! लघु कृतमुभयकुलमनया। ततः किं पुनस्तस्या अस्य व्यवसायस्य कारणम् ? अथवा अविवेकबहुले स्त्रीजने कः कारणं पच्छति इति ? स्त्रो हि नाम निवासी दोषाणाम्, निमित्तं साहसानाम्, उत्पत्तिः कपटानाम्, क्षेत्रं मृषावादस्य, द्वारमश्रेयोमार्गस्य, आयतनमापदाम्, सोपानं नरकानाम्, अर्गला कुशलपुरप्रवेशस्य । ततः किमनेन चिन्तितेन ? कार्यं चिन्तयामि, न १ष काल एतस्यालोचितव्यस्य, अपि चोत्साहस्य । 'उत्साहममुञ्चन् पुरुषोऽवश्यमेव व्यवसायानुरूपं फलं प्राप्नोति, न चातीतवस्तुचिन्ता दृढं कर्तव्या' इति वृद्धवादः । स्तोकं चेदं प्रयोजनं पुरुषस्य, गुरुकं जननीजनको, तौ च मे सुन्दरी एव-इति चिन्तयित्वा सोचकर दुःखी हो गया। उसने जहाज रोक लिया। खोज करने के बाद लंगर खोलकर दुःखसहित इष्ट देश की ओर चल पड़ा। इधर वह वणिक पुत्र गिरने के बाद पहले से नष्ट हुए जहाज का एक टुकड़ा प्राप्तकर सातरात्रियों में समुद्र पार कर, खारे जल का सेवन करने से रोग रहित होकर किनारे पहुंच गया। समुद्र से पार होकर अपना पुनर्जन्म मानता हुआ वह घनी छायावाले वृक्ष के निकट जा बैठा। उसने सोचा-स्त्रियों की माया का आधिक्य पाश्चर्यजनक है , ओह ! धनश्री की दुष्टता । मेरे ऊपर (उसका) इतना वैर आश्चर्यकारक है । अरे ! इसने तो दोनों कुलों को नीचा कर दिया। उसके इस कार्य का कारण क्या होगा? अथवा अविवेक की जिनमें प्रधानता रहती है ऐसी स्त्रियों का कौन कारण पूछता है ? स्त्री दोषों का निवास है, साहसों का कारण है, कपटों की उत्पत्ति है, झूठ बोलने का क्षेत्र है, अकल्याणकारी मार्ग का द्वार है, आपत्तियों का घर है, नरकों की सीढ़ी है, पुण्यनगर में प्रवेश करने की आगल है। अतः इस विचार से क्या लाभ ? अर्थात् यह सोचना व्यर्थ है, इसके विषय में विचार करने का यह समय नहीं है । अपितु उत्साह का समय है। उत्साह को न छोड़ता हुआ पुरुष अवश्य ही कार्य के अनुरूप फल को प्राप्त करता है, बीती हुई वस्तु की चिन्ता अधिक नहीं करनी चाहिए-ऐसा वृद्ध लोग कहते हैं । पुरुष का यह प्रयोजन थोड़ा है, माता-पिता भारी (अत्यधिक माननीय) हैं, वे दोनों मेरे लिए सुन्दर ही है-ऐसा | Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बजली भवा] २४५ चितिऊण उट्रिओ पायवसमीवाओ। गओ थेनं भमिभागं । दिदा य तेणं वहणभंगविवन्नाए सावत्थीनर इस्स सोहलदीवगामिणोए ध्याचेडियाए [तीसे चेव पिउसंतिगा चेडिया तीसे समप्पिया भंडारिणीए, विन्नम्मि य तम्मि वहणए समद्दवीईहिं घत्तिया कूले पंचत्तमुवगया सा चेडी तमुद्देसागएण दिट्ठा य तेणं तोसे'] उत्तरीयदेसम्मि तमुद्दे समुज्जोवयंती तेल्लोक्कसारा नाम रयणावलि त्ति । अवुज्झमाणेण य इमं वृत्तंतं 'परकेरिगाए वि इमीए ववहरिऊण पुणो पुणो इणमेव उद्दिसिय कुसलपक्खं करेस्सामि' त्ति चितिऊण गहिया य तेणं । पयट्टो विसयसंमुहं । दिट्ठो य तेणं जूययरवइयरवि मोइओ पवन्नकावालियवओ सुसिद्धगारुडमंतो मंतसाहणत्थं चेव समुद्दतडमहिवसंतो महेसरदत्तो । तेण वि एसो त्ति पंचभिन्नाओ। तेणं भणिओ य-सत्थवाहपुत्त, कुओ तुमं, कहं वा ते ईइसी अवस्था ? तओ 'न गेहदुच्चरियमन्नस्स पयासिउं जुज्जइ' ति चितिऊण भणियं धणेणं । जलनिहीओ अहं, वहणविओगओ ममेयं ईदिसी अवत्थ ति। महेसरदत्तण भणियं अवहिओ विही उन्नयाणं भंगेसु, सुचंचला सिरि' ति सच्चो लोयवाओ। किलेसायासबहुलो गिहवासो, जण भवओ वि कप्पपायवस्स उत्थितः पादपसमोपात् गतः स्तोकं भूमिभागम् । दृष्टा च तेन वहनभङ्गविपन्नायाः श्रावस्तीनरपतेः सिंहलद्वोपगामिन्या दुहितचेटिकायाः [तस्या एव पितृसत्का चेटिका तस्याः समर्पिता भाण्डागारिण्याः, विपन्ने च तस्मिन् वहनके समुद्रवोचिभिः क्षिप्ता कूले पञ्चत्वमुपगता सा चेटी, तमुद्देसमागतेन दृष्टा च तेन तस्याः] उत्तरीयदेशे तमुद्देशमुद्योतयमाना त्रैलोक्यसारा नाम रत्नावली इति । अबुध्यमानेन चेमं वृत्तान्तं परकीययाऽप्यनया व्यवहार्य पुनः पुनरिदमेवाद्दिश्य कुशलपक्षं करिष्यामि' इति चिन्तयित्वा गृहीता तेन । प्रवृत्तो विषयसम्मुखम् । दृष्टश्च तेन घ्तकारव्यतिकरविमोचितःप्रपन्नकापालिकवतः सुसिद्धगारुडमन्त्रो मन्त्रसावनार्थमेव समुद्रतटमधिवसन् महेश्वरदत्तः। तेनापि एष इति प्रत्यभिज्ञातः । तेन भणितश्च-सार्थवाहपुत्र!कुतस्त्वम्, कथं वा ते ईदशी अवस्था ? ततो 'न गेहदुश्चरितमन्यस्य प्रकाशितुं युज्यते' इति चिसयित्वा भणितं धनेन-जलनिधिताऽहम; वहनवियोगतो ममेयमोदशी अवस्था इति । महेश्वरदत्तेन भणितम्-'अवहितो विधिरुन्नतानां भङ्गष, सुचञ्चला श्री.'-इति सत्यो लोकवादः। क्लेशायासबहुलो गेहवासः, येन भवतोऽपि कल्प विचारकर पेड़ के समीप से उठ गया। थोड़ी दूर गया । उसने सिंहलद्वीप की ओर जाने वाली श्रावस्ती के राजा की पुत्री की दासी, जो कि जहाज टूट जाने के कारण मर गयी थी, के दुपट्टे में उस स्थान को चमकाती हुई तीनों लोकों की सारभूत रत्नावली को देखा। (पुत्री के पिता ने साथ में दासी भेजी थी, जिसे भण्डारी ने रत्नावली दी थी, जहाज टूट जाने पर समुद्र की तरंगों ने उसे किनारे पर फेंक दिया और वह मर गयो, उस स्थान पर आकर इसने उसे देखा)। इस वृत्तान्त को न जानने के कारण दूसरे की होने पर भी इससे व्यापार करूँगा, इस प्रकार पुन:-पुनः सोचकर उसने रत्नावली ले ली। देश के समीप चला। उसने जुआरियों से सम्बन्ध छोड़कर कापालिकव्रत को धारण किये हुए महेश्वरदत्त को समुद्र के किनारे निवास करते हुए देखा। उसे गारुडमन्त्र भली प्रकार सिद्ध हो गया था और मन्त्रसाधन हेतु समुद्र के तट पर रह रहा था । उसने भी इसे पहचान लिया । उसने कहा- "वणिक्पुत्र!तुम कहाँ से ? तुम्हारी यह अवस्था कैसे है ?" अनन्तर घर के पत्नी के) दुश्चरित को दूसरे पर प्रकट नहीं करना चाहिए-ऐसा सोचकर धन ने कहा--"मैं समुद्र से आया हूँ, जहाज से वियुक्त होने के कारण मेरी यह अवस्था है।" महेश्वरदत्त ने कहा-"उन्नत वस्तुओं या व्यक्तियों को नष्ट करने में भाग्य सावधान १. अयं कोष्ठान्तर्गत: पाठोऽधिक: ख-पुस्तक हरितालेन परिमाजितश्च । Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ प [समराहच्चकहा विय परहियसंपायणामेत्तफलजम्मस्स ईदिसि अवत्थ त्ति। अहवा थेवमेयं । एणट्ठो वि ससी कालजोगओ अचिरेणं चेव संपुषणयं पावइ, विसमद साविभाए य वट्टमाणा देवा वि परिकिलेसभाइणो हवंति, किमंग पुण मच्चलोयवासो जणो । ता न तए संतप्पियव्वं । आवयाए वज्जकढिणहियया चेव महापुरिसा हवंति । उवयारिणी य आवया; जओ नज्जइ इमोए सज्जणासज्जगविसेसो, लक्खिज्जए अणुरत्तेयर परियणो, गम्मति अत्तगो भागधेणि, निवडइ निच्चपच्छन्नो पुरिसयारो। नाऽणलमसंपत्तरस कालागरुस्त सव्वहा गंधोवलद्धी हवइ । 'न चिरकालठाइगी य एसा आक्य' त्ति लक्खगानो अवगच्छामि त्ति। अन्नं च -- भवओ विहवो व्व साहरणो चेव मे एस खणमेत्तपीडागरो परिहिलेसो। परिवत्तसव्वसंगो य संपयमहं । ता कि ते उवारेमि? तहा वि गेण्हाहि एवं पढियमेत्तसिद्धं तक्खयाहिदटूस्स वि पाणधारयं भय या विणयागंदणेण पणीयं गारुडमतं ति। भविस्स: य इमिगा वि भनओ सविहवेग विय परमत्यसंपायगं ति । धणेण चितियं - अहो से अकारणवच्छलत्तणं। अहवा दुहियसत्तपच्छलो वेव मुगिजणो होइ। उ(अ)वियाक ओवयारो य कहमहमिमस्स संतियं पादपस्येव परहितसम्पादनमात्रफल जन्मन ईदृशी अवस्थेति । अथवा स्तोकमिदम् प्रनष्टोऽपि शशी कालयोगतोऽचिरेणैव सम्पूर्णतां प्राप्नोति । विषमदशाविभागे च वर्तमाना देवा अपि परिक्ले शभाजो भवन्ति, किमङ्ग पुनमर्त्यलोकवासो जनः । ततो न त्वया सन्तपितव्यम् । आपदि वज्रकठिनहृदया एव पुरुषा भवन्ति । उपकारिणी चापद्, यतो ज्ञायतेऽनया सज्जनासज्जन विशेषः, लक्ष्यते अनुरक्तेतरपरिजनः, गम्यन्ते आत्मनो भागधेयानि, निष्पद्यते नित्यप्रछन्नः पुरुषकारः। नानलमसम्प्राप्तस्य कालागुरोर्गन्धोपलब्धिर्भवति । 'न चिरकालास्थायिनी चैषाऽऽपद्' इति लक्षणतोऽवगच्छामीति । अन्यच्च-भवतो विभव इव साधारण एव मे एष क्षणमात्रपीडाकरः परिक्लेशः । परित्यक्तसर्वसङ्गश्च साम्प्रतमहम् । ततः किं तवोपकरोमि ? तथापि गृहाणैतं पठितमात्रसिद्धं तक्षकाहिदष्टस्यापि प्राणधारकं भावता धिनतानन्दनेन प्रणीतं गारुडमन्त्रमिति । भविष्यति चानेनापि भवतः स्वविभवेनेव परार्थसम्पादन मिति । धनेन चिन्तितम्-अहो!अस्याकारणवत्सलत्वम् अथवा दुःखितसत्त्ववत्सल एव मुनिजनो भवति । अपि च-'अकृतोपकारश्च कथमहमस्य सत्कं गृह्णामि' इति चिन्तयित्वा भणितं च है, लक्ष्मी चंचल होती है ऐसी जनश्रुति सत्य है । घर में रहने पर दुःख और परिश्रम की बहुलता होती है । जिसके कारण कलावक्ष के समान दूसरे का हित करना ही जिसके जन्म का फल है, ऐसे आपकी भी यह अवस्था है अथवा यह बहुत छोटी-सी बात है। क्षीणप्राय हो जाने पर भी चन्द्रमा समय के योग से शीघ्र ही सम्पूर्णता को प्राप्त कर लेता है । विषम दशा के विभाग में वर्तमान देव भी दुःख के पात्र होते हैं, मनुष्यलोक के निवासी लोगों की तो बात ही क्या है ? अत: आपको दुःखी नहीं होना चाहिए । आपत्ति में पुरुष वज्र के समान कठोर हृदय वाले होते हैं। आपत्ति उपकारी है, जिससे सज्जन और असज्जन में भेद का पता लग जाता है। अनुरक्त और अननुरक्त परिजन दिखाई पड़ जाते हैं, अपने भाग्यों का "ता चलता है, नित्य छिपा हुआ पुरुषार्थ उत्पन्न होता है। अग्नि से संयोग हुए बिना कालागरु गन्ध की प्राप्ति नहीं होती है । 'यह आपत्ति चिरकाल तक ठहरने वाली नहीं है, ऐता मैं लक्षण से जान रहा हूँ। दूसरी बात यह है कि आपके वैभव के समान मेरे लिए सामान्यरूप से क्षणमात्र पीड़ा पहुंचाने वाला दुःख है । मैं इस समय समस्त आसक्तियों का त्यागी हूँ, अतः आपका क्या उपकार करूं? तो भी भगवान् गरुड के द्वारा प्रणीत इस गारुड यन्त्र को लो, इसके पढ़ने मात्र से ही तक्षक सर्प के द्वारा काटा गया प्राणी भी जीवित हो जाता है। अपने वैभव के अनुरूप इसी से ही आप दूसरे का प्रयोजन साधने वाले हो जायेंगे।" धन ने सोचा ...- इसका अकारण स्नेह आश्चर्यकारक है अथवा मुनिजन दुःखी प्राणी पर प्रेमभाव रखने वाले होते हैं । दूसरी बात यह भी है कि बिना इनका कुछ उपकार किये हुए मैं इनकी वस्तु कैसे ग्रहण कर लूं-ऐसा १.उवयाक...-ख। Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घनत्यो भवो] २४७ गेण्हामि त्ति चितिऊण भणियं च तेणं- भयवं, अणुग्गिहीओ म्हि; मम व सलचितणं चेव भयवओ उवयारो। न तवस्सिजणाणुग्गिहीरो अकल्लागं पावइ । पमाइगो य गिहत्था हवंति, उग्गाओ य मंतदेवयाओ। ता अलं मे मंतेण । महेतरदत्तेग भणियं सोमदेवओ निप्पच्चवाओ क्खु एसो । धणेण भणियं-तहा वि अलमिमेणं ति। महेसरदत्ते ग चितियं-अहो महाणुभावया सत्थवाहपुतस्स । नणमहमणेण न पच्चमिन्नाओ, तओ अकोवयारित्तणेण उवरोहसीलयाए न एवं गेण्हइ । ता पयासेमि से अप्पाणयं । चितिऊणं भणियं च तेण-सत्थवाहपुत्त, सुमरेहि मं तामलित्तीए जययरवइयरविमोइयं महेतरदत्तं । ता अलभन्नहा वियपिएणं। गेण्हाहि एवं, अन्नहा महई मे पीडा समुप्पज्जइ ति। तओ सुमरिऊण वृत्तंतं से 'कयत्थो एसो' ति चितिऊण 'हवइ महई एयस्त पीड' त्ति अवयच्छ्यि तदुधरोहभीरुणा भणियं धणेगं-भयवं, जं तुब्भे आगवेह । तओ दिनो महेसरदत्तेण मंतो, गहिओ धणेणं । गया तवोवणं । फणसादीएहि कया पा०.वित्ती। ठिओ एगदिवसं । अहिवंदिऊण महेसरदत्तं फेसिओ य तेणं पयट्टो विसयसंमुहं । नारंगाइसंपाइयाहारो य पयत्तगोवियरयणावली कालक्कमेण पत्तो साथि ति। तेन-भगवन् ! अनुगृहीतोऽस्मि, मम कुशलचिन्तनमेव भगवत उपकारः । न तपस्विजनानुगहीतोऽकल्याणं प्राप्नोति । प्रमादिनश्च गृहस्था भवन्ति, उग्राश्च मन्त्रदेवताः, ततोऽलं मे मन्त्रण ? महेश्वरदत्तेन भणितम्--सौम्यदेवतो निष्प्रत्यवायः खल्वेषः । धनेन भणितम्-तथापि अलमनेनेति । महेश्वरदत्तेन चिन्तितम्-अहो! महानुभावता सार्थवाहपुत्रस्य, नूनमहमनेन न प्रत्यभिज्ञातः, ततोऽकतोपकारित्वेनोपरोधशीलतया नैतं गलाति। ततः प्रकाशयामि अस्यात्मानम-इति चिन्तयित्वा भणितं च तेन–सार्थवाहपुत्र! स्मर मां ताम्रलिप्त्यां द्यूतकारव्यतिकरविमोचितं महेश्वरदत्तम्, ततोऽलमन्यथा विकल्पितेन । गहाणतम्, अन्यथा महती मे पोडा समुत्पद्यते-इति। ततः स्मृत्वा वृत्तान्तं तस्य 'कृतार्थ एषः' इति चिन्तयित्वा 'भवति महती एतस्य पीडा' इत्यवगत्य तदुपरोधभीरुणा भणितं धनेन-भगवन्तः ! यद् यूयमाज्ञापयत । ततो दत्तो महेश्वरदत्तेन मन्त्रः, गृहोतो धनेन । गतौ तपोवनम् । पनसादिभिः कृता प्राणवृत्तिः। स्थित एकदिवसम् । अभिवन्द्य महेश्वरदत्तं प्रेषितश्च तेन प्रवृत्तो विषयसम्मुखम् । नारङ्गादिसम्पादिताहारश्च प्रयत्नगोपितरत्नावलिः कालक्रमेण प्राप्तः श्रावस्तीमिति । सोचकर उसने कहा - "भगवन् ! मैं अनुगृहीत हूँ। मेरे प्रति सद्कामना ही भगवान् का उपकार है । तपस्विजनों से अनुगृहीत व्यक्ति अकल्याण को प्राप्त नहीं होता है और गृहस्थ लोग प्रमादी होते हैं तथा मन्त्र देवता उग्र होते हैं अतः मुझे मन्त्र मत दीजिए।" महेश्वरदत्त ने कहा---"इस मन्त्र के देवता सौम्य और विघ्न न करने वाले हैं।" धन ने कहा-"तो भी यह मत दीजिए।" महेश्वर दत्त ने सोचा-वणिकपुत्र की महानुभावता आश्चर्यकारक है, निश्चित ही इसने मुझे पहचाना नहीं है अत: उपकार न करने की रुकावट के कारण यह इसे नहीं लेता है । अतः अपने आपको इस पर प्रकट करता हूँ-ऐसा विचार कर उसने कहा-“सार्थवाह पुत्र ! मुझे ताम्रलिप्ती में जुआरियों के संसर्ग से छुड़ाया हुआ महेश्वरदत्त स्मरण करो (जानो) अत: दूसरे प्रकार से मत सोचो। इसे लो, अन्यथा मुझे बहुत पीड़ा उत्पन्न होगी।" ऐसा जानकर उसके अनुग्रह से डरने वाले धन ने कहा - "भगवन!जो आज्ञा दें।" तब महेश्वरदत्त ने मन्त्र दिया, धन ने ले लिया। दोनों तपोवन गये । कटहल आदि का भोजन किया । एक दिन ठहरे, महेश्वरदत्त की वन्दना कर उसके द्वारा भेजा जाकर वह देश की ओर चल पड़ा। नारंगी आदि का आहार कर प्रयत्नपूर्वक रत्नावली को छिपाकर कालक्रम से वह श्रावस्ती पहुंचा। Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीए य नयरीए तीए चेव रयणीए राइणो वियारधवलस्स तक्करहिं मुटु भंडायार तन्निमित्तं घेप्पंति भयंगप्पाया नयरवासिणो अन्ने य कप्पडियादओ ति। निजंति मंतिपरओ मच्चंति य परिक्खिउं । तओ सोधणो एयमायण्णिऊण दुवारओ चेव अन्नओगच्छमाणो गहिओ निउत्तपरिसेहि, भणिओ य 'भद्द, कओ तुम' ति? तेण भणियं - 'सुसम्मनयराओं' । तेहि भणियं-- कहिं वच्चिहिसि ? तेण भणियं - अग्गओ गओ आसि, संपयं तं चेव वच्चिहामि ति। तेहि भणियं- भद्द, न तए कुप्पियव्वं ति; अज्ज खु राइणो वियारधवलस्स केहिचि मुटु भंडायारं तन्निमित्तं च कप्पडिया तुर्भेहि आणेयव्व' त्ति निउता अम्हे । ता एहि, वच्चामो मंतिगेहं ति। धणेण भणियं - भद्द, अहमियाणि चेवेहागओ, नाहं एयकम्मयारी । ता कि तहिं गएणं । तेहि भणियं-निद्देसगारिणो अम्हे, ता अवस्सं गंतव्वं ति । अणिच्छमाणो वि हियएण नीओ मंतिगेहं, दंसिओ मन्तिस्स, भणिओ य तेणं'भह कओ तुम?' तेणं तं चेव सिटू ति । मंतिता भणियं-कि ते पाहेयमनं वा? तओ तेण लोहअन्नाणमोहियमणेणं अवियारिऊणं आयइं भणियं निवियप्पेणं-'न किंचि संसणिज्जं ति । मंतिणा तस्यां च नगर्यां तस्यामेव रजन्यां राज्ञो विचारधवलस्य तस्करैमष्टं भाण्डागारम् । तन्निमित्तं गृह्यन्ते भुजङ्गप्राया नगरवासिनोऽन्ये च कार्पटिकादय इति । नीयन्ते च मन्त्रिपुरतो मुच्यन्ते च परीक्षितुम् । ततः स धन एवमाकर्ण्य द्वारत एवान्यतो गच्छन् गृहीतो नियुक्तपुरुषैः भणितश्च-भद्र! कुतस्त्वमिति । तेन भणितम्-'सुशर्मनगरात् । तैर्भणितम्-क्व वजिष्यसि ? तेन भणितम्-अग्रतो गत आसम्, साम्प्रतं तदेव व्रजिष्यामीति । तैर्भणितम्-न त्वया कुपितव्यमिति अद्य खलु राज्ञो विचारधवलस्य केनचिद् मष्टं भाण्डागारम् । तन्निमित्तं च 'कार्पटिका युष्माभिरानेतव्याः'-इति नियुक्ता वयम् । तत एहि, ब्रजामो मन्त्रिगहमिति। धनेन भणितम्-भद्र ! अहमिदानीमेवेहागतः, नाहमेतत्कर्मकारी, ततः किं तत्र गतेन ? तैर्भणितम् -निर्देशकारिणो वयम्, ततोऽवश्यं गन्तव्यमिति । अनिच्छन्नपि हृदयेन नीतो मन्त्रिगृहम्, शितो मन्त्रिणः, भणितश्च तेन–भद्र! कुतस्त्वम् ? तेन तदेव शिष्टमिति । मन्त्रिणा भणितम्-किं तव पाथेयमन्यद वा ? ततस्तेन लोभाज्ञान मोहितमनसाऽविचार्य आयति भणितं निर्विकल्पैन-'न किंचित् शंसनीयमिति।' मन्त्रिणा भणितम् -- 'स्फुटं मन्त्रयेः' । तेन उसी नगर में उसी रात राजा विचारधवल के भण्डार में चोरी हुई थी। इस कारण दुष्ट नगरनिवासी और दूसरे जालसाज आदि पकड़े जा रहे थे । मन्त्रियों के सामने उन्हें ले जाया जा रहा था और परीक्षा के लिए छोड़े जा रहे थे। धन यह सुनकर द्वार से दूसरी ओर जाता हुआ नियुक्त पुरुषों के द्वारा पकड़ लिया गया और(उससे) पूछा गया-'भद्र!तुम कहाँ से आये ?" उसने कहा- "सुशर्मनगर से ।" उन्होंने कहा"-कहाँ जाओगे ! उसने कहा - "आगे जा रहा था अब वहीं जाऊँगा।" उन्होंने कहा- "आप कुपित मत होना, आज राजा विचारधवल के भण्डार की किसी ने चोरी कर ली । उस कारण 'जालसाज लोगों को तुम ले आओ' इसके लिए हम लोग नियुक्त किये गये हैं । अतः आओ, मन्त्रिगृह की ओर चलें । धनने कहा-"भद्र! मैं इसी समय यहाँ आया हूँ, मैं इस प्रकार का कार्य नहीं करता हूँ, अतः मेरे वहाँ जाने से क्या लाभ ?" उन्होंने कहा- "हम लोग आज्ञा मानने वाले हैं अतः अवश्य ही जाना पड़ेगा। हृदय से न चाहता हुआ भी वह मन्त्रिगृह ले जाया गया । मन्त्री ने देखा और उससे पूछा-"भद्र ! तुम कहाँ से आये, उसने वही उत्तर दिया। मन्त्रीने कहा-"तुम्हारे पास नाश्ता या कुछ भी है ?" तब उसने लोभ और अज्ञान से युक्त मन वाला होकर, बिना भावी फल विचारे निर्विकल्प रूप से कहाऔर "कुछ भी संशय नहीं करना चाहिए ।' मन्त्री ने कहा- "ठीक बोलते हो ?' उसने कहा-"आपसे भी झूठ Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्यो भवो ] २४६ भणियं 'फुडं मंतेज्जासि' । तेण भणियं - किं भवओ वि अन्नहा निवेईयइ ति । मंतिणा भणियं -- जह एवं, ता गच्छ । तओ गच्छमाणो तत्थेव भवगंगणे कहिंचि पमायछुडिएण गहिओ वंदुरा पवंगमेण । फालियं से निवसणं । एत्थंतरस्मि तमुद्देसमुज्जोवयंती सत्तरितिमाला विय निर्वाडिया उड्ढिगाओ तेलोक्कसारा रयणावलि त्ति । दिट्ठा मंतिणा, मोयावियो पवंगमाओ, गहिया रयणावली पच्चभिन्नाया य | भिन्नं मंतिहिययं । नूणं अकुसलं रायधूयाए, अन्नहा कुओ इयं एयरस ? पुच्छिओ खु एसो - भद्द, कुओ तुह एसा ? तओ सलज्जं भणियं धणेण -- कयावि अहं खु जाणवत्तेण महाकडाहं एसा कीया। विवन्नं च मे आगच्छमागस्स तं जाणवत्तं । तओ एद्दहमेत्तरित्थसामी भयवया देव्वेण संपाइओ म्हि । मंतिणा भणियं- कया कीय त्ति ? धणेण भगियं-- अत्थि वासमेतं । मंतिणा चितियं । तिमासमेत्तो कालो एयाए विइन्नाए, दुमासमेत्तो य कालो रायधूयाए ओ गयाए, एसो य एवं जंपइ त्ति, ता कहमेयं ? अवलत्ता य एसा एएणासि, असंबद्धपलावी खु एसो, देवरस निवेएमि । निवेइयं मंतिणा । आउलीहूओ राया । निरूविया रयणावली । हक्कारिऊण इंसिया भंडगारिगाणं, पच्चभिन्नाया य तेहिं । तओ राइणा चिंतियं - वावाइया मुट्ठा वाणेण मे भणितम् - किं भवतोऽप्यन्यथा निवेद्यते इति । मन्त्रिणा भणितम् - यद्य वं ततो गच्छ । ततो गच्छन् तत्रैव भवनाङ्गणे कथञ्चित् प्रमादात् छुटितेन गृहीतो मन्दुराप्लवङ्गमेन । स्फाटितं तस्य निवसनम् । अत्रान्तरे तमुद्देशमुद्द्योतयन्ती सप्तर्षिमालेव निपतिता ऊविकात् (वस्त्रविशेषात् ) त्रैलोक्यसारा रत्नावलिरिति । दृष्टा मन्त्रिणा, मोचितः प्लवङ्गमात् गृहीता रत्नावली प्रत्यभिज्ञाता च । भिन्नं ( व्याकुलं) मन्त्रिहृदयम् । नूनमकुशलं राजदुहितुः, अन्यथा कुत इयमेतस्य ? पृष्टः खल्वेषः - भद्र 1 कुतस्तवैषा ? ततः सलज्जं भणितं धनेन - कदाचिदहं खलु यानपात्रेण महाकटाहं गत आसम् तत्र मया एषा क्रीता । विपन्नं च मे आगच्छतस्तद् यानपात्रम्, तत एतावन्मात्ररिक्थस्वामी भगवता देवेन सम्पादितोऽस्मि । मन्त्रिणा भणितम्- -कदा क्रीतेति ? धनेन भणितम् - अस्ति वर्ष मात्रम् । मन्त्रिणा चिन्तितम् - त्रिमासमात्रः काल एताया वितीर्णायाः, द्विमासमात्रश्च कालो राजदुहितुरितो गतायाः, एष च एवं जल्पतीति ततः कथमेतत् ? अपलापिता चैषा एतेनासीत्, असम्बद्धप्रलापी खल्वेषः, देवाय निवेदयामि । निवेदितं मन्त्रिणा । आकुलीभूतो राजा । निरूपिता रत्नावली । कार्य दर्शिता भाण्डागारिणः, प्रत्यभिज्ञाता च तैः । ततो राज्ञा चिन्तितम् - व्यापादिता मुष्टा I मन्त्री ने कहा- "यदि ऐसा है तो जाओ ।" तदनन्तर जाते हुए उसी भवन के आँगन में किसी प्रकार प्रमाद से छूटी हुई पोटली को अश्वशाला के बन्दर ने ले लिया । (बन्दर ने पोटली के वस्त्र को फाड़ा। इसी बीच उस स्थान पर चमकती हुई सप्तर्षिमाला के समान तीनों लोकों की सारभूत रत्नावली ऊविका नामक वस्त्र से गिर पड़ी । मन्त्री ने देखा, बन्दर से छुड़वायी, रत्नावली को लिया और पहिचान लिया । मन्त्री का हृदय व्याकुल हो गया । निश्चित ही राजपुत्री का अकुशल हुआ है, नहीं तो इसके पास यह कहाँ से आयी ? इससे पूछा - "भद्र ! तुम्हारे पास यह कैसे आयी ? " तब लज्जायुक्त होकर धन ने कहा- "कदाचित् मैं जहाज से महाकटाह द्वीप को गया था, वहाँ पर मैंने इसे खरीदा ! आते हुए मेरा वह जहाज नष्ट हो गया, अतः मैं भगवान् भाग्य के कारण इतने मात्र धन का स्वामी रह गया हूं।” मन्त्री ने कहा- "कब खरीदी ? " धन ने कहा - 'एक वर्ष हो गया ।" मन्त्री ने सोचा- इसे दिये हुए तीन माह हुए हैं और राजपुत्री को गये हुए दो माह हुए हैं और यह इस प्रकार कह रहा है, अतः यह कैसे ? इसने (पहले) मना किया था; यह असम्बद्ध प्रलाप करने वाला है, महाराज से निवेदन करता हूँ । मन्त्री ने निवेदन किया । राजा आकुल हो गया । रत्नावली को देखा । बुलाकर भण्डारियों को दिखलाया, उन्होंने पहचान ली । १. यन्दुरा...ख, २. ओढिगाओ उबट्टिगाओ । Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० [समराइचकहा धूया, अन्नहा कहमेवमेयं जुज्जइ त्ति । कोहाभि भएणा विअच्चंतनयाणुसारिणा पुणो वि पुच्छाविओ ति। धणे पणो वितं चेव साहियं । तओ राइणा पुणो वि रयणावलिं निएऊण पच्चभिन्नाणेण अहिययरं कुविएण 'न एयमन्नहा हवइ' ति वज्झो समाणत्तो। तओ य तणमसिविलित्तगत्तो वज्जतविरसडिटिमो अवराहथावणत्थं च पडलिगानिमियरयणावली पयट्टाविओ वज्झथामं । तओ नीयमाणस्स हट्टमग्गावसेसे मंसाहिलासिता ओलावएण 'मंसमेयं' ति कलिऊण अवहरिया रयणावली, नीया सनीडं। धणो वि य अहिययरं कुविएहिं रायपरिसेहिं नीओ मसाणं ति । तं च केरिसं सुक्कपायवसाहानिलोणवायसं वायसरसंतकरयररवं रवंतसिवानायभीसणं भीसणदरदड्ढमडयदुरहिगंधं गंधवसालुद्धरुरुवेंतसाणं साणकंकालनिवहभासुरं भासुरकवायपीइजणयं ति । अवि य पुरओ पत्थियदंडो उग्गाहियकालचक्कदुव्वारो। कलिकालवन्हिसरिसो कालो वि जहिं छलिज्जेज्जा ॥३५१॥ वाऽनेन मे दुहिता अन्यथा कथमेवमेतद् युज्यते इति ? क्रोधाभिभूतेनापि अत्यन्तनयानुसारिणा पुनरपि पृष्ट इति । धनेन पुनरपि तदेव कथितम् । ततो राज्ञा पुनरपि रत्नावलि दृष्टा पत्यभिज्ञानन अधिकतरं कुपितेन 'नैतदन्यथा भवति'-- इति वध्यः समाज्ञप्तः। ततश्च तृणमषीविलिप्तगात्रो वाद्यमानविरसडिण्डिमोऽपराधस्थापनार्थं च पटलिकान्यस्तरत्नावलिःप्रवर्तितो वध्यस्थानम् । ततो नीयमानस्य हट्टमार्गावशेषे मांसाभिलाषिणा श्येनेन 'मांसमेतद्' इति फलयित्वाऽपहृता रत्नावलो, नीता स्वनीडम् । धनोऽपि चाधिकतरं कुपितैः राजपुरुषैर्नीतो श्मशानम्-इति । तच्च कीदृशम् शुष्कपादपशाखानिलीनवायसं वायसरसत्करकररवं रुवच्छिवानादभीषणं, भीषणदर(ईषद्) दग्धमृतकदुरभिगन्धं गन्धवसालुब्धरोख्यमाणश्वानं श्वानकङ्कालनिवहभासुरं भासुरक्रव्यादप्रीतिजनकमिति । अपि च-- पुरतः प्रस्थितदण्ड उद्ग्राहितकालचक्रदुर्वारः। कलिकालवह्निसदृशः कालोऽपि यत्र छल्येतत् ॥३५१॥ तब राजा ने विचार किया-इसने मेरी पुत्री को या तो मार डाला या चुरा लिया, अन्यथा यह कैसे ठीक होता? क्रोध से अभिभूत होने पर भी अत्यन्त नीति के अनुसार पुनः पूछा। धन ने पुन: वही कहा । तब राजा ने रत्नावली को पुनः देखकर पहिचानने के कारण अत्यधिक कुपित हो 'यह दूसरी नहीं हो सकती' ऐसा कहकर वध की आज्ञा दे दी। तब का जल से मुँह का लेपन कर अपराध को जताने के लिए नीरस डिण्डिमनाद बजाते हुए, पहिया पर रत्नावली रखकर वधस्थान की ओर (इसे) लाया गया। तब बाजार के विशेष मार्ग में ले जाते हुए मांस के लाषी बाज पक्षी ने 'यह मांस है यह मानकर रत्नावली का अपहरण कर लिया और अपने घोंसले को ले गया । धन भी अत्यधिक कुपित राजपुरुषों के द्वारा श्मशान में ले जाया गया। वह श्मशान कैसा था - जहाँ सूखे वृक्ष की डाली पर बैठा कौआ कांव-कांव की आवाज कर रहा था, रोती हुई शृगालियों के शब्द से भीषण था, कुछ जलाये मुर्दे की भीषण गन्ध आ रही थी, गन्ध के कारण चर्बी के लोभी कुत्ते रो रहे थे, वह स्थान कुत्तों के कंकालसमूह से देदीप्यमान था तथा कच्चा मांस खाने वाले चमकने (हिंसक जन्तुओं) के लिए श्रीति उत्पन्न करने वाला था। पुनश्च आगे प्रस्थान करते हुए सैनिकों ने भयंकर कठिनाई से रोका जाने वाला कालचक्र ले रखा था। कलियुग की आग के समान काल भी जहां इन लोगों के द्वारा ठगा गया था ।।३५१॥ Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चमत्वो भवो] २५१ तत्थ वोलाविओ लोहियामुहाभिहाणं पाणवाडयासन्नखंडं। तओ वहगचंडालस्स आदेसं दाऊण गया रायपुरिसा । नीओ थेवं भूमिभायं चंडालेण, पुलइओ पच्छा, चिंतियं च तेणं-अहो इमाए आगितीए कहमकज्जयारो भविस्सइ? अहवा निद्देसयारी अहं, ता किं मम एइणा' । सयं निओयमणुचिट्ठामि । निवेसाविओ जमगंडीए, भणिओ य --अज्ज, सुदिटें जीवलोयं करेहि, एवमवसाणो य ते एस लोओ। अन्नं च-वयंसगा णे सावगा, तस्संसग्गिओ य गंतकरदिट्ठिणो अम्हे । रायसासणं चिमं अवस्सं संपाडेयव्वं । विन्नत्तो य अम्हेहिं नरवई। जहा वावाइज्जमाणस्स 'सुहपरिणामो मरउ' ति मुत्तमेत्तं अम्हेहिं समोहियत्थसंपाडणं कायव्वं ति । कओ य णे पसाओ राइणा। ता आणवेउ अज्जो, किं ते संपाडीयइ? धणेण चितियं- अहो विसिठ्ठया चंडालस्स । अहवा दीणसत्तवच्छलो परोवयारनिरओ अणुयंपारई न एस कम्मचंडालो, किं तु जाइचंडालो। सज्जणो खु एसो । अकाले य मे दंसणं एतेण सह जायं ति। अहवा किं एइणा, गओ मे कालो पुरिसचेटियस्स; न संपज्जइ समीहियं अप्पपुण्णाणं ति दोहं नीससिऊण भणियं सविलिएणं। भद्द, संपाडेहि तत्र प्रापितो लोहितमुखाभिधानं प्राण(चण्डाल)पाटकासन्नषण्डम् (वनम्) ततो वधकचाण्डालायादेशं दत्त्वा गता राजपुरुषाः । नीतः स्तोकां भूमिभागं चण्डालेन, प्रलोकितः पश्चात् । चिन्तितं च तेन-अहो!अनयाऽऽकृत्या कथमकार्यकारी भविष्यति ? अथवा निर्देशकारी अहम् । ततः किं मम एतेन ? स्वं नियोगमनुतिष्ठामि । निवेशितो यमगण्डिकायां, भणितश्च-आर्य ! सुदृष्टं जोवलोकं कूरु । एवमवसानश्च तवैष लोकः । अन्यच्च वयस्या नः श्रावकाः, तत्संसर्गिणश्च नैकान्तकरदष्टयो वयम । राजशासनं चेतमवश्य सम्पादयितव्यम् । विज्ञप्तश्चास्माभिर्नरपतिः। यथा व्यापाद्यमानस्य 'शुभपरिणामो म्रियताम्' इति मुहूर्तमात्रमस्माभिः समीहितार्थसम्पादनं कर्तव्यमिति । कृतश्च नः प्रसादो राज्ञा । तत आज्ञापयत्वार्यः, किं तव सम्पाद्यते ? धनेन चिन्तितम् -अहो! विशिष्टता चण्डालस्य । अथवा दीनसत्त्ववत्सलः परोपकारनिरतोऽनुकम्पारतिर्न एष कर्मचण्डालः, किन्तु जातिचण्डालः, सज्जनः खल्वेषः । अकाले च मे दर्शनमेतेन सहजातमिति । अथवा किमेतेन ? गतो मे कालः पुरुषचेष्टितस्य, 'न सम्पद्यते समीहितमल्पपुण्यानाम्' इति दीर्घ निःश्वस्य भणितं सव्यलीकेन । लाल मुह वाले चाण्डालों के वन के समीप आये। अनन्तर वध करने वाले चाण्डालों को आदेश देकर राजपुरुष चले गये। चाण्डाल थोड़ी दूर ले गया, पश्चात् (उसने) देखा । उसने सोचा-अरे ! इस प्रकार की आकृति वाला अकार्य करने वाला कैसे होगा? अथवा हम लोग राजा की आज्ञा मानने वाले हैं । अतः मुझे इससे क्या? अपने कर्तव्य को पूरा करता हूँ। वध करने के पत्थर पर रखा और कहा-"आर्य ! संसार को अच्छी तरह देख लो। तुम्हारे संसार का इस प्रकार अन्त है। दूसरी बात यह है कि हम लोगों के मित्र श्रावक हैं, उनके संसर्ग से हम लोग अत्यन्त क्रूर दृष्टि वाले नहीं हैं । राजा की यह आज्ञा अवश्य पूरी करते हैं । हम लोगों से राजा ने कहा है कि मरने वाले को शुभ भावों से मरने दो, अतः हम लोग क्षणभर के लिए इष्टकार्य कर लेने देते हैं । राजा हम लोगों पर प्रसन्न हैं, अतः आर्य आज्ञा दें, आपका क्या-क्या कार्य करें ?" धन ने सोचाचाण्डाल की विशेषता आश्चर्यजनक है अथवा दीन प्राणियों के प्रति प्रेम रखने वाला. परोपकार में रत, दया का भाव रखने वाला यह कर्म से चाण्डाल नहीं है, किन्तु जन्म से चाण्डाल है-यह सज्जन है । इससी मेर असमय में भेंट हुई । अथवा इससे क्या? मेरे पुरुषार्थ का समय चला गया, अल्प पुण्य वालों का इष्टकार्य पूरा नहीं होता है, इस प्रकार दीर्घ निश्वास लेकर दुःखपूर्वक कहा-"भद्र ! 1. ममेइण-क Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ [समराहच्चकहा रायसासणं किन्ने गं ति । तओ 'अदीणभावपिसुणियमहापुरिसभावो अओ चेव अणवराहो वि एसो मए वावाइयव्वो त्ति विसण्णेन वाहजलभरियलोयणेणं सगग्गयं भणिओ चंडालेण-अज्ज, जइ एनं, ता सुमरेहि इट्ठदेवयं, परिच्चय विसयरा', अंगीकरेहि धम्म, तहा ठाहि सग्गाहिमहं ति । तओ धिरत्थ जीवलोयस्स, न संपा डओ परत्यो त्ति चितिऊण ठिओ सग्गाहिमहं। गहियं चंडालेण कयंतजोहाकरालभासुरं करवालं, निक्कढियं पडियाराओ, वाहियं ईसि नियभुयासिहरे। भणियं च तेणं- अहो जणा, इमिणा किल कहंचि रायधयं वंचिऊण अवहडा तेलोक्कसारा रयणावली। इमिणा अवराहेण एस वावाइज्जइ, ता जइ अन्नो वि कोइ रायविरुद्धमासेवइस्सइ तं पि राया सुतिक्खेण दंडेण एवं चेव सासइस्सइ त्ति भणिऊण वाहियं करवालं। कारुण्णसुन्नभावयाए य अदाऊण पहारं विमुक्कखग्गो निवडिओ धरणोए चंडालो। भणिओ धणेण-भद्द, मा मे इमिणा अइसंभमेण हिययं पीडेहि । अणुचिट्ठाहि रायसासणं, निओगकारी तुमं ति। चंडालेण भणियंअज्ज, न सक्कुणोमि असंपाडिओवयारंतरस्स पहरिउं । ता कि ते पिययरं संपाडेमि त्ति, आणवेउ भद्र ! सम्पादय राजशासनम्, किमन्येने ति। ततोऽदोनभावपिशुनितमहापुरुषभावोऽत एवानपराधोऽपि एष मया व्यापादयितव्यः' इति विषण्णेन वाष्प जलभृतलोचनेन सगद्गदं भणितश्चण्डालेन । आर्य ! यद्येवं ततः स्मरेष्टदेवताम् परित्यज्य विषयरागम् अङ्गीकुरु धर्मम् तथा तिष्ठ स्वर्गाभिमखमिति । ततो धिगस्तु जीवलोकम, न सम्पादितः परार्थः' इति चिन्तयित्वा स्थितः स्वर्गाभिमूखम् । गहीतश्चण्डालेन कृतान्तजिह्वाकरालभासुरः करवालः, निष्कर्षित: प्रतीकाशद्, वाहित ईषद् निजभुजाशिखरे । भणितं तेन-'अहो जना ! अनेन किल कथंचिद् राजदुहितरं वञ्चयित्वाऽपहृता त्रैलोक्यसारा रत्नावली । अनेनापराधेन एष व्यापाद्यते। ततो यदि कोऽपि राजविरुद्धमासेविष्यते तमपि राजा सुतीक्ष्णेन दण्डेन एवमेव शासिष्यति' इति भणित्वा वाहितः करवालः । कारुण्यशन्यभावतया च अदत्वा प्रहारं विमुक्तखड़गो निपतितो धरण्यां चण्डालः । भणितो धनेन-भद्र ! मा मेऽनेनातिसम्भ्रमेण हदयं पीडय, अनतिष्ठ राजशासनम, नियोगकारी त्वमिति । आर्य ! न शक्नोमि असम्पादितोपकारान्तरं (त्वां) प्रहर्तुं म्ततः किं ते प्रियतरं सम्पादयामीति, राजा की आज्ञा पूरी करो, दूसरी बात से क्या ?" तदनन्तर दीनता के भाव से रहित होने के कारण जो महापुरुष लग रहा है, ऐसा यह बिना अपराध के ही मेरे द्वारा मारा जायगा, इस प्रकार दुःखी होकर आँखों में आंसू भरकर गद्गद होकर चाण्डाल ने कहा-"आर्य ! यदि ऐसा है तो इष्टदेवता का स्मरण करो, विषयों के प्रति राग डो, धर्म को ग्रहण करो और स्वर्ग के प्रति अभिमुख होओ।" तब 'संसार को धिक्कार मैंने परोपकार नहीं किया है' --ऐसा सोचकर स्वर्ग की ओर अभिमुख हो गया । चाण्डाल ने यम की जीभ के समान भयंकर चमकीली तलवार ली, प्रतिकार के लिए खींची, थोड़ा हथेलियों में लेकर उसने कहा- "हे मनुप्यो!इसने किसी प्रकार राजपुत्री को धोखा देकर तीनों लोकों की सारवाली रत्नावली हर ली। इस अपराध के कारण यह मारा जाता है । यदि कोई राजा के विरुद्ध कार्य करेगा तो उसे भी राजा कठोर दण्ड देकर इस प्रकार शासित करेगा" ऐसा कहकर तलवार चलायी। करुणाशून्य भाववाला न होने के कारण प्रहार न कर चाण्डाल ने तलवार छोड़ दी और पृथ्वी पर गिर पड़ा। धन ने कहा-'"भद्र! इस प्रकार की घबड़ाहट से हृदय को पीड़ित मत करो, राजा की आज्ञा का पालन करो; क्योंकि तुम राजा की आज्ञा मानने वाले हो।" चाण्डाल ने कहा-"आर्य ! बिना आपका उपकार १. विसायं-ख,२ , डण्डेश-के। Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भवो ] अज्जो । एत्यंतरंमि राइणो पढमपुत्तो सुमंगलो नाम, सो उज्जाणमुवगओ अहिणा दट्टो । उग्गयाए विसस्स थेववेलाए चेव पणट्ठसन्नो जाओ । आणीओ नरवइसमीवं । सद्दाविया गारुडिया, आगया य तुरतुरियं । दिट्ठो तेहि । 'अहो पणट्टा से सन्न' त्ति विसण्णा खु एए। पउत्ताइं मंतोसहाई, न जाओ से विसेसो । विसण्णो राया। चितियं च तेणं - अचिताओ पुरिससत्तीओ। कयाइ अन्नो वि कोइ सुसिद्धगारुडमंतो नरिंदो जीवावेइ त्ति । तो घोसावेमि ताव समंतओ पडहगेहिं । जहा - अहो अज्ज चैव एत्थ रायपुत्तो [सुमंगलो नामं सो उज्जाणमुवगओ। अहिणा दट्टो । जो तं जीवावेइ, सो जं चेव पत्थए तं चैव दिज्जइत्ति चितिऊण आदिट्ठा पाडहिगा पयट्टा नयारामदेउल सहा इमगेहि । एत्यंतर म्म आगओ एगो पाडहिगो तमुद्देसं । आयण्णिओ से सद्दो धणेण । जहा अहिणा बट्ठो रायपुत्तो; जो तं जीवावेद, सो जं चेव पत्थेइ तं चेव दिज्जइति । तओ सहरिसेण भणिओ माज्ञापयत्वार्यः । २५३ अत्रान्तरे राज्ञः प्रथमपुत्रः सुमङ्गलो नाम स उद्यानमुपगतोऽहिना दष्टः । उग्रतया विषस्य स्तोकवेलायामेव प्रनष्टसंज्ञो जातः । आनोतो नरपतिसमीपम् । शब्दायिता गारुडिकाः आगताश्च त्वरितत्वरितम् । वृष्टस्तैः । 'अहो ! प्रनष्टा अस्य संज्ञा' इति विषण्णाः खल्वेते । प्रयुक्तानि मन्त्रौषधानि, न जातोऽस्य विशेषः । विषण्णो राजा । चिन्तितं च तेन - अचिन्त्याः पुरुषशक्तयः, कदाचिद् अन्योऽपि कश्चित् सुसिद्धगारुडमन्त्रो नरेन्द्रो (विषवैद्यः) जीवयतीति । ततो घोषयामि तावत्समन्तात् पटकैः । यथा - 'अहो ! अद्य वात्र राजपुत्रः [सुमङ्गलो नाम स उद्यानमुपगतो ] अहिना दष्टः, यस्तं जीवति स देव प्रार्थयते तदेव दीयते' इति चिन्तयित्वा आदिष्टाः पाटहिकाः, प्रवृत्ता नगरारामदेवकुलसभादिमार्गेषु । अत्रान्तरे आगत एकः पाटहिकस्तमुद्देशम् । आकणितस्तस्य शब्दो धनेन । यथा-अहिना दष्टो राजपुत्रः, यस्तं जीवयति स यदेव प्रार्थयते तदेव दीयते इति । ततः सहर्षेण भणितश्चण्डालः । किये आप पर प्रहार करने में समर्थ नहीं हूँ अतः तुम्हारा क्या प्रिय करू ? आर्य आज्ञा दें । " T इसी बीच राजा के सुमंगल नामक पुत्र को, जो कि उद्यान गया था, साँप ने डस लिया । विष की उग्रता के कारण थोड़े से ही समय में बेहोश हो गया । राजा के पास लाया गया। सांप के मन्त्र को जानने वाले बुलाये गये । वे (शीघ्रातिशीघ्र ) आये । उन्होंने देखा - ओह ! यह बेहोश हो गया है, यह कहकर खिन्न हो गये । मन्त्र और औषधियों का प्रयोग किया, किन्तु विशेष लाभ नहीं हुआ । राजा दुःखी हुआ । उसने सोचा- पुरुष की शक्ति अचिन्त्य होती हैं । कदाचित् कोई दूसरा, जिसे सर्प का मन्त्र अच्छी प्रकार सिद्ध है, ऐसा विषवैद्य जिला दे | अतः चारों ओर भेरी बजवाकर घोषणा कराता हूँ कि अरे ! आज ही राजपुत्र सुमंगल को जो कि उद्यान में गया हुआ था, सांप ने काट लिया। जो इसको जिलायेगा वह जो मांगेगा वही दिया जायेगा, ऐसा सोचकर भेरी बजाने वालों को बुलाया गया। वे नगर, उद्यान, मन्दिर तथा सभा आदि मार्गों में गये । इसी बीच एक डोंडी पीटने वाला उस स्थान पर आया । उसकी आवाज को धन ने सुना कि राजपुत्र को साँप ने उस लिया है, जो उसको जिलायेगा वह जो माँगेगा वही दिया जायेगा । तब ( धन ने ) Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ [समराइन्धकहा चंडालो। भद्द, जइ ते निब्बंधो, ता एवं संपाडेहि । जीवावेमि ताव एयं भुयंगदळें, पच्छा मारेज्जासि ति। हरिसिओ चंडालो। चितियं च तेण----जो मे सामिसूयं सयलरिदपच्चक्खायं पि जीवावइस्सइ, तं कहं दक्खिण्णमहोयही गुणेगंतपक्खवाई महराओ वावाइस्सइ ? ता जीविओ खु एसो, कहं वा एस एवं विवज्जइस्सइ त्ति चितिऊण तेण सहिओ पाडहिओ। साहिओ य वुत्तो रायपुरिसस्स । तेण भणियं-भद्द, किमेत्थ सच्चयं, ज एस जंपइ ? धणेण भणियं-अत्थि ताव मम पन्नगविसावहारी मंतो । कज्जसिद्धीए उ देवो पमाणं । अविसओ खु एसो पुरिसयारस्स। तहावि पेच्छामि ताव त्ति । रायपरिसेण चितियं-अहो से अवत्थाणगरुओ अलावो अणुद्धओ य । ता अवस्सं जीवावेइ एस रायपुत्तं ति । मोयाविऊण नीओ नरवइसमोवं, दंसिओ राइणो, साहिओ वुत्तंतो । तओ तं दळूण चितियमणेण - महाणुभावागिई खु एसो । ता कहं परदवावहारं करिस्सइ ? अहवा पुणो विगप्पिस्सामि, न एस वियारणाए सम् ओ; विसमा गती विसस्स, मा अच्चाहियं मे भविस्सइ पत्तयस्स त्ति चितिऊण बाहजलभरियनयणेणं ईसिपरिक्खलंतवणेण भणिओ खु तेणं राइणा। भद्द, जीवावेहि मे सुयं ति । तओ धणेण भणियं-देव, मुंच विसायं, पेच्छ भयवओ मंतस्स सामत्थं भद्र ! यदि ते निर्बन्धस्तत एतं सम्पादय। जीवयामि तावदेतं भुजङ्गदष्टं, पश्चाद् मारयेरिति । हर्षितश्चण्डालः । चिन्तितं च तेन । यो मे स्वामिसुतं सकलनरेन्द्र (विषवैद्य)प्रत्याख्यातमपि जीवयिष्यति तं कथं दाक्षिण्यमहोदधिर्गुणैकान्तपक्षपातो महाराजो व्यापादयिष्यति ? ततो जीवितः खल्वेषः । कथं वा एष एवं विपत्स्यते इति चिन्तयित्वा तेन शब्दितो पाटहिकः । कथितश्च वृत्तान्तो राजपुरुषाय । तेन भणितम्-भद्र ! किमत्र सत्यम्, यदेष जल्पति ? धनेन भणितम्-अस्ति तावन्मम पन्नगविषापहारी मन्त्रः। कार्यसिद्धौ तु दैवं प्रमाणम् । अविषयः खल्वेषः पुरुषकारस्य, तथापि पश्यामि तावदिति । राजपुरुषेण चिन्तितम्-अहो! तस्यावस्थानगुरुक आलापोऽनुद्धतश्च । ततोऽवश्यं जीवयत्वेष राजपुत्रमिति मोचयित्वा नोतो नरपतिसमीपम् । दर्शितो राज्ञे, कथितो वृत्तान्तः । ततस्तं दृष्ट्वा चिन्तितमनेन । महानुभावाकृतिः खल्वेषः, ततः कथं परद्रव्यापहारं करिष्यति ? अथवा पुनर्विकल्पयिष्ये, न एष विचारणायाः समयः, विषमा गतिविषस्य, मा अत्याहितं भविष्यति मे पुत्रस्येति चिन्तयित्वा वाष्पजलभृतनयनेन ईषत्परिस्खलद्वचनेन भणितः खलु तेन राज्ञा । भद्र ! जीवय मे सुतमिति । ततो धनेन भणितम्-देव ! मुञ्च विषादम्, पश्य भगवतो हर्षपूर्वक चाण्डाल से कहा – “भद्र ! यदि आपका आग्रह है तो मैं इस कार्य को पूर्ण करूँ । इस सांप के द्वारा काटे हुए (राजपुत्र) को जिलाता हूँ, बाद में मुझे मार देना।" चाण्डाल हर्षित हुआ। उसने सोचा-जो समस्त विषवैद्यों के द्वारा मना कर दिये गये मेरे स्वामिपुत्र को जीवित करेगा उसे कृपालुता रूपी सागर से युक्त गुणों के कारण एकान्त पक्षपाती राजा कैसे मारेंगे? अतः यह जोवित हो गया। यह इस प्रकार कैसे विपत्ति को प्राप्त होगा, ऐसा विचारकर उसने डोंडी बजाने बाले को बुलाया और राजपुरुष से वृत्तान्त कहा । उसने कहा-"क्या यह जो कहता है, यह सत्य है ?"धन ने कहा--''मेरे पास सर्प का विष दूर करने वाला मन्त्र है, कार्यसिद्धि तो भाग्य के अधीन है। यह पुरुषार्थ का विषय नहीं है, फिर भी देखता हूँ।" राजपुरुष ने सोचा-ओह ! इसका कथन वजनदार और अनुद्धत है अतः यह अवश्य ही राजपुत्र को जीवित कर देगा-ऐसा सोचकर (उसे) छुड़ाकर राजा के पास लाया गया। राजा को दिखाया और वृत्तान्त कहा । तब उसे देखकर राजा ने विचार किया-इसकी आकृति बड़ी प्रभावशाली है, अतः यह कैसे दूसरे के धन को चुरायेगा ? अथवा पुनर्विचार करूँगा, यह विचार करने का समय नहीं है, विष की गति विचित्र है, मेरे पुत्र का कोई अनिष्ट न हो, ऐसा सोचकर आँखों में आंसू भरकर कुछ लड़खड़ाती आवाज में उसने कहा- भामेरे पुत्र को जीवित करो।" तब धन ने कहा-"महाराज! Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साचो भयो] २१९ ति भणिऊण सुमरिओ मंतो अचितसामथओ य तस्स वियंभंतवयणकमलो पसुत्तो व्व सुहनिदाखए उठ्ठिओ कुमारो। एत्थंतर म्मि समुद्धाइओ साहुवायकलयलो। परितुट्ठो राया, हरिसविसेसओ अणुचियं पि थेवयाए खित्तं धणस्स कडिसुत्तयं । वरिसियं च देवीहि आहरणवरिसं। धणेण भणियं-महाराय, किमणेणं ति । राइणा भणियं-भद्द, भण, कि ते अवरं संपाडीयउ ? धणेण भणियं-देव, अलमगेण । इमं पुण संपाडेउ देवो तस्स वहनिओगकारिणो अचंडालभावस्स चंडालाभिहाणस्स समीहियं मणोरहं ति । राइणा चितियं -- अहो से गरुथया। न ईइसो विसुद्धसत्तजुत्तो अकज्ज समायरइ । ता को उण एसो? पुच्छामि एयं । अहवा संपाडेमि ताव एयरस समीहियं, पुणो पुच्छिस्सं ति चितिऊण भणियं राइणा सद्दावेह चंडाल, पच्छह य, को से मणोरहो ? तओ गओ पडिहारो, पुच्छिओ य तेण । अरे खंगिलय, परितुट्ठो ते राया, अहवा रायपुत्तजीवियदायगो नरिंदचूडामणी; ता भण, किं ते करीयउ त्ति ? तओ खंगिलेण चितियं--नत्थि अग्धो सज्जणचरियस्स, न याऽविसओ महाणुमन्त्रस्य सामर्थ्य मिति भणित्वा स्मतो मन्त्रः। अचिन्त्यसामर्थ्यतश्च तस्य विज़म्भमाणवदनकमलः प्रसुप्त इव सुखनिद्राक्षये उत्थित कुमारः। अत्रान्तरे समुद्धावितः साधुवादकलकलः । परितुष्टो राजा, हर्षविशेषतोऽनुचितमपि कट्यां क्षिप्तं धनस्य कटिसूत्रम् । वृष्टं च देवोभिराभरणवर्षम् । धनेन भणितम्-महाराज! किमनेनेति । राज्ञा भणितम्-भद्र ! भण किं तेऽपरं सम्पाद्यताम् । धनेन भणितम्-देव ! अलमनेन । इमं पुनः सम्पादयतु देवस्तस्य वधनियोगकारिणोऽचण्डालभावस्य चण्डालाभिधानस्य समीहितं मनोरथमिति । राज्ञा चिन्तितम्-अहो! तस्य गुरुकता, न ईदृशो विशुद्धसत्त्वयुक्तोऽकार्य समाचरति । ततः कः पुनरेषः ? पृच्छाम्येतम् । अथवा सम्पादयामि तावदेतस्य समीहितम्, पुनः प्रक्ष्यामि- इति चिन्तयित्वा भणितं राज्ञा। शब्दयत चण्डालम्, पृच्छत च, कस्तस्य मनोरथः ? ततो गतः प्रतीहारः पृष्टश्च तेन । अरे खङ्गिलक ! परितुष्टस्तव राजा, अथवा राजपुत्रजीवितदायको नरेन्द्रचूडामणिः, ततो भण, किं ते क्रियतामिति ? ततः खङ्गिलकेन चिन्तितम्-नास्ति अर्घः सज्जनचरितस्य, न विषाद को छोड़ो, भगवान् मन्त्र की सामर्थ्य देखो-ऐसा कहकर मन्त्र का स्मरण किया। मन्त्र की अचिन्त्य सामर्थ्य से खिले हुए मुखकमल वाला वह कुमार उठ गया, जैसे सुखपूर्वक सोने के बाद कोई उठ जाता है। इसी बीच साधुवाद की ध्वनि होने लगी। राजा सन्तुष्ट हुआ। विशेष हर्षित होकर अनुचित होने पर भी धन की कमर में उसने कटिसूत्र डाल दिया। महारानियों ने आभूषणों की वर्षा की। धन ने कहा- “महाराज! इससे क्या ?" राजा ने कहा- "भद्र ! मैं तुम्हारा दूसरा क्या (कार्य) करूं ?" धन ने कहा-"महाराज ! इससे व्यर्थ है। उस वध करने वाले चाण्डाल का, जिसका कि भाव चाण्डाल कर्म नहीं है, महाराज इष्ट मनोरथ पूरा करें।" राजा ने सोचा--इसका बड़प्पन आश्चर्ययुक्त है, इस प्रकार विशुद्ध प्राणों वाला अकार्य का आचरण नहीं करता है । अतः यह कौन है ? इससे पूछता हूँ अथवा इसके इष्टकार्य का सम्पादन करता हूँ, बाद में पूछेगा, ऐसा विचारकर राजा ने कहा - "चाण्डाल को बुलाओ और पूछो उसका क्या मन अनन्तर द्वारपाल गया और उससे पूछा-'अरे खंगिलक ! तुम पर राजा प्रसन्न हैं अ जीवन देने वाला श्रेष्ठ विषवैद्य प्रसन्न है, अतः तुम्हारा क्या कार्य करें ?" तब खंगिलक ने सोचा-सज्जनों के चरित का कोई मूल्य नहीं है और उनके महान प्रभाव का कोई विषय न हो, ऐसा नहीं है-ऐसा विचार Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ [समराइच्चकहा भावयाए ति चितिऊण भणियं - भद्द, अवि मुक्को सो देवेणं नरिंदचूडामणी ? तेण भणियं-- अरेखंगिलय, को एत्थ संदेहो ? कयन्नुसेहरयभूओ देवो, ता भण समीहियं । तेण भणियं-जइएवं, ता करेउ देवो पसायं; अलं अम्हाणं इमीए वुहजणगरहणिज्जाए उभवलोयविरुद्धाए जीविगाए ति । पडिहारेण भणियं - अरे दव्वजायं पत्थेहि, कि इमेणं । खंगिलेण भणियं - अओ वि अवरं दव्वजायं ति ? तओ पडिसोऊण निवेइयं पडिहारेण राइणो । भणियं च राइणा - अहो से विवेगो अलोभया य। धणेण भणियं देव, जाइमेत्तचंडालो खु एसो महाणुभावो; ता करेउ एयस्स ववसियं देवो ति । राइणा भणियं - भद्द, कतं चैव एयं; इमं पुण से अवरं, देउ भद्दो सहत्थेण एयस्स दीणारलक्खं चंडाल कुडुंब सहस्सवासिणि विझवासिणि च पट्टणस्स अवरबाहिरियं ति । तओ धणेण भणियं 'जं देवो भणइ' त्ति । पडिवज्जिऊण संपाडियं रायसासणं ति । मुट्ठो खंगिलगो न तहा वित्तलाहेण जहा धणजीविएण | तओ धणमुवचरिऊण भणियं राइणा । भद्द, ववसायाओ चेव अवगओ ते सुकुलजम्मो । चाविषयो महानुभावताया इति चिन्तयित्वा भणितम् अपि मुक्तः स देवेन नरेन्द्र (विषवैद्य) चूडामणिः ? तेन भणितम् - अरे खङ्गिलक ! कोऽत्र सन्देहः ? कृतज्ञशेखरभूतो देवः ततो भण समीहितम् । तेन भणितम् - यद्येवं ततः करोतु देवः प्रसादम् । अलमस्माकमनया बुधजनगर्हणीयया उभयलोकविरुद्धया जीविकयेति । प्रतीहारेण भणितम् - अरे द्रव्यजातं प्रार्थयस्व, किमनेन ? खङ्गिलेन भणितम् - अतोऽपि अपरं द्रव्यजातमिति ? ततः प्रतिश्रुत्य निवेदितं प्रतीहारेण राज्ञे । भणितं च राज्ञा - - अहो ! तस्य विवेको अलोभता च धनेन भणितम् - देव ! जातिमात्रचण्डालः खलु एष महानुभावः, ततः करोतु एतस्य व्यवसितं देव इति । राज्ञा भणितम् - भद्र ! कृतमेवैतत् । इदं पुनस्तस्यापरम्, ददातु भद्रः स्वहस्तेन एतस्मै दीनारलक्षं चण्डाल कुटुम्बसहस्रवासिनीं विन्ध्यवासिनीं च पत्तनस्य अपरबाह्यां (भूमिम् - - ) इति । ततो धनेन भणितं 'यद् देव आज्ञापयति' इति प्रतिपद्य सम्पादितं राजशासनमिति । तुष्टः खङ्गिलको न तथा वित्तलाभेन यथा धनजीवितेन । ततो धनमुपचर्य भणितं राज्ञा । भद्र ! व्यवसायादेव अवगतं ते सुकुलजन्म, ततः किन्निवासिनं कर कहा--" महाराज ने उस श्रेष्ठ विषवैद्य को छोड़ दिया ?” उसने कहा - " अरे खंगिलक ! इसमें क्या सन्देह है ? महाराज कृतज्ञों में शिरोमणि (शेखर) हैं अतः (अपना) मनोरथ कहो ।" उसने कहा - "यदि ऐसा है तो महाराज कृपा करें । हम लोगों को विद्वानों के द्वारा निन्दित दोनों लोकों में विरुद्ध इस जीविका से कोई प्रयोजन नहीं है ।" द्वारपाल ने कहा - "अरे धन माँगो, इससे क्या ?" खंगिलक ने कहा - "इससे भी बड़ा कोई धन है ? " तब स्वीकार कर द्वारपाल ने राजा से निवेदन किया। राजा ने कहा - "ओह ! उसका विवेक और लोभरहितता आश्चर्यजनक है ।" धन ने कहा- "महाराज ! यह महानुभाव जाति मात्र से ही चाण्डाल है अतः इसके निश्चय को पूरा करें।" राजा ने कहा- “भद्र ! यह तो कर ही दिया है।" उसका दूसरा यह पुरस्कार है— उसे अपने हाथ से एक लाख दीनारें दो और हजारों चाण्डाल जिसमें रहते हैं, ऐसी विन्ध्यवासिनी पत्तन की भी भूमि दे दो ।" तब धन ने कहा - "जो महाराज आज्ञा दें," ऐसा कहकर राजा की आज्ञा पूरी की । खंगिलक धन के जीवन (लाभ) से जितना सन्तुष्ट हुआ, उतना धन-लाभ से नहीं । तब धन का सत्कार कर राजा ने कहा - " भट्ट ! कार्य से ही आपका जन्म अच्छे कुल में हुआ है, यह जान १. मुद्दिसिऊण क Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउत्थो भवो] २५७ ता किन्निवासिणं किन्नामधेयं वा भवंतमवगच्छामि ? तओ 'परसंतिया रयणावली, तहावि गहिया, अहो मे सुकुलजम्मोत्ति सरिऊण विम्क्कदीहनीस संलज्जावणयवयणेण भणियं धणेणं-देव, कोइसो अकज्जयारिणो वक्साओ, को वा एत्थ दोसो सुकुलस्स? कि न संभवंति लच्छिनिलएसु कमलेसु किमओ? वाणियओ अहयं जाइमेत्ते, न उण सोलेणं, सुसम्मनयरवासी धणाभिहाणो य । तओ राइणा 'अहो मे धन्नया, जं न एयं पुरिसरयणं दि गासियं' ति चितिऊण भणियं- कहं तए जारिसा अकज्जयारिणो हवंति ? ता कहेहि परमत्थं, कहं तुमए एसा रयणावली पाविय त्ति ? एत्थंतरम्भि य ससंभममवसप्पिऊण विन्नत्तं महाए डिहारीए। देव, एसा खुमणोरमाभिहाणा उज्जाणवालिया रायध्यावयणाओ वहणभंगेण विउत्त्परियणा देवं विन्नवेइ । जहा-देव, इओ गच्छंताणं अम्हाणं समुद्दमज्झम्मि तक्खणा चेव चंडमात्यपणोल्लियं इत्थियाहियए व्व गुज्झं फुट्ट जाणवत्तं ति। तओ य देवस्स पहावेणं तहाविहफलगलाभसंपाइयपाणवित्ती जीविया रायध्या विणयवई । संपत्ता य कहंचि नियभायधेएहि नयरिसबीवं । मेहवणसंठियाए पेसिया अहं, जहा किन्नामधेयं वा भवन्तमवगच्छामि ? ततः परसत्का रत्नावली, तथाऽपि गृहीता, अहो ! मे सुकुलजन्म', इति स्मृत्वा विमुक्त दीर्घनिःश्वासं लज्जाऽवनत वदनेन भणितं धनेन-देव ! कीदृशोऽकार्यकारिणो व्यवसायः; को वाऽत्र दोषः सुकुलस्य ? किं न सम्भवन्ति लक्ष्मीनिलयेषु कमलेष कृमयः । बाणिजकोऽहं जातिमात्रेण न पुनः शीलेन, सुशर्मनगरनिवासी धनाभिधानश्च । ततो राज्ञा 'अहो मे धन्यता, यन्नैतत पुरुषरत्नं विनाशितम्' इति चिन्तयित्वा भणितम्-कथं त्वया सदशा अकार्यकारिणो भवन्ति ? ततः कथय परमार्थम, कथं त्वयैषा रत्नावली प्राप्तेति? अत्रान्तरे च ससम्भ्रममुत्सर्प्य विज्ञप्तं महाप्रतीहार्या-देव!एषा खलु मनोरमाभिधाना उद्यानपालिका राजदुहितवचनाद् वहन भङ्गेन वियुक्तपरिजना देव विज्ञपयति । यथा -देव ! इतो गच्छता- . मस्माकं समुद्रमध्ये तत्क्षणादेव चण्डपवनप्रणोदितं स्त्रीहृदये इव गुह्य स्फुटितं यानपात्रमिति। ततश्च देवस्य प्रभावेन तथाविधफलकलाभसम्मादितप्राण वत्तिर्जाविता राजदुहिता विनयवती। सम्प्राप्ता च कथनि निजभागधेयैनंगरोसमीपम । मेघवनसंस्थितया प्रेषिताऽहम, यथा विज्ञपय एतं वत्तान्तं लिया। अब आप कहाँ के रहने वाले हैं और क्या नाम है-यह जानना चाहता है। अनन्तर क्या नाम है---यह जानना चाहता हूँ। अनन्तर दूसरे की रत्नावली थी, उसे भी ग्रहण कर लिया, ओह ! मेरा अच्छे कुल में जन्म हुआ है-ऐसा स्मरण कर दीर्घ निःश्वास छोड़कर लज्जा से मुख नीचा किये हुए धन ने कहा-''महाराज ! कैसा कार्यकारी व्यवसाय है, इसमें अच्छे कुल का क्या दोष ? क्या लक्ष्मी के निवास कमल में कीड़े पैदा नहीं होते हैं ? मैं मात्र जन्म से व्यापारी (सार्थवाह) हूँ, शील से नहीं, सुशर्मनगर का निवासी हूँ और मेरा नाम धन है।" तब राजा ने, 'मैं धन्य हूँ जो कि ऐसे पुरुषरत्न को नहीं मारा' ऐसा सोचकर कहा-"आप जैसे लोग अकार्य के रने वाले कैसे हो सकते हैं ? अत: सही बात कहो; तुमने यह रत्नावली कैसे प्राप्त की ?" इसी बीच घबड़ाहट के साथ प्रवेश करती हई प्रतीहारी ने कहा---''महाराज ! यह मनोरमा नामकी उद्यानपालिका उद्यान की रखवाली करने वाली) जहाज टूट जाने के कारण सेवकों वगैरह से वियुक्त हुई राजपुत्री के कथनानुसार निवेदन करती है कि हे महाराज ! हम !ग जब यहाँ । जा रहे थे तो समुद्र के बीच उसी क्षण तीक्ष्ण वायु द्वारा प्रेरित, स्त्रियों के हृदय के समान गुह्य जहाज भी टूट गया। अनन्तर महाराज के प्रभाव से लकड़ी के टुकड़े को पाकर राजपुत्री विनयवती ने प्राण बचाये। किसी प्रकार अपने भाग्य से नगर के समीप पहुंच गयी है। मेघवन में ठहरी हुई उसने मुझे भेजा है कि इस वृत्तान्त को पिता जी से निवेदन करो। यह सुनकर महाराज जन Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५५ [समहराइचकहा विन्नवेहि एयं वुत्तंतं तायस्स एवं सुणिकण देवो पमाणं ति । तओ ससंभंतो 'इमीए चेव रयणावलावृत्तंतमुवलभिस्सं'ति उट्रिओ राया, पयट्टो य मेहवणं, पत्तो य महया चडगरेणं। दिट्ठा य रायधूया। अलंकारेऊण य पवेसिया सात्थि । पुच्छिया य रयणावलीवृत्तंतं । साहिओ य तीए । जहा-तम्मि वहणभंगदियहे चयलइयाए समप्पिया संगोविया य तौए उत्तरीयबंधणेण । तओ य विवन्ने जाणवत्ते कायंतवसविउत्ते य परियणे न याणामि कोइसो से विपरिणामो ति । तओ राइणा घणमवलोइऊण भणियं-भद्द, कहं तह एसा हत्थगोयरं गय त्ति? धणेण भणियं-देव, समद्दतीरे सयं गहणेणं ति। राइणा चितियं-विवन्ना चूयलइया, कहमन्नहा सयं गहणं ति। भणियं च-भद्द, अवि दिळें तए तत्थ किचि कंकालपायं ति । धणेण भणियं-देव, दिलैं; अओ चेव परदव्वावहारेण अकज्जकारिण मप्पाणं मन्नेमि ति। राइणा भणियं -न एरिसं परदव्वावहरणं गिहिणो; ता अलमईयवचिंतणेणं । भण, कि ते करेमि त्ति ? धणेण भणियं-कयं देवेण करणिज्जं, जं तस्स निओगकारिणो समीहियभहियमणोरहापूरणं ति। राइणा भणियं-भद्द, किं तेण; थेवं खु णं तस्स वि समिक्खियतातस्य । एतच्छ त्वा देवः प्रमाणमिति । ततः ससम्भ्रान्तः 'अनयैव रत्नावलीवृत्तान्तमुपलप्स्ये' इत्युत्थितो राजा, प्रवृत्तश्च मेघवनम्, प्राप्तश्च महता चटकरेण (वेगेन)। दृष्टा च राजदुहिता। अलङ्कार्य च प्रवेशिता श्रावस्तीम् । पृष्टा च रत्नावलीवृत्तान्तम् । कथितश्च तया-यथा तस्मिन् वहनभङ्गदिवसे चूतलतिकार्य समर्पिता, संगोपिता च तयोत्तरीयबन्धनेन । ततश्च विपन्ने यानपात्र कृतान्तवश वियुक्ते च परिजने न जानामि कीदृशस्तस्य विपरिणाम इति ततो राज्ञा घनमवलोक्य भणितम्-भद्र ! कथं तवैषा हस्तगोचरं गतेति ? धनेन भणितम्-देव ! समुद्रतीरे स्वयं ग्रहणेनेति । राज्ञा चिन्तितम्-विपन्ना चूतलतिका, कथमन्यथा स्वयंग्रहणमिति । भणितं च-भद्र ! अपि दृष्टं त्वया तत्र किञ्चित्कङ्कालप्रायमिति ? धनेन भणितम्-देव ! दृष्टम् , अत एव परद्रव्यापहारेणाकार्यकारिणमात्मानं मन्ये इति । राज्ञा भणितम्-नेदशं परद्रव्यापहरणं गृहिणः, ततोऽलमतीतवस्तुचिन्तनेन । भण, किं तव करोमीति ? धनेन भणितम्-कृतं देवेन करणीयम्, यत् तस्य नियोगकारिणः समीहिताभ्यधिकमनोरथापूरणमिति । राज्ञा भणितम्-भद्र ! किं तेन ? स्तोकं खलु तत् प्रमाण हैं अर्थात् अब जो महाराज को करना हो, वह करें।" तब घबड़ाकर इसी से ही रत्नावली का वृत्तान्त प्राप्त करूँगा-ऐसा सोचकर राजा उठा और मेघवन को चला गया। बड़े वेग से गया और राजपुत्री को देखा। राजा ने अलंकृत कर उसे धावस्ती में प्रवेश कराया और रत्नावली का वृत्तान्त पूछा । उसने कहा कि जहाज टूट जाने के दिन (उसने रत्नावली को) चूतलतिका को समर्पित कर दिया था और उसने उसे अपने दुपट्टे में बांधकर छिपा लिया । अनन्तर जहाज नष्ट हो जाने पर मृत्यु को प्राप्त हुए अथवा वियोग को प्राप्त हुए बन्धुबाधवों को मैं नहीं जानती हूँ, उसकी क्या परिणित हुई ?" तब राजा ने धन को देखकर कहा-“भद्र! यह तुम्हारे हाथ कैसे माथी ?" धन ने कहा-"महाराज! समुद्र के किनारे मैंने इसे स्वयं ग्रहण किया।" राजा ने सोचा-चूतलतिका मृत हो गयी अन्यथा अपने आप ग्रहण कैसे किया? उसने पूछा- "भद्र! वहाँ पर तुमने कंकाल जैसी कोई वस्तु देखी ?" धन ने कहा-"महाराज! देखी है, अतएव दूसरे के धन का अपहरण करने वाला अपने आपको अकार्य करने वाला मानता है।" राजा ने कहा- "गृहस्थ लोगों को इस प्रकार चोरी का दोष नहीं लगता है, अत: अतीत वस्तु को सोचना ध्यर्थ है । कहो तुम्हारा क्या-क्या (कार्य) करें ?" धन ने कहा-"महाराज ने करने योग्य कार्य को कर दिया, जो कि उस कार्य में रत हुए व्यक्ति का इच्छा से भी अधिक मनोरथ पूरा कर दिया। राजा ने कहा-"भद्र ! उससे Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चमत्यो भवो] २५६ कारिणो चेट्ठियस्स, किमंग पुण भवओ जीवियब्भहियसुयजीवियदायगस्स। धणेण भणियंदेवदंसणाओ वि अवरं करणिज्ज ति ? देव, संपुण्णा मे मणोरहा देवदंसणेणं ति। तओ राइणा दाऊणमणग्धेयं निययमाहरणं विइण्णपच्चइयनरसहाओ पेसिओ सुसम्मनयरं। तओ आपुच्छिऊण नरवइं निग्गओ सह रायपुरिसेहिं धणो। पत्तो य कइवयदियहि गिरिथलयं नाम पट्टणं । तत्थ वि य तम्मि चेय दियहे राइणो चंडसेणस्स मुटुं सव्वसारं नाम भंडागारभवणं । तओ आउलीहूया नायरया नगरारक्खिया य । गवेसिज्जति चोरा, मुद्दिज्जति भवणवीहीओ, परिक्खिज्जति आगंतुगा । एत्थंतरम्मि य संपत्तमेत्ता चेव गहिया इमे रायपुरिसेहि, भणिया य तेहिं । भद्दा, न तुब्भेहिं कुप्पियन्वं । साहिओ वुत्तंतो। तेहि भणियं-को एस अवसरो कोवस्स? तहि वच्चामो जत्थ तुम्भे नेह ति। नीया पंचउलसमीवं. पुच्छिया पंचउलिएहि 'कओ तुम्भे' ति ? तेहिं भणियं-'सावत्थीओं' । कारणिएहि भणियं -- 'कहि गमिस्सहत्ति ? तेहि भणियं--'सुसम्मनयरं' । कारणिएहि भणियं-'किनिमित्तंति ? तेहि तस्यापि समीक्षितकारिणश्चेष्टितस्य किमङ्ग पुनर्भवतो जीविताभ्यधिकसुतजीवितदायकस्य । धनेन भणितम्-देवदर्शनादपि अपरं करणीयमिति ? देव ! सम्पूर्णा मे मनोरथा देवदर्शनेनेति । ततो राज्ञा दत्त्वाऽनयं निजकमाभरणं वितीर्णप्रत्ययितनरसहायः प्रेषितः सुशर्मनगरम् । तत आपच्छ्य नरपति निर्गतः सह राजपुरुषर्धनः । प्राप्तश्च कतिपयदिवसैगिरिस्थलं नाम पट्टनम् । तत्रापि च तस्मिन्नेव दिवसे राज्ञश्चण्डसेनस्य मुष्टं सर्वसारं नाम भाण्डागारभवनम् । तत आकुलीभूता नागरका नगरारक्षकाश्च । गवेष्यन्ते चौराः, मुद्यन्ते भवनवीथयः, परीक्ष्यन्ते आगन्तुकाः। अत्रान्तरे च सम्प्राप्तमात्रा एव गृहीता इमे राजपुरुषः, भणिताश्च तैः । भद्रा ! न युष्माभिः कुपितव्यम् । कथितो वृत्तान्तः । तैर्भणितम्-क एषोऽवसरः कोपस्य ? तत्र व्रजामो यत्र यूयं नयतेति । नीताः पञ्चकुलसमीपम् । पृष्टाश्च पञ्चकुलिकैः कुतो यूयम्'-इति। तैर्भणितम्-'श्रावस्तीतः'। कारणिकैर्भणितम्-'कुत्र गमिष्यथ' इति ? तैर्भणितम्-'सुशर्मनगरम्' । कारणिकैर्भणितम्-'किनिमित्तम्'-इति ? तैर्भणितम्क्या ? विचारपूर्वक कार्य करने वाले उसके लिए भी यह थोड़ा है, आपकी तो बात ही क्या है, जिसने (मेरे) प्राण से भी अधिक (प्यारे) पुत्र को जीवन दे दिया।" धन ने कहा-"महाराज ! महाराज के दर्शन से मेरे मनोरथ पूर्ण हो गये।" अनन्तर राजा ने अपने बहुमूल्य आभूषण देखकर विश्वस्त पुरुषों के साथ सुशर्मनगर को भेज दिया। राजा से पूछकर राजपुरुषों के साथ धन निकला। ___ कुछ दिनों में गिरिस्थल नामक नगर को आया। वहां पर भी उसी दिन राजा चण्डसेन के सर्वसार नामक भण्डारगृह की चोरी हो गयी । उससे नागरिक और नगररक्षक आकुल हो गये। चोर खोजे जा रहे थे, भवनों की गलियाँ मूंदी जा रही थीं, आगन्तुकों की परीक्षा की जा रही थी। इसी बीच में आते ही इन लोगों को राजपुरुषों ने पकड़ लिया और उनसे कहा-"भद्र लोगो ! आप लोग क्रुद्ध मत होना।"(राजपुरुषों ने) वृत्तान्त कहा। उन्होंने उत्तर दिया-"यहाँ क्रोध की क्या बात है ? जहाँ पर आप लोग ले जायेंगे वहाँ चलते हैं। वे लोग इन्हें पंचकुल (पंचायत) के पास ले गये। पंचों (पंचकुलिकों) मे पूछा-"तुम सब कहाँ से आये हो ?" उन्होंने कहा"श्रावस्ती से।" कारणिकों (न्याकर्ताओं-पंचों) ने कहा-"हो जाओगे ?" उन्होंने कहा-"सुशर्मनगर Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० समराइज्चकहा भणियं-नरवइसमाएसाओ एवं सत्थवाहपुत्तं गेण्हिडं ति । कारणिएहि भणियं-अत्थि तुम्हाणं किंचि दविणजायं? तेहि भणियं-'अत्थि' । कारणिएहिं भणियं किं तयंति? तेहिं भणियं-इमस्स सत्थवाहपुत्तस्स नरवइविइण्णं रायालंकरण ति। कारणिएहि भणियं-पेच्छामो ताव केरिसं? तओ विसुद्धचित्तयाए दंसियं । पच्चभिन्नायं भंडारिएण। भणियं च तेण--- एयं पि देवसंतियं चेव कालंतरावहरियं रायालंकरणयं ति। तओ संखद्धा ते पुरिसा पुच्छिया य पंचउलेण। भहा, अवितहं कहेह कओ तुम्हाणमेयं ? तेहि भणियं-किमन्नहा तुम्हाणं निवेईथइ ? तओ कारणिहिं निवेइओ एस वत्तो चंडसेणस्स । 'सो चेव मे राया सव्वमेयं कारवेई' त्ति कुविओ एसो। नयाविथा इमे चारयं; 'पावियवो एएस सयासाओ सव्वो अत्थो' त्ति घराविया पयत्तेण। हिं च परमदुक्खिया जाव कइवदियहे परिवसंति, ताव तत्थेव रायपुरिसेहिं परिव्वायगरूवधारी रयणीए परिब्भमंतो सरित्थो चेव पहिओ महाभयंगो त्ति । नीओ मंतिसमीवं । तेण वि य 'लिंगधारी चोरियं करेइ त्ति, नत्थि से अन्नं पि अकरणिज्ज' ति कलिऊण वज्झो समाणत्तो। नरपतिसमादेशात् सार्थवाहपुत्रं ग्रहीतुमिति। कारणिकैणितम्-अस्ति युष्माकं किंचिद् द्रविणजातम् तैर्भणितम्-अस्ति । कारणिकैर्भणितम्-किं तद्' इति ? तैर्भणितम्-अस्य सार्थवाहपुत्रस्य नरपतिवितोर्णं राजाऽलङ्करणमिति। कारणिकर्भणितम्-प्रेक्षामहे तावत् कीदशम् ? ततो विशुद्धचित्ततया दशितम् । प्रत्यभिज्ञातं भाण्डागारिकेन । भणतं च तेन-एतदपि देवसत्कमेव कालान्तरापहृतं राजाऽलङ्करणमिति। ततः संक्षुब्धास्ते पुरुषाः पृष्टाश्च पञ्चकुलेन-भद्रा ! अवितथं कथयत, कुतो युष्माकमेतत् ? तैर्भणितम्--किमन्यथा युष्माकं निवेद्यते ? ततः कारणिकैनिवेदित एष वृत्तान्तश्चण्डसेनाय । स एव मम राजा सर्वमेतत् कारयति' इति कुपित एषः । नायिता इमे चारकम्, 'प्रापयितव्य एतेषां सकाशात् सर्वोऽर्थः' इति धारिताः प्रयत्नेन । तत्र च परमदुःखिता यावत् कतिपय दिवसान् परिवसन्ति, तावत् तत्रैव राजपुरुषः परिव्राजकरूपधारी रजन्यां परिभ्रमन् सरिक्थ एव गृहीतो महाभुजङ्ग इति। नोतो मन्त्रिसमापम्। तेनापि च 'लिङ्गधारी चौर्यं करोति इति नास्ति तस्य अन्यदपि अकरणीयम्' इति कलयित्वा वध्यः समाज्ञप्तः। को।" न्यायकर्ताओं ने कहा-"किस लिए ?" उन्होंने कहा- "राजा की आज्ञा से वणिकपुत्र को ले जाने के लिए।" न्यायकर्ताओं ने कहा-"तुम्हारे पास कुछ धन है ?" उन्होंने कहा-"है ।" न्यायकर्ताओं ने कहा-"वह क्या ?" उन्होंने कहा- "इस सार्थवाह पुत्र का, राजा का दिया हुआ राजकीय अलंकार है।" न्यायकर्ताओं ने कहा--"देखेंगे, कैसा है ?" तब विशुद्धचित्त से दिखलाया । भण्डारी ने पहचान लिया। उसने कहा- "महाराज का कुछ समय पहले अपहरण किया हुआ यह अलंकार है।" तब वे पुरुष क्षुब्ध हुए और पंचों ने पूछा-"भद्रो ! सच-सच बताओ, आपको यह कहाँ से मिला?" उन्होंने कहा-"आप लोगों से क्याों झूठ बोलें ?" तब न्यायकर्ताओं ने यह वृत्तान्त चण्डसेन से निवेदन किया। वही राजा मेरा सब कुछ कराता है-ऐसा सोचकर यह क्रुद्ध हुआ। इन लोगों को कारागार ले गये, इनके साथ सब धन पहुंचा दिया जाय-इस प्रकार प्रयत्नपूर्वक रखा। वहां पर अत्यधिक दुःख से कुछ दिन बीत, तभी राजगुरुषों ने परिव्राजक रूप को धारण कर रात्रि में भ्रमण करते हुए धन के साथ चोर को पकड़ा।न्त्री के समाप ले जाया गया। उसने भी लिंगधारी चोरी करता है अतः उसके लिए कुछ भी अकरणीय नहीं है-ऐसा मानकर वध की आज्ञा दे दी। १. कोइसं-क। Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउत्यो भयो] २६१ रायपुरिसेहि तणमसिगेल्यभूईविलित्तसव्वंगो। कोसियमालाभूसियसिरोहरो विगयवसणो य ॥२५२॥ निहिउत्तमंगकणवीरदामलंबंतभासुरालोओ। छित्तरकयायवत्तो उन्भडसियरासहारूढो ॥३५३॥ डिडिमयसदमेलियबहुजणपरिवारिओ य सो नवरं। दक्खिणदिसाए नीओ भीमं अह वज्झथाणं ति॥२५४॥ नीससिऊण सुदोह' सविलयमह पेच्छिऊण य जणोहं । परिचितियं च तेणं कहमलियं होइ मुणिवयणं ॥३५॥ एण्हिं पि मज्झ जुत्तं गहियं जं जस्स संतियं रित्थं । साहेमि तयं सव्वं धरणिगयं तस्स कि तेणं ॥३५६॥ इय चितिऊण भणिय। तेणं नरणाहसंतिया परिसा। मोत्तूण मं न मुढें थाणमिणं केणइ निउत्तं ॥३५७॥ राजपुरुषैस्तृणमषागैरिकभूतिावलिप्तसर्वाङ्गः । कौशिकमालाभूषितशिरोधरो विगतवसनश्च ॥३५२।। निहितोत्तमाङ्गकणवारदामलम्बमानभासुरालोकः। छित्तर(शूर्प)कृतातपत्र उद्भटसितरासभारूढः ।।३५३॥ डिण्डिमकशब्दमेोलतबहुजनपरिवारितश्च स नवरम् । दक्षिणदिशि नोतो भाममथ वध्यस्थानमिति ॥३५४।। निःश्वस्य सुदीर्घ सव्यलोकमथ प्रेक्ष्य च जनौघम परिचिन्तितं च तेन कथमलोकं भवति मुनिवचनम् ॥३५५।। इदानीमपि मम युक्तं गृहीतं यद् यस्य सत्कं रिक्थम् । कथयामि तत् सर्वं धरणीगतं तस्य कि तेन ॥३५६।। इति चिन्तयित्वा भणितास्तेन नरनाथसत्काः पुरुषाः। मुक्त्वा मां न मुष्टं स्थानमिदं केनचिन्नियुक्तम् ॥३५७।। राजापुरुषों ने कोयले और गेरू से उसका सारा शरीर लिप्त कर दिया था, कुश की बनी माला से उसकी गर्दन सुशोभित थी। वह नग्न था। सिर पर लटकी हुई कनेर की माला से वह देदीप्यमान हो रहा था । उसके ऊपर सर्य का छत्र लगा हुआ था तथा उसे प्रचण्ड सफेद गधे पर आरूढ़ कराया गया था। वह दूसरे बहुत से लोगों से घिरा हुआ डिण्डिमनाद के साथ दक्षिण दिशा में भयंकर वध-स्थान की ओर ले जाया जा रहा था । दुःख सहित लम्बी सांस लेकर और जन समुदाय को देखकर उसने विचार किया-मुनि के वचन झूठ कैसे हो सकते हैं ? इस समय भी मेरे लिए उचित है कि जिसका धन मैंने ग्रहण किया है, भूमि में गड़े हुए उस सब धन के विषय में कहूं । उससे क्या ? अर्थात् वह व्यर्थ है। ऐसा विचार कर राजा के पुरुषों से कहा कि मुझे छोड़कर किसी नियुक्त पुरुष ने इस स्थान पर चोरी नहीं की है।।३५२-३५७।। १, सदीई- कावल्प-क। Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ सव्वं च तयं दव्वं चिट्ठइ एत्थेव नवर थाणम्मि' | आरामसुन्नदेउल गिरिनदितीरेसु धरणिगयं ॥ ३५८ ॥ घेत्तूणय तं तुम्भे अप्पेह जणस्स जस्स जं तणयं । सिद्धं मए सचिन्हं पच्छा मारेज्जह ममं ति ॥ ३५६॥ सिद्धं च तओ सव्वं सपच्चयं जं जओ जया गहियं । चिट्ठइ य जत्थ देउल गिरिनदितीराइसु तहेव ॥ ३६०॥ गंतूण तेहि वि तओ सिट्ठममच्चस्स सव्वमेयं तु । जोयावियं च तेण वि पच्चइयनरेहि तं दव्वं ॥ ३६१॥ दिट्ठू च निरवसेस सिट्ठे जं जम्मि जम्मि थाणम्मि । पुन्वगहिएण रहियं रायालंकारदव्वेणं ॥३६२॥ दट्ठूण य तं दव्वं चिता मंतिस्स नवरमुप्पन्ना । पुरुवगहिएहि पत्तं तं वन्वं अन्नहा कहवि ॥ ३६३॥ सर्वं च तद् द्रव्यं तिष्ठति अत्रैव नवरं स्थाने । आरामशून्यदेवकुलगिरिनदीतीरेषु धरणीगतम् ॥ ३५८ ॥ गृहीत्वा च तद् यूयमर्पयत जनस्य यस्य यद् सत्कम् । शिष्टं मया सचिह्न पश्चाद् मारयत मामिति ॥ ३५६ ॥ शिष्टं च ततः सर्वं सप्रत्ययं यद् यतो यदा गृहीतम् । तिष्ठति च यत्र देवकुल गिरिनदोतीरादिषु तथैव ॥ ३६० ॥ गत्वा तैरपि ततः शिष्टममात्यस्य सर्वमेतत्तु । दर्शितं च तेनापि प्रत्ययित नरैस्तत् सर्व्वम् ॥ ३६१ ॥ दृष्टं च निरवशेषं शिष्टं यद् यस्मिन् यस्मिन् स्थाने । पूर्वगृहीतेन रहितं राजालङ्कारद्रव्येण ॥३६२॥ दष्ट्वा च तद् द्रव्यं चिन्ता मन्त्रिणो नवरमुत्पन्ना । पूर्वगृहीतैः प्राप्तं तद् द्रव्यं अन्यथा कथमपि ॥३६३।। वह सब धन यहीं दूसरे स्थान पर रखा है। उद्यान, सूने मन्दिर तथा पर्वतीय नदी के किनारे भूमि गड़ा हुआ है । उसे लेकर आप लोग जिसका जो स्वामी हो उसे सौंप दो। मैंने चिह्न सहित बतला दिया है, बाद में (अब) मुझे मार दें।" उसने सभी जो कुछ जहाँ से ग्रहण किया था, वह विश्वासपूर्वक बतला दिया । वह धन, मन्दिर तथा पर्वतीय नदी के तीर आदि पर उसी प्रकार रखा था । जाकर उन्होंने ( राजपुरुषों ने) मन्त्रीको (आमात्यको) भी सब बतला दिया। उसने भी विश्वस्त पुरुषों द्वारा सभी को दिखलाया । जो जिस स्थान पर बतलाया था उसे सम्पूर्ण रूप से वहीं देखा । वह धन पहले ग्रहण किये गये राजा के अलंकार प धन से रहित था । उसे देखकर मन्त्री को दूसरी चिन्ता उत्पन्न हुई कि पहिले पकड़े गए से प्राप्त धन दूसरा कैसे है ? ।। ३५८-३६३ ।। १. ठापम्मि- । [ समदाइच्चकहा Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्यो भयो] २६३ एवं चितिऊ' सो परिवायगरूवधारी भुयंगो करुणापवन्त्रेण मंतिणा सदाविऊण सविणयं भणिओ त्ति वेससहावविरुद्वेण तुज्झ चरिएण विम्हओ मज्झ । साहेहि ता फुडत्यं किमेयमवरोप्परविरुद्धं ॥ ३६४॥ एवं च भणियमेत्तेण भणियं परिव्वायएण । नत्थि खलु विसयलुद्धाणमवरोप्परविरुद्धं ति । अवि य एवं च चिन्तयित्वा परिव्राजकरूपधारी भुजङ्गः करुणाप्रपन्नेन मन्त्रिणा शब्दयित्वा सविनयं भणित इति जणणिजणयाण सुकयं न गर्णेति न बंधुमित्तसामीणं । विसयविसमोहियमणा पुरिसा पर लोगमग्गं च ॥ ३६५॥ एवं च सिटुमेत्ते भणियममच्चेण जुज्जए एयं । विन्नादरिद्दाणं न उणो तुमए सरिच्छाणं ॥ ३६६॥ ता साहेहि अवितहं परधणगहणस्स कारणं मज्झ । सलाणुवालणस्स य हिरियं मोत्तूण किं बहुणा ॥ ३६७॥ वेशस्वभावविरुद्धेन तव चरितेन विस्मयो मम । कथय ततः स्फुटार्थं किमेतद् अपरापरविरुद्धम् || ३६४|| एवं च भणितमात्रेण भणितं परिव्राजकेन - नास्ति खलु विषयलुब्धानामपरापरविरुद्धमिति । अपि च नहीं है । ऐसा सोचकर परिव्राजक रूपधारी चोर को बुलाकर करुणायुक्त मन्त्री विनय सहित बोला "वेश और स्वभाव के विरुद्ध तुम्हारे चरित्र से मुझे आश्चर्य है । अतः स्पष्ट रूप से कहो, यह बात परस्पर विरुद्ध क्यों है ? ॥ ३६४ ॥ ऐसा कहने मात्र से ही परिव्राजक ने कहा- “विषय के लोभी लोगों के लिए परस्पर विरुद्ध कोई बात जननीजनकानां सुकृतं न गणयन्ति न बन्धुमित्रस्वामिनाम् । विषयविषमोहितमनसः पुरुषाः परलोकमार्गं च ॥ ३६५॥ एवं च शिष्टमात्रे भणितममात्येन युज्यते एतत् । विज्ञानदरिद्राणां न पुनस्त्वया सदृशानाम् ॥३६६॥ ततः कथय अवितथं परधनग्रहणस्य कारणं मम । सकलानुपालनस्य च हियं मुक्त्वा किं बहुना ॥ ३६७॥ कहा भी है विषयरूपी विष से मोहित मन वाले पुरुष माता-पिता, पाप और परलोक को नहीं गिनते हैं ।" ऐसा कहने पर मन्त्री ने कहा - "ज्ञानहीन लोगों के लिए यह बात ठीक है, किन्तु आप जैसे लोगों के लिए ठीक कैसे है ? अतः दूसरे के धन को लेने का कारण मुझसे सही-सही कहो । अधिक कहने से क्या ? समस्त औपचारिकता और लज्जा को छोड़कर कहो ।। ३६५-३६७॥ १. एवं च चिन्तिऊण परिव्वाय गरूवधारणमुयङ्गो । करुणावन्नचितेग मतिगः सविग य भणियो ॥ इति ख ग पुस्तके Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ एवं च भणिए भणियं परिव्वायएण निसुणसु अवहियमणसो वृत्तंतं मज्झ पुच्छिओ जो ते । तह सामि फुडत्थं जह कहियं ओहिनाणेणं ॥ ३६८ ॥ । अस्थि इहेव भरहम्मि पुंडो नाम जगवओ । तम्मि अमरावइसरिसं पुंडवद्धणं नाम नयरं । तत्थ अग्गवेसायणसगोत्तो सोमदेवो नामं माहणो । तस्स सुओ नारायणाभिहाणो अहं ति । तम्मि नयरे 'जीवधाएण सग्गो' त्ति कुसत्थं परूवेंतो चिट्ठामि जाव केइ पुरिसा समंतओ वुण्णवयणतरलच्छं पलोएमाणा चोर त्ति कलिऊण बज्झा निज्जति । ते य दट्ठण भणियं मए 'घाएह एए महाभुयंगे' त्ति । तओ तं मम वयणं सोऊण एक्केण साहुणा समुप्पन्नो हिनाणेण नाइदूरट्ठिएणेव जंपियमहो कट्ठमन्नाणं ति । तं च मे साहुवयणं सोऊण समुप्पन्ना चिंता । किमेएण मं उद्दिसिऊण पसंतरुवेणावि एयं जंपियं ति । तओ सो मए चलणेसु निवडिऊण पुच्छिओ 'भयवं किमन्नाणं' ति । तेण कहियं - सव्वसत्ताणसंता हिओ दाणं विरुद्धोवएसो य । मए भणियं को असताहिओओ को वा विरुद्धोवएसो त्ति ? साहुणा भणियं - जमे पुव्वकय कम्मपरिणइवसेण वसणपत्ते निरवराहे वि महाभुयंगे त्ति अहिलवसि' एवं च भणिते भणितं परिव्राजकेन 1 शृणु अवहितमना वृत्तान्तं मम पृष्टो यस्त्वया । तथा कथयामि स्फुटार्थं यथा कथितमवधिज्ञानेन ॥ ३६८ ॥ [ समराइचकहा अस्ति इहैव भारते पुण्ड्रो नाम जनपदः । तस्मिन् अमरावतीसदृशं पुण्ड्रवर्धनं नाम नगरम् । तत्राग्निवेश्यायनसगोत्रः सोमदेवो नाम ब्राह्मणः । तस्य सुतो नारायणदेवाभिधानोऽहमिति । तस्मिन् नगरे 'जीवघातेन स्वर्गः' इति कुशास्त्रं प्ररूपयन् तिष्ठामि, यावत् केचित् पुरुषाः समन्ततस्त्रस्तवदनतरलाक्षं प्रलोकमानाः 'चोरः ' - - इति कलयित्वा वध्या नीयन्ते । ताश्च दृष्टा भणितं मया 'घातयत एतान् महाभुजङ्गान्' - इति । ततस्तद् मम वचनं श्रुत्वा एकेन साधुना समुत्पन्नावधिज्ञानेन नातिदूरस्थितेनैव जल्पितम् - 'अहो कष्टमज्ञानम्' । तच्च मे साधुवचनं श्रुत्वा समुत्पन्ना चिन्ता । किमेतेन मामुद्दिश्य प्रशान्तरूपेणापि एतज्जल्पितमिति । ततः स मया चरणयोनिपत्य पृष्टः - भगवन् ! किमज्ञानमिति । तेन कथितम् - सर्वसत्त्वानामसदभियोगदानं विरुद्ध देशश्च । मया भणितम् - कोडस - दभियोगः को वा विरुद्धोपदेश इति साधुना भणितम् - यद् एतान् पूर्वकृतकर्मपरिणतिवशेन ऐसा कहने पर परिव्राजक ने कहा "मुझसे जो वृत्तान्त तुमने पूछा है-उसे ध्यान लगाकर सुनो। जैसा अवधिज्ञानी ने कहा है वैसा मैं स्पष्ट रूप से कहता हूँ ।" ॥ ३६८ ॥ इसी भारतवर्ष में पुण्ड्र नाम का जनपद है । उसमें अमरावती के वहाँ पर अग्निवेश्यायन गोत्र वाला सोमदेव नाम का ब्राह्मण था । उसका मैं हिंसा से स्वर्ग होता है । इस प्रकार कुशास्त्रों की प्ररूपणा करता हुआ में रहता था । तभी जिनका मुख चारों ओर से भयभीत था और जो चंचल नेत्रों वाले दिखाई दे रहे थे, ऐसे कुछ पुरुषों को 'चोर' ऐसा मानकर वध के लिए ले जाया जा रहा था।' उन्हें देखकर मैंने कहा - 'इन चोरों को मार डालो।' उस वचन को सुनकर समीपवर्ती एक अवधिज्ञानी साधु ने कहा - 'ओह, अज्ञान कष्टकारक है ।' उन साधु के वचन सुनकर मुझे चिन्ता इन्होंने मुझे लक्ष्य कर ऐसा क्यों कहा ? तब मैंने उनके चरणों उन्होंने कहा - 'समस्त प्राणियों पर झूठा आरोप लगाना और क्या है अथवा विरुद्ध उपदेश क्या है ?" साधु ने कहा - 'जो कि उत्पन्न हुई । इस प्रशान्त रूप वाले होने पर भी में गिरकर पूछा - 'भगवन् ! अज्ञान क्या है विरुद्ध उपदेश देना ।' मैंने कहा - 'झूठा आरोप ?' समान पुण्ड्रवर्धन नाम का नगर था । नारायण पुत्र हूँ । उस नगर में 'जीव Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउत्यो भवो एस असंताहिओओ; जओ सच्चं पि परपीडाकरं त वत्तव्वं ति। एसा य वो सुती पइयपइयाभिहाणे चोरचोरभणणे य तत्तुल्लदोसया, सईभूया ए] वि सयासुद्धसहावा [ए] वि असइपयाभिहाणे अचोरचोरभणणेण य मिच्छाभिहाणाओ' दुगुणो दोसो त्ति। जं पुग 'जोवघाएण सग्गो' ति पल्वेसि एस विरुद्धोवएसो; जओ न जीवघाओ परलोए सुहफलओ होइ। भणियं च सयलेहि तित्थनायगेहिं । न हिंसियव्वाणि सव्वभूयाणि । अहवा जो कोहेणऽभिभूओ घायइ जीवे सया निरणुकम्पो । सो भवचारगवासं पुणो पुणो पावए बहुसो ॥३६६॥ अवि य जम्मंतरदिन्नस्स य फलसेसमिहेव पाविहिसि जम्मे। थेवरियहेहि वालय नवरमसंताहिओगस्स ॥३७०॥ मए भणियं-भयवं, केरिसो जम्मंतरविइण्णो असंताहिओगो, केरिसं वा तस्स फलमणहयं व्यसनप्राप्ते निरपराधेऽपि 'महाभुजङ्गान्' इति अभिलपसि, एषोऽसदभियोगः । यतः सत्यमपि परपीडाकरं न वक्तव्यमिति । एषा च वः श्रुतिः-पतितपतिताभिधाने चौरस्य चौरभणने च तत्तुल्यदोषता । 'जीवघातेन स्वर्गः' इति प्ररूपयसि एष विरुद्धोपदेशः, यतो न जोवधातः परलोके शुभफलदो भवति । भणितं च सकलैः तीर्थनायकैः-"न हिंसितव्यानि सर्वभूतानि । अथवा यः क्रोधेनाभिभूतो घातयति जीवान् सदा निरनुकम्पः । स भवचारकवासं पुनः पुनः प्राप्नोति बहुशः ॥३६६॥ अपिच जन्मान्तरदत्तस्य च फलशेषमिहेव प्राप्स्यसि जन्मनि । स्तोकदिवसैलिक ! नवरमसदभियोगस्य ॥३७०॥ मया भणितम्-भगवन् ! कीदृशो जन्मान्तरवितीर्णोऽसदभियोगः, कीदृशं वा तस्य फलपूर्वकृत कर्मों के फलवश दुःख को प्राप्त इन निरपराधों को महाभुजंग कह रहे हो, यह झूठा आरोप है, क्योंकि सत्य होने पर भी पीड़ादायक वचन नहीं बोलना चाहिए। हम लोगों की यह श्रुति है कि पतित को पतित कहने और चोर को चोर कहने में उसी के समान दोष है । सती और शुद्ध स्वभाव वाली को असती कहना और अचोर को चोर कहने में झूठ कथन करने के कारण दुगुना दोष है । और जो 'जीवहिंसा से स्वर्ग होता है' यह प्ररूपणा करते हो, यह विरुद्धोपदेश है ; क्योंकि जीवधात परलोक में शुभफल देने वाला नहीं होता है । समस्त तीर्थनायकों ने कहा है-"समस्त प्राणियों में किसी की भी हिंसा नहीं करनी चाहिए। अथवा जो निर्दयी क्रोध से अभिभूत होकर सदा जीवों का घात करता है वह अनेक बार संसार रूपी कारागार में पुन:-पुनः निवास प्राप्त करता है ॥३६॥ कहा भी है झूठ बोलने वाले हे बालक ! कुछ ही दिनों में दूसरे जन्मों के शेष कर्मफलों को यहीं इसी जन्म में प्राप्त करोगे ॥३७०॥ मैंने कहा-"भगवन ! दुसरे जन्म में कैसा झूठारोपण किया और उसका कैसा फल मैंने पाया अथवा कैसा फल शेष है ?" साधु ने कहा-सुनो! १. भिहाणे उ-क। Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ मए, केरिस वा फलसेसं ति ? साहुणा भणियं -वच्छ सुण । अत्थि इहेव भारहे वासे उत्तरावहे विसए गज्जणयं नाम पट्टणं । तत्थ आसाढो नाम माहणो । रच्छुया से भारिया । ताणं इओ अतीयपंचमभवम्मि चंडदेवाभिहाणो' पुत्तो तुमं आसि । काराविओ dri, सुणाविओ सत्थाई आसाढेण । समुप्पन्नो ते विज्जाहिमाणो । ठिओ गज्जणयसामिणो वीरसेल्स समोवे, संपूइऔ तेज, विइण्णं जीवणं, बहु मन्नए राया । अइक्कंतो कोइ कालो । अन्नया य तम्मि चैव नयरे परिव्वायगभत्ता विणीयसेट्ठिस्स धूया बालविहवा वीरमई नाम; सा य अविवेयबहुलाए इत्थियाणं दुज्जयाए मोहस्स अहिलसणीयधाए विसयाणं वियारकुलहरयाए जोव्वणस्स अणवेक्खऊण नियकुलं अणालोचिऊण आयइं तन्नधरिवत्थव्वगसीहलाभिहाणेण मालागारेण समं पवसिय त्ति । इओ य तस्मि चेत्र दियहे तीसे चैव पूयणिज्जो ससमयायारपरिवालणरई जोगप्पा नाम परिव्वायगो, सो निस्संगयाए पव्वइयगाणं कज्जाभावेण य संसियव्वस्स अणाइक्खिऊण कस्सइ थासरं गओ त्ति । जाओ य लोयवाओ 'अहो वीरमई पवसिय त्ति । विन्नायं च तुमए परिव्वायय । मनुभूतं मया, कीदृशं वा फलशेषमिति ? साधुना भणितम् - शृणु ! अस्ति इहैव मारते वर्षे उत्तरापथे विषये गज्जनकं नाम पत्तनम् । तत्राषाढो नाम ब्राह्मणः । रच्छुका तस्य भार्या । तयोरितोऽतीत पञ्चमभवे चण्डदेवाभिधानः पुत्रस्त्वमासीः । कारितो वेदाध्ययनम् श्रावितः शास्त्राणि आषाढेन । समुत्पन्नस्ते विद्याभिमानः । स्थितो गज्जनकस्वामिनो वीरसेनस्य समीपे, सम्पूजितस्तेन, वितीर्णं जीवनम्, बहु मन्यते राज्ञा । अतिक्रान्तो कोऽपि कालः । अन्यदा च तस्मिन्नेव नगरे परिव्राजकभक्ता विनीतश्रेष्ठिनो दुहिता बालविधवा वीरमती नाम । सा च अविवेकबहुलतया स्त्रीणां दुर्जयतया मोहस्य, अभिलषणीयतया विषयाणां विकार कुल गृहतया यौवनस्य, अनपेक्ष्य निजकुलम्, अनालोच्यायति तन्नगरीवास्तव्यकसिंहलाभिधानेन मालाकारेण समं प्रोषितेति । इतश्च तस्मिन्नेव दिवसे तस्या एव पूजनीयः स्वसमयाचारपरिपालनरतिर्योगात्ना नाम परिव्राजकः । स निःसङ्गतया प्रब्रजितानां कार्याभावेन च शंसितव्यमनाख्याय कस्यचिद् स्थानेश्वरं गत इति । जातश्च लोकवादः - 'अहो वीरमती प्रोषिता ' -- इति । विज्ञातं त्वया परिव्राजक [ समराइच्चकहा इसी भारत वर्ष के उत्तरापथ में गजनक नाम का पत्तन ( नगर ) है । वही आषाढ़ नाम का ब्राह्मण था । उसकी पत्नी रच्छुका थी । तुम इससे पहले पाँचवें भव में चण्डदेव नाम के पुत्र थे । आषाढ़ ने तुम्हें विद्याध्ययन कराया, शास्त्र सुनवाये । तुम्हें विद्या का अभिमान हो गया । (तुम) गज्जनक स्वामी वीरसेन के पास रहे, उसने सत्कार किया, आजीविका दी, राजा बहुत मानने लगा । कुछ समय बीत गया । एक समय उसी नगर में परिव्राजकों की भक्त विनीत सेठ की बालविधवा पुत्री वीरमती थी । वह स्त्रियों में अविवेक की बहुलता होने के कारण, मोह को जीतना कठिन होने के कारण, विषयों की अभिलाषा से तथा यौवन विकारों का कुलगृह होने के कारण अपने कुल की अपेक्षा न कर भावी फल को न विचारकर उसी नगर में रहने वाले ' सिंहल' नामक माली के साथ भाग गयी । इधर उसी दिन उसकी कन्या का पूजनीय 'योगात्मा' नाम का परिव्राजक, जो कि अपने शास्त्रानुकूल आचरण के प्रव्रजितों की निरासक्ति तथा कार्य न होने के कारण अपना निश्चय किसी से कहे बिना ही स्थानेश्वर को गया । लोगों में चर्चा फैल गयी कि 'अरे, वीरमती भाग गयी ।' तुम्हें परिव्राजक के जाने की जानकारी हुई । तब आशय अशुद्ध होने और प्राणियों का पालने में रत था, १. चंददेवा कनक ! Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पउवो भवोj २६७ गमणं । तओ असुद्धयाए आसयस्स विचित्तचरिययाए सत्ताणं समुप्पन्ना ते चिता । नणं सा जोयप्पणा सह पवसिया भविस्सइ। अन्नया पवत्ता राधकुले कहा, जहा विणीयसे ट्ठिस्स धूया न याणिज्जइ कहिं पवसिय त्ति ? तओ तए उज्झिऊण सस्थायारं अवलंबिऊण इयरपुरिसमग्गं अणवेक्खिऊण अत्तणो लहुययं' अयाणिंऊण सेट्ठिउम्माहयं एवं जंपियं ति। किमेत्थ जाणि पव्वं, अहं जाणामि । राइणा भणियं-- 'कह ति ? तर भणियं-जोयप्पणा सद्धि पवसिय ति। राइणा भणियं-परिचत्तनियकलत्तारंभो खु सो भगवं । तए भणियं --अओ चेव परकलत्ताइं पत्थेइ। महाराय, एवंविहा चेव एए पासंडिणो। न एत्थ परमत्थबुद्धी कायव्य ति। एयं च सोऊण विपरिणया धम्मम्मि केइ पाणिणो । सवणपरंपराए य आयण्णियमिणं सेसपरि व्वायरहिं; वज्झो कओ जोयप्पा, जाया य से सपक्खपरपक्षेहि पायं विडंबणा। एवंविहमिच्छापरिणामवत्तिणा बद्धं तए तिव्वं कम्मं । अदक्कतो कोइ कालो। परिक्खीणमहाउयं । तओ अपरिचत्तयाए आरभस्स मायाबहुलयाए सेसकालं अणा सेवणाए धम्मस्स विचित्तयाए कम्मपरिणईणं मओ समाणो कोल्लागसन्निवेसे समुप्पन्नो एलगत्ताए गमनम् । ततोऽशुद्धतयायस्य विचित्रचरितया सत्त्वानां समुत्पन्ना ते चिन्ता-'ननं सा योगात्मना सह प्रोषिता भविष्यति । अन्यदा प्रवत्ता राजकुले कथा, चथा विनीतश्रेष्ठिनो दुहिता न ज्ञायते कुत्र प्रोषितेति? ततस्त्वया उज्झित्वा शास्त्राचारम्, अवलम्ब्य इतरपुरुषमार्गम्, अनवेक्ष्यात्मनो लघकताम, अज्ञात्वा श्रेष्ठ उन्मार्थ (विनाशं) एवं जल्पितमिति । किमत्र ज्ञातव्यम् ? अहं जानामि । राज्ञा भणितम्-'कथम्- इति । त्वया भणितम्--योगात्मना सार्धं प्रोषितेति । राज्ञा भणितमपरित्यक्तनिजकलत्रारम्भः खलु स भगवान् । त्वया भणितम्-अत एव परकलत्राणि प्रार्थयते। महाराज! एवंविधा एवैते पाखण्डिनः। नात्र परमार्थबुद्धिः कर्तव्येति । एतच्च श्रत्वा विपरिणता धर्मे केचित् प्राणिनः । श्रवणपरम्परया चाकणितमिदं शेषपरिव्राजकैः, बाह्यः कृतो योगात्मा, जाता च तस्य स्वपक्षपरपक्षैः प्रायो विडम्बना । एवंविधमिथ्यापरिणामवर्तिना बद्धं त्वया तो कर्म । अतिक्रान्तः कोऽपि कालः। परिक्षीणमथायुष्कम् । ततोऽपरित्यक्ततयाऽऽरम्भस्य मायाबहुलतया शेषकालमनासेवनया धर्मस्य विचित्रतया कर्मपरिणतीनां मृतः सन् कोल्लाकसन्निवेश समुत्पन्न एडकतचरित विचित्र होने के कारण तुम्हें चिन्ता हुई 'निश्चित रूप से वह योगात्मा के साथ भाग गयी होगी।' एक बार राजपरिवार में चर्चा हुई कि विनीत सेठ की पुत्री न मालूम कहाँ भाग गयी? तब तुमने शास्त्र के आचार को छोड़कर, दूसरे पुरुषों के मार्ग का सहारा लेकर अपनी लघुता की परवाह न कर, सेठ के विनाश को न जानकर ऐसा कहा-'इसमें क्या जानना, मैं जानता हूँ।' राजा ने कहा-'कैसे ?' तुमने कहा-'योगात्मा के साथ भाग गयी।' राजा ने कहा-'उन भगवान् ने अपनी स्त्री आदि परिग्रह का त्याग कर दिया है।' तम कहा-'इसीलिए दूसरे की स्त्रियों की इच्छा करता है। महराज ! ये पाखण्डी ऐसे ही होते हैं। इन्हें सही नहीं मानना चाहिए।' यह सुनकर कुछ प्राणी धर्म से विपरीत हो गये। शेष परिव्राजकों के कानों में यह बात पहुंची, उन्होंने योगात्मा को बाहर निकाल दिया। स्वपक्ष और परपक्ष के लोगों ने उसकी हंसी की। इस प्रकार के झूठे परिणामों के कारण तुमने तीव्र कर्म का बन्ध किया । कुछ समय बीत गया। आयु क्षीण हुई । तब आरम्भ का त्याग किये बिना, माया की प्रचुरता के कारण शेष समय में धर्म का सेवन कर कर्मों की विचित्र परिणति होने से मरकर कोल्लाक सन्निवेश में भेड़ के रूप में उत्पन्न हुए। कुछ समय बीत गया। उस कर्म के दोष से १. हलुययं-क। Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ [समराइच्च कहा ति । अइक्कतो को कालो । तक्कम्मदोसेण य सडिया ते जीहा । गहिओ महावेयणाए । थेवकालेणं चेव झीणं च ते आउयं । तओ मरिऊण तक्कस्मसेसयाए कोल्लागसन्निवेसाडवीए चेव समुप्पन्नो गोमा गत्ताए ति । तत्थ वि य तक्कम्मपेरियतहा विहफलभक्खणेण सडिया ते जीहा । अइक्कंतो कोइ कालो । तओ मरिऊण तक्कम्मसेसयाए चैव समुप्पन्नो साएयनरवइविलासिणीए मयणलेहाभिहाणा' सुयत्ताए ति । पत्तो जोव्वणं, वल्लहो नरवइस्स । अन्नया तक्कम्म दोसओ चेव सुरापाणमत्तेणं विणावि कज्जेणं दढमक्कोसिया रायजणगी । सुओ रायउत्तेण, वाराविओ तेणं । तओ तं पि अक्कोसिउं पत्तो । कुविएण छिंदाविया ते जोहा । ववगओ मओ । लज्जिओ खु अत्तणो वृत्तंतेणं । पडिवन्नो य अणसणं । मासमेत्तेण कालेण विमुक्को पाहि । समुप्पन्नो य एत्थ पुंडवद्धणम्मि' माहणसुयत्ताए ति । एयमणुहूयं तए । ओममेयं सोऊण समुप्पन्नो संवेगो, जाओ भवविराओ । चिनियं मए । अहो दुक्खउत्तणं पमायचरियस्स । पुच्छिओ साहू । भयवं, केरिसं फलसेसं ति ? तओ तेण अइसयनाणिणा विसेसेणं इमं अवलोइऊण भणियं सकरुणं । वच्छ, अविवेगिजणाणुरूवा सयललोए विडंबणा सेसं ति । येति । अतिक्रान्तः कोऽपि कालः । तत्कर्मदोषेन च शटिता ते जिल्ह्वा । गृहोतो महावेदनया । स्तोककालेनैव क्षोणं च तवायुः । ततो मृत्वा तत्कर्मशेषतया कोल्लाकसन्निवेशाटव्यामेव समुत्पन्नो गोमायुकतयेति । तत्रापि च तत्कर्मप्रेरिततथाविधफल भक्षणेन शटिता ते जिह्वा । अतिक्रान्तः कोऽपि कालः । ततो मृत्वा तत्कर्मशेषतयैव समुत्पन्नो साकेतनरपतिविलासिन्यां मदनलेखाभिधानायां सुतयेति । प्राप्तो यौवनम्, वल्लभो नरपतेः । अन्यदा तत्कर्मदोषत एव सुरापानमत्तेन विनाऽपि कार्येण दृढमाकुष्टा राजजननी । श्रुतो राजपुत्रेण, वारितस्तेन ततस्तमपि आक्रोष्टं प्रवृत्तः । कुपितेन छेदिता तै जिह्वा । व्यपगतो मदः । लज्जितः खल्वात्मनो वृत्तान्तेन । प्रतिपन्नश्चानशनम् । मासमात्रेण कालेन विमुक्तो प्राणेभ्यः । समुत्पन्नश्चात्र पुण्ड्रवर्धने ब्राह्मणसुततयेति । एतदनुभूतं त्वया । ततो ममैतत् श्रुत्वा समुत्पन्नः संवेगः, जातो भवविरागः, चिन्तितं मया - अहो ! दुःखहेतुत्वं प्रमादचरितस्य । पृष्टों साधुः कीदृशं फलशेषमिति । ततस्तेनातिशयज्ञानिना विशेषेणेममवलोक्य भणितं सकरुणेन । वत्स ! अविवेकिजनानुरूपा सकललोके विडम्बना शेषमिति । ततो मया तुम्हारी जीभ सड़ गयी । महावेदना ने तुम्हें जकड़ लिया। थोड़े ही समय में तुम्हारी आयु क्षीण हो गयी । तब मरकर उस कर्म के शेष रह जाने के कारण कोल्लाक सन्निवेश के जंगल में ही सियार हुए। उस जन्म में भी उस कर्म के कारण उस प्रकार के फल को खा लेने के कारण तुम्हारी जीभ सड़ गयी । कुछ समय बीत गया । तब मरकर उसी कर्म के शेष रह जाने के कारण अयोध्या के राजा की मदनलेखा नामक वेश्या के घर पुत्री हुए । यौवनावस्था को प्राप्त वह राजा की प्रिय हुई । एक बार उसी कर्म के दोष से मदिरापान में मतवाली होकर कार्य के बिना भी राजमाता को खूब डाँटा । राजपुत्र से सुनने, मना करने पर उसे भी डाँटने लगी । कुपित होकर ( उसने) तेरी जीभ छेद दी । मद दूर हुआ । अपने वृत्तान्त पर लज्जित हुई और अनशन धारण कर लिया। एक मास बाद प्राण छूटे और इस पुण्ड्रवर्धन में ब्राह्मणपुत्र के रूप में उत्पन्न हुए। तुमने इस प्रकार अनुभव किया । तब यह सुनकर मैं उद्विग्न हो गया । संसार के प्रति विरक्ति हो गयी। मैंने सोचा - ओह ! प्रमादपूर्वक किया हुआ आचरण दुःख का कारण है । साधु से पूछा - इसका फल क्या होगा ? तब उन अतिशय ज्ञानी ने इसे विशेष देखकर ( जानकर ) करणापूर्वक कहा - " वत्स ! अविवेकी मनुष्यों के अनुरूप तथा समस्त लोगों की हँसी १. मयणलयाक ९. पोण्डबद्ध गम्मिक | Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भवो ] २६६ तओ मए समुप्पन्नवेरग्गेण मुणिवयणभोएण सुगहियनामगुरुसमी वे पवन्ना पव्वज्जा । अइक्कतो कोइ कालो । लद्वाओ य गुरुसुरलोयगमणकाले मए गुरुसुस्सूसापरेण गुरुसयासाओ तालग्घाडणिगयणगामिणीओ दुवे महाविज्जाओ । भणिओ म्हि गुरुणा-वच्छ ! एवाओ धम्मकायपरिवालणत्थं कपि महावसणकालम्मि चेव तए पउज्जियन्त्राओ, न उण सया असारविसयसुहसाहणत्थं ति । अन्नं च, एयाओ धारयंतेणं परिहासेणावि अलियं न जंपियव्वं; पमायओ जंपिए समाणे तक्खणं चैव नाहिप्पमाण विमलजलगएणं उद्धबाहुणा अणिमिसलोयणेणं एयासि चेव अट्टसहस्सेणं जावो दायत्वो ति । ओम पावमोहिमणेणं साहुसिटुनियइवसवत्तिणा अविज्जाणुरायनडिएणं गुरुवयणपडिकूलं इहपरलोग मग्गविरुद्धं सव्वमियमणुचिट्ठियं । जंपियं च मए कल्लं असंपत्ताए भयवईए संभाए आवसहासन्नारामबउलतलगएणं पमायओ तरुण रामायणपुच्छिएण अपरिहाससीलेण वि परिहासेणं उभयलोयविरुद्धं अलियवयणं ति । मंतिणा भणियं 'कि जंपियं' ति ? परिव्वायएण भणियंपुच्छिओ म्हि कल्लं तक्खणकयजलावगाहणाहि आवसहदेवयादंसणत्थमागयाहिं महुरपरिक्खलंत समुत्पन्नवैराग्येन मुनिवचनभीतेन सुगृहीतनामगुरुसमीपे प्रपन्ना प्रव्रज्या । अतिक्रान्तः कोऽपि कालः । लब्धे च गुरुसुरलोकगमनकाले मया गुरुशुश्रूषापरेण गुरुसकाशात् तालोद्घाटिनी-गगनगाम महाविद्य । भणितोऽस्मि गुरुणा - वत्स ! एते धर्मकायपरिपालनार्थे कुत्रापि महाव्यसनकाले एव त्वया प्रयोक्तव्ये, न पुनः सदाऽसारविषयसुखसाधनार्थमिति । अन्यच्च - एते धारयता परिहासेनापि अलोकं न जल्पितव्यम्, प्रमादतो जल्पिते सति तत्क्षणमेव नाभिप्रमाणविमलजलगतेन ऊर्ध्वबाहुनाऽनिमिषलोचनेन एतयोरेवाष्टसहस्रेण जापो दातव्य इति । ततो मया पापमोहितमनसा साधुशिष्ट नियतिवशवर्तिनाऽविद्यानुरागनटितेन ( व्याकुलितेन ) गुरुवचनप्रतिकूल मिहपरलोकमार्ग विरुद्धं सर्वभिदमनुष्ठितम् । जल्पितं च मया कल्येऽसन्प्राप्तायां भगवत्यां सन्ध्यायामावसथासन्नारामत्रकुलतलगतेन प्रमादतस्तरुणरामाजनपृष्टेनापरिहासशीलेनापि परिहासेनोभयलोक - विरुद्धमलीकवचनमिति । मन्त्रिणा भणितम् - किं जल्पितमिति ? परिव्राजकेन भणितम् - पृष्टोऽस्मि कल्ये तत्क्षणकृतजलावगाहनाभिरावसथदेवतादर्शनार्थमागताभिर्मधुरपरिस्खलद्वचनाभिः सवि मात्र जिसमें शेष है, इस प्रकार का फल प्राप्त होगा । तब मैंने विरक्त होकर मुनि के वचन से भयभीत हो 'सुगृहीत' नाम वाले गुरु के पास दीक्षा ले ली। कुछ समय बीता । गुरु के स्वर्ग-गमन के समय मैंने गुरु की सेवा के कारण उनसे ताली बजाने से प्रकट होने वाली और आकाशगामिनी ये दो महाविद्याएँ ले लीं। गुरु ने कहा था - 'वत्स ! इन दोनों विद्याओं का प्रयोग धर्मकाय ( धार्मिक शरीर) की रक्षा के लिए बहुत बड़ी आपत्ति के समय करना, सदा साररहित विषय सुखों के साधन के लिए इनका प्रयोग न करना । दूसरी बात यह है-' इनको धारण करते हुए हँसी में भी झूठ मत बोलना, प्रमाद से झूठ बोलने पर उस समय नाभि प्रमाण स्वच्छ जल में भुजाएँ ऊपर कर अपलक दृष्टि कर इनका आठ हजार जाप करना ।' तब मैंने पाप से मोहित मन वाला होकर, के द्वारा बतायी हुई नियति के वश में होकर, अविद्या के अनुराग से व्याकुल होकर, गुरु के वचनों से प्रतिकूल तथा इसलोक और परलोक के मार्ग से विरुद्ध यह सब किया और कल्य भगवती सन्ध्या को न कर कुटी के समीपवर्ती उद्यान के बकुलवृक्ष के नीचे जाकर, प्रमाद से तरुण स्त्रियों के द्वारा हँसी में पूछे जाने पर हँसी में ही मैंने इसलोक और परलोक दोनों का विरोधी असत्य वचन बोला। मन्त्री ने कहा - " क्या बोला ?" परिव्राजक ने कहा - " उसी समय जल में तैरती हुई कुटी के देवता के दर्शन के लिए आयी हुई, मधुर ओर स्खलित Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० वयणाहिं सविन्ममुभंतपेच्छिरोहिं तरुणरामाहिं । भयवं, कीस तुमं तरुणगो चेव जीवलोयसारभूयं जम्मंतरम्मि वि तवस्सिजणपणिज्ज हरिहरपियामहप्पमुहतियसवरसेवियं सयललोयसलाहणिज्जं विसयसोक्खं उज्झिऊण इमं ईइसं दुक्करं वयविसेसं पवन्नो ति? तओ मए तासि हिययगयं परिहासगभिणं भावं वियाणिऊण विमुक्कदोहनीसासं कालाणुरूवमलियं चेव जंपियं । जहा हिययाणकलपिययमाविरहसंतावपीडिएणं इमं ईइस दुक्करं क्यमन्भुवयं ति । जंपिऊण य इमं वयणं पमायओ चेव न कओ गुरुजणोवइट्ठो जावो। अकयजावो य वसणवसगो वि य जाए अट्टरत्तसमए अत्यमिए भवणपदोवे चंदे पसुत्ते नायरलोयनिवहे तिमिरदुस्संचरेसु रायमग्गेसु कहकहवि गंतूण पुवभंडियं पिव अकयपडिदुवारपिहाणं पविट्ठो सागरसेटिगेहं ति। तओ गहियसुवण्णरुप्पभंडो निग्गच्छंतो चेव सागरसेट्ठिगेहाओ आयण्णियपुरिसपयसंचारो विज्जाणुसरणदिन्नावहाणो खलियविज्जानहंगणगमणो सुमरिय' विज्जाविहंगदीणभावो विसमभयवसपलायमाणो कुंतकरवालवावडग्गभ्रमोदभ्रान्तप्रेक्षणाशीलाभिः तरुणरामाभिः । भगवन् ! किमर्थं त्वं तरुण एव जीवलोकसारभूतं जन्मान्तरेऽपि तपस्विजनप्रार्थनोयं हरिहरपितामहप्रमुखत्रिदशवरसेवितं सकललोकश्लाघनीयं विषयसौख्यमुज्झित्वेममीदृशं दुष्करं व्रत विशेष प्रपन्न इति ? ततो मया तासां हृदयगतं परिहासगभितं भावं विज्ञाय विमुक्तदीर्घनिःश्वासं कालानुरूपमलीकमेव जल्पितम् । यथा-हृदयानुकूलप्रियतमाविरहसन्तापपीडितेन इममीदृशं दुष्करं व्रतमभ्युपगतमिति । जल्पित्वा चेदं वचनं प्रमादत एव न कृतो गुरुजनोपदिष्टो जापः । अकृतजापश्च व्यसनवशगोऽपि च जातेर्धरात्रसमयेऽस्तमिते भवनप्रदीपे चन्द्रे प्रसुप्ते नागरलोकनिवहे तिमिरदुःसञ्चरेषु राजमार्गेषु कथं कथमपि गत्वा पूर्वभाण्डिकमिव (बान्धवमिव) अकृतप्रतिद्वारपिधानं प्रविष्टो सागरश्रेष्ठिगेहमिति। ततो गृहोतसुवर्ण रौप्यभाण्डो निर्गच्छन्नेव सागरवेष्ठिगेहादाणितपुरुषपदसञ्चारो विद्यानुस्मरणदत्तावधान: स्खलितविद्यानभोङ्गणगमनः स्मृतविद्याविभङ्गदीनभावो विषमभयवशपलायमानः कुन्तकरवाल वचनों वाली विलासपूर्वक धूमकर देखती हुई तरुण स्त्रियों ने मुझसे पूछा-'भगवान् ! तरुण होकर भी संसार की सारभूत दूसरे जन्म में भी तपस्वियों के द्वारा प्रार्थनीय, विष्णु, शिव, ब्रह्मा जिनमें प्रमुख है ऐसे श्रेष्ठ देवों द्वारा सेवित, समस्त जनों के द्वारा प्रशंसा योग्य विषय सुख को छोड़कर आप किसलिए इस प्रकार के दुष्कर व्रत विशेष को प्राप्त हुए हैं ?' तब मैंने उनके हृदय के हँसी-मजाक से भरे हुए भाव को जानकर दीर्घ निश्वास छोड़कर समय के अनुरूप झूठ ही बोला कि हृदय की अनुकूल प्रियतमा के विरह से उत्पन्न दुःख से पीड़ित होकर इस दुष्कर व्रत को स्वीकार कर लिया है। प्रमाद के कारण इस झूठ वचन को बोलकर, गुरुजनों द्वारा उपदिष्ट जाप को नहीं किया। जाप को किये बिना और व्यसन के वश में होकर आधी रात का समय होने पर जब कि संसार को प्रकाशित करने वाला चन्द्रमा अस्त हो गया था और नगर के निवासीगण सो गये थे तब अन्धकार के कारण कठिनाई से चलने योग्य सड़कों पर जिस किसी प्रकार जाकर, बन्धुजनों के समान प्रत्येक द्वार को बन्द किये बिना ही सागर सेठ के घर में घुस गया । तदनन्तर जब मैं सोने और चांदी का माल लेकर सागर सेठ के घर से निकल रहा था तभी, जिनके हस्तान में भाले और तलवारें थीं, जो गधे के समान कठोर शब्दों की ध्वनि से दिङ मण्डल को व्याप्त कर रहे थे, ऐसे जल्दी, यहाँ-वहां चलते हुए राजपुरुषों के द्वारा पकड़ लिया गया। उस समय पुरुषों के पैरों का संचार सुनाई पड़ रहा था, विद्या के बार-बार स्मरण में मेरा ध्यान लगा हुआ था। १. समरिय'"-क। Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घउत्यो भयो] २७१ हत्यहिं गद्दब्भसद्दरवावरियदिसायक्केहि इओ तओ तुरियमवधावतेहिं गहिओ रायपुरिसेहि । अओ परमवगओ चेव ते मदीओ वुत्तंतो। संपइ तुमं पमाणं ति भणिऊण तुहिक्को ठिओ परिव्वायगो त्ति। मंतिणा भणियं--भयवं, कहं पुण एत्थ एगदिवसावणीओ रायालंकारो नत्थि? तेण भणियं-दिन्नो ख एसो मए सावत्थीनरवइस्स। मंतिणा भणियं--'कि निमित्तं' ति? तेण भणियं-सुण। अत्थि मे सावत्थीनिवासी गंधव्वदत्तो नाम वयंसओ जीवियाओ य अब्भहिओ । तेण तन्नगरनिवासिणो इंददत्ताभिहाणस्त सेट्टिमहंतगस्स धूया वासवदत्ता नाम कन्नगा नेहाणरायवसओ अन्नदिन्ना वि पत्थए विवाहमहसवे जोव्वणाभिमाणिणा हुहरहा वि अत्तणो विणासमालोचिय अवलंबिऊण पुरिसयारं अवहरिऊण परिणीय त्ति । एयवइयरम्मि रुट्ठो से राया। अवहरिया वासवदत्ता। निच्छूढो नयरीओ। आगओ मे समीवं जीवियाभिहाणवयंसगसहाओ । ज्याषताग्रहस्तैर्गर्दभ(कर्कश) शब्दरवापूरितदिक्चक्र पूरितस्ततस्त्वरितमवधावद्भिगृहीतो राजपुरुषैः अतः परमगत एव त्वया मदीयो वृत्तान्तः । सम्प्रति त्वं प्रमाण मिति भणित्वा तूष्णिकः स्थितः परिव्राजक इति । मन्त्रिणा भणितम्-भगवन् ! कथं पुनरत्र एकदिवसापनीतो राजालङ्कारो नास्ति ? तेन भणितम् -दत्तः खल्वेष मया श्रावस्तीनरपतये । मन्त्रिणा भणितम्-'किं निमित्तम्'-इति ? तेन भणितम्-शृणु। अस्ति मे श्रावस्ती निवासी गन्धर्वदत्तो नाम वयस्यो जीविताच्चाभ्यधिकः । तेन तन्नगरनिवासिन इन्द्रदत्ताभिधानस्य श्रेष्ठिमहत्कस्य दुहिता वासवदत्ता नाम कन्यका स्नेहानुरागवशतोऽन्यदत्ताऽपि प्रस्तुते विवाहमहोत्सवे यौवनाभिमानिना इतरथाऽपि आत्मनो विनाशमालोच्य, अवलम्ब्यपुरुषकारमपहृत्य परिणोतेति । एतत्व्यतिकरे रुष्टस्तस्मै राजा। अपहृता वासवदत्ता। निःक्षिप्तो नगर्याः । आगतो मम समोपं जीविकाभिधानवयस्यसहायः। पष्टश्चागमनप्रयोजनम् । कथितं विद्या के कारण आकाश रूपी आंगन में जो गमन होता था वह रुक गया था, स्मरण की जाती हई विद्या के नष्ट हो जाने से मैं दीनता को प्राप्त हो गया था और प्रचण्ड भय के कारण दौड रहा था। अतएव मेरा वत्ता तुमने यथार्थ रूप से जान लिया है। इस समय तुम प्रमाण हो अर्थात् जो चाहो, करो---ऐसा कहकर परिव्राजक चुप हो गया। मन्त्री ने कहा-"भगवन् ! यहाँ पर एक दिन हरण किया हआ वह राजा का अलंकार क्यों नहीं है ?" उसने कहा--. "मैंने इसे श्रावस्ती के राजा को दे दिया था।" मन्त्री ने पूछा-"किसलिए?" उसने कहा -- "सुनो ! श्रावस्ती का निवासी गन्धर्वदत्त नाम का मेरा एक मित्र है जो कि मुझे प्राणों से भी अधिक प्रिय है। उसने स्नेहानुरागवश उस नगर के निवासी इन्द्रदत्त नामक बड़े सेठ की वासवदत्ता नामक कन्या को यौवन के अभिमान से दूसरी तरह भी अपना विनाश विचार कर पौरुष का सहारा ले अपहरण कर विवाह कर लिया। वह कन्या दूसरे को दी जा रही थी और उसका विवाह-महोत्सव होने जा रहा था । इस घटना से राजा उस पर रुष्ट हो गया । हरण की हुई वासवदत्ता को उसने नगर में भेज दिया। मेरे पास जीवक नाम का सहायक मित्र Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ [समराइच्चकहा पुच्छिओ य आगमणपओयणं । साहियं च तेणं । तओ मए तमणुपुच्छिऊण रायालंकारकोसल्लियसहाओ पेसिओ नरिंदपच्चायणनिमित्तं जीविओ। गओ य सो सात्थि । अलंकारदरिसणपुव्वयं विन्नत्तो तेण राया एयवइयरेण । कओ से राइणा पसाओ। पेसिया गंधव्वदत्तस्स सावत्थिपवेसणनिमित्तं महंतया । नीओ महंतहि, पवेसिओ राइगा महाविभूईए, विट्ठो य जणणिजण उपमुहेण सयणवग्गेण । पाविया तेण कंठगयपाणा वासवदत्ता । ता एयं निमित्तं । मंतिणा भणियं-साहु ववसियं, मित्तकज्जवच्छला चेव सप्पुरिसा हवंति । 'निदोसा खु ते पुव्वगहिय' त्ति मंतिऊण मोयाविया धणाई । 'भयवं, तुमए वि सविवेगाणुरूवमायरियन्वं' ति भणिऊण विसज्जिओ परिव्वाथओ। धणो वि य ते रायपुरिसे पेसिऊण सात्थि पयट्टो जलनिहितीरसंठियं वयराडं नाम नयरं । कहाणयविसेसेण पत्तो पउमावई नाम अडवि। तीए वि य कइवयकप्पडियपरिवारियस्स एगम्मि विभागे उट्टियं वणगइंदपीढं । पगट्ठा दिसोदिसं कप्पडिया। धाइओ गयकलहगो धणमग्गेणं । गहिओ च तेन। ततो मया तमनुपृच्छ्य राजालङ्कारकौलिक(उपहार)सहायः प्रेषितो नरेन्द्रप्रत्यायननिमित्तो जीविकः । गतश्च स श्रावस्तोम् । अलङ्कारदर्शनपूर्वकं विज्ञप्तस्तेन राजा एतद्व्यतिकरण । कृतस्तस्य राज्ञा प्रसादः । प्रेषिता गन्धर्वदत्तस्य श्रावस्तोप्रवेशननिमित्तं महत्काः। नीतो महत्कः, प्रवेशितो राज्ञा महाविभूत्या, दृष्टश्च जननीजनकप्रमुखेन स्वजनवर्गेण । प्राप्ता तेन कण्ठगतप्राणा वासवदत्ता तत एतन्निमित्तम् । मन्त्रिणा भणितम-साध व्यवसितम्, मित्रकार्यवत्सला एव सत्पुरुषा भवन्ति । 'निर्दोषाः खलु पूर्वगृहीताः' इति मन्त्रयित्वा मोचिता धनादयः । 'भगवन् ! त्वयाऽपि स्वविवेकानुरूपमाचरितव्यम्' इति भणित्वा विसजितो परिव्राजकः । धनोऽपि च तान् राजपुरुषान् प्रेषयित्वा श्रावस्ती प्रवृत्तो जलनिधितो रसंस्थितं वराटं नाम नगरम् । कथानकविशेषेण प्राप्तो पद्मावती नामाटवीम् । तस्यामपि च कतिपयकार्पटिकपरिवृतस्य एकस्मिन् विभागे उत्थितं वनगजेन्द्रयूथम् । प्रनष्टाः दिशि दिशि कार्पटिकाः धावितो गजकलभको आया। (मैंने उससे) आने का प्रयोजन पूछा । उसने कहा । तब मैंने जीवक से पूछकर राजा को विश्वास दिलाने के लिए उपहारस्वरूप राजकीय अलंकार के साथ उसे भेजा। वह श्रावस्ती गया। अलंकार को दिखाकर आने इस घटना को राजा के सामने निवेदन किया । राजा ने उस पर कृपा की। गन्धर्वदत्त को श्रावस्ती में प्रवेश कराने के लिए बड़े-बड़े लोगों को भेजा। बड़े लोग (उसे) लाये, राजा ने बड़े वैभव के साथ उसका प्रवेश कराया और माता-पिता आदि स्वजनों ने देखा । कण्ट में अटके हुए प्राणों वाली वासवदत्ता को उसने पाया। वह अलंकार मैंने श्रावस्ती के राजा को इस कारण दिया था।" मन्त्री ने कहा--"ठीक किया, सत्पुरुष मित्र के कार्यों के प्रति प्रेम रखने वाले होते हैं।" पहले जिनको पकड़ा था वे निर्दोष हैं-ऐसा सोचकर धन आदि को छोड़ दिया। भगवन् ! आपको भी विवेक के अनुरूप आचरण करना चाहिए-ऐसा कहकर परिव्राजक को छोड़ दिया। धन भी उन राजपुरुषों को श्रावस्ती भेजकर समुद्र के किनारे स्थित विराटनगर की ओर चला । कथानक विशेष से वह पद्मावती नामक बहुत बड़े जंगल में पहुँचा । उसमें भी एक ओर कुछ भिक्षुओं (कार्पटिकों) को घेरे हुए जंगली हाथियों का झुण्ड उठा । प्रत्येक दिशा में भिक्षुक अन्तर्धान हो गये। हाथी का बच्चा धन की ओर Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरथो भवो ] २७३ खु एसो, पाडिओ धरणिवट्ठे । परिणओ गयकलहगो । देव्व जोएणं न वावाइओ धणो । तओ उवरि घतिऊण दंतसह 'डिच्छिस्सं' ति गहिओ करेणं, विक्खित्तो य उर्वारं विलग्गो समासन्नवत्तिणीए नगोसालाए । इओ य तयन्नकलहगपीडियाए रसियं करेणुवाए । तओ तं मोत्तूण वलिओ गयकलहगो । आरूढो धणो नग्गोहसिहरं । दिट्ठा य तेण तत्थ नीडम्मि ओलाव विमुक्का तेल्लोक्कसारा रयणावली । पच्च भिन्नाया गहिया य। चितियं च तेणं । छुट्टामि जइ गओवद्दवस्स, ता पराणेमि एवं परमवारिणो सावत्थोनरवइस्स; पच्छा जहासमोहिमविट्टिसं ति । ठिओ कंचि वेलं, अइक्कतं गयपीढं, ओइण्णो तरुवराओ, पट्टो सार्वात्थ, संपत्तो वसिमं । इओ य गया ते पुरिसा सार्वत्थि । निवेइओ वृत्तंतो नरवइस्स । कुविओ तेसिं राया-- अहो अबुद्धिया तुम्हे, जं तहाविहं पुरिसरयणं तहा एगागिणं मोत्त्गभागय त्ति । ता एस भे दंडो; तं चैव अगिहिऊण न तुम्भेहि सावत्थ पइसियव्वं । भणिऊण निच्छूढा नयरीओ | लग्गा धणं गवेसिउं । यह पियमेगाभिहाणे सन्निवेसे सत्थवाहपुत्तो । साहिओ हि वृतंतो इमस्स, इमेण विय धनमार्गेण । गृहीतः खल्वेषः । पातितो धरणीपृष्ठे । परिणतो ( तिर्यक्प्रहारवान् ) गजकलभकः । दैवयोगेन न व्यापादितो धनः । तत 'उपरि क्षिप्त्वा दन्तमुषलाभ्यां प्रत्येयिष्यामि' इति गृहीतो करेण । विक्षिप्तश्चोपरि विलग्नः समासन्नवर्तिन्यां न्यग्रोधशाखायाम् । एतश्च तदन्यकलभकपीडितया रसितं करेण्वा । ततस्तं मुक्त्वा वलितो गजकलभकः । आरूढो धनो न्यग्रोधशिखरम् । दृष्टा च तेन तत्र नीडे श्येनविमुक्ता त्रैलोक्यसारा रत्नावली, प्रत्यभिज्ञाता गृहीता च । चिन्तितं च तेन । छुटामि यदि गजोपद्रवात् ततः परानयामि एतां परमोपकारिणः श्रावस्तीनरपतेः । पश्चाद् यथासमीहितमनुष्टास्यामीति । स्थितः काञ्चिद् वेलाम् । अतिक्रान्तं गजयूथम् । अवतीर्णस्तरुवरात् । प्रवृत्तः श्रावस्तीम् । सम्प्राप्तो वसतिम् । इतश्च गतास्ते पुरुषाः श्रावस्तीम् । निवेदितो वृत्तान्तो नरपतये । कुपितस्तेभ्यो राजा - अहो ! अबुद्धिका यूयम् यत् तथाविधं पुरुषरत्नं तथैकाकिनं मुक्त्वाऽगता इति । तत एष युष्माकं दण्डः, तमेवागृहीत्वा न युष्माभिः श्रावस्तीं प्रवेष्टव्यमिति भणित्वा निःक्षिप्ता (निष्कासिताः) नगरीतः । लग्ना धनं गवेषयितुम् । दृष्टश्च तैः प्रियमेलकाभिधाने सन्निवेशे सार्थवाहपुत्रः । कथित दौड़ा । इसे ( धन को पकड़ लिया और जमीन पर पटक दिया। हाथी के बच्चे ने तिरछा प्रहार किया । भाग्य से धन मरा नहीं | तब ( उसने ) ऊपर फेंककर दाँत रूपी दो मूसलों से फेंकूंगा ऐसा सोचकर सूँड़ से पकड़ लिया । (उसके द्वारा) फेंका गया (वह) समीपवर्ती वटवृक्ष की शाखा में फँस गया । इधर दूसरे हाथी के बच्चे से पीड़ित होकर हथिनी ने शब्द किया । तब उसे छोड़कर हाथी का बच्चा मुड़ गया । धन वटवृक्ष के शिखर पर चढ़ गया । वहाँ पर उसने बाजपक्षी के द्वारा घोंसले में छोड़ी हुई तीनों लोकों की सार ( अथवा त्रैलोक्यसार नाम वाली) रत्नावली देखी और पहिचान कर ले ली। उसने सोचा कि यदि हाथी के उपद्रव से बचूंगा तो परम उपकार करने वाले श्रावस्ती के राजा को वापिस कर दूंगा । बाद में इष्टकार्यं करूंगा । कुछ समय तक वहीं बैठा रहा। हाथी का झुण्ड चला गया। (यह) वृक्ष से उतरा । श्रावस्ती की ओर चला । बस्ती में पहुँचा । वृत्तान्त निवेदन किया । उनके ऊपर राजा कुपित पुरुषरत्न को अकेला छोड़कर आ गये । अत: तुम प्रवेश मत करना" - ऐसा कहकर नगरी से निकाल इधर वे आदमी श्रावस्ती गये । (उन्होंने ) राजा से हुआ - "अरे तुम 'लोग बुद्धिहीन हो जो कि उस प्रकार के लोगों का दण्ड यही है कि उसे बिना साथ लिये श्रावस्ती दिया । (वे लोग धन को खोजने में लग गये । उन्होंने प्रियमेलक नामक सन्निवेश में वणिक्पुत्र को देखा। उन्होंने Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ [ समर इच्च कहा सि । तओ कइवयदियहि पत्तो सार्वोत्थि । दिट्ठो नरवई, परितुट्ठो हियएण, साहिओ वृत्तंतो नरवइस्स । देव, इमिणा पयारेण लद्धा रयणावली दंसिया य | विम्हिओ राया । 'अहो विचित्तया कज्जपरिणईणं' ति चितिऊण भणियं च तेण - भद्द, तुह चेव मए एसा संपाडिय त्ति, न कायव्वो मे पणयभंग | अहवा साहारणं चेव ते एयं रज्जं पि, कि संपाडीयइ त्ति ? । तओ अइक्कंतेसु कइवयदिणेसु काऊण महामहंतं सत्यं भरिऊण विचित्तभंडस्स दाऊण नाणामणिरयणसारमण ग्धेयमाहरणं उचियवाणियगवेसेणेव पेसिओ सुसम्मणयरं धणो ति । पत्तो कालक्कमेणं, विन्नाओ जणेण । परितुट्टो से गुरुजणो, निग्गओ पच्चोणि । दिट्ठो य जणणिजण एहि, निवडिओ चलणेसु तेसि, अभिनंदिओ जणणिजणएहि । कया सव्वाययणेसु पूया; दिन्नं महादाणं, पवेसिओ नरिंदेण सम्माणिऊण महया विभूईए । कयं च गुरुहं महोच्छ्वभूयं aaraणयं ति । परिक्के पुच्छिओ धणसिरिवृत्तंतं जणणिजणएहिं । साहिओ तेण । विम्हिया जिया । भणियो य तेहि-वच्छ, अलं तीए । अणुचिया खुसा पावकम्मा भवओ । न रेह तैर्वृत्तान्तोऽस्मै, अनेनापि च तेभ्यः । ततः कतिपयदिवसः प्राप्तः श्रावस्तीम् । दृष्टो नरपतिः परितुष्टो हृदयेन । कथितो वृत्तान्तो नरपतये - देव ! अनेन प्रकारेण लब्धा रत्नावली, दर्शिता च । विस्मितो राजा । 'अहो विचित्रता कार्यपरिणतीनाम् ' - इति चिन्तयित्वा भणितं च तेन - भद्र ! तवैव मयैषा सम्पादितेति न कर्तव्यो मे प्रणयभङ्गः । अथवा साधारणमेव तवैतद् राज्यमपि किं सम्पाद्यते इति । ततोऽतिक्रान्तेषु कतिपयदिनेषु कृत्वा अतिमहान्तं सार्थं भृत्वा विचित्रभाण्डं दत्त्वा नानामणिरत्नसारमध्यमाभरणमुचितवाणिजकवेशेणैव प्रेषितः सुशर्मनगरं धन इति । प्राप्तः कालक्रमेण, विज्ञातो जनेन । परितुष्टस्तस्य गुरुजनो, निर्गतः सम्मुखम् । दृष्टश्च जननीजनकाभ्याम् । निपतितश्चरणेषु तयोः । अभिनन्दितो जननीजनकाभ्याम् । कृता सर्वायतनेषु पूजा, दत्तं महादानम्, प्रवेशितो नरेन्द्रेण सन्मान्य महत्या विभूत्या । कृतं च गुरुभिर्महोत्सवभूतं वर्धापनकमिति । प्रतिरिक्ते पृष्टो धनश्रीवृत्तान्तं जननीजनकाभ्याम् । कथितस्तेन । विस्मितो जननीजनको । भणितश्च ताभ्याम् - वत्स ! अलं तया अनुचिता खलु सा पापकर्मा भवतः । न , वृत्तान्त कहा। इसने भी उन लोगों से वृत्तान्त कहा। तब कुछ दिन में श्रावस्ती आ गये । राजा ने देखा (वह) हृदय से सन्तुष्ट हुआ । (धन ने ) राजा से वृत्तान्त कहा - "महाराज ! इस प्रकार रत्नावली प्राप्त हुई ।” और (रत्नावली को ) दिखाया। राजा विस्मित हुआ 'ओह कर्म की परिणति विचित्र है - ऐसा सोचकर उसने कहा - "भद्र ! तुम्हारे लिए ही मैंने इसे प्राप्त किया है, अतः मेरी प्रार्थना भंग मत करो । अथवा यह राज्य भी तुम्हारा है और क्या प्रस्तुत करूँ ? " तब कुछ दिन बीत जाने पर बहुत बड़े समूह को बनाकर नाना प्रकार के माल को भरकर अनेक प्रकार के मणि और रत्नों से युक्त अमूल्य आभरण देकर वणिक् के उचित वेश में ही धन को सुशर्मनगर भेजा । कालक्रम से (धन) पहुँचा, लोगों को मालूम हुआ । उसके माता-पिता सन्तुष्ट हुए और सामने निकले ( आये) । (धन ने ) माता-पिता को देखा । ( वह) उन दोनों के चरणों में जा गिरा। माता-पिता ने अभिनन्दन किया। सभी मन्दिरों (आयतनों) में पूजा की, महादान दिया। राजा ने सम्मानित कर बड़ी विभूति के साथ प्रवेश कराया। माता-पिता ने बहुत बड़ा उत्सव किया। माता-पिता ने एकान्त में धनश्री का वृत्तान्त पूछा । धन ने बताया । माता-पिता दोनों विस्मित हुए । उन्होंने कहा - " वत्स ! उससे बस अर्थात् उससे क्या लाभ Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपभो] २७५ कप्पपायवे कवियच्छुवल्लि त्ति । ता अन्नं ते समाणरूवकुलविहवसहावं दारियं गवेसामो । न तए एत्थ संतप्पियव्वं । न मुच्चइ ससी जोव्हाए ति । तेण भणियं को एत्थ अवसरो संतावस्स; ईइसो खलु संसारसहावोति । तेहि भणियं - साहु साहु, महापुरिसो खुतुमं । ता कि एत्थ अवरं भणीयए त्ति । I तओ कया से गुरूह धणदेवमहिमा । निग्गओ धणो सह निद्धमिर्त्ताह । पूजिओ जक्खो, कया अत्थिजणपडिवती । गओ य भुत्तुत्तरसमए तयासन्नं चैव सिद्धत्थं नाम उज्जाणं । दिट्ठो य तत्थ असोयपायवतलगओ इरियाइपंचसमिइओ मणवयकायगुत्तो गुत्तिंदिओ गुत्तबंभवारी अममो afiant छिन्नगंथो निरुवलेवो, किं बहुणा, अट्ठारससीलिंगसहस्सधारी अणेयसाहुपरियओ जसोहरो नाम कोसला हिवस्स विणयंधरस्त पुत्तो समणसीहो त्ति । तं च दट्ठूण समुप्पन्नो से पमोओ, वियंभिओ धम्मववसाओ । चितियं च णेणं । अहो से रूवं, अहो चरियं, अहो से दित्ती, अहो सोमया, अहो से पुरिसयारो, अहो मद्दवं, अहो से लायण्णं, अहो त्रिसयनिष्पिवासया, अहो से जोव्वणं, अहो राजते कल्पपादपे कपिकच्छुवल्लिरिति । ततोऽन्यां तव समानरूप कुलविभवस्वभावां दारिकां गवेषयावः । न त्वयाऽत्र सन्तपितव्यम् । न मुच्यते शशी ज्योत्स्नाया इति । तेन भणितम् - कोऽत्रावसरः सन्तापस्य, ईदृशः खलु संसारस्वभाव इति । तैर्भणितम् - साधु साधु महापुरुषः खलु त्वम् । ततः किमत्रापरं भण्यते इति । ततः कृता तस्य गुरुभ्यां धनदेवमहिमा । निर्गतो धनो सह स्निग्धमित्रैः । पूजितो यक्षः, कृताऽर्थिजनपतिप्रत्तिः । गतश्च भुक्तोत्तरसमये तदासन्नमेव सिद्धार्थं नामोद्यानम् । दृष्टश्च तत्राशोकपादपतगत ईर्यादिपञ्चसमितिको मनोवचः कायगुप्तो गुप्तेन्द्रियो गुप्तब्रह्मचारी अममोकिञ्चनश्छिन्नग्रन्थो निरुपलेपः -- किं बहुना, अष्टादशशीलाङ्गसहस्रधारी, अनेक साधुपरितो यशोधरो नाम कोशलाधिपस्य विनयन्धरस्य पुत्रः श्रमणसिंह इति । तं च दृष्ट्वा समुत्पन्नस्तस्य प्रमोदः, विजृम्भितो धर्मव्यवसाय: । चिन्तितं च तेन - अहो ! अस्य रूपम्, अहो ! चरितम्, अहो ! अस्य दीप्तिः, अहो ! सौम्यता, अहो ! अस्य पुरुषकारः, अहो ! मार्दवम्, अहो ! अस्य लावण्यम्, पाप कर्म करने के कारण वह तुम्हारे योग्य नहीं है। कल्पवृक्ष पर करेंच की लता शोभित नहीं होती है । अतः तुम्हारे लिए हम दूसरी समान रूप, कुल और वैभव वाली स्त्री ढूंढ देंगे । इस विषय में तुम दुःखी मत होना । चन्द्रमा चांदनी को नहीं छोड़ता है ।" उसने कहा- "यहाँ दुःख का क्या अवसर है, संसार का स्वभाव ऐसा ही है।" उन्होंने कहा- "अच्छा, अच्छा, तुम महापुरुष हो । अतः तुमसे ) दूसरी क्या बात कही जाय ।" अनन्तर उसके माता-पिता ने कुबेर की पूजा की। धन स्नेही मित्रों के साथ निकला। ( उसने यक्ष की पूजा की, याचकों को दान दिया । भोजन करने के बाद ( वह) समीपवर्ती सिद्धार्थ नामक बाग में गया। उसने अशोक वृक्ष के नीचे ईर्यादि पाँच समितियों से युक्त, मन, वचन, काय की प्रवृत्ति को रोकने वाले, इन्द्रियों को वश में करने वाले, ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले, निर्मोही, अकिञ्चन, निष्परिग्रही, निम्पलेप, अधिक कहने से क्या अठारह हजार शील के भेदों का पालन करने वाले, अनेक साधुओं से युक्त, कोशल नरेश विनयधर के पुत्र श्रमणों में सिंह अर्थात् श्रेष्ठ श्रमण यशोधर को देखा। उन्हें देखकर उसे हर्ष हुआ और धर्म के प्रति श्रद्धा बढ़ी । उसने सोचा- 'ओह् ! इनका रूप, चरित, दीप्ति, सौम्यता, पुरुषार्थं, मृदुता, सौन्दर्य, विषयों की स न होना, Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ (समराइचकहा अगविजओ ति । ता धन्नो खु एसो दट्ठव्वो पज्जुवासणिज्जो य । गओ तस्स समोवं । वंदिओ ण--- भयवं जसोहरो सेससाहुणो य। दिन्नो से गुरुणा धम्मला हो सेससाहूहिय उवविट्ठो गुरुपायमूले । भणियं च ते भयवं, किं पुण ते निव्वेयकारणं, जेण तुमं रूवि व्व पंचवाणो विसदसुमवहत्थि ऊण पवज्जं पन्नोसि ? जोहरेण भणियं एगंतनिव्वेय कुलहराओ संसाराओ वि अवरं निव्वेयकारणं ति ? धणेण भणियं - भयवं, सयलजणसाहारणो खु एस संसारो; अओ विसेसकारणं पुच्छामि । जसोहरेण भणियं-विसेसो वि सामन्नमज्झगओ चेव, तहावि निययमेव चरियं मे निव्देयकारणं ति । धणेण भणियं करेउ भयवं अणुग्गहं, कहेउ अम्हाणं पि निव्वेयकारणं निययचारयं ति । तओ जसोहरेण 'कल्लाणागिई पसंतरुवो य एसो कयाइ निव्वेयमुवगच्छइ' त्ति चितिऊण भणियं - सोम ! जइ एवं, ता सुण । अfor sea वासे विसाला नाम नयरी । तत्थ अमरदत्तो नाम नरवई होत्था । इओ य अतीयनवमभवम्मितस्स पुत्तो सुरिददत्तो नाम अहमासि त्ति । जणणी य मे जसोहरा, भज्जा य नयणावलि अहो ! विषयनिष्पिपासता, अहो ! अस्य यौवनम्, अहो ! अनङ्गविजय इति । ततो धन्यः खल्वेष द्रष्टव्यः पर्युपासनीयश्च । गतस्तस्य समोपम् । वन्दितस्तेन भगवान् यशोधरः शेषसाधवश्च । दत्तस्तस्मै गुरुणा धर्मलाभः, शेषसाधुभिश्च । उपविष्टो गुरुपादमूले । भणितं च तेन - किं पुनस्ते निर्वेदकारणम्, येन त्वं रूपीव पञ्चवाणो विषयसुखमपहस्तयित्वा प्रव्रज्यां प्रपन्नोऽसि ? यशोधरेण भणितम् - एकान्त निर्वेदकुलगृहात् संसारादपि अपरं निर्वेदका रणमिति ? धनेन भणितम् - भगवन् ! सकलजनसाधारणः खल्वेष संसारः, अतो विशेषकारणं पृच्छामि । यशोधरेण भणितम् - विशेषोऽपि सामान्यमध्यगत एव, तथापि निजकमेव चरितं मम निर्वेद कारणमिति । धनेन भणितम् - करोतु भगवान् अनुग्रहम्, कथयतु अस्माकमपि निर्वेदका रणं निजकचरितमिति । ततो यशोधरेण 'कल्याणाकृतिः प्रशान्तरूपश्चैष कदाचिद् निर्वेदमुपगच्छति' इति चिन्तयित्वा भणितम – सौम्य ! यद्येवं ततः शृणु । अस्ति इहैव वर्षे विशाला नाम नगरी । तत्रामरदत्तो नाम नरपतिरभूत् । इतश्चातीत नवमभवे तस्य पुत्रः सुरेन्द्रदत्तो नामाहमासमिति । जननी च मम यशोधरा, भार्या च नयनावलि - यौवन तथा कामविजय आश्चर्य उत्पन्न करने वाली हैं । अतः इनका दर्शन धन्य है और (ये) उपासना करने योग्य हैं । उनके समीप में (धन) गया । उसने भगवान् यशोधर और शेष साधुओं की वन्दना की । गुरु ने और शेष साधुओं ने उसे धर्मलाभ दिया । ( वह) गुरु के चरणों में बैठा । उसने कहा - " आप के वैराग्य का क्या कारण है जो कि कामदेव के समान शरीर को धारण करके भी विषय सुखों को छोड़कर दीक्षित हो गये ?" यशोधर ने कहा - "एकान्त रूप से, जो वैराग्य का कुलगृह है, ऐसे संसार को छोड़कर कोई दूसरा भी वैराग्य का कारण है ?” धन ने कहा - "भगवन् ! यह संसार तो सभी के लिए समान है, अतः विशेष कारण पूछता हूँ ।" यशोधर ने कहा - " विशेष भी सामान्य के मध्य में ही होता है, फिर भी मेरा अपना चरित ही वैराग्य का कारण है ।" धन ने कहा- "भगवन् ! कृपा करें, हम लोगों को भी वैराग्य का कारण अपना चरित कहें ।" तब यशोधर ने 'यह कल्याण आकृति और शान्त रूप वाला है, कदाचित् (यह भी ) वैराग्य को प्राप्त हो' - ऐसा सोचकर कहा - " सौम्य ! यदि ऐसा है तो सुनो- इसी देश में 'विशाला' नामक नगरी है ।" वहाँ पर अमरदत्त नाम का राजा हुआ । इससे पहले के नवें भाव में मैं उसका पुत्र सुरेन्द्रदत्त था । मेरी माता 'यशोधरा' थी और पत्नी 'नयनावली'। मेरे पिता मुझे राज्य Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७७ उत्यो भवो] त्ति । ताओ य मे रज्जं दाऊण पवन्नो समणत्तणं । अहमधि संपत्तसम्मत्तो नयणावलीनेहमोहियमणो रज्जसणाहं विसयसुहमणुहवंतो चिट्ठामि, जाव आगओ ने पलियच्छलेण धम्मदूओ। निवेइओ य मे सारसियाभिहाणाए नयणावलीचेडियाए । तओ समुप्पन्नो मे निव्वेओ। चितियं मए । अहो चंचलया जीवलोयस्स, अहो परिणामो पोग्गलाणं, अहो असारं मणुयत्तणं, अहो पहवइ महामोहो । अवि य अणुदियहं वच्चंताणिऽमाइ कह कि जणो न लक्खेइ। जोयस्स जोव्वणस्स य दियह निसाख डखंडाइं ॥३७१॥ दियहनिसाघडिमालं आउयसलिलं जणस्स घेत्तूण । चंदाइच्चवइल्ला कालरहट्ट भमाति ॥३७२।। झीणे आउयसलिले परिसुस्संतम्मि देहसस्सम्मि। नत्थि हु कोवि उवाओ तह वि जणो पावमायरइ ॥३७३॥ अलं ता मे पमाएणं । पवज्जामो पुटवपुरिससेवियं समणत्तणं । साहिओ निययाहिप्पाओ नयणावलीए । भणियं च तीए- अज्जउत्त, ज वो रोयइ त्ति । न खलु अहं अज्जउत्तस्स पडिकूलरिति । तातश्च मे राज्यं दत्त्वा प्रपन्नः श्रमणत्वम् । अहमपि सम्प्राप्तसम्यक्त्वो नयनावलिस्नेहमोहितमना राज्यसनाथं विषय सुखमनुभवन् तिष्ठामि । यावदागतो मे पलितच्छलेन धर्मदूतः । निवेदितश्च मह्य सारसिकाभिधानया नयनालिटिकया। ततः समुत्पन्नो मम निर्वेदः । चिन्तितं च मया-अहो ! चञ्चलता जोवलोकस्य, अहो ! परिणामः पुद्गलानाम्, अहो ! असारं मनुजत्वम , अहो ! प्रभवति महामोहः । अपि च अनूदिवसं व्रजन्ति इमानि कथय कि जनो न लक्षयति । जीवितस्य यौवनस्य च दिवसनिशाखण्डानि ॥३७१।। दिवसनिशाघटीमालमायुःसलिलं जनस्य गृहीत्वा । चन्द्रादित्यवलीवदो कालारहट्ट भ्रामयतः ।।३७२॥ क्षीणे आयुःसलिले परिशष्यति देहसस्ये। नास्ति खलु कोऽप्युपायः तथापि जनः पापमाचरति ॥३७३।। अलं ततो मम प्रमादेन, प्रपद्यामहे पूर्वपुरुषसेवितं श्रमणत्वम् । कथितो निजकाभिप्रायो नयनावल्यै । भणितं च तया-आर्यपुत्र ! यत् तुभ्यं रोचते, न खल्वहमार्यपुत्रस्य प्रतिकूलकारिणी, देकर मुनि हो गये । मैं भी सम्यक्त्व प्राप्त कर नयनावली के स्नेह से मोहित मन वाला होकर राज्य के साथ विषयसुख का अनुभव करने लगा। तभी सफेद वाल के साथ धर्मदूत आया। सारसिका नामक नयनावली की दासी ने मुझसे निवेदन किया । तब मुझे वैराग्य उत्पन्न हो गया। मैंने सोचा-ओह ! संसार चंचल है, पुद्गलों का परिणाम आश्चर्यजनक है, ओह ! मनुष्यत्व साररहित है, महान् मोह अपना पराक्रम दिखला रहा है । कहा भी है जीवन, यौवन और ये रात्रि-दिन के भाग प्रतिदिन व्यतीत हो रहे हैं, कहो मनुष्य क्यों नहीं लक्ष्य करता है ? (चेतता है ?) दिन-रात्रि रूपी घड़ियों का समह तथा मनुष्य के आयु रूपी जल को लेकर चन्द्र और सूर्य रूपी दो बैल मृत्यु रूपी रहट को घुमा रहे हैं । आयु रूपी जल के नष्ट हो जाने पर शरीर रूपी धान्य सूख जाता है। इसका कोई उपाय नहीं है, फिर भी मनुष्य पाप का आचरण करता है ॥३७१-३७३।। अतः अब प्रमाद करना व्यर्थ है, पूर्वजों के द्वारा सेवित मुनि धर्म को प्राप्त होता हूँ। (सुरेन्द्रदत्त ने) अपना अभिप्राय नयनावली से कहा। नयनावली ने कहा-"आर्यपुत्र ! जो आपको रुचिकर लगे, मैं आर्यपुत्र Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ [समराइण्यकहा यारिणी; अवि य ज तुम पवजिहिसि, अहं पि तं चेव' त्ति निवेइयं चेव अज्जउत्तस्स । तओ मए चितियं । अहो निब्भराणुरायया ममोवरि देवीए, अहो महत्थत्तणं, अहो विवेगो, अहो चित्तणुयया, अहो छंदाणुक्त्तणं, अहो सससुहदुक्खया, अहो एगसहावत्तणं' ति । एत्थंतरम्मि निवेइओ मे कालो मंगलपाढएहिं । पढियं च तेहि । आसाइऊण उययं कमेण परियट्टिऊण य पयावं । उज्जोविऊण भुवणं अत्थमइ दिवायरो एण्हि ॥३७४॥ तओ मए चितियं-धिरत्थु जीवलोयस्स; एयस्स वि दिणयरस्स एगदिवसम्मि चेव एत्तिया अवत्थ त्ति। तओ अहं अस्थाइयामंडवम्मि कंचि कालं गमेऊण मियंकजोण्हापसाहियभवणभवणे उद्धामकामिणीयणवियंभियमयणपसरे य पओसे गओ विइण्णमणिरयणमंगलपदीवसणाहं कूट्रिमविमकवरसरहिकसमपयरं बहलकत्थरियाविलित्तविमलमणिभित्ति पवरदेवंगवत्थवोक्खारियकणयखभं उज्जलविचित्तवत्थविरइयवियाणयं जरढविदुमायंबघडियपल्लंकसणाहं अत्थुरियपवरतूलीविइण्णअपि च यत्त्वं प्रजिष्यसि, अहमपि च तदेवेति निवेदितमेवार्यपुत्रस्य । ततो मया चिन्तितमअहो ! निर्भरानुरागता ममोपरि देव्यः, अहो ! महार्थत्वम्, अहो ! विवेकः, अहो ! चित्तानुगता, अहो ! छन्दोऽनुवर्तनम् , अहो ! समसुखदुःखता, अहो ! एकस्वभावत्वमिति । अत्रान्तरे निवेदितो मे कालो मङ्गलपाठकैः । पठितं च तैः आस्वाद्योदकं क्रमेण परिवर्त्य च प्रतापम् । उद्योत्य भुवनमस्तमेति दिवाकर इदानीम् ॥३७४॥ ततो मया चिन्तितम्-धिगस्तु जीवलोकम्, एतस्यापि दिनकरस्य एकदिवसे एव एतावत्यवस्थेति । ततोऽहमास्थानिकामण्डपे कञ्चित् कालं गमयित्वा मृगाङ्कज्योत्स्नाप्रसाधितभव भवने उद्दामकामिनीजनविजम्भितमदनप्रसरे च प्रदोषे गतो विकीर्णमणिरत्नमङ्गलप्रदीपसनाथं कूट्रिमविमुक्तवरसुरभिकुसुमप्रकरं बहलकस्तूरिकाविलिप्त विमलमणिभित्तिम, प्रवरदेवाङ्ग(देवदूष्य) वस्रविभूषितकनकस्तम्भम्, उज्ज्वलविचित्रवस्त्रविरचितवितानकम्, जरठविद्रुमाताम्रघटितपल्यङ्कके विपरीत आचरण करने वाली नहीं हूँ । पुनश्च जब तुम दीक्षित होगे तब मुझे भी बतलाना।" तब मैंने सोचा-“ओह ! देवी का मेरे प्रति कितना गाढ़ अनुराग है । (उसका) महान् प्रयोजन, विवेक, चित्त का अनुसरण, इच्छा का अनुसरण, सुख-दुःख में समानभाव तथा एक जैसा स्वभाव आश्चर्यकारक है। इसी बीच मंगल पाठ करने वालों ने मुझे समय की सूचना दी। उन्होंने पढ़ा--- क्रम से जल पीकर प्रताप को चारों ओर फैलाकर, संसार को प्रकाशित कर इस समय सूर्य अस्त हो रहा है॥३७४|| तब मैंने विचार किया---'संसार को धिक्कार इस सूर्य की दिन भर में इतनी अवस्थाएँ होती हैं।' तब मैं राजसभा (आस्थानिका मण्डप) में कुछ समय बिताकर, चन्द्रमा ने चांदनी के द्वारा जब संसार रूपी भवन को सजा दिया. उत्कट कामिनियों के द्वारा जब काम का विस्तार बढ़ा दिया गया, ऐसे सायंकाल के समय निवासगह को गया । वह निवासगृह फैलाये हुए मणि और रत्ननिर्मित मंगल दीपकों से युक्त था, फर्श पर सुन्दर सुगन्धित फूलों का समूह छोड़ा गया था, स्वच्छ मणिनिर्मित दीवारों पर प्रचुर कस्तूरी का लेप किया गया था, स्वर्णमय खम्भे उत्कृष्ट दिव्य वस्त्रों से विभूषित थे, उज्ज्वल और अनेक प्रकार के वस्त्रों का चंदोवा बना हुआ १. एकसारत्तणं-क। Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्यो भवो ] २७६ गंडोवहाणयं विमलकलधोयमओवणीय [मणो ] हरपडिग्गहं उल्लंबियसुर हिकुसुमदामनियरं कणयमयमहमहंतधूवघडिया उलं पज्जलिय विइत्तधूमवत्तिनिवहं चडुलकलहंसपारावयमिहुण सोहियं विरइपकप्पूरवीडयसणा लंबोलपडलयं वट्टियविलेवणपुण्णविविहवापायणनिमियमणिवट्टयं सुरहिपडवासभरियमणोहरोवणीयकणयकच्चोलं तप्पियवरवारुणी सुरहि कुसुमसंाइयमरणपूर्व रईए वित्र सपरिवाराए नयणावलीए समद्धातिय वासगेहं ति । उवविट्टो पल्लंके । कंचि कालं गमेऊण निग्गओ देवरियो । थेववेलाए पत्ता देवी । अहं च विसहसुहं विमुहियचित्तोवि नेहाणुरागओ 'देवी परिच्चइव्वा, एद्दहमेत्तं एत्थ दुक्करं 'ति चितयंतो चिट्ठामि जाव सा देवी पसुतो नरवइ' ति मन्नमाणा मोतूण पल्लंकमोइण्णा कोट्टिमतलं । ससंका य उग्धाडिऊण दुवारं निगया वा नहाओ । तओ मए चितियं - किं पुण एसा अवेलाए अइन्नदुवारं निग्गय त्ति ? नूणं मम भाविविओवकायरा देहच्चायं ववसिस्सइति । तो अहं घेत्तूण असिवरं निग्गओ तीए पिट्ठओ । गया य सा पासायवालस्स सनाथम्, आस्तृतप्रवर तूली वितीर्णगण्डोपधानकम्, विमलकलधौतमयोपनोतमनोहरपतग्रहम्, उल्लम्बित सुरभिकुसुमदामनिकरम् कनकमयमघमघावमान (प्रस रद्) धूपघटिकाकुलम्, प्रज्वलितविचित्रधूमवतिनिवहम्, चटुलकलहंसपारापतमिथुनशोभितम् विरचितकर्पूरवी टकसनाथताम्बूलपटलकम्, वर्तितविलेपन पूर्णविविधवातायनन्यस्त वृत्तम् ( वृत्तभाजनम्), सुरभिपटवासभृतमनोहरोपनीत कनक कच्चोलम्, तत्पीतवरवारुणीसुरभिकुसुम सम्पादितमदनपूजम्, रत्येव सपरिवारया नयना - वल्या समध्यासितं वासगेहमिति । उपविष्टः पल्यंके । कञ्चित्कालं गमयित्वा निर्गतो देवीपरिजनः । स्तो वेलायां प्रसुप्ता देवी । अहं च विषयसुखविमुखितचित्तोऽपि स्नेहानुरागतो 'देवी परित्यक्तव्या, एतावन्मात्रमत्र दुष्करम्' इति चिन्तयन् तिष्ठामि यावत् सा देवी 'प्रसुप्तो नरपति:' इति मन्यमाना मुक्त्वा पल्यङ्कमवतीर्णा कुट्टिमतलम् । सशङ्का चोद्घाट्य द्वारं निर्गता वासगृहात् । ततो मया चिन्तितम् - किं पुनरेषाऽवेलायामदत्तद्वारं निर्गतेति ? नूनं मम भाविवियोग कातरा देहत्यागं व्यव - सास्यतीति । ततोऽहं गृहीत्वाऽसिवरं निर्गतस्तस्याः पृष्ठतः । गता च सा प्रासादपालस्य कुब्जकस्य था, सरल मूंगे के तामिया रंग के बनाये हुए पलंग से युक्त था, जिसके अन्दर उत्कृष्ट रुई बिछायी गयी थी ऐसा गद्दा बिछा हुआ था, स्वच्छ चांदी से निर्मित मनोहर पीकदान पास में रखा था, सुगन्धित फूलों की मालाओं का समूह लटकाया गया था, स्वर्णनिर्मित धूपदानी धूम फैला रही थी, अनेक प्रकार के धुएँ का समूह जलाया गया था, चंचल राजहंस और कबूतरों के जोड़े से सुशोभित था, पान का डिब्बा कपूर डाले हुए बीड़े के साथ था, अंजन और विलेपन से भरे हुए गोल पात्र अनेक प्रकार की खिड़कियों में रखे हुए थे, कपड़ा बासने के सुगन्धित द्रव्य से भरा हुआ सोने का प्याला समीप में रखा था । श्रेष्ठ मदिरा को पीकर सुगन्धित फूलों से, जिसने कामदेव की पूजा की थी, ऐसी सपरिवार रति के समान नयनावली से अधिष्ठित था । ( वह) पलंग पर बैठ गया । कुछ समय बिताकर महारानी के निकटवर्ती जन निकल गये। थोड़ी ही देर में महारानी सो गयी। मैं विषय-सुख से विमुख चित्त वाला होने पर भी स्नेह और अनुराग से 'महारानी को छोड़ना पड़ेगा, केवल यही कठिन कार्य है' ऐसा जब सोच रहा था तभी वह महारानी 'राजा सो गये हैं' - ऐसा मानती हुई पलंग से फर्श पर उतरी । शङ्कायुक्त होकर, किवाड़ खोलकर, शयनगृह ( वासगृह) से निकल गयी । तब मैंने सोचा - 'यह इस समय द्वार को बन्द किये बिना क्यों निकल गयी। निश्चित ही मेरे वियोग से दुःखी होकर ( इसने ) शरीर त्याग करने का निश्चय किया होगा । तब मैं तलवार लेकर उसके पीछे-पीछे चल दिया । वह महल- रक्षक (प्रासादपाल ) कुबड़े १. अदिन्नख । Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० [समराइच्चकहा खज्जयस्स सभीवं । उट्रिविओ तीए खज्जओ। तओ मए चितियं-हद्धी एयस्स साहिऊण जहासमोहियं करिस्सइ त्ति । एत्थंतरम्मि घुम्मंतलोयणेणं भणियं खुज्जएणं--कीस तुमं अज्ज एत्तियाओ वेलाओ ति? तओ भए चितियं हा किमेयं अज्ज ति संलवइ ? अहवा अणचियागमणा इमाए वेलाए देवी, अओ एवं मंतियं ति । होउ, पडिवयणं सुणेमि । तओ देवीए भणियं-अज्ज खु विसमधाउओ चिराओ पसुत्तो राया, अओ एस कालक्खेवो ति। तओ मए चितियं हा किमयं ? एत्यंतरम्मि कढिणहत्थेण तेण गहिया अगरुधूमामोयगम्भिणे केसहत्थे देवी । तओ पाडिया तेण समयं देवी। सिक्कारमणहरं च तस्स यममं च मयणकोवाणलसंधकरणं वियंभियं तीए सह मोहचेट्रियं । आलिंगिया तेण, चुंबियं च से चलंततारयं वयणं। एयं च वायायणपविट्ठचंदालोयभासियं वइयरमवयच्छिऊण अविवेयपवणसंधुक्किओ पज्जलिओ मे मणम्भि कोवाणलो। कड्ढियं च तमालदलनोलं मंडलग्गं । चितियं च 'वावाएमि एए दुवे वि पावे' ति। तओ तं चेव किरणावलोभासुरं जलंतमिव पेच्छिऊण इसि पणट्टमविवेयंधयारेण । जाया य मे चिता । जेण मए परचक्कगयघडावियारणलालसा समीपम्। उत्थापितस्तया कुब्जकः। ततो मया चिन्तितम्--हा धिक, एतस्य कथयित्वा यथासमीहितं करिष्यतोति । अत्रान्तरे घूर्णदलोचनेन भणितं कुब्जकेन-कस्मात् त्वमद्य एतावत्यां वेलायाम् ? ततो मया चिन्तितम् हा ! किमेतद् 'अद्य' इति संलपति । अथवाऽनुचितगमनाऽस्यां वेलायां देवी, अत एवं मन्त्रितम् । भवतु, प्रतिवचनं शृणोमि । ततो देव्या भणितम् -अद्य खलु विषमधातुकश्चिरात् प्रसुप्तो राजा, अत एव कालक्षेप इति । ततो मया चिन्तितम् -हा ! किमेतत् अत्रान्तरे कठिनहस्तेन तेन गृहीताऽगुरुधूमामोदगभिते केशहस्ते देवी । ततो पातिता तेन समदं देवी। सित्कारमनोहरं च तस्य च मम च मदनकोपानलसन्धुक्षणं विज़म्भितं तया सह मोहचेष्टितम् । आलिङ्गिता तेन, चुम्बितं च तस्याश्चलत्तारकं वदनम् । एतं च वातायनप्रविष्टचन्द्रालोकभासितं व्यतिकरमवगत्याविवेकपवनसन्धुक्षित: प्रज्वलितो मे मनसि कोपानल: । कर्षितं च तमालदलनोलं मण्डलाग्रम् । चिन्तितं च 'व्यापदयामि एतौ द्वावपि पापौ इति । ततस्तमेव किरणावलिभासुरं ज्वलन्तमिव प्रेक्ष्येषत् प्रनष्टमविवेकान्धकारेण । जाता च मम चिन्ता---येन मया परचक्रगजघटाके पास गयी। उसने कुबड़े को उठाया । तब मैंने सोचा--'हाय धिक्कार है, इससे कह कर इष्ट कार्य करेगी।' इसी बीच आँख मलते हुए कुबड़े ने कहा-"तुम आज इतनी देर से क्यों आयी ?' तब मैंने सोचा-'हाय, यह 'आज' ऐसा क्यों कह रहा है । अथवा महारानी का इस समय जाना अनुचित है- अत: ऐसा कहा है।' अच्छा, उत्तर सुनता हूँ। तब महारानी ने कहा- 'आज राजा अस्थिरचित्त होने के कारण देर से सोया अतएव देरी हुई।' तब मैंने सोचा---हाय ! यह क्या है ? इसी बीच उसने कुबड़े ने) कठोर हाथों से अगुरु के धुएं से सुगन्धित बालों को हाथ में लिया और मतवाला होकर देवी को गिरा दिया। सीत्कार से मनोहर उसकी मोहचेष्टा काम से बढ़ती रही और मेरी क्रोध रूपी अग्नि में धधकती रही। उसने (कुबड़े ने) महारानी का आलिंगन किया और चंचल नेत्रों वाले उसके मुँह को चूमा। इस प्रकार झरोखे से प्रविष्ट चन्द्रमा के प्रकाश से देदीप्यमान घटना को जानकर अविवेक रूपी वायु से धौंकी हुई क्रोधरूपी अग्नि मेरे मन में जल उठी। तमाल के पत्ते के समान नीली तलवार मण्डलाग्र) को मैंने खींचा और सोचा कि इन दोनों पापियों को मार डालूँ । अत: अविवेक रूपी अन्धकार से नष्ट हुए उन्हें उन्हीं किरणों के प्रकाश में जलता हुका देगा। मेरे मन में विचार उत्पन्न हुआ-"जिस ---- १. . धायबो-ख, २. हा ! निस्संदेहमकज्जन्ति-ख, ३. केसकलावे-ख, ४. घडिया तेणं सम-फ। Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परत्वो भवो] २८१ नरिंदकेसरिणो विणिवाइया, सो कहं इमं पुरिससारमेयं देवि च अकज्जायरणवावन्नसीलजोवियं वावाएमि त्ति ? अन्नं च-वीसत्थं जंपियमिमीए कीलियं च आ बालभावाओ' भुत्ता सिणेहसारं, जणिओ अप्पाणयतुल्लो पुत्तो। ता कि एइणा। अवि य-अविवेयबहुला चेव इत्थिया होइ। उज्जओ य अहं सामण्णपडिवत्तीए । एवं च गुणहरकुमारस्स वि लाघवभावेण पत्थुयविधाओ ति। अहो मे असरिसववसाओ त्ति विलिएण तक्खणं चेव समाणियं मंडलग्गं, विरत्तं च मे चित्तं देवीओ। उट्रिओ धम्मववसाओ। गओ वासहरं णुवन्नो सयणिज्जे, पवत्तो चितिउं। अहो महिलिया नाम अभमी बिसलया, अणग्गी चडलो, अभोयणा विसूइया, अणामिया वाही, अवेयणा मच्छा, अणवसया मारी, अणिपला गोती, अरज्जुओ पासो, अहे उओ मच्चु ति। अहवा किं इमीए चिंताए। ईइसो एस संसारो। अओ चेव पवज्जामो समणत्तणं ति। एवं जाव सुहपरिणामो कंचि कालं चिट्ठामि, ताव आगया देवी । कयं मए पसुत्तचेड ट्ठि)यं । णुवन्ना य मम समीवे । ठिया कंचि कालं। पवत्ता विदारणलालसा नरेन्द्रकेसरिणो विनिपातिताः, स कथमिमं पुरुषसारमेयं देवीं चाकार्याचरणव्यापन्नशीलजीवितां व्यापादयामीति ? अन्यच्च-विश्वस्तं जल्पितमनया, क्रीडितं चाबालभावात्, भुक्ता स्नेहसारम्, जनित आत्म तुल्यः पुत्रः। ततः किमेतेन ? अपि च अविवेकबहुलैव स्त्रो भवति । उद्यतश्चाहं श्रामण्यप्रतिपत्या। एवं च गुणधरकुमारस्यापि लाघवभावेन प्रस्तुतविघात इति । अहो ! ममासदृशव्यवसाय इति व्यलीकेन तत्क्षणमेव समानीतं (कोशे निक्षिप्त) मण्डलाग्रम् । विरक्तं च मे चित्तं देव्याः। उपस्थितो धर्मव्यवसायः । गतो वासगृहम, निपन्नो (सूप्तः) शयनीये, प्रवृत्तश्चिन्ति (म् । अहो महिला नामाभूमिविषलता, अनग्निश्चुडुलि: (उल्का), अभोजना विसूचिका, अनामको व्याधिः, अवेदना मूर्छा, अनुपसर्गा मारिः; अनिगडा गुप्तिः, अरज्जुको पाशः, अहेतुको मृत्युरिति । अथवा किमनया चिन्तया? ईदृश एष संसारः । अत एव प्रपद्यामहे श्रमणत्वमिति । एवं यावत् शुभपरिणामः कञ्चित् कालं तिष्ठामि तावदागता देवी । कृतं मया प्रसुप्तचेष्टितम् । तिपन्ना च मम समीपे । स्थिता कञ्चित्कालम् । प्रवृत्ता चाटकर्मकरणे। मैंने शत्रुमण्डल रूपी हाथियों का समूह चीरने की इच्छावाले राजसिंहों को मारा है वह मैं कैसे पुरुषों में गीदड़ के समान इस कुबड़े को और अकार्य का आचरण करने के कारण मरे हुए (गिरे हुए) शील के साथ जीवित इसको मारू ? दूसरी बात यह है कि इसके साथ विश्वासयुक्त वार्तालाप किया, बाल्यभाव से क्रीड़ा की, स्नेह के सार को भोगा और अपने तुल्य पुत्र उत्पन्न किया। अत: इससे क्या ? दूसरी बात यह है कि स्त्री में अविवेक की प्रधानता होती है और मैं (श्रामण्य मुनिधर्म) की प्राप्ति के लिए उद्यत हूँ । इस प्रकार के छोटे भाव से गुणधर कुमार को भी अड़चन होती है । ओह ! मेरा कार्य अनुचित है, ऐसा सोचकर उसी समय म्यान (कोश) में तलवार रख ली और मेरा चित्त महारानी से विरक्त हो गया । धर्म का निश्चय हुआ । शयनगृह (वासगृह गया, शय्या पर सो गया (और) विचार करने लगा-'ओह ! महिला भूमि के बिना ही उत्पन्न हुई विष की लता है, बिना अग्नि की उल्का है, बिना भोजन की हैजा है, बिना नाम की रोग है, बिना वेदना की मूर्छा है, बिना उपद्रव की महामारी है, बिना बेड़ी की रोकथाम है, बिना रस्सी की जाल है, तारण रहित मौत है, अथवा इस विचार से क्या लाभ है, यह संसार ऐसा ही है । अतः मुनि अवस्था को प्राप्त करता हूँ। इस प्रकार के शुभ परिणामों से युक्त होकर कुछ समय तक बैठा रहा, तभी महारानी आ गयी। मैंने सोने की चेष्टा की। (वह) मेरे पास में लेट गयी। कुछ समय तक लेटी रही, (बाद में) चापलूसी में लग गयी। मैं भी उसी प्रकार सोये १. बालभावओ-क, २. सवेयणा-ख, ३. पसुतवेयं-र । Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ चाइयम्मकरणे । अहमथि तमेव सुत्तचेड्ड(8)यं अवलंबिऊण ठिओ कंचि कालं । समालिगिओ अहं तीए । मए वि अत्तणो चित्तवियारमदंसयंतेण पुदिव व बहु मन्निया। एत्थंतरम्मि पहयाई पाहाउयतुराई । पढियं कालनिवेयएण। एसा वच्चइ रयणी विमुक्कतमके सिया विवण्णमुही। पाणीयं पिव दाउं परलोयगयस्स सूरस्स ॥३७॥ पहाया रयणी, कयं गोसकिच्चं । ठिओ म्हि अत्थाइयामंडवे । कया सविसेसं सामंतप्पमुहाणमणजीवीणं पसाया। पविट्ठो मंतिघरयं । आगया विमलमइप्पमुहा महामंतिणो । साहिओमए एतेसि निययाहिप्पाओ, न बहुमओ तेसिं । भणिय च णेहि--देव, अपरिणओ ताव कुमारगुणहरो, पयापरिरक्खणं पि धम्मो चेव ति। तओ मए भणियं-किं न याणह तुम्भे, कुलठिई एसा अम्हाणं, जमागए धम्मदए न चिट्ठियध्वं ति । तेहिं भणियं-देवो जाणइ ति। अइक्कंतो सो दियहो, समागया रयणी। ठिओ अत्थाइयामंडवे । कंचि वेलं गमेऊण गओ वासभवणं । नियत्तदेवीसिणेहभावओ समागया मे अहमपि तदेव सुप्तचेष्टितमवलम्ब्य स्थितः कञ्चित्कालम् । समालिङ्गितोऽहं तया । मयाऽपि आत्मनश्चित्तविकारमदर्शयता पूर्वमिव बहु मता। अत्रान्तरे प्रहतानि प्राभातिकतर्याणि । पठितं कालनिवेदकेन । एषा व्रजति रजनी विमुक्ततमःकेशिका विवर्णमुखी । पानीयमिव दातुं परलोकगताय सुराय ॥३७॥ प्रभाता रजनी, कृतं प्रातःकृत्यम् । स्थितोऽस्मि आस्थानिकामण्डपे । कृता सविशेषं सामन्तप्रमुखाणामनुजीविनां प्रसादाः । प्रविष्टो मन्त्रिगृहम् । आगता विमलमतिप्रमुखा महामन्त्रिण: कथितो मया एतेषां निजाभिप्रायः, न बहुमतस्तेषाम् । भणितं च तैः-देव! अपरिणतस्तावत् कुमारगुणधरः प्रजापरिरक्षणमपि धर्म एवेति । ततो मया भणितम्-किं न जानीथ ययम्, कुल स्थितिरेषाऽस्माकम; यदामते धर्मदूते न स्थातव्यमिति । तैर्भणितं-देवो जानातीति । अतिक्रान्तः स दिवसः, समागता रजनी। स्थित आस्थानिकामण्डपे । काञ्चिद् वेलां गमयित्वा गतो वासभवनम् । हुए के समान ही कुछ समय तक पड़ा रहा। उसने मेरा आलिंगन किया। मैंने भी अपने चित्त के विकार को न दिखलाते हुए पहले के समान आदर दिया। इसी बीच प्रातःकालीन तूर्यनाद हुआ । समय का निवेदन करने वालों ने पढ़ा अन्धकार रूपी बालों को खोलकर, फीके मुंह वाली यह रात्रि परलोक गये हुए देव के लिए मानो पानी देने के लिए जा रही है ।।३७५॥ प्रातःकाल हुआ। प्रातःकालीन क्रियाओं को किया। सभामण्डप में बैठा। सामन्तादि प्रमुख निकटस्थ लोगों पर अनुगृह किया। (अनन्तर) मन्त्रिगृह में प्रविष्ट हुआ । 'विमलमति' जिनमें प्रमुख थे, ऐसे महामन्त्री आये । मैंने इनसे अपना अभिप्राय कहा, उन्होंने नहीं माना। उन्होंने कहा-"महाराज ! कुमार गुणधर अभी बड़े नहीं हुए हैं (अतः) प्रजा की रक्षा भी धर्म ही है।" तब मैंने कहा - "क्या आप लोग हम लोगों के कुल की मर्यादा को नहीं जानते हैं कि धर्मदूत (सफेद बाल) के आने पर (घर में) नहीं रहना चाहिए ?" उन्होंने कहा-"महाराज जानें ।" वह दिन बीता, रात्रि आयी। सभामण्डप में बैठा । (वहाँ पर) कुछ समय बिताकर Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्वों भवो २८३ निद्दा । रयणीचरिमजामम्मि दिट्ठो मए सुविणओ। किलाहं धवलहरोवरि सिंहासणोवविट्ठो पडिकलभासिणीए पाडिओ कहवि अंबाए जसोहराए, पलोट्टमाणो गओ सत्तमभूमियाए, अणुपलोट्टमाणा अंबा वि तह चेव त्ति; उठ्ठिऊण कहवि आरूढो मंदरगिरि। एत्थंतरम्मि विउद्घो। चितियं च मए । दारुणारम्भो विवागसुंदरो य एस सुमिणओ। ता न याणामो, कि भविस्सइ त्ति? अहवा पत्थयं मए परलोयसाहणं । जे होइ, त होउ ति।। तओ धम्मज्झाणमणुसरंतस्स चेव अइक्कंता रयणी । कयं पभाओचियं । ठिओ म्हि अत्थाइयामंडवे । आगया मे महल्लुज्जलपरियणपरिवारिया अंबा। अब्भुट्ठिओ सविणयं । पुच्छिओ अहं तीए सरीरकुसलं । निवेइयं मए ईस अवणउत्तिमंगेण। निसण्णा य सा धवलदुगुल्लोत्थयाए महापीढियाए । तओ मए चितियं । अहो लट्ठयं जायं, जं अंबा वि एत्थ आगय त्ति। निवेएमि इमीए निययाहिप्पाय, विन्नवेमि एवं पव्वज्जमंतरेणं। अहवा अच्चंतनेहालुया अंबा दुक्खं मे समीहियं संपाडइस्सइ ति । दिट्ठो य अकुसलसुमिणओ; तओ आसंकेमि अंबाओ एत्थ अंतरायं । न जुत्तं च निवत्तदेवोस्नेहभावतः समागता मे निद्रा। रजनीचरमयामे दृष्टो मया स्वप्नः । किलाह धवलगहोपरि सिंहासनोपविष्टः प्रतिकूलभाषिण्या पातितः कथमपि अम्बया यशोधरया, प्रलुठन् गतः सप्तमभूमिकायाम् । अनुप्रलुठन्ती अम्बाऽपि तथैवेति, उत्थाय कथमपि आरूढो मन्दरगिरिम् । अत्रान्तरे विबद्धः । चिन्तितं च मया। दारुणारम्भो विपाकसुन्दरश्चैष स्वप्नः। ततो न जानीमः किं भविष्यतोति ? अथवा प्रस्तुतं मया परलोकसाधनम्, यद् भवति तद् भवत्विति । ततो धर्मध्यानमनुस्मरत एवातिक्रान्ता रजनी । कृतं प्रभातोचितम् । स्थितोऽस्मि आस्थानिकामण्डपे । आगता मे महत्तरोज्ज्वलपरिजनपरिवारिताऽम्बा। अभ्युत्थितः सविनयम् । पृष्टश्चाहं तया शरीरकुशलम् । निवेदितं मया ईषदवनतोत्तमाङ्गेन । विषण्णा च सा धवलदुकलास्ततायां महापीठिकायाम् । ततो मया चिन्तितम्-अहो लष्टं जातं यदम्बाऽपि अत्रागतेति । निवेदयाम्यस्यै निजकाभिप्रायम्। विज्ञपयाम्येतं (स्वप्न) प्रव्रज्यामन्तरेण । अथवाऽत्यन्तस्नेहालुरम्बा दुखं मे समीहितं सम्पादयिष्यति । दृष्टश्चाकुशलस्वप्नः, तत आशङ्के अम्बातोऽत्रान्तरायम्। न युक्तं निवास भवन को गया। महारानी के प्रति स्नेहभाव न रहने के कारण नींद आ गयी। रात्रि के अन्तिम प्रहर में मैंने स्वप्न देखा। धवल गृह (महल) के ऊपर बैठे हुए मुझे विपरीत वचन बोलने वाली माता यशोधरा ने किसी प्रकार गिरा दिया, और मैं लुढ़कता हुआ सातवें नरक चला गया। पीछे से लुढकती हुई माता भी उसी नरक में आ गयी। उठकर किसी प्रकार सुमेरु पर्वत पर चढ़ा। इसी बीच (मेरी) नींद खुल गयी। मैंने सोचा-यह स्वप्न आरम्भ में भयंकर और अन्त में (परिणाम में) सुन्दर है । अत: नहीं जानता हूँ, क्या होगा ? अथवा मैं परलोक का साधन कर ही रहा हूं, जो होता है वह होवे । अनन्तर धर्म ध्यान करते हुए रात्रि बीत गयी। प्रात:कालिक क्रियाओं को किया । (मैं) सभामण्डप में बैठा हुआ था कि बहुत बड़े-बड़े समीपस्थ लोगों के साथ माता जी आयीं। (मैं) विध्यपूर्वक खड़ा हो गया। उन्होंने मेरे शरीर की कुशल पूछी। मैंने कुछ सिर झुकाकर निवेदन किया। वह सफेद रेशमी वस्त्र बिछे हुए महापीठ (बड़ा पीढ़ा) पर बैठीं । तब मैंने सोचा-'ओह!सुन्दर हुआ जो कि माता यहाँ पर आ गयीं। इनसे आना अभिप्राय निवेदन करता हूँ। इनसे दीक्षा को छोड़, स्वप्न के विषय में निवेदन करता हूँ अथवा अत्यन्त स्नेह रखने वाली माता दुःख से इष्ट कार्य को करने देगी। चूंकि मैंने अशुभ स्वप्न देखा है, अतः माता से यहाँ पर विघ्न की आशंका करता हूँ। इसके प्रतिकल कार्य करना ठीक नहीं है; क्योंकि माता-पिता का »तिकार कठिनाई से किया | Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ [समराइज्यकहा इमीए पडिकलमासेविउं, जओ दुप्पडियाराणि अम्मापिईणि हवंति । विरतं च मे चित्तं भवपवंचाओ।न सक्कुणोमि इह चिट्ठिउं। ता उवाएण विन्नवेमि, जेण निस्संसय चेव एसा अणुजाणइ त्ति । एसो य एत्थुवाओ होउ । तं चेव सुमिणयं तहा साहेमि, जहा तस्स पडिघायणनिमित्तं वेसमेत्तं पडुच्च अणुजाणिहिइ इत्तरकालियं पव्वज्जमंबा । तओ अहं तहा पव्वइओ चेव होहामि त्ति चितिऊण सव्वत्थाइयासमक्खं विन्नत्ता अंबा मए । अंब, अज्ज मए --- रयणीए चरमजामम्मि दिट्ठो सुमिणओ'। तं सुणेउ अंबा । अंबाए भणियं-कहेहि पुत्त ! केरिसो ति। तओ मए भणियं-अहं खकिल गणहरकुमारस्स रज्जं दाऊण कयसिरतुंडमुंडणो सयलसंगचाई समणगो संवुत्तो, धवल. हरोवरिसंठिओ य पडिओ। तओ विउद्धो ससज्झसो ति । तओ अप्पसत्थसुविणयं सोऊण सुविणयत्थकोवियाए भयसंभंतथरहरेंतहिययाए वामपाएण महिमंडलं अक्कमिऊण थुथुक्कयसणाहं जंपियं अंबाए–प्रत्त, पडिहयं ते अमंगलं, चिरं जीव, निरुवसग्गं च महिं पालेहि। एयस्स वि य पडिघायणनिमित्त कीरउ इम, कुमारस्स रज्जं दाऊण गिहम्मि चेव इत्तिरियकालं समलिंगपडिवज्जणं ति। चास्याः प्रतिकलमासेवितुम्, यतो दुष्प्रतीकारी मातापितरौ भवतः । विरक्तं च मे चित्तं भवप्रपञ्चात । न शक्नोमीह स्थातुम् । तत उपायेन विज्ञपयामि, येन निःसंशयमेव एषाऽनूजानातीति । एष चात्रोपायो भवतु । तमेव स्वप्नं तथा कथयामि यथा तस्य प्रतिघातननिमित्तं वेषमात्रं प्रतीत्यानजास्यति इत्वरकालिकां प्रव्रज्यामम्बा। ततोऽहं तथा प्रवजित एव भविष्यामीति चिन्तयित्वा सर्वास्थानिकासमक्षं विज्ञप्ताऽम्बा मया-अम्ब ! अद्य मया रजन्याश्चरमयामे दष्ट: स्वप्नः । ते श्रणोत्वम्बा । अम्बया भणितम्-कथय पुत्र ! कीदृश इति । ततो मया भणितम्-अहं खलु किल गणधरकुमाराय राज्यं दत्त्वा कृतशिरस्तुण्डमुण्डनः सकलसङ्गत्यागी श्रमणः संवत्तः, धवलगहोपरि तश्च पतितः ततो विबुद्धः ससाध्वस इति । ततोऽप्रशस्तस्वप्नं श्रुत्वा स्वप्नार्थकोविदया भयसम्भ्रान्तकम्पमानहृदयया वामपादेन महीमण्डलमाक्रम्य थूथत्कृतसनाथं जल्पितमम्बया-पुत्र! प्रतिहतं तवामङ्गलम, चिरं जीव, निरुपसर्गं च महीं पालय। एतस्यापि च प्रतिघातननिमित्तं क्रीयतामिदम, कमाराय राज्यं दत्त्वा गहे एव इत्वरिककालं श्रमणलिङ्गप्रपदनमिति । मया भणितम्-अम्ब, जा सकता है। मेरा चित्त संसार रूपी प्रपंच से विरक्त हो गया है। यहाँ पर मैं नहीं ठहर सकता । अत: उपायपूर्वक निवेदन करता हूँ जिससे नि:सन्देह यह अनुमति दे दें। इस विषय में यही उपाय है कि उसी स्वान को उस प्रकार कहता हूँ जिस प्रकार उसके (अनिष्ट के) निवारण के लिए माता थोड़े समय के लिए वेषमात्र मानकर दीक्षा की स्वीकृति दे दें । तब मैं उस प्रकार दीक्षित हो जाऊँगा-ऐसा सोचकर सभी सभासदों के समक्ष मैंने माता से निवेदन किया-"माता ! आज मैंने रात्रि के अन्तिम प्रहर में स्वप्न देखा । उसे माता सुनें।" माता ने कहा-"पुत्र ! कहो, कैसा स्वप्न देखा ?" तब मैंने कहा--"मैं कुमार गुणधर को राज्य देकर दाढ़ी, मूंछ मुड़ाकर, समस्त आसक्तियों का त्यागकर मुनि हो गया और धवलगृह (महल) के ऊपर स्थित हुआ गिर गया। तब घबड़ाहट में (मैं) उठ गया।" तब अशुभ स्वप्न सुनकर स्वप्नों के अर्थ को जानने वाले लोगों के कहने से भयभीत होने के कारण जिसका हृदय कांप गया है, ऐसी माता ने बायें पैर से पृथ्वी को आक्रान्तकर खकारते हुए कहा-"पुत्र ! तुम्हारा अमंगल दूर हो गया, चिरकाल तक जिओ और बिना विघ्नबाधा के पृथ्वी का पालन करो। अशुभ के निवारण के लिए यह करो-कुमार को राज्य देकर घर में ही थोड़े समय के लिए मुनि १. सुगिणओ-क, २. कीइसो त्ति-क-ख, ३. सुविणसत्थ ...- क, ४. ""हिययं-क। Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पळाची भवोj २८५ मए भणियं-अंब, जं तुमं आणवेसि । अंबाए भणियं-निवडणनिमित्तं च निवाइऊण वेयविहिणा जलथलखहयरे जीवे करेहि कुलदेवयच्चणेणं संतिकम्मं ति। राओ मए ठइया कण्णा, भणियं चअंब, कीइसं जीवघाएणं संतिकम्मं ति ? अहिंसालक्खणो खु धम्मो । सुण मणमेत्तेण वि इहइं परस्त एक्कं पि मरणभीरुस्स। मरणं भयाण कयं बहभयारणब्भवं होइ॥३७६॥ जो इह परस्स दुक्खं करेइ सो अप्पणो विसेसेणं । न पमायकयं कम्मं जं विहलं होइ जीवाणं ॥३७७॥ जं पि आइट्ठ 'करेहि संतिकम्मं ति। तं सुणसु संतिकम्म नरस्त सम्वत्थसाहणसमत्थं । जं पयणुयं पि निच्चं परस्स पावं न बितेइ ॥३७८।। इहलोए परलोए य संतियम्म अणुत्तरं तस्स। जह पेच्छइ अप्पाणं तह जो सव्वे सया जीवे ॥३७॥ यत्त्वमाज्ञापयसि । अम्बया भणितम्-निपतन[निवारण]निमित्तं च निपात्य वेदविधिना जलस्थलखचरान् जीवान् कुरु कुलदेवताऽर्चनेन शान्ति कर्मेति । ततो मया स्थगितौ कौं,भणितं च-अम्ब ! कीदृशं जीवघातेन शान्तिकर्मेति । अहिंसालक्षणः खलु धर्मः । शृणु मनोमात्रेणापि इह परस्य एकमपि मरणभीरोः। मरणं भूतानां कृतं बहुभवमरणोद्भवं भवति ॥३७६॥ य इह परस्य दुःखं करोति स आत्मनो विशेषेण ।। न प्रमादकृतं कर्म यद विफलं भवति जीवानाम् ।।३७७॥ यदपि आदिष्टं 'कुरु शान्तिकर्म' इति । तत शृणु शान्तिकर्म नरस्य सर्वार्थसाधनसमर्थम् । यत् प्रतनुकमपि नित्यं परस्य पापं न चिन्तयति ॥३७८।। इहलोके परलोके च शान्तिकर्मानुत्तरं तस्य । यथा पश्यत्यात्मानं तथा यः सर्वान् सदा जीवान् ॥३७६।। वेश धारण करलो।" मैंने कहा--"माता, जो आज्ञा दो।" माता ने कहा- "(इसके अतिरिक्त अशुभ) निवारण के लिए वैदिक विधि से जलचर, थलचर और नभचर जीवों को मारकर देवता की अर्चना कर शान्ति कर्म करो। तब मैंने दोनों कान बन्द कर कहा-“माता ! जीवों को मारने से शान्ति कर्म कैसा ? धर्म का लक्षण अहिंसा है । सुनो ___ इस संसार में मरने से डरने वाले किसी भी दूसरे प्राणी को मन से भी मारना बहुत से भवों में मरण का जनक होता है । जो इस संसार में दूसरे को दुःख पहुंचाता है वह अपने को विशेष रूप से दुःखी करता है । प्रमाद के द्वारा किया हुआ कार्य, जो सफल नहीं होता है, जीवों को नहीं करना चाहिए ॥३७६-३७७॥ जो आदेश दिया कि 'शान्ति कर्म करो' सो सुनो-जो (मनुष्य) नित्य दूसरे का जरा भी पाप नहीं विचारता है, उसी मनुष्य का शान्ति कर्म समस्त प्रयोजनों का साधन करने में समर्थ है । इस लोक और परलोक में उसी का सर्वोत्तम शान्ति कर्म है जो सदा सभी जीवों को अपने समान मानता है ॥३७८-३७६।। १. संतिगम्म-क। Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ [समराइचकहा अंबाए भणियं-पुत्त, परिणामविसेसओ पुण्णपावे, एसा य धम्मसुई। सुण जस्स न लिप्पइ बुद्धी हंतूण इमं जगं निरवसेसं । पावेण सो न लिप्पइ पंकयकोसो व्व सलिलेणं ॥३८०॥ अहवा जइ वि पावं हवइ, तह वि देहारोग्गनिमित्तं कीरउ इमं । पावं पि हु कायव्वं बुद्धिमया कारणं गणंतेणं । तह होइ किपि कज्ज विसं पि जह ओसहं होइ ॥३८१॥ मए भणियं-- अंब, जं तए आणत्तं 'परिणामविसेसओ पुण्णपावे' त्ति, एत्थ अकज्जपवत्तणे कोइसो परिणामो त्ति? अन्नं च सुण पुण्णमिणं पावं चिय सेवंतो तप्फलं न पावेइ। हालाहलविसभोई न य जीवई अमयबद्धी वि॥३८२॥ न य तिहयणे वि पावं अन्नं पाणाइवायओ अत्थि। जं सवे वि य जीवा सुहलवतण्हालुया इहइं ॥३३॥ अम्बया भणितम्-पुत्र ! परिणामविशेषतः पुण्यपापे, एषा च धर्मश्रुतिः। शृणु -. यस्य न लिप्यते बुद्धिहत्वेदं जगद् निरवशेषम् ।। पापेन न स लिप्यते पङ्कजकोश इव सलिलेन ।।३८०॥ अथवा यद्यपि पापं भवति तथाऽपि देहारोग्यनिमित्तं क्रियतामिदम् । पापमपि खलु कर्तव्यं बुद्धिमता कारणं गणयता। तथा भवति किमपि कार्य विषमपि यथौषधं भवति ॥३८१॥ मया भणितम्-यत् त्वयाऽज्ञप्तं-परिणामविशेषतः पुण्यपापे इति, अत्र अकार्यप्रवर्तने कीदृशः परिणाम इति ? अन्यच्च शृणु पण्यमिदं पापमेव सेवन् तत्फलं न प्राप्नोति । हालाहलविषभोजी न च जीवत्यमृतबुद्धिरपि ॥३८२।। न च त्रिभुवनेऽपि पापमन्यत् प्राणातिपाततोऽस्ति । यत् सर्वेऽपि च जोवाः सुखलवतृष्णावन्त इह ॥३८३॥ माता ने कहा-"पुत्र ! परिणाम विशेष से पुण्य और पाप होता है । यह धर्म वचन है । सुनो इस सम्पूर्ण जगत् को मारकर जिसकी बुद्धि उसमें लिप्त नहीं होती है वह पाप में लिप्त नहीं होता है। जैसे-कमल-कोश पानी से लिप्त नहीं होती है ॥३८०॥ अथवा यद्यपि पाप होता है, फिर भी शरीर की निरोगता के लिए इसे करो। बुद्धिमान व्यक्ति, विशेष कारण को मानकर पाप भी करे। ऐसा करने पर जैसे विष भी औषधि हो जाती है उसी प्रकार कार्य भी (सफल) हो जाता है" ॥३८१॥ मैंने कहा- "तुमने जो आज्ञा दी कि परिणाम विशेष से पुण्य और पाप होते हैं। तो अकार्य में प्रवत्त होने पर परिणाम कैसा ? दूसरी बात भी है, सुनो पाप कार्य करते हुए भी यह पुण्य है-ऐसा मानता हुआ उसके फल को नहीं प्राप्त करता है अमृतत्व की बुद्धि रखता हुआ भी हालाहल विष का पान करने वाला (कभी) जीवित नहीं रहता है। तीनों लोकों में भी प्राणिवध के समान कोई अन्य पाप नहीं है; क्योंकि सभी जीव सुख के लेशमात्र के लिए भी तृष्णायुक्त रहते है॥३५२-३८३॥ Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पउत्यो भवो] २९७ एवं च ठिए समाणे कहं हिंसावई धम्मसुइ ति ? जं च आणत्तं 'जइ वि पावं हवइ, तहवि देहारोग्गनिमित्तं कीरउ इम' ति, एत्थ सुण दीहाउओ सुरूवो नीरोगो होइ अभयदाणेणं । जम्मंतरेवि जीवो सयलजणसलाहणिज्जो य ॥३८४॥ देहारोग्गनिमित्तं पि एयवयपालणं चिय खमं मे । पावाहिवढिएण य देहेण वि अंब किं कज्जं ॥३८५॥ अंबाए भणियं-पुत्त, अलं रिसिवयणवियारणाए, कीरउ इमं चेव मह वयणं ति जंपमाणी निवडिया मे चलणेसु । तओ मए चितियं-अहो दारुणं; एगत्तो गुरुवयणभंगो, अन्नत्तो य वयभंगो त्ति । ता कि एत्थ कायव्वं ? अहवा गुरुवयणभंगाओ वि वयभंगो चेव विवागदारुणो ति चितिऊण विन्नत्ता अंबा । जहा-अंब, जइ ते अहं पिओ, ता अलं इमिणा दोग्गइनिवायहेउणा समाइडेण । अहवा वावाएमि अत्ताणयं, करेउ अंबा मम मंससोणिएणं कुलदेवयच्चणं ति । तओ मए कड्ढियं एवं स्थिते सति कथं हिंसावतो धर्मश्रतिरिति ? यच्चाज्ञप्तं 'यद्यपि पापं भवति तथाऽपि देहारोग्यनिमित्तं क्रियतामिदम' इति । अत्र शृणु दीर्घायुः सुरूपो नीरोगो भवत्यभयदानेन । जन्मान्तरेऽपि जीवः सकलजनश्लाघनीयश्च ॥३८४॥ देहारोग्यनिमित्तमपि एतव्रतपालनमेव क्षमं मे । पापाभिवधितेन च देहेनापि अम्ब ! किं कार्यम् ॥३८॥ अम्बया भणितम्-पुत्र ! अलं ऋषिवचनविचारणया, क्रियतामिदमेव मम वचन मिति जल्पन्तो निपतिता मे चरणयोः । ततो मया चिन्तितम्-अहो ! दारुणम्, एकतो गुरुवचनभङ्गं अन्यतश्च व्रतभङ्ग इति । ततः किमत्र कर्तव्यम् ? अथवा गुरुवचनभङ्गादपि व्रतभङ्ग एव विपाक दारुण इति चिन्तयित्वा विज्ञप्ताऽम्बा । यथा अम्ब ! यदि तवाहं प्रियः, ततोऽलमनेन दुर्गतिनिपातहेतुना समादिष्टेन । अथवा व्यापादयाम्यात्मानम, करोत्वम्बा मम मांसशोणितेन कुलदेवतार्चनमिति । ततो मया कर्षितं मण्डलायम् । अत्रान्तरे 'हा हा मा साहसम्' इति समुद्धावित आस्था ऐसा स्थित होने पर धर्मशास्त्र कैसे हिंसा वाला हो सकता है ? और जो आज्ञा दी कि यद्यपि पाप होता है तथापि शरीर के स्वास्थ्य के लिए यह करो। इस विषय में सुनो __ अभयदान से दूसरे जन्म में भी जीव दीर्घायु, सुन्दर रूपवाला, नीरोग और समस्त लोगों के द्वारा प्रशंसनीय होता है । शरीर के आरोग्य के लिए इस व्रत को भी मैं पालने में समर्थ हूँ, किन्तु पाप बढ़ाकर देह से भी, हे माता ! क्या कार्य है ? अथवा पाप बढ़ाकर देह धारण करना भी व्यर्थ है" ॥३८४-३८५॥ माता ने कहा-"पुत्र !ऋषि के वचनों से युक्त होकर मत सोचो, मेरे इन वचनों का ही पालन करो" ऐसा कहती हुई वह मेरे चरणों में गिर गयी। तब मैंने विचार किया-"ओह ! कठिन कार्य है, एक ओर माता के वचन भंग होते हैं और दूसरी ओर व्रतभंग होता है । अतः यहाँ क्या करना चाहिए ?" अथवा माता के वचनों को न मानने से भी अधिक व्रत का भंग करना भयंकर है --ऐसा कहकर माता से निवेदन किया"माता ! यदि मैं तुम्हारा प्रिय हूँ तो दुर्गति में गिराने का कारण यह आदेश मत दो अथवा अपने आपको मारता हूँ, माता मेरे रक्त, मांस से कुलदेवी की अर्चना करें।" तब मैंने तलवार खींची। इसी बीच 'हाय ! Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [समराहचकहा मंडलग्गं । एत्थंतरम्मि 'हा हा मा साहसं' ति समुद्धाइओ अत्थाइयामंडवम्मि कलयलो। ससज्झा विय उठ्ठिया अंबा, धरिओ तीए दाहिणभुयावंडे, भणिओ य। पुत्त, अहो ते माइवच्छलत्तणं; कि विवन्ने तुमम्मि अहं जीवामि? ता पयारंतरकओ माइवहो व तए एसो ववसिओ त्ति एवं निरूवेहि। एत्थंतरम्मि कइयं कुक्कूडेणं। सओ अंबाए सहो, भणियं च तीए-प्रत्त, सण्ड अप्पाणं एस कुक्कुडो । अस्थि य इमो कप्पो, जं ई इसे पत्थुयम्मि जस्स चेव सद्दो सुणीयइ, तस्स तप्पडिबिबस्स वा वावायणेण समीहियसंपायणं ति । ता चिट्ठतु अन्ने जीवा, एयं चेव कुक्कुडं वावाएहि त्ति । मए भणियं-अंब, न खलु अहं अंबाएसेणावि अत्ताणयं मोत्तण अन्नं वानाएमि । अंबाए भणियं-पुत्त जइ एवं, ता कि एइणा; पिट्ठमयकुक्कुडवहेणावि ताव संपाडेहि मे वयणं ति जंपमाणी अवहरिऊण मंडलग्गं पुणो वि निवडिया मे चलणेसु । एत्तरम्मि तन्नेहभोहियमणेण पणट्ठनाणावलोएण भणियं मए पावकम्मेण । अब, एवं जं तुम आणावेसि त्ति । अवि य । बहुयं पि विन्नाणं नाइसहं होइ निययकज्जम्मि । सुट्ठ वि दूरालोयं ण पेच्छए अप्पयं अच्छि ॥३८६॥ निकामण्डपे कलकलः । ससाध्वसेव चोत्थिताऽम्बा, धतस्तया दक्षिणभजादण्डे, भणितश्च-पुत्र ! अहो ! तव मातृवत्सलत्वम् ; किं विपन्ने त्वयि अहं जीवा मि ? ततः प्रकारान्तरकृतो मातृवध एव त्वयैष व्यवसित इत्येवं निरूपय । अत्रान्तरे कजितं कुटेन । श्र तोऽम्बया । शब्दः भणितं च तयापुत्र ! सूचयत्यात्मानमेष कुर्कुटः । अस्ति चायं कल्पः, यदीदृशे प्रस्तुते यस्यैव शब्दः श्रूयते तस्य तत्प्रतिबिम्बस्य वा व्यापादनेन समीहितसम्पादनमिति। ततस्तिष्ठन्त्वन्ये जीवाः, एतमेव कुर्कटं व्यापादयेति । मया भणितम्-न खल्वहमम्बादेशेनापि आत्मानं मक्त्वाऽन्यं व्यापादयामि । अम्बया भणितम..-पत्र ! यद्येवं ततः किमेतेन, पिष्टमयकर्कटवधेनापि तावत्सम्पादय मम वचनमिति जल्पन्ती अपहृत्य मण्डलाग्रं पुनरपि निपतिता मम चरणयोः । अत्रान्तरे तत्स्नेहमोहितमनसा वलोकेन भणितं मया पापकर्मणा-अम्ब ! एवं यत त्वमाज्ञापयसीति । अपि च बहुकमपि विज्ञानं नातिसहं [नातिसमर्थं] भवति निजकार्ये । सुष्ठ्वपि दूरालोकं न पश्यत्यात्मानमक्षि ॥३८६॥ हाय ! भयंकर कार्य मत करो', इस प्रकार सभामण्डप में कोलाहल हो गया। घबड़ाहट से माता उठ गयीं और उसने अपनी दाहिनी भुजा में लेकर मुझसे कहा-"पुत्र ! ओह ! तुम्हारा मातृ-प्रेम, क्या तुम्हारे मरने पर मैं जीवित रहूँगी ? अतः(अपना वध करने पर) प्रकारान्तर से तुम्हारे द्वारा यह मातृवध रूपी कार्य ही निश्चित हुआ। इस प्रकार विचार करो।" इसी बीच मुर्गे ने आवाज दी। माता ने शब्द सुना । उसने कहा--"पुत्र ! यह मुर्गा अपने आपकी सूचना दे रहा है । यह नियम है कि ऐसी स्थिति आने पर जिसका शब्द सुनाई दे उसको अथवा उसके प्रतिरूप को मारने पर इष्ट कार्य की सिद्धि होती है। अतः अन्य जीव विद्यमान रहें, इसी मुर्गे को मार दो।" मैंने कहा--"मैं माता के आदेश से भी अपने को छोड़कर दूसरे को नहीं मारूंगा।" माता ने कहा - "पुत्र ! यदि ऐसा है तो इससे क्या ? आटे के चूर्ण के मुर्गे का वध करके मेरे वचनों को पूरा करो"-ऐसा वचन कहकर (उसने) मेरे हाथ से तलवार छीन ली और पैरों में गिर पड़ी। इस बीच उसके स्नेह से मोहित मन वाला, नष्ट ज्ञान-दर्शन वाला पापी मैंने कहा- "माता ! जो आप आज्ञा दें वही होगा। कहा भी है--- बहुत सारा ज्ञान होने पर भी वह अपना कार्य करने में समर्थ नहीं होता है। दूर के पदार्थ को भलीभौति देखने वाली भी आँख अपने आपको नहीं देखपाती है ।।३८६॥ Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउत्यो भवो] २८९ एत्थंतरम्मि दिन्ना समाणत्ती लेप्पयाराणं । जहा निव्वत्तेह अकालहीणं पिट्ठमयं कुक्कुडं ति । निव्वत्तिओ य तेहि, उवणोओ मे समीवं । तओ सा अंबा तं च कुक्कुडं ममं च घेतूण गया देवयापायमूलं । ठाविओ से अगओ। भणिओ अहं तीए -पुत्त, कड्ढेहि मंडलग्गं । तओ मए ईसि विहसमाणेण कड्ढियं । अंबाए य भणिय-भयवइ कुलदेवए, एस सव्वजीवाण वावाय गबारए पुत्तदिट्ठदुस्सुमिणपडिघायणत्थमुवणीओ ते कुक्कुडो। वावाएइ य इमं एसो। ता एयस्स सरीरे कुसलं करिज्जासि त्ति भणिऊण सन्निओ अहं जहा 'वावाएहि एवं' ति । तओ मए घाइओ कुक्कुडो। कयं देवयच्चणं । भणिओ अंबाए सिद्ध कम्मो नाम सूक्यारो-इमं मंससेसं लहुं रंधेहि, जेण मे पुत्तो अहं च देवयासेसं पासामो त्ति । मए भणियं-अंब, अलं मंसभक्खणेण । सुण सुट्ठ वि गुणप्पसिद्धा तवनियमा दाणझाणविणिओगा। भंतोसहा य विहला नरस्स मंसासिणो होति ॥३८७॥ खइयं वरं विसं पि हु खणेण मारेइ एक्कसिं चेव । मंसं पुणो वि खइयं भवमरणपरंपरं णेइ ॥३८॥ ___ अत्रान्तरे दत्ता समाज्ञप्तिर्लेप्यकाराणाम् निर्वर्तयाकालहीनं पिष्टमयं कुर्कुटम् । निर्वतितश्च तैः, उपनीतश्च मम समोपम् । ततः साऽम्बा तं च कर्कटं मां च गृहीत्वा गता देवतापादमूलम् । स्थापितस्तस्याग्रतः । भणितश्चाहं तया-पुत्र ! कर्षय मण्डलायम् । ततो मयेषद् विहसता कषितम्। अम्बया च भणितम्-भगवति कुलदेवते ! एष सर्वजीवानां व्यापादनवारकः पुत्रदृष्टदुःस्वप्नप्रति. घातनार्थमुपनोतस्तव कुर्कुट: । व्यापादयति चेममेषः । तत एतस्य शरीरे कुशलं कुर्या इति भणित्वा संज्ञितोऽहं यथा 'व्यापादय एतम्' इति । ततो मया घातितः कुकुटः। कृतं देवतार्चनम् । भणितोऽम्बया सिद्धकर्मा नाम सूपकार:-इमं मांसशेषं लघु रन्धय, येन मे पुत्रोऽहं च देवताशेषं पश्याव इति । मया भणितम्-अम्ब ! अलं मांसशेषेण । शृणु सुष्ठ्वपि गुणप्रसिद्धाः तपोनियमा दानध्यानविनियोगाः । मन्त्रौषधानि विफलानि नरस्य मांसाशिनो भवन्ति ।।३८७।। खादितं वरं विषमपि खलु मारयति एकश एव। मांसं पुनरपि खादितं भवमरणपरम्परां नयति ॥३८॥ इसी बीच लेप्यकार्य करने वालों को आज्ञा दी गयी। अविलम्ब (उन्होंने) आटे के चूर्ण का मुर्गा बना दिया । बनाकर वे मेरे पास लाये । अनन्तर वह माता उस मुर्गे की और मुझे लेकर देवी के चरणों में गयी । उस देवी के आगे मुर्गा रख दिया। मुझसे उसने कहा-"पुत्र ! तलवार खींचो।" तब मैंने कुछ मुस्कराकर (तलवार) खींची। माता ने कहा-"भगवती कुलदेवी ! यह समस्त जीवों का वध करने से विरत पुत्र बुरे स्वप्न के निवारण के लिए आपके पास मुर्गा लाया है । यह इसको मारता है। अतः (आप) इसके शरीर का कुशल करें"-ऐसा कहकर मुझे इशारा किया कि इसे मारो । तब मैंने मुर्गा मार दिया। देवी की पूजा की। माता ने सिद्धकर्मा नामक रसोइये से कहा- "इस शेष मांस को शीघ्र सानो। जिससे मेरा पुत्र और मैं देवता को चढ़ाने से शेष बचे हुए को देखें (पायें)।" मैंने कहा-"माता ! शेष मांस से बस करो। सुनो- .. मांस भक्षण करने वाले मनुष्य के अच्छे गुण, प्रसिद्ध तप और नियम, दान, ध्यान, त्यागमन्त्र तथा औषधियाँ नष्ट हो जाते हैं । विष को भी खाकर एक बार मरना अच्छा है, किन्तु मांस को खाना, संसार में मरण की परम्परा की ओर ले जाना है ॥३८७-३८८॥ Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९० [समराइचकहा मंसासिणो नरस्स हु पारतं आउयं च परिहाइ । परिवड्ढइ दोहग्गं दूसहदुक्खं च निरएसु ॥३८६॥ भेसज्ज पि य मंसं देई अणुमन्नई य जो जस्स। सो तस्स मग्गलग्गो वच्चइ नरयं न संदेहो ॥३६॥ दुग्गंधं बीभत्थं इंदियमलसंभवं असुइयं च । खइएण नरयपडणं विवज्जणिज्जं अओ मंसं ॥३९॥ एए य मंसासिणो दोसा । इमे पुण अमंसासिणो गुणा सव्वजलमज्जणाई सव्वपयाणाइ सम्वदिक्खाओ। एयाइ अमंसासित्तणस्स तणुयं पि न समाइं॥३९२॥ जे चोरसुमिणसउणा वहिपिसाया य भूयगहदोसा । एक्केण अमंसासित्तणेण ते तणसमी (मा)होंति ॥३९३॥ मांसाशिनो नरस्य खलु परत्रायुश्च परिहीयते । परिवर्धते दौर्भाग्यं दुःसहदुःखं च निरयेषु ॥३८६॥ भैषज्यमपि च मांसं ददाति अनुमन्यते च यो यस्य । स तस्य मागंलग्नो व्रजति नरकं न सन्देहः ॥३६०।। दुर्गन्धं वीभत्सं इन्द्रियमलसम्भवमशुचिकं च । खादितेन नरकपतनं विवर्जनोयमतो मांसम् ॥३६१॥ एते च मांसाशिनो दोषाः । इमे पुनरमांसाशिनो गुणाः सर्वजलमज्जनानि सर्वप्रदानानि सर्वदीक्षाः । एतानि अमांसाशित्वस्य तनुकमपि न समानि ॥३६२॥ ये चौरस्वप्नशकुना वह्निपिशाचाश्च भूतग्रहदोषाः । एकेनामांसाशित्वेन ते तृणसमा भवन्ति ॥३६३॥ मांस खानेवाले का परलोक और आयु ह्रास को प्राप्त हो जाते हैं, दुर्भाग्य बढ़ता है और नरकों में दुःसह दुःख होता है । जो मांस को दवाई के रूप में भी देता है अथवा उसकी अनुमोदना करता है वह उस मार्ग में लगा हुआ नरक जाता है। इसमें कोई सन्देह नहीं है। दुर्गन्धित, बीभत्स, इन्द्रियों के मल से उत्पन्न, अपवित्र मांस को खाने से (प्राणी) नरक में गिरता है, अतः मांस को छोड़ देना चाहिए ॥३८६-३६१॥ ये मांस खाने वाले के दोष हैं और मांस न खाने वाले के ये गुण हैं समस्त जलों में स्नान करना, समस्त दान देना, सब प्रकार की दीक्षाएँ ग्रहण करना, ये क्रियाएँ मांस न खानेवाले की (क्रियाओं से) जरा भी समान नहीं हैं । जो चोर, स्वप्न, शकुन, अग्नि, पिशाच और भूतादि के ग्रहण के दोष हैं ।, वे एक मांस न खानेवाले के लिए तृण से समान होते हैं ॥३६२-३९३॥ Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भव] मंसस्स वज्जणगुणा दो चेव अलं नरस्स जियलोए । जं जियs निरुवसग्गं जं च मओ सोग्गइं लहइ ॥ ३६४ ॥ भणियं । पुत्त, अलं विधारणाए । कयं चेव मे वयणं तुमए त्ति । ता किं एइणा । न य इमं सच्चयं मंसं ति । परियप्पा खु एसा । तओ मए एवं पि पडिवन्नमणुचिट्ठियं च । एत्यंतर म्मि बद्ध साणुबंधमसुहकम्मं ति । बिइयदियहम्मि य कओ कुमारस्स रज्जाभिसेओ । पवत्तो अहं पव्वइउं । भणिओ य देवीए - अज्जउत्त, अज्जेकं पुत्तरज्जसुहमणुभवामो, सुए पव्वइसामोति । तओ मए चितियं - किमेयमवरोप्परविरुद्धं देवीए ववसियं । अहवा एयं पि अस्थि चेव । २६१ छडे जियंतं पिहु मयं पि अणुमरइ काइ भत्तारं । विसहरगयं व चरियं वंकविवंकं महिलियाणं ॥ ३६५॥ ताकि मम एहणा; जं एसा भणइ त्ति चितिऊण भणियं -सुंदरि, पहवसि तुमं मम जीवि मांसस्य वर्जनगुणौ द्वावेव अलं नरस्य जीवलोके । यज्जीवति निरुपसर्गं यच्च मृतः सुगतिं लभते ॥ ३९४॥ अम्बया भणितम् - पुत्र ! अलं विचारणया ? कृतमेव मम वचनं त्वयेति ; ततः किमेतेन । न चेदं सत्यं मांसमिति । परिकल्पना खल्वेषा । ततो मया एतदपि प्रतिपन्नमनुष्ठितं च । अत्रान्तरे बद्धं सानुबन्धमश भकर्मेति । द्वितीय दिवसे च कृतः कुमारस्य राज्याभिषेकः । प्रवृत्तोऽहं प्रव्रजितुम् । भणितश्च देव्या - आर्यपुत्र ! अद्यैकं (दिवस) पुत्र राज्यसुखमनुभवावः, प्रातः प्रव्रजिष्यावः । ततो मया चिन्तितम् - किमेतद् अपरापरविरुद्धं देव्या व्यवसितम् ? अथवा एतदपि अस्त्येव । त्यजति जीवन्तमपि अनुम्रियते काचिद् भर्त्तारम् । विषधरगतमिव चरितं वक्रविवक्रं महिलानाम् ॥ ३६५॥ ततः किं ममैतेन ? | यदेषा भणतीति चिन्तयित्वा भणितम् - सुन्दरि ! प्रभवसि त्वं मम मांस भक्षण न करने के संसार में दो ही गुण पर्याप्त हैं कि ( वह जीव) विघ्नबाधा से रहित होकर जीता है और मरकर सद्गति को प्राप्त करता है ॥ ३६४ ॥ माता ने कहा- "पुत्र ! विचार मत करो। तुमने मेरे वचनों का पालन कर ही लिया है। अतः इससे क्या ? और यह सत्य मांस नहीं है, यह कल्पना है । अनन्तर मैंने यह कार्य भी कर लिया । इसी बीच अभिप्राय युक्त होने के कारण ( मैंने ) अशुभकर्म बाँध लिये और दूसरे दिन कुमार का राज्याभिषेक किया । मैं दीक्षा लेने के लिए उद्यत हुआ। महारानी ने कहा- "आर्यपुत्र ! आज एक दिन हम लोग पुत्र के राज्य के सुख का अनुभव करें, प्रातःकाल दीक्षित हो जायेंगे ।" तब मैंने सोचा - यह महारानी ने परस्पर विरोधी क्या निश्चय किया ?" अथवा यह भी हो । (महिला) जीते हुए भी पति को छोड़ देती है और मरे हुए का अनुगमन करती है । ( इस प्रकार ) महिलाओं का चरित्र सांप की चाल के समान टेढ़ा-मेढ़ा होता है ॥ ३६५॥ अतः इससे क्या ? जो यह कहे, ऐसा विचार कर कहा - "हे सुन्दरी ! तुम मेरे प्राणों से भी अधिक Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ [समराइच्चकहा याओ वि । कि मए कयाइ तुह पणयभंगो को ति? तओ चितियं देवीए- पव्वयंते नरवइम्मि, अपव्वयंतीए मए महंतो कलंगो, वावन्ने उण मंतिवयणओ अणणुमरंतीए वि बालरज्जपरिवालणनिमित्तं न तहाविहो त्ति । ता वावाएमि अज्ज केणइ पयारेण महारायं ति । चितिओ उवाओ। देमि से भोयणगयं चेव कहंचि चओरदिठ्ठि वंचिऊण अकालक्खेवघायणं विसं ति। अइक्कता काइ वेला। तओ संपत्ताए भोयणवेलाए उवविट्ठो अहं । वित्थरियं महया विच्छड्डेण भोयणं । महनासियं संछइऊण ढक्का भुंजावया । सद्दाविवा देवी, आगया य एसा। अलक्खिज्जमाणतालउडविससंजोइएण किलाहारपरिणामणसमत्थेणं अलियपउत्तेण जोगवडएण सह आगंतूण उवविट्ठा। एसा य भुत्ता सह मए । भुत्तावलाणे य आयमणवेलाए अवणीएसु चओरेसु पज्जंतभक्खणिज्ज आहारपरिणामणसमत्थं अगदव्वसंजुयं उवणीयं मे जोयवडयं, भक्खियं मए निवियप्पेणं। भुत्तावसाणे य कयसोयायारो गओ वासभवणं । एत्थंतरम्मि वियम्भिओ विसवियारो, सिमिसिमियं मे अंगेहि, जड्डयं गया जीहा, सामलीहूया कररुहा, पव्वायं वयणकमलं, निरुद्धो लोयणपसरो। तओ अहं तहाविहमणाचिक्खणीयजीवितादपि । किं मया कदाचित् तव प्रणयभङ्गः कृत इति ? ततश्चिन्तितं देव्या-प्रव्रजति नरपतौ अप्रव्रजन्त्यां मयि महान् कलङ्कः, व्यापन्ने पुनर्मन्त्रिवचनतोऽननुम्रियमाणाया अपि बालराज्यपरिपालननिमित्तं न तथाविध इति । ततो व्यापादयामि अद्य केनचित्प्रकारेण महाराजमिति। चिन्तित उपायः । ददामि तस्मै भोजनगतमेव कथञ्चित् चकोरदृष्टि वञ्चयित्वाऽकालक्षेपघातनं विषमिति । अतिक्रान्ता काचिद् वेला । ततः सम्प्राप्तायां भोजनवेलायामुपविष्टोऽहम् । विस्तृतं महता विछर्दैन (विस्तारेण) भोजनम् । मखनासिक सञ्छाद्य (ढुक्का) प्रवृत्ताः भोजकाः (भोजयितारः) । शब्दायिता देवी। आगता चैषा। अलक्ष्यमाणतालपुटविषसंयोजितेन किलाहारपरिणामनसमर्थेन अलीकप्रयुक्तेन योगवटकेन सहागत्योपविष्टा ; एषा च भुक्ता मया सह । भुक्तावसाने च आचमनवेलायामपनीतेषु चकोरेषु पर्यन्तभक्षणीयमाहारपरिणामनसमर्थमनेकद्रव्यसंयुतमुपनीतं मह्य योगवटकम् । भक्षितं मया निर्विकल्पेन । भुक्तावसाने च कृतशौचाचारो गतो वासभवनम् । अत्रान्तरे विजृम्भितो विषविकारः। सिमिसिमितं ममाङ्गः, जाड्यं गता जिह्वा, श्यामीभता कररुहाः, (पव्वायं) म्लानं वदनकमलम्, निरुद्धो लोचनप्रसरः । ततोऽहं तथाविधमनाख्येयमवस्थान्तरमनुभवन् निपतितः प्यारी हो। क्या मैंने कभी तुम्हारे प्रेम को अस्वीकार किया है ?" तब महारानी ने सोचा-दीक्षा लेनेवाला राजा यदि दीक्षा नहीं लेता है तो मुझ पर महान् कलंक लगेगा। (राजा के) मर जाने पर मैं मन्त्रियों के वचन के अनुसार सती नहीं होती हैं तो भी बालक के राज्य का परिपालन करने के कारण मुझे उतना दोष नहीं लगेगा। अतः आज किसी प्रकार महाराज को मार डालती हूँ। उपाय सोचा । भोजन के समय ही किसी प्रकार चकोर नामक पात्र को आँखों से ओझलकर, उसे धोखा देकर, असमय में मारकर विष डाल दंगी। कुछ समय बीत गया। भोजन का समय आने पर मैं (भोजन के लिए) बैठा। बड़े विस्तार से भोजन परोसा गया। मुंह, नाक वगैरह साफ कर भोजन करने वाले भोजन करने लगे। महारानी को बुलाया। यह आ गयी। जिसमें तालपुट नामक विष की मिलावट दिखाई नहीं दे रही थी और जो आहार को पचाने में समर्थ होने के बहाने प्रयुक्त किया गया था, ऐसे पकौड़ों को साथ लाकर बैठ गयी। इसने मेरे साथ खाया। भोजन करने के बाद पानी पीने के समय चकोर नामक पात्रों को हटा देने पर अन्त में खाये हए आहार को पचाने में समर्थ अनेक वस्तुओं के लिए पकौड़ों को मेरे लिए लाया गया। मैंने निर्विकल्प रूप से खा लिये। भोजन करने के बाद हाथ, मुंह धोकर शयनगृह (वासभवन) को गया। इसी बीच विष का विकार बढ़ गया । मेरे अंग सिमट गये, जीभ जड़ता को प्राप्त हो गयी, नाखून नीले हो गये, मुखकमल मुरझा गया, नेत्रों का Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चजस्वी भवोj २६३ मवत्यंतरमणुहवंतो निवडिओ सीहासणाओ। 'हा हा किमेयं' ति विसण्णो मे समीवमागओ पडिहारो। भणिओ य तेण 'देव, किमेयं' ति। तओ जडा जोह ति न जंपियं मए । निरूविओ तेण, उवलद्धो मे विसवियारो। भणियं च णेण-अरे वाहरह सिग्छ विसप्पओयनिग्घायणसमत्थे वेज्जे। तओ 'न सोहणं वेज्जवाहरणं' ति चितयंती ससंभमसमक्खित्तुत्तरीया हाहारवं करेमाणी निवडिया ममोरि देवो । अवणीयं च तीए निरंसुगं चेव कंदमाणीए महं अंगुदुयंगलोहि कंठगयं ममपीडाए जीवियं। तओ अहं देवाणुप्पिया, पियाए वावाइओ समाणो अट्टज्माणदोसेण हिमवंतदाहिणदिसालग्गे सिलिधपव्वए समुप्पन्नो बरिहिणीए कुच्छिसि । जाओ कालक्कमेण । तओ बालओ चेव जणि वावाइऊण गहिओ वाहजुवाणेण, दिन्नो सत्तुयपत्थएणं नंदावाडयवासिणो गामतलवरस्स । तत्थ य अजायपक्खो सीउण्हातण्हावेयणाओ अणुहवंतो चिट्ठामि। तिव्वयरीए छुहावेयणाए पडिपेल्लिओ किमए खाइउं पयत्तो म्हि । तेहि य मे पावकम्मेहि संधुक्किज्जसाणं वित्थारमुवगयं सरीरं । जाओ सिंहासनात् । 'हा हा किमेतद्' इति विषण्णो मम समीपमागतः प्रतोहारः । भणितश्च तेन-देव ! किमतद' इति ? ततो जडा जिह्वति न जल्पितं मया। निरूपितस्तेन, उपलब्धो मम विषविकारः। भणितं च तेन-अरे व्याहरत शीघ्र विषप्रयोगनिर्घातनसमर्थान् वैद्यान् । ततो 'न शोभनं वैद्यव्या हरणम्' इति चिन्तयन्ती ससम्भ्रमोरिक्षप्तोत्तरीया हाहारवं कुर्वन्ती निपतिता ममोपरि देवी। अपनीतं च तया निरंशुकमेव क्रन्दन्त्या ममाङ्गुष्ठागुलिभिः कण्ठगतं मर्मपीडया जीवितम् । ततोऽहं देवानुप्रिय ! प्रियया व्यापादितः सन् आर्तध्यानदोषेण हिमवद्दक्षिणदिशालग्ने शिलोन्ध्रपर्वते समुत्पन्नो वहिण्याः कुक्षौ। जातः कालक्रमेण । ततो बालक एव जननी व्यापाद्य गहोतो व्याधयुवकेन । दत्तः सक्तुप्रस्थकेन नन्दावाटकवासिनो ग्रामतलवरस्य । तत्र च अजातपक्ष: शातोष्णतष्णावेदना अनुभवंस्तिष्ठामि । तीव्रतरया क्षुद्वदनया प्रतिप्रेरितः कृमीन् खादितुं प्रवृत्तो ऽस्मि । तैश्च मम पापकर्मभिः सन्ध्रुक्ष्यमानं (पोष्यमाणं) विस्तारमुपगतं शरीरम् । जातश्च मम फैलाव रुक गया। तब मैं उस प्रकार की अनिर्वचनीय अवस्था का अनुभव कर सिंहासन से गिर पड़ा। 'हाय ! हाय ! यह क्या है ?' इस प्रकार दुःखी होकर द्वारपाल मेरे पास आया । उसने कहा- “महाराज ! क्या हुआ ?" तब जीभ जड़ होने के कारण मैं नहीं बोल पाया । उसने देखा, मेरे ऊपर विष का विकार दिखाई पड़ा । उसने कहा-"अरे विष के प्रयोग का निवारण करने में समर्थ वैद्यों को शीघ्र बुलाओ।" तब वैद्यों का बुलाना ठीक नहीं, ऐसा सोचकर शीघ्र ही दुपट्टा फेंक कर 'हाय हाय' शब्द करती हुई महारानी मेरे ऊपर गिर पड़ी। उसने चिल्लाते हुए बिना वस्त्र की सहायता के ही अंगूठे की अंगुलियों से मर्मपीड़ा पहुँचाकर मेरे प्राण ले लिये। तब हे देवानुप्रिय ! प्रिया के द्वारा मारा जाकर मैं आर्तध्यान के दोष से हिमवान् पर्वत की दक्षिण दिशा में लगे हुए शिलीन्ध्रपर्वत पर मोर के गर्भ में आया । अनन्तर बाल्यावस्था में ही माता को मारनेवाले मुझे एक बहेलिया युवक ने ले लिया। एक प्रस्थ भर सत्तू में उसने उसे नन्दावाटक ग्राम के रक्षक (ग्राम तलवर) को दे दिया। वहाँ पर मैं ठण्ड और गर्मी की वेदना का अनुभव करता रहा । मेरे पंख नहीं उगे थे । अत्यधिक भूख की वेदना से प्रेरित होकर कीड़े-मकोड़ों के खाने में प्रवृत्त हुआ। मेरे पापकर्म से उन कीड़े मकोड़ों से पोषित Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९४ सिमरामकहा मे विविहरयणामेलसच्छहो पिच्छयब्भारो । तओ अहं गाहिओ नट्टकलं, पेसिओ य तेण 'सुंदरो' ति कलिऊण नियपुत्तस्स चेव पाहुडं राइणो गुणहरस्स। इओ य जसोहरा वि मे पुग्वजम्मजणणी मम मरणदिवसम्मि चेव अट्टवसट्टा मरिऊण पावकम्मवलियाए करहाडयविसए धन्नऊरयसन्निवेसम्मि कुक्कुरोगब्भम्मि कुक्कुरत्ताए उववन्ना । जाओ य कुक्कुरो। सो य 'मणपवणवेयदक्खो' त्ति धन्नपूरय सामिणा गुणधरस्स चेव पेसिओ कोसल्लियं ति। पत्ता अम्हे दुवे वि समयं चेव विसालं, पेसिया य अत्थाइयामंडवगयस्स रन्नो, दिट्ठा य तेण । जाया एयस्स अम्हेसु पीई, पसंसिया दुवे वि । समप्पिओ सुणओ अयंडमच्चुस्स सोणहियमयहरस्स, अहं च रायसउणपरिवालयस्स नीलकंठस्स। भगिओ य सोणहिओ-अरे जाणासि चेव तुमं, जहा अहं दोसु दढं पसत्तो पयावालणे पारद्धीए य । सुणएसु जीवघायणं सुहं ति, ता महंतं जत्तं करेज्जासि ति। तेण भणियं 'जं देवो आणवेई' ति। दुवे विय अम्हे जहाविहिं लालेइ नरवई । एवं च अइक्कंतो कोइ कालो। विविधरत्नापीडसच्छायः पिच्छकभारः । ततोऽहं ग्राहितो नाट्यकलाम्, प्रेषितश्च तेन सुन्दरः' इति कलयित्वा निजपुत्रस्यैव प्राभृतं राज्ञो गुणधरस्य । इतश्च यशोधराऽपि मम पूर्वजन्मजननी मम मरणदिवसे एव आर्तवशार्ता मृत्वा पापकर्मवलिकतया करहाटकविषये धान्यपूरकसन्निवेशे कुक्कुरीगर्भे कुक्करतयोपपन्ना । जातश्च कुक्कुरः । स च 'मनःपवनवेगदक्षः' इति धान्यपूरकस्वामिना गुणधरस्यैव प्रेषितः (कोसल्लिय) उपहारम् । प्राप्तौ आवां द्वावपि समकमेव विशालाम् (उज्जयिनीम्)। प्रेषितौ चास्थानिकामण्डपगतस्य राज्ञः, दृष्टौ च तेन। जाता आवयोरेतस्य प्रीतिः, प्रशंसितो द्वावपि । समर्पितः शुनकोऽकाण्डमृत्योः शौनकिकमुख्यस्य, अहं च राजशकुनपरिपालकस्य नीलकण्ठस्य । भणितश्च शौनकिकः-अरे जानास्येव त्वम्, यथाऽहं द्वयोर्दै ढं प्रसक्तःप्रजापालने पापद्धच । शुनकैर्जीवघातनं सुखमिति, ततो महान्तं यत्नं कुर्या इति । तेन भणितम् - 'यद् देव आज्ञापयति' इति । द्वावपि चावां यथाविधि लालयति नरपतिः। एवं चातिक्रान्तः कोऽपि कालः। मेरा शरीर विस्तार को प्राप्त हो गया। मेरे पंखों का भार अनेक प्रकार की सुन्दर वस्तुओं से युक्त हो गया। तब मैंने नाट्यकला सीखी, उसने 'सुन्दर है' ऐसा मानकर मेरे ही पुत्र गुणधर कुमार के पास मुझे भेंट के रूप में भेजा । इधर मेरे पहले जन्म की मां यशोधरा भी मेरे मरण के दिन ही आर्तध्यानवश दुःखी होकर बलि देने के पापकर्म के कारण करहाटक देश के धान्यपूर नामक सन्निवेश में कुत्ती के गर्भ में कुत्ते के रूप में आयी। कुत्ता उत्पन्न हुआ। वह वेग में मन और पवन के समान निपुण है-ऐसा मानकर धान्यपूर नगर के स्वामी ने गुणधर के लिए ही उपहार रूप में भेजा। हम दोनों साथ ही उज्जयिनी पहुँचे। दोनों को राज सभा में स्थित राजा के पास भेजा गया, उसने दोनों को देखा। इसकी हम दोनों पर प्रीति हुई और (इसने) हम दोनों की प्रशंसा की। असमय में जिसकी मृत्यु होने वाली थी, ऐसे कुत्ते को प्रमुख श्वानपालक (शौनकिकमुख्य) के पास और मुझे राजा के पक्षियों का पालन करनेवाले (राजशकुनपरिपालक) नीलकंठ के पास भेज दिया गया। श्वानापालक से कहा गया--"अरे, तुम जानते हो कि मैं दोनों में लगा हुआ हूं-प्रजापालन में और शिकार में । कुत्ते को जीवों का घात करना सुखकर है अत: महान् यत्न करना।" उसने कहा-"जो महाराज आज्ञा दें।" हम दोनों को महाराज ने बहुत अधिक लाड़ प्यार किया। इस प्रकार कुछ समय बीत गया। Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परयो भयो] २९५ अन्नया य अहं गयणयलपासायसंठियं आरूढो इंदनीलनिज्जू हयं । तत्थ अंतेउराणं रसणनेउरनिणायगम्भिणं नवजलहरसदं पिव गुणणियामुरयनिग्घोसमायण्णिऊण नच्चिउं पयत्तो। तयवसाणे य वायायणविवरेगदेसेण दिट्ठा मए चित्तसालियाए सह खुज्जएण सयणुच्छंगे रइसुहमणुहवंती नयणावली । तं च मे दळूण समुप्पन्नं जाइस्सरणं। तओ कम्मवसयत्तणेण अमरिसाणलपलित्तेणं चंचुनहग्गेहि वि[ल]क्खिउमारद्धो । तीए वि तस्स संतियं खुज्जस्स रेण्हिऊणं लोहमयलउडयं कोहाभिभूयाए पहओ अहं पणइणीए । पहारविहलो निवडिओ सोवाणवत्तणीए, लुढमाणो पत्तो तमुद्दे सं, जत्थ नरवई जूयं खेल्लइ ति। मग्गओ य मे येण्ह गेण्ह' ति संलवंतो समागओ देवीपरियणो । तं च तहाविहं सद्द सोऊण तद्देसवत्तिणा तेण पुव्वभवजणणीसुणएण धाविऊण गहिओ अहं । घेप्पमाणं च मं पेच्छिऊण राइणा हाहारवं करेमाणेण पहओ सो सुणओ अक्खपाडएणं ति। पहारविहलंघलेण वमंतरुहिरं मुको अहं तेण। कंठगयपाणा निवडिया दुवे वि अम्हे धरणिवठे । सोगमुवगओ राया। आणता तेणपुरोहियप्पमुहा मणुस्सा। जहा तायस्स उवरयस्स अज्जियाए यकाला य रुलवंगचंदणकठेहि अन्यदा चाहं गगनतलप्रासादसंस्थितमारूढ इन्द्रनीलनिए हकम् (गवाक्षम् । तत्रान्तःपुराणां रशनानुपुरनिनादभितं नवजलधरशब्दमिव गुणनिका(नाट्यशाला) मुरजनिर्घोषमाकर्ण्य नर्तितुं प्रवृत्तः । तदवसाने च वातायनविवरैकदेशेन दृष्टा मया चित्रशालायां सह कुब्जकेन शयनोत्सङ्गे प्रतिसुखमनुभवन्ती नयनावली। तां च मे दृष्टा समुत्पन्नं जातिस्मरणम् । ततः कर्मवशनत्वेअमर्षानलप्रदीप्तेन चञ्चुनखाविक्षणितुमारब्धः। तयापि तस्य सत्कं कुब्जस्य गृहीत्वा लोहमयलकुटं क्रोधाभिभूतया प्रहतोऽहं प्रणयिन्या । प्रहारविह्वलो निपतितो सोपानवतिन्याम् । लुठन् प्राप्तस्तमुद्देशम् , यत्र नरपतिद्य तं खेलतीति । मार्गतश्च मे 'गृहाण गहाण' इति संलपन समागतो देवीपरिजनः । तं च तथाविध मे शब्दं श्रुत्वा तद्देशवर्तिना तेन पूर्वभवजननीशुनकेन धावित्वागृहीतोऽहम् । गृह्यमाणं च मां प्रेक्ष्य राज्ञा हाहारवं कुर्वता प्रहतः स शु नकोऽक्षपाटकेनेति । प्रहारविह्वलाङ्गेन वमद रुधिरं मुक्तोऽहं तेन । कण्ठगतप्राणौ निपतितौ द्वावपि आवां धरणीपृष्ठे। शोकमुपगतो राजा आज्ञप्तास्तेन पुरोहितप्रमुखा मनुष्याः। यथा तातस्योपरतस्यायिकायाश्च कालागुरुलवङ्गचन्दन एक दिन मैं अत्यधिक ऊंचे (आकाश में स्थित) भवन में इन्द्रनीलमणि से निर्मित झरोखे में बैठ गया । वहाँ अन्तःपुर की स्त्रियों की करधनी और नूपुर के शब्द से भरे हुए नये मेघ के शब्द के समान नाट्यशाला के मृदंग की ध्वनि सुनकर नाचने लगा । नृत्य समाप्त होने पर झरोखे के छेद के एक भाग से मैंने चित्रशाला में कुबड़े के साथ रतिसुख का अनुभव करती हुई नयनावली को देखा । उसे देखकर मुझे जातिस्मरण (पूर्वजन्म का ज्ञान) हो गया । तब कर्मवश क्रोधरूपी अग्नि से जले हुए मैंने चोंच की अगली नोंक से प्रहार करना शुरू किया । उस प्रणयिनी ने कुबड़े के हाथ से लोहे का डण्डा लेकर क्रोध से अभिभूत होकर मेरे ऊपर प्रहार किया। प्रहार से विह्वल हुआ मैं सीढ़ियों के छोर पर गिर पड़ा। लुढ़ककर उस स्थान पर पहुंचा जहाँ राजा जुआ खेल रहा था। मुझे ढूंढते हुए पकड़ो पकड़ों' ऐसा कहते हुए महारानी का सेवक आया । उसके और उस प्रकार के मेरे शब्द को सुनकर उसी स्थान पर स्थित कुत्ता ने, जो कि मेरी पूर्वजन्म की माता थी, दौड़कर मुझे पकड़ लिया। मुझे (कुत्ते के द्वारा) पकड़ा हुआ देखकर हाय-हाय का शब्द करते हुए राजा ने कुत्ते पर कील के टुकड़े से प्रहार किया। प्रहार से विह्वल अंगों वाले उसने खून का वमन करते हुए मुझे छोड़ दिया । कण्ठगत प्राण वाले हम दोनों पृथ्वी पर गिर पड़े। राजा शोक को प्राप्त हुआ । उसने, पुरोहित जिनमें प्रमुख था, ऐसे मनुष्यों को आज्ञा दी १. विक्खया इमए । तेहि विय रइसंगमवियलिएहिं भूसणेहि पहओ अहं । पहारविहलो । २. अक्खपाडणं-ख । Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९६ (समापकहा महतो सक्कारो कओ, सोग्गइनिबंधणाई दिन्नाई महादाणाई, तहा एयाण वि उवरयाण कायव्वं ति। एयमायण्णिऊण चितियं मए । अहो णु खलु पुत्तएणं सव्वसकारो पाविओ, दिन्नाई णे सोग्गनिबंधणाई दाणाई, अहं पुण तिरिक्खजोणीए वि अब्वोच्छिन्नाए छुहाए किमिए खायंतो सुणएहि य खज्जमाणो चिट्ठामि । अहो गरुयया कम्माणं । एवं चिंतयंतस्स विमुक्कं सरीरयं जीविएणं । तओ अहं देवाणप्पिया, सुवेलपव्वयावरदिसाभाए अत्थि दुप्पवेसं नाम वणं, तम्मि य उवभोगजोग्गपल्लवपुप्फफलच्छाहिउदगपन्भट्ठ'। सीयन्नि-घोडि-बब्बल - कयर-ख इराइसंकिणे ॥३९६॥ ताड-वड-खंज-खज्जण-सुक्कतरुगहीरदुक्खसंचारे । विविहविसविडविनिग्गयवंकुडतिक्खग्गकंटइए ॥३६७॥ एयारिसम्मि य वणे नीसेसं चिय निराभिरामम्मि। काणपसतोए गब्भे जणिओऽहं कुंटपसएणं ॥३९८॥ काठमहान् सत्कारः कृतः, सुगतिनिबन्धनानि दत्तानि महादानानि तथा एतयोरपि उपरतयो कर्तव्यमिति । एतदाकर्ण्य चिन्तितं मया-अहो नु र लु पुत्रेण सर्वसत्कारः प्रापितः, दत्तानि आवयोः सुगतिनिबन्धनानि दानानि, अहं पुनस्तिर्यग्योनावपि अव्युच्छिन्नया क्षुधा कृमीन खादन् शनकैश्च खाद्यमानस्तिष्ठामि । अहो गुरुकता कर्मणाम् । एवं चिन्तयतो विमुक्तं शरीरं जीवितेन । ततोऽहं देवानुप्रिय ! सुवेलपर्वतापरदिग्भागेऽस्ति दुष्प्रवेशं नाम वनम् । तस्मिश्च उपभोगयोग्यपल्लवपुष्पफलछायोदकप्रभ्रष्टे । श्रीपर्णी-घोटी(वदरी)बब्बल-करीर-खदिरादिसंकोण ॥३६६।। ताड-बट-खज्ज-खजन-शुष्कतरु(अगुरु)गभीरदुःखसंचारे । विविधविषविटपिनिर्गतवक्रतीक्ष्णाग्रकण्टकिते ।।३६७॥ एतादृशे च वने निःशेषमेव निरभिरामे । काणपसय्या गर्भे जनितोऽहं कुण्टपसयन ॥३६॥ कि पिता जी और माता जी के मरने पर जैसे काला अगुरु, लौंग और चन्दन की लकड़ी से जैसे महान सरकार किया था, उसी प्रकार इन मृत प्राणियों का भी सत्कार करना चाहिए। इसे सुनकर मैंने सोचा-ओह पुत्र ने सब सत्कार किये, हम दोनों की सद्गति के कारण दान दिये और मैं तिर्यच योनि में भी भूख की तृप्ति न होने के कारण कीड़े-मकोड़ों को खाता हुआ और कुत्ते से खाया जाता हुआ विद्यमान हूँ। कर्मों की महत्ता आश्चर्यकारक है, इस प्रकार विचार करते हुए शरीर से प्राणों को छोड़ दिया। ___ अनन्तर हे देवानुप्रिय ! सुवेल नामक पर्वत की पश्चिम दिशा में दुष्प्रवेश नाम का वन है । उसमें मैं 'काणप सय्या' के गर्भ में 'कुष्टपसय' के रूप में आया। वह वन पूरी तरह से असुन्दर था। वह उपभोग के योग्य पत्ते, फूल, फल, छाया और जल रहित था। श्रीपणी (कट्फल, शाल्मली, अग्निमन्थ वृक्ष), बेर, बबूल, करील और खैर के वृक्षों से वह व्याप्त था। ताड़, बरगद, खज्ज, खंजन और अंगुरु वृक्षों की सघनता से उसमें दुःख से प्रवेश किया जा सकता था। अनेक प्रकार के विष के पौधों से निकलते हुए टेढ़े और नुकीले कांटों से कण्टकित था ॥३६६-३६८।। - क-ग, ३. वच्छल-ग, दफ्छू नख, ४. ख इरोलिसं.-ख, खइरातिसँ... १. छाहर "-ख, २. सीयल्लि सुखनवरय-"क Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घउत्यो भवो] २९७ तत्थ गब्भे' नरयकुंभीपागाइरेगवेयणं विसहमाणो असंपडिए चेव पसवकाले जाओ म्हि दुप्पवेसे वणे । अव्वोच्छिन्नछुहापीडियाए य पण8 मे जणणोए थणएसु खीरं । तओ अहं बभुक्खापरिमिलाणदेहो तत्थ परिभमंतो गोक्खुरयकंटए खाइउमाढत्तो। तओ समं पावेण वित्थारमुवगयं मे सरीरं । इओ य सो पुव्वयरजम्ममाइसुणओ अट्टज्माणमवगओ मरिऊण समुप्पन्नो इमम्मि चेव दुप्पवेसे वणे भुयंगमत्ताए त्ति। दिट्ठो य सो मए कालपासो व्व विदुममणिरत्तनयणो घणंधयारच्छवी ससिकलाकोडिधवलदाढो चलंतजमलजीहो जलासयसमीवे ददरं खायमाणो ति । तओ बुभुक्खापरिगएणं अवियारिऊण परिणइं गहिओ भए पुच्छदेसे । तेण वि य नयणसिहिसिहाजालाभासुरमवलोइऊण डक्को अहं वयणदेसे । एवं च अन्नाणकोहवसया दुवे वि अम्हे परोप्परं खाइउमारद्धा । एत्थंतरम्मि अदिट्टपुव्वेण गहिओ अहं तरच्छेण, पाडिओ महियले । तओ सो ममं खाइउं पयत्तो। किह ? चम्म चरचराए फालयंतो, छिराओ तडतडाए तोडयंतो सोणियं, ढग्गढग्गाए घोट्टयंतो, अटियाई कडकडाए मोडयंतो त्ति । अवि य तत्र गर्भ नरककुम्भीपाकातिरेकवेदनां विषहन असम्पतिते एव प्रसवकाले जातोऽस्मि दुष्प्रवेशे वने । अव्युच्छिन्नक्षुत्पीडितायाश्च प्रनष्टं मे जनन्याः स्तनेषु क्षीरम् । ततोऽहं बुभुक्षापरिम्लानदेहस्तत्र परिभ्रमन् गोक्षुरकण्टकाम् खादितुमारब्धः । ततः समं पापेन विस्तारमुपगतं मे शरीरम् । इतश्च स पूर्वतरजन्ममातृशुनक आर्तध्यानमुपगतो मृत्वा समुत्पन्नोऽस्मिन्नेव दुष्प्रवेशे वने भुजङ्गमतयेति । दृष्टश्च स मया कालपाश इव विद्रुममणिरक्तनयनो घनान्धकारच्छविः शशिकलाकोटिधवलदाढश्चलद्यमलजिह्वो जलाशयसमीपे दर्दु रं खादन्निति । ततो बुभुक्षापरिगतेन अविचार्य परिणतिं गृहीतो मया पुच्छदेशे। तेनापि च नयनशिखिशिखाजालभासुरमवलोक्य दष्टोऽहं वदनदेशे । एवं चाज्ञानक्रोधवशगौ द्वावपि आवां परस्परं खादितुमारब्धौ। अत्रान्तरेऽदृष्टपूर्वेण गृहीतोऽहं तरक्षेण, पातितो महीतले । ततः स मां खादितुं प्रवृत्तः । कथम् ? चर्म चरचरेति स्फाटयन, शिरास्त्रटत्त्रटदिति त्रोटयन , शोणितं ढग्ढगिति (घुटधुटि ति) पिवन्, अस्थीनि कट कटिति मोटयन्निति । अपि च गर्भ में कुम्भीपाक नरक से अधिक वेदना का अनुभव करते हुए प्रसव समय न आने पर भी मैं दुष्प्रवेश वन में उत्पन्न हो गया । निरन्तर भूख से पीड़ित होने के कारण मेरी माँ के स्तनों में दूध नहीं रहा । तब भूख से कुम्हालाये हुए शरीर वाले तथा वहाँ भ्रमण करते हुए मैंने गोखुर के कांटे खाना शुरू किये । अनन्तर पाप के साथ ही मेरा शरीर विस्तार को प्राप्त होने लगा। इधर वह पूर्वजन्म की माता जो कुत्ता हुई थी, मरकर इसी दुष्प्रवेश नामक वन में सांप हुई । मैंने उसे तालाब के पास मेंढक को खाते हुए देखा । वह साँप कालपाश के समान था। विद्रुममणि (मूंगा) के समान उसके लाल-लाल नेत्र थे, गहन अन्धकार के समान उसकी छवि थी और चन्द्रमा की उत्कृष्ट कला के समान सफेद दो दाढ़ों के बीच निर्मल उसकी जीभ चल रही थी । भूख से आक्रान्त होकर परिणाम को बिना विचारे मैंने उसकी पूंछ को पकड़ लिया। उसने भी अग्नि की लौ के समान चमकीले नेत्रों से देखकर मेरे मुंह पर डंस लिया। इस प्रकार अज्ञान और क्रोध के वश हम दोनों ने एक-दूसरे को खाना प्रारम्भ किया। इसी बीच जिसे पहिले नहीं देखा था, ऐसे लकड़बग्घे ने मुझे पकड़ लिया और पृथ्वी पर गिरा दिया। अनन्नर वह मुझे खाने लगा। कैसे ? चर-चर कर चमड़े को फाड़ते हुए, नसों को तड़तड़ तोड़ते हुए, खून को घुट-घट इस प्रकार पीते हुए (तथा) हड्डियों को कट-कट् इस प्रकार मोड़ते हुए (वह मुझे खाने लगा)। और भी १. गम्भाणलकुम्भी"-क. २. ढयख्याए-ख, ढगढग्गाए-ग। Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ [समराइच्चकहा तह खाइउं पवत्तो जह मज्झं खज्जमाणसदेण । भीएण व नीसेसं जीवेण कलेवरं मुक्कं ॥३६॥ तओ अहं, देवाणुप्पिया, एवं सकम्मविणिवाइओ समाणो तत्थेव विसालाए नयरीए दुटोदयाभिहाणाए निन्नयाए महादम्मि तत्थ मीणीए गब्भपुडए रोहियमच्छत्ताए समुप्पन्नो म्हि । सो वि य कण्हसप्पो तहा मरिऊण इमाए चेव सरियाए सुंसुमारत्ताए ति। जाया कालक्कमेणं । अन्नया अहं तत्थ चेव परिब्भमंतो दिट्ठो संसुमारेण, गहिओ पुच्छभाए एत्थंतरम्मि मज्जणनिमित्तं समागयाओ अंतेउरचेडियाओ। दिन्ना चिलाइयाभिहाणाए चेडियाए झंपा। तओ मं मोत्तण सा गहिया अणेण । सयराहं च पलाणो अहं । तीए वि य 'हा क'(अ)हं गहिया गहियत्ति महंतमारडियं । धरिया लोएण। कलयलरवेण समागया मच्छबंधा। ओयरिऊण मयाबिया चेडी, गहिओ य सुंसुमारो, मारिओ दुक्खमारेणं । अइक्कंतो कोइ कालो । एत्थंतरम्मि अहं केवट्टपुरिसेहि समासाइओ जालेणं गहिओ जीवंतओ, महामच्छो'त्ति कलिऊण समुप्पन्नकजेहि पाहुनिमित्तमुवणीओ गुणहरस्स। परितुट्ठो तथा खादितुं प्रवृत्तो यथा मम खाद्यमानशब्देन । भीतेनैव निःशेषं जी वेन कलेवरं मुक्तम् ॥३६६॥ ततोऽहं देवानुप्रिय ! एवं स्वकर्मविनिपातितः सन् तत्रैव विशालाया नगर्या दुष्टोदकाभिधानायां निम्नगायां महाह्रदे तत्र मीन्या गर्मपुटके रोहितमत्स्यतया समुत्पन्नोऽस्मि, सोऽपि कृष्णसर्पस्तथा मृत्वाऽस्यामेव सरिति सुंसुमारतया (शिशुमारतया) इति । जातौ कालक्रमेण । अन्यदाऽहं तत्रैव परिभ्रमन् दृष्ट: सुंसुमारेण, गृहीतः पुच्छभागे । अत्रान्तरे मज्जननिमित्तं समागता अन्तःपरचेटिकाः । दत्ता चिलातिकाऽभिधानया चेटिकया झम्पा । ततो मां मुक्त्वा सा गृहीताऽनेन । झटिति पलायितोऽहम् । तयाऽपि च 'हा अहं गृहोता गृहीतेति महदारटितम् । धृता लोकेन । कलकलरवेण समागता मत्स्यबन्धाः । अवतीर्य मोचिता चेटी, गृहीतश्च शिशुमारः, मारितो दुःखमारेण । अतिक्रान्तः कोऽपि कालः । अत्रान्तरेऽहं कैवर्तपुरुषैः समासादितो जालेन गृहीतो जीवन । 'महामत्स्यः' इति कलयित्वा समुत्पन्नकार्यः प्राभृतनिमित्तमु पनीतो गुणधरस्य । परितुष्टो राजा। वह मुझे इस प्रकर खाने लगा कि खाने के शब्द से भयभीत होकर ही मैंने शरीर से प्राण छोड़ दिये ॥३६॥ तदनन्तर हे देवानुप्रिय ! इस प्रकार अपने ही कर्म से मारा जाकर मैं उसी विशाला नगरी (उज्जयिनी) के 'दुष्टोदक' नामक नदी के बहुत बड़े सरोवर में मछली के गर्भ में 'रोहित मत्स्य' के रूप में आया। वह काला सांप भी उसी प्रकार मरकर इसी तालाब में सूंस के रूप में आया। दोनों कालक्रम से उत्पन्न हुए । एक बार वहीं घूमते हुए मुझे सूंस ने देखा और पूंछ की ओर से पकड़ लिया । इसी बीच स्नान करने के लिए अन्तःपुर की दासियाँ आयीं। चिलातिका नामक दासी ने झपट दी। तब मुझे छोड़कर उसने इसे पकड़ लिया। मैं शीघ्र भाग गया। वह भी 'मुझे पकड़ लिया, पकड़ लिया' इस प्रकार कहकर जोर से चिल्लायी। लोगों ने सुना - कोलाहल से मछली पकड़ने वाले आ गये । उतरकर दासी को छुड़ाया और सूंस को पकड़ लिया (तथा उसे) दुःख की मार से माग । कुछ समय बीत गया। इसी बीच मल्लाहों ने जाल से जीवों को पकड़ते हुए मुझे पकड़ लिया। बहुत बड़ा मत्स्य है-ऐसा मानकर कार्यवश गुणधर के पास भेंट के रूप में ले गये । राजा सन्तुष्ट हुआ। १. किहु-ख। Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भवो ] २९६ राया । संपाडियं पओयणं तेसि । नीओ तेण नयणावलीए समीवं । भणिया य एसा । अंब, एयस्स रोहियमच्छस्स पुच्छभायं तायं अज्जियं च उद्दिसिऊण माहगाणं रंधावेहि, उवरिमभायं च पक्कतलियं काऊण मज्झमत्तणो य विसेसं [ सं ] करेज्जासि । एवं च मे सुणमाणस्स देवि च पेच्छिऊण समुप्पन्नं जाइस्सरणं । एवं च रन्ना समाणते छिंदिऊण पुच्छखंडं पेसियं माहणाणं नयणावलीए । सेसदेहम्मि निच्छल्लियाई खवल्ला इं', दिन्नं तिगडुक्कड हिंगुलोणं, परिसित्तो हलिद्दापाणिएण । तओ उव्वत्तंत मक्खणभरियाए पक्खित्तो महाकवल्लीए, संवत्तुव्वत्तएण तलिज्जिडं पयत्तो । तो छिन्नभिन्नपक्कं खाहिइ पुत्तो मम ति जाणामि । तिव्ववियणाहिभूओ न धम्मभाणं भियाएमि ॥ ४०० ॥ विकत्थिओ मे निरयगइ समाणएहि दुक्खहिं । ढकम्मनियलबद्धो न मुयइ जीवो सरीरं ति ॥ ४०१ ॥ एवं च तत्थ तिव्ववेयणाभिभूओ चिट्ठामि । एवं च ताव एयं । सम्पादितं प्रयोजनं तेषाम् । नीतस्तेन नयनावल्याः समीपम्, भणिता चैषा - अम्ब, एतस्य रोहितमत्स्यस्य पुच्छभागं तातमायिकां चोद्दिश्य ब्राह्मणानां ( भोजनाय ) रन्धय । उपरितनभागं च पक्वतलितं कृत्वा ममात्मनश्च विशेषं संस्कुर्याः । एवं च मे शृण्वतो देवों च प्रक्षित्वा समुत्पन्नं जातिस्मरणम् । एवं च राज्ञा समाज्ञप्ते छित्त्वा पुच्छखण्डं प्रेषितं ब्राह्मणानां नयनावल्या । शेषदेहे छिन्नास्त्वचः, दत्तं त्रिकटूत्कटं हिङ्ग लवणम् परिसिक्तो हरिद्रापानीयेन । तत उद्वर्तमानम्रक्षणभृतायां प्रक्षिप्तो महाकटाह्याम् संवर्तोद्वर्तनेन तलितुं प्रवृत्तः । ततरिछन्नभिन्नपक्वं खादिष्यति पुत्रो मामिति जानामि । तीव्र वेदनाभिभूतो न धर्मध्यानं ध्यायामि ॥४०० ॥ इति विकदर्थितो मे निरयगतिसमानैर्दु खैः । दृढकर्मनिगडबद्धो न मुञ्चति जीवः शरीरमिति ॥ ४०१ || एवं च तत्र तीव्रवेदनाभिभतस्तिष्ठामि । एतच्च तावदेतत् । उनका कार्य पूरा किया । वह (मुझे ) नयनावली के पास ले गया और इससे कहा - "माता ! इस रोहित मछली को पूँछ को माता-पिता के निमित्त ब्राह्मणों के भोजन के लिए पकाओ। और ऊपर वाला भाग पकाकर और तलकर मुझे और अपने लिए विशेष रूप से बनाओ।" ऐसा सुनकर और महारानी को देखकर मुझे जातिस्मरण हो आया। राजा की ऐसी आज्ञा होने पर नयनावली ने पूँछ वाला भाग काटकर ब्राह्मणों को भेजा । शेष शरीर की चमड़ी काटकर उग्र सोंठ, पीपर और मिर्च डालकर हींग और नमक छिड़क दिया । हल्दी के पानी से उसे सींचा। इसके पश्चात् खुशबूदार पदार्थ भरकर कड़ाहे में डाला । हिला-डुलाकर तलने लगी । अनन्तर छेदे भेदे तथा पके हुए मुझे पुत्र खायेगा - ऐसा (मैंने ) धर्मध्यान नहीं किया। इस प्रकार नरक गति के दुःखों के बेड़ी से बंधा हुआ जीव शरीर को नहीं छोड़ता है || ४००-४०१ ॥ जानते हुए भी तीव्र वेदना से अभिभूत होकर समान मुझे पीड़ा उत्पन्न हुई । दृढ़ कर्मरूपी इस प्रकार जब मैं तीव्र वेदना का अनुभव कर रहा था तब इधर यह हुआ - १. सयास - ख २. विलंकं - कन्ग, ३. महाणसं -क, ४. खलिल्लाई -- ख, ५. एवं च तिब्ववेयणाउ पाविऊण इमं पिताव पावउत्ति उज्जोणी पासगामे जा सा पुम्बभव - ख । Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [समराइच्चकहा __इओ य विसालानयरीए पाणवाडए जा सा पुव्वभवजणणी सुसुमारभवे वट्टभाणी वावाइया, सा तत्थ छेलियत्ताए समुप्पन्ना। तओ तीए गन्भम्मि एलयत्ताए परिक्खत्तो म्हि । जाओ कालक्कमेणं, पत्तो जोव्वणं । महामोहमोहियमणो मेहुणनिमित्तं आरूढो अम्मयं । दिट्ठो य नियजहवइणा; कसायजोएणं' तहा हओ मम्मदेसे, जहा पाणे परिच्चइऊणं निययवीएण चेव सम्प्पन्नो तोए गन्मम्मि । अवि य कम्ममलविणडिएणं तत्थ मरतेण मंदभग्गेणं । अप्पा हु अप्पण च्चिय जणिओ जणणीए गब्भम्मि ॥४०२॥ साय पच्चासन्ने पसवकाले गुणहरेण रन्ना पारद्धीओ नियत्तमाणेण अणासाइयन्नपाणिणा तहाविहच्छेत्तभायम्मि कायजड्डयाए मंद मंद परिसक्कमाणी आयण्णमायड्ढिऊण कोडंड विद्धा कण्णियसरेण । पहारगरुययाए निवडिया धरणिवठे। लद्धलक्खो परितुट्ठो राया, सभागओ तमुद्देसं । दिट्ठा फुरफुरेंतपाणा 'आवन्नसत्ता एस' त्ति लक्खिया तेणं। तओ य से उयर वियारिऊणं नोणिओ अहं । इतश्च विशालानगर्या प्राणवाटके या मे पूर्वभवजननी शिशुमारभवे वर्तमाना व्यापादिता सा तत्र छागीतया सनुत्पन्ना । ततस्तस्था गर्भे एडकतया प्रक्षिप्तोऽस्मि । जातः कालक्रमण, प्राप्तो यौवनम् । महामोहमोहितमना मैथुननिमित्तमारूढोऽम्बाम् । दृष्टश्च निजयूथपतिना। कषाययोगेन तथा हतो मर्मदेशे यथा प्राणान् परित्यज्य निजकबोजेनैव समुत्पन्नस्तस्या गर्भे । अपि च कर्ममलविनटितेन तत्र म्रियमाणेन मन्दभाग्येन । आत्मा खलु आत्मनैव जनितो जनन्या गर्भे ॥४०२।। सा च प्रत्यासन्ने प्रसवकाले गुणधरेण राज्ञा पापधितो निवर्तमान अनासादितान्यप्राणिना तथाविधक्षेत्रभागे कायजडतया मन्दं मन्दं परिष्वकन्ती (गच्छन्ती) आकर्णमाकृष्य कोदण्डं विद्धा कणिकशरेण । प्रहारगुरुतया निपतिता धरणीपृष्ठे। लब्धलक्ष्यः परितुष्टो राजा। समागतस्तमहेशम । दष्टा स्फुरत्प्राणा, 'आपन्नसत्त्वा एषा' इति लक्षिता तेन । ततश्च तस्या उदरं विदार्य बहिर ] नीतोऽहम् । समपितोऽजापालक स्य। अन्यस्तनपानेन जीवितः, प्राप्तः कुमारभावम् । उज्जयिनी नगरी के प्राणवाटक में, जो मेरी मां सूंस के भव में मारी गयी थी, वह बकरी के रूप में उत्पन्न हुई। उसके गर्भ में मैं बकरे के रूप में फेंक दिया गया। कालक्रम से उत्पन्न हुआ, युवावस्था को प्राप्त हुआ। महामोह से जिसका मन मोहित हो गया है, ऐसा मैं मैथुन के लिए माता पर चढ़ गया। मेरे समूह के स्वामी ने देखा । कषाय के योग से उसने मर्मस्थान पर इस प्रकार मारा कि प्राणों को त्याग कर अपने ही बीज से उसके गर्भ में आया। मन्दभाग्य से मरा हुआ, कर्ममलों की लीला से स्वयं को ही स्वयं की ही माता के गर्भ में उत्पन्न किया ।।४०२।। जब उसका (माता का) प्रसवकाल निकट आया तो शिकार से लौटे हुए राजा गुणधर ने अन्य प्राणी न पाकर शरीर की शक्तिहीनता के कारण मन्द-मन्द जाती हई उसको कान तक धनुष खींचकर कीर्णक बाण से वेध दिया । जोर का प्रहार होने के कारण (वह) धरती पर गिर पडी। लक्ष्य को प्राप्त कर राजा सन्तष्ट हआ। (वह) उस स्थान पर आया। उसने प्राण कंपाती हुई उसे 'यह गर्भवती है। इस प्रकार देखा । अनन्तर उसके पेट १. कसायोदएणं-ख, २. अइक्क न्तो कोइ कालो । समासन्ने पसवकाले मम पुत्तेण चेव-ख । Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परयो भयो] समप्पिओ अयापालयस्स । अन्नथणपाणेणं जीविओ। पत्तो कुमारभावं । एत्थंतरम्मि पारद्धीफलणनिमित्तं' गुणहरेण रन्ना कुलदेवमापूयाविहाणं कयं । भोयणत्थं वावाइया पन्नरस महिसया। बंभणजणभोयणत्थं च सुसंभियं कयं महिसमंसं । इओ य 'किर एवित्तमहो मेसो हवइ'त्ति लोयवाओ (आ) आणाविओ अहयं कायसुणउच्चिद्वरद्धपक्कपरि सोहणनिमित्तं सूक्यारेणं, ठाविओ महाणसदुवारे । तओ मए उस्सिघियं तं मंसं, भुत्तं बंभहि, वि इणं आयाणं । उठ्ठिया दियवरा, ठिया य पंतिया-- पंतियाहि । एत्थंतरम्मि विसेसुज्जलनेवत्थं अंतेउरं घेत्तूण आगओ गुणहरो । तं च मे द?ण समुप्पन्नं जाइस्सरणं । विन्नाओ मे सव्ववतंतो। चलणेसु निवडिऊषं वाइया बंभणा। भणियं च तेण-एसा पंतिया तायस्स उवणमउ, एसा य अज्जियाए, एयाओ य कुलदेवयाए त्ति। तं पडिस्सुयं बंभणेहिं । चितियं च मए- अहो एवं पि नाम पुत्तए जयंते अहं दुविखओ ति। एत्थंतरम्मि भोयणनिमित्तं चेव सयलमाइलोयपरियओ उवविठ्ठो सया। दिट्ठाओ देवीओ, न दिट्ठा नयणावली । तओमएचितियंअह कहिं पुण सा भविस्सइ ? एत्यंतरम्मि अन्नं उद्दिसिऊग भणियं एगाए चेडीए । हला सुंदरिए, अत्रान्तरे पापद्धिफलननिमित्तं गुणधरेण राज्ञा कुलदेवतापजाविधानं कृतम् । भोजनार्थं व्यापादिता पञ्चदश महिषाः । ब्राह्मण जनभोजनार्थे च सुसम्भृतं कृतं महिषमांसम्। इतश्च किल 'पवित्रमुखो मेषो भवति' इति लोकवादाद् आनायितोऽहं काकशुनकोच्छिष्टरद्धपक्वपरिशोधननिमित्तं सूपकारेण। स्थापितो महानसद्वारे। ततो मया उच्छिवितं तन्मांसम्, भुक्तं ब्राह्मणैः, वितीर्णमाचमनम् । उत्थिता द्विजवरा:, स्थिताश्च पङक्तिकापङ्क्तिकाभिः । अत्रान्तरे विशेषोज्ज्वलनेपथ्यमन्तःपुरं गृहीत्वाऽऽगतो गुणधरः । तं च मे दृष्ट्वा समुत्पन्नं जातिस्मरणम् । विज्ञातो मया सर्ववृत्तान्तः । चरणेषु निपत्याभिवादिता ब्राह्मणाः । भणितं तेन-- एषा पङ्क्तिका तातस्योपनमा, एषा चायिकायाः, एताश्च कुलदेवताया इति । तत्प्रतिश्र तं ब्राह्मणैः । चिन्तितं च मया-- अहो एवमपि नाम पुत्र जयति अहं दुःखित इति । अत्रान्तरे भोजननिमित्तमेव सकलमातृलोकपरिवृत उपविष्टो राजा । दृष्टा देव्यः, न दष्टा नयनावलिः । ततो मया चिन्तितम्--अथ कुत्र पुनः सा भविष्यति ? अत्रान्तरे अन्यामुद्दिश्य भणितमे कया चेट्या । हले सुन्दरिके ! इह अद्य व इमे महिषा व्यापादिताः, ततः किं पुनरेष को चीरकर मुझे बाहर निकाला गया। (मुझे) बकरी पालने वाले को दे दिया। दूसरी बकरी के स्तन को पीकर कुमारावस्था को प्राप्त हुआ। इसी बीच शिकार के फल के लिए गुणधर राजा ने कुलदेवी की पूजा का आयोजन किया। भोजन के लिए पन्द्रह भैसे मारे गये । ब्राह्मणों के भोजन के लिए अच्छी तरह भरकर भैंसे का माँस पकाया गया। 'इधर बकरा पवित्र मह वाला होता है' इस प्रकार की लोगों की चर्चा के कारण कौवे और कुत्ते के द्वारा जूठे किये गये अधपकाये मांस को शुद्ध करने के लिए रसोइया मुझे लाया । रसोईघर के द्वार पर मुझे बाँध दिया । तब मैंने उस मांस को जोर से सूंघा, ब्राह्मणों ने भोजन किया, पानी दिया गया। ब्राह्मण उठ गये और पंक्तियाँ बनाकर बैठ गये। इसी बीच विशेष उज्ज्वल पोशाक वाली स्त्रियों को लेकर गुणधर आया। उसे देखकर मुझे जातिस्मरण उत्पन्न हो गया। मैंने समस्त वृतान्त जाना । (गुणधर ने) चरणों में पड़कर ब्राह्मणों का अभिवादन किया। उसने कहा--"यह पंक्ति पिता जी को प्राप्त हो, यह माता जी को और ये पंक्तियां कुलदेवी को।" उसे ब्राह्मणों ने स्वीकार किया। मैंने सोचा-ओह ! इस प्रकार पुत्र के जय करने पर भी मैं दु:खी हूँ। इसी बीच भोजन के लिए समस्त माताओं के साथ राजा बैठा । महारानी को देखा, किन्तु नयनावली दिखाई नहीं दी। तब मैंने सोचा-वह कहाँ गयी होगी? इसी बीच एक दासी ने दूसरी से १, ""फलनि''-क। Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ [समराल्यकहा इह अज्जं चेव इमे महिसया वावाइया, ता किं पुण एस एवंविहो पूगंधो त्ति ? तीए भणियं- हला पेम्ममंजसिए, न एस महिसगंधो; एसो खु देवीए नयणावलीए तहाऽजिण्णे रसलोलुयत्तणेण मच्छयं खाइऊण कोढगहियाए वणंतरुग्गिण्णो देहनिस्संदवाओ। इयरीए भणियं-हला सुंदरिए, न एस मच्छयाहारमेत समुप्पन्नो कोढो, किं तु तहासब्भावियमहारायविसप्पओयवावायणजणियपावसमुत्थो त्ति । ता अलमम्हाणमिमीए । एहि अन्नओ गच्छम्ह, ता मा किंपि आणत्तियं देइस्सइ त्ति। गयाओ चेडियाओ। तओ सविसेसं पलोइया मए, दिट्ठा य एक्कपासोवविट्ठा मक्खियसहस्ससंपायसिया विणिग्गयातंबनय गा नयणावलि ति। तओ तं पेच्छिऊण तिव्वयरदुक्खसंतत्तो सोइउं पवत्तो। कहं? हा किह सा पच्चक्खं कम्ममलोच्छाइया पणइणी मे। जम्मंतरं व पत्ता रूवविवज्जासभेएण ॥४०३॥ वयणेण थणहरेणं चरणेहिय जीए निज्जिया आसि । सव्वविलयाणमहियं सोहा ससिकलसकमलाणं ॥४०४॥ एवंविधः पूतिगन्ध इति ? तया भणितम्-हले प्रेममञ्जूषिके ! न एष महिषगन्धः, एष खलु देव्या नयनावल्या तथाऽजीर्णे रसलोलुपत्वेन मत्स्यं खादित्वा कुष्ठगृहीतया व्रणान्तरुद्गीर्णो देहनिःस्यन्दवातः । इतरया भणितम्-हले सुन्दरिके ! नैष मत्स्याहारमात्रसमुत्पन्नः कुष्टः, किन्तु तथासद्भावितमहाराजविषप्रयोगव्यापादनजनितपापसमुत्थ इति । ततोऽलमस्माकमनया । एहि, अन्यतो गच्छावः, ततो मा किमपि आज्ञप्तिकां दास्यतीति । गते चेटिके। ततः सविशेष प्रलोकिता मया, दष्टाच एकपाश्र्वोपविष्टा मक्षिकासहस्रसम्पातदूषिता विनिर्गताताम्रनयना नयनावलिरिति । ततस्तां प्रेक्ष्य तीव्रतरदुःखसन्तप्त: शोचितुं प्रवृत्तः । कथम् ? हा कथं सा प्रत्यक्ष कर्ममलावच्छादिता प्रणयिनी मे। जम्मान्तरमिव प्राप्ता रूपविपर्यासभेदेन ॥४०३।। वदनेन स्तनभरेण चरणाभ्यां च यया निर्जिताऽऽसोत् । सर्ववनिताभ्योऽधिकं शोभा शशिकलशकमलानाम् ।।४०४।। कहा-“सखी सुन्दरी। यहाँ पर आज ही ये भैसे मारे गये हैं, फिर भी यह सड़ी बास कहाँ से आ रही है ?" उसने कहा--"सखी प्रेममंजूषा, यह भैंसों की गन्ध नहीं है। महारानी नयनावली ने अजीर्ण होने पर भी स्वाद की लोलुपता के कारण मछली को खा लिया, जिससे उसे कोढ़ ने घेर लिया। उसके घाव से निकली हुई पीप की यह दर्गन्धि है।" दसरी ने कहा-“हे सखी सुन्दरी ! यह मछली के माहार मात्र से उत्पन्न कोढ़ नहीं है, अपितु उस प्रकार जीवित महाराज को विष देकर मारने से उत्पन्न यह कोढ़ है । अतः हम लोगों को इससे क्या । आओ, दोनों दूसरी तरफ चलें ताकि वह कोई आज्ञा न दे सके। दोनों दासियाँ चली गयीं । तब मैंने विशेष रूप से एक बगल में बैठी हुई नयनावली को देखा । वह हजारों मक्खियों के बैठने से दूषित थी और उसकी लाल-लाल आँखें निकल आयी थीं। तब उसे देखकर अत्यधिक दुःख से दुःखी होकर मैं शोक करने लगा। कैसे ? ___ हाय ! प्रत्यक्ष रूप से कर्ममलों से आच्छादित हुई वह मेरी प्रणयिनी किस प्रकार रूप बदलने के कारण मानो दूसरे जन्म को प्राप्त हो गयी है । जिसने मुख, स्तन और दोनों चरणों से क्रमशः चन्द्रमा, कलश और कमलों की शोभा जीत ली थी और जिसकी शोभा समस्त स्त्रियों में श्रेष्ठ थी॥४०३-४०४॥ Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पउत्यो भवो] तीए च्चिय पेच्छ कहं अंगुलिविगमखयसंगमेहि च । ते चेव हंदि देसा घणियं उन्वेवया जाया ॥४०॥ केसाहरनयणेहिं सविन्भमुन्भंतपेच्छिएहिं च । तिव्वतवाण मणीण वि जा चित्तहरा दढमासि ॥४०६॥ स च्चेय कह णु एहि तेहि चिय पावपरिणइवसेण । चितिज्जंती वि पिया कामीण वि कुणइ निव्वेयं ॥४०७।। एवं च चितयंतो जाव कंचि कालं चिट्ठामि, ताव सद्दाविओ राइणा सूक्यारो, भणिओ य । अरे न रुच्इ मे इमं महिसयमंसं, ता अन्नं किपि लहुँ आणेहि त्ति। तओ सूवयारेण कलिऊण 'चंडसासणो देवो, मा कालक्खेवो हविस्सई' ति ममं चेव एक्कं सत्थियं छेतूण कयं भडितयं, पेसियं च रन्नो। तेण वि य 'तायस्स उवणमउ' त्ति भणिऊण दवावियं थेवमग्गासणियबंभणाणं., पेसियं च किपि नयणावलोए, भुत्तं च सेसमप्पणा। एत्थंतरम्मि य जा सा महं जणणी गुणहरेण वावाइया तस्या एव पश्य कथं अङ्गुलिविगमक्षयसङ्गमैश्च । ते एव हन्दि देशा गाढमुद्वेजका जाताः ॥४०५।। केशाधरनयनैः सविभ्रममुभ्रान्तप्रेक्षितैश्च । तीव्रतपसां मुनीनामपि या चित्तहरा दृढमासोत् ।।४०६॥ सा एव कथं त्विदानीं तैरेव पापपरिणतिवशेन । चिन्त्यमानाऽपि प्रिया कामिनामपि करोति निर्वेदम् ॥४०७।। एवं च चिन्तयन् यावत् कञ्चित् कालं तिष्ठामि तावत् शब्दायितो राज्ञा सूपकारः, भणितश्चअरे ! न रोचते मे इमं महिषमांसम, ततोऽन्यत किमपि लघु आनयेति । ततः सूपकारेण कलयित्वा 'चण्डशासनो देवः, मा कालक्षेपो भविष्यति' इति ममैवैकं सक्थि छित्त्वा कृतं भटित्रकम् , प्रेषितं च राज्ञः । तेनापि च 'तातस्योपनमतु' इति भणित्वा दापितं स्तोकमग्रासनस्थब्राह्मणेभ्यः, प्रेषितं च किमपि नयनावल्याः, भुक्तं च शेषमात्मना । अत्रान्तरे च या सा मम जननी गुणधरेण व्यापादिता उसी की अंगुलियां नष्ट हो जाने और क्षय रोग हो जाने के कारण वे ही स्थान देखो ! कैसे अत्यधिक उद्वेम को उत्पन्न करने वाले हो गये हैं ? केश, अधर और नयनों के विलास तथा चंचल दृष्टि से जो तपस्या करने वाले मुनियों के भी चित्त हरने में समर्थ थी, वही इस समय पाप के फलस्वरूप प्रिया का चिन्तन करते हए कामिजनों को भी वैराग्य उत्पन्न कर रही है ।।४०५-४०७॥ ___ इस प्रकार विचार करता हुआ जब कुछ समय से बैठा हुआ था तभी राजा नेर सोइये को बुलाया और कहा'अरे ! यह भैंसे का मांस मुझे अच्छा नहीं लगता है, अत: कोई दूसरा (मांस) शीघ्र ही लाओ।" तब रसोइयों ने यह मानकर कि महाराज की आज्ञा कठोर है, विलम्ब न हो, मेरी ही एक जांघ काटकर भुरता बनाया और राजा को भेज दिया । उसने भी पिता को प्राप्त हो, ऐसा कहकर कुछ आगे आसन पर बैठे हुए ब्राह्मणों को दिया, कुछ नयनावली को भेजा और शेष स्वयं खा लिया। इसी बीच जो मेरी माता गुणधर ने मार डाली थी वह कलिंग १."संगएहिं-ख, २. दव्वावियं-क, ३. ""बंभणस्स-ख । Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ [समताकहा आसि, सा कलिगविसए महिसीए कुच्छिंसि महिसओ समुष्पन्नो; वढिओ कालक्कमेणं । सो य भंडभरयं वहतो समागओ विसालं' नार । वावाइओ य तेण जलपियणण्हाणनिमित्तं सिप्पानई समोयरंतो आसमंदुरापहाणो वोल्लाहकिसोरो। निवेइयं रन्नो। भणियं च णेण---अरे आणेह तं दुद्रुमहिसयं नरवइसमाएसाणंतरं च आणीओ एसो । तओ तं दळूण रोसफुरियाहरेण सूवयारं सद्दाविऊण भणियं राइणा - अरे एयं दुरायारं दुट्ठमाहिसयं सजीवं चेव लहु भडित्तयं करेहि त्ति । तेण वि य निहया सयल दिसासु लोहखोटया, लोहसंकलाहिं च नियामिओ लोहखोंटएसु। कयं च से तिगडहिंगलवणजलभरियं पुरओ महाकडाहं । पज्जालिओ य चउसु वि दिसासु नाइदूर म्मि चेव खइरवरसारकोहि हयासणो। तओ य सो महामहंतेण अग्मिणा पच्चमाणो सुक्कोट्टकंठताल तिव्वतिसापरिगओ अहिययरं दुक्खं जणयंतं खारपाणियं पिनिउमारद्धो। पलीविओ तेण सो देहमज्झे । निग्गयं च से बीयपासेणं किविसं । एत्थंतरम्मि समाणत्तं राइणा- पेसेहि लहुं महिसयभडित्तयं ति । तओ जत्थ जत्थ पक्कमसं, तओ तओ छिदिऊण पेसियं सूक्यारेण । सित्तो य एसो घयउत्तेडएहि । पक्खित्तं च ऽऽसीत् सा कलिङ्गविषये महिष्यः: कुक्षौ गहिषः सम त्पन्नः । वर्धितः कालक्रमेण। स च भाण्डभरं वहन समागतो विशाला नगरीम् । व्यापादितश्च तेन जलपानस्नाननिमित्तं सिप्रानदी समवतरन अश्वमन्दुराप्रधानो वोल्लाहाश्वकिशोरः । निवेदितं राज्ञः, भणितं च तेन-अरे, आनयत तं दुष्ट महिषम् । नरपतिसमादेशानन्तरं चानोत एषः । ततस्तं दृष्ट्वा रोषस्फुरिताधरेण सूपकारं शब्दायित्वा भणितं राज्ञा-अरे एतं दुराचारं दुष्टमहिषं सजीवमेव लघु भटित्रकं कुर्विति। तेनापि च निहता सकलदिक्षु लोहकोलकाः, लोहशृङ्खलाभिश्च नियमितो लोहकीलकेषु । कृतश्च तस्य त्रिकटुकहिङ्गु लवणजलभृतः पुरतो महाकडाहः । प्रज्वालि तश्च चतुर्वपि दिक्षु नातिदूरे एव खदिरवरसारकाष्ठ हुताशनः। ततश्च स अतिमहताऽग्निना पच्यमानः शुष्कौष्ठकण्ठतालुस्तीव्रतृट्परिगतोऽधिकतरं दुःखं जनयत् क्षारपानीयं पातुमारब्धः । प्रदीप्तस्तेन स देहमध्ये। निर्गतं च तस्य द्वितीयपार्वेण किल्विषम् । अत्रान्तरे समाज्ञप्तं राज्ञा-प्रेषय लघु महिषभटित्रकमिति । ततो यत्र यत्र पक्वमांसं ततस्ततो छित्त्वा प्रेषितं सूपकारेण । सिक्तश्च एष घृतभरैः। प्रक्षिप्तं च श्लक्ष्णवर्तितं लवणम् । विशेषण देश में भैंस के गर्भ में भैंसे से के रूप में उत्पन्न हुई । कालक्रम से वह भैंसा बढ़ा । वह माल के भार को वहन किये हए उज्जयिनी नगरी आया। उसने जल पीने के लिए शिप्रा नदी में उतरते हुए अश्वशाला के प्रधान वोल्लाह जाति के किशोर घोड़े को मार डाला। राजा से निवेदन किया गया। उसने कहा ---"अरे उस दुष्ट भैंसे को ल.ओ। राजा की आज्ञा से उसे लाया गया। तब उसे देखकर रोष से जिसके अधर फड़क रहे थे, ऐसे राजा ने रसोइये को बुलाकर कहा-"अरे इस दुराचारी दुष्ट भैंसे का जीवित ही शीघ्र भुरता बना दो। उसने भी चारों तरफ लोहे की कीलें जड़ दीं और लोहे की सांकलों से कस र लोहे की खूटी से बाँध दिया। उसके सामने सोंठ, पीपर, मिर्च, हींग और नमक से भरा हुआ बहुत बड़ा कड़ाहा रख दिया। चारों ओर समीप में ही खैर आदि की सारयुक्त लकड़ियों की अग्नि जला दी। तदनन्तर वह भ कती अग्नि के द्वारः पकता हुआ ओठ, कण्ठ और तालु सूख जाने के कारण अत्यधिक प्यास से बहुत दुःखी होता हुआ नमक के पानी को पीने लगा। वह शरीर के अन्दर जल उठा । उसके दूसरी ओर से पीप निकली। इस बीच राजा ने आज्ञा दी-शीघ्र ही भैंसे के भुरते को भेजो।" तब जहाँ-जहाँ मांस पक गया था---''वहाँ-वहां से काटकर रसोइये ने भेजा । इसे घी से भरा (उसके १. उज्जेणि-ख, २. सिप्पॅनई-क, ३. आसवंदुरा"-ख, ४. निवेइओ य"क, ५. लोहमयखों -क। Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परत्वो भवो] सहिणवट्टिय लोणं । विसेसेण पंजालिओ जलणो। एत्थंतरम्मि आगओ रायपरिवेसओ। भणियं च पेण-अरे अन्नं पि विजाईयं भडित्तयं लहुं देहि ति । तओ पुलइओ अहं सूवयारेण' । 'भडित्तयं कज्जिहामि' त्ति सम्मढो हियएण, उल्लुक्क सिराजालं, विहडिओ अद्विबंधो, गलियाई सव्विदियवलाई । तओ कंठगयपाणो चेव गहिओ सूवयारेण, छिन्नं मे विइयपासयं । विमुक्को य मे देहो जीविएण। तओ देवाणुप्पिया, एगसमयम्मि चेव सो महिसयजीवो अहं च मरिऊण उप्पन्ना विसालापाणवाडए कुक्कुडीए गन्मम्मि । अइक्कंतो कोइ कालो । उवट्ठिए पसवकाले वावाइया णे जणणी मज्जारपोयएण। कयवरोवरि च तं खायमाणस्स गलियं अंडयदुर्ग गओ मज्जारो। पक्खित्तो य णे उवरि काएवि चंडालीए सुप्पकोण कज्जवो। तदुम्हापहावेण जीविया अम्हे । फुडियाइं अंडयाई। निग्गया अम्हे । गहियाई अणहुलाभिहाणेण चंडालदारएणं, जीवाविया तेण । जायाओ णे चंदचंदिमासच्छहाओ पिच्छावलीओ; समुभूया मे सुयमुहगुंजद्ध रावसरिसा चूला गरुडचंचुसरिसा य मे प्रज्वालितो ज्वलनः । अत्रान्तरे आगतो राजपरिवेषकः । भणितं च तेन-अरे अन्यदपि विजातीयं भटित्रकं लघु देहीति । ततः प्रलोकितोऽहं सूपकारेण । (अहं) 'भटित्रं करिष्ये' इति सम्मूढो हृदयेन, (उल्लुक्क) स्तब्धं शिराजालम् । विघटितोऽस्थिबन्धः। गलितानि सर्वेन्द्रियवलानि । ततः कण्ठगतप्राण एव गृहीतः सूपकारेण, छिन्नं मे द्वितीयं पाश्वम् । विमुक्तश्च मे देहो जीवितेन । . ततो देवानुप्रिय ! एकसमये एव स महिषजीवोऽहं च मृत्वा उत्पन्नौ विशालाप्राणवाटके कुकुट्या गर्भ। अति कान्तः कोऽपि काल: । उपस्थिते प्रसवकाले व्यापादिता आवयोर्जननी मार्जारपोतकेन। कचवरोपरि तां च खादतो गलितमण्डद्विकम् । गतो मार्जारः। प्रक्षिप्तश्चावयोपरि कयाऽपि चाण्डाल्या शर्पकोणेन कचवरः । तदुष्मप्रभावेण जीवितावाम् । स्फुटितेऽण्डके । निर्गतावावाम । गृहीतो अनहुनाभिधानेन चण्डालदारकेण । जीवितो तेन । जाता श्चावयोश्चन्द्रचन्द्रिकासच्छाया: पिच्छावल्यः । समुद्भता मे शुकम खगुजार्धरागसदृशो चुडा, ऊपर) पतला नमक छिड़का । विशेष रूप से अग्नि में गर्म किया । इसी बीच राजा का खाना परोसने वाला आया। उसने कहा-"और भी विजातीय भुरते को शीघ्र दो।" तब रसोइये ने मुझे देखा । मेरा भुरता बनाया जायेगा ऐसा सुनकर हृदय से मूढ़ हो गया । नाड़ियों का समूह रुक गया। हड्डियों का बन्धन शिथिल हो गया। समस्त इन्द्रियाँ ढीली पड़ गयीं । तब कण्ठगत प्राण रहते हुए ही रसोइये ने मुझे पकड़ा और मेरा दूसरा बगल काट डाला । मेरे शरीर को प्राणों से विमुख कर दिया। तदनन्तर हे देवानुप्रिय ! एक समय ही वह भैंसे का जीव और मैं मरकर उज्जयिनी के बाग में मुर्गी के गर्भ में आये । कुछ समय बीता। प्रपवकाल उपस्थित होने पर बिल्ली के बच्चे ने हमारी मां को मार डाला। उसे खाते समय कचड़े के ऊपर दो अण्डे गिर पड़े । बिलाव चला गया। किसी चाण्डाल ने हमारे ऊपर सूप के कोने से कचड़ा फेंका । उसकी गर्मी के प्रभाव से हम दोनों जीवित रहे । अण्डे फूटे । हम दोनों निकल पड़े । अनहुल नामक चाण्डाल के लड़के ने हमें पकड़ लिया। उसने हम दोनों को जिलाया। हम दोनों के चन्द्रमा की चांदनी के समान पंखों का समूह निकल आया। तोते के मुंह अथवा गुमची के समान आधी लाल चोटी मेरे ऊपर उत्पन्न १. भडित्तयनिमित्तं अईवरोद्दाए दिट्ठीए । तओ अहं भडितयं कज्जिहामित्ति आभोइऊण सम्मूढो-ख, २. उल्लकं-ग, ३. उवित्यए-क, ४. अंडयजयं-ख, ५, कज्जओ-कचवरः, ६. तउम्हा "-क, तदुण्हा"-ख, ७. अणहुया"-क, अणहुलभि"-ख, अणुहल्ला "-ग। Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ [समराइच्चकहा चंचू । एत्थंतरम्मि दिट्ठाई अम्हे कालदंडवासिएण | 'अहो इमाई राइणो खेल्लणजोगाई 'ति गहियाई तेण । उवणीयाइं च गुणहरस्स । परितुट्ठो राया । समप्पियाइं च णे एयस्स चेव कालदंडवासियस्स । भणिओ य एसो-अरे जत्थ जत्थ वच्चामि तत्थ तत्थ एयाइं आणेयव्वाइं । पडिस्सुयमण | अन्ना सयलंते उरपरियरिओ वसंतकीलानिमित्तं गओ कुसुमायरुज्जाणं राया । नीयाइं अम्हे तहि कालदंडवा सिएणं । ठिओ उज्जाणतिलयभूए बालकयलीहरयपरिक्खित्ते माहवीलयामंडवे राया । इयरो वि सह अम्हेहि गओ असोयवीहियं । दिट्ठो य तत्थ भयवं ससिस्सगणपरिवुडो' ससिप्पाभिहाणी आयरिओ ति । तओ अलियवंदणं करेंतो उवगओ साहुमूलं, धम्मलाहिओ तेणं । तओ तं तर्वासरिविरायंतदेहं दट्ठूणं आयण्णिऊण पयइसुंदरं तस्स वयणं उवसंतो विय एसो । भणियं चणे - भयवं; कीइसो तुम्हाण धम्मो ? भयवया भणियं - सुण सयलसत्तसाहारणो एगो चेव धम्मो । मूढो य एत्थ अणहिगयसत्यपरमत्थो जणो भेए कप्पेइ । सो उन समासेण इमो - मगवयणकायजोगेहिं परपीडाए अकरणं, तहा सुपरिसुद्धस्स अणलियस्स गरुडचञ्चूसदृशी च मे चञ्चः । अत्रान्तरे दृष्टात्रावां कालदण्डपाशिकेन । 'अहो इमौ राज्ञः खेलनयोग्य' इति गृहीतौ तेन, उपनीतौ च गुणधरस्य । परितुष्टो राजा समर्पितो चावामेतस्यैव काल दण्डपाशिकस्य । भणितश्चैषः -- अरे यत्र यत्र व्रजामि तत्र तत्र एतावानेतव्यौ । प्रतिश्रुतमनेन । अन्यदा सकलान्तःपुरपरिवतो वसन्तक्रीडानिमित्तं गतः कुसुमाकरोद्यानं राजा । नीतावावां तत्र कालदण्डपाशिकेन । स्थित उद्यानतिलकभूते बालकदलीगृहपरिक्षिप्ते माधवीलतामण्डपे राजा । इतरोऽपि सहावाभ्यां गतोऽशोकवीथिकाम् । दृष्टश्च तत्र भगवान् स्वशिष्यगणपरिवृतः शशिप्रभा - भिधान आचार्य इति । ततोऽनीकवन्दनं कुर्वन् उपगतः साध मूलम् । धर्मलाभितस्तेन । ततस्तं तपःश्रीविराजदेहं दृष्टाऽकण्यं प्रकृतिसुन्दरं तस्य वचनमुपशान्त इवैषः । भणितं च तेन - भगवन् ! कीदृशो युष्माकं धर्मः ? भगवता भणितम् - शृणु । सकलसत्त्वसाधारण एक एव धर्मः । मूढश्चात्रानधिगतशास्त्रपरमार्थो जनो भेदान् कल्पयति । स पुनः समासेनायम् - मनोवचन काययोगः परपीडाया अकरणम्, तथा सुपरिशुद्धस्यानलीकस्य हुई और गरुड़ की चोंच के समान चोंच निकल आयी। इसी बीच राजा के कालदण्डपाशिक ( सेनापति ) ने हम लोगों को देखा । 'ओह! ये राजा के खेलने योग्य हैं' ऐसा मानकर उसने ले लिया और गुणधर के पास लाया । राजा सन्तुष्ट हुआ। हम दोनों को ( राजा ने इसी कालदण्डपाशिक को दे दिया और इससे कहा - "अरे ! जहाँ-जहाँ जाऊँ, वहाँ-वहाँ इन दोनों को ले आना ।" इसने स्वीकार किया । एक बार समस्त अन्तःपुर से घिरा हुआ राजा वसन्तक्रीड़ा के लिए कुसुमाकर उद्यान में गया। हम दोनों को वहाँ कालदण्डपाशिक (सेनापति) ले गया । उद्यान के तिलक के समान नवीन कदलीगृह से घिरे हुए माधवी लतामण्डप में राजा बैठा । कालदण्डपाशिकभी हम दोनों के साथ अशोकवीथी में गया । वहाँ अपने शिष्यगण के साथ बैठे हुए आचार्य शशिप्रभ को देखा । तब झूठा नमस्कार कर साधु के पास गया। साधु ने धर्मलाभ दिया । अनन्तर तपस्या की शोभा से शोभायमान उनका शरीर देखकर उनके स्वाभाविक रूप से सुन्दर वचनों को सुनकर यह शान्त-सा हो गया । उसने कहा—“भगवन् ! आपका धर्मं कैसा है ?" भगवान् ने कहा - 'सुनो ! समस्त प्राणियों के लिए सामान्यतः धर्म कल्पना करता है । वह संक्षिप्त रूप से यह है एक है । मूढ़ व्यक्ति शास्त्र के परमार्थ को न जानकर भेद की मन, वचन और काययोग से दूसरे को पीड़ा न पहुँचाना, अच्छी १, खेलयण ``क, 2, सुसिस्सख, ३. सुणउ भद्दो- ख । Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्यो भयो ३०७ भासणं, तणमेतस्स वि अदत्तादणस्स अग्गहणं, मणवयणकायजोगेहिं अबंभचेरपरिवज्जणं, गोसुवण्णहिरण्णाइएसुं च अपरिग्गहो; तहा निसिभत्तवज्जणं, बायालीसेसणादोससुद्धपिंडपरिभोओ। एत्थंतरम्मि भणियं दंडवासिएणं -- भयवं, अलं एइणा; कहेहि गिहिधम्म । कहिओ से भयवया पंचाणुव्वयाइओ सावयधम्मो। भणियं च णेण-भयवं, करेमि अहमेयं धम्मं । नवरं पुव्वपुरिसक्कमागयं वेयविहिएण विहिणा न परिच्चएमि पसुवहं ति । भयवया भणियं-जइ न परिच्चयसि, तओ इमं कुक्कुडमिहुणयं जहा तहा पाविहिसि संसारसायरे अगत्थं ति । दंडवासिएण' भणियं-भयवं, कि पुण न पच्चित्तमिमेहिं, को वा पाविओ अणत्यो ? तओ भयवया जहा अम्हे जणणितणया आसि, जहा य पिट्ठमयकुक्कुडवहो कओ, जहा य सिहिसाणसप्पपसया मीणोहारा य अइयमेसा य। महिसयकुक्कुडपक्खो जाया संसारजलहिम्मि ॥४०८॥ जाई च णे पत्ताई तिव्वदुक्खाई', सव्वमेयं सुयाइसयनाणिणा साहियं ति। एयं च सोऊण परं भाषणम्, तृणमात्रस्यापि अदत्तादानस्याग्रहणम्, मनोवचनकाययोगेरब्रह्मचर्यपरिवर्जनम्, गोसुवर्णहिरण्यादिकेषु चापरिग्रहः, तथा निशाभक्तवर्जनम्, द्विचत्वारिंशदेषणादोषशुद्धपिण्डपरिभोगः । अत्रान्तरे भणितं दण्डपाशिकेन-भगवन् ! अलमेतेन, कथय गृहिधर्मम् । कथितस्तस्य भगवता पञ्चाणुव्रतादिकः श्रावक.धमः। भणितं च तेन-भगवन् ! करोम्यहमेतं धर्मम, नवरं पूर्वपुरुषक्रमागतं वेदविहितेन विधिना न परित्यज्यामि पशुवधमिति । भगवता भणितम्-यदि न परित्यजसि तत इदं कुकुटमिथुनं यथा तथा प्राप्स्यसि संसारसागरेऽनर्थमिति । दण्डपाशिकेन भणितम् -भगवन् ! किं पुनर्न परित्यक्तमाभ्याम् ? को वा प्राप्तोऽनर्थः ? तता भगवता यथाऽऽवां जननीतनयौ आस्व, यथा च पिष्टमयकुर्कुटवधः कृतः, यथा च शिखिश्वान-सर्पपसया मीनोहारौ च अजाजमेषाश्च। __ महिष-कुकुटपक्षिणश्च जाता संसारजलधौ।।४०६।। यानि चावयोः प्राप्तानि तीव्रदुःखानि सर्वमेतत् श्रुताशयज्ञानिना कथितमिति। एतच्च तरह शुद्ध यथार्थ वचन बोलना, बिना दिये हुए तृणमात्र भी वस्तु का न लेना; मन, वचन और काय से अब्रह्मचर्य का त्याग; गाय, सोना आदि परिग्रह न रखना, रात्रिभोजन का त्याग तथा बयालीस एषणा दोषों से शुद्ध आहार का ग्रहण करना।" इसी बीच दण्डपाशिक (सेनापति) ने कहा-'भगवन् ! इससे बस करो। गृहस्थ का धर्म कहो । भगवान् ने उससे पंच अणुव्रत आदि श्रावकों का धर्म कहा । उसने कहा-"भगवन् ! मैं इस धर्म को करूँगा लेकिन पूर्व पुरुषों की परम्परा से आयी हुई वेदप्रतिपादित विधि से पशुवध का त्याग नहीं करूंगा।" भगवान् ने कहा-"यदि नहीं छोड़ोगे तो इस मुर्गे के जोड़े के समान संसार-समुद्र में अनर्थ पाओगे।" दण्डपाशिक ने कहा"भगवन् ! इन दोनों ने क्या त्याग नहीं किया था ? कौन-सा अनर्थ पाया था ?" तब भगवान् ने-जैसे हम माता पुत्र थे, जिस प्रकार हमने आटे के चूर्ण के मुर्गे का वध किया था, जिस प्रकार मोर तथा कुत्ता, साप तथा कुष्टपसय, मछली तथा सूस, बकरी तथा बकरा, भैंसा तथा मुर्गा के रूप में संसार में उत्पन्न हुए और जो हमने तीव्र दुःख प्राप्त किये ॥४०८।। वे सब श्रुत के अभिप्राय को जानने वाले मुनि ने कहे । इसे सुनकर दण्डपाशिक बहुत भयभीत १. डण्डख, २. भयवया भणि यं-पुणाहि भद्द ! इम-तहा साहिउमारद्धो जहा-ख, ३. उहारः शिशुमारः, ४. सारीरदुक्खाई सब."-ख। Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० [समराइन्धकहां संवेगमावन्नो दंडवासिओ । भणियं च णेण-भयवं, अलं मे इय परिणाम दारुणेणं वेयविहिएणावि पसुवहेणं; देहि मे गिहिधम्मोचियाइं वयाई। तओ भयवया तित्थयरभासिएणं विहिणा से दिन्नो संसारजलहिबोहित्थभूओ पंचनमोक्कारो, तहा थूलयपाणाइवायविरमणाइयाइं च वयाई । गहियाई च णेग नियचरियसवणसमुप्पन्नजाइस्सरणेहिं परमसंवेगागएहि य अम्हेहिं । तओ परिओसविसेसओ संपत्तभवणगुरुधम्मबोहेहि निवियसाणुबंधासुहकम्मेहिं कजियं अम्हेहिं । सुयं च तं राइणा दूसहरंतरगएणं जयावलीए सह सुरयसोक्खमणुहवंतेणं ति। गहियमणेण पासत्थं धणुवरं, संधिओ तीरियासरो, 'देवि, पेच्छ मे सद्दवे हित्तणं' ति भणिऊण मुक्को, तओ णेण वावाइयाइं अम्हे । समुप्पन्नाणि तक्खणं चेव भुत्तमुत्ताए जयावलीए चेव कुच्छिसि । आविन्भूयजिणधम्मवोहिगब्भपहावेण समुप्पन्नो तोए दढं अभयदाणपरिणामो। दिन्नं सत्तेसु अभयदाणं। जायाइं कालक्कमेणं अहं दारओ जणणी मे दारिय त्ति। गम्भहिं च अम्हेहि जणणी अभयदाणपरा आसि; अओ पइट्ठाश्रु त्वा परं संवेगमापन्नो दण्डपाशिकः । भणितं च तेन-भगवन् ! अलं मे इति परिणामदारुणेन वेदविहितेनापि पशुवधेन, देहि मे गहिधर्मोचितानि व्रतानि । ततो भगवता तोर्थंकरभाषितेन विधिना दत्तः संसारजलधिबोहित्थभूतः पञ्चनमस्कारः, तथा स्थलप्राणातिपातविरमणादिकानि च व्रतानि । गहोतानि च तेन निजचरितश्रवणसमुत्पन्नजातिस्मरणाभ्यां परमसंवेगागताभ्यां चावाभ्याम् । ततः परितोषविशेषतः सम्प्राप्तभुवनगुरुधर्मबोधाभ्यां निष्ठापितसानुबन्धाशुभकर्मभ्याम् कृजितमावाभ्याम् । श्रु तं च तद् राज्ञा दृष्यगृहान्तरगतेन जयावल्या सह सुरतसौख्यमनुभवतेति । गृहीतमनेन पार्श्वस्थं धनुर्वरम्, सन्धितस्तिर्यक्शर:--'देवि ! पश्य मे शब्दवेधित्वम्' इति भणित्वा मुक्तः, ततस्तेन व्यापादितावावाम् । समुत्पन्नौ तत्क्षणमेव भुक्तमुक्ताया जयावल्या एव कुक्षौ। आविर्भूतजिनधर्मबोधिगर्भ. प्रभावेणसमुत्पन्नस्तस्या दृढमभयदानपरिणामः। दत्तं सत्त्वेष्वभयदानम् । जातौ कालक्रमेण अहं दारको जननी मे दारिकेति। गर्भस्थाभ्यां चावाभ्यां जननी अभयदानपराऽऽसीत्, अतः प्रतिष्ठिते हो गया। उसने कहा-"जिसका फल भयंकर है, ऐसा वैदिक विधि से किये गये पशुवध का मैं त्याग करता हूँ। मेरे लिए गृहस्थ धर्म के योग्य व्रतों को दीजिए।" तब भगवान ने तीर्थंकर द्वारा कथित विधिपूर्वक संसार रूपी समुद्र को तिरने के लिए जहाज के समान पंचनमस्कार मन्त्र दिया तथा स्थूल हिंसा से विरत होना आदि व्रत दिये । अपने चरित को सुनने से उत्पन्न जाति-स्मरण वाले हम लोगों ने भी बहुत अधिक भयभीत होकर उनसे श्राव के व्रत ग्रहण किये। तदनन्तर संसार से धर्म का बोध प्राप्त कर विशेष रूप से सन्तुष्ट (पूर्वजन्मों में) सोद्देश्य अशुभकर्मों की स्थिति वाले हम लोग कूजन करने लगे। उसे जयावली के साथ शामियाने में सम्भोग-सुख का अनुभव करते हुए राजा ने सुना । राजा ने पास में रखे हुए धनुष को लिया, टेढ़ा बाण चढ़ाया (और) "महारानी ! मेरी शब्दवेधिता को देखो"-ऐसा कहकर (उस बाण को) छोड़ दिया । अनन्तर उससे हम दोनों मारे गये। उसी समय भोगी हुई जयावली के गर्भ में हम दोनों आये । गर्भ के प्रभाव से जिसे जैनधर्म का बोध प्रकट हुआ है, ऐसी उस रानी के अत्यधिक अभयदान के भाव हुए। (उसने) प्राणियों को अभयदान दिया। कालक्रम से मैं लड़का और मेरी मां लड़की हुई । गर्भावस्था में मेरी माता अभयदान में तत्पर थी अतः हम दोनों के नाम Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वियाई नामाई मज्झं अभयरुई इयरीए अभयमइ ति । वड्ढियाइं च अम्हे देहोवचएण कलाकलावण य। चितियं च राइणा -करेमि अभयमईए विवाहं अभयरुइणो य जुयरज्जाभिसेयं ति। एत्थंतरम्मि पयट्टो पारद्धि राया, निग्गओ विसालाओ, पत्तो उजाणंतरं। छिक्को कुसुमामोयसुरहिणा मारुएणं । अवलोइयं च णेण तमुज्जाणं । दिट्ठो य तत्थ तिलयपायवासन्ने झाणमुवगओ सुदत्तो नाम मुणिवरो । कुविओ राया, 'अवसउणो खु एसो पारद्धीए पयट्टस्स; ता एयस्स कयत्थणाए चैव माणेमि एवं' ति चितिऊण छुच्छुक्कारसारं मुयाविया सुणया। अयालमच्च विव सिग्यवेएण पत्ता मुणिवरसमीवं । सुहुयहुयासणो विव तवप्पहाए जलंतदेहो दिट्ठो तेहि मुणिवरो। तो तं समुज्जलंतं साणा दठूण निप्पहा जाया। ओसहिगंधामोडियपब्भट्ठविसा भुयंग व्व ॥४०६॥ तवकम्मपहावेणं काऊण पयाहिणं सुणयवंद्र । धरणिगयमत्थएहि पडियं पाए मुणिवरस्स ॥४१०॥ नामनी ममाभयरुचिरितराया अभयमतिरिति । वधितौ चावां देहोपचयेन कलाकलापेन च । चिन्तितं च राज्ञा-करोमि अभयमत्या विवाहम्, अभयरुचेश्च यौवराज्याभिषेकमिति । ___ अत्रान्तरे प्रवृत्तः पापधि (मगयां) राजा, निर्गतो विशालायाः, प्राप्त उद्यानान्तरम् । स्पष्टकुसुमामोदसुरभिना मारुतेन, अवलोकितं च तेन तदुद्यानम् । दृष्टश्च तत्र तिलकपादपासन्ने ध्यानमुपगतः सुदत्तो नाम मु निवरः । कुपितो राजा । अपशकु नः खल्वेष पापद्धयाँ प्रवृत्तस्य, तत एतस्य कदर्थनयैव मानयाम्येतमिति चिन्तयित्वा छु छुत्कारसारं मोचिताः शु नकाः। अकाल मृत्युरिव शोघ्रवेगेन प्राताः मुनिवरसमीपम् । सुहुतहुताशन इव तपःप्रभया ज्वलद्देहो दृष्टस्तै, निवरः । ततस्तं समुज्ज्वलन्तं श्वाना दृष्टटा निष्प्रभा जाताः । औषधिगन्धामोटितप्रभ्रष्टविषा भुजङ्गा इव ।।४०६।। तपःकर्मप्रभावेन कृत्वा प्रदक्षिणं शुनकवन्द्रम् । धरणीगतमस्तकैः पतितं पादयोर्मुनिवरस्य ॥४१०।। अभयरुचि और अभयमति रखे गये । हम लोगों का शरीर और कलाएं बढ़ीं। राजा ने सोचा-'अभयमति का विवाह करूँगा और अभयरुचि का युवराज पद पर अभिषेक करूंगा।' इसी बीच राजा शिकार को निकला । उज्जयिनी से निकलकर दूसरे उद्यान में आया । फूलों की सुगन्धि से सुगन्धित वायु का स्पर्श किया और उसने उस उद्यान को देखा । वहाँ तिलक वृक्ष के पास में ध्यान लगाये हुए सुदत्त नामक मुनिवर दिखाई पड़े । राजा कुपित हुआ। 'शिकार में प्रवृत्त मेरे लिए यह अपशकुन है अत: इसका अपमान करके ही मैं मानूंगा' ऐसा विचार कर छू-छू की आवाज कर कुत्ते छोड़ दिये । अकाल मौत के समान (वह) शीघ्र वेग से मुनिवर के समीप में आये । अच्छी तरह से जलायी गयी अग्नि के समान तप की प्रभा से देदीप्यमान शरीर वा ले (उन) मुनिवर को कुत्तों ने देखा। ___ अनन्तर देदीप्यमान उन्हें (मुनिवर को) देखकर कुत्ते निष्प्रभ हो गये, जिस प्रकार पीसी गयी औषधि की गन्ध से सर्प विष का त्याग कर देते हैं । तपस्या के प्रभाव से कुत्ते मुनि की प्रदक्षिणा कर धरती पर मस्तक रखकर स्नके चरणों में बैठ गये ॥४०६-४१०॥ Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समान्हा तओ तं दळूण विलिओ राया। चितियं च णेण-अहो वरं एए सुणहपुरिसा, न उण अहं पुरिससुणहो, जेण एवं तवचरणनिरयस्स भयवओ वि अकुसलं चितियं ति । एत्यंतरम्मि समागओ सयलाए विसालानयरीए पहाणो साहुवंदणनिमित्तं राइणो चेव बालमित्तो जिणवयणभावियमई अरहदत्तो नाम सेठिपुतो ति। विन्नाओ य तेण राइणो परलोयनिरवेक्खयाए मणिवरोवसग्गो' । तओ पणमिऊण भणिओ तेज नरवई-'देव, किमयं ति।' राइणा भणियं-जमुचियं परिससारमेयस्स। अरहयत्तेण भणियं-देव, पुरिससोहो खु तुम, ता कि एइणा। ओयरह तुरंगमाओ, वंदह भयवंतं सुदत्तमुणिवरं । एसो खु कालगाहिवस्स अमरदत्तस्स पुत्तो सुदत्तो नाम नरवई । एयस्स पढमजोव्वणे वट्टमाणस्स उवणीओ आरक्खिएण तक्करो। भणियं च तेण-देव, एएण परघरं पविसिऊण एगं महल्लगं वावाइय मुळं घरं, नोसरंतो गहिओ अम्हेहि; संपयं देवो पमाणं ति। एयं च सोऊण सद्दाविया लेण धम्मसत्थपाढया, भणिया य । एयस्स इमिणा आरक्खिएण एस दोसो कहिओ, ता कोइसो इमस्स दंडोति । तेहिं भणियं-देव, पुरिसघायओ परदव्यावहारी य एसो; ता तियचउक्कचच्चरेहि ततस्तं दृष्ट्वा ब्यलीको राजा। चिन्तितं च तेन-अहो वरमेते शनकपुरुषाः न पुनरहं पुरुपशुनकः येनैवं तपश्चरणनिरतस्य भगवतोऽपि अकुशलं चिन्तितम् । अत्रान्तरे समागतः सकलाया विशालानगर्यां प्रधानः साधु वन्दननिमित्तं राज्ञ एव बालमित्रं जिनवचनभावितमति रहद्दत्तो नाम श्रेष्ठिपुत्र इति । विज्ञातश्च तेन राज्ञः परलोकनिरपेक्षतया मुनिवरोपसर्गः । ततः प्रणम्य णितस्तेन नरपतिः- 'देव ! किमेतद्' इति । राज्ञा भणितम्-यदुचितं पुरुषसारमेयस्य । अहद्दत्तन भणितम -देव ! पुरुषसिंहः खलु त्वम , ततः किमेतेन, अवतर तुरङ्गमात्, वन्दस्व भगवन्तं सुदत्तमुनिवरम् । एष खलु कलिङ्गाधिपस्यामरदत्तस्य पुत्रः सुदत्तो नाम नरपतिः। एतस्य प्रथमयौवने वर्तमानस्योपनीत आरक्षकेन तस्करः । भणितं च तेन-देव ! एतेन परगहं प्रविश्य एक महत्तरं वापाद्यमुषितं गृहम , निःसरन् गहीतोऽस्माभिः, साम्प्रतं देवः प्रमाणमिति । एतच्च श्र त्वा शब्दायितास्तेन धर्मशास्त्रपाठका भणिताश्च- एतस्यानेनारक्षकेन एव दोषः कथितः, ततः कीदशोऽस्य दण्ड इति ? तैीणतम -देव ! पुरुषघातकः परद्रव्यापहारो चंषः, ततिस्त्रक-चतुष्क-चत्वरेषु यह देखकर राजा दुःखी हुआ। उसने सोचा-"ओह ! ये कुत्ते रूप पुरुष उत्कृष्ट हैं, में पुरुष रूपी कुत्ता उत्कृष्ट नहीं हूँ, जिसने कि तपस्या में रत भगवान के विषय में भी अशुभ सोचा।" इसी बीच समस्त उज्जयिनी नगरी के प्रधान सेठ का अर्हद्दत्त नाम का पुत्र, जो कि जिनवाणी में श्रद्धा रखता था तथा जो राजा का बाल्यकालीन मित्र था, साध की वन्दना के लिए आया। उसे परलोक से निरपेक्ष राजा के द्वारा मुनि के ऊपर उपसर्ग की जानकारी हुई। तब उसने प्रणामकर राजा से कहा-"महाराज ! यह क्या है ?" राजा ने कहा---''जो पुरुष रूपी कुत्ते के योग्य है ।" अर्ह इत्त ने कहा- "महाराज ! आप पुरुषसिंह हैं अत: इससे क्या ? घोड़े से उतरो और भगवान् सुदत्त मुनिवर को प्रणाम करो। यह कलिंग के राजा अमरदत्त के पुत्र सुक्त्त नामक राजा हैं । जब यह यौवन की प्रथम अवस्था में थे तो सिपाही (आरक्षक) एक चोर को पकड़कर लाया। उसने कहा-'महाराज ! इसने दूसरे के घर में घुसकर एक मुखिया (महत्तर) को मारकर घर में चोरी की । जब यह घर से निकल रहा था तो हम लोगों ने पकड़ लिया, इस समय (अब) महाराज प्रमाण हैं।' यह सुनकर उस राजा ने धर्मशास्त्र के पाठी बुलवाये और कहा-'इस चोर का इस सिपाही ने यह दोष कहा है अतः इसे क्या दण्ड दिया जाय?' उन्होंने कहा-'महाराज ! यह पुरुषघातक तथा दूसरे के धन का अपहरण करने वाला है अतः तिराहों, चौराहों पर १." वरस्सुवसग्गो-ख, २.डंडवासिएण-ख । Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पजत्यो भवो] निवेइऊण जणवयाणं तओ ने तुप्पाडणकण्णनासुक्कत्तणकरचरणछेयहिं जीवियनासो' चेव इमस्स दण्डो त्ति रिसिवयणं । एवं चायण्णिऊण चितियमणेण । अहो जहन्ना रायकुलजीविया, जं ईदिसं पि अणुमन्नीयइ त्ति । ता अलं मे अणेगोवद्दवभायणेणं रज्जहेणं ति। आणंदसन्नियस्स भाइणेवस्स दाऊण रज्जं सुहम्मगुरुसमोवे पवन्नो पव्वज्ज ति । ता बंदणीओ खु एसो। एयं सोऊण ससंभंतो गओ राया मुणिवरसमीवं । वंदिओ णेण भयवं सुदत्तमुणिवरो। एत्थंतरम्मि समत्तो झाणजोगो । तओ धम्मलाहिओ णेणं भणिओ य । 'महाराय, उवविससु' त्ति । तओ 'अहो मए अकज्ज ववसिय ति अहिरजायपच्छायावो लज्जावणयवयण मलो उविट्ठो राया। चितियं च णेणं । इमस्स रिसिस्स घायओ अहं ति । एवं च पया सिऊण अत्तणो सिरच्छेयमंतरेण न पायच्छितं पेक्खामि। ता कि बहुणा; न सक्कुणोमि अकज्जारणकलंकदूसियं अत्ताणं महत्तयं पि धारेउं । अओ अलं मे इहथिएणं'; संपाडेमि जहा समीहियं ति । एत्थंतर्राम्म समप्पन्नमणपज्जवनाणाइसएण भणियं सुदत्तमुणिवरेण-महाराय, अलं ते इमिणा चितिएण । न खलु एयं एत्थ पच्छित्तं, निवेद्य जनपदानां ततो नेत्रोत्पाटन-कर्णनासोत्कर्तन-करचरणच्छेदनर्जीवितनाश एवास्थ दण्ड इति ऋषिवचनम् । एवं चाकर्ण्य चिन्तितमनेन। अहो जघन्या राजकुल जीविका यदीदृशमपि अनूमन्यते इति । ततोऽलं मेऽनेकोपद्रवभाजनेन राज्यसूखेनेति आनन्दसंज्ञिताय भागिनेयाय दत्त्वा राज्यं सुधर्मग रुसमीपे प्रपन्नः प्रव्रज्यामिति । ततो वन्दनीयः खल्वेषः । एतच्च श्रुत्वा ससम्भ्रान्तो गतो राजा मुनिवरसमीपम् । वन्दितस्तेन भगवान् सुदत्तमुनिवरः। अत्रान्तरे समाप्तो ध्यानयोगः । ततो धर्मलाभितस्तेन भणितश्च-महाराज ! उपविशति । ततोऽहो मयाऽकार्य व्यवसितम्' इति अधिकजातपश्चात्तापो लज्जावनतवदनकमल उपविष्टो राजा । चिन्तितं तेन-अस्य ऋषेर्घातकोऽहमिति । एवं च प्रकाश्यात्मनः शिरश्छेदमन्तरेण न प्रायश्चित्तं प्रेक्षे । ततः कि बहुना ? न शक्नोम्यकार्याचरणकलङ्कदूषितमात्मानं मुहूर्तमपि धारयितुम्, अतोऽलं मे इह स्थितेन, सम्पादयामि यथा समोहितमिति। अत्रान्तरे समुत्पन्नमनःपर्ययज्ञानातिशयेन भणितं मुनिवरेण-महाराज ! अलं तेऽनेन चिन्तितेन, न खल्वेतदत्र प्रायश्चित्तं यत्त्वया परिकल्पितम् । नगरवासियों को निवेदन कर अनन्तर नेत्र निकालना, कान-नाक काटना तथा हाथ-पैर काटकर जीवन नष्ट करना ही इसका दण्ड है-ऐसा ऋषिवाक्य है। यह सुनकर राजा ने सोचा-'ओह ! राजाओं के कुल की जीविका जघन्य होती है जो कि इस प्रकार की भी अनुमति देनी पड़ती है। अत: अनेक उपद्रवों का पात्र यह राज्य-सुख व्यर्थ है ।' इस प्रकार आनन्द नामक बहनोई को राज्य देकर सुधर्म गुरु के समीप प्रविजत हो गये। अतः यह वन्दनीय हैं।" यह सुनकर घबड़ाहट से युक्त होकर राजा मुनिवर के समीप गया। उसने भगवान् सुदत्त मुनिवर की वन्दना की। इसी बीच (मुनि ने) ध्यान समाप्त किया। अनन्तर उन्होंने राजा को) धर्मलाभ दिया और कहा-"महाराज ! बैठ जाइए।"तब “ओह ! मैंने अकार्य किया है" - इस प्रकार अत्यधिक पश्चात्ताप कर लज्जा के कारण मुखकमल नीचा कर राजा बैठ गया । उसने विचार किया कि मैं इस ऋषि का घातक हूँ। इस प्रकार प्रकाशित कर अपना शिर काट डालने के अतिरिक्त अन्य कोई प्रायश्चित्त नहीं देखता हूँ । अतः अधिक कहने से क्या? अकार्य करने से दूषित मैं अपने आपको एक मुहूर्त भी धारण करने में समर्थ नहीं हूं, अतः यहाँ बैठना व्यर्थ है, इच्छित कार्य पूरा करता हूँ। इसी बीच जिन्हें मनःपयंय ज्ञान प्रकट हो गया है' ऐसे मुनिवर ने कहा-"महाराज ! १. दिट्टो सत्यम्मि इमस्स जीविपनासो चेव डण्डो-ख, २. चितिउं पयत्तो-नेमस्सपुर प्रो ठाइउँ सक्कुणोमि, रिसि"ख, ३.पेच्छामि-ख,४. इह जीविएणं-ख । Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [समराइचकहा जं तए परियप्पियं । जओ आयघाओ वि पडिकुट्ठो चेव धम्मपयत्थजाणएहि । भणियं च भावियजिणवयणाणं ममत्तरहियाण नत्थि हु विसेसो। अप्पाणम्मि परम्मि य तो वज्जे पीडम भओ वि ॥४११॥ जं च अफज्जायरणकलंकदूसियं अत्ताणं मन्नसि ति, एयस्स वि जिणवयणाणुट्ठाणजलं चेव पक्खालणं, न उण अन्नं ति । जंपिचितियं 'संपाडेमि जहा समीहियं ति, एत्थं पि अलं तेण भवाणुबंधिणा संपाडिएण संपाडेहि असंपाडियपुव्वं तेलोक्कबंधवाणं जाइजरामरणबंधणविमुक्काणं तित्याराणं सासणं । एत्थरम्भि मग गयाहिप्पायपयडणेणं 'अहो भगवओ नाणं' ति मन्नमाणो 'इमाओ चेव पच्छित्तमवयच्छिस्सं' ति आणंदबाहजलभरियलोयणो पडिओ मुणिवरस्स चलणेसु राया। विन्नतो तेण भयवं मणिवरो-भयवं, कहेहि किमेत्थ पायच्छित्तं' ति? मुणिवरेण भणियं-महाराय, पडिवक्खासेवणं । तं पुण न नियाणवज्जणमंतरेणं ति, नियाणं परिहरियध्वं । नियाणं च एत्थ मिच्छत्तमोहणायसंगयं अन्नाणं । तं च मन्नहा ठिएसु आवेसु अन्नहा पवज्जणं ति । चितियं च तुमए अत आत्मघातोऽपि प्रतिकुष्ट एवं धर्मपदार्थज्ञायकैः । भणितं च भावितजिनवचनानां ममत्वरहितानां नास्ति खलु विशेषः । आत्मनि परस्मिश्च तता वर्जयेत् पीडामुभयोरपि ॥४११।। यच्चाकार्याचरणकलङ्कदूषितमात्मानं मन्यसे इति, एतस्यापि जिनवचनानुष्ठानजलमेव प्रक्षालनम्, न पुन रन्यदिति । यदपि चिन्तितं 'सम्पादयामि यथासमीहितमिति, अत्रापि अलं तेन भवानुबन्धिना सम्पादितेन । सम्पादयासम्पादितपूर्वं त्रैलोक्यबान्धवानां जातिजरामरणबन्धनविमक्तानां तोयंकराणां शासनम् । अत्रान्तरे मनोगताभि-यप्रकटनेन 'अहो भगवतो ज्ञानम्' इति मन्यमानः 'अस्मादेव प्रायश्चित्तमवगमिष्यामि' इति आनन्दबाष्पजलभृतलोचनः पतितो मुनिवरस्य चरणयो राजा । विज्ञप्तस्तेन भगवान् मुनिवरः-भगवन्! कथय किमत्र प्रायश्चित्तमिति । मुनिवरेण भणितम् --महाराज ! प्रतिपक्षासेवनम् । तत्पुनर्न निदानवर्जनमन्तरेणेति निदानं परिहर्तव्यम् । निदानं चात्र मिथ्यात्वमोहनोयसङ्गतमज्ञानम् । तच्चान्यथा स्थितेषु भावेष्वन्यथा प्रपदन मिति । आप ऐसा मत सोचें, इसका यह प्रायश्चित्त नहीं है जो आपने सोचा है । धर्मरूपी पदार्थ को जानने वालों के लिए आत्मघात भी निकृष्ट कार्य है। ममत्व रहित और जिनवचनों की भावना करने वालों के लिए अपने में और दूसरों में कोई अन्तर नहीं है-अत: दोनों को पीड़ा नहीं देनी चाहिए ॥४१॥ जो आप अपने को अकार्याचरण से दूषित मानते हैं, इसे भी जिनवचनों के पालन रूप जल से धोया जा सकता है, अन्य प्रकार से नहीं । जो विचार किया कि इच्छित कार्य को पूरा करूंगा, यहाँ भी संसार में भटकाने वाले कार्य को करना व्यर्थ है। जिसे पहले नहीं पालन किया है, ऐसी तीर्थंकरों की आज्ञा का पालन करो। वे तीर्थकर तीनों लोकों के बन्धु हैं तथा जन्म, बुढ़ापा और मरण से रहित हैं।" इसी बीच मन के अभिप्राय को प्रकट करने के कारण 'ओह ! भगवान का ज्ञान आश्चर्यकारक है' ऐसा मानता हुआ इन्हीं से ही प्रायश्चित की जानकारी प्राप्त करूंगा'--यह सोचकर आँखों में आनन्द के आँस भरकर राजा मनि के चरणों में पड़ गया। उसने भगवान मुनिवर से निवेदन किया-"भगवन् ! कहिए इसका क्या प्रायश्चित्त है ?" मुनिवर ने कहा .. "महाराज ! विरोधी का सेवन (करना ही इसका प्रायश्चित्त है) और वह निदान को छोड़े बिना नहीं होता अत: निदान को त्याग देना चाहिए । यहाँ पर निदान मिथ्यात्व मोहनीय से युक्त अज्ञान है, वह अन्यथा स्थित भावों १. "मुभये वि-ख । Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउत्पो भयो ! ३१३ 'अवसउणो खु एसो, अओ कयत्थगाए माणेमि' त्ति । अवसउणते य इमं ते निमित्तं पडिहाइ, जहा किल एस अण्हाणसेवी कयसिरतुंडमुंडणो विरुद्धपासंडवेसधारी भिक्खोवजीवगो त्ति । ता एत्थ महाराय, मज्झत्थो भविऊण निसामेहि कारणं, के पहाणसेवणासेवणाए गुणदोस त्ति ? तत्थ हासेवणगुणा इमे य दोसा । देहो खणमेत्तसुई तम्मिय राओ तहाहिमाणो य । विलयाणपत्थणिज्जो सुइ त्ति दप्पो य अक्खाणं ॥४१२॥ एए चैव विवज्जएणं अव्हाणगुणा । चिन्तितं च त्वया 'अपशकुनः खल्वेषः, अतः कदर्थनया मानयामीति । अपशकुनत्वे चेदं ते निमित्तं प्रतिभाति, यथा किल एषोऽस्नानसेवी कृतशिरस्तुण्डमुण्डनो विरुद्धपाखण्डवेषधारी भिक्षोप जीव क इति । ततोऽत्र महाराज ! मध्यस्थो भूत्वा निशामय कारणम्, के स्नान सेवनासेवनायां गुणदोषा इति । तत्र स्नानसेवनगुणाः जलगयजीवविघाओ उप्पीलणओ य अन्नसत्ताणं । अंगरखीरधुवणे अन्नाणपयासणं चेव ॥ ४१३॥ देहः क्षणमात्रशुचिस्तस्मिंश्च रागस्तथाऽभिमानश्च । वनितानां प्रार्थनीयः शुचिरिति दर्पश्चाक्षाणाम् ॥४१२॥ इमे च दोषाः - ते एव विपर्ययेणास्नानगुणाः । १. कि—क । जलगतजीवविघात उत्पीडनकश्चान्यसत्त्वानाम् । अङ्गारक्षीरधावने अज्ञानप्रकाशनमेव ॥ ४१३ ॥ की अन्यथा प्राप्ति है । आपने सोचा - 'यह अपशकुन है अतः इसका अपमान करके ही मानूंगा । अपशकुन होने का कारण यह मालूम पड़ता है कि यह स्नान नहीं करता है, शिर और दाढ़ी-मूंछ के बालों का मुण्डन करता है, विरुद्ध पाखण्ड का सेवन किये हुए है और भिक्षा मांगता है। तो महाराज ! इस विषय में मध्यस्थ होकर कारण सुनो। स्नान करने और न करने के क्या गुण-दोष हैं स्नान करने के ये गुण हैं शरीर क्षणमात्र के लिए पवित्र हो जाने से उसके प्रति राग और अभिमान । 'पवित्र है' ऐसा मानकर स्त्रियों का प्रार्थनीय होना तथ इन्द्रियों का अभिमान -- ये गुण हैं ॥४१२॥ और दोष ये हैं जल में रहने वाले जीवों की हिंसा तथा दूसरे प्राणियों की पीड़ा- ये दोष हैं। कोयले को दूध से धोना अज्ञान को ही प्रकट करता है ।।४१३।। ये ही विपरीत रूप से अस्नान ( स्नान न करने) के गुण हैं । Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ अन्नं च अन्यच्च दोसा उण विवहजणं पडुच्च न हु केइ एत्थ विज्जंति । जं सव्वसत्यसारो पाणिदया तिगरणविसुद्धा ॥ ४१४॥ एवं गणमाणेहिं चूलोवणयंम्मि जन्नदिक्खाए । सव्वायरेण गहियं अण्हाणवयं दिएहिं पि ॥ ४१५॥ satमा गुत्ता दंतिंदिया जियकसाया । सज्झायभाणनिरया निच्चसुई मुणिवरा होंति ॥४१६॥ सिरतुंडमुंडणं पि हु जइस्स सव्वासवा नियत्तस्स । पढमवयरक्खणट्ठा गुणावहं होइ नियमेणं ॥ ४१७॥ पासंडं पिय एवं सुमंगलं वीयरागदो सेहि । जम्हा जिणेहि भणियं अओ विरुद्धं ति वामोहो ॥४१८ ॥ सव्वारंभनियो अप्पडिबद्धो य उभयलोएसु । भिक्खोवजीवगो च्चिय पसंसिओ सव्वसत्थेसु ॥४१९ ॥ दोषाः पुनविबुधजनं प्रतीत्य न खलु केऽप्यत्र विद्यन्ते । यत्सर्वशास्त्रसारः प्राणिदया त्रिकरणविशुद्धा ॥ ४१४ ॥ एतांगणचूडोपनये यज्ञदीक्षायाम् । सर्वादरेण गृहीतमस्नानव्रतं द्विजैरपि ॥ ४१५ ॥ Prasad नयमा गुप्ता दान्तेन्द्रिया जितकषायाः । स्वाध्यायध्याननिरता नित्यशुचयो मुनिवरा भवन्ति ॥ ४१६ ॥ शिरस्तुण्डमुण्डनमपि खलु यतेः सर्वास्रवाद् निवृत्तस्य । प्रथमव्रत रक्षणार्थं गुणावहं भवति नियमेन ॥ ४१७॥ पाखण्डमपि चैतत् सुमङ्गलं वीतरागद्वेषैः । यस्माज्जनैर्भणितमतो विरुद्धमिति व्यामोहः ॥४१८ ॥ सर्वारम्भनिवृत्तोऽप्रतिबद्धश्चोभयलोकेषु । भिक्षोपजीवक एव प्रशंसितः सर्वशास्त्रेषु ॥ ४१६ ॥ बुद्धिमानों को इसके अतिरिक्त, स्नान न करने में और कोई दोष नहीं दिखाई देते हैं कि मन, वचन तथा काय से समस्त शास्त्रों की सार प्राणिदया हो जाती है। इसी को मानकर चूडाकर्म और उपनयन संस्कार के समय यज्ञदीक्षा में ब्राह्मण भी बहुत आदर से स्नान न करने के व्रत को ग्रहण करते हैं ॥ ४१४-४१५।। [समराइ चकहा दूसरी बात भी है अखण्डित व्रत और नियम वाले, मन-वचन-काय की प्रवृत्तियों को वश में रखने वाले, इन्द्रियों का दमन करने वाले, कषायों को जीतने वाले, स्वाध्याय तथा ध्यान में रत मुनिलोग नित्य पवित्र होते हैं। शिर और दाढ़ी का मुण्डन करना भी समस्त आस्रवों से निवृत्ति तथा प्रथम (अहिंसा) व्रत की रक्षा के लिए निश्चित रूप से मुनि को गुणकारी होता है । पाखण्ड भी यह धर्म मंगलमय है, क्योंकि राग-द्व ेषों से रहित जिनों ने इसका उपदेश दिया है, इसे विरुद्ध कहना व्यामोह है । इसमें समस्त आरम्भों की निवृत्ति होती है और यह इहलोक और परलोक दोनों से ही मुक्ति दिलाता है । भिक्षा से जीवनयापन की सभी शास्त्रों में प्रशंसा की गयी है ।। ४१६ ४१६ । १. दिएहि तिख । Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परत्वो भवो एवं च, महाराय, परमगुणजुत्तत्तणेण तियसाण वि महामंगलं समणरूवं कहं ते अवसउणो त्ति ? एयमायण्णिऊण पणट्टराइणो मिच्छत्तं। अहो 'नाणाइसओ' त्ति जंपमाणो निवडिओ चलणेस। भणियं च णेण-भयवं, एवमेयं, जमाइट्ट भयवया । वज्जियं मए नियाणं । ता खमसु' मे एयमवराह ति । भयवया भणियं--- उ8 हि देवाणुप्पिया उट्ठ हि, अलं ते संभमेणं । खमापहाणा चेव मणिणो हति । खमियं मए सव्वसत्ताणं । निसामेहि तित्थयरभासियं खमाए परंपराभावणं । विणा वि वइयरं वालेणऽक्कोसिएणावि साहुणा खमा भावियवा सुंदरो खु एसो जमेवमवि अहिणिविट्रो न मं तालेइ' । तालिएणावि साहुणा खमा भावेयव्वा 'सुंदरो खु एसो, जमेवमवि अहिणिविट्ठो न मं जीवियाओ ववरोवेइ' ति । ववरोइज्जमाणे गावि साहुणा खभा भावेयव्वा सुंदरा खु एसो, जमेवमवि अहिणिविट्ठो न मं संजमाओ भंसेइ; कि तु ममं चेव पुन्य कम्मपरिणइ एस' त्ति। एवं च सोऊण परितट्रो राया। चितियमणेणं-नत्थि अविसओ नाम भयवओ नाणस्स। अओ पुच्छामि भयवंतं एवं च महाराज! परमगुणयुक्तत्वेन त्रिदशानामपि महामङ्गलं श्रमणरूपं कथं तेऽपशकुन इति ? एतदाकर्ण्य प्रनष्टं राज्ञो मिथ्यात्वम् । अहो 'ज्ञानातिशयः' इति जल्पन् निपतितश्चरणयोः। भणितं च तेन-भगवन् ! एवमेतद् यदादिष्टं भगवता। वजितं मया निदानम् ; ततः क्षमस्व मे एतमपराधमिति । भगवता भणितम् -- उत्तिष्ठ दवानुप्रिय ! उत्तिष्ठ, अलं ते सम्भ्रमण । क्षमाप्रधाना एव मनयो भवन्ति । क्षामितं मया सर्वसत्त्वानाम् । निशामय तीर्थंकरभाषितं क्षमायाः परम्पराभावनाम । विनाऽपि वैरं वालेनाक्रुष्टेनापि साधुना क्षमा भावयितव्या 'सुन्दरः खल्वेषः, यदेवमपि अभिनिविष्टो न मां ताडयति ।' ताडितेनापि साधुना क्षमा भावयितव्या 'सुन्दरः खल्वेषः, यदेवमपि अभिनिविष्टो न मां जीविताद् व्यपरोपयति' इति । व्यपरोप्यमाणेनापि साधुना क्षमा भावयितव्या 'सुन्दरः खल्वेषः, यदेवमपि अभिनिविष्टो न मां संयमाद् भ्रंशयति, किन्तु ममैव पूर्वकर्मपरिणतिरेषेति'। एतच्च श्रुत्वा परितुष्टो राजा। चिन्तितमनेन-नास्ति अविषयो नाम भगवतो ज्ञानस्य। इस प्रकार हे महाराज ! परमगुणों से युक्त होने के कारण जो देवों के लिए भी महामंगल रूप है--ऐसा श्रमण का रूप तुम्हारे लिए अपशकुन कैसे है ? ह सुनकर राजा का मिथ्यात्व नष्ट हो गया । ओह ! इनके ज्ञान का अतिशय आश्चर्यकारी है. ऐसा कहते हए चरणों में गिर पड़ा। उसने कहा --- "भगवन् ! जो आपने आदेश दिया, वह ठीक है। मैंने निदान मोड दिया । अतः मेरा अपराध क्षमा कीजिए।" भगवान् ने कहा-“हे देवानुप्रिय ! उठो, डरो मत । मुनिगण क्षमाप्रधान होते हैं । मैंने सभी प्राणियों को क्षमा कर दिया है । परम्परा से तीर्थंकर के द्वारा कही हुई क्षमा की क्रमिक भावना को सुनो । बिना किसी वैर के मूर्ख अथवा गाली गलौज करने वाले पर भी साधु क्षमा भाव रखे। कि 'यह सुन्दर है' इस प्रकार का संकल्प वाला होते हुए भी यह मुझे नहीं मारता है । यदि वह मारे भी तो साध को क्षमाभाव रखना चाहिए कि 'यह सुन्दर है' जो कि ऐसा संकल्प रखते हुए भी प्राणों से अलग नहीं करता है। यदि वह जान से मारे तो भी साधु को क्षमाभाव रखना चाहिए । 'यह सुन्दर है' जो कि इस प्रकार का संकल्प रखते हुए मुझे संयम से च्युत नहीं करता है, किन्तु यह तो मेरे ही पूर्वकर्मों का फल है।" यह सुनकर राजा सन्तुष्ट हुआ। उसने सोचा-भगवान् के ज्ञान का कोई विषय नहीं है, ऐसा नहीं है । अतः भगवान् से माता और पिता १. खमेसु-ख, २. धंसेइ-ख । | Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ तायस्स अज्जियाए य गइविसेसं ति । पुच्छिओ भयवं, साहिओ य भयवया पिट्ठकुक्कुडवहनिमित्तो मऊराइलक्खणो जयावलीगब्भसमप्पत्तिपज्जावसाणो त्ति। राइणा चितियं-अहो जगुच्छणीयया संसारस्स, अहो अणवत्थियसिणेहया' इत्थियाणं, अहो गरुयया' मोहस्स, अहो दारुणविवागया अकज्जायरणाणं, जमिह देवयानिमित्तं पिट्ठमयकुक्कुडवहो वि एवं परिणओ त्ति । हा अहयं किं काहं निरत्ययं जेण जियसया बहुया। वावाइया फुरंता अन्नाणमलावलित्तेण ॥४२०॥ ता नणं गंतव्वं निरयं कंडुज्जुएण' पंथेण ।। नत्थि हु एत्थ उवाओ अहवा पुच्छामि भयवंतं ॥४२१॥ एत्थंतरम्मि मुणियरिंदाहिप्पाएणं भणियं सुदत्तमुणिवरेण-महाराय, अत्थि उवाओ। सो उण तिगरगविसुद्धा जिणधम्मपडिवत्ती। सापुण पुव्वदुक्कडेसु अच्चतमणुयावो, जिणवयणजलेण चित्तरयगसोहणं, समारंभचाएण चारित्तपडिवत्तो, मेत्तीपमोयकारुण्णमझत्थयाणं च जीवगुणाअतो पच्छामि भगवन्तं तातस्यायिकायांश्च गतिविशेषमिति । पृष्टो भगवान् । कथितश्च भगवता पिष्ट कुर्कुटवघनिमित्तो मयूरादिलक्षणो जयावलीगर्भसमुत्पत्तिपर्यवसान इति । राज्ञा चिन्तितमअहो जुगुप्सनोयता संसारस्य, अहो अनवस्थितस्नेहता स्त्रीणाम्, अहो गुरुकता मोहस्य, अहो दारुण विपाकताऽकार्याचरणानाम्, यदिह देवतानिमित्तं पिष्टमयकुकुंटवधोऽपि एवं परिणत इति । हा अहं किं करिष्यामि निरर्थकं येन जीवशतानि बहुकानि । व्यापादितानि स्फुरन्ति अज्ञानमलावलिप्तेन ॥४२०।। ततो नूनं गन्तव्यं निरयं काण्डर्जु केन पथा। नास्ति खल्वत्रोपायोऽथवा पृच्छामि भगवन्तम् ।।४२१॥ अत्रान्तरे ज्ञातनरेन्द्राभिप्रायेण भणितं सुदत्तमुनिवरेण---महाराज ! अस्त्युपायः । स पुनस्त्रिकरणविशुद्धा, जिनधर्मप्रतिपत्तिः। सा पुनः पूर्वदुष्कृतेषु अत्यन्तमनुतापः, जिनवचनजलेन चित्तरत्नशोधनम्, सर्वारम्मत्यागेन चारित्रप्रतिपत्तिः, मैत्रीप्रमोदकारुण्यमाध्यस्थानां च जीव-गणाधिककी गतिविशेष को पूछता हूँ। भगवान् से पूछा । भगवान् ने आटे के मुर्गे का वध करने के कारण मोर से लेकर जयावली के गर्भ से उत्पत्तिपर्यन्त कथा कही। राजा ने सोचा-'ओह ! संसार घृणित है, स्त्रियों का स्नेन्द्र चंचल है, मोह अत्यधिक बलवान् है, अकार्य के आचरण का फल भयंकर होता है जो कि देवर मर्गे का वध करने पर भी ऐसा फल प्राप्त हुआ! हाय ! मैं क्या करूँ, जिसने कि व्यर्थ ही अज्ञानरूपी मल से लिप्त होकर बहुत से सैकड़ों जीवों को मारा । इसके कारण मैं निश्चित रूप में काण्डणुक नामक पथ से नरक में जाऊँगा । अब कोई उपाय नहीं है, अथवा भगवान् से पूछता हूँ' ॥४२०-४२१॥ इसी बीच राजा के अभिप्राय को जानकर सुदत्त मुनिवर ने कहा-"महाराज ! उपाय है । वह उपाय मन, वचन, काय से शुद्ध होकर जैनधर्म को प्राप्त करना है और वह जैनधर्म की प्रतिपत्ति पहले किये हुए पापों का अत्यधिक पश्चात्ताप, जिनवचन रूपी जल से चित्त रूपी रत्न का शोधन, समस्त आरम्भ का त्यागकर चारित्र की प्राप्ति, गुणों में अधिक जीवों के प्रति मैत्री, दीन-दुःखियों के प्रति करुणा तथा अविनीत लोगों के प्रति माध्यस्थ १. अणवट्ठिय - ख, २. गुरुयया-ख, ३, कंदुज्जएण-ग, ४. " कारुण " -क । Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पसत्यो भवो] हियकिलिस्समाणाविणीएसु भावणा । पडिवन्नचरणभावणा य पाणिणो तप्पभिइमेव' अप्पमायाइसएण पवढमाणसंवेगा निरइयारसीलयाए खर्वेति पुव्वदुक्कडाइं पावकम्माइं, अभावओ निमित्तस्स न बंधेति नवाइं । तओ ते, देवाणुप्पिया, परमसुहसमेया सुहपरंपराए चेव खविऊण कम्मजालं पाति जाइजरामरणरोयसोयरहियं परमपयं ति । राणा भणियं-भयवं, जइ ताव तायअज्जियाणं एहमेत्तस्स वि दुक्कडस्स ईइसो विवाओ ता कहमहं महापावकम्मयारी विवागओ निरवाइएसु अ जिऊण तं कम्मविवागं सोग्गई लहामि त्ति ? भयवया भणियं - महाराय, सुण । नत्थि असझं नाम चरणपरिणामस्स। एसो खलु परमामयं पावविसपरिणईए, वज्ज कम्मपव्वयस्स, चितामणी समोहियाणं, कप्पपायवो सिद्धिसुहफलस्स। जहेव महाराय, विसलेसभोइणोति एत्थ पाणिणो अकयपडियारा पावेंति आवई, मुज्झंति हियाहिएस, न सेवंति माणुस्सयसुहाइं, परिच्चयंति जीवियं; तहेव एए पमाइगो जीवा काऊण पावकम्माई अकाऊण पडियारं पावंति तप्फलं जाइजरामरणरोयसोयं ति । कयडियारा उण परमामयसामक्लिश्य मान-विनोतेषु भावना । प्रतिपन्नच रणभावनाश्च प्राणिनः तत्प्रभत्येव अप्रमादातिशयेन प्रवर्धमानसंवेगा निरतिचारशीलतया क्षपयन्ति पूर्वदुष्कृतानि पापकर्माणि, अभावतो निमित्तस्य न वनन्ति नवानि । ततस्ते देवानुप्रिय ! परमसुखसमेता सुखपरम्परयैव क्षपयित्वा कर्मजालं प्राप्नुवन्ति जातिजरामरणरोगशोकरहितं परमपदमिति । राज्ञा भणितम्-भगवन्! यदि तावत् तातायिकानामेतावन्मात्रस्यापि दुष्कृतस्य ईदशो विपाकस्ततः कथमहं महापापकर्मकारी विपाकतो निरयादिकेष्वभुक्त्वा तं कर्मविपाकं सुगति लभे इति ? भगवता वता भणितम-महाराज ! शृण । नास्ति असाध्यं नाम चरणपरिणामस्य । एष खल परमामतं पापविषपरिणत्याः वज्रं कर्मपर्वतस्य, चिन्तामणि: समीहितानाम्, कल्पपादपः सिद्धिसुखफलस्य । यथैव महाराज ! विषलेशभोजिनोऽपि अत्र प्राणिनोऽकृतप्रतीकारा: प्राप्नुवन्त्यापदम, मुह्यन्ति हिताहितेषु, न सेवन्ते मानुष्य कसुखानि, परित्यजन्ति जीवितम्, तथैव एते प्रमादिनो जीवा कृत्वा पापकर्माणि अकृत्वा प्रतीकारं, प्राप्नुवन्ति तत्फलं जातिजरामरण रोगशोकमिति । कृतका भाव रखना, चारित्र और भावनाओं से युक्त प्राणियों के पहले किये हुए दुष्कर्म अथवा पापकर्म, उसी समय से प्रमाद की अधिकता न रखना, संसार से भयभीत होना और अतिचार रहित शील का पालन कर हो जाते हैं और कारण के अभाव में नवीन कर्मों का बन्ध नहीं होता है । अत: हे देवानुप्रिय ! वे लोग परमसुख से युक्त होकर सुख की परम्परा से ही कर्मसमूह का नाशकर जन्म, जरा, मरण, रोग और शोक से रहित परमपद को पाते हैं।" राजा ने कहा--"भगवन् ! यदि पिता जी और माता जी के इतने ही दुष्कर्म का ऐसा परिणाम हुआ तो कैसे महान पापकर्म के फल से नरकादि में उस कर्म के फल को न भोगकर मैं सद्गति प्राप्त करूँगा ?" भगवान् ने कहा -"महाराज ! सुनो-चारित्र रूप परिणामों को धारण करने वाले जीव के लिए कुछ भी असाध्य नहीं है। यह चारित्ररूप भाव पापरूप विष की परिणति के लिए परम अमत है. कर्मरूपी पर्वतों के लिए वज्र है. इष्टकार्य की इच्छा करने वालों के लिए चिन्तामणि है और सिद्धि रूपी सुखफल के लिए कल्पवृक्ष है । जैसेमहाराज ! विष का लेश मात्र भी सेवन करने वाले प्राणी यहाँ पर प्रतीकार न कर आपत्ति को प्राप्त करते हैं, हिताहितों में मोहित होते हैं, मनुष्य जन्म के सुख का सेवन करते हैं, प्राणों को त्याग देते हैं, उसी प्रकार ये प्रमादी १. तयप्पभिइ"-क, २. पवट्ठमाण -ख, ग। Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१५ समराइज्यका स्थाओ निज्जिणंति कालकडं पि महाविसं, किमंग पुण विसलेसं ति; एवं च अणाइभवभावणाओ जीवा काऊ पावकम्मं सेविऊण तस्स पडिवक्खभूयं महाचरणपरिणामं निज्जिणंति अणेयभवजणयं पिपावकम्मं, किमंग पुण एगभवियं ति । एयं सोऊण हरिसिओ राया, भणियं च णेण । भयवं, अह कोइसो पुण एस चरणपरिणामी ति बुच्चइ ? भयवया भणियं -- सम्मन्नाणपुव्वयं तिव्वरुईए दोसनिवत्तणं ति । भणियं चजाणइ उप्पन्नरुई जइ ता दोसा नियत्तई सम्मं । इरा अपवित्तीय वि अणियत्ती चेव भावेणं ॥ ४२२ ॥ एसो अणुहवसिद्धो कम्मविगमहेऊ । राइणा चितियं - भयवं तमणुसेवंताणं न दुल्लहं सम्मन्नाणं समुप्पन्नसम्मन्नाणाण व संभवइ तिव्वरुई, तओ य सायत्तं दोसनियत्तणं । ता धन्नो अहं, जस्स मे भयवया' दंसणं जायं ति । न अप्पपुण्णा महानिहि पेच्छति । ता अलमन्नेण, भयवओ चेव आणणु चिट्ठामि त्ति चितिऊण भणियं च णेण - भयवं, उचिओ अहं सामण्णपडिवत्तीए ? भयवया प्रतीकाराः पुनः परमामृतसामर्थ्याद् निर्जयन्ति कालकूटमपि महाविषम्; मिङ्ग पुनर्विषलेशमिति एवं चानादिभवभावनातो जीवाः कृत्वा पापकर्म सेवित्वा तस्य प्रतिपक्षभूतं महाचरणपरिणाम निर्जयन्ति अनेकभवजनकमपि पापकर्म, किमङ्ग पुनरेकभविकमिति । एतत् श्रुत्वा हर्षितो राजा, भणितं च तेन - भगवन्! अथ कीदृशः पुनरेष चरणपरिणाम इत्युच्यते ? भगवता भणितम् सम्यग्ज्ञानपूर्वकं तीव्ररुच्या दोषनिवर्तनमिति । भणितं च जानात्युत्पन्न रुचिर्यदि ततो दोषान्निवर्तते सम्यक् । इतरधाऽप्रवृत्तिश्च । पि अनिवृत्तिश्चैव भावेन ॥ ४२२॥ एषोऽनुभवसिद्धः कर्मविगमहेतुः । राज्ञा चिन्तितम् - भगवन्तमनुसेवमानानां न दुर्लभं सम्यग्ज्ञानम्, समुत्पन्नसम्यग्ज्ञानानां च असंभवति तीव्ररुचिः, ततश्च स्वायत्तं दोषनिवर्तनम् । ततो धन्योऽहम्, यस्य मे भगवता दर्शनं जातमिति । न अल्पपुण्या महानिधि प्रेक्षन्ते । ततोऽलमन्येन, भगवत एवाज्ञामनुतिष्ठामीति चिन्तयित्वा भणितं च तेन - भगवन् ! उचितोऽहं श्रामण्यप्रतिपत्त्या ? जीव पापकर्मों को कर उनका प्रतिकार न कर उसके फल ( रूप में) जन्म, जरा, मरण, रोग, शोक को प्राप्त करते हैं । जो प्रतिकार करते हैं वे परमामृत की सामर्थ्य से कालकूट नामक महाविष को भी जीतते हैं, लेशमात्र विष की तो बात ही क्या है ? इस प्रकार अनादिकालीन जन्मों की भावनाओं से जीव पापकर्म कर उसके विरोधी महान् चारित्र रूप परिणाम का सेवन कर अनेक भवों के जनक पापकर्म पर भी विजय प्राप्त कर लेते हैं, एक भव की तो बात ही क्या है ?" यह सुनकर राजा हर्षित हुआ और उसने कहा - " तीव्र रुचि से सम्यग्ज्ञानपूर्वक दोषों को दूर करना चारित्र रूप परिणाम है । कहा भी है जिसे रुचि उत्पन्न हुई है वह यदि सम्यक्रूप से जानता है तो दोषों से मुक्त हो जाता है । भावपूर्वक यदि निवृत्त नहीं होता है तो विपरीत भी प्रवृत्ति होती है ॥ ४२२ ॥ कर्म के नाश का यह कारण अनुभवसिद्ध है । राजा ने सोचा- 'भगवान् की सेवा करने वालों के लिए सम्यग्ज्ञान दुर्लभ नहीं है । जिन्हें सम्यग्ज्ञान उत्पन्न हो गया है, उनकी रुचि तीव्र होती है, उससे स्वयमेव दोष दूर होते हैं । मैं धन्य हूँ, जिसे भगवान् के दर्शन हुए। अल्प पुण्य वाले प्राणी महानिधि को नहीं देखते हैं । अतः दूसरे से कोई प्रयोजन नहीं है, भगवान की आज्ञा का पालन ही करता हूँ' - ऐसा सोचकर उसने कहा - "भगवन् ! १. एवं क, २. भयवया सह - ख । Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घउत्यो भयो] भणियं-महाराय, को अन्नो उचिओ ति? तओ संजायहरिसेण भणियं राइणा-अरे निवेएह मइसायरप्पमुहाणं अज्ज मंतोणं । जहा कायव्वो देवाणुप्पिएहि अभयरुइणो रज्जाभिसेओत्ति' न कायन्वो य मम संतिओ खेओ; पवज्जामि अहं भयवया सुरासुरनमिएण भुवणगुरुणा पणीयं समलिगं । जं देवो आणवेइ ति जंपिऊण गया निओगकारिणो । निवेइयं तेहिं मंतिजणवयाणं सुओ एस वुत्तंतो अंतेउरेण । तओ नेहभयसंभमेणं परिच्चइय असमाणियं आलेक्खगंधवाइ हाहारवसणाहं पयट्टमंतेउरं । अहं पि तेहितो चेव एवं वइयरमायण्णिऊण अभयमईए समेओत्ति । चलणपरिसक्कणेव पत्ता य णे नरवइसमीवं । दिट्ठो मुगिदपायमले संवेगमुवगओ राया रायपत्तीहि, किह मेइणितलासणत्थो विच्छड्डियछत्तचामराडोवो। कि होज्ज न होज्ज त्ति व सवियक्कं नरवई एसो ॥४२३॥ भगवता भणितम्-महाराज ! कोऽअन्य उचित इति ? । ततः सञ्जातहर्षेण भणितं राज्ञा-अरे निवेदयत मतिसागरप्रमुखाणामद्य मन्त्रिणाम् । यथा कर्तव्यो देवानुप्रियैरभयरुचे राज्याभिषेक इति, न कर्तव्यो मम सत्कः खेदः । प्रपद्येऽहं भगवता सुरासुरनतेन भुवनगुरुणा प्रणीतं श्रमणलिङ्गम् । यद् देव आज्ञापयति' इति जल्पित्वा गता नियोगकारिणः । निवेदितं तैर्मन्त्रिजनपदानाम् । श्रुत एष वृत्तान्तोऽन्तःपुरेण । ततः स्नेहमयसम्भ्रमेण परित्यज्यासमाप्तमालेख्यगान्धर्वादि हाहारवसनाथं प्रवृत्तमन्तःपुरम् । अहमपि तेभ्य एव एतं व्यतिकरमाकभियमत्या समेत इति । चरणपरिष्वष्कनेनैव (पादविहारेणैव) प्राप्ताश्च वयं नरपतिसमीपम् । दृष्टो मुनीन्द्रपादमूले संवेगमुपगतो राजा राजपत्नीभिः । कथम् ? मेदिनीतलासनस्थो विच्छदितछत्रचामराटोपः । किं भवेद् न भवेदिति वा सवितकं नरपतिरेषः ॥४२३॥ क्या मैं श्रामण्य (मुनिधर्म) की प्राप्ति के योग्य हूँ ?" भगवान् ने कहा--"महाराज ! दूसरा कौन योग्य है ?" तब जिसे हर्ष उत्पन्न हुआ है, ऐसे राजा ने कहा - "अरे मतिसागर आदि प्रमुख श्रेष्ठ मन्त्रियों से निवेदन करो कि देवानुप्रियों द्वारा अभयरुचि का राज्याभिषेक किया जाना चाहिए । और मेरे विषय में खेद मत करो। सुर और असुरों के द्वारा जिन्हें प्रणाम किया गया है और तीनों लोकों के जो गुरु हैं, ऐसे भगवान् के द्वारा प्रणीत श्रमणवेश को मैं धारण करता हूँ।" "जो महाराज आज्ञा दें" --ऐसा कहकर आज्ञापालन करने वाले (नियोगकारी) गये। उन्होंने मन्त्री और देशवासियों से निवेदन किया । इस वृत्तान्त को अन्तःपुर ने सुना । अनन्तर अन्तःपुर स्नेह, भय और घबडाहट के कारण बीच में ही चित्र और संगीत आदि को छोड़कर 'हा-हा' शब्द के साथ चल पड़ा। मैं भी इन्हीं से इस घटना को सुनकर अभयमति के साथ गया । पैदल चलकर ही हम लोग राजा के पास पहुंचे। मुनिश्रेष्ठ के चरणों में विरक्ति को प्राप्त हुए राजा को महारानियों ने देखा । कैसे ? (यह राजा) "क्या होना चाहिए और क्या नहीं होना चाहिए"-इस प्रकार वितर्क करते हुए पृथ्वीतल पर बैठे थे। उन्होंने छत्र और चमर के आडम्बर का त्याग कर दिया था ॥४२३॥ १. रायाभिसेओ-क-ग। Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० तो ताहि सपणामं समयं पक्बुभियभूसणरवणं । trafaraaरत्थो जयसद्दो से समुग्धट्टो ||४२४॥ तेण वि वेरग्गरसा अगायर विइष्ण मंथरच्छेन । उल्लोलत सिणेहं ईसि समोणामियं वयणं ॥ ४२५॥ एवं च संभासिएण सव्वंतेउरजणेण पायवडिएण विन्नत्तो नरवई । खयदाढो व्व भुयंगो कि एवं वारिनियलितगओ व । सोहो व पंजरत्थो भायति पन्भट्ठरजो व्व ॥ ४२६॥ तओ एवं विन्नत्तेण राइणा साहियं निरवसेस मुणिवयणाइयं ति । तं च णे सोऊण समुत्पन्नं जाइस्मरणं । तओ तस्संभ्रमेणे' निवडियाइ धरणिवट्टे । हा किमेयमवरं ति मन्नमाणीहि विरुइयं रायपत्तीहि । बाहजलसितगत्तं च णे उर्वारं मुच्छमुवगया अंबा । तओ लद्धाओ चेयणाओ, विउद्धार अम्हे, समासासिया अंबा, विन्नत्तो राया । ताय, अलं णे संसारकिलेसायासका रएहिं विसहि; अणुजाणाहि ततस्ताभिः सप्रणामं समकं प्रक्षुभितभूषणारवेण । अनिरूपिताक्षरार्थो जयशब्दस्तस्य समुद्धष्टः ॥ ४२४ ॥ तेनापि वैराग्यवशाद् अनादरवितीर्णमन्थराक्षेण । उल्लोलत्स्नेहमीषत् समवनामितं वदनम् ॥ ४२५।। एवं च सम्भाषितेन सर्वान्तःपुरजनेन पादपतितेन विज्ञप्तो नरपतिःक्षतदाढ इव भुजङ्गः किमेतत् वारिनिगडितगज इव । सिंह इव पञ्जरस्थो ध्यायसि प्रभ्रष्टराज्य इव ॥ ४२६ ॥ [समराइच्चकहा तत एवं विज्ञप्तेन राज्ञा कथितं निरवशेषं मुनिवचनादिकमिति । तच्चावयोः श्रुत्वा समुत्पन्नं जातिस्मरणम् । ततस्तत्सम्भ्रमेण निपतितौ धरणीपृष्ठे । 'हा किमेतदपरम्' इति मन्यमानाभिर्विरुदितं राजपत्नीभिः । बाष्पजल सिक्तगात्रं चावयोरुपरि मूर्छामुपगताऽम्बा । ततो लब्धाश्चेतनाः, विबद्धावावाम् समाश्वासिताऽम्बा, विज्ञप्तो राजा - तात! अलमावयोः संसारक्लेशायास अनन्तर महारानियों ने प्रणाम कर क्षोभित आभूषणों का शब्द करते हुए अक्षरों के अर्थ पर विचार न करते हुए, उनके जय शब्द की घोषणा की। राजा ने भी वैराग्यवश अनादर से मन्थर दृष्टि डालकर उमड़ते हुए कुछ स्नेह से मुँह नीचा कर लिया । ॥४२४-४२५।। इस प्रकार जय शब्द कहने के बाद जब समस्त अन्तःपुर के लोग पैरों में पड़ गये तो राजा ने निवेदन किया जिसकी दाढ़ें नष्ट हो गयी हैं, ऐसे साँप के समान, पानी में (कीचड़ में) जो फँस गया हो ऐसे हाथी के समान, पिंजड़े में जो बन्द हो ऐसे सिंह के समान तथा राज्य से च्युत हुए के समान इसका ( मेरा ) ध्यान करते हो ? ॥४२६ ॥ ऐसा निवेदन करने के बाद राजा ने मुनि के द्वारा कहा हुआ रामस्त वृत्तान्त कहा। उसे सुनकर हम दोनों को जातिस्मरण हो गया। तब घबड़ाहट से हम दोनों पृथ्वीतल पर गिर पड़े। 'हाय ! यह क्या हुआ ऐसा मानती हुई राजपत्नियाँ रो पड़ीं। जिसका मुँह आँसुओं के जल से सिच गया था, ऐसी माता हम लोगों के ऊपर मूर्च्छा को प्राप्त हो गयी । अनन्तर चेतना प्राप्त हुई, हम दोनों जाग्रत हो गये, माता को आश्वस्त किया । १. तस्स सं ं ं ंख, 2. उडिया अख Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पसायो भयो ३२१ ताव अम्हाणं पि सयलदुक्खविरेयणं समणत्तणं ति । राइणा भणियं-अहासुहं देवाणु प्पियाई, म पडिबंधं करेह । तओ विजयवम्मणो नियभाइणेयस्स दाऊण रज्जं काऊण अट्ठाहियामहामहिमं सयलंते उरपहाणजणसमेओ घेत्तूण अम्हे अभिणिक्खंतो राया। विन्नत्तो मए भयवं सुदत्तमुणिवरो। भयवं, करेहि' अणुग्गहं नयणावलीए धम्मकहाए; पावेउ भयवओ पभावेण एसा वि सयलदुक्ख चिगिच्छयं जिणपणीयं धम्म। भयवया भणियं-सोम, अविसओ खु एसा धम्मकहाए। संतप्पिओ इमीए अकज्जायरणापच्छासेवणाए कम्मवाही, बद्धं च तच्चपुढवीए परभवाउयं, अओ पावियल्वमवस्सं तीए नारगत्तणं, न पवज्जइ य एसा महामोहाओ जिणधम्मर रणं ति। तओ मए चितियं-अहो दारुणविवागया अकज्जायरणस्स, ईइसो एस संसारसहावो; ता कि करेमि त्ति? तओ अइसयनाणावलोयसूरेण भयवया भणियं-अलं ते इमिणा संसारविवद्धणेण तीए उरि अणुबंधेण । एयं चेव सयललोयदुलहं' कहंचि लद्धं पव्वजं करेहि त्ति । तओ गुरुगणाणुभावेणं पालियं समणत्तणं, कालमासे य सिद्धंतविहिणा सकराकविषयः, अनुजानीहि तावदावयोरपि सकलदुःखविरेचनं श्रमणत्वमिति । राज्ञा भणितमयथासुखं देवानुप्रियौ ! मा प्रतिबन्धं कुरुतम् । ततो विजयवर्मणो निजभागिनेयस्य दत्त्वा राज्य कृत्वाऽष्टाह्निकामहामहिमानं सकलान्तःपुरप्रधानजनसमेतो गृहीत्वाऽऽवामभिनिष्क्रान्तो राजा। विज्ञप्तो मया भगवान् सुदत्तमुनिवरः । भगवन् ! कुर्वनुग्रहं नयनावल्या धर्मकथया, प्राप्नोतु भगवतः प्रभावेण एषाऽपि सकलदुःखचिकित्सकं जिनप्रणीतं धर्मम् । भगवता भणितम्-सौम्य ! अविषयः खल्वेषा धर्मकथायाः । सन्तर्पितोऽनयाऽकार्याचरणापथ्यासेवनया कर्मव्याधिः, बद्धं च ततीयपथिव्याः परभवायुष्कम्, अतः प्राप्तव्यमवश्यं तया नारकत्वम्, न प्रपद्यते चैषा महामोहतो जिनधर्मरत्नमिति । ततो मया चिन्तितम्-अहो दारुणविपाकताऽकायचिरणस्य, ईदश एष संसारस्वभावः ततः किं करोमीति । ततोऽतिशयज्ञानावलोकसूरेण भगवता भणितम्-अलं तेऽनेन संसारविवर्धनेन तस्या उपर्यनबन्धेन । एतामेव सकललोकदुर्लभां कथञ्चिद् लब्धां प्रव्रज्यां कुर्विति । ततो गुरुगुणानुभवेन पालितं श्रमणत्वम् । कालमासे च सिद्धान्तविधिना कृत्वा कालमुपपन्नो सहस्राराभिधाने (और) राजा से निवेदन किया-"पिता जी! सांसारिक क्लेश और परिश्रम को करने वाले विषय हम लोगों के लिए व्यर्थ हैं, हम दोनों को भी समस्त दुःखों से छुड़ाने वाली जिनदीक्षा की आज्ञा दो।" राजा ने कहा-"आप दोनों को जो सुखकर हो, हम नहीं रोकते हैं।" तब विजयवर्मा नामक अपने बहनोई को राज्य देकर, आष्टाद्धिक महोत्सव कर, अन्तःपुर के समस्त प्रधान मनुष्यों के साथ हम दोनों को साथ लेकर राजा निकल पड़ा। मैंने भगवान सुदत्त मुनिवर से निवेदन किया-"भगवन् ! धर्मकथा के द्वारा नयनावली पर अनुग्रह करो, भगवान के प्रभाव से यह भी समस्त दुःखों के चिकित्सास्वरूप जिनोपदिष्ट धर्म को प्राप्त करे ।" भगवान ने कहा- "सौम्य ! यह धर्मकथा को ग्रहण नहीं कर सकती । इसने अकार्याचरण रूपी अपथ्य का सेवन कर कर्मरूपी व्याधि की तप्ति की और तीसरे नरक की परभव की आयु बांधी है । अतः यह अवश्य ही नरकगति को प्राप्त करेगी। महामोह के कारण यह जिन धर्मरूपी रत्न को प्राप्त नहीं हो सकती।" तब मैंने विचार किया-"ओह ! अकार्याचरण का फल' भयंकर होता है, इस संसार का स्वभाव ऐसा है, अतः क्या करूं ? अनन्तर अतिशय ज्ञानरूपी दर्शन के लिए सूर्य के समान भगवान् ने कहा-"संसार को बढ़ाने वाले उसके प्रति अशुभपरिणामों को मत करो। सारे संसार में दुर्लभ, किसी प्रकार प्राप्त हुई इस प्रवज्या को करो।" अनन्तर गुरु-गुणों के प्रभाव से मुनिधर्म का पालन किया। १. देवाणु प्पिया-ख, २. करेहि-क-ख, ३. करेह-क-ग, ४. धम्मकहा करणेण -ख, ५. ""सम्भावो-क, ६. सयल तियलोय"-क, ७. तओपावनिग्धायठाए य तो कम्मं (मि) जतो कायनों तो-ख, ८. गुरुणांणुहावेण -ख । Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ करेऊण कालमुववन्नाइं सहस्साराभिहाणे देवलोए। तत्थ वि उवभुंजिऊण सुराउयं चविऊण देवलोयाओ कोसलाए विसयम्मि साएए नयरे विणयंधरस्स रन्नो लच्छिमईए महादेवीए सुयत्ताए उववन्नो म्हि ! जाओ कालक्कमेणं । कयं च मे नामं जसोहरो ति। अभयमईजीवदेवो वि चविऊण वेवलोगाओ पाउलिपुत्ते नयरे ईसाणसेणस्स राइणो विजयाए महादेवीए कुच्छिसि धुयत्ताए समुववन्नो ति। जाया कालक्कमेणं । पइट्टावियं च से नामं विणयमइ ति। वढियाइं च अम्हे देहोवचएणं कलाकलावेण य पेसिया य मे सयंवरा ईसाणसेणेण विणयमई । सुयं च मए एयं। परितुट्टो हियएणं। पत्ता य सा महया चडयरेणं, बहुमन्निया ताएणं, आवासिया नयरवाहिं । कयं बद्धावणयं । गणाधिओ वारेऽजदियहो, समागओ मे मणोरहेहिं । निव्वत्तं ण्हवणयं । पयट्टो अहं महाविभूईए विणयमइं परिणेउ। वज्जतेहि विविहमंगलतरेहि नच्चंतेणं विलासिणिजणेणं पढ़तेहि मंगलपाढएहि गायंतेण अम्मयालोएणं धवलगयवरारूढो समेओ रायवंद्रहि' पुलोइज्जमाणो पासायमालातलगयाहिं पुरसुंदरीहिं पत्तो रायदेवलोके। तत्रापि उपभुज्य सुरायुष्कं च्युत्वा देवलोकात् कोशलाया विषये साकेते नगरे विनयंधरस्य राज्ञो लक्ष्मोवत्या महादेव्या सुततयोपपन्नोऽस्मि । जातः कालक्रमेण । कृतं च मे नाम यशोधर इति । अभयमतीजीवदेवोऽपि च्युत्वा देवलोकात् पाटलिपुत्रे नगरे ईशानसेनस्य राज्ञो विजयाया महादेव्या कुक्षौ दुहिततया समुपपन्न इति । जातो कालक्रमेण । प्रतिष्ठापितं च तस्या नाम विनयमतीति । वधितो चावां देहोपचयेन कलाकलापेन च । प्रेषिता च मे स्वयंवरा ईशानसेनेन विनयमती। श्रुतं च मयतत् । परितुष्टो हृदयेन । प्राप्ता सा महता चटकरेण (आडम्बरेण),, बहु मता तातेन, आवासिता नगरबहिः । कृतं वर्धापनकम् । गणितो (वारेज्जय-दे.) विवाहदिवसः समागतो मे मनोरथैः । निर्वृत्तं स्नपनकम् । प्रवृत्तोऽहं महाविभूत्या विनयमती परिणेतुम् । वाद्यमानविविधमङ्गलतून त्यतो विलासिनीजनेन पठद्भिर्मङ्गलपाठकैर्गीयताऽम्बालोकेन धवलगजवरारूढः समेतो राजवृन्द्रः प्रलोक्यमानः प्रासादमालातलगताभिः पुरसुन्दरीभिः प्राप्तो राजमार्गम् । अत्रान्तरे कालव्यतीत होने पर सैद्धान्तिक विधि से मरणकर सहस्रार नामक स्वर्ग में आया। वहां पर भी देवायु भोगकर, स्वर्गलोक से च्युत होकर कोशलदेश के साकेत (अयोध्या) नगर में विनयंधर राजा की लक्ष्मीवती नामक महादेवी के गर्भ में पुत्र के रूप में आया । कालक्रम से उत्पन्न हुआ। मेरा नाम यशोधर रखा गया। अभयमती का जीव, जो कि देव हुआ था, स्वर्ग से च्युत होकर पाटलिपुत्र नगर में ईशानसेन राजा की विजया महादेवी के गर्भ में पुत्री के रूप में आया । कालक्रम से वह उत्पन्न हुई। उसका नाम विनयमती रखा गया। हम दोनों शरीर और कलाओं से बढ़ने लगे । ईशानसेन ने स्वयंवर के लिए विनयमती को भेजा। मैंने यह बात सुनी। हृदय से सन्तुष्ट हुआ । वह बड़े समूह के साथ आयी । पिता ने उसका बहुत सम्मान किया। (उसे) नगर के बाहर ठहराया (और) बधाई महोत्सव किया। विवाह के दिन की गणना की, मेरे मनोरयों से विवाह का दिन आया। (मैने) स्नान किया । मैं बड़ी विभूति के साथ विनयमती का परिणय करने के लिए उद्यत हुआ। (उस समय) नाना प्रकार के मंगल बाजे बज रहे थे, वेश्याएं नाच रही थीं, पाठकगण मंगलपाठ पढ़ रहे थे, माताएं गा रही थीं, राजाओं के समूह के साथ मैं सफेद हाथी पर सवार हुमा था। महलों के नीचे आयी हुई नगर की स्त्रियां मुझे देख रही थीं। (इस प्रकार मैं) राजमार्ग पर आया। इसी बीच मेरी दायीं १.राइव "-क। Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोली भयो] मग्गं । एत्यंतरम्मि फुरियं मे दाहिणलोयणेणं, समुप्पन्नो हरिसविसेसो । चितियं मए- भवियव अओ वि अवरेणं महापमोएणं ति । एत्यंतरम्मि दिट्ठो मए गोयरपविट्ठो कल्लाणसेट्ठिभवणंगणे साहू। तं च मे दट्टण समुप्पन्नो संभमो । तओ अम्भत्थयाए साहुधम्मस्स विचित्तयाए कम्मपरिणईए अमोहवंसणयाए भयवओ समुप्पन्नं जाइस्सरणं । मुच्छिओ गइंदखंधे, निगडमाणो धारिओ पासवत्तिणा रामभद्दाभिहाणेण सयलहत्थारोहपहाणमयहरेणं'। 'हा किमेयं' ति विसण्णो' रामभद्दो । 'मा वायह'तिं वारिया तरियादी, उवसंता य खिप्पं । 'हा किमयं ति अविसादो वि दढं विसण्णचित्तो समागओ ताओ। 'पूगफलाइमयमइओ हविस्सइ त्ति सिंचाविओ'चंदणपाणिएणं । लद्धा भए चेयणा, उम्मिल्लियं लोयणजयं, कओ आसणपरिग्गही, विरत्तं संसारसायराओ चित्तं । भणियं च ताएण-'पुत्त, किमयं ति। मए भणियं-ताय, दारुणं संसारविलसियं । ताएण भणियं-पुत्त, को एत्थ अवसरो संसारस्स? मए भणियं-ताय, महंती खु एसा कहा, न संखेवओ कहिउं पारीयइ । ता एगमि देसे उविसउ ताओ, स्फुरितं मे दक्षिणलोचनेन, समुत्पन्नो हर्षविशेषः । चिन्ततं मया-भवितव्यमतोऽपि अपरेण महाप्रमोदेनेति। अत्रान्तरे दृष्टो मया गोचरप्रविष्टः कल्याणश्रेष्ठिभवनाङ्गणे साधुः । तं च मे दष्टवा समुत्पन्नो सम्भ्रमः । ततोऽभ्यस्ततया साधुधर्मस्य विचित्रतया कर्मपरिणत्या अमोघदर्शनतया भगवतः समुत्पन्न जातिस्मरणम् । मूर्छितो गजेन्द्रस्कन्धे, निपतन् धारितः पार्श्ववर्तिना रामभद्राभिधानेन सकलहस्त्यारोहप्रधाननायकेण । 'हा किमेतद्' इति विषण्णो रामभद्रः । 'मा दादयत' इति वारिता. स्तर्यादयः, उपशान्ताश्च क्षिप्रम् । 'हा किमेतद्' इति अविषाद्यपि दढं विषण्णचित्तः समागतस्तातः । पूगफलादिमदमदिको भविष्यतोति सिक्तश्चन्दनपानीयेन। लब्धा मया चेतना, उम्मिलितं लोचनयुगम, कृत आसनपरिग्रहः, विरक्तं संसारसागराच्चित्तम् । भणितं च तातेन–'पुत्र ! किमेतदं इति । मया भणितम्-तात ! दारुणं संसारविलसितम् । तातेन भणितम्-पुत्र! कोऽत्रावसरः संसारस्य । मया भणितम्-तात I महती खल्वेषा कथा, न संक्षेपतः कथयितुं पार्यते। आँख फडकने लगी, मुझे विशेष हर्ष हुआ। मैंने सोचा-'इससे भी अच्छी कोई दूसरी खुशी होनी चाहिए।' इसी बीच कल्याण सेठ के भवन के आँगन में गोचरी के लिए प्रविष्ट हुए साधु मुझे दिखाई दिये। उन्हें देखकर मुझे घबड़ाहट हुई । मनन्तर साधुधर्म का अभ्यास होने के कारण, कर्म की परिणति विचित्र होने से (तथा) भगवान के अमोघदर्शन से मुझे जातिस्मरण हो गया । मैं हाथी के कन्धे पर मूछित हो गया, गिरते हुए मुझे समीपबर्ती 'रामभद्र' नामक समस्त हस्ति सवारों के प्रधान नायक ने संभाल लिया। "हाय ! यह क्या"- इस प्रकार रामभद्र दुःखी हुआ। "मत बजाओ"-ऐसा कहकर (उसने) बाजों को रोक दिया, बाजे शीघ्र शान्त हो गये । 'हाय ! यह क्या ?' ऐसा कहकर अविषादी होने पर भी पिता जी अत्यधिक खिन्नचित्त हो गये । “सुपाड़ी आदि के मद का प्रभाव होगा"-ऐसा सोचकर चन्दन का पानी (मेरे ऊपर) सींचा । मुझे होश आया। मैंने नेत्र खोले, मासन ग्रहण किया (तथा) संसार-सागर से (मेरा) चित्त विरक्त हो गया। पिताजी ने कहा-"पुत्र ! क्या हना?" मैंने कहा-"पिता जी! संसार की चमकदमक भयंकर है।" पिताजी ने कहा-"पुत्र ! यहाँ पर संसार का क्या अवसर है ?" मैंने कहा-"पिता जी ! यह बहुत बड़ी कथा है, संक्षेप से नहीं कही जा १. “नरेणं-घ, २. विहाबो-क, ३. रसेणं-छ। Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ 1 समाइज्यका सद्दावे मे माइलोयं पहाणजणवयं च; जेण साहेमि तायरस संसारावसरकारणं ति । तओ रायमग्गासन्नाए महासहाए उवविठ्ठो राया सह मए । सद्दाविओ अम्मयाजणी पहाणजणवओ य, ठिओ उचियठाणे | भणियं च ताएण- पुत्त, किमेयं; साहेहि तं संसारविलसियं । मए भणियं - आयण्णलु ताओ, जहा मए अणुहू'ति । तओ पारद्धो कहेउ । ताय, निग्गुणो एस संसारो । मोहाभिभूया खु पाणिणो न नियंति एयस्स सरूवं, आलोचंति अणालोचियव्वाइं, पयट्टति अहिए, न पेच्छति आयहं । एत्थ खलु सुरासुरसाहारणा ताव एए जाइजरामरण रोय सोय पियविप्पओयाइया वियारा । दारुणो य विवाओ वस्स वि पमायचेद्वियस्स, जेण पिट्ठमयकुक्कुडवहो वि पेच्छ कहं परिणओत्ति ? भणिऊण साहिओ सुरिदत्त जम्माइओ जाइस्सरणपज्जवसाणो निययवृत्तंतो । तं च सोऊण : अहो दारुणविवागया अकऽजाय रणस्स' त्ति जपमाणो संवेगमुवगओ राया अंबाओ सेसजणवओ य । तओ मए भणियं - ताय, ईदिसं अकज्जायरणपरिणाम पेच्छिकण विरतं मे भवचारगाओ चित्तं वियंभिओ जिणवयणपडिवोहो । ता अणुजाणउ' ताओ, जेण तायप्पहावेणेव करेमि सफलं मणुयत्तणं ति । तओ तत एकस्मिन् देशे उपविशतु तातः, शब्दयतु मे मातलोकं प्रधानजनपदं च येन कथयामि तातस्य संसारावसरकारणमिति । ततो राजमार्गासन्नायां महासभायामुपविष्टो राजा सह मया । शब्दायितोऽम्बाजनः प्रधानजनपदरच स्थित उचितस्थानेषु । भणितं च तातेन - पुत्र ! किमेतत् कथय तत्संसारविलसितम् । मया भणितम् - आकर्णयतु तातः, यथा मयाग्नुभूतमिति । ततः प्रारब्धः कथयितुम् । तात | निर्गुण एष संसारः । मोहाभिभूताः खलु प्राणिनः, न पश्यन्ति एतस्य स्वरूपम् । 1 आलोचयन्ति अनालोचितव्यानि प्रवर्तन्तेऽहिते, न प्रक्षन्ते आयतिम् । अत्र खलु सुरासुरसाधारणास्तावदेते जातिजरामरण रोगशोकप्रिय विप्रयोगादयो विकाराः । दारुणश्च विपाकः स्तोकस्यापि प्रमादचेष्टितस्य येन पिष्टमयकुकुटवधोऽपि पश्य कथं परिणत इति भणित्वा कथितः सुरेन्द्रदत्तजन्मादिको जातिस्मरणपर्यवसानो निजवृत्तान्तः । तं च श्रुत्वा 'अहो दारुणविपाकता कार्याचरणस्य' इति जल्पत् संवेगमुपगतो राजा, अम्बाः शेषजनपदश्च । ततो मया भगितम् - तात ! ई दशम कार्याचरणपरिणामं प्रेक्षित्वा विरक्तं मे भवचारकाच्चित्तम्, विजृम्भितो जिनवचनप्रतिबोधः । ततोऽनुजानातु तातः येन तातप्रभावेणैव करोमि सफलं मनुजत्वमिति । ततोऽनादि सकती । अतः पिता जी, एक स्थान पर बैठ जाइए, मेरे प्रधान नागरिकों और माताओं को बुलाइए जिससे में पिताजी से संसार के अवसर का कारण कह सकूं।" अनन्तर राजमार्ग की समीपवर्ती महासभा में राजा मेरे साथ बैठा । माताओं और प्रधान नागरिकों को बुलवाया। ( सभी लोग ) योग्य 1 स्थानों पर बैठ गये । पिताजी ने कहा - 'पुत्र ! यह क्या है ? संसार के विलास के विषय में कहो ।" मैंने --- कहा- "जो मैंने अनुभव किया, उसे पिताजी सुनें ।" अनन्तर कहना प्रारम्भ किया - "पिताजी ! यह संसार निर्गुण है । मोह से अभिभूत प्राणी इसके स्वरूप को नहीं देखते हैं। अदर्शनीय वस्तु को देखते हैं, अहित में प्रवृत्त होते हैं, भावी फल को नहीं देखते हैं । इस संसार में जन्म, बुढ़ापा, मरण, रोग, शोक, प्रिय का वियोग आदि विकार सुर और असुरों के लिए साधारण हैं । थोड़ी-सी भी प्रसाद चेष्टा का परिणाम भयंकर होता है, जिससे आटे के मुर्गे का वध करने पर भी देखो क्या फल हुआ ?” – ऐसा कहकर सुरेन्द्रदत्त के जन्म से लेकर जातिस्मरण तक अपना वृत्तान्त कह सुनाया । उसे सुनकर - "ओह ! अकार्याचरण का फल भयंकर होता है" - ऐसा कहता हुआ राजा, माता जी और शेष नागरिक उद्विग्न हो गये। तब मैंने कहा - "पिता जी ! अकार्याचरण का इस प्रकार फल देखकर मेरा चित्त भवभ्रमण से विरक्त हो गया, जिनवचनों का ज्ञान बढ़ा । अतः पिताजी माझा दें जिससे पिताजी के प्रभाव से १. समणुभूयं - ख, २. परिकछेउ-ख ३. पमायविलसियस्स ख, ४. अणुजाचार - Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पानी भी १२॥ अणाइभवन्भत्थमोहदोसेण अवियारिऊणायइं जंपियं ताएण-पुत्त, को पुत्तयस्स पणयभंग करेइ, सफलं चेव भवउ मणुयत्तणं; ता परिणेहि ताप एवं ईसाणसेणधयं । तो करेज्जासि सम्मं पयापरिवालणेण महंतं पुण्णखंघं ति। मए भणियं-ताय, विन्नत्तं मए तायस्स, विरत्तं मे चित्तं भवचारगाओ। ता अलं मे दारपरिग्गहेण । ताएण भणियं-पुत्त, को विय दोसो दारपरिग्गहस्स? मए भणियं-ताय, दारपरिग्गहो हि नाम निरोसहो वाही, जेण आययणं मोहस्स, अवचओ धिईए, सु(स) हा विक्खेवस्स', पडिवक्खो संतीए', भवणं मयस्स, वेरिओ सुद्धज्झाणाणं, पहवो दुक्खसमुदयस्स, निहणं सुहाणं, आवासो महापावस्स। पडिवज्जिऊण एवं पज्जरगया विय सोहा समत्था वि परलोयसाहणे माणुसभावलंभे वि सीयंति पाणिणो। अन्नं च -ताय, न जुत्तं रयणचित्तेणं कंचणथालेण पुरीससोहणं । पुरीससोहणमेत्ता य एत्थ विसया, अचिचिंतामणिसन्निहं च जिणवयणवोहसंगयं माणुसत्तणं, कम्मभूमी य एसा, परमपदसाहणं च चरणाणुट्टाणं । ता अलमन्नहावियप्पिएण । अणुजाणाहि भवाभ्यस्तमोहदोषेण अविचार्यायति जल्पितं तातेन । पुत्र ! कः पुत्रस्य प्रणयभङ्ग करोति, सफलमेव भवतु मनुजत्वम्, ततः परिणय तावदेतामोशानसेनदुहितरम्। ततः कुर्याः सम्यक् प्रजापालनेन महान्तं पुण्यस्कन्धमिति । मया भणितम्-तात ! विज्ञप्तं मया तातस्य, विरक्तं मे चित्तं भवचारकात्। ततोऽलं मे दारपरिग्रहेण । तातेन भणितम्-पुत्र क इव दोषो दारपरिग्रहस्य ? मया भणितम्-तात ! दारपरिग्रहो हि नाम निरौषधो व्याधिः, येनायतनं मोहस्य, अपचयो धृत्याः सभा विक्षेपस्य, प्रतिपक्षः शान्तः, भवनं मदस्य पैरिकः शुद्धध्यानानाम्, प्रभवो दुःखसमुदयस्थ, निधनं सुखानाम्, आवासो महापापस्य । प्रतिपद्यतं पञ्जरगता इव सिंहो समर्था अपि परलोकसाधने मनुष्यभावलम्भेऽपि सीदन्ति प्राणिनः। अन्यच्च-तात ! न युक्तं रत्नचित्रेण काञ्चनस्थालेन पुरीषशोधनम् । पुरीषशोधनमात्राश्चात्र विषयाः अचिन्त्यचिन्तामणिसन्निभं च जिनवचनबोधसंगतं मानुषत्वं कर्मभूमिश्चैषा, परमपदसाधनं च चरणानुष्ठानम् । ततोऽलमन्यथा विकल्पितेन । अनुजानोहि मे सकलदुःखविकुटनीं प्रव्रज्यामिति । ततो वाष्पाही मनुष्य जन्म को सफल करूं।" अनन्तर अनादि संसार में अभ्यास किये हुए मोह के दोष से भावीफल का विचार किये बिना पिताजी ने कहा-"पुत्र ! पुत्र की प्रार्थना को कौन भंग करता है, मनुष्य-जन्म सफल ही हो, अतः इस ईशानसेन की पुत्री से विवाह करो । अनन्तर भली-भांति प्रजा का पालन कर महान् पुण्य का बन्ध करो।" मैंने कहा-"पिता जी ! मैंने आपसे निवेदन कर दिया है कि मेरा चित्त संसाररूपी कारागार से विरक्त हो गया है। अतः मेरा स्त्री का ग्रहण करना व्यर्थ है।" पिताजी ने कहा-"पुत्र ! स्त्री के ग्रहण करने में क्या दोष है ?" मैंने कहा-"पिता जी ! स्त्री का परिग्रह रखना बिना औषधि का रोग है, यह मोह का आयतन (निवास) है, धैर्य का ह्रास है, भय की सभा है, शान्ति का विरोधी है, मद का भवन है, शुद्धध्यान का शत्रु है, दुःखों के समूह का उद्गमस्थल है, सुखों का अन्त है तथा महापाप का निवास है । स्त्री को प्राप्त कर पिंजड़े में बन्द सिंह के समान होते हुए प्राणी मनुष्य भव पाने पर भी दुःखी परलोक का साधन करने में असमर्थ रहते हैं। दूसरी बात यह भी है पिता जी कि 'रत्न से चित्रित सोने के थाल में मल का शोधन करना उचित नहीं है।" इस संसार में विषय मल का शोधन करने के समान है । जिनवचन रूपी ज्ञान से युक्त यह कर्मभूमि मनुष्यभव के लिए अचिन्त्य चिन्तामणि के समान है, चारित्र का पालन मोक्ष का साधन है । अतः विपरीत ढंग से सोचना व्यर्थ है। १. विक्खोवस्स-क, 2. खंतीए-ख, ३. वियप्पेण-क-ग। Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सम दुखविण पव्वज्जं ति । तओ बाहोल्ललोयणेणं जंपियं ताएण । पुस्त, एवमेयं, कि तु परमत्थं पि जंयमाणो नेहकायरं पोडेसि मे हिययं ति । मए भणियं - ताय, अलं मे अपरमत्यपेच्छिणा नेहेण । एसो चेव एत्थ पहाणं संसारकारणं, जेण - दीवो व्व सव्वलोगो खणे खणे जायए विणस्सइ य । संसरइ य नेहवसा निरवायाणो उ उल्हाइ ॥४२७॥ ३२६ ताएण भणियं - एवमेयं, कि खिज्जिहिइ सा तवस्सिणी ईसासेणधूय त्ति । मए भणियं - ताय, I थेवमेयं कारणं । अन्नं च - निवेयावेउ ताओ तीए वि य एयं वृत्तंतं । कयाइ सा वि एयं सोऊण पडिवोहं पावइति ॥ तओ ताएण 'जुत्तमेयं' ति भणिऊण पेसिओ संखबद्धणाभिहाणो पुरोहिओ, भणिओ यता । जहासुयं निवेएहि रायदुहियाए, भणाहि य तं 'एवं ठिए कि अम्हेहि कायव्वं' ति ? गओ संखवद्वणो । आगओ थेववेलाए, भणियं च णेण - महाराय संसिद्धा' मणोरहा कुमारस्स; सुणेउ महाराओ । गओ अहं इओ रायधूयासमीवं, पवेसिओ सबहुमाणं पडिहारेण; 'महारायपुरोहिओ' त्ति लोचनेन जल्पितं तातेन । पुत्र ! एवमेतत्, किन्तु परमार्थमपि जल्पन् स्नेहकातरं पीडयसि मे हृदयमिति । मया भणितम् - अलं मे अपरमार्थप्रेक्षिणा स्नेहेन । एष एवात्र प्रधानं संसारकारणम् । येन दीप इव सर्वलोकः क्षण-क्षणे जायते विनश्यति च । संसरति च स्नेहवशाद् निरुपादानस्तु विध्याति ॥ ४२७ ॥ तातेन भणितम् - एवमेतद्, किन्तु खेत्स्यति ( खेदं गमिष्यति ) सा तपस्विनो ईशानसेनदुतितेति । मया भगितत्-तात ! स्तोकमेतत्कारणम् । अन्यच्च -- निवेश्यतु तातस्तस्यापि चैतं वृत्तान्तम् । कदाचित् ताऽपि एतं श्रुत्वा प्रतिबोधं प्राप्नोतीति । ततस्तातेन 'युक्तमेतद्' इति भणित्वा प्रेषितः, शङ्कवर्धनाभिधानो पुरोहितः, भणितश्च तातेन । यथाश्र ुतं निवेदय राजदुहितुः, भण च ताम्, 'एवं स्थिते किमस्माभिः कर्तव्यमिति ? गतः शङ्खवर्धनः । आगतः स्तोकवेलायाम्, भणितं च तेनमहाराज ! संसिद्धा मनोरथा कुमारस्य, वणोतु महाराजः । गतोऽहमितो राजदुहितृसमीपम्, समस्त दुःखों को नाश करने कहा - "पुत्र ! ठीक है, किन्तु मैंने कहा - "यथार्थ को न जिससे सारा संसार दीपक के समान क्षण-क्षण पर उत्पन्न होता है और विनाश को प्राप्त होता है । स्नेह के वश इस संसार में भ्रमण करता है और उपादान के अभाव में बुझ जाता है ||४२७॥ वाली दीक्षा की अनुमति दीजिए ।" तब आंसुओं से गीले नेत्र वाले पिता ने यथार्थ बात कहते हुए भी स्नेह से दुःखी मेरे हृदय को पीड़ा पहुँचा रहे हो ।" जानने वाले स्नेह से बस करो। यही यहाँ पर संसार का प्रधान कारण है । पिताजी ने कहा - "ठीक है, किन्तु वह बेचारी ईशानसेन की पुत्री खिन्न होगी।" मैंने कहा "पिता जी ! यह तो बहुत छोटा-सा कारण है । दूसरी बात यह है कि पिता जी, बाप उसे भी यह वृत्तान्त निवेदन करें। कदाचित् वह भी इसे सुनकर प्रतिबोध को प्राप्त हो ।" अनन्तर पिताजी मे "यह ठीक है" ऐसा कहकर शंखवर्धन नामक पुरोहित को भेजा। पिताजी ने कहा- "जैसा कि सुना है वह सब राजपुत्री से निवेदन करो और उससे कहो - ऐसी स्थिति में हम लोगों को क्या करना चाहिए ?" शंखवर्धन चला गया। थोड़ी देर में आया और उसने कहा- "महाराज ! कुमार का मनोरथ सफल हो गया, महाराज सुनें - मैं यहाँ से राजपुत्री १, संपन्ना । Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यो भयो ] ३२७ अहिदिओ रायधूयाए, बवावियं आसणं, उवविट्ठो अहह्यं । तओ मए भणियं - रायपुत्ति, अस्थि किंचि वत्तव्वं ति । तीए भणियं भणाउ अज्जो । मए भणियं - रायपुत्ति, देवसासणमिणं अवहियाए सोपव्वं ति तओ ती काऊण अंगुट्ठि ओयरिऊण आसणाओ 'जं गुरू आणवेइ' त्ति बद्धो अंजली। तओ मए भणियं -रायपुत्ति, इह आगच्छमाणस्स कुमारस्स साहुदंसणेणं समुप्पन्नं जाइस्सरणं, संभरिया य नव भवा सिद्धाय तेणं । ते सुणाउ भोई । अत्थि इहेव वासे विसाला नाम नयरी, तत्थ अमरदत्तो नाम नरवई हत्था, इओ य अतीयनवमभवस्मि तस्स पुत्तो सुरिददत्तो नाम अहमासि त्ति, जणणी मे जसोहरा, भज्जा यनयणावलिति । जाव एत्तियं जंपामि ताव मोहं गया रायधूया । आउलीहूओ परियणो; 'हा किमेयं' ति विसण्णो य अहयं । परिसित्ता चंदणपाणिएणं, लद्धा तीए चेयणा । मए भणियं - रायपुत्ति, किमेयं' ति ? तीए भणियं - 'विचित्तया संसारस्स' । मए भणियं - 'कहं विचित्तया' ? तोए भणियं-जओ सच्चेव अहं जसोहरा तस्स माया अईयपरियाए त्ति साहिऊण सिद्ध कुमारसाहियं निययचरियं । तओ मए भणियं - रायपुत्ति, इमिणा वइयरेण विरत्तं चित्तं भवचारगाओ कुमारस्स, इच्छइ खु सो प्रवेशित: सबहुमानं प्रतीहारेण, 'महाराजपुरोहितः' इत्यभिनन्दितो राजदुहित्रा, दापितमासनम् - उपविष्टोऽहम् । ततो मया भणितम् - राजपुत्रि ! अस्ति किञ्चिद् वक्तव्यमिति । तथा भणितम् - भणत्वार्यः । मया भणिनम् - राजपुत्रि ! देवशासनमिदमवहितया श्रोतव्यमिति । ततस्तया कृत्वा - saगुण्ठनमवतीर्यासनाद् 'यद् गुरुराज्ञापयति' इति बद्धोऽञ्जलिः ! ततो मया भणितम् - - राजपुत्रि ! इहागच्छतः कुमारस्य साधुदर्शनेन समुत्पन्नं जातिस्मरणम्, संस्मृताश्च नव भवाः, शिष्टाच तेन । तान् शृणोतु भवती । अस्ति इहैव वर्षे विशाला नाम नगरी । तत्रामरदत्तो नाम नरपतिरभवत् । इतश्चातीतनवमभवे तस्य पुत्रः सुरेन्द्रदत्तो नाम अहमासमिति । जननी मे यशोधरा । भार्यां च नयनावलिरिति । यावदेतावज्जल्पामि तावन्मोहं गता राजदुहिता । आकुलीभृतः परिजनः । 'हा 'किमेतद्' इति विषण्णश्चाहम् । परिपिक्ता चन्दनपानीयेन लब्धा तया चेतना । मया भणितम् - 'राजपुत्रि ! किमेतद्' इति । तया भणितम् - विचित्रता संसारस्य । मया भणितम - कथं विचित्रता ?' तया भणितम् - यतः सैवाहं यशोधरा तस्य मातातीतपर्याये इति कथयित्वा शिष्टं कुमारकथितं निजकचरितम् । ततो मया भणितम् - राजपुत्रि ! अनेन व्यतिकरेण विरक्तं चित्तं भवचारकात् के पास गया, द्वारपाल ने बहुत सम्मान के साथ प्रवेश कराया, 'महाराज के पुरोहित हैं - ऐसा सोचकर राजपुत्री ने अभिनन्दन किया, ( उसने) आसन दिलाया। मैं बैठ गया । तब मैंने कहा -- ' राजपुत्री ! कुछ कहना है ।' उसने कहा - "आर्य कहें। मैंने कहा - "राजपुत्री !” महाराज की आज्ञानुसार सावधान होकर यह सुनिए । तब उसने पर्दा कर आसन से उतरकर 'जो महाराज आज्ञा दें' कहकर अंजलि बाँध ली। अनन्तर मैंने कहा'राजपुत्री ! जब कुमार इधर आ रहे थे तो साधु के दर्शन से उन्हें जातिस्मरण हो गया। नौ भवों का स्मरण हो आया, कुमार ने उन्हें सुनाया। उन्हें आप सुनिए । इसी देश में विशाला नामक नगरी है। वहीं पर अमरदत्त नामक राजा हुआ। इससे पिछले नौवें भाव में मैं उनका पुत्र सुरेन्द्रदत्त था। मेरी माता यशोधरा थी, पत्नी नयनावली थी । जब यह कह रहा था, तभी राजपुत्री मूर्छित हो गयी। सेवक आकुल हो गये । 'हाय यह क्या है - इस प्रकार मैं खिन्न हो गया । उसके ऊपर चन्दन का जल सींचा गया, वह होश में आ गयी। मैंने कहा- 'राजपुत्री ! यह क्या है ?' उसने कहा - 'यह संसार की विचित्रता है ।' मैंने कहा - 'कैसी विचित्रता ?' उसने कहा - 'क्योंकि पूर्व में में उसकी माता यशोधर थी" - ऐसा कहकर कुमार के द्वारा कहे हुए अपने चरित्र को कहा । तब मैंने कहा - "राजपुत्री ! इस घटना के कारण कुमार का चित्त संसार रूपी कारागार से विरक्त है, वह वीक्षा Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० [समपराइचकहा पव्व । तओ महाराएण भणियं - 'ता एवं ठिए कि अम्हेहि कायव्वं' ति ? तीए भणियं - विन्नवेहि' महारा । जहा ताय, ईइसो चेव एस संसारसहावो; कस्स वा सयण्णविन्नागरस न विरागं करेइ ? ता अलमेत्थ सुमिणयमेत्तविभमे पंडिबंधेण, संपाडेहि कुमारस्य समाहियं; अणुजाणाहिय मपि पव्वज्जं, जओ ममपि विरतं चैव चित्तं भवचारगाओ ति । एवं च सोऊण 'अहो माइंदजालसरिसया जीवलोयस्स' त्ति भगिऊण परं संवेगमुवगओ राया । भणियं च तेण पुत्त, न तुमं मम ' पुत्तो, अवि य धम्मनिउज्जणाओ गुरू । ता अलं अम्हाणं पि इमिणा परिकिले सेण; अहं पि पवज्जामि तुम चैव सह पव्वज्जं | अंबाहों भणियं - अज्जउत्त, जुत्तमेयं; किमेत्थ नडपेडगोवमे असासम्म जीवलोए पsिबंधेण । तओ मए भणिए-अहासुहं देवाणुप्पिया' ! मा पडिबंधं करेह । तओ ताएण दवावियं महादाणं, काराविया सव्वाययणेसु पूया, सम्माणिओ रायसत्यो ठावियो रज्जम्मि खुडुभाया मे जसaaणाभिहाणो । पव्वइओ ताओ समं मए अंबाए विजयमईए पहाणजणबएण य सुगिहीयनामधेयस्स 1 कुमारस्य, इच्छति खलु स प्रव्रजितुम् । ततो महाराजेन भणितम् - तत एवं स्थिते किमस्माभिः कर्तव्यमिति । तया भणितम् - विज्ञपय महाराजम् । यथा तात ! ईदृश एव एष संसारस्वभाव:, कस्य वा सकर्णविज्ञानस्य न विरागं करोति । ततोऽलमंत्र स्वप्नमात्रविभ्रमे प्रतिबन्धेन, सम्पादय कुमारस्य समीहितम्, अनुजानीहि च ममापि प्रव्रज्याम्, यतो ममापि विरक्तमेव चित्तं भवचारकादिति एतच्च श्रुत्वा 'अहो ! मृगेन्द्रजालसदृशता जीवलोकस्य' इति भणित्वा परं संवेगमुपगतो राजा । भणितं तेन - पुत्र ! न त्वं मम पुत्रः, अपि च धर्मनियोजनाद् गुरुः । ततोऽलमम्माकमपि अनेन परिक्लेशेन, अमपि प्रपद्ये त्वयैव सह प्रव्रज्याम् | अम्बाभिर्भणितम् - आर्यपुत्र ! युक्तमेतद् किमत्र नटपेटको शाश्वते जीवलोके प्रतिबन्धेन । ततो मया भणितम् -- यथासुखं देवानुप्रिया ! मा प्रतिबन्धं कुरुत ! ततस्तातेन दापितं महादानम्, कारिता सर्वांयतनेषु पूजा, सम्मानितो राजसार्थः, स्थापितो राज्ये लघुभ्राता मे यशोवर्धनाभिधानः । प्रब्रजितस्तातः समं मयाम्बया विनयमत्या प्रधानजनपदेन च सुगृहीतनामधेयस्य भगवत इन्द्रभूतेः समीपे । तत एवं निजकमेव मे चरित्रं निर्वेद लेना चाहते हैं । तब महाराज ने कहा- "तो ऐसी स्थिति में हम लोगों को क्या करना चाहिए ।" राजपुत्री ने कहा - 'महाराज से निवेदन करो कि पिता जी ! इस संसार का स्वभाव ही ऐसा है, किस सुनने वाले को यह विरक्त नहीं करता है ? अतः स्वप्न के समान मात्र भ्रम से युक्त रुकावट से बस करो अर्थात् रोकना व्यर्थ है, कुमार के इष्टकार्य का सम्पादन करो। मुझे भी दीक्षा की अनुमति दो; क्योंकि मेरा भी मन संसार रूपी कारागार से विरक्त है ।' यह सुनकर - "ओह ! संसार सिंहजाल के सदृश है' – ऐसा गया। उसने कहा – “पुत्र ! तुम मेरे पुत्र नहीं हो, अपितु धर्म में लगाने के दुःख से कोई प्रयोजन नहीं है, में भी तुम्हारे साथ वीक्षा लेता हूँ ।" माताओं ने कहा- "आर्यपुत्र ! यह ठीक है, नट के पिटारे के समान अनित्य संसार में रुकने से क्या लाभ है ?" तब मैंने कहा - "हे देवानुप्रिय ! सुखपूर्वक अनुमति दो, रोको मत ।" अनन्तर पिताजी ने महादान दिलाया। सभी मन्दिरों में पूजा करायी, राजाओं के समूह का सम्मान किया । राज्य पर मेरे छोटे भाई यशोवर्धन को बैठाया । पिताजी ने मेरे माता विनयमती के और प्रधान देशवासियों के साथ भगवान् इन्द्रभूति के समीप दीक्षा ले ली । अतएव इस प्रकार मेरा ही अपना चरित्र - १. विन्नवेमि - ख, 2 मे - ख, ३. नियोजणाओ -- ख ४ पुष्पियाइ - ख ५. अंबाए अंतेउरेग ख ६ विजय मइस मेएणं - ख । कहकर राजा अत्यधिक विरक्त हो कारण गुरु हो । अतः हमें भी इस Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरत्यो भयो ] भगवओ इंदभूइस समीवे । ता एवं निययमेव मे चरियं निव्वेयकारणं ति । धणेण भणियं, भयवं - सोहणं ते निव्वेयकारणं । कस्स वा सहिययस्स अन्नस्स वि इमं न frodeकारणं ? ईइसो एस संसारो । ता आइसउ भयवं जं मए कायव्वं ति । जसोहरेण भणियंसोम, सुण | दुल्लहा चरणधम्मसामग्गी; जओ भणियं भयवया । दुविहा खलु जीवा हवंति, थावरा जंगमा य । तत्थ थावरा' पुढ विजलजलणमाख्यवणस्स इकायभे प्रभिन्ना, जंगमा उण किमिकीडपयंगगोमहिससर हवस हपसय माइणो । तत्थ थावरत्तम बगओ पुढवाइएसु असंखेज्जाओ वणस्स इम्मि' अनंताओ उस पिणअवसप्पिणीओ परिवसइ जीवो त्ति । अओ थावरत्ताओ जंगमत्तं दुल्लहं । जंगमत्तं पि पत्तो माणो किमिको पगेसु अणेयभयभिन्नेसु आििडऊन' तओ पंचिंदियत्तं पाउणइ; तत्थ वि खरकरहगोण महिसुट्टाइएस परिब्भमिऊण माणुसत्तणं; तत्थ वि य सगजवणसव रवव्वरकायमुरुंडोडुगोडाकारणमिति । धनेन भणितम् - भगवन् ! शोभनं ते निर्वेदकारणम् । कस्य वा सहृदयस्यान्यस्यापीदं न निर्वेदकारणम् ? ईदृश एष संसारः । तत आदिशतु भगवान्, यन्मया कर्तव्यमिति । यशोधरेण भणितम् - सौम्य | शृणु । दुर्लभा चरणधर्म सामग्री, यतो भणितं भगवता । द्विविधाः खलु जीवा भवन्ति, स्थावरा जङ्गमाश्च । तत्र स्थावराः पृथिवीजलज्वलनमारुतवनस्पतिकायभेदभिन्नाः । जङ्गमा पुनः कृमि - कीटपतङ्ग - गो-महिष- शरभ वृषभ - पसयादयः । तत्र स्थावरत्वमुपगतः पृथिव्यादिकेषु असंख्याताः, वनस्पती अनन्ता उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यः परिवसति जीव इति । अतः स्थावरत्वाज्जङ्गमत्वं दुलर्भम् । जङ्गमत्वमपि प्राप्तः सन् कृमिकीटपतङ्गेषु अनेकभेदभिन्नेष्वाहिण्ड्य ततः पञ्चेन्द्रियत्वं प्राप्नोति । तत्रापि खरकरभगोमहिषोष्ट्रादिकेषु परिभ्रम्य मानुषत्वम्, तत्रापि च शक-यवन-शबर-बर्बर-क्राय मुरुण्डो-डू-गोडादिकेष्वा हिण्ड्यार्यदेशजम्म, तत्रापि ३२६ वैराग्य का कारण है ।" धन ने कहा - "भगवन् ! आपका वैराग्य का कारण ठीक है । किस सहृदय के लिए भी यह वैराग्य का कारण न होगा। यह संसार ऐसा ही है । अतः जो मेरे योग्य कार्य हो उसकी आज्ञा दीजिए।" यशोधर ने कहा - " सौम्य ! चारित्ररूपी धर्म की सामग्री दुर्लभ है; क्योंकि भगवान् ने कहा है- "दो प्रकार के जीव होते। हैं- स्थावर और जंगम । स्थावर पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति काय के भेद से भिन्न-भिन्न होते हैं। पुन: जंगम कृमि, कीड़ा, पतंगा, गाय, भैंस, चीता, बैल, पसय (एक प्रकार का मृग ) आदि हैं । उनमें से स्थावर गति को प्राप्त हुए पृथ्वी आदि में असंख्यात में, वनस्पति में अनन्त हैं। जीव उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी में रहते हैं । अतः स्थावरगति से जंगम गति दुर्लभ है । जंगम अवस्था प्राप्त होने पर भी कृमि, कोड़ा, पतंगा आदि अनेक भेदों से भिन्न-भिन्न गतियों में भ्रमण कर, अनन्तर पंचेन्द्रिय गति प्राप्त होती है । उसमें भी गधा, करभ, गाय, भैंसा, ऊँट आदि गतियों में भ्रमण कर मनुष्य गति प्राप्त होती है । मनुष्यगति में भी शक, यवन, शबर, बर्बर, काय, मुरुड, उण्डू, गौड आदि जातियों में भ्रमणकर आर्यदेश में जन्म होता है । आर्यदेश में भी चाण्डाल, १. थावरा भणिया तं जहाख, 2 उस्सप्पिणी - अवसष्पिणीउ विहरई वणस्सइकायाणं वणस्सइम्मि - ख, ३. अहिडितस्स पंचिदियत्तणं दुल्लहं हवइ । पंचिदियं पिपत्तो समाणो तत्थख ४ गोमहिसएसुख, ५. परिभमंतस्स माणुसत्तणं दुल्लहं हवइ, माणुस्स जम्मं पि पत्तो ममाणो तत्थ वियख । Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० [समराइचकहा इएस' आहिडिऊण आरियदेसजम्मं; तत्थ विय चंडालडोबिलय रययचम्मयर साउणियमच्छबंधाइएसु आहिंडिउण” इक्खागाइसु कुलजम्म, तत्थ वि य काणकुण्टखुज्जपंगुलयमयंधवहिरवाहिरवाहिविगलिदियसरोरगेसु परिभमिऊण निरुवदुयं सरीरनिष्फति, तत्थ वि य डंडकससत्थरज्जुमाइएहिं जीविओवक्कहि अहाउयाणुहवणं, तत्थ विय कोहमाणमायालोहरागदोसंधयारमोहिओ धम्मबुद्धि, तत्थ वि य बहुविहेसु इंदियाणुकूलजणमणोरमेसु अन्नाणिपवत्तिएसु कुहम्मेसु परिन्भमंतो जहट्टियं सव्वन्नुभासियं सिद्धिसुहेक्ककुलहरं धम्म, तत्थ वि य अणाइभवपरंपरन्भत्थअसुहभावणाओ असंपत्तपुव्वं सिद्धिबहुपढमपाहुड सद्ध", तत्थ विय सपरोवयारयं महापुरिससेवियं एगंतपसंसणीयं चरणधम्म। संपत्तो य इमं देवाणुप्पिया, अचिरेणेव पावेइ जाइजरामरणरोयसोयविरहियं परमपयं ति। ता एयसंपायणे करेहि उज्जम, किमन्नेण संपाइएण । असासया सव्वसंजोया, पहवइ विणिज्जियसुरासुरो च चाण्डाल-डोम्बिलक-रजक-चर्मकार-शाकुनिक-मत्स्यबन्धादिकेष्वाहिण्ड्य, इक्ष्वाक्वादिष कुलजन्म, तत्रापि च काण-कुण्ट-कुब्ज-पङ गुलक-मूकान्ध-वधिर-व्याधि-विकलेन्द्रियशरीरकेषु परिभ्रम्य निरुपद्रतां शरीरनिष्पत्तिम्, तत्रापि च दण्ड-कशाशस्त्र-रज्ज्वादिभिर्जीवितोपक्रमयथाऽयुष्कानुभवनम्, तत्रापि च क्रोध-मान-माया-लोभ-राग-द्वेषान्ध-कारमोहितो धर्मबुद्धिम्, तत्रापि च बहुविधेषु इन्द्रियानुकूलजनमनोरमेषु अज्ञानिप्रवर्तितेषु कधर्मेषु परिभ्रमन् यथास्थितं सर्वज्ञभाषितं सिद्धिसुखैक कुलगृहं धर्मम्, तत्रापि चानादिभवपरम्पराभ्यस्ताशुभभावनातोऽसम्प्राप्तपूर्व सिद्धिवधूप्रथमप्राभतं श्रद्धाम्, तत्रापि च स्वपरोपकारकं महापुरुषसेवितमेकान्तप्रशंसनीयं चरणधर्मम, संप्राप्तश्चेमं देवानप्रिय ! अचिरैणव प्रात्त्नोति जातिजरामरणरोग-शोकविरहितं परमपदमिति । तत् एतत्सम्पादने कुरूद्यमम्, किमन्येन सम्पादितेन। अशाश्वताः सर्वसंयोगाः प्रभवति, होम, धोबी, चमार, बहेलिया, मछुआ आदि जातियों में भ्रमणकर इक्ष्वाकु आदि कुलों में जन्म होता है । इक्ष्वाकु आदि कूल में भी काना, मोटा, कुबड़ा, लँगड़ा, गूगा, अन्धा, बहरा, रोगी और इन्द्रियहीन शरीरों में घूमकर उपद्रवरहित शरीर में आता है । उस में भी दण्ड, कोड़ा, शस्त्र, रस्सी आदि से जीवन बचाकर आयु का अनुभव करता है । उसमें भी क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष रूपी अन्धकार से धर्मरूपी बुद्धि मोहित हो जाती है। उसमें भी अनेक प्रकार की इन्द्रियों के अनुकूल मनुष्यों के लिए मनोरम अज्ञानियों के द्वारा चलाये हुए कुधर्मों में परिभ्रमण कर यथास्थित सर्वज्ञभाषित धर्म प्राप्त होता है जो कि मोक्ष सुख का एकमात्र कुलगृह (पितगह) है। उसमें भी अनादिकालीन संसारपरम्परा के अभ्यास से अशुभ भावनाओं से युक्त होकर जिसे पहले प्राप्त नहीं किया है और जो मोक्षरूपी वधू के लिए प्रथम भेंट है ऐसी श्रद्धा को पाता है। उसमें भी अपना और दूसरे का उपकार करने वाला, महान् पुरुषों के द्वारा सेवित, एकान्त रूप से प्रशंसनीय चारित्र धर्म पाता है । चारित्रधर्म को पाकर हे देवानुप्रिय ! शीघ्र ही जन्म, जरा, मरण, रोग और शोक से रहित उत्कृष्ट पद (मोक्ष) को पा लेता है। अतः चारित्र के सम्पादन का उद्यम करो, अन्य कार्यों का सम्पादन करने से क्या लाभ है ? समस्त संयोग १. मुरुडोडोवाइएस आहिंडतस्स आरियदेसे जम्मो दुल्लहो होइ, आरिय जम्मम्मि पत्ते समाणे तत्थ विय-ख, 2. .."डोवलिय "-ख, ३. चम्मार"-ख, ४. हिडतस्स -ख, ५. इक्खागाइकुलेसु उप्पत्ती दुल्लहा णेया । इक्खागाइ कुलेसु पत्तं समाणे तत्य विय-ख, ६. विगलिदिएसु परिभमंति, निरुवद्दवसरीरनिप्पती दुल्लहा हवइ, निरुवद्दयसरीरनिप्पत्ति पत्तो समाणो तत्थ वि य-ख । ७. हवण हवइ, अहाउयंपि परिवालेंताणं तत्थ वि य - ख। ८. मोहियस्स धम्मबुद्धी दुल्लहा हवइ, समुप्पन्नाए वि धम्मबुद्धीए तत्थ बि य-ख । ९. लोगाण च पवत्तिएसु कुसत्थेसु संसच्छेई परिममंतो जहट्टियं ख। १०. धम्म न पाउशइ । तम्मि य पत्ते समाणे तत्थ वि य भतीवदुल्लहप्रणाइ० ख । ११. सद्धन पाउणइ । १2. सोगाइविरहिर्य ख । Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पजत्यो भवो मच्च, एगरुक्खनिवासिसउणतुल्ला वंधवा, विवायदारुणा य विसयपमाओ त्ति। तओ एयमायग्णिऊग संजायचरणपरिणामेण भणियं धणेण-भयवं अणुग्गिहीओ म्हि इमिणा आएसेण । ता संपाडेमि एयं । करेउ भयवं अणुगह, जाव निवेइऊण भयवओ वृत्तंतं अम्मापिईणं पव्वज्जामो पव्वज्ज ति । भयवया भणियं -- जहासुह, देवाणुप्पिया, मा पडिबंध करेहि ति । तओ गओ अम्मापिइसगासंधणो । परमसंवेगमुवगएण य तेण साहिओ एस वृत्तंतो अम्मापिईणं। पडिबुद्धा एए। चितियं च तेहि-अलं णे एवमसुहपरिणामे भवे पडिबंधणं, जोग्गो य णे पुत्तो; ता निक्खिविऊण इमस्स भारं पव्यज्जामो पव्वज्जं ति भणि। धणो । वच्छ, पडियग्गेहि मणिमोत्तियाइयं सारदव्वं; पवज्जामो अम्हे महापुरिससे वियं पव्वज्ज' ति। धणेण भणियं-ताय, जुत्तमेयं; संपत्तमणयभावेण पाणिणा इमं चेव कायव्वं ति । जं पुण समाइ8 ताएण, जहा पडियग्गेहि मणिमोत्तियाइयं सारदव्वं ति; एत्थ का उण सारया मणिमोत्तियाइदव्वस्स। कि समथमिणं भच्चुणो रक्खेउ, कि वा न होंति एयपहावओ जम्मजराइया बियारा, कि तीरइ इमिणा समत्थस्स अस्थिवग्गस्स विनिजितसुरासुरो मृत्युः, एकवृक्षनिवासिशकुनतुल्या बान्धवाः, विपाकदारुणश्चविषयप्रमाद इति । तत एवमाकर्ण्य सञ्जातचरणपरिणामेन भणितं धनेन । भगवन् ! अनुगहीतोऽस्मि अनेनादेशेन, ततः सम्पादयाम्येतम् । करोतु भगवान् अनुग्रहम्, यावद् निवेद्य भगवतो वृत्तान्तमम्बापित्रोः प्रपद्यामहे प्रव्रज्यामिति । भगवता भणितम्-यथासुखं देवानुप्रिय ! मा प्रतिबन्धं कुविति । ततो गतोऽम्बापितृसकाशं धनः । परमसंवेगमुपागतेन च तेन कथित एष वृत्तान्तोऽम्बापित्रोः । प्रतिबुद्धौ एतौ । चिन्तितं च ताभ्याम् –अलमावयोरेवमशुभपरिणामे भवे प्रतिबन्वेन, योग्यश्चावयोः पुत्रः, ततो निक्षिप्यास्य भारं प्रपद्यावहे प्रव्रज्यामिति भणितो धनः-वत्स ! प्रतिगृहाण मणिमौक्तिकादिकं सारद्रव्यम्, प्रपद्यावहे आवां महापुरुषसेवितां प्रव्रज्यामिति । धनेन भणितम्-तात ! युक्तमेतद, सम्प्राप्तमनुजभावेन प्राणिना इदमेव कर्तव्यमिति । यत्पुनः समादिष्टं तातेन, यथा प्रतिगहाण मणिमौक्तिकादिकं सारद्रव्यमिति, अत्र का पुनः सारता मणिमौक्तिकादिद्रव्यस्य ? कि समर्थमिदं मृत्यो रक्षितुम् ? किं वा न भवन्ति एतत्प्रभावतो जन्मजरादयो विकाराः? किं शक्यतेऽनेन अनित्य है, सर और असुरों को जीतने वाली मृत्यु सामर्थ्ययुक्त है, एक वृक्ष पर रहने वाले पक्षियों के समान बान्धव हैं, विषयों के कारण प्रमाद करने का फल भयंकर होता है।" इसे सुनकर जिसके चारित्ररूप परिणाम हो गये हैं, ऐसे धन ने कहा-"भगवन्! मैं इस आज्ञा से अनुगहीत हूं, अतः इसे पूरा करता हूँ। भगवान् कृपा कीजिए, मैं माता-पिता से वृत्तान्त निवेदन कर भगवान् से दीक्षा ल" भगवान् ने कहा-"जैसा देवानुप्रिय को अच्छा लगे, देर मत करो।" धन माता-पिता के पास गया । अत्यधिक विरक्त हुए उसने यह वृत्तान्त माता-पिता से कहा । ये दोनों प्रतिबुद्ध हुए और उन्होंने सोचा-इस प्रकार अशुभ फल वाले संसार में हम लोगों का रुकना व्यर्थ है और हम दोनों का पुत्र योग्य है । अतः इसी पर भार रखकर दीक्षा लेते हैं । धन से कहा-"पुत्र ! मणि, मोती आदि बहुमूल्य धन को ग्रहण करो, हम दोनों महापुरुषों के द्वारा सेवित दीक्षा लेते हैं।" धन ने कहा-"पिताजी, यह ठीक है, मनुष्यभव प्राप्त करने पर प्राणी को यही करना चाहिए । पुन: जो पिताजी आपने कहा कि मणि, मोती, आदि बहुमूल्य धन को ले लो तो (मेरा कहना है कि) मणि, मोती आदि द्रव्यों में क्या सार है ? क्या यह मृत्यु से रक्षा करने में समर्थ है ? क्या इसके प्रभाव से जन्म, जरा आदि विकार नहीं होते हैं ? क्या इससे १. समणधम्म-ख, 2. ""जरामरणाइया-ख । Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ [समराइन्चकहो मणोरहापूरणं काउं, किं वा न परिच्चयइ इमं पयत्तरक्खियं पि खीणभागधेयं पुरिसं, किं वा होइ कोइ दव्यजुयमयस्स' परलोए गुणो त्ति । सेटिणा भणियं-वच्छ, नस्थि एयं । धणेण भणियं-- ता किमिमिणा अहोपुरिसियावप्फारपाएणं; अणुमन्नउ ताओ मज्झं पि अत्तणो सरिसमणुचिट्ठियं ति । सेट्ठिणा भणियं--वच्छ, अणुमयं मए । किं पुण विसमा गई जोव्वणस्स; एत्थ खलु दुद्दमाइं इंदियाई, पहवइ संसारतरुबीयभूओ अणंगो, आयड्ढंति य मणोहरा विसय त्ति। धणेण भणियं-ताय, न खलु अविवेगओ अन्नं जोवणं ति । अणाइमंता इमे जीवा, न एत्थ परमत्थओ कोइ जोव्वणत्थो न वा वुड्ढओ त्ति । दीसंति अविवेगसामत्थओ वुड्ढा वि एत्थ जम्मे अणियत्तविसयविसाहिलासा अगणेऊण लोयवयणिज्जं अवियारिऊण परमत्थं अप्पाणयं विडंबेमाण त्ति; हिययाहियमलेण वि य दव्वंतरजोएण कालपरिणामसुक्किले व करेंति कालए केसे, अंगकढिणयाहेउं च सेवंति पारयमद्दणं, वुड्ढभावदोसभोरू साहति इत्तरं जम्मकालं; वियारसीलयाए परिसर्केति वियडयाइं, पयट्टति अपयट्टियव्वे, न पेच्छंति समस्तस्याथिवर्गस्य मनोरथापूरणं कर्तुम् ? कि वा न परित्यजति इदं प्रयत्नरक्षितमपि क्षीणभागधेयं पुरुषम् ? किं वा भवति कोऽपि द्रव्ययुतमृतस्य परलोके गुण इति ? श्रेष्ठिना भणितम्वत्स! नास्त्येतद् । धनेन भणितम्-ततः किमनेनाहोपुरुषिकावस्फारप्रायेण, अनुमन्यतां ताता ममापि आत्मनः सदशमनुष्ठितमिति । श्रेष्ठिना भणितम्-वत्स ! अनुमतं मया । किंपुनर्विषमा गतियौवनस्य, अत्र खलु दुर्दमानान्द्रियाणि, प्रभवति संसारतरुनोजभतोऽनङ्गः, आकृषन्ति च मनोहरा विषया इति । धनेन भणितम्-न खल्वविवेकतोऽन्यद् यौवनमिति । अनादिमन्त इमे जोवाः, नात्र परमार्थतः कोऽपि यौवनस्थो नवा वृद्ध इति । दृश्यन्तेऽविवेकसामर्थ्यतो वृद्धा अप्यत्र जन्मन्यनिवृत्तविषयविषाभिलाषा अगायत्वा लाकवचनीयमविचार्य परमार्थमात्मानं विडम्बयन्त इति, हृदयाहितमलेनापि च द्रव्यान्तरयोगेन कालपरिणाम शुक्लानपि कुर्वन्ति कालकान् केशान्, अङ्गकठिनताहेतुं च भवन्ति पारदमर्दनम, वृद्धभावदोषभीरुः कथयन्ति इत्वरं (अल्पं) जन्मकालम्, विकारशीलतया परिष्वष्कन्ति (परिषेवन्ते) विकृतानि, प्रवर्तन्तेऽप्रवर्तनीये, न प्रेक्षन्ते क्षोणमायुः, न चिन्तयन्ति जन्मासमस्त याचक समूह का मनोरथ पूरा करना सम्भव है ? क्या प्रयत्न से रक्षा किये गये क्षीणभाग्य वाले पुरष को यह नहीं त्याग देता है ? द्रव्य सहित जो व्यक्ति मरता है, उसका परलोक में कोई गुण (लाभ) होता है ?" सेठ ने कहा-“ऐसा तो नहीं है।" धन ने कहा-"तो अभिमान से भरी हुई उक्ति से क्या लाभ है ? पिताजी, (आप) मने भी अपने समान कार्य करने की बाज्ञा दीजिए।" सेठ ने कहा-"पुत्र ! मैंने अनुमति दे दी। अधिक क्या, यौवन की गति विषम है, यहाँ इन्द्रियाँ कठिनाई से दमन करने योग्य हैं, संसाररूपी वृक्ष का बीजभूत कामदेव प्रभाव दिखला रहा है और मनोहर विषय आकर्षित कर रहे हैं।" धन ने कहा-"अविवेक से अतिरिक्त दूसरा कोई यौवन नहीं है। ये जीव अनादिकाल से हैं, यथार्थ रूप से न यहाँ कोई युवक है, न वृद्ध है, अविवेक की सामर्थ्य से इस जन्म में वृद्ध भी विषयरूपी विष की अभिलाषा से निवृत्त न होकर, लोकनिन्दा को न गिनकर, परमार्थ का विचार न कर अपने आपकी विडम्बना करते हुए देखे जाते हैं, हृदय के लिए अहितकारी मल के द्वारा भी दूसरे द्रव्य के संयोग से समय के फलस्वरूप सफेद हुए भी बालों को काले करते हैं। अंग की कठिनता के लिए पारद के लेप का सेवन करते हैं (लगाते हैं) । वृद्धपने के दोषों से डरकर अपनी आयु थोड़ी बतलाते हैं विकारवान् होने के कारण विकृतियों का सेवन करते हैं, जिनमें प्रवृत्त नहीं होना चाहिए, ऐसे कार्यों में प्रवृत १. "जुयस्स मयस्स-ख । Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पउत्यो भयो झोणमाउं, न चितेन्ति जम्मतरं ति । अवरे' उण सुयब्भत्थपरलोयमग्गा तरुणया वि एत्थ जम्मे विवेयसामत्थेण नाऊण विज्जलयाडोवचंचलं जीयं असारयं विसयसुहाणं विवायदारुणयं च पमायचेठियस्त मच्चुभयभोया विय हरिणया उत्तत्था पावहेऊणं से वंति परलोयवंधवं चरणधम्म ति । ता अकारणं एत्थ जामवणं ति।नय विवेगिणो विडयसंसारसरूवस्स दमाइं इंदियाई। अदतेहिएपहि दमियव्वो अप्पा दोग्गईए, दमिएहि य एत्थ पसमसुहं परलोए य भवपरंपराए मोक्खसुहं ति जाणमाणो को इमे न दमेइ ? अणंगो वि य अणज्जसंकप्पमलो परिचत्तेहि अणज्जसंकप्पेहि भाविए वोयरागवयणे उवलद्ध पसमसुहसरूवे' अमुयंताण गुरुपायमूलं चितयंताण पडिवक्खभावणं कहं पहवइ त्ति ? कि वा मणाहरत्त'विसयाण? पोग्लपरिणामा हि एए फरिसरसरूवगंधसहा; विचित्तपरिणामा पोग्गला सुहा वि होऊण असुहा हति, असुहा विय सुहा; किं वा एहि अत्तगो अत्यंतरभूएहि; न एएसि संजोओ परमत्थो सुहहेऊ, अवि य दुक्खहेऊ; 'असंजोए 4 'नियसरूवपच्चासन्नाए पाणिणो परमत्थओ सुह न्तरामात । अपरे पुनः श्र ताभ्यस्तपरलोकमार्गा तरुणा अन्यत्र जन्मनि विवेकसामर्थ्येन ज्ञात्वा विद्युल्लताटोपचञ्चलं जोवित मसारतां विषयसुखानां विपाकदारुणर्ता प्रमादचेष्टितस्य मृत्युभयभोता इव हरिणका उत्त्रस्ताः पापहेतुभ्यः सेवन्ते परलोकबान्धवं चरणधर्ममिति। ततोऽकारणमत्र यौवनमिति । न च विवेकिनो विदितसंसारस्वरूपस्य दुर्दमानोन्द्रियाणि । अदान्तरेतैदमितव्य आत्मा दुर्गती । दान्तश्चात्र प्रशमसुखं परलोके च भवपरम्परया मोक्षसुखमिति जानन् क इमानि न दमयति ? अनङ्गोऽपि चानार्यसंकल्पमूलः परित्यक्तैरनार्यसंकल्पैर्भाविते वीतरागवचने उपलब्धे प्रशमसुखस्वरूपेऽमुञ्चता गुरुपादमूलं चिन्तयता प्रतिपक्षभावनां कथं प्रभवतोति ? किं वा मनोहरत्वं विषयानाम् । पुद्गलपरिणामा हि एते सरसरूपगन्धशब्दाः, विचित्रपरिणामाः पुद्गलाः शुभा अपि भूत्वा अशभा भवन्ति, अशुभा अपि च शुभाः, किंवा एतरात्मनोन्तिरभूतैः, नैतेषां संयोगः परमार्थतः सुखहेतुः, अपि च दुःखहेतुः । 'असंयोगे च निजस्वरूपप्रत्यासन्नतया प्राणिनः परमार्थतः सुखम्' इति मन्यमानं होते ही नष्ट होती हुई आयु को नहीं देखते हैं, दूसरे जन्म की चिन्ता नहीं करते हैं । पुनश्च दूसरे शास्त्र द्वारा परलोक के मार्ग का अभ्यास कर तरुण होते हुए भी इस जन्म में विवेक की सामथ्र्य से बिजली के समान भावी, फल देने में चंचल जीवन की असारता, विषय सुखों के फल की दारुणता को जानकर प्रमादपूर्वक चेष्टा किये हुए, मृत्यु से भयभीत हरिण के समान पाप के कारगों से भयभीत होकर परलोक के बान्धव चारित्ररूप धर्म का सेवन करते हैं । अतः इस संसार में यौवन अकारण है। जिन्हें संसार के स्वरूप का ज्ञान है ऐसे विवेकियों के लिए इन्द्रियों कठिनाई से दमन करने योग्य नहीं हैं । दमन की गरी ये इन्द्रियो दुर्गति में आत्मा को दमित करती हैं । दमन करने पर इस लोक में शान्तिरूम सुख और परलोक में भव-परम्परा से मोक्ष-सुख को जानता हुआ कौन इनका (इन्द्रियों का) दमन नहीं करता है ? जिन्होंने बुरे संकल्पों को छोड़ दिया है, वीतराग के वचनों की भावना की है, शान्तिरूप सुख के स्वरूप को प्राप्त कर लिया है, गुरु के चरणों को नहीं छोड़ा है, विरोधी भावनाओं का विचार कर लिया है ऐसे व्यक्ति पर कामदेव, जो कि बुरे संकज्यों का कारण है, कैसे प्रभाव दिखा सकता है ? अथवा विषयों की मनोहारिता क्या है ? ये स्पर्श, रस, रूप, गन्ध और शब्द पुद् ।लों के परिणाम हैं, विचित्र परिणाम वाले पुद्गल शुभ भी होकर अशुभ होते हैं और अशुभ भी होकर शुभ होते हैं । आत्मा से भिन्न द्रव्य होने के कारण इनसे प्रयोजन ही क्या है ? इनका संयोग ययार्थ रूप से सुख का कारण नहीं, अपितु दुःख का कारण है । अपना स्वरूप यदि समीप में है तो प्राणियों के साथ पुद्गल का संयोग न होने पर परमार्थतः सुख है-ऐसा जो मानता है उसे विषय कैसे आकर्षित कर सकते हैं ? अतः इससे क्या? पिताजी के प्रभाव से ही १. बन्नेउण-ख, 2. परमपयसरूवे-ब , ३. महोहरत्तणं-ख , ४. निययस'"--, Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ [समराइच्चकहा तिमन्नमा कहं आयति विसय त्ति । ता किं एइणा । तायपहावओ चेव मे अविग्धं भविस्सइति । तओ पडियं तेण, दवावियं च घोसणापुव्वयं महादाणं, कराविया अट्ठा हिया महिमा । तओ महापुरिसक्खिमणविहोए अम्मापिईसमेओ अन्नेणंच पहाणपरियणेण पवन्नो धणो जसोहराय - रियसमीवे पव्वज्जं ति । अइकंतो कोइ कालो | अहिज्जियं सुत्तं, अब्भत्यो किरियाकलावो, भावियाओ भावणाओ, वेरगाइसओ पन्ना एकल्लविहारपडिमं । विहरमाणो य गामे एगरायं नगरे पंचरायविहारेणं समागओ को संबि । इओ यसो नंदओ गोसे तमपेच्छिऊण धणसिरिसमेओ लंघिऊण जलनिहि तीए वयणेणं थीदव्वलो - णय अगणिऊण सेट्ठिधणक्याइं सुकवाई कोसंब आगओ त्ति । समुद्ददत्तनामपरिवत्तेणं च ठिओ ती चैव नरोए । उचियसमएणं च पविट्ठो भयवं भोयरे, तत्थ वि य नंदयहिं । दिट्ठो घणसरी पञ्चभिन्नाओ य | चितियं च तीए - कहं न विवन्नो चेव सो समुद्दमज्झे वि । अहो मे अहन्नया, जं पुणो वि एसो दिट्ठोत्ति । अहवा तहा करोमि संपयं, जहा न पुणो जीवइ त्ति । एत्यंतरम्भि कथमित्याकृषन्ति विषया इति । ततः किमेतेन । तातप्रभावत एव मेऽविघ्नं भविष्यतीति । ततः प्रतिश्रुतं तेन, दापितं च घोषणापूर्वकं महादानम्, कारिता अष्टाह्निका महिमा । ततो महापुरुषनिष्क्रमणविधिना अम्बापितृसमेतोऽन्येन च प्रधानपरिजनेन प्रपन्नो धनो यशोधराचार्यसमीपे प्रव्रज्यामिति । अतिक्रान्तः कोऽपि कालः । अधीतं सूत्रम्, अभ्यस्तः क्रियाकलाप:, भाविता भावनाः, वैराग्या तिशयतः प्रपन्न एकाकि विहारप्रतिमाम् । विहरंश्च ग्रामे एकरात्रं नगरे पञ्चरात्रविहारेण समागतः कौशाम्बीम् । इतश्च स नन्दकः प्रातः तं ( धनं) अप्रेक्ष्य धनश्रीसमेतो लङ्घित्वा जलनिधि तस्या वचनेन स्त्रीद्रव्यलोभेन चागणयित्वा श्रेष्ठिधनकृतानि सुकृतानि कौशाम्बीमागत इति । समुद्रदत्तनामपरिवर्तनेन च स्थितस्तस्यामेव नगर्यांम् । उचित समयेन च प्रविष्टी भगवान् गोचरे, तत्रापि च नन्दः - गृहम् । दृष्टो धनश्रिया प्रत्यभिज्ञातश्च । चिन्तितं च तथा-कथं न विपन्न एव स समुद्रमध्ये - sपि ? अहो मेऽधन्यता, यत्पुनरपि एष दृष्ट इति । अथवा तथा करोमि साम्प्रतं यथा न पुनर्जीवमुझे विघ्न नहीं होगा । अनन्तर उसने स्वीकार किया, घोषणापूर्वक महादान दिलाया, अष्टाह्निका महोत्सव कराया, अनन्तर महापुरुष के निकलने की विधिसहित माता, पिता तथा अन्य प्रधान परिजनों के साथ धन यशोधराचार्य के समीप प्रव्रजित हो गया । कुछ समय बीत गया। सूत्र को पढ़ा, क्रियाओं के समूह का अभ्यास किया, भावनाएँ भायीं, वैराग्य की अधिकता के कारण अकेले विहार करने की प्रतिभा को प्राप्त किया, ग्राम में एक रात्रि और नगर में पाँच रात्रि रहकर विहार करता हुआ कौशाम्बी आया । इधर वह नन्दक प्रप्तः धन को न देखकर, धनश्री के साथ समुद्र पारकर धनश्री के कथनानुसार स्त्रीद्रव्य के लोभ से सेठ धन के द्वारा किये हुए उपकारों को न गिनकर कौशाम्बी में आया । 'समुद्रदत्त' ऐसा नाम परिवर्तन करते हुए नन्दक के घर प्रविष्ट हुए । धनश्री भी नहीं मरा ? ओह, मैं अधन्य हूँ जो कि कर उसी नगरी में ठहर गया । उचित समय पर भगवान् विहार ने देखा और पहचान लिया। उसने सोचा- 'वह समुद्र के बीच यह पुनः दिखाई पड़ गया । अथवा वैसा उआय करती हैं, जिससे कि यह पुनः जीवित न रहे । 'इसी बीच भिक्षा 1. ***gfen afea fa Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ree भवो ] ३३५ अइक्कंतो जायणासमओ त्ति निग्गओ एवं । अहिययरं से पओसमाधाना धणसिरी । 'पच्चभिन्नाया अहं, अन्ना कहं सिग्घमेव निग्गओ' त्ति चितिऊण पेसिया चेडी । हला, कहिं पुण एस समणओ ठिओ त्ति सम्मं वियाणिऊण लहुं मे संवाएहि । तीए भणियं - 'जं सामिणी आणवेइ' त्ति भणिऊण निग्गया चेडी, लग्गा एयस्स मग्गओ । निययसमएणं च निग्गओ भयवं । न पडुप्पन्नो य से जहोचिओ आहारो, गओनयरिदेवया डबद्धं उज्जाणंतरं । एत्थंतरम्मि ओगाढा चरिमा, ठिओ भयवं काउस्सग्गेणं । तओ कंचि कालं चिट्ठिऊण 'न एस इओ गच्छइ' त्ति मुणिऊण आगया चेडी, निवेइयं धणसिरीए । भणिओ ती नंदओ | अपडुसरीरे तुमम्मि उवाइयं भयवईए नयरिदेवयाए, जहा किण्हपक्खट्ठमीए गहिओववासवाए आययणवासी कायन्वोत्ति । अइकंता य मे पमायओ अट्ठमी । तओ सुमिणयम्मि चोइया अहं भवईए । सुत्ताए चैव य तुमं गोसे किच्चकरणे निग्गओ त्ति, अओ न साहिओ पहाए सुविणओ । कओ अज्ज उववासो । अओ अहं तत्थ गच्छामि त्ति । संपाडेहि मे भयवईए पूओवयरणं ति । संपाडियं नंदणं । तओ कम्मरदुगाहिट्ठिया सह पुव्वचेडियाए गया धनसिरी तमुज्जाणं । दिट्ठो तीए तीति । अत्रान्तरेऽतिक्रान्तो याचनासमय इति निर्गतो भगवान् । अधिकतरं तस्य द्वेषमापन्ना धनश्रीः । प्रत्यभिज्ञाताऽहम्, 'अन्यथा कथं शीघ्रमेव निर्गतः' इति चिन्तयित्वा प्रेषिता चेटी । हले, कुत्र पुनरेष श्रमणः स्थित इति सम्यग् विज्ञाय लघु मे संवादय । तया भणितं - यत्स्वामिन्याज्ञापयति इति भणित्वा निर्गता चेटी, लग्ना एतस्य मार्गतः । नियतसमयेन च निर्गतो भगवान् । न प्रत्युत्पन्नश्च (प्राप्तश्च) तस्य यथोचित आहारः । गतो नगरीदेवताप्रतिबद्धमुद्यानान्तरम् । अत्रान्तरेऽवगाढा चरमा (पौरुषी) । स्थितो भगवान् कायोत्सर्गेण । ततः कञ्चित् कालं स्थित्वा 'नैष इतो गच्छति' इति ज्ञात्वाऽऽगता चेटी । निवेदितं धनश्रियै । भणितस्तया नन्दकः । अपटुशरीरे त्वयि उपयाचितं भगवत्या नगरीदेवतायाः, यथा कृष्णपक्षाष्टम्यां गृहीतोपवासव्रतयाऽऽयतनवासः कर्तव्य इति । अतिक्रान्ता च मे प्रमादतोऽष्टमी । ततः स्वप्ने चोदिताऽहं भगवत्या । प्रसुप्तायामेव च त्वं कृत्य करणे निर्गत इति, अतो न कथितः प्रभाते स्वप्नः । कृतोऽद्योपवासः । अतोऽहं तत्र गच्छामीति । संपादय मे भगवत्याः पूजोपकरणमिति । सम्पादितं नन्दकेन । ततः कर्म करद्विकाधिष्ठिता सह पूर्व का समय निकल गया है - ऐसा सोचकर भगवान् निकल गये । धनश्री का द्वेष उनके ऊपर अधिक बढ़ गया । मुझे पहचान लिया है, नहीं तो कैसे शीघ्र ही निकल जाता - ऐसा विचारकर दासी भेजी । “सखि ! यह श्रमण कहाँ है ? ऐसा ठीक तरह से जानकर शीघ्र मुझे बतलाओ ।" उसने कहा - " जो स्वामिनी की आज्ञा " - ऐसा कहकर दासी निकल गयी । इनके ( साधु के) मार्ग में लग गयी । नियत समय पर भगवान् निकले । उनको यथोचित आहार नहीं मिला । तब नगरदेवी के उद्यान में गये। इसी बीच सायंकाल हो गया । भगवान् कायोत्सर्ग से खड़े हो गये । तब कुछ समय ठहरकर 'यहाँ से नहीं जाता है - यह जानकर दासी आ गयी । ( उसने ) धनश्री से निवेदन किया । उसने नन्दक से कहा । आपके अस्वस्थ होने पर भगवती नगरदेवी से प्रार्थना की कि "कृष्णपक्ष की अष्टमी को उपवास व्रत लेकर मन्दिर में निवास करूंगी। मेरे प्रमाद के कारण अष्टमी निकल गयी । अनन्तर स्वप्न में भगवती ने मुझे प्रेरणा दी। मैं जब सो रही थी तब तुम प्रातःकालीन कृत्यों को करने के लिए निकल गये अतः प्रातःकाल में स्वप्न नहीं कहा। आज ( मैंने ) उपवास किया है। अतः मैं वहाँ जा रही हूँ । देवी की पूजन योग्य सामग्री वगैरह लाओ । नन्दक सामग्री लाया । तब दो मजदूर तथा पहले वाली दासी के Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ [समराइच्चकहा तवस्सी । एत्यंतर म्मि आगओ सारकट्ठभरिएण पवहणेण ते मुद्देसं सागडिओ, भग्गो य से अक्खो । तओ अत्थमुवगयपाओ दिणयरो । न कोई कट्ठे गेण्हइ त्ति घेत्तूण गोणे गओ निययगेहं । तओ चितियं धणसिरीए-लट्ठयं जायं, एएहिं चैव सारकट्ठेह डहिस्सामि एयं ति । गया चंडियाययणं कया देवयाए पूया, दिन्नं कम्मयाराणं, पाणभोयणं, पसुत्ता एए। तओ एयाइणी चेव गया मुणिवरस्यासं । अन्ना को हमूढाए विरइयाइं भयवओ समीवंम्मि कट्ठाई न लक्खियाइं च भाणजोयमुवगएणं भयवया । पज्जा लिओ जलणो, छिक्को भयवं जलणजालावलीए । संजाओ से करुणपहाणत्त गेण झालजोयकमो । किह ? चितेइ यसो भगवं काउस्सग्गम्मि अचलियस हावो । अनुयंपागयचित्तो जलिए जलणम्मि उज्झतो ॥ ४२८ ॥ इह धन्ना सरिसा जे नवरमणत्तरं गया मोक्खं । जम्हा ते जीवाणं न कारणं कम्मबंधस्स || ४२६ ॥ चेटिकया गता धनश्रीस्तदुद्यानम् । दृष्टस्तया तपस्वी । अत्रान्तरे आगतः सारकाष्ठभूतेन प्रवहणेन तमुद्देशं शाकटिकः, भग्नश्च तस्याक्षः । ततोऽस्तमुपगतप्रायो दिनकरः । न कोऽपि काष्ठानि गृह्णातीति गृहीत्वा गावौ गतो निजकगेहमिति । ततश्चिन्तितं धनश्रिया -लष्टं जातम्, एतैरेव सांरकाष्ठैः धक्ष्याम्येतमिति । गता चण्डिकाऽऽयतनम् कृता देवतायाः पूजा, दत्तं कर्मकराभ्यां पानभोजनम्, प्रसुती । तत एकाकिन्येव गता मुनिवरसकाशम् । अज्ञानक्रोधमूढया विरचितानि भगवतः समीपे काष्ठानि न लक्षितानि च ध्यानयोगमुपगतेन भगवता । प्रज्वालितो ज्वलनः स्पृष्टः भगवान् ज्वलनज्वालावल्या । सञ्जातस्तस्य करुणाप्रधानत्वेन ध्यानयोगसंक्रमः । कथम् ? चिन्तयति स भगवान् कायोत्सर्गेऽचलितस्वभावः । अनुकम्पागतचित्तो ज्वलिते ज्वलने दह्यमानः ॥४२८॥ इह धन्याः सत्पुरुषा ये नवरमनुत्तरं गता मोक्षम् । यस्मात्ते जीवानां न कारणं कर्मबन्धस्य || ४२६ || साथ धनश्री उस उद्यान को गयी। उसने तपस्वी को देखा। इसी बीच गाड़ी में सारवान लकड़ी भरकर गाड़ी वाला आया, उसकी गाड़ी की धुरी टूट गयी । अनन्तर सूर्य अस्तप्राय हो गया । 'कोई लकड़ियों को नहीं लेगा' - ऐसा सोचकर दोनों बैलों को लेकर गाड़ीवान घर चला गया। तब धनश्री ने सोचा - 'ठीक हुआ, इन्हीं सारवान लकड़ियों से इसे जलाऊँगी ।' ( वह ) चण्डी के मन्दिर में गयी। देवी की पूजा की, दोनों मजदूरों को भोजन - पान दिया, ये दोनों सो गये । तब अकेली ही मुनिवर के पास गयी। अज्ञान और क्रोध से मूढ़ होकर भगवन के पास लकड़ियाँ लगायीं, ध्यानयोग को प्राप्त हुए भगवान् ने (उन्हें ) नहीं देखा । ( धनश्री ने) आग जलाई, आग की ज्वाला ने भगवान् को छू लिया । करुणप्रधान होने के कारण वे ध्यानयोग में लीन हो गये । कैसे ? कास में अचलित स्वभाव वाले, दयायुक्त चित्तवाले, जलती हुई अग्नि में करने लगे । वे सत्पुरुष धन्य हैं जो उत्कृष्ट मोक्ष को चले गये; क्योंकि वे जीवों के हैं ।।४२८-४२६ ॥ जलते हुए वे भगवान् विचार कर्मबन्ध के कारण नहीं Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घउत्यो भवो] एसो उ मोहवसओ कोइ मं पाविऊण कुगईए। वच्चिहिइ अहो कठ्ठ कट्ठ बहुदुक्खपउराए ॥४३०॥ अहमेयस्स निमित्तं दोग्गइगमणे निमित्तविहरेण । नहु होइ कज्जसिद्धो भणियमिणं लोयनाहेण ॥४३१॥ सोएमि न नियदेहं एयं सोएमि मोहपरतंतं । जिणवयणवाहिरमई दुक्खसमद्दम्मि निवडतं ॥४३२॥ मोहवसयाण अहवा केत्तियमयं किलिट्टसत्ताणं । एसो मोहसहावो धिरत्थु संसारवासस्स ॥४३३।। इय सो सुहपरिणामो तीए विणिवाइओ उ पावाए। पन्नरससागराऊ उपवन्नो सुक्ककप्पम्मि ॥४३४॥ इओ य साधणसिरी ससज्झसा विय गया चंडियाययणं, पविसमाणी य नेहया चेडियाए। भणिया च तीए-सामिणि, कहिं गया आसि? तीए भणियं--न कहिं चि, परं अद्धरत्तसंझाए भयवईए पयाहिणं कयं ति। एष तु मोहवशतः कोऽपि मां प्राप्य कुगतौ। व्रजिष्यति अहो कष्टं कष्टं बहुदुःखप्रचुरायाम् ॥४३०॥ अहमेतस्य निमित्तं दुर्गतिगमने निमित्तविरहेण । न खलु भवति कार्यसिद्धिर्भणितमिदं लोकनाथेन ॥४३॥ शोचामि न निजदेहमेतं शोचामि मोहपरतन्त्रम् । जिनवचनबाह्यमति दुःखसमुद्रे निपतन्तम् ।।४३२॥ मोहवशगानामथवा कियन्मानं क्लिष्टसत्त्वानाम् । एष मोहस्वभावो धिगस्तु संसारवासम् ।।४३३॥ इति स शुभपरिणामस्तया विनिपातितस्तु पापया । पञ्चदशसागरायुरुरपन्नः शुक्रकल्पे।४३४॥ इतश्च सा धनश्री: ससाध्वसा इव गता चण्डिकायतनम्, प्रविशन्ती च वेदिता चेटिकया। भणिता च तया-स्वामिनि ! कुत्र गताऽऽसी: ? तया भणितम्- कुत्रचिद्, परमर्धरात्रसन्ध्यायां भगवत्याः प्रदक्षिणं कृतमिति । ___यह कोई जीव मोहवश मुझको (निमित्त) पाकर जिसमें बहुत से दु:खों की प्रचुरता है, ऐसी कुगति में जायेगा। ओह ! कष्ट है, कष्ट है । मैं इसके दुर्गतिगमन में निमित्त हूँ। क्योंकि संसार के नाथ ने कहा है कि निमित्त के बिना निश्चित रूप से कार्य की सिद्धि नहीं होती है । मैं अपने शरीर के विषय में शोक नहीं कर रहा हूँ। किन्तु मोह से परतन्त्र जिन वचनों से बाह्य जिसकी बुद्धि है, ऐसे दु:ख-समुद्र में गिरते हुए (इस जीव) के विषय में शोक कर रहा हूँ। मोह के वशीभूत प्राणियों का अथवा कितने ही दुःखी प्राणियों का यह मोहरूप स्वभाव है। ऐसे संसार के वास को धिक्कार हो। उस पापिनी के द्वारा मारे गये वे शुभ परिणामों से मरकर पन्द्रह सागर की मायु वाले शुक्र स्वर्ग में उत्पन्न हुए ॥४३०-४३४॥ इधर वह धनश्री घबड़ाती हुई-सी चण्डी मन्दिर में गयी। प्रवेश करती हुई (उसे)दासी ने पहचान लिया। उसने कहा-"स्वामिनी, कहां गयी थीं ?" उसने कहा-"कहीं नहीं, आधी रात के समय भगवती की प्रदक्षिणा Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८ [समराज्यकहा एत्थंतरम्मि उवलद्धो चेडियाए हयासणुज्जोओ। फिमेयं ति वियप्पिऊण पसुत्ता य एसा। पहाया रयणी । तओ काऊण देवयाए पूयं सम्माणिऊण कम्मयरे पत्थिया धणसिरी सगिहं । विट्ठो य पंथे वावन्नो रिसी धणसिरीए कम्मयरेहि चेडियाए य ।अहो केण एवं ववसियं ति जंपियं कम्मयरेहिं । न याणामि' त्ति भणियं धणसिरीए । समुप्पन्नो चेडियाए वियप्पो । पेसिया अहं भयवओ अन्नेसणनिमित्तं, निग्गया य एसा अद्धरत्तसमए', उवलद्धो य मए तीए चेव वेलाए उज्जोयो । ता न याणामो कहमेयं; मन्ने मि, जोइया अहं एयाए महापाव(वा)देसम्मि। एवं चितयंती पविट्ठा सह धणसिरीए गेहं ति। ____एत्थंतरम्मि आगओ सागडिओ। दिट्ठो य जेणं पि अट्टिमेत्तसेसो मुणिवरो। चितियं च णेणअहो मे अधन्नया। पडिवन्नो अहं कस्सइ किलिट्ठसत्तस्स भगवओ उवसग्गकरणेण सहायभावं । पाडिओ मए अप्पा दोग्गईए। ता निवेएमि एवं रवइस्स। अद्धजाममेत्ते य वासरे गओ नरवइसमीवं । निवेइ यमणेण । कुविओ राया। निउत्तो णेण बंडवासियो 'अरे लहु रिसिधायगं लहेहि' ति । निग्गओ अत्रान्तरे उपलब्धश्चेटिक या हुताशनोद्योतः । विमेतद्' इति विकल्प्य प्रसुप्ता चषा। प्रभाता रजनी । ततः कृत्वा देवताया: पूजां सम्मान्य कर्मकरी प्रस्थिता धनश्रीः स्वगहम । दष्टश्च पथि व्यापन्न ऋषिर्धनश्रिया कर्मकराभ्यां चेटिकथा च अहो केनैतद् व्यवसितमिति जल्पितं कर्मकराभ्याम 'न जानामि' इति भणितं धनश्रिया। समुत्पन्नश्चेटिकाया विकल्पः। प्रेषिताऽहं भगवतोऽन्वेषणनिमित्तम, निर्गता चैषाऽर्धरात्रसमये, उपलब्धश्च मया तस्यामेव वेलायाम योतः। ततो न जानीमः कथमेतत्, मन्ये, योजिताऽहमेतया महापापादेशे । एवं चिन्तयन्ती प्रविष्टा सह धनश्रिया गेहमिति । ___अत्रान्तरे आगत: शाकटिकः । दृष्टश्च तेनापि अस्थिमात्रशेषो मुनिवरः। चिन्तितं च तेनअहो मेऽधन्यता, प्रतिपन्नोऽहं कस्यचित् क्लिष्टसत्त्वस्य भगवत उपसर्गकरणेन सहायभावम् । पातितो मयाऽऽरमा दुर्गतो, ततो निवेदयाम्येतद् नरपतये । अर्धयाममात्रे च वासरे गतो नरपतिसमीपम् । निवेदितमनेन । कुपितो राजा। नियुक्तस्तेन दण्डपाशिकः, अरे लघ ऋषिघातक लभस्वेति। इसी बीच दासी ने अग्नि का प्रकाश प्राप्त किया (देखा) । 'यह क्या है' ऐसा सोचकर वह सो गयी। सबेरा हुआ । अनन्तर देवी की पूजा कर, दोनों मजदूरों का सम्मान कर धनश्री अपने घर गयी। रास्ते में धनश्री. दोनों मजदूर और दासी ने मरे हुए ऋषि को देखा। 'ओह ! यह किसने किया'-ऐसा दोनों मजदूरों ने कहा, 'मैं नहीं जानती हूं'-ऐसा धनश्री ने कहा । दासी के (मन में) विकल्प उत्पन्न हुआ --'मुझे भगवान को खोजने के लिए भेजा था और यह आधी रात के समय निकल गयी थी और उसी समय मुझे प्रकाश दिखाई दिया था । अतः नहीं जानती हैं, यह कैसे हुआ ? मैं मानती हूँ कि इसके द्वारा महान् पापकारी आज्ञा में लगायी गयी' -- ऐसा विचार करती हुई धनश्री के साथ घर में प्रविष्ट हुई। इसी बीच गाड़ीवान आया और उसने भी, हड्डीमात्र जिनकी शेष थीं, ऐसे मुनिवर को देखा । उसने सोचा'ओह ! मैं अधन्य हूँ, मैं किसी विरोधी प्राणी के द्वारा भगवान् के ऊपर उपसर्ग करने में सहायक हुआ हूँ। मैंने अपने आप को दुर्गति में गिरा दिया। अब मैं इस घटना को राजा के सामने निवेदन करता हूँ।' आधा प्रहर मात्र दिन होने पर राजा के पास गया । इसने निवेदन किया। राजा कुपित हुआ । उसने सेनापति को नियुक्त किया, १. भणियं च हिं--- महो-ख, २. जंपियं धणसिरीए न याणामि त्ति-ख, ३. अड्ढरत्त'-क. ४. उज्जोमो-ख । Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पजत्यो भवो) दंडवासियो, गओ चंडियापरणं'। पुच्छ्यिा जेण भोइया--को उग अज्ज एत्थं वसिओ ति? तोए भणियं-न कोइ भुयंगप्पाओ, जइ परं समुद्ददत्तस्स घरिणो धणसिरि त्ति । दंडवासिएण भणियंकिं पुण से निवासक ? भोइयाए भणियं-ल याणामो ति। दंडवासिएण चितियं--न अज्ज अटमी, न नवमी, न चउडसी, ता कि-पुणे से निवासकारण? पबसणनिमित्तं होज्जा: तं पि अंघड. माणयं, जओ कल्लम्मि अंगारदिगो, चरमपोरिसीए य विट्ठी आसि विणिवाजयोगो त्ति । न खल दुमित्थियायणं मोत्तणमेवं विहं कम्म पि पाएण कस्सइ अन्नरस संभवइ । ता गच्छामि ताव समहदत्तगेहं, तओ चेव मे उवलद्धी हविस्सइ ति। गओ एसो, दिट्ठा य तेण दुवारदेसभायम्मि चेव चेडी। पुच्छिया एसा । अस्थि इह सत्थवाहपरिणी न व त्ति ? तओ ससंखोहं भणियं चेडियाए-कि पूर्ण तीए पओयणं ? तओ दंडवासिएण अहिप्पायभणिइकुसलेण सयमिव जंपियं-आ पावे विसुमरिग्रो ते रिसिवतंतो त्ति ? तओ सकम्मदुटुत्तणेण नियडिवलिययाए । भणियं चेडियाए-अज्ज, गवेसणनिमित्तं चेव भगवओ ते अहं सामिणोर पेसिया, न उग अन्नं वियाणामि । तओ दंडवासिएण 'न निर्गतो दण्डपाशिकः, गतश्चण्डिकायतनम्। पृष्टास्तेन पूजिका-कः पुनरत्रोषित इति ? तया भणितम् -न कोऽपि भुजङ्गप्रायः, यदि परं समुद्रदत्तस्य गृहिणो धनश्रोरिति । दण्डपाशिकेन. भणितम् ---कि पुनस्तस्या निवासकार्यम् ? पूजिकया भणितम्-न जानीम इति । दण्डपाशिकेन चिन्तितम --नाद्याष्टमी, न नवमी, न चतुर्दशी, ततः किं पुनस्तस्या निवासकारणम् ? प्रवसननिमित्तं भवेत् तदप्यघटमानकम्, यतः कल्येऽङ्गारकदिनः, चरमपौरुष्यां च विष्टिरासीद् विनिपातयोग इति । न खलु दुष्टं स्त्रीजनं मुक्त्वा एवंविधं कर्मापि प्रायेण कस्यचिदन्यस्य सम्भवति, ततो गच्छामि तावत् समुद्रदत्तगेहम्, तत एव मे उपलब्धिर्भविष्यतीति । गत एष, दृष्टा च तेन द्वारदेशभाग एव चेटी । पृष्टैषा--अस्तीह सार्थवाहगृहिणो नवेति ? ततः ससंक्षोभं भणितं चेटिकयाकिं पुनस्तस्याः प्रयोजनम् ? ततो दण्डपाशिकेनाभिप्रायभणितिकुशलेन सासूयमिव जल्पितम्- आः पापे ! विस्मृतस्ते ऋषिवृत्तान्त इति ? ततः स्वकर्मदुष्टत्वेन निकृतिवलिकतया च भणितं चेटिकया-आर्य ! गवेषणनिमित्तमेव भगवतोऽहं स्वाभिन्या प्रेषिता, न पुनरन्यद् विजानामि । ततो 'अरे शीघ्र ही ऋषि का घात करने वाले को प्राप्त करो।' दण्डपाशिक (सेनापति निकल पड़ा। (वह) चण्डी के मन्दिर में गया । उसने पुजारिन (पूजिका) से पूछा-'यहाँ पर कौन ठहरा था? उसने कहा-'कोई चोर नहीं था, . यदि कोई दूसरा था तो समुद्रदत्त की गृहणी धनश्री थी ।' दण्डपाशिक ने कहा-'उसके रहने का क्या प्रयोजन था ?' पुजारिन ने कहा -- 'नहीं जानती हूँ।' दण्डपाशिक सेनापति)ने सोचा ----'आज न अष्टमो है, न नवमी है; न चतुर्दशी है, अतः उसके रहने का क्या कारण है ? विदेशगमन के कारण ऐसा हुआ हो, वह भी नहीं घटता है, क्योंकि कल मंगलवार था, अन्तिम प्रहर में नरकवास और मरण का योग था। दुष्ट स्त्रीजन को छोड़ कर इस प्रकार का कार्य अन्य के द्वारा सम्भव नहीं है । अतः समुद्रदत्त के घर जाता हूँ, वहाँ से ही मुझे उपलब्धि होगी।' यह गया, इसने द्वार पर ही दासी को देखा । दासी से पूछा-'यहाँ पर व्यापारी की गृहिणी है अथवा नहीं ?' तब क्षुभित होकर दासी ने कहा-'उससे क्या प्रयोजन ?' तब अभिप्राय को व्यक्त करने में कुशल दण्डपाशिक ने असूयायुक्त होते हुए के समान कहा -'अरी पापिन ! क्या तू ऋषि का वृतान्त भूल गयो ?' तब आने कार्य की दुष्टता और देव की बलवत्ता के कारण दासी ने कहा-'आर्य ! भगवान को खोजने के लिए ही मुझे स्वामिनी ने भेजा था, अन्य कुछ भी नहीं जानती हूँ। तब दण्डाशिक ने, 'इसमें कोई सन्देह नहीं है । अन्यया खोजने के लिए क्यों भेजा वा १. देवयायर्ण-ख, 2, निवासस्स कारणं-ख, ३. तीए योयणं ? तपोडवासिएणं अहिप्पासे निवास"-के। Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [समराइचकहा एत्थ संदेहो, अन्नहा कि गवसणनिमित्तं' ति वितिऊण पुच्छिया एसा--सुंदरि, अलं भयसंकाए कि पुणुद्दिसिय तुमं भयवओ गवेसणनिमित्तं पेसिया। चेडियाए भणियं अज्ज, सो खु भयवं कल्ले तइयपोरिसीए भिक्खानिमित्तं इहं पविडो ति, अगेण्हिऊण भिक्खं लहु चेव निग्गओ । तओ निग्गच्छमाणं पेच्छिऊण भणिया अहं सामिणोए, जहा 'मंजरिए, गच्छ, कहिं पुण एस समणओ ठिओ त्ति नाणिऊण लहं संवाएहि' । तमओ संवाइयं मए, न उण कज्ज वियाणामि। दंडवासिएण भणियं - तओ तत्थ गंतूण किं कयं तस्य तीए? चेडियाए भणियं -अज्ज, न किंचि, न वंदिओ वि एसो सामिगोए, अवि चंडियाए कया पूय ति। दंडवासिएण चितियं अओ चेव करदेवयाविहाणनिमित्तं पयारिऊण परियणं एयाए वावाइयो हविरसइ । ता पेच्छामि ताव सत्थवाहपरिणि, तओ मुहवियारओ चेव लक्खिस्सामि ति। गओ तीए पास, संखुद्धा धणसिरी, लक्खिओ से भावो दंडवासिएप, भणिया यण-पेसियो अहं महाराएण, [वावाइयो' रिसी,] रिसिवावायगअण्णसणनिमित्तं, पवत्तो य तस्स घाययवियाणणत्थं ति । पसुत्ता य तुमं चंडियाययणे, वियाणिओ य एस वुत्तंतो मए । ता एहि, दण्डपाशिकेन 'नात्र सन्देहः, अन्यथा कि गवेषणनिमित्तम्' इति चिन्तयित्वा पृष्टैषा-सुन्दरि ! बसंभयशङ्कया, किं पुनरुद्दिश्य त्वं भगवतो गवेषणनिमित्तं प्रेषिता ? चेटिकया भणितम् --आर्य ! स खलु भगवान् कल्ये तृतीयपौरुष्यां भिक्षानिमित्तमिह प्रविष्ट इति, अगृहीत्वा भिक्षां लघ्वव निर्गतः । ततो निर्गच्छन्तं प्रेक्ष्य भणिताऽहं स्वामिन्या, यथा 'मञ्जरिके ! गच्छ, कुत्र पुनरेष श्रमणः स्थित ततो ज्ञात्वा लघुसंवादय' । ततः संवादितं मया, न पुनः कार्य विजानामि । दण्डपाशिकेन भणितम्ततस्तत्र गत्वा किं कृतं तस्य तया? चेटिकया भणितम् --आर्य! न किञ्चित्, न वन्दितोऽप्येष स्वामिन्या मपि चण्डिकायाः कृता पूजेति । दण्डपाशिकेन चिन्तितम्-अत एव करदेवताविधाननिमित्तं प्रतार्य परिजनमेतया व्यापादितो भविष्यति । ततः प्रेक्षे तावत् सार्थवाहगृहिणीम्, ततो मुखविकारत एव लक्षयिष्यामीति । गतस्तस्याः पार्श्वम्, संक्षुब्धा धनश्रोः, लक्षितस्तस्या भावः दण्डपाशिकेन, भणिता पतेन-प्रेषितोऽहं महाराजेन, [व्यापादित ऋषिः,] ऋषिव्यापादकान्वेषणनिमित्तम्, प्रवृत्तश्च तस्य पातकविज्ञानार्थमिति । प्रसुप्ता च त्वं चण्डिकायतने, विज्ञातश्चैष वृत्तान्तो मया। तत एहि नरपतिसोचकर इससे पूछा-'सुन्दरी! भय की शंका मत करो, किसलिए तुम भगवान को खोजने के लिए भेजी गयी थी ?' हासीकहा-'आर्य! वह कल तीसरे पहर भोजन के लिए यहाँ प्रविष्ट हुए। भोजन को ग्रहण किये बिना शीघ्र ही निकल गये। तब निकलते हुए देखकर स्वामिनी ने मुझसे कहा कि हे मंजरिका ! जाओ, यह श्रमण कह ठहरा हुआ है, यह जानकर शीघ्र कहो । तब मैंने बतलाया। कार्य के विषय में मैं नहीं जानती हूँ।' दण्डपाशिक (सेनापति) ने कहा--- 'अनन्तर वहाँ जाकर उस मुनि का उसने क्या किया?' दासी ने कहा---'आर्य ! कुछ नहीं, स्वामिनी ने इसकी वन्दना भी नहीं की तथापि चण्डी की पूजा की। दण्डपाशिक ने सोचा-इसीलिए क्रूर देवता की पूजा के निमित्त से सेवकों को धोखा देकर इसी ने मार दिया होगा। अत: वणि पत्नी को देखता हूँ। मुख के विकार से ही मैं जान जाऊंगा।' (दण्डपाशिक) उसके पास गया, धनश्री क्षुब्ध हुई, उसके भावों को दण्डपाशिक ने जान लिया। उसने कहा-'मुझे महाराज ने ऋषि को मारने का पता लगाने भेजा है, उसके मारने वाले को जानने के लिए आया हूँ। तुम चण्डी के मन्दिर में मोयी थीं, यह वृत्तान्त मुझे मालूम हो गया है । अत: आओ, राजा के पास दोनों चलें।' यह सुनकर घबड़ाहट तथा भय से अंगों को कपाती हुई धनधी पृथ्वी पर गिर पड़ी। दमपाशिक ने सोचा-'यह इसी ने किया है, नहीं तो क्यों इस प्रकार डरती । इसकी (लोगों ने) निन्दा की । लोगों १.अयं कोष्ठान्तर्गतः पाठः क-पुस्तके नास्ति, 2. घाययन्नेसणत्यं-ख । Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पउत्यो भवो] ३४॥ नरवइसमीवं गच्छम्ह । एयं च सोऊण ससज्झसा भयपवेविरंगी निवडिया धरणिवठे धणसिरी। वंडवासिएण चितियं-कयमिणमिमीए, कहमन्नहा एवंविहं भयं ति निभच्छिया एसा। मिलियो जणवओ। एयं च वइयरमायण्णिऊण जणसयासाओ 'मा अहं च एवं चेव घेप्पिस्सामि' ति चितिऊण अप्पविसिऊण नियगेहं दुवारओ चेव पलाणो नंदओ। नीया य एसा नरवइसमीवं । साहिओ वुत्तंतो नरवइस्स । पुलइया जेणं, चितियं च । हंत कहमेयाए आगिईए इमं ईदिसं निसंसकम्मं भविस्सइ ? पुच्छिा य णेणं-अह' किनिमित्तं तुम चंडियाययणं गया आसि ? तओ य तं वयणं सोऊण संखुद्धत्तणेणं न जंपियमिमीए । सुमुप्पन्ना संका राइणो। थेववेलाए पुणो वि पुच्छिया। कओ तुमं कस्स वा धूय ति? तओ साहियमिमीए । सुसम्मनयराओ, अहं पुण्णभद्दस्स धूया, समुद्ददत्तस्स घरिणी धणसिरी नाम। गवेसाविओ से भत्ता, नोवलद्धा य । तओ अच्चंतसुद्धसहावयाए जहाठियं पयापरिवालणसह मुन्वहंतेणं 'कयाइ न तरइ रायपुरओ साहिउं पओयणं, तावीसत्था साहिस्सइ' ति कुलप्पवाहपरियाणणनिमित्तं पेसिओ राइणा पुण्णभद्दमंतरेण एयवइयरपडिबद्धलेहसणाहो लेहवाहओ। रक्खाविया समीपं गच्छावः । एतच्च श्रुत्वा ससाध्वसा भवप्रवेपमानाङ्गी निपतिता धरणीपष्ठे धनश्रीः। दण्डपाशिकेन चिन्तितम् - कृतमिदमनया, कथमन्यथा एवंविधभयमिति । निर्भत्सितैषा । मिलितो जनवजः । एतं च व्यतिकरमाकर्ण्य जनवजसकाशात् 'माऽहं च एवमेव ग्रहोष्ये' इति चिन्तयित्वाप्रविश्य निजगेहं द्वारत एव पलायितो नन्दनः। नोता चैषा नरपतिसमीपम् । कथितो वृत्तान्तो नरपतये । दृष्टा तेन, चिन्तितं च । हन्त कथमेतयाऽकृत्या इदमोदृशं नशंसकर्म भविष्यति ? पष्टा च तेन-अथ किंनिमित्तं त्वं चण्डिकायतनं गताऽऽसीः ? ततश्च तद् वचनं श्र त्वा संक्षब्धत्वेन न जल्पितमनया । समुत्पन्ना शङ्का राज्ञः। स्तोकवेलायां पुनरपि पृष्टा -कुतस्त्वं कस्य वा दुहितेति ? ततः कथितमनया-सुशर्मनगरात्, अहं पूर्णभद्रस्य दुहिता, समुद्रदत्तस्य गृहिणी धनश्री म । गवेषितस्तस्य भर्ता, नोपलब्धश्च । ततोऽत्यन्तशुद्धस्वभावतया यथास्थितं प्रजापालनशब्दमुद्वहता 'कदाचिद् न शक्यते राजपुरतः कथयितुं प्रयोजनम्, ततो विश्वस्ता कथयिष्यति' इति कुलप्रवाहपरिज्ञाननिमित्तं प्रेषितो राज्ञा पूर्णभद्रमन्तरेण(समीपे) एतद्व्यतिकरप्रतिबद्धलेखसनाथो लेखवाहकः । की भीड़ इकट्ठी हो गयी । इस घटना को सुनकर मनुष्यों की भीड़ के पास ' मैं भी इसी प्रकार न पकड़ा जाऊँ।' ऐसा सोचकर अपने घर में न घुसकर नन्दक द्वार से ही भाग गया। इसे (धनश्री को) राजा के पास ले गये । राजा से वृत्तान्त कहा । राजा ने देखा और सोचा-'खेद है, ऐसी बाकृति वाली इसने कैसे इस नृशंस कार्य को किया होगा?' राजा ने पूछा- 'तुम किस कारण चण्डी के मन्दिर में गयी थी ?' अनन्तर उनके वचन को सुनकर क्षुब्ध होने के कारण यह नहीं बोली । राजा को शंका हुई । थोड़ी देर में पुनः पूछा-'तुम कहाँ से आयी हो और किसकी पुत्री हो ।' तब इसने कहा – 'सुशर्मनगर से आयी हूँ। मैं पूर्णभद्र की पुत्री और समुद्रदत्त की पत्नी हूँ। मेरा नाम धनश्री है।' उसके पति को ढूढ़ा गया और वह मिला नहीं। अनन्तर अत्यन्त शुद्ध स्वभाव वाले और प्रजापालन के शब्द को यथार्थरूप से वहन करते हुए 'कदाचित् राजा के सामने प्रयोजन न कह सकती हो । बाद में विश्वस्त हो कर कहेगी'--ऐसा सोचकर कुल-परम्परा का पता लगाने के लिए राजा ने पूर्णभद्र के पास इस घटना के लेख के साथ - १. कह-क। Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ एसा, पइदियहं पुच्छावए नरवई, न य किचि जंपइ त्ति आगओ ले वाहओ, समप्पिओ तेण पडिलेहो वाइओ राइणा । लिहियं च तत्थ । अस्थि मे धूया ध गसिरी कुलदूषणा । तओ राइणा चितियंअसंसयं कमिणमिमीए, अकज्जायरणसीला चेव एसा महाप वा । अहो से मूढया, अहो महापादकम्माणुट्ठाणं, अहो कूरहिय प्रया, अहो अणालोइयत्त । तहा वि 'अवज्झा इथिय' त्ति धाडिया णेण सरज्जाओ। गच्छमाणो य वासरंते तहाछुहाभिभूया पसुत्ता गामदेउलसभीवे । डक्का भुयंगमेणं । 'महापरिकिलेसेण विमुक्का जीविएणं । उववन्ना य एसा मरिऊण वालुयप्पभाए पुढवीए सत्तसागरोववट्ठि नारगो त्ति। याकिनीमहत्तरासूनु-परमगुणानुरागि-परमसत्यप्रिय-भगवत्-श्रीहरिभद्रसूरिविरचितायां 'समराइच्चकहाए' चतुर्थो भवः समाप्तः । रक्षितैषा, प्रतिदिवसं प्रच्छयति नरपतिः, न च किंञ्चिज्जल्पताति । आगतो लेखवाहकः, समर्पितस्तेन प्रतिलेखः, वाचितो राज्ञा। लिखितं च तत्र। अस्ति मे दुहिता धनश्रीः कुलदूषणा च । ततो राज्ञा चिन्तितम् असंशयं कृतमिदमनया, अकार्याचःणशीला एवंषा महापाप।। अहो ! अस्या मूढता, अहो महापापकर्मानुष्ठानम्, अहो क्रूर हृदयता, अहो अनालोचितत्वम् । तथापि 'अवध्या स्त्रो इति धाटिता तेन स्वराज्याद् । गच्छन्तो च वासरान्ते तृष्णाक्षुदभिभूता प्रसुप्ता ग्रामदेवकुलसमीपे । दष्टा भुजङ्गमेन । महता परिक्लेशेन विमुक्ता जीवितेन। उपपन्ना चैषा मृत्वा बालुकाप्रभायां पृथिव्यां सप्तसागरोपमस्थिति रक इति । इति श्रीयाफिनीमहत्तरासूनु-परमगुणानुरागि-परमसत्यप्रिय श्रीहरिभद्राचार्यविरचितायां समरादित्यकथायां संस्कृतानुवादे चतुर्थभवग्रहणं समाप्तम् । लेखवाहक को भेजा । इसकी रक्षा की गयी । प्रतिदिन राजा ने पूछा किन्तु यह नहीं बोली । लेखवाहक आया, उसने प्रत्युत्तर समर्पित किया-राजा ने पढ़ा । उसमें लिखा था- 'धनश्री मेरी पुत्री है और कुल को दोष लगाने वाली है।' तब राजा ने सोचा -. 'इसमें कोई संशय नहीं कि यह कार्य इसी ने किया, अकार्य का आचरण करने वाली यह महापापिन है । इसकी मूढ़ता, पाप कर्म का अनुष्ठान, हृदय की क्रूरता, बिना विचारे कार्य करना (आदि सभी) आश्चर्यकारक हैं; तथापि 'स्त्री अवध्य है'-ऐसा सोचकर उसे अपने राज्य से निकाल दिया। दिन के अन्त समय में जाती हुई भूख-प्यास से अभिभूत होकर यह गाँव के देवमन्दिर के समीप सो गयी । (इसे सांप ने डम लिया । बहुत बड़े क्लेश से प्राण छोड़े। मरकर यह बालुकाप्रभा नामक पृथ्वी में सातसागर की स्थिति वाली नारकी इस प्रकार याकिनी महत्तरा के पुत्र, परमगुणों के अनुरागी, परमसत्यप्रिय भगवान श्री हरिभद्राचार्य द्वारा विरचित सनराइच्चकहा का चतुर्थ भवग्रहण समाप्त हुआ। Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमो भवो वक्खायं जं भणियं धणधणसिरिमो य एत्थ पइभज्जा। जयविजया य सहोयर एत्तो एयं पवक्खामि ॥४३५॥ अस्थि इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे कायंदो नाम नयरी। जीए समुद्दोद्देसा' विय पंकयगाहाउलाओ फरिहाओ, पइव्वयाजणमणो विय परपुरिसालंघणिज्जो पागारों धरणिहरकंदराई विय सोहबालय-समद्धासियाई दुवारतोरणाइं, सरयजलहरुक्केरा विय धवलाभोयसुंदरा पासाया। अविय। दियह पिय विहरखिनो जीए पओसम्मि कुलवहूसत्थो। दूमिज्जइ जालंतरपडिएहि मियंक किरणेहिं ॥४३६॥ गुरुयणविणउज्जुत्तो पणईयणवच्छलो सुहाभिगमो। धम्मत्थसाहणरई जीए जणो गुणनिही वसइ ॥४३७॥ व्याख्यातं यद् भणितं धन-धनश्रियौ चात्र पतिभार्ये । जय विजयौ च सहोदरी इत एतत् प्रवक्ष्यामि ॥४३॥ अस्ति इहैव जम्बद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे काकन्दी नाम नगरी । यस्याः समुद्रोद्देशा इव पङ्कजग्राहाकुलाः परिखाः, प्रतिव्रताजनमन इव परपुरुषालङ्घनीयः प्राकारः, धरणीधरकन्दराणीव सिंहबालकसमध्यासितानि द्वारतोरणानि, शरज्जलधरोत्करा इव धवलाभोगसुन्दराः प्रासादाः। अपि च दिवसप्रियविरहखिन्नो यस्यां प्रदोष कुलवधूसार्थः । दूयते जालान्तरपतितैमूंगाङ्गकिरणः ।।४३६।। गुरुजनविनयोधुक्तः प्रणयिजनवत्सलः सुखाभिगम्यः । धर्मार्थसाधनरतिर्यस्यां जनो गुणनिधिर्वसति ॥४३७॥ धन और धनश्री नामक पति और पत्नी के विषय में यहां पर जो कहा गया, उसकी व्याख्या हो चुकी। अब जय और विजय नामक दो भाइयों के विषय में कहूँगा ।।२३५॥ इसी जम्बूद्वीप के भारतवर्ष में काकन्दी नगरी है, जिसकी समुद्र प्रदेश के समान कमल और मगरों से व्याप्त परिखा थी, जिसका प्राकार प्रतिव्रता स्त्री के मन के समान परपुरुष (शत्रुपुरुष) द्वारा अलंघनीय था, द्वारतोरण पर्वत की गफाओं के समान सिंहों के बच्चों से अधिष्ठित थे तथा प्रासाद (महल) शरत्कालीन मेघसमूह के समान सफेद आकार वाले होने के कारण सून्दर थे। और भीजिस नगरी में दिन में अपने प्रियों के विरह से खिन्न कुलवधुओं का समूह सायंकाल में पड़ती हुई चन्द्रमा दुःखी होता था; जिसमें बड़े लोगों की विनय में तत्पर, याचकों के प्रति स्नेह रखने वाले, सुख से समीप पहुँचने योग्य, धर्म और अर्थ के साधन में रत तथा गुणों के सागर मनुष्य निवास करते थे ॥२३६-२३७॥ १. समुद्ददेसा-क; 2. कयारो-क, ३. विडिएहि-ख। Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ [सनराइचकहा तीए अखंडियनियभुयपरक्कमो सूरतेओ नाम राया। जम्मि रणवासरेसुं विसालवंसम्मि वियडकडयम्मि। अत्थधरा हरसिहरे व्व सूरतेओ पडिप्फलिओ।४३८॥ तस्स य सयलंतेउरप्पहाणा रूवि व्व कुसुमचावरिणी लोलावई नाम भारिया। तस्य राइणो इमीए सह विसयसुहमणुहवंतस्स अइक्कंतो कोइ कालो।। ____ इओ य सो महासुक्कप्पवासी देवो अहाउयमणुवालिऊण तओ चुओ समाणो समुप्पन्नो लीलावईए कुच्छिंसि । दिट्ठो य तीए सुमिणयम्मि तोए चैव रयणीए पहायसमयम्मि संपुण्णमंडलो सयलजणमणाणंदयारी चंदिमापसाहिय भुवणभवणो मयलंछणो वयणेणमुयरं पविसमाणो ति। दिट्ठा य तं सुहविबुद्धाए सिट्ठो तीए जहाविहिं दइयस्स । हरिसवसुभिन्नपुलएणं भणिया य तेणंसुंदरि, सयलसामंतमियंको पुत्तो ते भविस्सइ। पडिस्सुयमिमीए। पतितुद्वा एसा। तिवग्गसंपायणसहमणहवंतीए पत्तो पसूइसमओ। सुहजोएणं च पसूया एसा । जाओ से दारओ। निवेइओ निव्वइतस्यामखण्डितनिजभुजपराक्रमः सूरतेजा नाम राजा। यस्मिन् रणवासरेषु विशालवंशे विकटकटके। ____ अस्तधराधरशिखरे इव सूरतेजः प्रतिफलितम् ॥४३८।।। तस्य च सकलान्तःपुरप्रधाना रूपिणीव कुसुमचापगृहिणी लीलावती नाम भार्या । तस्य । राज्ञोऽनया सह विषयसुखमनुभवतोऽतिक्रान्तः कोऽपि कालः ।। इतश्च स महाशुक्रकल्पवासी देवो यथायुरनुपाल्य ततश्च्युतः सन् समुत्पन्नो लीलावत्याः कुक्षी दष्टश्च तया स्वप्ने तस्यामेव रजन्यां प्रभातसमये सम्पूर्णमण्डलः सकलजनमनआनन्दकारी चन्द्रिकाप्रसाधितभुवनभवनो मृगलाञ्छनो वदनेनोदरं प्रविशन्निति । दृष्टा च तं सुखबिबुद्धया शिष्टस्तया यथाविधि दयितस्य । हर्षवशोद्भिन्नपुलकेन भणिता च तेन-सुन्दरि! सकल सामन्तमृगाङ्क पुत्रस्ते भविष्यति । प्रतिश्रुतमनया । परितुष्टैषा। त्रिवर्गसम्पादनसुखमनुभवन्त्याः प्राप्तः प्रसूतिसमयः । शभयोगेन च प्रसूतैषा । जातस्तस्या दारकः । निवेदितो निर्वतिनामया राजदारिकया नरपतये। __ ऐसी उस नगरी में, जिसकी अपनी भुजाओं का पराक्रम खण्डित नहीं हुआ था, ऐसा सूरतेज नामक राजा था। विशाल वंश और भयंकर सैन्य समुदाय के सामने युद्ध के दिनों में पर्वत-शिखर पर अस्त होने वाले सूर्य के समान जिसका तेज प्रतिफलित होता था ॥४३८।। (ऐसे) उस राजा की समस्त अन्तःपुर में प्रधान, रूप में कामदेव की पत्नी रति के समान लीलावती नामक पत्नी थी। उस राजा का इस रानी) के साथ विषयसुख का अनुभव करते हुए कुछ समय व्यतीत हो गया। इधर वह महाशुक्र स्वर्ग का निवासी देव आयु पूरी कर लीलावती के गर्भ में आया। उसने उसी रात्रि के अन्तिम प्रहर में स्वप्न में समस्त लोगों को आनन्द देने वालों, चांदनी से संसार रूपी भवन को प्रकाशित करने वाले चन्द्रमा को मुख से उदर में प्रवेश करते हुए देखा। उसे देखकर वह सुखपूर्वक जाग गयी । उसने विधिपूर्वक पति से निवेदन किया । हर्षवश जिसे रोमांच हो रहा था, ऐसे राजा ने कहा- "सुन्दरी ! समस्त सामन्तों में चन्द्रमा के समान तुम्हारा पुत्र होगा।" इसने स्वीकार किया और यह सन्तुष्ट हुई । धर्म, अर्थ और कामसुख का अनुभव करते हुए प्रसूति का समय आया । शुभयोग में इसने प्रसव किया । इसके पुत्र उत्पन्न हुआ। निर्वृति १. अत्थहरा''-क। Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमो भवो ] ३४५ नामाए रापदारियाए नरवइस्स । कयं जहोचियमणेणं । अइक्कतो मासो। पइट्टावियं च से नाम दारयस्स जयकुमारो त्ति कहाणयविसेसेण । पत्तो कुमारभाव । गहिओ तेण रायकुमारोचियकलाकलायो पुत्वभवभावणाओ य अस्थि से धम्मचरणम्मि अणुराओ। ___अन्नया य निग्गओ आसवाहणियाए। दिट्ठो य तेण चंदोदयउज्जाणे अहाफासुए पएसे दिणयरो विय दित्तयाए चंदो विय सोमयाए समुद्दो विय गंभीरयाए रयणरासी विय महग्घयाए कुसुमामेलो विय लायण्णयाए सग्गो विय रम्मयाए मोक्खो विय निव्वयाणिज्जयाए सेयवियाहिवस्स जसवम्मणो पुत्तो पडिवन्नामलगो ससमयपरसमयगहियसारो अणेयसमणपरियओ सणंकुमारो नामायरिओ ति। च ठूण समुप्पन्नो कुमारस्य संवेगो । चितियं च णेणं-अहो णु खल ईइसो एस संसारो, जेण एवंविहेहि पि सुरलोयदुल्लहेहि अजत्तसंपज्जंतसयलमणोरहेहिं महापुरिसेहिं परिचत्तो त्ति । ता को पुण एसो, किं वा से परिच्चायविसेसकारणं ति पुच्छामि एयं । गओ तस्स समीवं, वंदिओ तेण भयवं सणंकुमारा। यरिओ सेससाहुणो य । धम्मलाहिओ भयवया सेससाहूहि य। उवविट्ठो गुरुपायमूले । विणयरइयथोचितमनेन । अतिक्रान्तो मासः । प्रतिष्ठापितं च तस्य नाम दारकस्य 'जयकुमार' इति कथानकविशेषेण । प्राप्तः कुमारभावम् । गृहीतस्तेन राजकुमारोचितकलाकलापः । पूर्वभवभावनातश्चास्ति तस्य धर्मचरणेऽनुरागः । अन्यदा च निर्गतोऽश्ववाहनिकया । दृष्टस्तेन चन्द्रोदयोद्याने यथाप्रासुके प्रदेश दिनकर इव दीप्त्या, चन्द्र इव सौम्यतया, समुद्र इव गम्भीरतया, रत्नराशिरिव महार्यतया, कुसुमापोड (काम) इव लावण्यतया (लावण्येन), स्वर्ग इव रम्यतया, मोक्ष इव निर्वचनीयतया, श्वेतविकाधिपस्य यशोवर्मणः पुत्रः प्रतिपन्नश्रमणलिङ्गः स्वसभयपरसमयगृहीतसारोऽने कश्रमणपरिवृतः सनत्कुमारनामाचार्य इति । तं च दृष्ट्वा समुत्पन्नः कुमारस्य संवेगः । चिन्तितं च तेन-अहो ! नु खलु ईदृश एष संसारः, येन एवंविधैरपि सुरलोकदुर्लभैरयत्न सम्पद्यमानसकलमनोरथैर्महापुरुषैः परित्यक्त इति । ततः कः पुनरेषः किं वा तस्य परित्यागविशेष कारणमिति पच्छाम्येतम् । गतस्तस्य समोपम् । वन्दितस्तेन भगवान् सनत्कुमाराचार्यः शेषसाधवश्च । धर्मलाभितो भगवता शेषसाधुभिश्च । उपविष्टो गुरुपादमूले नामक राजदारिका ने राजा से निवेदन किया। राजा ने यथोचित कार्य सम्पन्न किये । एक माह बीत गया । पुत्र का नाम कथानकविशेष से जयकुमार रखा गया। वह कुमारावस्था को प्राप्त हुआ। उसने राजकुमारों के योग्य कलाओं के समूह को ग्रहण किया । पूर्वभव की भावनावश उसका धर्मपालन के प्रति अनुराग हो गया। __ एक बार वह घोड़े पर सवार होकर निकला । उसने चन्द्रोदय नामक उद्यान के स्वच्छ प्रदेश में श्वेतविकाधिपति यशोवर्मा के पुत्र सनत्कुमार नामक आचार्य को, जिन्होंने श्रमणलिंग धारण कर लिया था, देखा । वे दीप्ति में सूर्य के समान थे, सौम्यता में चन्द्रमा के समान थे, गम्भीरता में समुद्र के समान थे, बहुमूल्यता में रत्नों की राशि के समान थे, सौन्दर्य में काम के समान थे, रमणीयता में स्वर्ग के समान थे, उपशान्ति में मोक्ष के समान थे, उन्होंने स्वसमय (आत्मा) और परसमय (आत्मा से भिन्न द्रव्य का स्तर ग्रहण किया था और बे अनेक श्रमणों से घिरे हुए थे। उन्हें देखकर कुमार को वैराग्य उत्पन्न हुआ। उसने सोचा – 'ओह ! यह संसार ऐसा है कि जिसे देवताओं के लिए भी दुर्लभ, बिना यत्न के समस्त मनोरथों को प्राप्त हुए महापुरुष भी त्याग देते हैं । अतः यह कौन हैं और इनके परित्याग का विशेष कारण क्या है ? यह मैं इनसे पूछता हूँ। वह उनके समीप गया । उसने भगवान आचार्य सनत्कुमार और शेष साधओं की वन्दना की। भगवान और शेष साधओं ने उसे धर्मलाभ दिया। वह गुरु के चरणों में विनयपूर्वक हाथों की अंजलि बांधकर बैठ गया और बोला-'भगवन ! Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [समराइज्यका यकरयलंजलिउडं भणियं च णेणं- भयवं, असारो चेव एस संसारो कस्स वा सयण्णविन्नाणस्स न निव्वेयकारणं, तहा वि पाएणं न बज्झनिमित्तमंतरेण एस संजायइ त्ति । ता आचिक्ख' भयवं, कि ते विसेसनिव्वेधकारणं, कं वा भयवंतमवगच्छामिति । तओ भयवया 'अहो से विवेगो, अहो वयणविन्नासो, अकहिज्जमाणे मा अलोइयं संभावइस्सह, त्ति चितिऊण भणियं-सोम, सुण । विसेसकारणं पि न संसारवियारमंतरेण, तहावि विइयसंसारसहावस्सवि भवओ कोउयं ति कलिऊण साहिज्जइत्ति । ३४६ किह ? अथ इव भारहे वासे सेयविया नाम नयरी । तत्थ जसवम्मो राया । तस्स पुत्तो सणकुमाराभिहाणी अहं । जायमेत्तस्स आइट्ठ ं च मे संवच्छरिएण विज्जाहरनरिदत्तणं ति । अइवल्लहो तायस्स सुणिऊणऽप्पनियाणं महाविवागं च कम्मपरिणामं । चित्तंगयविज्जा हरस मणसमीवम्मि निक्खतो ॥४३६ ॥ विनयर चितकरतलाञ्जलिपुटं भणितं च तेन । भगवन् - असार एवैष संसार:, कस्य वा सकर्णविज्ञानस्य न निर्वेदकारणम् ? तथाऽपि प्रायेण न बाह्यनिमित्तमन्तरेण एष सञ्जायते इति । तत आचक्ष्व भगवन् ! कि ते विशेषनिर्वेदकारणम्, कं वा भगवन्तमवगच्छामीति । ततो भगवता 'अहो तस्य विवेक:, अहो वचनविण्यासः, अकथ्यमाने मा अलौकिकं सम्भावयिष्यति' इति चिन्तयित्वा भणितम् - सौम्य ! शृणु । विशेषकारणमपि न संसारविचारमन्तरेण तथाऽपि विदितसंसारस्वभावस्यापि भवतः htraमिति कलयित्वा कथ्यते इति । कथम् ? अस्ति इहैव भारते वर्षे श्वेतविका नाम नगरी । तत्र यशोवर्मा राजा । तस्य पुत्रः सनत्कुमाराभिधानोऽहम् । जातमात्रस्यादिष्टं च मे सांवत्सरिकेन विद्याधरनरेन्द्रत्वमिति । अतिवल्लभस्तातस्य चला गया ।।४३६ ॥ कैसे ? श्रुत्वाऽल्पनिदानं महाविपाकं च कर्मपरिणामम् । चित्राङ्गदविद्याधरश्रमणसमीपे निष्क्रान्तः ॥ ४३६॥ यह संसार असार ही है, किस सुनने वाले के लिए यह वैराग्य का कारण नहीं है ? तथापि प्रायः बाह्य निमित्त के बिना यह वैराग्य उत्पन्न नहीं होता है अतः भगवन् ! 'कहिए, आपके वैराग्य का विशेष कारण क्या है ?' 'ओह ! उसका विवेक और वचन- विन्यास आश्चर्यकारी है। बिना कहे यह अलौकिक नहीं हो सकता है' ऐसा सोचकर उन्होंने कहा - 'सौम्य ! सुनो। संसार के स्वरूप के विचार के अतिरिक्त कोई विशेष कारण नहीं है । फिर भी, संसार के स्वरूप को जानते हुए भी, आपका कौतूहल है - ऐसा मानकर कहा जा रहा है । छोटे से कारण और महाफल वाले कर्म के परिणाम को सुनकर चित्रांगद विद्याधर श्रमण के समीप इसी भारतवर्ष में श्वेतविका नामक नगरी | वहाँ यशोवर्मा नामक राजा था। उसका पुत्र में सनत्कुमार हूँ । मेरे जन्म लेते हुए, ज्योतिषियों ने विद्याधरों का स्वामी होने की भविष्यवाणी की थी। पिता का अत्यन्त प्रिय १. प्राचिक्ख-ख, २. 'किवा भयवंतमणुजाणामि त्ति' इत्यपि पाठःख, ३. कलियख । Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म पंचो भयो कुमारभावे तत्थ चिट्ठामि जाव गहिया केइ तक्करा वक्षा निज्जति । विट्ठा य ते मए वाहियालि गएणं । भणियं च तेहि-देव, सरणागया अम्हे, परित्तायउ देवो। तओ मोयाविया मए, रुट्ठा नायरया, निवेइयमारक्खिएहि महारायस्य । भणियं च तेणं-जहा कुमारो न याणइ, तहा गेण्हिऊण ते निवेइऊण नायरयाणं वावाएह त्ति । वावाइया य तक्करा, विन्नाओ मए एस वुत्तंतो। रुट्ठो महारायस्य निग्गओ नयरीओ बला पहाणपरियणस्य, आगओ तामलित्ति । मुणिओ एस वृत्तंतो तन्नयरिसामिणा ईसाणचंदेण। निग्गओ पच्चोणि । बहमन्निओ अहं तेण भणिओ य-वच्छ, इमं पि ते निययं चेव रज्जं; ता सुंदरमणुचिट्ठियं, जमिहागओ सि त्ति। पविट्ठो नरि, दिनो मे कुमारावासो। अइक्कतेसु कइवयदिणेसु भणाविओ अहं तेण । गण्हाहि जहिच्छियं जीवणं ति । न रुपडिवन्नं च तं मए । ___ तो तत्थव चिट्ठमाणस्य आगओ अविवेयग्धविय'जणमणाणंदयारी वसंतसमओ, वियंभिओ मलय , फुल्लियाई काणणुज्जाणाई, उच्छलिओ परहुयारवो, पयत्ताओ नयरिचच्चरीओ। एवंविहे य कुमारभावे तत्र तिष्ठामि यावद् गहोता: केचित् तस्करा वध्या नीयन्ते । दृष्टाश्च ते मयाऽश्ववाह. निकां गतेन । भणितं च तैः-देव शरणागता वयम्, परित्रायतां देवः । ततो मोचिता मया । रुष्टा नागरिकाः, निवेदितमारक्षकैर्महाराजस्य । भणितं च तेन ---यथा कुमारो न जानाति तथा गृहीत्व तान् निवेद्य नागरिकेभ्यो व्यापादयतेति । व्यापादिताश्च तस्कराः, विज्ञातो मयैष वृत्तान्तः । रुष्टो महाराजाय निर्गतो नगर्या बलात् प्रधानपरिजनस्य । आगतस्ताम्रलिप्तीम् । ज्ञात एष वृत्तान्तो तन्नगर। स्वामिना ईशानचन्द्रेण । निर्गतः (पच्चोणि दे) सन्मुखम्। बहुमानितोऽहं तेन भणितश्च-वत्स ! इदमपि ते निजकमेव राज्यम्, ततः सुन्दरमनुष्ठितं यदिहागतोऽसीति । प्रविष्टिो नगरीम्, दत्तो मे कुमारावासः अतिक्रान्तेषु कतिपयदिनेषु भणितोऽहं तेन गृहाण यथेप्सितं जीवनमिति । न प्रतिपन्नं च तन्मया। ततस्तत्र व तिष्ठतः आगतोऽविवेकपूर्णजनमन-आनन्दकारी वसन्तसमयः, विजृम्भितो मलयमारुतः, फुल्लितानि काननोद्यानानि, उच्छलितः परभृतारवः प्रवृत्ता नगरचर्चयः । एवंविधे च वसन्तहोते हुए जब मैं कुमारावस्था में था तो कुछ चोरों को पकड़ कर वध के लिए ले जाया जा रहा था। घोड़े पर सवार होकर जाते हुए मैंने उन्हें देखा। उन्होंने कहा-'महाराज ! हम लोग शरण में आये हुए हैं, महाराज हमारी रक्षा करें। तब मैंने (चोरों को) छुड़वा दिया । नागरिक जन रुष्ट हो गये। सिपाहियों ने महाराज से निवेदन किया। महाराज ने कहा-'कुमार को पता न चले, इस तरह से उन्हें पकड़कर, नागरिकों को बतलाकर मरवा दो।' चोरों को मार दिया गया। मुझे यह वृत्तान्त ज्ञात हुआ। प्रधान परिजनों के बल से महाराज पर रुष्ट हो मैं नगरी से निकल गया । ताम्रलिप्ती पहुँचा। यह वृत्तान्त ताम्रलिप्ती के स्वामी ईशानचन्द्र को विदित हुआ। मैं उसके पास से निकला । उसने बहुत सत्कार किया और कहा--'वत्स ! यह भी तुम्हारा ही राज्य है, अतः ठीक किया जो यहाँ आ गये।' मैं नगर में प्रविष्ट हुआ, मुझे (निवास के लिए) कुमारभवन दिया गया। कुछ दिन बीत जाने पर उस राजा ने मुझसे कहा-'इच्छानुसार जीविका ले ले।' मैंने उसे स्वीकार नहीं किया। अनन्तर वहीं रहते हुए अविवेकपूर्ण मनुष्यों के मन को आनन्द देने वाला वसन्त का समय आ गया। मलयाचल की वायु जोर से चलने लगी । वन और उद्यान खिल उठे। कोयलों का जोर-जोर का शब्द होने १. भग्धवियं-पूर्णम् । Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० [समराइचकहा वसंतसमए नियगेहाओ चेव विसेसुज्जलनेवच्छो'वयंसयसमेओपयट्टो कोलानिमित्तं तामलित्तीतिलयभूयं अणंगनंदणं नाम उज्जाणं । अइयओ रायमगं, दिवो य वायायणनिविट्ठाए नयरिसामिणो ईसाणचंदस्स धूयाए विलासवईए । भवंतरभासओ समुप्पन्नो से ममोवरि अणराओ, विमुक्का वावायणासन्नं वच्चमाणस्स तोए ममोवरि सहत्थगुत्था बउलमालिया, लक्खिया प मे बिइयहिययभएण वसुभूइणा, निवडिया मे कंठदेसभाए। पुलइयं मए उवरिहुत्तं, दिट्ट से वायायणदिणिग्गयं वयणकमलं, समुप्पन्नो मे हिययम्मि परिओसो, पेच्छमाणीए य निमिया सा मए सिणेहबहुमाणं कठदेसे । एत्यंतरम्मि परिओसविसायगभिणं ईसिविहसियसणाहं नीससियमिमीए । अइकतो अहयं तमुद्देसं देहमेत्तेणं नपुण चित्तेण, पत्तो अणंगनंदणं उज्जाणं । तत्थ वि य वयंसयाणुरोहेण विचित्तकीलापवत्तो वि देहचेट्टाए तं चेव पयइसंदरं तीए वयणकमलं चितयंतो ठिओ कंचि काल। उचियसमएणं च पविट्रो तामलित्ति कयं उचियकरणिज्जं । अइक्कतो वासरो, समागया रयणी । सम्माणिऊण 'सिरं मे दुक्खेइ त्ति लहं चेव विसज्जिया वयंसया । गओ वासभवणं, ठिओ सयणिज्जे। तत्थ य अणाचिक्खणीयं असंभाव समये निजगेहादेव विशेषोज्ज्वलनेपथ्यो वयस्यसमेतः प्रवृत्तः क्रोडानिमित्तं ताम्रलिप्तीतिलक भतमनङ्गनन्दनं नामोद्यानम् । अतिगतो राजमार्गम्, दृष्टश्च वातायननिविष्ट या नगरोस्वामिन ईशान. चन्द्रस्य दुहिता विलासवाया। भवान्तराभ्यासतः समुत्पन्नस्तस्य ममोपर्यनुरागः, विमक्ता वातायनासन्नं व्रजतस्तया ममोपरि स्वहस्तग्रथिता बकुलमालिका, लक्षिता च मे द्वितोयहदय भतेन वसूभूतिना, निपतिता मे कण्ठदेशभागे। प्रलोकितं मया उपरिभूतम्' (ऊर्वम्) दृष्टं तस्या वातायनविनिर्गतं वदनकमलम्, समुत्पन्नो मे हृदये परितोषः, प्रेक्षमाणायां च स्थापिता सा मया स्नेहबहमानं कण्ठदेशे। अत्रान्तरे परितोषविषादभितमीषद्विहसितसनाथं निःश्व सितमनया । अतिक्रान्तोऽहं तमुद्देशं देहमात्रेण न पुनश्चित्तेन, प्राप्तोऽनङ्गनन्दनमुद्यानम् । तत्रापि च वयस्यानरोधेन विचित्रक्रीडाप्रवृत्तोऽपि देहचेष्टया तदेव प्रकृतिसुन्दरं तस्या वदन कमलं चिन्तयन् स्थितः कञ्चिकालम । उचिंतसमयेन च प्रविष्ट: ताम्रलिप्तोम्, कृतमुचितकरणीयम् । अतिक्रान्तो वासरः, सभागता रजनी। सम्मान्य 'शिरो मे दुःखयति' इति लध्वेव विसजिता वयस्याः। तो वासभवनम, स्थितः लगा। नगर में संगीत मण्डलियाँ प्रवृत्त हुई। ऐसे वसन्त समय के आने पर अपने घर से ही विशेष उज्ज्वल वस्त्र पहनकर मित्रों के साथ क्रीड़ा के लिए ताम्रलिप्ती के तिलक स्वरूप अनंगनन्दन नामक उद्यान की ओर निकल गया। राजमार्ग पर चला। झरोखे में बैठी हुई, नगर के स्वामी ईशानचन्द्र की पुत्री विलासवती ने मझे देख लिया। दूसरे भवों के अभ्यास से उसे मेरे प्रति अनुराग उत्पन्न हो गया। झरोखे के समीप से जाते हए मेरे ऊपर उसने अपने हाथों से गूंथी हुई मौलसिरी की माला फेंकी। वह मेरे कण्ठ में आकर पड़ी और उसे मेरे दूसरे हृदय के समान वसुभूति ने देख लिया । मैंने ऊपर देखा, उसका झरोखे से निकला हुआ मुखकमल दिखाई पड़ा, मेरे हृदय में सन्तोष उत्पन्न हुआ । उसे देखते हुए मैंने माला को स्नेह और सम्मान के साथ कण्ठ में धारण कर लिया। इसी बीच सन्तोष और विषाद से भरी हुई उसने कुछ मुसकराकर लम्बी सांस ली। मैंने उस स्थान को शरीर से तो पार कर लिया, किन्तु मन से नहीं। मैं अनंगनन्दन उद्यान में पहुंचा। वहां पर भी मित्र के अनुरोध से नाना प्रकार की क्रीड़ाओं में प्रवृत्त होने पर भी देव की चेष्टा से स्वाभाविक रूप से सुन्दर उसी कन्या के मुखकमल के विषय में सोचते हए कुछ समय तक रहा । उचित समय पर ताम्रलिप्ती में प्रवेश किया। योग्य कार्यों को किया । दिन बीत गया, रात हुई । आदर से 'मेरा शिर दुःख रहा है'-ऐसा कहकर शीघ्र ही मित्रों १. नेवत्यो-ख, २. दुक्खति-क। Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुभा पंचमो भवो] णीयं अणणुहूयपुवं तहाविहं दुक्खाइसयमणहवंतस्स खणमेत्तलद्धनिद्दस्य अइक्कता रयणी । कयंगोसकिच्चं । समागया वभूइप्पमुहा वयंसया विइण्णाई तंबोलाइ। गया अम्हे कलानिमित्तं तमेव भवणुज्जाणं । पवत्ता कोरिउ विचित्तकोलाहिं । सुन्नहिययत्तणाओ य लक्खिओ मे चित्तम्मि । मयणवियारो वसुभूइणा । विते य कीलावइयरे माहवीलयामंडवम्मि चिट्ठमाणो भणिओ अहं तेण - भो वयस्स, अह किं पुण तुमं अज्ज वासरम्भि व ससी विच्छाओ दीससि, खणं च झाणगओ विय मणी सयलचे निरु भसि, तओ य लद्धलाहो विय जयारो परिओसमव्वहसि ति। तओ मए असमिक्खियकारियाए मयणस्स बीयहिययभयस्स वि गहमाणेण निययमायारं जंपियं न किचि लक्खमि त्ति । भइणा भणियं--'अहं लक्खेमि।'मए भणियं -- कि तयं।' बसभइणा भणियं-आरोविओ ते बउलमालियागिहेण राबदारियाए गयचितामारो, विद्धो य तीए दिट्टिपायच्छलेण मयणसरधोरणीहि । तज्जणिओ एस वियारो। अन्नहा कहमयंडम्मि चेव परिपंडुरं ते वयणं, अलद्धनिद्दासुहाइं च तारशयनोये । तत्र चानाख्येयमसम्भावनोयमननुभूतपूर्व तथाविधं दुःखातिशयमनुभवतः क्षणमात्रलब्धनिद्रस्यातिक्रान्ता रजनो । कृतं प्रातःकृत्यम् । समागता वसुभूतिप्रमुखा वयस्याः । वितीर्णानि ताम्बलानि । गता वयं क्रोडानिमित्तं तदेव भवनोद्यानम् । प्रवृत्ताः क्रीडितुं विचित्रक्रीडाभिः । शन्यहृदयत्वाच्च लक्षितो मे चित्ते मदनविकारो वसुभूतिना। वृत्ते च क्रोडाव्यतिकरे माधवोलतामण्डपे तिष्ठन् भणितोऽहं तेन-भो वयस्य ! अथ किं पुनस्त्वमद्य वासर इव शशी विच्छायो दृश्यसे, क्षणं च ध्यानगत इव मुनिः सकलचेष्टां निरुणत्सि, ततश्च लब्धलाभ इव द्यूतकारः परितोषमुद्वहसीति ? ततो मयाऽसमीक्षितकारितया मदनस्य द्वितीय हृदयभूतस्यापि गहता निजमाकारं जल्पितं 'न किञ्चिद् लक्षयामि' इति वसुभूतिना भणितम्-'अहं लक्षयामि' । मया भणितम्-'कि तद्' । वसुभूतिना भणितम् --आरोपितस्ते बकुलमालिकानिभेन राजदारिकया गुरुकचिन्ताभारः, विद्धश्च तया दृष्टिपातच्छलेन मदनशरधोरणिभिः । तज्जनित एष विकारः । अन्यथा कथमकाण्डे एव परिपाण्डुरं ते वदनम्, अलब्धनिद्रासुखे च तारताम्र लोचने, हृदयायासकारिणो दीर्घदीर्घा निःश्वासा को विदा कर दिया। शयनगृह (निवास भवन) में गया, शय्या पर पड़ रहा । वहाँ पर अकथनीय, असम्भावनीय, जिसका पहले अनुभव नहीं किया था, ऐसी पीडा का अनुभव करते हए क्षणमात्र नींद लेकर रात बिता दी। प्रात:कालिक क्रियाओं को किया। वसुभूति आदि मित्र आ गये। पान दिये गये । हम सब लोग क्रीड़ा के लिए उसी भवनोद्यान में गये । अनेक प्रकार की क्रीड़ाओं को करने में प्रवृत्त हए । शून्यहृदय होने के कारण मेरे चित्त में वसुभूति ने काम का विकार जान लिया । क्रीडाकार्य समाप्त होने पर जब मैं माधवीलता के मण्डप में बैठा था तो उसने कहा--'हे मित्र ! आज तुम कैसे दिवसकालीन चन्द्रमा के समान आभाहीन दिखाई दे रहे हो ? क्षणभर ध्यान लगाये हुए मुनि की भाँति तुमने समस्त चेष्टाओं को रोक दिया ? जिसे लाभ प्राप्त हो गया है, ऐसे जुआरी के समान सन्तोष धारण कर रहे हो?' तब बिना विचारे कार्य करने वाले मैंने दूसरे हृदय के समान वसुभूति से भी अपने काम के आकार को छिपाकर कहा---'कुछ भी तो नहीं सोच रहा हूँ।' वसुभूति ने कहा -'मौलसिरी माला के बहाने राजपुत्री ने तुम्हारे ऊपर बहुत भारी चिन्ता का भार डाल दिया। उसने दृष्टिपात के बहाने कामदेव के बाणों की वर्षा से वेध दिया है। उससे उत्पन्न हुआ यह विकार है, अन्यथा असमय में ही तुम्हारा मुख पीला (मुरझाया हुआ) क्यों है ? निद्रा रूपी सुख को प्राप्त न करने के कारण आँखें १. वत्ते य-क। Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१. [सबराइन्हा तम्बाई लोयणाई, हिययायासकारिणो दीदीहा नीसास त्ति । ता मा संतप्प; इच्छइ सातए सह समागम, पेसिया य तीए 'सिणेहबहुमाणं बउलमालिया दूई । अन्नं च–अवहिओ विही अवस्सभवियव्वेसुं, घडेइ एस अहिमुहीहूओ नियमेण अन्नदीवगयं पि पाणिणं। करेमि अहं एत्थ कंचि उवायं ति। पडिस्सुयं मए। कओ तेण विलासवइधाविधूयाए अणंगसुंदरीए सह पसंगो। अहिगमणीयपुरिसगुणजोगमओ लग्गा य सा तस्स। अइक्कंता कवि दियहा। तओ 'न कयमिह किंचि वसुभूइणा, न पहवइ वा से मइगोयरों' तिचितयंतो मयणपरायत्तयाए गओ सयणिज्जं। तत्थ पुण मुज्छिओ विय महो विय मत्तो विय मओ विय भीओ विय गहगहिओ विय वेवमाणहियओ अप्पहतो इंदियाणं चिट्ठामि जाव थेववेलाए चेव पहठ्ठवयणपंकओ आगओ वसुभूई। वयणवियारेण लक्खियं मए, जहा कयमणेण पओयणं भविस्सइ त्ति । भणियं च तेण-भो वयस्थ, परिच्चय विसायं, अंगीकरेहि पमोयं संपन्नं ते समोहियं ति । मए भणियं-'कहं वियं' । तेण भणियं-सुण । इति ? ततो मा सन्तप्यस्व, इच्छति सा तया सह समागमम्, प्रेषिता स तया स्नेहबहुमानं बकुलमालिका दूतो। अन्यच्च अवहितो विधिरवश्यभवितव्येषु घटयत्येषोऽभिमुखीभूतो नियमेनान्यद्वीपगतमपि प्राणिनम् । करोम्यहमत्र कञ्चिदुपायमिति । प्रतिश्रुतं मया । कृतस्तेन विलासवतीधात्रीदुहित्राऽनङ्गसुन्दर्या सह प्रसङ्गः । अभिगमनीयपुरुषगुणयोगतो लग्ना च सा तस्य। अतिक्रान्ता कत्यपि दिवसाः । ततो 'न कृतमिह किञ्चिद् वसुभूतिना, न प्रभवति वा तस्य मतिगोचरः' इति चिन्तयन् मदनपरायत्ततया गतो शयनीयम् । तत्र पुनमच्छित इव, मूढ इव, मत्त इव, ग्रहगृहीत एव वेपमानहृदयोऽभवन् इन्द्रियाणां तिष्ठामि यावत् स्तोकवेलायामेव प्रहृष्ट वदन. पङ्कज आगतो वसुभूतिः। वदनविकारेण लक्षितं मया, यथा कृतमनेन प्रयोजनं भविष्यतीति । भणितं चतेन-भो वयस्य ! परित्यज विषादम्, अङ्गीकुरु प्रमोदम् , सम्पन्नं ते समीहितमिति । मया भणितम्-'कथमिव । तेन भणितम्-शृणु । अत्यधिक लाल हैं और हृदय को दुःख पहुंचाने वाली लम्बी-लम्बी साँसें ले रहे हो । अतः दुःखी मत हो । वह आपके साथ समागम की इच्छा करती है। उसने स्नेह और आदर के साथ बकुलमालिका दूती भेजी है। और फिर जो होनहार होता है उसके विषय में देव सावधान रहता है । वह दूसरे द्वीप में गये हुए प्राणी को भी सामने लाकर मिला देता है। इस विषय में मैं भी कुछ उपाय करता हूँ। मैं वचन देता हूँ।' उसने विलासवती की धाय की पुत्री अनंगसुन्दरी से संम्पर्क किया। योग्यपुरुष के गुणों से युक्त होने के कारण उसके साथ सम्पर्क हो गया। ___ कुछ दिन बीत गये । अनन्तर 'इस विषय में वसुभूति ने कुछ नहीं किया, वसुभूति की बुद्धि इस कार्य में समर्थ नहीं'--ऐसा सोचकर काम के पराधीन हुआ शय्या पर लेट गया। उस शय्या पर मानो मूच्छित के समान, मतवाले के समान, गूगे के समान, डरे हुए के समान, भूताविष्ट के समान, कांपते हुए हृदयवाला तथा इन्द्रियों को वश में न रखता हुआ स्थित था कि तभी कुछ ही समय में वसुभूति आया। उसका मुखकमल खिल रहा था। मुखाकृति से मैंने जान लिया कि इसने प्रयोजन की सिद्धि कर ली होगी। उसने कहा-'मित्र ! विषाद छोड़ो, इर्ष को अंगीकार करो, तुम्हारा इष्ट कार्य सम्पन्न हो गया।' मैंने कहा- 'कैसे ?' उसने कहा- 'सुनो! १. सणेह'"-क. २. क इवयदि -ख, ३. 'विय' पाठस्थाने सर्वत्र 'इव' पाठः क-पुस्तके: ४. अयं पाठः क-पुस्तके नास्ति, ५. किहं -ग। Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमो भवा] ३५१ ___ गओ अहमिओ अज्ज अणंगसुंदरोगेहं। दिट्ठा मए पव्वायवयणपंकया अगंगसुंदरी, भणिया य-सुंदरि, किं पुण ते उव्वेयकारणं; आचिक्ख, जइ अकहणीयं न होइ । तोए भणियं कह तम्मि निव्वरिज्जइ दुक्खं कंडुज्जुएण' हियएण। अदाए पडिबिबं व जम्मि दुक्खं न संकमइ ॥४४०॥ मए भणियं-सुंदरि ! विरला जाणंति गुणा विरला जपंति ललितकव्वाई। __ सामन्नधणा विरला परदुक्खे दुक्खिया विरला ॥४४१॥ सहावि अत्थि मे तुह मणोरहसंपायणेच्छा । तीए भणियं--जइ एवं, ता सुण । अत्थि महारायधूया विलासवई नाम कन्नया। सा मे भिन्नदेहा वि अत्ताणनिव्विसेसा सामिसालो वि असामिसालिसोला । तीए अपच्छिमा अवत्था व इ। तओ मए भणियं-क पुण एत्थ कारणं । तीए भणियं 'मयणवियारों'। तओ मए भणियं-केण पुण भयवया वीयरागेण विय खंडियं विणिज्जियसुरासुरस्स गतोऽहमितोऽद्य अनङ्गसुन्दरीगेहम् । दृष्टा मया म्लानवदनपङ्कजाऽनङ्गसुन्दरी, भणिता च । सुन्दरि ! किं पुनस्ते उद्वेगकारणम् ? आचक्ष्व, यद्य कथनीयं न भवति । तया भणितम् कथं तस्मिन् कथ्यते दुःखं काण्डज केन हृदयेन । आदर्श प्रतिबिम्बमिव यस्मिन् दुःखं न संक्रामति ॥४४०।। मया भणितम्-सुन्दरि ! विरला जानन्ति गुणान् विरला जल्पन्ति ललितकाव्यानि । श्रामण्यधना विरलाः परदुःखे दुःखिता विरलाः ॥४४१।। तथाप्यस्ति मे तव मनोरथसम्पादनेच्छा। तया भणितम् -यद्येवं ततः शृणु । अस्ति महाराजदुहिता विलासवती नाम कन्यका । सा मे भिन्नदेहा अपि आत्मनिर्विशेषा स्वामिन्यपि अस्वामिनी. शोला। तस्या अपश्विमाऽवस्था वर्तते । ततो मया भणितम्-किं पुनरत्र कारणम् ? तया भणितम'मदनविकारः' । ततो मया भणितम्-केन पुनर्भगवता वीतरागेणेव खण्डितं विनिर्जितसुरासुरस्य मैं यहां से अनंगसुन्दरी के घर गया था। मुझे अनंगसुन्दरी फीके मुखकमल वाली दिखाई दी। मैंने उससे कहा-'सुन्दरी ! तुम्हारे उद्वेग का क्या कारण है ? यदि अकथनीय न हो तो कहो।' उसने कहा-'जैसे दर्पण में प्रतिबिम्ब परिवर्तित नहीं होता वैसे ही जिसके हृदय में दुःख परिवर्तित नहीं होता, ऐसे उस बाण की भांति सीधे हृदय के द्वारा दुःख कैसे कहा जाता?' ॥४४०॥ मैंने कहा-'सुन्दरी! विरले व्यक्ति ही गुणों को जानते हैं, विरले ही लोग ललितकाव्यों को कहते हैं। श्रामण्य ही जिनका धन है ऐसे मनुष्य भी विरले ही हैं और दूसरों के दुःख में जो दुःखी होते हैं, वे भी विरले ही होते हैं ॥४४१॥ तथापि तुम्हारे मनोरथ को पूरा करने की मेरी इच्छा है। उसने कहा- यदि ऐसा है तो सुनो। महाराज की विलासवती नामक कन्या है । वह भिन्न देह वाली होते हुए भी मेरे प्राणों में सामान्य (प्राणों के तुल्य) है अर्थात् शरीर भिन्न होते हुए भी हम दोनों की आत्मा एक है । वह स्वामिनी होते हुए स्वामिनी न हो, इस प्रकार के स्वभाववाली है। उसकी अन्तिम अवस्था है।' तब मैंने कहा-'इसका क्या कारण है ?' उसने कहा'कामविकार ।' तब मैंने कहा-'सुर और असुरों को जीतने वाले, रति के मन को आनन्द देने वाले, कामदेव की १. दुःखे निवरः। दुःख विषवस्य कनिम्बरादेशो वा भवति । (सिद्ध, 4/४/३), २. कंदुज्ज-ख, ३. गुणे-क-ग, ४. पालंति निक्षणा नेहा-ख । Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [समराइच्च कहा रमणादयारिणो पंचबाणस्स सासणं । तीए भणियंत्र याणामि खंडियं न पंडियं ति । एत्तिओ संतावो, जं से मणोरहविसओ न नज्जइ । मए भणियं - 'कहं विय' । तीए भणियं -सुण । पवते मयणमहूसवे निग्गयासु' नयरचच्चरीसु चच्चरियामेत्तसंगगए दिट्टो इमोए - अणुमाणओ विद्याणामि - मुत्तिमंतो विय कुसुमाउहो कोवि जुवाणओ । अन्नहा कह ईइसस्स कन्नयारयणस्स अण इसे ' वरे अहिलासो त्ति । न पत्थइ पंकयसिरी हढवणाई । मुक्का य तोए तस्सुवरि सहत्थगुत्था बलमालिया, निवडिया से इमी वि य कंठदेसे मणोरहेहिं । तओ उवरिहत्तमवलोइऊण निमिया य तेणं अन्नजणसंपाय भीरुययाए घेत्तण तीए हिययं पिव कंठंमि । अइकंतोय सो । विलासवई विय तप्पभूइमेव परिचत्तनिययवावारा तहा कया वम्महेण, जहा अविक्खि पिन पारीयइति । विन्नाओ य एस वृत्तंतो मए बब्बरियासयासाओ, पुणो रायध्याओ त्ति । समासासिया सामए । सामिणि, अलं विसाएणं, संवाएमि सामिण हिययवलन हेण । न खंडिज्जइ कोमुई मयलंछणेणं ति । भणिऊण पणिहिलोयणेहिं निरूविओ सो, न उण उवलद्धो त्ति । तओ य सा अज्ज मयणवियारओ ३५२ रतिमन आनन्दकारिणः पञ्चबाणस्य शासनम् ? तया भणितम्- - न जानामि खण्डितं न खण्डितमिति । एतावान् पुनर्मे संताप, यत्तस्या मनोरथविषयो न ज्ञायते । मया भणितम् - 'कथमिव' । तया भणितम् - शृणु । प्रवृते मदनमधूत्सवे निर्गतासु नगरचचर्च शेषुचर्च रिकामात्रसङ्गतया दृष्टोऽनया - अनुमानतो विजानामि, मूर्तिमानिव कुसुमायुधः कोऽपि युवा । अन्यथा कथमीदृशस्य कन्यारत्नस्यानीदृशे वरेऽभिलाष इति ? न प्रार्थयते पङ्कजश्रीहंठवनानि । मुक्ता च तया तस्योपरि स्वहस्तग्रथिता बकुलमालिका, निपतिता तस्येयमपि च कण्ठदेशे मनोरथैः । तत उपरिभूतमवलोक्य स्थापिता च तेनान्यजनसम्पातभीरुकतया गृहीत्वा तस्या हृदयमिव कण्ठे । अतिक्रान्तश्च सः । विलासवत्यपि च तत्प्रभृत्येव परित्यक्तनिजकव्यापारा तथा कृता मन्मथेन यथाऽवेक्षितुमपि न पार्यते ( शक्यते) । विज्ञातश्चैष वृत्तान्तो मया बर्बरिका (चेटा) सकाशात्, पुना राजदुहितुरिति । समाश्वासिता सा मया - स्वामिनि ! अलं विषादेन, सम्पादयामि स्वामिनी हृदयवल्लभेत । न खण्डयते कौमुदो मृगलाञ्छनेनेति भणित्वा प्रणिधिलोचनैर्निरूपितः सः, न पुनरुपलब्ध इति । ततश्च सा अद्य मदनविकारत आशा का भगवान वीतराग के समान किसने खण्डन किया ?' उसने कहा-' -'मैं नहीं जानती, खण्डित किया अथवा नहीं । पुनश्च मुझे इतना ही दुःख है कि उसके मनोरथ का विषय ज्ञात नहीं हो रहा है।' मैंने कहा'कैसे ?' उसने कहा- 'सुनो । मदनमहोत्सव आने पर नगर की संगीत मण्डलियाँ निकलने पर, मात्र संगीत मण्डली से युक्त इसने शरीरधारी कामदेव के समान कोई युवक देखा - ऐसा मैं अनुमान करती हूँ, नहीं तो ऐसी कन्यारत्न की जिसके समान कोई नहीं है - ऐसे वर के प्रति अभिलाषा क्यों होती ? कमलों की शोभा कुम्भीवन को नहीं चाहती है । उसने उसके ऊपर अपने हाथ से गूँथी हुई मौलसिरी की माला छोड़ी ! यह भी मनोरथों से उसके कण्ठ में गिरी। उसने ऊपर देखकर दूसरे लोगों पर न गिर पड़े, इस भय से उसके हृदय के समान कष्ठ में धारण कर ली। वह निकल गया । विलासवती ने उसी समय से सभी कार्य छोड़ दिये और काम ने उसे वैसा बना दिया कि देखा नहीं जा सकता है ।' मुझे यह वृत्तान्त बर्बरिका (चेटी) के समीप से, और फिर राजदुहिता से ज्ञात हुआ । मैंने उसे आश्वासन दिया'स्वामिनि ! विषाद मत करो, स्वामिनी को हृदयवल्भ से मिला दूंगी। कौमुदी (चांदनी) को चन्द्रमा तोड़ता नहीं है' — ऐसा कहकर ध्यान लगाकर उसने नेत्रों से देखा, किन्तु वह प्राप्त नहीं हुआ । अनन्तर आज वह १. विजिग्यासु -ब, २ मीदिसस्सख, ३. अन्नारिसे भ ख ४ मि मालं ख, ५. प्रक्कती तमुद्देमाओ —ख, ६. तयप्पभिइमेव ख, ७. आचिक्खिरं - ख । Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमो भवो ] ३५३ चेव असपाइयओयणं मं अवगच्छऊण निम्मरुक कंठा पराहोण हियया संकेत दूसहसरीरसंतावं परिच्चइय यणीयं अवलंब सहोयगं' उवरितलमारूढा । दक्खिणाणिलेण य सविसेसपज्जलिज्जं तनयणाणला उन्हं च दोहं च सय तं चैव व्यमग्गुद्दे पुलोइडं पवत्ता । पव्वालिया य से अहिययरं बाहसलिलेण दिट्ठी । तओ सहमा चेव झगझगारवमुहल मणिवलयं विहुणिय करपल्लवं अवहत्थिय अंगसंधारयं सहियायणं मोहमुवगय त्ति । तओ ससंभंतो उट्टिओ अहं, भणिओ य वसुभूई -- वयस्स, कहि साहिययादयारिणी, दंसेहि मे, अलं तीए अच्चाहिए जीविएण' । वसुभूइणा भणियं - देव, वत्तं खु एयं, कहावसाणं पिता हियाणंदकारयं चेव, तं सुणउ देवो । तओ लज्जावणयवयणकमलं ईसि विहसिऊण वन्नो अहं । वसुभूइणा भणियं तओ, देव, निमिया सहियाहि उच्छंगसयणिज्जे, वीजिया मए बाहसलिलसित्तेण तालियंटेण, दिन्नं च से सहावसोय लवच्छत्थलम्मि चंदणं, उवणीओ मुणालियाबलहारो, लद्धा कहवि तीए चेयणा, उम्मिल्लियं अलद्धनिद्दाक्खेयपाडलं लोयणजुयं । मए भणियं - सामिणि, किं ते बाहइ त्ति । तओ उक्कडयाए मयणवियारस्स अणवेक्खिऊग सहियणं एवा सम्पादित प्रयोजनां मामवगत्य निर्भरोत्कण्ठा पराधीनहृदया संक्रान्तदुःसहशरीरसन्तापं परित्यज्य शयनीयमवलम्ब्य सखीजनमुपरितल मारूढा । दणिक्षानिलेन च सविशेषप्रज्वाल्यमानमदनानला उष्णं च दीर्घ च निःश्वस्य तमेव राजमार्गोद्देशं द्रष्टुं प्रवृत्ता । छादिता च तस्या अधिकतरं वाष्पसलिलेन दृष्टिः । ततः सहक्षेत्र झणझारवमुखरमणिवलयं विधूय करपल्लव मपहस्तयित्वाऽङ्ग सन्धारकं सखीजनं मोहमुपगतेति । ततः ससम्भ्रान्त उत्थितोऽहम्, भणितश्च वसुभूतिः । वयस्य ! कुत्र सा हृदयानन्दकारिणी ? दर्शयने, अलं तस्या अत्याहिते ( प्राणान्तकष्टे) जीवितेन । वसुभूतिना भणितम् - देव ! वृत्तं खल्वेतत्, कथावसानमपि तावद् हृदयानन्दका रकमेव, तच्छु णोतु देवः । ततो लज्जावनतवदनकमलमीषद विहस्य निपन्नो ( सुप्तोऽहम् । वसुभूतिना भणितम् - ततो देव ! न्यस्ता सखीभिरुत्सङ्गशयनीये, वीजिता मया वाष्पसलिलसिक्तेन तालवृन्तेन दत्तं च तस्य स्वभावशीतलवक्षःस्थले चन्दनम, उपनीतो मृणालिकावलयहारः, लब्धा कथमपि तया चेतना, उन्मिलितमलब्धनिद्राखेदपाटलं लोचनयुगम् । मया भणितम् - स्वामिनि ? किं ते बाधते इति ? तत उत्कटतया मदनविकारस्यान कामविकार मे ही मुझे कार्य पूरा न करने वाली जानकर, अत्यन्त उत्कण्ठा से पराधीन हृदयवाली शरीर में दुःसह सन्ताप युक्त हो शय्या को छोड़कर सखीजनों के सहारे महल के ऊपर चढ़ गयी । दक्षिण दिशा की वायु के द्वारा जिसकी कामाग्नि विशेष रूप में प्रज्वलित हो रही थी, ऐसी वह गर्म और लम्बी साँस लेकर उसी राजमार्ग की ओर देखने लगी । अत्यधिक आंसुओं के जल से उसके नेत्र आच्छादित हो गये । अनन्तर यकायक ही जिसके मणियों का समूह झन-झन शब्द में मुखरित हो रहा है, हाथ रूपी पल्लव को कँपाकर अंग को सँभाले हुए सखीजनों के गले से हाथ हटाकर मूच्छित हो गयी । तब घबड़ाकर मैं उठ गया । और वसुभूति से कहा, 'मित्र ! हृदय को आनन्द देने वाली वह कहाँ है ? मुझे दिखाओ, उसका अनिष्ट होने पर मेरा प्राण धारण करना व्यर्थ है ।' वसुभूति ने कहा, 'यह तो कहानी है, कहानी की समाप्ति भी हृदय को आनन्द देने वाली है, उसे महाराज सुनिए ।' तब लज्जा से जिसका मुखकमल नीचा हो गया है - ऐसा मैं कुछ मुस्कराकर लेट गया । वसुभूति ने कहा - 'अनन्तर महाराज ! सखियों ने गोदरूपी शय्या में उसे रख लिया । मैंने आँसुओं के जल से सींचे हुए पंखे से हवा की ओर उसके स्वभाव से शीतल वक्षस्थल पर चन्दन लगाया, कमलनाल का गोलहार लागी उसे किसी प्रकार होश आया । निद्रा न आने के खेद से लाल-लाल दोनों नेत्रों को उसने खोला । मैंने कहा - ख, ४ जीएण खं, ५. सुणादु - ख । १. सयणि, २ सहियणख ३ नियकर " Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ [समराइज्यकहा अव्वत्तं चेव जंपियं तीए 'तस्स चेवादसणं' ति। तओ मए तीए, साहारणत्थं अलियं चेव जंपियं । सामिणि, धीरा होहि, उवलद्धा तस्स मए पउत्ती, विन्नविस्सं, सामिणि, तमंतरेण-तओ विहसियं तीए, दिन्नं च मे कडिसुत्तयं । एत्थंतरम्मि समागया से जणणी, भणिया य तीए। जाय विलासवइ, सारेहि वीणं, जओ आणत्तं महाराएण 'अज्ज तए वीणाविणोओ कायक्वो' ति। तओ गुरुयणलज्जालुयाए जंपियं तीए-जइ एवं, ता लहुं वीणायरिणि सद्देहि । सद्दिया वीणायरिणी । एत्यंतरम्मि किंकायव्वंमढा अविसज्जिया चेव रायध्याए निग्गया रायगेहाओ, आगया सभवणं, निरूविओ विसेसेण, न लद्धा य तस्स पउत्ती। ता किं पुण अहं सामिणीए विन्नविस्सं ति समद्धासिया चितापिसाइयाए। ता एयं मे उव्वेयकारणं ति। मए भणियं-परिच्चय चितापिसाइयं, जाणामि अहयं तं जवाणयं । ता तहा करिस्सं, जहा ते सामिणी निव्वुया भविस्सइ ति । अणंगसुंदरीए भणियं---साहेहि ताव, कह तमं जाणासि, को वा सो जुवाणओ। मए भणियं-अप्पाणनिव्विसेसो वयंसओ, अहवा सामिसालो, अओ वियाणामि । सो पुणो सेयवियाहिवस्स महारायजसवम्मणो पुत्तो सणंकुमारो नाम । तस्स पेक्ष्य सखीजनमव्यक्तमेव जल्पितं तया 'तस्यैवादर्शनम' इति । ततो मया तस्याः सन्धारणार्थमलोकमव जल्पितम्-स्वामिनि ! धीरा भव, उपलब्ला तस्य मया प्रवृत्तिः, विज्ञपयिष्यामि स्वामिनि ! तमन्तरेण (अवसरण)। ततो विहसितं तया, दत्तं च मे कटिसूत्र कम् । अत्रान्तरे समागता तस्या जननी । भणिता च तया-जाते विलासवति ! सारय वीणाम्, अतः आज्ञप्तं महाराजेन 'अद्य त्वया वीणाविनोदः कर्तव्य' इति । ततो गुरुजनलज्जालुतया जल्पितं तया-यद्येवं ततो लघु वीणाचार्या शब्दय । शब्दिता वीणाचार्या । अत्रान्तरे किंकर्तव्यमढा अविजितैव राजदुहित्रा निर्गता राजगेहात्, आगता स्वभवनम्, निरूपितो विशेषेण, न लब्धा च तस्य प्रवृत्तिः। ततः किं पुनरहं स्वामिन्यै विज्ञपयिष्यामि' इति समाध्यासिता चिन्तापिशाचिकया। तत एतन्मे उद्वेगकारणमिति । मया भणितम्-परित्यज चिन्तापिशाचिकाम, जानाम्यहं तं युवानम्। ततस्तथा करिष्यामि यथा ते स्वामिनी निर्वता भविष्यतीति । अनङ्गसुन्दर्या भणितम् -कथय तावत्, कथं त्वं जानासि, को वा स युवा ? मया भणितम्-आत्मनिर्विशेषो वयस्यः, अथवा स्वामी, अतो विजानामि । स पुनः श्वेतविकाधिपस्य महाराजयशोवर्मणः पुत्रः सनत्कुमारो नाम । तस्य क्रीडानिमित्रमनङ्गनन्दनं 'स्वामिनी ! आपको क्या कष्ट है ?' अनन्तर कामविकार की उग्रता से सखीजनों की अपेक्षा न कर उसने अव्यक्त वाणी में कहा-'उसी का दर्शन न होना।' तब मैंने उसे धैर्य बंधाने के लिए झूठ-मूठ कह दिया- 'स्वामिनी ! धैर्य रखो, मुझे उसके विषय में जानकारी मिली है, स्वामिनी को अवसर आने पर बतलाऊँगी।' तब वह हंस पड़ी (मुस्करायी) और मुझे करधनी (कटिसूत्र) दी। इसी बीच उसकी मां आ गयी। उसने (माता ने) कहा'पुत्री विलासवती ! वीणा बजाओ, क्योंकि महाराज ने आज्ञा दी है कि आज तुम्हें वीणा विनोद करना है। तब बड़ों के प्रति लज्जालु होने के कारण उसने कहा-'यदि ऐसा है तो शीघ्र ही वीणाचार्य को बुलाओ।' वीणाचार्य को बुलाया गया। इसी बीच मैं किंकर्तव्यमूढ़ होकर राजपुत्री को विदा न करने पर भी यकायक राजभवन से निकल गयी और अपने भवन पर आ गयी । विशेष रूप से देखा, किन्तु उस व्यक्ति के विषय में जानकारी प्राप्त नहीं हुई। अनन्तर स्वामिनी को मैं क्या निवेदन करूंगी, इस चिन्तारूपी पिशाची से आक्रान्त होकर बैठी हूँ। तो यह मेरे उद्वेग का कारण है ।' मैंने कहा- 'उस चिन्तारूपी पिशाची को छोड़ो, मैं उस युवक को जानता हूँ । (तो) वैसा करूँगा जैसे तुम्हारी स्वामिनी सुखी हों।' अनंगसुन्दरी ने कहा-'तो कहो, तुम कैसे जानते हो, वह युवक कौन है ?' मैंने कहा-'अपना ही मित्र है, अथवा स्वामी है, अत: जानता हूँ। वह श्वेतविका के १. जहा एसा ते-ख। Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमो भव] कीलानिमित्तं अनंगनंदणं पत्थियस्स पेसिया तीए बउलमालिया, बहुमन्निया य तेणं । अणंग सुंदरीए भणियं - जइ एवं, ता अलं ते सामिसालेण, जो एवं पि सामिणीहिययं वियाणिय निरुज्जमो चिटुइ । मए भणियं - न निरुज्जमो, किं तु उवायं विचितेइ 'कहं पुण अणदिएण विहिणा एसा पावियत्व' त्ति । अनंगसुंदरीए भणियं - समाजरूवाणुराय कुलकन्नयाहरणं पि अणदिओ चेव विही । मए भणियं । अस्थि एवं किं तु अच्चंत सिणेहवंतो महाराओ सणकुमारस्स, जओ अपडिहओ सव्वत्थामेसु गइपसरो, उवन्नत्थं च तस्स सबहुमाणं महाराएण जीवणं । ता कयाइ पत्थिओ चेव देइस्सइति । ताकि एइणा । निवेएहि ताव एवं वृत्तंतं सामिणीए, चिन्तेहि य उवायं, कहं पुण एयाणं दंसणं संजाइस्सइति । अणंगसुंदरीए भणियं - निवेएमि एयं । दंसणोवाओ पुण, नेइस्सं अहं सामिण मंदिरुज्जाणं, तुमं पि य कुमारं घेत्तूण तहिं चेव सन्निहिओ हवेज्जासि त्ति । पडिस्सुयं च तं मए । संपयं तुमं पमाणं ति । तओ एवं सोऊण मोहदो सेणाहं सव्वसोक्खाणं पिव गओ पारं, पीईए वि य पाविओ पीई, धिईए प्रस्थितस्य प्रेषिता तया बकुलमालिका, बहुमता च तेन । अनङ्गसुन्दर्या भणितम् - यद्य वं ततोऽलं ते स्वामिना, य एवमपि स्वामिनीहृदयं विज्ञाय निरुद्यमस्तिष्ठति । मया भणितम्-न निरुद्यमः, किन्तूपायं विचिन्तयति 'कथं पुनरनिन्दितेन विधिनैषा प्राप्तव्या' इति । अनङ्गसुन्दर्या भणितमसमानरूपानुरागकुलकन्यकाहरणमपि अनिन्दित एव विधिः । मया भणितम् -- अस्त्येतत् किन्तु अत्यन्तस्नेहवान् महाराजः सनत्कुमारस्य यतोऽप्रतिहतः सर्वस्थानेषु गतिप्रसरः, उपन्यस्तं च तस्य सबहुमानं महाराजेन जीवनम् । ततः कदाचित् प्रार्थित एव दास्यतीति । ततः किमेतेन । निवेदय तावदेतं वृत्तान्तं स्वामिन्यै, चिन्तय चोपायम्, कथंपुनरेतयोर्दर्शनं संजनिष्यते इति ? अनङ्गसुन्दर्या भणितम् - निवेदयाम्येताम् । दर्शनोपायः पुनर्वेष्येऽहं स्वामिनीं मन्दिरोद्यानम् । त्वमपि च कुमारं गृहीत्वा तत्रैव सन्निहितो भवेरिति । प्रतिश्रुतं च सन्मया । साम्प्रतं त्वं प्रमाणमिति । तत एतच्छ्र ुत्वा मोहदोषेणाहं सर्वसौख्यानामिव गतो पारम् प्रीत्येव प्राप्तः प्रीतिम्, धृत्ये ३५५ हृदय को जानकर निरुद्यमी होकर कि वह किस प्रकार निर्दोष विधि से महाराज यशोवर्मा का पुत्र सनत्कुमार है । जब वह क्रीडा के लिए अनंगनन्दन उद्यान में जा रहा था तो उस राजपुत्री ने मौलसिरी की माला भेजी थी और उसने उसे आदर दिया था।' अनंगसुन्दरी ने कहा- 'यदि ऐसा है तो तुम्हारे स्वामी से कोई प्रयोजन नहीं जो कि इस प्रकार स्वामिनी के बैठा है।' मैंने कहा - ' ( वह) निरुद्यमी नहीं है किन्तु उपाय सोच रहा है प्राप्त की जा सकती है ?' अनंगसुन्दरी ने कहा- 'समान रूप और अनुराग अनिन्दित विधि है ।' मैंने कहा - 'यह ठीक है, किन्तु महाराज सनत्कुमार के स्थानों में जाने के विषय में कोई रोक-टोक न होने के कारण महाराज ने उनके के रूप में रखा है, अतः प्रार्थना करने पर कदाचित् ( कन्या को ) दे दें । अतः इससे क्या ? इस वृत्तान्त को स्वामिनी से निवेदन करो और उपाय सोचो, कैसे इन दोनों का मिलन होगा ? अनंगसुन्दरी ने कहा - 'इसे निवेदन करती हैं। मिलने का उपाय यह है कि स्वामिनी को मन्दिर के उद्यान में ले जाऊँगी, तुम भी कुमार को लेकर वहीं निकटवर्ती होना ।' उसे मैंने स्वीकार किया। अब आप प्रमाण हैं । वाली कन्या का हरण करना भी अत्यन्त प्रिय हैं, क्योंकि समस्त जीवन को आदरपूर्वक धरोहर अनन्तर इसे सुनकर मोह के दोष से मैं समस्त दुःखों के पार पहुँच गया । (मैंने) प्रीति के द्वारा प्रीति को 1. जायइति ख, २. महामोह - ख । Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ [समराइच्चकहा व अवलंबियो धिई, ऊसवेण विय कओ मे ऊसवो। दिन्नं वसुभूइणो कडयजुयलं । भणिओ य एसोवयंस, न खु अहं भवंतमप्पमाणीकरेमि ति। गया अम्हे तमुज्जाणं । दिवा य तत्थ रुक्खसत्थविकोवियपुरिससंपाइयागालडोहलपसूयवियारोवलक्खिज्जमाणसख्वा सव्वे उऊ । पढमं चेव कुसुमियतिलयासोयसिंदुवारमंजरीमणहरो वसंतो, तओ वि य वियसियसुरहिमल्लियाकुसुमसोहिओ गिम्हो, तओ कयंबकुसुमगंधाणुवासिओ घणसमओ, तओ गइंदमयगंधाणुवासियसत्तच्छयकुसुमसमुग्गमो सरयकालो, तओ परिपिंजरपियंगमंजरीकयावयंसो हेमंतो, तओ वियंभिउद्दामकुंदकुसुमहरहासधवलो सिसिरसमओ त्ति । तओ तं दट्ट ण चितियं मए-अहो मणुस्सलोयदुल्लहा इयं उज्जाणरिद्धी। तहिं च जाव थेवकालं चिट्ठामि, ताव सा आगया अणंगसुंदरी। भणियं च तीए-कुमार, आसणपरिग्गहेण' अलंकरेहि एवं चंदणलयाहरयं । तओ मए पुलोइयं वसुभइवयणं। भणियं च तेण-- 'जं एसा भणइ त्ति । तओ अम्हे गया चंदणलयाहरयं । दिट्ठा य तत्थ जलहरोयरविणिग्गयरयणियरपणइणि व्व तारायणपरिवुडा रायहंसि व्व कलहंसिपरिवारा समुद्दवेल व्व थूलमुत्ताहलकलियसलायण्णपओहरा, वावलम्बितो धृतिम्, उत्सवेनेव कृतो मे उत्सवः । दत्तं वसुभूतये कटकयुगलम् । भणितश्चैषःवयस्य ! न खल्वहं भवन्तमप्रमाणीकरोमोति । गतावावां तदुद्यानम् दृष्टाश्च तत्र वृक्षशास्रविकोविदपुरुषसम्पादिताकालदोहदप्रसूता दकारोपलक्ष्यमाणस्वरूपा: सर्वे ऋतवः प्रथममेव कुसुमित. तिलकाशोकसिन्दुवारमञ्जरीमनोहरो वसन्तः, ततोऽपि च विकसितसुरभिमल्लिकाकुसुमशोभिता ग्रीष्मः, ततः कदम्बकुसुमगन्धानुवासितो घनसमयः, ततो गजेन्द्रमदगन्धानुवासितसप्तच्छदकुसुमसमुद्गमः शरत्काल:, ततः परिपिञ्जरप्रियंगुमञ्जरीकृतावतंसो हेमन्तः, ततो विजृम्भितोदामकुन्दकुसुमहरहासधवलः शिशिरसमय इति । ततस्तं दृष्ट्वा चिन्तितं मया-अहो मनुष्यलोकदुर्लभेयमुद्यानऋद्धिः । तत्र च यावत् स्तोककालं तिष्ठामि तावत्साऽऽगताऽनङ्गसुन्दरी । भणितं तया-कुमार! आसनपरिग्रहेण अलंकुरु एतच्चन्दनलतागृहम् । ततो मया दृष्टं वसुभूतिवदनम् । भणितं च तेन 'यदेषा भणति' इति । तत आवां गतौ चन्दनलतागृहम् । दृष्टा च तत्र जलधरोदरविनिर्गतरजनीकर. प्रणयिनोव तारागणपरिवृता, राजहंसीव कलहंसीपरिवारा, समुद्रवेलेव स्थूलमुक्ताफल कलितपाया, धैर्य से धैर्य का अवलम्बन किया, उत्सव ने ही मानो मेरा उत्सव किया। मैंने वसुभूति को कड़े का जोड़ा दिया और इससे कहा-'मित्र! मैं आपको अप्रमाण नहीं करूंगा।' हम दोनों उस उद्यान को गये। वहाँ पर वृक्षशास्त्र (वनस्पतिशास्त्र) को जानने वाले लोगों के द्वारा सम्पादित असमय में ही इच्छा से उत्पन्न विकार के द्वारा जिनका स्वरूप दिखलाई पड़ रहा है-ऐसी सभी ऋतुओं को देखा। पहले फूले हुए तिलक, अशोक, निर्गुण्डी वृक्ष की मंजरियों से मनोहर वसन्त देखा, अनन्तर खिले हुए सुगन्धित वेला के फूल से शोभित ग्रीष्मकाल देखा । पश्चात् कदम्ब के फूलों से सुगन्धित वर्षाकाल देखा, बाद में श्रेष्ठ हाथी के मद की गन्ध से सुगन्धित सप्तपर्ण के फूलों के उद्गमवाला शरत्काल देखा। अनन्तर पीले वर्ण वाली प्रियंगुमंजरी को जिसने कर्णभूषण बनाया है, ऐसा हेमन्तकाल देखा । बाद में अत्यधिक कुन्द के पुष्प जिसमें बढ़ रहे हैं-ऐसे शिव के अट्टहास के समान सफेद शिशिरकाल देखा । तब उसे देखकर मैंने सोचा -'ओह ! यह उद्यान की विभूति मनुष्यलोक में दुर्लभ है । वहाँ पर जब तक कुछ समय ठहरा तभी वह अनंगसुन्दरी आ गयी। उसने कहा-'कुमार ! आसन ग्रहण कर इस चन्दनलता को अलंकृत कीजिए।' तब मैंने वसुभूति के मुख की ओर देखा। उसने कहा-'जो यह कहती है---(वह ठीक है ।) अनन्तर हम दोनों चन्दन के लतागृह में गये। वहां पर मैंने चित्त के अनुकूल, सखियों के बीच स्थित विलासवती को देखा । वह बादलों के मध्य भाग से निकलती हुई तारागणों से घिरी हुई चन्द्रमा की प्रेयसी के समान थी, कलहसियों के घिरी हुई राजहंसी जैसी थी, रथूल मोतियों से सुशोभित सुन्दर जल को Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमो भयो] ३५७ अगधरिणि व्व उउच्छ्पिरिगया चित्ताणुकूलाणुरत्तनिउणसहियणमज्झगया लहुइय रत्तकमलसोहहिं कुम्मुन्नएहि, घणसरल कोमलंगुलिविहूसिएहि अल क्खिज्जमा सिराजालमणहरेहि निम्मलन हमऊहोहपडिबद्धपरिमंडलेह लद्धहिययपवेसेणं पिव युव्वसेवासंपत् यणोवाय उरेगंज वियराएणं पडिव्वन्नहि चलेह, चलणाणुरूवाहिं चैव पसन्नसुकुमालाहि अकयकुंकुमरायपिंजराहि जंधियाहिं, मयणजमलतोणीरकरणिल्लेणं पयामथोरेणं च निरंतरेणं च ऊरुजुयलेणं, उत्तत्तकणयनिम्मिएणे व्व पीवरेणं घडिमविमलमणिमेहला हरणेणं अगंगभवणेणं पिव विरिणेण नियंबबबेणं, सयलतेलोक्कल । यण्णसलिलनिवाणेणं पिव सहावगंभीरेणं नाहिमंडलेणं, कुसुम उहचावलेहाविन्भमाए तणुमज्झपसाहणाए रोमराईए, जोन्वणरहणासोवाणभूयतिव लिसणाहेणं मज्झेणं, ईसानडिएण लायण्णाइसयलंपडेणं पिव सहसमल गएहिं परिणाहुन्भिज्जतएहि अपओहरेहि पओहरेहि, सुपइट्टियाहि बाहुलयाहि, सलावण्यपयोधरा, अनङ्गगृहीणीव ऋतुलक्ष्मीपरिगता, चित्तानुकूलानुरखतसखीजनमध्यगता, लघुकृतरक्तकमलशोभाभ्यां कर्मोन्नताभ्यां घनसरलकोमलाङ्ग लिविभूषिताभ्यां अलक्ष्यमाणशिराजालमनोहराभ्यां निर्मल नखमयूखौघप्रतिबद्धपरिवेश मण्डलाभ्या मलब्ध हृदवप्रवेशेनेव पूर्वंसेवासंपादनोपायचतुरेण यावकरागेण प्रतिपन्नाभ्यां चरणाभ्याम्, चरणानुरूपाभ्यामेव प्रसन्नसुकुमालाभ्यामकृतकुंकुनरागपिञ्जराभ्यां जङ्घाभ्याम्, मदनयमलतूणीर ( करणिल्लेणं) संदृशेण ( पयाम ) अनुपूर्व - स्थूलेन च निरन्तरेण च उरुयुगलेन, उत्तप्तकनक निर्मितेनेव पीवरेण घटितविमलमणिमेखलाभरणेन अनङ्गभवनेनेव विस्तीर्णेन नितम्बबिम्बेन, सकलत्रैलोक्यलावण्यसलिलनिपानेनेव स्वभावगम्भीरेण नाभिमण्डलेन कुसुमायुधचापलेखाविभ्रमया तनुमध्यप्रसाधनया रोमराज्या, यौवनारोहणसोपान - भूतत्रिवलिसनाथेन मध्येन, ईश (नडिएण) व्याकुलितेन लावण्यातिशयलम्पटेनेव मदनेन सदा समालिङ्गिताभ्यां परिणाहोद्भिद्यमानाभ्यामपयोधराभ्यां पयोधराभ्याम् सुप्रतिष्ठिताभ्यां बाहुलता धारण करने वाली समुद्रीतटी के समान थी तथा ऋतु लक्ष्मी से युक्त कामदेव की पत्नी (रति) के समान थी । उसके दोनों चरणों ने लाल कमल की शोभा को लघु ( तिरस्कृत) कर दिया था। दोनों चरण कछुए के समान उठे हुए थे, घनी, सरल (सीधी ) और कोमल अंगुलियों से विभूषित थे । न दिखाई पड़ने वाली नसों से मनोहर थे । स्वच्छ नाखूनों की किरणों के समूह से उसका परिवेश मण्डल (परिधि ) बँधा हुआ था, पहले ही सेवा करने के उपाय में चतुर महावर हृदय में प्रवेश न हो पाने से ही मानो लिपट गया था। दोनों ही चरणों के अनुरूप, प्रसन्न तथा सुकुमार और केसर के रंग से पीली-पीली उसकी जंघाएँ थीं । कामदेव के तरकश युगल के समान सुविभक्त और निरन्तर स्थूल उसका उरुयुगल था । तपाये हुए सोने से निर्मित, स्थूल तथा स्वच्छ मणियों से युक्त करधनी जिसमें धारण की हुई थी, ऐसे कामदेव के भवन के समान विस्तीर्ण कमर का पिछला उभरा हुआ भाग ( नितम्ब ) था । समस्त तीनों लोकों के सौन्दर्य रूपी जल का पान करने से ही मानो, स्वभावतः गम्भीर नाभिप्रदेश था । शरीर के मध्य भाग में कामदेव के धनुष की रेखा के समान विभ्रम वाली रोम पंक्ति सुशोभित थी । यौवन पर आरोहण करने के लिए सीढ़ियों के समान त्रिवली से युक्त उसका मध्यभाग था। ईश्वर से व्याकुलित हुआ कामदेव सौन्दर्य की अतिशयता का लोभी होने के कारण ही मानो जिसे सदा आलिंगन करता हो, ऐसे विस्तृत और चूचुक निकले हुए उसके दोनों स्तन थे । दोनों भुजारूप लताएं सुप्रतिष्ठित थीं । अशोक के कोमल १. पयाम मणुपुत्रं (देशी 2-6), २. कणयमयनिक, 3 रोमराइयाए - ख । Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० [समराइज्यका असोयपल्लवविग्भमेह सुपसत्थलेहालंकि एहि माणिवकपज्ज तकणयक डयसणाहेहिं अणुचियकम्माकरेहिं परिमंडलाए महल्लमुत्ताहलमानापरिगयाए तिलेहालंकियाए सिरोहराए, बंधूयकर णिल्लेणं' सहावारुणेण अहरेण, विणिज्जियकुंदकुसुमसोहेहि विणितमऊहजालसोहिल्लेह वसणेह, उत्तगेणं सहावरम णिज्जेणं नासावंसएण, कंतिपडिपूरिएहि विणिज्जियचंदबिंब सोहेहि असोयपल्लवावयंसपडिय पडिमेहि गंडपासहि, विउद्धनव कुवलयदलकति सुकुमालह सुपम्हलेहिं दंसणगोयरावडियजणमणाणवणेह नयह, गहकल्लोल' दरग हियमियंकमंडलनिहेण सुसिणिद्धालयाउलेणं निडालवट्टणं वयणाणुरूवहि जच्चतवणिज्ज' तलवत्तियासणाहेहि अप्पियवयणासवणेहिं सवर्णोह, जिणझाणाणलडज्यंतमयणधूमगारेणं पिव कसिणकुडिलेणं मालइ कुसुमवामसुरहिगंधाय ढियभमंतमुहल भमरो लिपरियएणं के सकलावेणं, तिहुयक सुंदर परमाणुविणिम्मियं पिव अपडरूवं रूवसोहं वहंती, ईसिविहसियारद्धसहियणकहापबंधा विमलमाणिक्क पज्जुत्त' कणयासणोवविट्ठा विलासवइ त्ति । तओ तं दण मोहतिमिरभ्याम्, अशोकपल्लवविभ्रमाभ्यां सुप्रशस्तरेखाऽलंकृताभ्यां माणिक्यपर्युक्त कनककटक सनाथाभ्यामनुचितकर्माकराभ्यां कराभ्याम् परिमण्डलया महन्मुक्ताफलमालापरिगतया त्रिरेखालंकृतया शिरोधरया, बन्धूकसदृशेण स्वभावारुणेनाधरेण, विनिर्जितकुन्दकुसुमशोभैविनिर्गच्छन्यू मखजालशोम मानर्दशनैः, उत्तुङ्गेन स्वभावरमणीयेन नासावंशेन, कान्तिप्रतिपूरिताभ्यां विनिर्जितचन्द्रबिम्बशोभाभ्यामशोकपल्लवावतंसकपतितप्रतिबिम्बाभ्यां गण्डपाश्र्वाभ्याम् बिबुद्धनवकुवलयदलकान्तिसुकुमालाभ्यां सुपक्ष्मलाभ्यां दर्शनगोचरापतितजनमनआनन्दनाभ्यां नयनाभ्यां ग्रहकल्लोले षद्गृहितमृगाङ्गनिभेन सुस्निग्धालका कुलेन ललाटपट्टेन, वदनानुरूपाभ्यां जात्यतपनीयतलवर्तिका सनाथाभ्यामं प्रियवचनाश्रवणाभ्यां श्रवणाभ्याम्, जिन ध्यानानलदह्यमानमदनधूमोद्गारेणेव कृष्णकुटिलेन मालतीकुसुमदामसुरभिगन्धाकर्षितभ्रमरभ्रमन्मुख रावलिपरिगतेन केशकलापेन, त्रिभुवनैकसुन्दरपरमाणुविनिभितामिवाप्रतिरूपां रूपशोभां वहन्ती, ईषद्विहसितारब्धसखीजनकथाप्रबन्धा विमलमाणिक्यप्रयुक्तपत्ते का भ्रम उत्पन्न करने वाले, श्रेष्ठ रेखाओं से अलंकृत, मणिजटित सोने के कड़ों से युक्त, अनुचित कार्य को न करने वाले उसके हाथ थे । चारों ओर बहुत बड़ी मोतियों की माला से घिरी हुई तीन रेखाओं से सुशोभित गर्दन थी । बन्धूक ( दुपहरिया ) पुष्प के समान स्वभाव से ही लाल उसके अधर थे, कुन्द के फूलों की शोभा को जीतने वाले, निकलते हुए किरण समूह के समान शोभायमान उसके दाँत थे । ऊँची और स्वभाव से रमणीय उसकी नाक थी । कान्ति से भरे हुए चन्द्रमा के बिम्ब की शोभा को जीतने वाले अशोक पल्लव के बने हुए कर्णभूषण का जिसमें प्रतिबिम्ब पड़ रहा था, ऐसे उसके गाल थे । खिले हुए नीलकमल के समान सुकुमार बरौनियों वाले दर्शनपथ में पड़े हुए मनुष्यों के मन को आनन्द देने वाले उसके दोनों नेत्र थे । ग्रहरूपी तरंगों को ग्रहण किये हुए चन्द्रमा के समान चिकनी भौहों से युक्त ललाटपट्ट (मस्तक) था । मुँह के अनुरूप तपाये हुए सोने के वर्ण वाली बाली से युक्त प्रियवचनों को सुनने वाले उसके दोनों कान थे। जिनेन्द्र भगवान् की ध्यानरूप अग्नि में जलाये गये कामदेव के धुएँ के उद्गार के समान ही मानो काले, कुटिल, मालती की माला के समान सुगन्धित घूम-घूमकर संचार करती हुई भौंरों की पंक्ति से युक्त केशों का समूह था । इस तरह तीन भुवनों के अद्वितीय परमाणुओं से निर्मित अप्रतिम रूप की शोभा को वह विलासवती धारण कर रही थी । कुछ-कुछ मुस्कराती हुई सखियों ने कथाओं की योजना आरम्भ कर दी थी। (तथा वह ) स्वच्छ मणियों से जटित सोने के आसन पर बैठी थी । १. करणिल्ल (दे०) सदृशम्, २. पडिमा एवहि गंडासेहि-ख, ३. कल्लोलो (दे०) शत्रुः राहुरित्यर्थः, ४. तसवत्तियं (दे० ) कर्णाभरर्ण, ५. विणिम्मिधियं - ख, ६. पज्जत्तख । Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमो भवो दोसे अणिरूविऊण परमत्थं अक्विप्यंत हिययं कुरंतबाहुजुथलो परिचितिउं पत्तो । किहओहामियसुरसुंदरिवाइसयं विनिम्मियं दट्ठ विहिणो वि नूणमेयं बहुमाणो आसि अप्पा ||४४२॥ एसा चावायड्ढणवियलं मुणिउण वम्महं विहिणा । जहियमेयणसहा विणिम्मिया हत्यभल्लि व्व ॥ ४४३ ॥ एत्थं तरम् समागओ से अहं दंसणगोयरं, पुलइयो य तीए ससिणेहमारत्तकसणधवलेह चलंततारएहि नयणेहिं ससज्झता विय अणाचिक्णीयं अवत्थंतरमगुहवंती समुट्टिया एसा । तओ | भणियं ' अणंगसुंदरोए सुसागयं मयरद्धयस्स, ] मए वि भणियं सागयं वसंतलच्छीए । सुंदर, अलं संभमेण । एत्यंतरम्मि तं चेवासणमुवदंसिऊण भणियं अणंगसुंदरीए - उवविसउ कुमारो । विलासवइआसणं ति बहुमाणेण उवविट्ठो अहं । उवणीयं च मे कलधोयमयतलियाए तंबोलं । तं च घेत्तूण भणियं मए-उवविस रायधूयति । उवविट्ठा एसा । ठियाणि कंचि वेलं । ( खचित) कनकासनोपविष्टा विलासवतीति । ततस्तं दृष्ट्वा मोहतिमिरदोषेणानिरूप्य परमार्थमाक्षिप्यमान हृदयं स्फुरद्वाहुयुगलः परिचिन्तितुं प्रवृत्तः । कथम · ? तुलितसुरसुन्दरीरूपातिशयां विनिर्मितां दृष्ट्वा । विधेरपि नूनमेतां बहुमान आसीदात्मनि ॥ ४४२॥ एषा चापाकर्षणविकलं ज्ञात्वा मन्मथं विधिना । जनहृदयभेदन सहा विनिर्मिता हस्तभल्लिरिव ॥ ४४३ ॥ अत्रान्तरे समागतस्तस्याहं दर्शनगोचरम् दृष्टश्च तया सस्नेहमा रक्त कृष्णधवलाभ्यां चलत्ताकाभ्यां नयनाभ्याम् । ससाध्वसेव अनाख्येयमवस्थांतरमनुभवन्ती समुत्थितेषा । ततो [भणितमनङ्ग सुन्दर्या - सुस्वागतं मकरध्वजस्य ] मयाऽपि भणितम् - स्वागतं वसन्तलक्ष्म्याः । सुन्दरि ! अलं सम्भ्रमेण । अत्रान्तरे तदेवासनमुपदश्यं भणितमनङ्ग सुन्दर्या - उपविशतु कुमारः । विलासवत्यासनमिति बहुमानेनोपविष्टोऽहम् । उपनीतं च मे कलधौतमयतलिकया ताम्बूलम् । तं च गृहीत्वा भणितं मया - उपविशतु राजदुहितेति । उपविष्टेषा । स्थिताः काञ्चिद् वेलाम । ३५६ अनन्तर उसे देखकर मोहरूपी अन्धकार के दोष से परमार्थ का विचार न कर आकर्षित हृदयवाले बाहु युगल को हिलाते हुए उसने (राजकुमार ने) विचार करना आरम्भ किया । कैसे ? निश्चित रूप से इसका देवागना के समान अतिशय रूप देखकर आत्मा में (मन में) विधाता के प्रति भी बहुत आदर हो रहा था । कामदेव को धनुष के आकर्षण से रहित जानकर ब्रह्मा ने मनुष्य के हृदय को भेदन करने में समर्थ हाथ के भाले के रूप में इसे निर्मित किया है ।।४४२-४४३॥ इसी बीच में उसके दृष्टिपथ में आया। उसने स्नेहपूर्वक चंचल पुतलियों वाले, कुछ-कुछ लाल, काले और सफेद नयनों से मुझे देखा । शीघ्र ही अनिर्वचनीय अवस्था का अनुभव करती हुई यह उठ खड़ी हुई । तब अनंगसुन्दरी ने कहा - 'कामदेव का स्वागत है।' मैंने भी कहा - 'वसन्तलक्ष्मी का स्वागत है । सुन्दरी ! घबड़ाओ मत ।' इसी बीच उसी आसन को दिखाकर अनंगसुन्दरी ने कहा- 'बैठिए कुमार !' (यह) विलासवती का बासन है - ऐसा मानकर मैं बहुत आदर के साथ बैठ गया। वह राजपुत्री मेरे लिए सोने के डिब्बे से पान लायी । उसे लेकर मैंने कहा – 'राजपुत्री ! बैठो ।' वह बैठ गयी। कुछ समय तक ( हम लोग ) बैठे रहे । १. प्रयं कोष्ठान्तर्गत पाठ: कन्ग पुस्तके नास्ति, २. मए भ, ३. प्रामणे तिख, ४ ठिया यक । Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [समरााचकहा एत्यंत रम्मि समागओ मित्तभूई नाम कन्नतेउरमहल्लओ। पणमिओ अहं तेण, मए वि य अहिवाइओ। भणियं च तेण-विलासवइ, महाराओ आणवेइ। विसुमरिया ते वीणापओगा। कुविओ अहं कल्लं । ता लहु सुमरेहि 'अज्ज पुण तए वोणा वाइयव्व' ति। तओ 'जं महाराओ आणवेइ' त्ति भणिऊण निग्गया लहुँ। अह कंचुइयसमेया सणेहमारत्तकसणधवलेहि । नयणेहि अपेच्छंतं पेच्छंतो वलियतारेहि ॥४४४॥ मंथरगईए वियलंतहत्थसंरुद्धमुहलमणिरसणा। मयणसरघायभोय व्व वेवमाणी गया भवणं ॥४४५॥ तओ वसुभइणा भणियं-वयस्स', एहि गच्छामो, विणा विलासवईय किमिह चिट्रिएणं ति । निग्गया अम्हे, दिवा य उज्जाणदुवारदेसभाए अणंगवइनामाए रायपत्तोए । अकज्जायरणकुलहरत्तण मयणस्स समुष्पन्नो तीए वि ममोवरि अहिलासो। गया' अम्हे सगिहं । वासरंतम्मि य घेत्तूण विज्जाहरबंधगुत्थाई सिंदुवारकुसुमाई विलेवणसणाहं च तंबोलमागया अणंगसुंदरी। भणियं च अत्रान्तरे समागतो मित्रभूति म कन्याऽन्तःपुरमहत्कः। प्रणतोऽहं तेन, मयाऽपि चाभिवादितः। भणितं च तेन–विलासवति! महाराज आज्ञापयति -विस्मृितास्ते वीणाप्रयोगाः, कुपितोऽहं कल्ये, ततो लघु स्मर 'अद्य त्वया वीणा वादयितव्या' इति । ततो 'यद् महाराज आज्ञापयति' इति भणित्वा निर्गता लघु। अथ कञ्चुकिसमेता सस्नेहमारक्तकृष्णधवलाभ्याम् । नयनाभ्यामप्रेक्षमाणं प्रेक्षमाणा वलितताराभ्याम् ॥४४४।। मन्थरगत्या विचलदहस्तसंरुद्धमुखरमणिरशना । मदनशरघातभीतेव वेपमाना गता भवनम् ॥४४५।। ततो वसूभतिना भणितम्-वयस्य ! एहि, गच्छावः विना विलासवत्या किमिह स्थितेनेति । निर्गतावावाम । दष्टौ च उद्यानदेशभागे अनङ्गवतीनामया राजपत्न्या। अकार्यां चरण कुलगहत्वे न मदनस्य समुत्पन्नास्तस्या अपि ममोपर्यभिलाषः । गतावावां स्वगृहम । वासरान्ते च गहीत्वा विद्याधरबन्धग्रथितानि सिन्दुवारकुसुमानि विलेपनसनाथं च ताम्बूलमागताऽनङ्गसुन्दरी । भणितं च तया इसी बीच मित्रभूति नाम का, कन्याओं के अन्तःपुर का प्रधान पुरुष आया। उसने मुझे प्रणाम किया और और उसे अभिवादन किया। उसने कहा-'विलासवति ! महाराज ने मुझे आज्ञा दी है कि तुम वीणा का बजाना भूल गयी हो, मैं कल कुपित हुआ था । अतः शीघ्र ही स्मरण करो, आज तुम्हें वीणा बजानी है।' तब 'महाराज की जैसी आज्ञा'-ऐसा कहकर शीघ्र ही निकल गयी। तदनन्तर लाल, काली और सफेद तथा चंचल पुतलियों वाली आँखों से स्नेहक न देखने वाले को देखती हई मन्द गति से चंचल हाथों द्वारा, शब्द करती हई मणिमेखला को रोकती हई सालो भयभीत होकर काँपती हुई-सी वह राजपुत्री कंचकी के साथ भवन में चली गयी। तब वसुभूति ने कहा- 'मित्र ! आओ चलें। विलासवती के यहाँ ठहरने से लाभ ही क्या है ? हम दोनों निकल गये । हम दोनों को उद्यान के एक भाग में अनंगवती नामक राजपत्नी ने देखा। कामदेव के अनुचित आचरण का कुलगृह होने के कारण उसे मेरे प्रति अभिलाषा हो गयी अर्थात् वह मुझे चाहने लगी। हम दोनों अपने निवासगृह चले गये । दिवस के अन्त में विद्याधरों के धागे में गूंथे गये सिन्दुवार निर्गुण्डी के फूल (माला) १. वयंस-ख, २. तमो त वीण वायं तीम पेख्छि ऊग -1, नाम विलास पइस तीया रायवेडिया चतगे पुनिवडिऊण -ख। Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमो भवो] तीए- कुमार, विन्नत्तं सामिणीए 'एयाइं सिंदुवारकुसुमाइं अवस्सं अज्ज उत्तेणं परिहियब्वाई' ति । तओ 'संवाइयं चेव इमिणा उवन्नासेण मे समीहियं' ति चितिऊण, 'जं देवी आणवेइ' त्ति भणिऊण गहियं कुसुमदाम, विरइयं उत्तिमंगे; विलित्तो वि पिययमाबहुमाणेण ' पुणो विलित्तो अप्पा; मोत्तणमावीलं समाणियं तंबोलं । एत्थंतरिम्म भणियं वसुभइणा। अणंगसुंदरि, दितए पियवयंसस्स विणीयत्तणं । तीए भणियं-न एवंविहेसु महापुरिसेस विणओ अच्छेरयं ति । तओ कंचि वेलं गमेऊण पयट्टा अणंगसुंदरी। दिन्नो य से मए भुवणसारो कंठओ। तओ पहढवयणकमला 'संपन्ना सामिणीए मणोरह' त्ति चितयंती भणिया य एसा-सुंरि, सयं ते गेहमेयं, ता इहागमणेण खेओ न कायवो त्ति । तओ 'जं कुमारो आणवेइ' ति भणि ऊण गया अणंगसुंदरी। पवड्ढमाणाणुरायाण अइक्कंता कइवि दियहा। अग्नया य रायकुलाओ निग्गच्छमाणो भणिओ अहं चेडियाए । कुमार, महारायपत्ती अणंगवई कूमार ! विज्ञप्तं स्वामिन्या 'एतानि स्वहस्तग्रथितानि सिन्दुवारकुसुमानि अवश्यमार्यपुत्रण परिधातव्यानि' इति । ततः 'संवादितं चैवानेनोपन्यासेन मे समीहितम्' इति चिन्तयित्वा 'यद् देवी आज्ञापयति' इति भणित्वा गृहीतं कुसुमदाम, विरचितमुतमाङ्ग, विलिप्तोऽपि (कृतविलेपनोऽपि) प्रियतमाबहुमानेन पुनर्विलिप्त आत्मा, मुक्त्वाऽऽवोलं (समाणिअं) भुक्तं ताम्बूलम् । अत्रान्तरे भणितं वसुभूतिना-अनङ्गसुन्दरि! दृष्टं त्वया प्रियवयस्यस्य विनीतत्वम्। तया भणितम् - नैवंविधेष महापुरुषेषु विनय आश्चर्यमिति । ततः काञ्चिद् वेलां गमयित्वा प्रवृत्ताऽनङ्गसुन्दरी । दत्त स्तस्यै मया भवनसारः कण्ठकः । ततः प्रहृष्टवदनकमला सम्पन्ना: स्वामिन्या मनोरथाः' इति चिन्तयन्ती भणिता चैषा-सुन्दरि'! स्वं ते गेहमेतद् तत इहागमनेन खेदो न कर्तव्य इति । ततो 'यत्कुमार आज्ञापयति' इति भणित्वा गताऽनङ्गसुन्दरी । प्रवर्धमानानुरागयोरतिक्रान्ताः कत्यपि दिवसाः।। अन्यदा च राजकुलाद् निर्गच्छन् भणितोऽहं चेटिकया-कुमार ! महाराजपत्नी अनङ्गगवती और लेपनयुक्त पान को हाथ में लेकर अनंगसुन्दरी आयी। उसने कहा- 'कुमार ! स्वामिनी ने निवेदन किया है-इन अपने हाथों से गूंथे गये सिन्दुवार (निर्गुगडी) के फूलों (माला) को आर्यपुत्र अवश्य ही धारण करें। तब इस प्रस्ताव के द्वारा मेरा इष्टकार्य सम्पन्न हो गया-ऐसा सोचकर 'देवी की जैसी आज्ञा'-कहकर फूलों की माला ले ली, सिर पर धारण कर लिया। विलेपन किये हुए होने पर भी प्रियतमा के प्रति आदर के कारण अपना फिर से लेप कर लिया, विलेपन पूरा कि बिना ही पान खाया। इसी बीच वसुभूति ने कहा'अनंगसुन्दरी, तुमने प्रिय मित्र की विनय देखी !' उसने कहा-'इस प्रकार के महापुरुषों में विनय का होना आश्चर्य की बात नहीं है।' तब (वह) कुछ समय बिताकर प्रस्थान करने लगी। मैंने उसके लिए भुवनसार नामक कण्ठाभूषण दिया। अनन्तर 'मेरी स्वामिनी का मनोरथ पूर्ण हो गया'-ऐसा विचारती हुई प्रसन्न मुखकमल वाली अनंगसुन्दरी से कहा ...'सुन्दरी ! यह घर तुम्हारा ही है, अतः यहाँ आने से चिन्तित न होना।' तब 'जैसी कुमार की आज्ञा'-ऐसा कहकर अनंगसुन्दरी चली गयी। इन दोनों का परस्पर अनुराग बढ़ते हुए कुछ दिन बीत गये। एक बार राजमहल से निकलते हुए मुझसे दासी ने कहा-'कुमार ! महाराज की पत्नी अनंगवती कहती हैं १, संपाइयं-ख, २. पुन्वविलित्तो संतो-ख, ३. बहुमाणो -ख, ४. अणंगमती-ख । Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ समराइच्च कहा ता इहागच्छउ कुमारो' ति । तओ वीसत्थयाए महारायस्य 'अंबाए वि आणासंपायणे न उवरोहो' त्ति भणिऊण पयट्टो अणंगवईसमीवं' । दुवारपवेसे य फुरियं मे वामलोयणेणं, उवरोहसीलयाए तहवि य पविट्टो अहयं । दिट्ठाय सा मए वामकरयलपणामियं परिमलियकवोलपत्तलेहं वयणकमलमुव्वहंती पणमिया सायरं । अपरिफुडक्खरं च 'कुमार सरणागया, परित्तायाहि" त्ति जंपियं तीए । मए भणियं - अंब, कुओ भयं । तओ मयणवियारनिब्भराए दिट्ठीए मं पुलोइऊण' भणियं तोएकुमार, अगंगाओ । जयप्पभिइ दिट्ठो मए मंदिरुज्जाणाओ निग्गच्छमाणो तुमं, तयप्पभिइ पंचबाणो वि मयणो ममं चित्तलक्खे दसबाणकोडी संवृत्तो । ता हियएण समप्पियं नियगुणेहिं संदामियं अणुराएण धारिय मयणबाणेहिं सल्लियं निव्ववेहि मे सरीरं अत्तणोवओगेण । ते य सत्तिमंता पुरिसा, जे अब्भत्थणावच्छला, समावडियकज्जा न गर्णेति आयई, अब्भुद्धरेंति दीणयं, पूर्णेति परमणोरहे, " रक्खति सरणागयं । ता रक्खेहि मं इमाओ अगंगाओ ति । तओ एयामायण्णिऊण ताडिओ विय अविरिण भिन्नो विय सूलेणं समाहओ विय मम्मेसु मुच्चमाणो विय जीविएणं महंतं दुक्खभति 'यदि नातीवोपरोधस्तत इहागच्छतु कुमार' इति । ततो विश्वस्तया महाराजस्य 'अम्बाया अप्याज्ञासम्पादने न उपरोध:' इति भणित्वा प्रवृत्तोऽनङ्गवतीसमीपम् । द्वारप्रवेश च स्फुरितं मे वाम लोचनेन, उपरोधशोलतया तथाऽपि च प्रविष्टोऽहम् । दृष्टा च सा मया वामकरतलार्पितं परिमर्दितकपोलपत्रलेखं वदनकमलमुद्वहन्तो प्रणता सादरम् । अपरिस्फुटाक्षरं च ' कुमार ! शरणागता, परिश्रायस्व' इति जल्पितं तथा । मया भणितम् - अम्ब ! कुतो भयम् ? ततो मदनविकारनिर्भरया दृष्ट्या मां दृष्ट्वा भणितं तया - कुमार ! अनङ्गात् । यत्प्रभृति दृष्टो मया मन्दिरोद्यानाद् निर्गच्छन् त्वम्, तत्प्रभृति पञ्चबाणोऽपि मदनो मम चित्तंलक्षे दशवाणकोटिः संवृत्तः । ततो हृदयेन समर्पित निजगुणैः सन्दामितं ( बद्धं) अनुरागेण धारितं मदनबाणैः शल्यितं निर्वापय मे शरीरमात्मोपयोगेन ते च र्शा तमन्तः पुरुषा येऽभ्यर्थनावत्सलाः समापतितकार्या न गणयन्त्यायतिम्, अभ्युद्धरन्ति दीनम्, पूरयन्ति परमनोरथान्, रक्षन्ति शरणागतम् । ततो रक्ष मामस्मादनङ्गादिति । तत एवमाकर्ण्य ताडित इवाश निवर्षेण भिन्न इव शूलेन, समाहत इव मर्मसु मुच्यमान इव जीवितेन महान्तं दुःखमनु 1 , कि यदि कुमार को कोई विघ्न न हो तो कुमार यहाँ आयें। तब महाराज के विश्वास से 'माता की आज्ञा पालन करने में भी कोई विघ्न नहीं है' ऐसा कहकर अनंगवती के यहाँ गया। प्रवेश-द्वार पर मेरी बायीं आँख फड़कने लगी । इस प्रकार बाधा उपस्थित होने पर भी मैं प्रविष्ट हो गया। मैंने, गालों की पत्रलेखा को रगड़कर मिटाते हुए, बायीं हथेली पर रखे हुए मुखकमल को धारण करने वाली तथा आदरपूर्वक प्रणाम करने वाली उस राजपत्नी को देखा । उसने अस्पष्ट अक्षरों में 'कुमार ! मैं शरणागत हूँ, बचाओ' - ऐसा ( मुझसे ) कहा । मैंने कहा -- 'माता ! किससे भय है ?' तब काम के विकारों से भरी हुई दृष्टि से मुझे देखकर उसने कहा- 'कुमार ! कामदेव से ।' जब से मैंने मन्दिर के उद्यान से तुम्हें निकलते हुए देखा, तब से मेरे चित्तरूपी लक्ष्य में पाँच बाणों वाला भ कामदेव दस बाणों वाला हो गयः । अतः हृदय से समर्पित, निजगुण से बद्ध, अनुराग धारण की गयी, मदनीबाणों से विद्ध मेरे शरीर का उपयोग कर आप उसे शान्ति प्रदान करें। वे पुरुष शक्तिमान हैं जो कि प्रार्थना के प्रति प्रेम दिखाने वाले हैं। कार्य आ पड़ने पर भावीफल की गणना नहीं करते हैं, दोनों का उद्धार करते हैं, दूसरों के मनोरथ को पूरा करते हैं, शरणागतों की रक्षा करते हैं अतः मेरी इस कामदेवसे रक्षा कीजिए ।' तब इसे सुनकर मानो वज्र की वर्षा से ताड़ित हुआ, शूल से छेदा गया, मर्म पर चोट पहुंचाया हुआ, जीवन को छोड़ता हुआ १. मतिख २ पणामियं - अर्पितम् ३. परितायह त्ति-ख, ४. पलोइऊण - क, ५. पण इमणो रहेक, ६. विवख, ७. असिणि ख । Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमो भवो] ३६३ मणुपत्तो म्हि। तओ 'नत्थि अकरणिज्ज विसयाउराण' ति चितिऊण जंपियं मए। अंब, परिच्चय इमं उभयलोयविरुद्धं अणज्जसंकप्पं, आलोएहि अत्तणो महाकुलं, अवेक्खाहि महारायसंतिए गुणे। संकप्पजोणी य निरयगमक्कदेसिओ अणंगो, न यापरिचत्तेहि इमेहि एस उवरमइ। न य विहाय चलणवंदणं तह सरीरेण मे उवओगो । सत्तिमंता वि य पुरिसा, जे न परिच्चयंति धम्मं, न खंडेंति सोलं, न लंघेति आयारं, न करेंति वयणिज्ज, न मुझंति उचिएसुं। अणंगपरिरक्खणं पिय न विवेयसन्नाहमंतरेण । अन्नं च-वल्लहो अहं ते, ता कहं खणियसुहं चेव बहु मन्निऊण पाडेहि मं अविझाययवहजालावलोभीसणे नरए। अओ परिच्चय इमं अविवेइजणबहुमयं कामाहिलासं। सामिसाली य तुमं ति । अओ एवं भणामि। भणियं च जो पावं कुणमाणं अणुयत्तइ सामियं व मितं वा । सो निरयपत्थियस्स' कहेइ कंडु जुयं मग्गं ॥४४६॥ एत्थंतरम्मि लज्जावणयवयणाए भणियं अणंगवईए-साहु कुमार साहु, उचिओ ते विवेगो। प्राप्तोऽस्मि । ततो 'नास्त्यकरणीयं विषयातुराणाम्' इति चिन्तयित्वा जल्पितं मया-अम्ब ! परित्यजेममुभयलोकविरुद्धमनार्यसङ्कल्पम्, आलोचयात्मनो महाकुलम्, अपेक्षस्व महाराजसत्कान गुणान । संकल्पयोनिश्व निरयगमनै कदेशिकोऽनङ्गः, न चापरित्यक्तैरेभिरेष उपरमति । न च विहाय चरणवन्दनं तव शरीरेण मे उपयोगः। शक्तिमन्तोऽपि च (ते) पुरुषा ये न परित्यजन्ति धर्मम, न खण्डयन्ति शालम्, न लङ्घयन्त्याचारम्, न कुर्वन्ति वचनोयम्, न मुह्यन्त्युचितेष । अनङ्गपरिरक्षणमपि च न विवेकसन्नाहमन्तरेण । अन्यच्च -बल्लभोऽहं ते, ततः कथं क्षणिकसूखमेव बह मत्वा पातयसि मामविध्यातहुतवहज्वालावलिभोषणे नरके। अतः परित्यजेममविवेकिजनबहुमतं कामाभिलाषम् । स्वामिशाली च त्वमिति, अत एवं भणामि । भणितं च-- य: पापं कुर्वन्तमनुवर्तते स्वामिकं वा मित्रं वा। स नरकप्रस्थितस्य कथयति काण्डर्जुक (काण्डवत्-वाणवद् ऋजु-सरलम्) मार्गम् ॥ ४४६।। अत्रान्तरे लज्जावनतवदनया भणितमनङ्गवत्या साधु कुमार ! साधु, उचितस्ते विवेकः । सा मैं दुःखी हुआ। तब विषयातुर लोगों के लिए कुछ भी अकरणीय नहीं है' ऐसा सोचकर मैंने कहा- 'माता, बरलोक और परलोक के विरुद्ध अनार्य संकल्प का (आप) त्याग करें। अपने महान कूल के विषय में सोचें, महाराज सीखे गणों की अपेक्षा करें। कामदेव संकल्प की योनि और नरकगमन का पथप्रदर्शक है। त्याग न किये जाने पर यह शान्त नहीं होता है । चरणवन्दना को छोड़कर आपके शरीर का मेरे लिए (कोई) उपयोग नहीं है । वे सब पुरुष शक्तिमान हैं जो धर्म नहीं छोड़ते, शील को खण्डित नहीं करते हैं, आचार को नहीं लांघते हैं, निन्दा को नहीं प्राप्त करते हैं, उचितों में मोहित नहीं होते हैं । विवेकरूपी कवच के बिना काम से भी रक्षा नहीं हो सकती है। दूसरी बात यह है कि मैं तुम्हारा प्रिय हूँ; अतः क्षणिक सुख को ही अधिक मानकर (मुझे) जिसमें अग्नि की ज्वालाओं का समूह बुझता नहीं है, ऐसे भीषण नरक में क्यों गिराती हो? अत: अविवेकीजनों के द्वारा आदत यह कामाभिलाषा छोड़ा। आप समर्थ हैं । अतः ऐसा कहता हूँ। कहा भी है जो पाप करते हुए स्वामी अथवा मित्र का अनुसरण करता है वह नरक में जाने वाले के लिए सीधे मार्ग को कहता है (बतलाता है) ॥४४६।। इसी बीच लज्जा से मुंह झुकाये हुए अनंगवती ने कहा - 'अच्छा कुमार ! ठीक है, तुम्हारा विवेक उचित १. पत्थियस्सा-ख, 2. कंदुज्जये -ख, कंदुज्जयं पंथं-क । Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ [समराइच्चकहा मए विरूवसोलाई विरुद्धाई ति लोगवायवि(जि)नासणत्थं इममणुचिट्टियं न उण परमत्थओ त्ति । ता गच्छउ कुमारो। तओ अहं पणमिऊण तीए चलणजयलं निग्गओ, तओ गओ नियगेहं। ___ अइकंता काइ वेला । समागओ नरवइबीयहिययभूओ विणयंधरो नाम नयरारक्खिओ। भणियं च तेण--कुमार, वत्तुकामो अहं; ता विवित्तमप्पाणयं आणवेउ कुमारो त्ति। तओ पुलइया वसुभूइपमुहा वयंसया, अवगया य । भणियं च तेण-कुमार, अवहिओ सुण। अस्थि भवओ पिइरज्जम्मि सत्थिमई नाम सन्निवेसो। तत्थ वीरसेणो नाम कुलउत्तओ। सोय अच्चंतदाणवसणी अहिमाणधणो दयालुओ सूरो। गंभीरो सरणागयपरिरक्खणबद्धकच्छिल्लो ॥४४७॥ तस्य य कप्पपायवस्स विय परस्थसंपायणेण सफलं जम्ममणुहवंतस्स अइक्कंतो कोइ कालो। जाया य से आवन्नसत्ता घरिणी। तओ सो तं गेण्हिऊण महया चडयरेण पयट्टो तीए कुलहरं जयत्थलं नाम नयरं । पत्तो' सेयवियं, आवासिओ बाहिरियाए । एत्थंतरम्मि समागओ साससमावरियाणणो मयाऽपि रूपशीले विरुद्ध इति लोकवादजिज्ञासनार्थमिदमनुष्ठितं न पुन: परमार्यत इति । ततो गच्छतु कुमारः। ततोऽहं प्रणम्य तस्याश्चरणयुगलं निर्गतः । ततो गतो निजगेहम् । अतिक्रान्ता काचिद् वेला। समागतो नरपतिद्वितोय हृदयभूतो विनयन्धरो नाम नगरारक्षकः, भणितं च तेन-कुमार! वस्तुकामोऽहम्, ततो विविक्तमात्मानमाज्ञापयतु कुमार इति । ततो दृष्टा वसुभूतिप्रमुखा वयस्या अपगताश्च । भणितं च तेन-कुमार, अवहितः शृणु । अस्ति भवतः पितराज्ये स्वस्तिमती नाम सन्निवेशः । तत्र वीरसेनो नाम कुलपुत्रकः । स च अत्यन्तदानव्यसनी अभिमानधनो दयालुकः शूरः । गम्भीरः शरणागतपरिरक्षणबद्धकक्षावान् ॥४४५।। तस्य च कल्पपादस्येव परार्थसम्पादनेन सफलं जन्मानुभवतोऽतिक्रान्त कोऽपि कालः । जाता च तस्यापन्नसत्त्वा गृहिणी । ततः स तां गृहीत्वा महता चटकरेण (परिकरेण) प्रवृत्तस्यस्याः कुलगहं जयस्थलं नाम नगरम् । प्राप्तः श्वेतविकाम् । आवासितो बाह्यायाम् । अत्रान्तरे समागतः श्वासहै। मैंने भी 'कुमार रूप और शील में विरुद्ध हैं', ऐसी जनश्रुति होने पर जिज्ञासा के लिए यह कार्य किया है यथार्थ रूप से नहीं। अत: कुमार जाइए।' तब मैं उसके चरण युगल में प्रणामकर निकल गया। वहां से अपने घर गया। ___ कुछ समय बीत गया। राजा के दूसरे हृदय के समान, नगर की रक्षा करने वाला विनयन्धर नामक एक अधिकारी आया। उसने कहा-'कूमार ! में कुछ कहना चाहता हूँ, अतः कुमार अपने एकान्त की आज्ञा दें अर्थात एकान्त में मिलें।' तब वसुभूति प्रमुख मित्रों ने देखा और निकल गये। विनयन्धर ने कहा-'कुमार! सावधान होकर सुनें। आपके पिता के राज्य में 'स्वस्तिमती' नामक सन्निवेश है । वहाँ वीरसेन नामक कुलपुत्र है। वह अत्यन्त दान करने का व्यसनी है, अभिमान उसका धन है, दयालु, शूर, गम्भीर (तथा) शरणागत की रक्षा के लिए कमर कसने वाला है ।।४४७।। कल्पवृक्ष के समान दूसरे के प्रयोजन को साधने में अपने जन्म को सफल मानते हुए उसका कुछ समय व्यतीत हुआ। उसकी गृहिणी गर्भवती हुई। तब वह उसे लेकर बड़े समूह के साथ उसके (गृहिणी के) कुलगृह (पितृगृह) जयस्थल नामक नगर को चल पड़ा। श्वेतविका (नगरी) आयी । नारी १. अणवस्यपयाणएहि य पत्तो सेयवियं भवो पिउणो जमोधम्मुणो यहाणि-क । Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६५ पंचमो भवो] भयकायरचक्खू खोणगमणसत्ती कंठगयपाणो तुरियं तुरियं कोइ कुलउत्तओ। भणियं च तेण-अज्ज, परित्तायाहि परित्तायाहि, सरणागओ अज्जस्स। कुलउत्तएण भणियं-भद्द, अलं भएण, को मम पाणेसु धरतेसु भद्दस्स केसं पि उप्पाडेइ। घरिणोए मणियं --अज्जउत्त, मा एवं करेहि; कयाइ दोसयारी भवे । कुलउत्तएण भणियं-सुंदरि, अदोसयारी' किं सरणं पवज्जइ । ता कि एइणा । जो होउ, सो होउ; पडिवन्नो मए। भणिओ य एसो-'भर, उवविसाहिति । तेण भणियं अज्ज, कयंतहत्थि लंघियाणि विय मयकुलाणि सोयंति मे अंगाणि, भयाभिभूयइत्थियाहिययं विय थरहरंति मे ऊरू, परनिदाए विय सज्जणभारही न पसरइ मे गई, अत्थिजणुल्लावा विय पए पएखलंति चलणय, पेयनाहस्स विय देवस्स विजयवम्मणो आसन्नीहवंति निद्देसयारिणो ति । कुलउत्तएण भणियं--भद्द, अलं भएण । को मम पाणेस धरतेस भहस्स अंगलीए२ वि दसहस्सह त्ति। सा परिचय विसायंड उवविससु आवासंतरे । एत्थंतरम्मि समागया रायपुरिसा। भणियं च तेहि-अरे रे पावकम्म, चं । देवसासणमइक्क मिऊण अज्ज वि पाणे धारेसि। समापूरिताननो भयकातरचक्षुः क्षीणगमनशक्तिः कण्ठगतप्राणस्त्वरितं त्वरितं कोऽपि कुलपुत्रकः, भणितं तेन-आर्य ! परित्रायस्व, परित्रायस्व, शरणागत आर्यस्य । कुलपुत्रकेन भणितम्-भद्र।। अलं भयेन, को मम प्राणेषु धरत्सु भद्रस्य केशमपि उत्पाटयति । गृहिण्या भणितम्-आर्यपुत्र ! म, एवं करु, कदाचिद् दोषचारी भवेत् । कुलपुत्रकेन भणितम्-सुन्दरि ! अदोषचारी कि शरणं प्रपद्यते ? ततः किमेतेन । यो भवतु, प्रतिपन्नो मया । भणि तश्च-भद्र ! उपविशति । तेन भणितम्आर्य ! कृतान्तहस्तिलङ्घितानीव मृगकुलानि सीदन्ति मेऽङ्गानि, भयाभिभूतस्त्रीहदयमिव कम्पेते में ऊरू, परनिन्दायामिव सज्जनभारती न प्रसरति मे गतिः, अर्थीजनोल्लापा इव पदे पदे स्खलितश्चरणौ प्रेतनाथस्येव देवस्य विजयवर्मण आसन्नीभवन्ति निर्देशकारिण इति । कुलपुत्रकेण भणितम-भद्र ! अलं ते भयेन, को मम प्राणेषु धरत्सु भद्रस्य अंगुल्यापि दर्शयिष्यतीति । ततः परित्यज विषादम उपविश आवासान्तरे । अत्रान्तरे समागता राजपुरुषाः। भणितं च तैः–अरे रे पापकर्मन ! चण्ड देवशासनमतिक्रम्य अद्यापि प्राणान् धारयसि ? के बाहर ठहर गया। इसी बीच, जिसका मुह श्वास से भरा हुआ था, भय से जिसके नेत्र दुःखी थे, जिसके गमन करने की शक्ति क्षीण हो गयी थी और जिसके प्राण कण्ठगत थे-ऐसा कोई कुलपुत्र जल्दी-जल्दी आया। उसने कहा-'आर्य ! रक्षा करो, रक्षा करो, आर्य की शरण में हैं।' कुलपूत्र ने कहा-'भद्र ! भय मत करो। मेरे प्राण रहते कौन है जो भद्र का बाल भी उखाड़ सके ।' गृहिणी ने कहा -- 'आर्यपुत्र ! ऐसा मत करो, कदाचित् दोष करने वाला अपराधी) हो।' कुलपुत्र ने कहा-'जो गलत आचरण नहीं करता है, वह क्या शरण में आता है ? अतः इससे क्या ? जो हो सो हो, मैंने शरण में ले लिया।' मैंने कहा-'भद्र ! बैठो।' उसने कहा-'आर्य ! यमरूपी हाथी के द्वारा लंधित मगसमूह के समान मेरे अंग कांप रहे हैं, भय से अभिभूत स्त्री के हृदय के समान मेरी दोनों जाँघे काँप रही हैं। दूसरे की निन्दा करने वाली सज्जन की वाणी के समान मेरी याचक लोगों की वाणी के समान पग-पग पर मेरे दोनों पैर फिसल रहे हैं, प्रेतनाथ के समान महाराजा विजय वर्मा की आज्ञा मानने वाले लोग समीप आ रहे हैं।' कुलपुत्र ने कहा-'भद्र ! डरो मत, मेरे प्राण रहते हए कौन भद को अंगली भी दिखा सकता है ! अतः विषाद छोड़ो। आवास के भीतर बैठो।' इसी बीच राजपुरुष आ गये। उन्होंने कहा-'अरे रे पापकर्मा! महाराज के प्रचण्ड शासन की अवहेलना कर अभी भी प्राण धारण कर रहा है ?' १. दोसयारी सरणं पवज्जइ, न उण निद्दोसो सरणं पवज्ज इत्ति-क। थर रायन्ते-ख । 2. केसंपि उप्पाडेइ-ख । ३. आवा सन्तरं, उवविट्ठो य एसो दूसहरमन्तरे । एत्थ--क। Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ [ समराइच्चकहा जइ वच्चसि पावालं सरणं वा सुरवई पयत्तेणं । लंघेसि जलनिहि वा तहावि जीय' न पावेसि ॥४४८॥ कुलउत्तएण भणियं-भद्द, कि कयमणेणं। तेहि भणियं-परदव्यावहारेणं देवसासणाइक्कमो त्ति । कुलउत्तएण भणियं-भद्द, सरणागयपरिवज्जणं चोररक्खणं च दुवे विहु विरुद्धाणि; तहादि अमुणिऊण परमत्थं पडिवन्नं मए इमस्स सरणं । एवं च ठिए समाणे भद्दा पमाणं ति । तेहि भणियं -भो कुलउत्तय, जइ अम्हे पमाणं, ता समप्पेहि एयं पावकम्म, मा पवज्जेहि देवकोवाणलजालावलीए पयंगत्तणं-कुलउत्तएण भणियं-न ईइसो सप्पुरिसाण मग्गो, जं सरणागओ समप्पिज्जइ । तेहि भणियं । जइ एवं, परिरक्खेहि एयं; बला गेण्हामो त्ति । तेण भणियं-को मम पाणेसु धरतेसु एयं गेण्हइ त्ति । भणिऊण मग्गियं मंडलग्गं कुलउत्तएण, सन्नद्धो य से परिवारो। तओ रायपुरिसेहि 'मा णे अवराहियं भविस्सई' त्ति चितिऊण निवेइयं महारायस्स। भणियं च तेण-सासणाइक्कतं पि 'मे सरणागयं' ति रक्खइ; ता लहुं वावाएह त्ति । तओ समागयं अहिययरं नरिंदसाहणं, वेढिया यदि व्रजसि पातालं शरणं वा सुरपति प्रयत्नेन । लङ्घसे जलनिधि वा तथापि जावितं न प्राप्नोषि ।।४४८।। कुलपुत्रकेन भणितम्..-भद्र ! किं कृतमनेन ? तैर्भणितम्-परद्रव्यापहारेण देवशासनातिक्रम इति । कुलपुत्रकेन भणितम्-भद्र ! शरणागतपरिवर्जनं चौररक्षणं च द्वे अपि खलु विरुद्ध, तथाऽप्यज्ञात्वा परमार्थ प्रतिपन्नं मयाऽस्य शरणम् । एवं च स्थिते सति भद्राः प्रमाण मिति । तैर्भणितम्-भो कुलपुत्रक ! यदि वयं प्रमाणं ततः समर्पय एतं पापकर्माणम्, मा प्रपद्यस्व देवकोपानलज्वालावल्यां पतङ्गत्वम् । कुलपुत्रकेन भणितम्-न ईदृशः सत्पुरुषाणां मार्गो यच्छरणागतः समर्प्यते । तैर्भणितम्यद्येवं परिरक्ष एतम्, बलाद गृह्णीम इति । तेन भणितम् - को मम प्राणेषु धरत्सु एतं गृह्णातीति भणित्वा मार्गितं मण्डलाग्रं कुलपुत्रकेण, सन्नद्धश्च तस्य परिवारः । ततो राजपुरुष 'स्मिाकं अपराद्धं भविष्यति' इति चिन्तयित्वा निवेदितं महाराजाय। भणितं च तेन--शासनातिक्रान्तमपि मे शरणागतमिति रक्षति ततो लघु व्यापादयतेति । ततः समागतमधिकतरं नरेन्द्र साधनम्, वेष्टिता यदि इन्द्र के प्रताप से पाताल की शरण में जाते हो अथवा समुद्र को भी लांघते हो (पार करते हो) तो भी प्राणों को नहीं पाओगे अर्थात् तुम्हारे प्राण नहीं बचेंगे ।।४४८॥ कुलपुत्र ने कहा-'भद्र ! इसने क्या किया ?' उन्होंने कहा–'दूसरे के धन का अपहरण कर महाराज की आज्ञा का उल्लंघन किया है।' कुलपुत्र ने कहा--'भद्र ! शरणागत को छोड़ देना और चोर की रक्षा करन ये दोनों विरोधी हैं, फिर भी यथार्थ बात जाने बिना मैंने इसे शरण में ले लिया है। ऐसी स्थिति में भद्र प्रमाण हैं अर्यात आप जो चाहें सो करें ।' उन्होंने कहा-'हे कुलपुत्र ! यदि हमलोग प्रमाण हैं तो इस पापकर्म करने वाले को सौंप दो, महाराज के क्रोधरूपी अग्नि की ज्वाला के समूह में पतंगा मत बनो।' कुलपुत्र ने कहा--'यह सत्पुरुषों का मार्ग नहीं है (कि वे शरणागतों को सौंप दें।)' उन्होंने (राजपुरुषों ने ) कहा-'यदि ऐसा है तो इसकी रक्षा करो, (हम लोग) बलात् पकड़ेंगे।' उसने कहा--'मेरे प्राण धारण करते हुए कौन इसे पकड़ता है ?' ऐसा कहकर कुलपुत्र ने तलवार खींची, उसके साथी भी तैयार हो गये । तब राजपुरुषों ने 'हमारा अपराध न हो जाय' ऐसा सोचकर महाराज से निवेदन किया। महाराज ने कहा-'आज्ञा का उल्लंघन करने पर भी 'मेरा शरणागत है'-ऐसा कहकर रक्षा करता है। अतः शीघ्र ही मार डालो।' तब राजा की अत्यधिक सेना १. जीवं-क, 2. समणिअइ-क। Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमो भवो ] ३६७ कुल उत्तयस्सावासभूमो, पट्टमाओहणं । एत्थंतरम्मि समागओ वाहियालीओ महारायत्तो महया आससाहणेण जसोवम्मदेवो । पुच्छावियं तेण - 'अरे किमेयं' ति । साहियं च से रायपुरिसेहि । भणियं च तेण - अरे मए अवावाइयम्मि को सरणागयवच्छलं वावाएइ त्ति निवेएह तायस्स । तओ उवसंतमाओहणं, निवेइयं राइणो, अवहीरियं च तेण - भद्द, वीसत्यो गच्छाहि ति बहु माणिऊण कुलउत्तयं गओ कुमारो । कुलउत्तओ य तक्करं पूइऊण अणुसासिऊण य तं पत्तो दुमासमेत्तेण कालेन जयत्थलं । पसूया से घरिणी । जाओ से शरओ; सो उण कुमार, अहं चेव । ता एवं सयलसत्तोवगारगो वि विसेसओ उवयारी ते पिया तायस्य अम्बाए ममं चति । निवेइयं कुमारस्त कारणं पुण इमं । अज्ज खलु समागमेत्तो चेव ईसाणचंदो महाराओ वाहियालीओ पविट्टो अणंगवइगेहं । दिट्ठा य तेण कररुहविलिहियाणणा बाहजलधोयकबोलपत्तलेहा अणंगवई, भणिया य - ' सुंदरि, किमेयं' ति । तीए भणियं - सोलपरिरक्खणविवाओ। राणा भणियं - साहेउ सुंदरी, कस्स सुमरियं कयंतेण । तीए कुलपुत्रस्यावासभूमिः प्रवृत्तमायोधनम् । अत्रान्तरे समागतो बाह्यालीतो महाराजपुत्रो महताऽश्वसाधनेन यशोवर्मदेवः । प्रच्छितं तेन - अरे किमेतदिति । कथितं च तस्य राजपुरुषः । भणितं च तेन - अरे मयि अव्यापादिते कः शरणागतवत्सलं व्यापादयतीति निवेदयत तातस्य । तत उपशान्तमायोधनम् निवेदितं राज्ञः, अवधारितं च तेन-भद्र ! विश्वस्तो गच्छ इति बहु मानयित्वा कुलपुत्रकं गतो कुमारः । कुलपुत्रकश्त्र तस्करं पूजयित्वाऽनुशिष्य च तं प्राप्तो द्विमासमात्रेण कालेन जयस्थलम् । प्रसूता च तस्य गृहिणी । जातस्तस्या दारकः, स पुनः कुमार ! अहमेव । तत एवं सकल सत्त्वोपकारकोऽपि विशेषत उनकारी ते पिता तातस्याम्बाया मम चेति । निवेदितं कुमाराय कारणं पुनरिदम् अद्य खलु समागतमात्र एव ईशानचन्द्रो महाराजो बाह्यालितः प्रविष्टोऽनङ्गवतोहम् । दृष्टा च तेन कररुद्ध विलिखितानना वाष्पजलधौतकपोलपत्रलेखाऽनङ्गवती । भणिता च - सुन्दरि ! किमेतदिति । तया भणितम् - शीलपरिरक्षण विपाकः । राज्ञा भणितम् - कथयतु सुन्दरो, कस्य स्मृतं कृतान्तेन ? तया भणितम्-न विज्ञप्तमेव मया आयी । कुलपुत्र की आवासभूमि को घेर लिया, युद्ध प्रारम्भ हो गया। इसी बीच बहुत से घुड़सवारों के साथ महाराज का पुत्र यशोवर्मदेव अश्वक्रीडनक भूमि से आया। उस ( यशोवर्म देव) ने पूछा --- ' अरे ! यह क्या है ?" राजपुरुषों ने उससे (वृत्तान्त ) कहा । उसने कहा - ' अरे मेरे मारे न जाने पर अर्थात् मेरे जिन्दा रहते हुए कौन शरणागतवत्सल को मारता है - ऐसा पिता जी से निवेदन कर दो।' तब युद्ध बन्द हो गया। राजा से निवेदन किया, उसने हार मान ली । 'भद्र ! विश्वस्त होकर जाओ। इस प्रकार कुलपुत्र का सम्मान कर कुमार चला गया। कुलपुत्र भी तस्कर को आदर देकर उसे शिक्षा दे दो मह में जयस्थल पहुँच गया । उसकी पत्नी ने प्रसव किया । उसके लड़का हुआ । हे कुमार ! वह मैं ही हूँ । इस प्रकार समस्त प्राणियों पर उपकार करने वाले होने पर भी आपके पिता, (मेरे) माता पिता के विशेष रूप से उपकारी हैं। कुमार से निवेदन किया- कारण यह है - आज महाराज ईशानचन्द्र अश्वको डनक भूमि से आकर सीधे अनंगवती के घर में प्रविष्ट हुए । ईशानचन्द्र ने नाखूनों से निशान बनायी हुई, आँसुओं के जल से गालों की पत्ररचना को धोयी अनंगवती को देखा। महाराज ने उससे (अनंगवती से ) कहा - 'सुन्दरी ! यह क्या है ?' उसने कहा - 'शील की रक्षा करने का फल ।' राजा ने कहा - 'सुन्दरी, कहो, किसे यम ने स्मरण किया है ?' उसने कहा- 'मैंने महाराज से निवेदन ही नहीं किया १. वारावियं महाराएणक । २. भारिया के । ३. पुयं च मे जण णिजण याण सयासाओ। जहा विजयधम्मणो पुत्तजसोधम्मसंविभो णे जियलोभो । जस्स नाम पि सुमरिऊण हरिसवसुप्फुल्लोयणो वासरंपि सयलं तस्स सन्भूयगुण कित्तण करेत्ताण न तिप्पइ मत्तो चेव ईसाण चंदो क Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ समराइच्चकहा भणियं न विन्नतं चेव मए महारायस्स; 'किमगेण असंबद्धपलावेणं' ति। अन्नहा अइक्कता कइवि वासरा सणंकुमारस्स मं पत्थेमाणस्स । न पडिवन्नं च तं मए। अज्ज उण सयमेवागच्छिऊण अपडिवज्जमाणी से हिययइच्छियं एवं कयत्थिय म्हि । तओ कुविओ राया। मालयं च तेण--अरे विणयंधर, लहुं तं दुरायारं कुलफंसणं वावाएहि त्ति । मए भणियं---जं देवो आणवेइ । राइणा भणियंतहा तए वावाइयवो, जहा न कोइ णं लक्खेइ त्ति। तओ मए चितियं-अहो दारुणे निउत्तो म्हि । एवंफला नरिंदपच्चासन्नया । धन्ना खु ते जणा, सेवंति जे निद्दुज्जणाई तवोवणाई। हाकिमेत्थ कायव्यं ति । सोहणं होइ, जइ सो दीहाऊ न वाव इज्जइ। समद्धासिओ चितापिसाइयाए 'तहावि य अलंघणीओ देवाएसो' त्ति पयट्टो एयवइयरेण । एत्थंतरम्मि छीयं केणावि तोरणपएसे। तमायण्णिऊण विलंबमाणो भणिओ सिद्धाएसनेमित्तिएण । भद्द विणयंधर, मा विलंबेहि; जओ सोम्मा' नाम सत्तमी एसा छिक्का आरोग्गप.ला अणंतरा अपुव्वअत्थलाभोत्तरा य । तहा य भणियमिणमिसीहि--- पतिसेहमजत्तं वा हाणि वुड्ढि खयं असिद्धि वा।। आरोग्गमत्थलाभं छोयम्मि पयाहिणदिसासु ॥४४६॥ महाराजाय 'किमनेनासम्बद्धप्रलापेन' इति। अन्यथाऽतिक्रान्ताः कत्यपि वासराः सनत्कुमारस्य मां प्रार्थयमानस्य। न प्रतिपन्नं च तन्मया। अद्य पुनः स्वयमेवागत्याप्रतिपद्यमाना तस्य हदयेप्सितमेवं कथिताऽस्मि । ततः कपितो राजा। भणितं च तेन-अरे विनयन्धर ! लघु तं दुराचारं कुलपांसनं व्यापादयेति । मया भणितम्-यद देव आज्ञापयति । राज्ञा भणितम् --तथा त्वया व्यापादयितव्यो यथा न कोऽपि तद् लक्ष यतीति ततो मया चिन्तितम्-अहो दारुणेनि युक्तोऽस्मि । एवं फला नरेन्द्रप्रत्यासन्नता । धन्याः खलु ते जनाः से वन्ते ये निर्दुर्जनानि तपोवनानि । हा किमत्र कर्तव्यमिति । शोभनं भवति यदि स दीर्घायुर्न व्यापाद्यते । समध्यासितश्चिन्तापिशाचिकया, तथापि चालङ घनीयो देवादेशः' इति प्रवृत्त एतद्वयतिक रेण । अत्रान्तरे क्षुतं केनापि तोरण प्रदेशे । तमाकर्ण्य बिलम्बमानो भणि तः, सिद्धादेशनैमित्तिकेन-भद्र विनयन्धर ! मा विलम्बस्व, अतः सौम्या नाम सप्तम्येषा क्षुत् (ठिक्का) आरोग्यफलाऽनन्तरापूर्वार्थलाभोत्तरा च । तथा च भणितमिदमृषिभिः प्रतिषेधमयत्नं (यात्र)वा हानि वद्धि क्षयमसिद्धि वा। आरोग्यमर्थलाभं क्षते प्रदक्षिणदिक्ष ॥४४६। कि इस प्रकार के असम्बद्ध भाषण से क्या लाभ ?' सनत्कुमार द्वारा मुझसे अन्यथा (अनुचित) प्रार्थना करते हुए कुछ दिन बीत गये। मैंने उसे स्वीकार नहीं किया। आज अपने हृदय की अभिलाषा पूर्ण न होने पर उसने स्वयं ही आकर इस प्रकार अपमान किया।' तब राजा कुपित हो गया। उसने कहा—'अरे विनयन्धर ! शीघ्र ही उस दुराचारी कुलकलंकी को मार डालो।' मैंने कहा- 'जो आजा महाराज !' राजा ने कहा-'तुम उस प्रकार से मार डालना जिसमें किसी को पता न चले ।' तब मैंने सोचा-ओह ! मैं कठिन कार्य में नियुक्त किया गया हैं। रजा के निकटवर्ती होने का यह फल होता है। वे मनुष्य धन्य हैं जो कि दुर्जनों से रहित तपोवन का सेवन करते हैं। हाय ! अब मैं क्या करूं? अच्छा हो, यदि वह दीर्घायु न मारा जाय । चिन्तारूपी पिशाची ने मुझे घेर लिया है, फिर भी महाराज की आज्ञा का उल्लंघन नहीं किया जा सकता है अतः इस सम्बन्ध में प्रवृत्त हो गया। इसी बीच किसी ने द्वार पर छींका। उसे सुनकर विलम्ब करते हुए मुझसे सिद्धादेश के अनुसार ज्योतिषी ने कहा'भद्र विनयन्धर ! विलम्ब मत करो, यह सातवीं छींक सौम्य है। बाद में आरोग्यरूप फल वाली और उत्तरवर्ती काल में अपूर्व अर्थ का लाभ कराने वाली होती है, जैसा कि ऋषियों ने कहा है दायी दिशा में छींक होने पर अयत्न का निषेध, हानि, वृद्धि, क्षय अथवा असिद्धि, आरोग्य और अर्धलाभ होता है ।।४४६॥ Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमो भयो] ३६६ तं एस इमीए विवागो । निमित्तंतरजोगओ य अवगच्छामि, निद्दोसवत्युविसओ विष्णो ते रन्ना विरुद्ध एसो, नाहिप्पेओ य भवओ । ता मा संतप्य । जहा तुमं चितेसि, तहा एसो परिणमिस्सइ । किं तु सिग्धं पयट्टे हि, अन्नहा असोहणं परिणमइ । तो मए चितियं - अणेयसंजणियपच्चओ सिद्धाएसो खु एसो, एयं च एवंविहं पओयणं, विन्नवणागोरो य कोवो देवस्स, सव्वहा विसममेयं ति चितयंतो गओ निययहं । हा को उण इहोवाओ त्ति चितयंतो गहिओ उव्वेएण । पुच्छिओ य जणणीए -- पुत्तय, किमेवमुव्विग्गो विय लक्खीबसि । तओ मए 'नत्थि जणणीओ वि अवरं वोसासथाम' ति साहियं तोए । भणियं च जाए- पुत्तय, न तए इममणुचिट्ठियव्वं, कुलोवयारिपुत्तो खु एसो पुत्तयस्सति । साहिओ कहियवृत्तंतो। ता एवं ववत्थिए कमारो पमाणं ति । for forest fariधरो । तओ मए चितियं - हो मायासीलया इत्थवग्गस्स | अहवा महिलिया नाम भुयंगमगई विय कुडिलहिल्या, विज्जू विय दिटुनटुपेम्मा, सरिया विथ उभयकुलच्छाजात्र अदुधम्मा, हिंसा विय जीवलोय रहिय त्ति । अहवा कि इमीए चिताए । तदेषोऽस्या विपाकः । निमित्तान्तरयोगतश्चावगच्छामि, निर्दोषवस्तुविषयो वितीर्णस्ते राज्ञा विरुद्धादेशः, नाभिप्रेतश्च भवतः । ततो मा सन्तप्यस्व । यथा त्वं चिन्तयसि तथैष परिणस्यति । किन्तु शीघ्र प्रवर्तस्व, अन्यथाऽशोभनं परिणमति । ततो मया चिन्तितम् - अनेक संजनितप्रत्ययः सिद्धादेशः खल्वेषः, एतच्च एवंविधं प्रयोजनम् विज्ञापनागोवरश्च कोपो देवस्य सर्वथा विषममेतदिति चिन्तयन् गतो निजकगे हम। हा कः पुनरिहोपाय इति चिन्तयन् गृहीत उद्वेगेन । पृष्टश्च जनन्या -- पुत्र ! किमेवमुद्विग्न इव लक्ष्यसे ? ततो मया 'नास्ति जननीतोऽप्यपरं विश्वासस्थानम्' इति कथितं तस्यै । भणितं चानया-पुत्र ! न त्वयेदमनुष्ठातव्यम्, कुलोपकारिपुत्रः खल्वेष पुत्रस्येति कथितः कथितवृत्तान्तः । तत एवं व्यवस्थिते कुमारः प्रमाणमिति । स्थितस्तष्णिको वितयन्वरः । ततो मया चिन्नितम् - अहो मायाशीलता स्त्रीवर्गस्थ | अथवा महिलिका नाम भुजङ्गगतिरित कुटिल हृदया विद्युदिव दृष्टनष्टप्रेमा, सरिदिव उभयकुलोच्छादनी ससंगप्रव्रज्येव अस्पृष्टधर्मा, हिंमेव जीवलोकगर्हितेति । अथवा किमनया चिन्तया । अविवेकबहुला तो यह इसका फल है। किसी दूसरे के निमित्त से ज्ञात हुआ है कि निर्दोष वस्तु के विषय में राजा ने तुम्हारे विरुद्ध आदेश दिया, वह तुम्हारे लिए इष्ट नहीं है । अतः दुःखी मत होओ। जिस प्रकार तुम सोच रहे हो, उसी प्रकार इसकी परिणति होगी। किन्तु शीघ्र ही प्रवृत्त होएँ, नहीं तो विरुद्ध फल होगा ।" तब मैंने सोचा'यह सिद्धादेश अनेक विश्वापों को उत्पन्न करने वाला है और यह इस प्रकार का प्रयोजन है, मालूम पड़ने पर महाराज क्रुद्ध होंगे । यह सर्वथा विषम ( समस्या ) है - ऐसा विचार करते हुए मैं अपने घर चला गया। हाय ! इसका क्या उपाय है ? ऐसा सोचते हुए दुःखी होने लगा। माता ने पूछा - 'पुत्र ! क्यों इस प्रकार दु:खी जैसे मालूम पड़ रहे हो। तब मैंने माता के अतिरिक्त कोई दूसरा विश्वास का स्थान नहीं है - ऐसा सोचकर उससे ( माता से) कह दिया। उसने कहा, 'पुत्र ! तुम इस कार्य को मत करो, कुलोपकारी पुत्र का यह पुत्र है, इस प्रकार कहकर उसने वृत्तान्त कहा। ऐसी स्थिति में कुमार प्रमाण हैं अर्थात् इस विषय में क्या करना चाहिए, यह आप बतलाइए । विनयन्धर चुप हो गया । तत्र मैंने सोचा - 'ओह, स्त्री वर्ग की मायाशीलता ! अथवा स्त्री सांप की चाल के समान कुटिल हृदय वाली होती है, विद्युत् के समान देखते-देखते ही नष्टप्रेम वाली होती है, नदी के समान दोनों तटों (दोनों कुलों) को नष्ट करनेवाली होती है, आसक्तियुक्त दीक्षा के समान धर्म का स्पर्श न करने वाली होती १. कुलघायणी - क। Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [समराइचकहा अविवेयबहुला विसयविसलालसा ईइसी चेव महिलिया होइ । अह कहं पुण महाराएण तीए बयणओ एयमेवं चेव पडिवन्नं ति । अहवा ईदिसी मे अवस्था, जेण संभवइ एयं पि । अविमिस्सगारीणि किल जोव्वणाणि हवंति । इट्ठा य सामहारायस्स । ता किमेत्थ जुत्तं ति। कि साहेमि जहटियं महारायस्स । अहवा वावाइज्जइ सा तवस्सिणी अवस्सं महाराएण। न कयं च से' समीहियं । ता कहमन्नं पि अणत्थं से संपाडेमि । असाहिज्जमाणे य मइलणा मे कुलहरस्स । तहावि वरं मइलणा, न उण परपीड ति। चितयंतो भणिओ विणयंधरेण । ता आइसउ कुमारो, कि मए एत्थ कायव्यं ति । मए भणियंभद्द, आएसयारी तुमं, ता संपाडेहि रायसासणं; किं वा मए दुरायारेण कुलफंसणेण जीवमाणेणं ति । अद्धभणिए छिक्किय सिरिहराभिहाणेण रायमग्गचारिणा नरेणं ति। नियकहापडिबद्धं च रायमग्गगामिएहि महया सद्देणं जंपियं बंभणेहिं 'भो कि बहुणा, न एस दोसयारी, एत्थ अम्हे कोसविसएहि पच्चाएमो'। एयमायण्णिऊण भणियं विणयंधरेण-कुमार, न तुमं दुरायारो, जओ जंपियं सिद्धाएसेण 'निदोसवत्थुविसओ विइण्णो ते रन्ना विरुद्धाएसो' ति। अवितहाएसो य सो भयवं, न सहिओ य विषयबिषलालसा ईदृश्येव महिलिका भवति । अथ कथं पुनर्महाराजेन तस्या वचनत एतदेवमेव प्रतिपन्नमिति ? अथवा ईदृशी मेऽवस्था, येन सम्भवत्येतदपि । अविमृश्यकारीणि किल यौवनानि भवन्ति । इष्टा च सा महाराजस्य। ततः किमत्र युक्तमिति । किं कथयामि यथास्थितं महाराजाय । अथवा व्यापाद्यते सा तपस्विनी अवश्यं महाराजेन । न कृतं च तस्याः समीहितम् । ततः कथमन्यमप्यनयं तस्य सम्पादयामि । अकथ्यमाने च मलिनता मे कुलगृहस्य । तथापि वरं मलिनता, न पुनः परपीडेति चिन्तयन् भणितो विनयन्धरेण । तत आदिशतु कुमार:, किं मया कर्तव्यमिति ? मया भणितम्-भद्र! आदेशकारी त्वम्, ततः सम्पादय राजशासनम्, किं वा मया दुराचारेण कुलपासनेन जीवतेति अभर्धणिते क्षतं श्रीधराभिधानेन राजमार्गचारिणा नरेणेति । निजकथाप्रतिबद्धं च राजमार्गगामिकर्महता शब्देन जल्पितं ब्राह्मणैः-'भो!किं बहुना, न एष दोषकारी, अत्र वयं कोशविषयः प्रत्याययामः । एतदाकर्ण्य भणितं विनयन्धरेण-कुमार ! न त्वं दुराचारः, यतो जल्पितं सिद्धादेशेन 'निर्दोषवस्तुविषयो विस्तीर्णस्ते राज्ञा विरुद्धादेशः' इति । अवितथादेशश्च स भगवान्, न सोढश्च है, हिंसा के समान संसार में निन्दित होती है। अथवा इस प्रकार के विचार से क्या लाभ ? विषय रूपी विष की लालसावाली (और) अविवेक की जिसमें बहुलता रहती है, ऐसी होती है स्त्री। अथवा कैसे महाराज ने उसके कहने मात्र से ही यह निश्चय कर लिया ? अथवा मेरी ऐसी अवस्था है, जिससे यह भी सम्भव है । यौवन के रूप बिना विचारे कार्य करने वाले होते हैं । और फिर वह (रानी) महाराज के लिए इष्ट है । अतः यहां पर क्या उचित है ? महाराज को क्या सही-सही बात बतलाऊँ ? अथवा उस बेचारी को महाराज मार डालेंगे और मैंने उसका (रानी का) इष्टकार्य भी नहीं किया तो फिर कैसे उसका और एक अनर्थ करूँ ? न कहे जाने पर मेरा कुलगृह (पितृगृह) मलिन हो जायगा । तथापि (कुल की) मलिनता श्रेष्ठ है, किन्तु दूसरे को पीड़ा देना श्रेष्ठ नहीं है-जब मैं ऐसा सोच रहा था तभी विनयन्धर ने कहा-'तो कुमार !आदेश दीजिए, मैं क्या करूं?' मैंने कहा'भद्र ! तुम तो आज्ञा मानने वाले हो, अतः राजाज्ञा का पालन करो । मुझ दुराचारी और कुलकलंकी के लिए जीने से क्या अर्थात् मेरा जीना व्यर्थ है, ऐसा आधा कहने पर श्रीधर नाम के मनुष्य ने, जो कि राजमार्ग पर चला जा रहा था, छींक दिया। मेरी कथा से जो परिचित थे, ऐसे मार्ग पर जाने वाले ब्राह्मणों ने जोर की आवाज में कहा-'बरे ! अधिक कहने से क्या? यह दोषी नहीं है। इस विषय में हम कोशविषय (सत्य का पता लगाने के लिए तपाये हुए लोहा आदि का प्रमुख दिव्यविशेष) से विश्वास करेंगे। यह सुनकर विनयन्धर ने कहा---'कुमार ! १. मे-ग, २. कोससवहेहि-ख 3. कोशः सत्यंकारार्थ तप्तलोहा दिस्पर्शप्रमुख दिव्यविशेषः । Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमी भयो ३७१ भवओ दुरायाराइसद्दो अवितहसूयगेहि छिक्कादिनिमित्तेहिं । ता कि एइणा पलावप्पाएण । साहेहि, कहं पुण इमं ववत्थियं; जेण विन्नवेमि महारायस्स । मए भणियं-भद्द, किमहं साहेमि; अंबा एत्थ पमाणं । तेण भणियं-कमार, न तुज्झ एत्थ दोसो, दुट्टा य सा पाव ति सामन्नओ निच्छियमिणं, विसेसं नावगच्छामि । ता कि ममेइणा। एवं चेव एयं विन्नवेमि महारायस्स; तओ सो चेव एत्थ अंतं लहिस्सइ त्ति । भणिऊण उठ्ठिओ विणयंधरो, धरिओ मए भयावंडे, भणिओ य-भद्द, अलं अंबाए उवरि संरंभेण । चंचलं जीवियं । न खल एयं बहु मन्निऊण गुरुयणसंकिलेसकरण जुज्जइ। विणयंधरेण भणियं-कमार, पुत्तो तुमं महारायजसवम्मणो, किमेत्थ अवरं भणीयइ । अओ चेव मे तीए पावाए उवरि कोवो । ता करेहि पसायं; मुंच मं, जेण विन्नवेमि एयं वइयरं देवस्स । मए भणियं- अलमिमिणा निब्बंधेण । तेण भणियं-कुमार, अवस्समिणं मए देवस्स विन्नवियव्यं ति। मए भणियं-भद्द, जइ एवं, ता अवस्सं मए वि अप्पा वावाइयव्यो ति। एयमायण्णिऊण' बाहुल्लोयणो विसण्णो विणयंधरो। भणियं च णेण-अहो देवस्स असमिक्खियकारिया, जं ईइसं पुरिसरयणमेवं भवतो दुराचारादिशब्दोऽवितथसूचकैः क्षुतादिनिमित्तः । ततः किमेतेन प्रलापप्रायेण । कथय कथं पुनरिदं व्यवस्थितम, येन विज्ञपयामि महाराजाय । मया भणितम्-भद्र ! किमहं कथयामि, अम्बाऽत्र प्रमाणम् । तेन भणितम्--कुमार!न तवात्र दोषः, दुष्टा च सा पापेति सामान्यतो निश्चितमिदम विशेषं नावगच्छामि । ततः किं ममैतेन । एवमेवैतद् विज्ञपयामि महाराजाय, ततः स एवात्र अन्तं लप्स्यते इति भणित्वोत्थितो विनयन्धरः, धृतो मया भुजादण्डे भणितश्च–भद्र ! अलमम्बाया उपरि संरम्भेण, चञ्चलं जीवितम्, न खल्वेतद् बहु मत्वा गुरुजनसंक्लेशकरणं युज्यते । विनयन्धरण भणितम्-कुमार ! पुत्रस्त्वं महाराजयशोवर्मणः, किमत्र अपरं भण्यते। अत एव मे तस्या पापाया उपरि कोपः। ततः कुरु प्रसादम, मुञ्च माम, येन विज्ञपयाम्येतं व्यतिकरं देवस्य । मया भणितमअलमनेन निर्बन्धेन। तेन भणितम्-कुमार ! अवश्यमिदं मया देवस्य विज्ञपितव्यमिति । मया भणितम्-भद्र ! यद्यवं ततोऽवश्यं मयाऽप्यात्मा व्यापादयितव्य इति । एतदाकर्ण्य वाष्पार्द्रलोचनो विषण्णो विनयन्धरः। भणितं च तेन-अहो देवस्यासमोक्षितकारिता, यदीदशं परुषरत्नमेवं तुम दुराचारी नहीं हो, क्योंकि सिद्धादेश ने कहा है कि निर्दोषवस्तु के विषय में राजा ने विरुद्ध आदेश दे दिया है । वह भगवान् सही आदेश देने वाले हैं, आपके दुराचारी आदि शब्दों को सही बात की सूचना देने वाले छींक आदि निमित्तों ने सहन नहीं किया है। अतः इस प्रकार की बातों से क्या लाभ है ? कहो, यह कैसे हमा, जिससे महाराज से निवेदन करूं।' मैंने कहा-'भद्र! मैं क्या कहूँ. इस विषय में माता जी प्रमाण हैं।' उसने कहा-'कुमार ! इस विषय में तुम्हारा दोष नहीं है। वह दुष्टा और पापिन है। सामान्य रूप से यह निश्चित है. नहीं जानता हूँ। अतः मुझे इससे क्या । यह इस प्रकार है-ऐसा महाराज से कहँगा, तब वही इस विषय में निर्णय करेंगे'-ऐसा कहकर विनयन्धर उठ खड़ा हुआ। मैंने उसे बांह में लिया और कहा'भद्र ! माता पर क्रोध मत करो। जीवन चंचल है, इस घटना को बड़ा मानकर गुरुजनों को क्लेश देना उचित नहीं है ।' बिनयन्धर ने कहा-'कुमार ! तुम महाराज यशोवर्मा के पुत्र हो, और अधिक क्या कहा जाय ! इसी लिए उस पापिनी पर मेरा बहुत अधिक क्रोध है। अतः अनुग्रह करो, मुझे छोड़ो, जिससे महाराज से इस घटना का निवेदन करूं।' मैंने कहा-'यह आग्रह मत करो।' विनयन्धर ने कहा- 'कुमार! अवश्य ही में महाराज से निवेदन करूंगा।' मैंने कहा-'भद्र ! यदि ऐसा है तो मुझे भी अपने आपको अवश्य ही मार डालना चाहिए।' यह सुनकर आंसुओं से गीले नेत्र वाला विनयन्धर खिन्न हो गया और उसने कहा-'ओह ! महाराज का बिना १. "मायण्णिय। Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२ [ समरोइन्चकहा संभावीयइ। धिरत्यु एयस्स देवसद्दो। मए भणियं-भद्द, मा तायं अहि क्खिवाहि'; को एत्थ दोसो तायस्स, मम रेव पव्वकम्मपरिणई एस ति । तओ महासोयाभिभूएण भणियं विणयंधरेण-कमार, जइ एवं, ता आइसउ कुमारो, कि मए पावकम्मेण कायव्वं ति । मए भणियं-भद्द, आएसयारी तमं. पाधकम्मो अहं; ता सपाडेहि रायसासणं । किं मए दुट सीलेण जीवंतएण। तेण भणियं-मा एवमाइसउ कमारो, कि इमिणा असंबद्धपलावेण वयणविण्णासेण, जहाइ दुसोलो पावकम्मो: धन्नो तमं. भायणं सयलकल्लाणाणं आलओ सयलगुणरयणाणं, कप्पतरुभूओ सयलसत्ताणं । कि बहणा, निव्वइदाणकप्पो तेलोक्कस्स वि । ता जइ न चिन्नवेयव्वमेयं देवस्स, रक्खियव्वा सा रायपत्ती. ता चितेहि एत्थुवायं, जहा भवओ पाणधारणागंदियमणो देवस्स अणवराही हवामि ति। तओ मए चितियं-न वावाएइ एसो; अवावाएंतो य एवमवराहियं न पावेइ, जइ अलक्खिओ परिचणणं वसुभूइ बिइओ विप्पगिट्ठदेसंतरमुवगच्छामि ति। चितिऊण इमं चेव भणिओ विण पंधरो। भणियं च तेण-कुमार, को अन्नो उवायन्नु त्ति, ता अणुचिट्ठउ इणमेव कुमारो। अन्नं च -- पयट्ट चेव सम्भाव्यते । धिगस्तु एतस्य देवशब्दः । मया अणितम् -भद्र ! मा तातमधिक्षिप, कोऽत्र दोषस्तातस्य, ममैव पूर्वकर्मपरिणतिरेषेति। ततो महा शोकाभिभूतेन भणितं विनयन्वरेण-कमार ! यद्येवं तत आदिशतु कुमारः, कि मयः पापकर्मणा कर्तव्यमिति । मया भणितम्-भद्र । आदेशकारी त्वम, पापकर्माऽहम् ततः सम्पादय राजशासनम्। किं मया दृष्ट शीलेन जीवना । तेन भणितम् - मैवमादिशतु कुमारः, किमनेनासम्बद्धप्रलापेन वचनविन्यासेन, यथाऽहं दुष्टशीलः पापकमा, धन्यस्त्वम्, भाजनं सकलकल्याणानाम, आलय: सकलगुण रत्नानाम्, कल्पतरुभूतः सकलसत्त्वानाम्, कि बहुना, निर्वृतिदानकल्पस्त्रैलोक्यस्यापि । ततो यदि न विज्ञपयितव्यमेतत् देवस्य, रक्षितव्या सा राजदुष्टपत्नी, ततश्चिन्तयात्रोपायम, यथा भवत: प्राणधारणानन्दितमना देवस्यानपराधी भवामीति । ततो मया चिंतितम् न व्यापादयत्येषः, अव्यापादयंश्च एवमपराधितां न प्राप्नोति यदि अलक्षितः परिजनेन वसुभूतिद्वितीयो विप्रकृष्टदेशान्तरमुपगच्छामीति । चिन्तयित्वा इदमेव भणितो विनयन्धरः । भणितं च तेन-कुमार ! कोऽन्य उपायज्ञ इति, ततोऽनुतिष्ठत्विदमेव कुमारः। अन्यच्च-प्रवृत्तमेव वहनं सुवर्णभूमिम्, अद्यैव रजन्यां मोक्ष्यते विचारे कार्य करना, जो कि ऐसे पुरुषरत्नों के विषय में ऐसा होता है । उनके इस महाराज शब्द को धिक्कार है हैं मैंने कहा---'पिताजी को गाली मत दो, यहाँ पर पिताजी का क्या दोष है ? यह मेरे ही पूर्वकर्मों का फल है।' तब महान् शोक से अभिभूत होकर विनयन्धर ने कहा-'यदि ऐसा है. तो कुमार आदेश दें, मुझ पापी को क्या करना चाहिए ?' मैंने कहा-'भद्र! आप आज्ञा पालन करने वाले हैं, मैं पाप कर्म करने वाला हूँ, अत: राजा की आज्ञा का पालन करो। मुझ दुष्टशील के जीने से क्या लाभ ?' उसने कहा--कुमार ! ऐसा आदेश न दें। 'मैं दुष्टशील वाला और पापकर्म करने वाला हूँ। इस प्रकार की अटपटी बात के कहने से क्या लाभ है ? समस्त कल्याण के पात्र, समस्त गुणरूपी रत्नों के निवास, समस्त प्राणियों के लिए कल्पवृक्ष आप धन्य हैं । अधिक कहने से क्या' आप तीनों लोकों को दान करके भी सुख को प्राप्त करने वाले हैं। अतः इसे महाराज से निवेदन नहीं करना है और उस दुष्टा राजपत्नी की रक्षा करनी है, तो इस विषय में उपाय सोचो जिससे आपके प्राणधारण से अनिन्दित मन वाला होकर महाराज का अपराधो न होऊँ !' तब मैंने सोचा-यह मारता नहीं है तथा यदि परिजनों की जानकारी के बिना वसुभूति के साथ दूसरे देश को जाता हूँ तो न मारने पर भी यह अपराधी नहीं रहेगा-सोचकर मैंने विनयन्धर से यही कहा। वह बोला--'कुमार ! और कौन है जो उपाय को जानने वाला है ? अतः कुमार ऐसा ही करें। दूसरी बात यह है कि जहाज स्वर्णभूमि को जा ही रहा है, आज ही रात में छूटेगा । उसी १. अहिौक्खव-ख२,.."घणकपप्पो-ख। Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमो भवो] ३७३ वहणं' सुवण्णभूमि, अज्जेव रयणीए मुच्चिस्सइ त्ति । तेणेव सुवण्णभूमिगमणेण अणुग्गहेउ म मारो। मए भणियं-जं वो रोयइ त्ति। एत्यंतरम्मि समागओ संझासमओ। निगओ अहं सुभुइविणयंधरसमेओ तामलित्तीओ, गओ वेलाउलं । समप्पिया अम्हे विणयंधरेण सबहु णं वहण गमिणो समुद्ददत्तस्स, पडिच्छिया तेणअइकता थेववेला । समग्गओ कामिणोगंडडुरो चंदो. सनागया संखुद्ध जलयरनिनायगाभणा समुद्दवेला । समारूढो य अहयं वसुभूइदुईओ जाणवत्तं । चणेसु निवडिऊण 'कुमार, न मे कप्पियव्यं' ति भणिऊण बाहोल्ललोयणो नियत्तो विणयंध रो। कयाः मंगलाइं, उवउत्तो कण्णहारो, आपूरियं जाणवत्तं, पयट्ट पवणवेगेण । एत्यंतरम्मि वसुभूइणा भणियं मो वयंस, किमेयं ति । तओ मए साहिओ अणंगवइवुत्तंतो। तेण भणियं-अह किं पुण जहट्ठियं चे वन निवेइयं महारायस्स-मए भणियं । वयंस, अणंगवइपीडाभएणं ति। पत्ता अम्हे दुमासमेतण कालेण सुवणमि, ओइ । पधहणाओ । गया सिरिउरं नाम नयरं। दिट्ठो य तत्य सेयवियावत्थवओ समिद्धिदत्तसेहियुत्तो वाणि समागओ मणोरहदत्तो नाम बालवयंसओ इति । तेनव सुवर्णभूमि गमनेनानुगृह्णातु मां मारः। । या णितम्--यद् वो रोचते इति । अत्रान्तरे समागत: सन्ध्यासमयः । निर्गतोऽहं वर भूतिविनयन्धरसमेतः ताम्रलिप्तोतः, गतो वेलाकुलम् । समपितावावां विनयन्वरेण स बहुमानं वनस्वामिनः समुद्रदत्तस्य । प्रतीष्टौ तेन । अतिक्रान्ता स्तोकवेला । समुदगत: कामिनीगाउपाण्डुरश्च द्रः, समागता संक्षुब्धजलचरनिनादगभिता समुद्रवेला । समारूढश्चाहं वसुभूतिद्वितीयो यानपात्रम् । परणयोर्निपत्य 'कुमार ! न मे कुपितव्यम्' इति भणित्वा वाष्पार्द्रलोचनो निवृत्तो विनयन्वरः । कृत नि मङ्गल , उपयुक्तः कर्णधारः, आपूरितं यानपात्रम्, प्रवृत्तं पवनवेगेन। अत्रान्तरे वसुभूतिना भणितम्-भो वयस्य ! किमेतदिति । ततो मया कथितोऽनङ्गवतीवृत्तान्तः । तेन भणितम् -- 3थ किं पुनर्यथास्थितमेव न निवेदितं महाराजाय । मया भणितम्-वयस्य ! अनङ्गवतीपीडाभयेनेलि। प्राप्तावावां द्विमासमात्रेण कालेन सुवर्णभूमिम् । अवतीणौ प्रवहणात् । गतौ श्रीपुरं नाम नगरम् । दृष्टश्च तत्र श्वेतविकावास्तव्यः समृद्धिदत्तष्ठिपुत्रो वाणिज्यसमागतो मनोरथदत्तो से स्वर्णभूमि जाकर कुमार (मुझे) अनुगृहीत करें।' मैंने कहा -- 'जसा आपको अच्छा लगे ।' इसी बीच सन्ध्या का समय हो गया । मैं वसुभूति और वित्यन्धर के साथ ताम्रलिप्ती से निकला, समुद्र के तट पर गया। विनयधर ने हम दोनों को जहाज के स्वामी समुद्रदत्त को सौंपा । उसने स्वीकार कर लिया। कुछ समय बीता । कामिनी के गहनों के समान पीलापन लिये हुए सफेद रंग का चन्द्रमा उदित हुआ, जलचरों के शब्द से भरा हुआ क्षोभित समुद्र का तट आया। मैं वसुभूति के साथ जहाज पर सवार हो गया। विनयन्धर दोनों चरणों में पड़कर, 'कुमार ! कुपित न हों,' कहकर आंसुओं से आर्द्र लोचनवाला होकर लौट गया। मंगल कार्य किये । कर्णधार लग गये, जहाज को भरा,(जहाज्ञ) वायुवेग से चल पड़ा । इसी बीच वसुभूति ने कहा-'मित्र, यह क्या है !' तब मैंने अनंगवती का वृत्तान्त कहा । उसने कहा --- 'महाराज से ठीक-ठीक बात क्यों नहीं कह दी।' मैंने कहा-'मित्र ! अनंगवती की पीड़ा के भय से।' हम दोंनों दो माह में स्वर्णभूमि पहुँच गये। जहाज से दोनों उतरे। दोनों 'श्रीपुर' नामक नगर गये। वहाँ पर श्वेतम्विका के निवार सेठ के पुत्र मनोरथदत्त को देखा, जो कि मेरा बाल्यकालीन मित्र १. पवहर्ण-क, २. विणिय त्तो-ख, ३. कण्णधारो-ख । Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ । समगाज्यहाँ ति, तेण वि य अम्हे । तो असंभावणीयागमणसंकेण' निरूविया कंचि कालं, विहसियंच अम्हेहिं । तो पञ्चभिन्नाया अम्हे । पणमिऊण हरिसविसायगन्भिणं जपियं तेण-कुमार, अवि कुसलं महारायस्स। मए भणियं-'कुसलं'। नीया तेण सगिहं। कओणे विभवपोइसरिसो उवयारो। भुत्तुरकालम्मि पुच्छिओ आगमणपओयणं । तायनिव्वेएण विणिग्गओ, सोहलेसरनियमाउलसमीवं गमिस्सामि' ति साहिऊण सबहमाणं भणिओ य एसो-'सीहल दीवगामिवहणोवलंभे अवहिएण' होयव्वं ति । मणोरहदत्तण भणियं - कुमारो आणवेइ । अइक्कंतो कोइ कालो। पीइलंधियो विओयभीरत्तणेण न साहेइ णे उवलद्धं पि सोहलदीवगामियं वहणं । अन्नया य मुणिउण अम्हाणमूसूयत्तणं भणियमणेण-कुमार, किमवस्समासन्नमेव गंतव्वं कुमारेण । मए भणियं-वयंस, पओयणं मे अस्थि ति । तेण भणियं-जइ एवं, ता खमियन्वं कुमारेण, जं मए विओयभीरुतणेण एद्दहमेत्तं कालं कओ पओयणविधाओ ति; जओ पाएणमिओ पइदिणमेव वहणाइं सीहलदीवं गच्छति। मए भणियं-वयंस, जइ एवं, ता अज्जेव गच्छम्ह । तेण भणियं-'अविग्धं कुमारस्स' । उवलद्धं जाणवत्तं, पसाहियं करणिज्ज । उवणीओ य मे नाम बालवयस्य इति, तेनापि चावाम् । ततोऽसम्भावनीयागमनशङ्कन निरूपितौ कञ्चित्कालम्, विहसितं चावाभ्याम् । ततः प्रत्यभिज्ञातावावाम् । प्रणम्य हर्षविषादगभितं जल्पितं तेन–कुमार ! अपि कशलं महाराजस्य । मया--भणितं--कूशलम। नीतौ तेन स्वगहम। कतो नौ विभवप्रीतिसदश उपचारः । भक्तोत्तरकाले पूष्ट आगमनप्रयोजनम्। 'तातनिर्वेदेन विनिर्गतः, सिंहलेश्वरा निजमातुलसमोपं गमिष्यामि' इति कथयित्वा सबहुमानं भणितश्चैषः । 'सिंहलद्वीपगामिवहनोपलम्भेऽवहितेन भवितव्यम्' इति । मनोरथदत्तेन भणितम्-यत्कुमार आज्ञापयति । अतिक्रान्तः कोऽपि कालः । प्रोतिलङ्घितो वियोगभोरुत्वेन न कथयति नौ उपलब्धमपि सिंहलद्वीपगामिकं वहनम् । अन्यदा च ज्ञात्वाऽऽवयोरुत्सुकत्वं भणितमनेन-कुमार ! किमवश्यमासन्नमेव गन्तव्यं कुमारेण । मया भणितम्-वयस्य ! प्रयोजनं मेऽस्तीति । तेन भणितम्-यद्येवं ततः क्षन्तव्यं कुमारेण, यन्मया वियोगभीरुत्वेन एतावन्मात्र कालं कृतः प्रयोजनविघात इति, यतः प्रायेण इतः प्रतिदिवसमेव वहनानि सिंहलद्वीपं गच्छन्ति । मया भणितम्-वयस्य ! यद्येवं ततोऽद्यैव गच्छावः । तेन भणितम्'अविघ्नं कुमारस्य'। उपलब्धं यानपात्रम्, प्रसाधितं करणीयम् । उपनोतश्च मह्य स्फुरद्भासुथा और (यहाँ) वाणिज्य के लिए आया था। उसने भी हम दोनों को देखा । तब आने की शंका की सम्भावना न होने के कारण हम दोनों ने कुछ समय तक एक-दूसरे को देखा और फिर हंस पड़े । अनन्तर हम दोनों ने पहिचान की । प्रणाम कर हर्ष और विषाद से भरे हुए उसने कहा --'कुमार ! महाराज कुशल हैं ?' मैंने कहा--'कुशल हैं।' वह हमदोनों को अपने घर ले गया। हम दोनों की वैभव और प्रीति के अनुरूप सेवा की। भोजन करने के बाद(उसने) आने का प्रयोजन पूछा । पिता जी से विरक्त होकर निकला हुआ मैं सिंहलाधिपति अपने मामा के पास जाऊँगा- ऐसा कहकर इससे आदरपूर्वक बोला---सिंहलद्वीप को जाने वाले जहाज (वहन) की प्राप्ति होने पर सावधान हो जाना अर्थात् मुझको सूचना देना।' मनोरथदत्त ने कहा-'कुमार की जैसी आज्ञा ।' कुछ समय बीत गया। प्रीति से लंधित हुए उसने वियोग के भय से सिंघल द्वीप को जानेवाले जहाज के प्राप्त होने पर भी हम दोनों से नहीं कहा । एक बार हम दोनों की उत्सुकता जानकर इसने कहा-~~-'कुमार ! क्या आप अवश्य ही जल्दी जाना चाहते हैं ?' मैंने कहा---'मेरा यही प्रयोजन है ।' उसने कहा---'यदि ऐसा है तो कुमार क्षमा करें, जो कि मैंने वियोग के भय से इतने समय तक प्रयोजन में अड़चन डाली, क्योंकि प्राय: यहाँ से प्रतिदिन ही जहाज सिंहल द्वीप को जाते हैं।' मैंने कहा-'मित्र! यदि ऐसा है तो हम लोग आज ही जायेंगे। उसने कहा-'कूमार निविघ्न हों। जहाज प्राप्त हो गया, कृत्य कार्यों से निपट लें।' मनोरथदत्त मेरे लिए, जिसकी कान्ति देदीप्यमान १. गमणसंकिएण-ख। Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७१ पंचमो भवो फुरंत भासुरच्छाओ महापमाणो अच्वंतसहिणरूवो पडओ । भणियं च तेण - कुमार, सकोउयं ति करिऊण गेण्हाहि एयं नयणमोहणाभिहाण पडरयण ति । मए भणियं - 'कीइस कोउगं' ति । तेण भणियं - इमेण पच्छाइयसरीरो न दीसइ नयगेहि पुरिसोति । मए वि (जि) न्नासियं जाव तहेव ति । समुपपन्नं च मे कोउयं । भणिओ मणोरहदत्तो—वयंस, कहं पुण तए एस पाविओ त्ति । तेण भणियं - सुन' sara समुन्ना मे पोई आनंदउरनिवासिणा सिद्धविज्जापओएण सिद्धसेणाभिहाणेणं सिद्धउत्तेण । भणिओ य सो मए - वयंस, को उन इह विज्जासाहणम्मि परमत्यो, कि हवइ सच्चमेवेह व्विसंवाओ न वत्ति । तेण भणियं - जहत्तयारिणो हवइ ति । मए भणियं वयंस, महंत मे कोउय; ता दंसेहि मे दिव्वविल सियं ति । तेण भणियं थेवमियं, कि तु कायव्यं मंडलं । मए भणियं - 'करेउ वयंसो' । तेण भणियं - जइ एवं ता संजत्तीको ह सिद्धत्थमाइयं मंडलोवगरणं । संपाइयं मए । तओ अत्थमिए दिrयरे वियंभिए अंधयारे रडंतेमु निसायरेसु घेत्तूण मंडलोवगरणं विणिगया अम्हे दुवे वि रच्छायो महाप्रमाणोऽत्यन्तश्लक्ष्णरूपः पटः । भणितं च तेन कुमार ! सकौतुकमिति कृत्वा गृहाणंतद् नयनमोहनाभिधानं पटरत्नमिति । मया भणितं - कोदृशं कौतुकमिति ? तेन भणितम् - अनेन प्रच्छादितशरीरो न दृश्यते नयनाभ्यां पुरुष इति । मया विन्यासितं ( जिज्ञासितं ) यावत्तथैवेति । समुत्पन्नं च मे कौतुकम् । भणितो मनोरथदत्तः - - वयस्य ! कथं पुनस्त्वया एष प्राप्त इति ? न भणितम् — शृणु, इहैवागतस्य समुत्पन्ना मे प्रीतिरानन्दपुरवासिना सिद्धविद्याप्रयोगेण सिद्धसेनाभिधानेन सिद्धपुत्रेण । भणितश्च स मया - वयस्य ! कः पुनरिह विद्या साधने परमार्थः, किं भवति सत्यमेवेह दिव्यसंवादो नवेति । तेन भणितम् - यथोक्तकारिणो भवतीति । मया भणितम् - वयस्य ! महद् कौतुकम् ततो दर्शय मे दिव्यविलसितमिति । तेन भणितम् - स्तोकमिदम्, किन्तु कर्तव्यं मण्डलम् । भणितम् --' करोतु वयस्य:' । तेन भणितम्य - द्येवं ततः संयात्रीकुरु सिद्धार्थादिकं (सर्षपादि) मण्डलोपकरणम् । सम्पादितं मया - ततोऽस्तमिते दिनकरे विजृम्भितेऽन्धकारे रटत्सु निशाचरेषु ( घूकादिषु) गृहोत्वा मण्डलोपकरणं विनिर्गतावावां द्वावपि नगरादिति । प्राप्तौ च हो रही थी ऐसा बहुत बड़ा अत्यन्त चिकना वस्त्र लाया । उसने कहा - ' कुमार ! (यह ) कौतूहल से युक्त हैऐसा मानकर 'नयनमोहन' (नेत्रों को मोहित करने वाले ) नामवाले वस्त्र रत्न को लीजिए।' मैंने कहा - 'कैसा कौतूहल है ?' उसने कहा - 'इससे ढके हुए शरीरवाला पुरुष नेत्रों से दिखाई नहीं देता है।' मैंने जिज्ञासा की, वह वैसा ही था। मुझे कुतूहल उत्पन्न हुआ । मैंने मनोरथदत्त से कहा - 'मित्र ! तुमने इसे कैसे प्राप्त किया ?' उसने कहा - 'सुनो !' यहाँ आने पर सिद्धविद्या का प्रयोग करने वाले आनन्दपुर के निवासी सिद्ध-पुत्र सिद्धसेन से मेरी प्रीति हो गयी। मैंने उससे कहा - 'मित्र ! विद्या के साधन में वास्तविकता क्या होती है ? दिव्य संवाद सही होता है या नहीं ?' उसने कहा - 'सही होता है।' मैंने कहा - 'मित्र ! मुझे बहुत कोतुहल है अतः दिव्य चेष्टाओं को दिखाओ ।' उसने कहा- 'यह तो आसान बात है । किन्तु मण्डल बनाना पड़ेगा।' मैंने कहा - 'मित्र बनाइए ।' उसने कहा'यदि ऐसा है तो सिद्धार्थादि ( सरसों आदि) मण्डल के उपकरण लाओ। मैं उपकरण ले आया । जब सूर्य अस्तंगत हो गया, अन्धकार बढ़ गया, निशाचर ( घूकादि ) शब्द करने लगे तब मण्डलोपकरण लेकर हम लोग नगर से Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ समराइचकहा नयराओ त्ति । पत्ता य पेयवणं'। आलि हयमणेण तत्थेगदेसम्मि मंडलं, समप्पियं च मे मंडलग्गं, जालिओ जलणो। भणियं च तेण-वयंस, अप्पमत्तेण होयव्वं ति। पडिस्सुयं मए। पारद्धो तेण मंतजावो । तओ थेव वेलाए चेव दिवा मर--- गरुयनियंबवहणायासझीणमझा अहिणवुग्भिन्नकढिणथणविरायंतवच्छत्थलासं पुण्णमयलंछणमुह वियसियकं दोट्टनयणसोहा सुरतरुकुसुममालाविहूसियं धम्मेल्लमुबहती परिणयमहुयकुसुमवण्णा पव धुयवसणपषडं ऊरुजुयलं ठएंती गयणयलाओ समोवयमाणा जक्खकन्नय ति । तओ मए चितियं-- अहो महाहा या मंतस्स । तोए पणमित्रो सिद्धसेणो, भणिओ य सबहमरणं -भयवं, किं पण मे सुमरण ओषणं ति । तेण भणियं-न किंचि अन्नं, आव य दिव्वदंस जाणराई मे पियवयसो। तओ तीए मं पुल इऊण भणि- भद्द, परितुद्वा ते अहं इमेण दिव्वदंसणाणुराएण; ताकि ते पियं करेति ।मए भणि-तुह सणाओ वि अवरं पियं ति । तीए भणियं-तहावि अमोहदंसणाओ देवयाओ; गेण्हाहि एयं यणमोहणं पडरयणं ति । तओ मए ससंभमसंभासणजणिओवरोहण पणमिऊण तीसे चलणजुयलं सबहुमाणं चेव गहियं इमं । गया जक्खकन्नया। पविट्ठा अम्हे प्रेतवनम ! आलिखितमनेन तत्रैकदेश मण्डलम् समर्पितं च मे मण्डलायम, ज्वालितो ज्वलनः । भणितं च तेन-वयस्य ! अप्रमत्तेन भवितव्यमिति । प्रतिश्रुतं मया । प्रारब्धस्तेन मन्त्रजापः । ततः स्तोकवेलायामेव दृष्टा मया गुरुनितम्बवहनायासक्षीणमध्या अभिनवोद्भिन्न कठिनस्तनविराजद्वक्षःस्थला सम्पूर्णमृगलाञ्छनमुखी विकसि (कन्दोट्टनीलोत्पलनयनशोभा सुरतरुकुसुममालाविभूषितं धम्मिलमूद्वहन्ती परिणतमधककुसूमवर्णा पवनधतवसनप्रकटमरुयूगलं स्थगयन्ती गगनतलात्समवपतन्ती यक्षकन्येति । ततो मया चिन्तितम् - अहो महाप्रभावता मन्त्रस्य। तया प्रणत: सिद्धसेनः, भणितश्च सबहुमानम्-भगवन् ! किं पुन में स्मरण प्रयोजनमिति ? तेन भणितम्-न किञ्चिदन्यत, अपि च दिव्यदर्शनानुरागी मे प्रियवयस्यः । ततस्तया मां दृष्ट्वा भणितम्--भद्र ! परितुष्टा तेऽहं दिव्यदर्शनानुरागेण, ततः किं ते प्रियं करोमीति । मया भणितम- तव दर्शनादपि अपरं प्रियमिति ? तम-तथाप्यमोघदर्शना देवना:, गहापंतद नयनमोहनं पटरत्नमिति । ततो मया रासम्भ्रमसम्भाषणजनितोपरोधेन प्रणम्य तस्याश्चरणयुगलं सबहुमानमेव गृहीतमिदम् । गता यक्षनिकले । दोनों प्रेतवन (श्मशान) में आये। एक स्थान पर उसने मण्डल (वृत्ताकार रचना) बनाया, मुझे तलवार सौंप दी (और) अग्नि जलायी। उसने कहा- 'मित्र! सावधान रहो।' मैंने स्वीकार किया। उसने मन्त्र का जाप प्रारम्भ किया । तब मैंने थोड़ी ही देर में यक्ष-कन्या देखी। वह भारी नितम्ब के भार को वहन करने के परिश्रम से पतली कमर वाली थी। नये-नये प्रकट कठिन स्तनों से उसकी छाती शोभायमान थी। सम्पूर्ण चन्द्रमा के समान उसका मुख था। खिले हुए नीलकमल के 'मान उसके नेत्रों की शोभा थी। कल्पवृक्ष के फूलों की माला से विभाषित जडे (धम्मिल्ल) को धारण किये हुए ही । पके हुए महुए के फूल के समान उसका रंग था। वायु के द्वारा वस्त्र को उड़ाने से उसकी दोनों जाँघे प्रकट है. जाने पर वह उन्हें ढक रही थी। वह आकाश से उतर रही थी। तब मैंने सोचा--ओह! मन्त्र बहुत प्रभावशाली होता है । उस यक्ष कन्या ने सिद्धसेन को प्रणाम किया और आदरपर्वक कहा-... 'भगवन् ! मुझे याद करने का क्या प्रयोजन है ?' उसने कहा-'अन्य कुछ नहीं, अपितु मेरा मित्र दिव्यदर्शन का अनुरागी है ।' तब उसने मुझे देखकर कहा---'भद्र ! दिव्यदर्शन के प्रति अनुराग होने के कारण मैं तमसे सन्तुष्ट हैं, अत: मैं तुम्हारा क्या प्रिय कर ।' मैंने कहा-'आपके दर्शन से अधिक कोई प्रिय हो सकता है ? उस यक्षकन्या ने कहा—'तो भी देवता अमोघदर्शन वाले होते हैं, इस नेत्रों को मोहने वाले वस्त्ररत्न को ग्रहण करो।' तब मैंने घबड़ाहट में बातचीत से उत्पन्न विघ्न के कारण उसके दोनों चरणों को प्रणामकर आदरपूर्वक इसे तया १. पिउवणं-क। Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमो भवो ] भावाए रयणीए नवरं । ता एवं पाविओ त्ति । मए भणि--सुंदरा संपत्ती । गहिओ पडो । तओ आउच्छिऊण मणोरहदत्तपरियणं अहिनंदिया तेण सह मणोरहदत्तेणगया वेलाउलं । दिट्ठ व सुरविमाणागारमणुगतं विचित्तत्रयमालोवसोहियं अणावतं | अब्भुट्टिया जाणवत्तसामिणा ईसरदत्तेण । कओ णेण पणामो । उवणीयाई आसनाई । समप्पिया मणोरहदत्तेण । भणियं च तेण सत्थवाहपुत्त, एए खु मम सामिणो वयसया बंधवा जीवि, न केइ ते जे न हवंति ति; ता सुंदरं दग्वा । तेण भणियं-वयंस, किमणेणं पुणरुत्तविण्णासेण; मज्झवि इमे ईइसा चैव त्ति । तओ उवारूढा जाणवस, खित्ती बली समुहस्स, ऊसिओ सियवडो, दिन्नं दिसिम्मुह निजामएण पवहणं ति । पणमिऊण अम्हे ठिओ मणोरहदत्तो । पयट्ट जाणवत्तं । गम्मए सोहलदीवाहिमुहं ति । एवं गच्छ माणा तेरसमे दियहे' उन्नओ अम्हाणमुवरि कालो व कालमेहो, जीवियासा विय फुरिया विज्जुलेहा, उम्मूलियगिरिकाणणो य आगंपर्यंतो जलनिहि उक्खिवंतो महंतकल्लोले वियंकन्यका | प्रष्टिवावां प्रभातायां रजन्यां नगरम् । तत एवं प्राप्त इति । भया भणितम् - सुन्दरा सम्प्राप्तिः । गृहीतः पटः । ततः आपृच्छय मनोरथदत्तपरिजनममिनन्दितौ तेन सह मनोरथदत्तेन गतौ वेलाकुलम् । दृष्टं च सुरविमानाकारमनुकुर्वद् विचित्रध्वजमालोपशोभितं यानपात्रम् | अभ्युत्थिता यानपात्रस्वामिनेश्वरदत्तेन । कृतस्तेन प्रणामः । उपनीतान्यासनानि । समर्पितौ मनोरथदत्तेन । भणितं व तेन - सार्थवाहपुत्र ! एतो खलु मम स्वामिनौ वयस्यां बान्धव जीवितं, न कावपि तौ यो न भवत इति, ततः सुन्दरं द्रष्टव्यौ । तेन भणितम् - वयस्य ! किमनेन पुनरुक्त विन्यासेन, ममापीमो ईदृशावेवेति । तत उपारूढी यानपात्रम्, क्षिप्तो बलिः समुद्रस्य । उच्छ्रितः सितपटः । दत्तं दिक्सम्मुखं निर्यामकेन प्रवहणमिति । प्रणम्यावां स्थितो मनोरथदत्तः । प्रवृत्तं यानपात्रम् । गम्यते सिंहलद्वीपाभिमुखमिति । एवं गच्छतां त्रयोदशे दिवसे उन्नतोऽस्माकमुपरि काल इव कालमेघः जीविताशेव स्फुरिता विद्यल्लेखा, उन्मलितगिरिकाननश्चाकम्पयन् जलनिधिमुत्क्षिपन् महतः कल्लोलान् विजृम्भितो ले लिया । यक्षकन्या चली गयी। हम दोनों रात्रि के प्रभातरूप में परिणत होने पर अर्थात् सबेरा होने पर, नगर मैं प्रविष्ट हुए। तो यह (वस्त्ररत्न) इस प्रकार प्राप्त हुआ । मैंने कहा -- ' ( इसकी प्राप्ति सुन्दर है ।' वस्त्र को ले लिया । अनन्तर मनोरथदत्त के परिजन से पूछकर उसे अभिनन्दित होकर मनोरथदत्त के साथ दोनों समुद्र तट पर गये और देवविमान का अनुसरण करने वाले, अनेक प्रकार की ध्वजाओं और मालाओं से शोभित जहाज को देखा । जहाज का स्वामी ईश्वरदत्त उठा । उसने प्रणाम किया। आसन लाये गये। हम दोनों को मनोरथदत्त ने समर्पित कर दिया। मनोरथदत्त ने कहा--' सार्थवाहपुत्र ! ये दोनों मेरे स्वामी, मित्र, बान्धव और प्राण हैं, ये दोनों जो कोई भी होंगे, ऐसा नहीं होना चाहिए अर्थात् आप इन्हें ऐसा नहीं मानना, भली प्रकार से इनकी देखभाल रखना।' ईश्वरदत्त ने कहा- 'मित्र ! इस प्रकार की पुनरुक्ति से क्या लाभ? मेरे लिए ये दोनों इसी प्रकार हैं।' तब हम दोनों जहाज पर चढ़ गये । समुद्र में बलि फेंकी । सफेद वस्त्र (पाल) को खोला। जहाज चलाने वाले ने नाव को (अनुकूल) दिशा की ओर किया। हम लोगों को प्रणाम कर मनोरथदत्त रुक गया । जहाज चला। सिंहलद्वीप की ओर जा रहे थे । इस प्रकार जाते हुए तेरहवें दिन हमलोगों के ऊपर काल के समान कालमेघ उमड़ पड़ा। जीवन की (क्षणिक) आशा जैसी बिजली च न की । पर्वत और वन को उखाड़कर, समुद्र को कँपाकर, बड़ी-बड़ी तरंगों को १, दिवसेक । ३७७ Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .३७८ [ समराइचकहा भिओ विसममारुओ, निवडियं असणिवरिसं, उम्मेण्ठमत्तहत्थी विय अणियमियगमणेणं अवसीयं जाणवतं, विसण्णा निज्जामया। तओमए अवटुंभ काऊण छिन्नाओ सियवडनिबंधणाओ रज्जओ, मउलियो सियवडो' विमुक्का नंगरा। तहावि य गरुययाए भंडस्स संखुद्धयाए जलनिहिणो उक्कडयाए असणिवरिसस्स विसग्णयाए निज्जामयाणं विचित्तयाए कम्मपरिणामस्स विवन्नं जाणवत्तं । बंधवा वि य कालपरियाएणं विउत्ता सव्वपाणिणो। समासाइयं मए फलयं । तओ अहं आउयसेसयाए गमिऊण तिण्णि अहोरत्ते फनयदुइओ पत्तो तडसमोवं । अंधायारलेहा विय बिट्ठा वणराई । समससियं मे हियएण। उत्तिण्णो जलनिहोओ, निप्पीलियाई पोत्ताई। न तितं च निवसणगंठिसंठियं पडरयणं । अहो एयस्स सामत्थं ति जाओ मे विम्हओ। तओ गंतूण थेवं भूमिभागं उवविट्ठो जंबुपाय वसमावे। चितियं च मए–एयागि ताणि विहिणो जहिच्छियाविलसियाणि, एसा य सा कम्मणो अचितणीया सती, जमेवमवि असद्दहणिज्ज अवत्यंतरमणुहविऊण पाणे धारेमि । किं वा एगुदरनिवासिणा' विय वसुभूइणा विउत्तस्स पाणेहिं । अहवा विचित्ता कम्मपरिणई, न विसाइणा विषममारुतः, निपतितमशनिवर्षम्, उन्मिण्ठ(हस्तिपकोत्क्रान्त)मत्तहस्तीवानियमितगमनेनावशीभतं यानपात्रम्। विषण्णा निर्यामकाः । ततो मयाऽवष्टम्भं कृत्वा छिन्ना: सितपटनिबन्धना रज्जवः, मुकुलितः सितपटः। विमुक्ता नाङ्गराः। तथाऽपि च गुरुकतया भाण्डस्य संक्षुब्धतया जलनिधेरुटकटतयाऽशनिवर्षस्य विषण्णतया नियामकानां विचित्रतया कर्मपरिणामस्य विपन्न यानपात्रम् । बान्धवा इव कालपर्यायेण वियुक्ता: सर्वप्राणिनः । समासादितं मया फलकम् । ततोऽहमायुःशेषतया गमयित्वा त्रीनहोरात्रान् फलकद्वितीयः प्राप्तः तटसमीपम । अन्धकारलेखेव दष्टा वनराजिः। समुच्छ्वसितं मे हृदयेन । उत्तीर्णो जलनिधितः, निष्पाडितानि पोतानि (वस्त्राणि) । न तिमितं (आर्द्र) च निवसनग्रन्थिसंस्थितं पटरत्नम् । अहो एतस्य सामर्थ्य मिति जातो मे विस्मयः । ततो गत्वा स्तोकं भूमिभागमुपविष्टो जम्बफादपसमीपे । चिन्तितं च मया-एतानि तानि विधेर्यथे. च्छविलसितानि, एषा च सा कर्मणोऽचिन्तनीया शक्तिः, यदेवमपि अश्रद्धानीयमवस्थान्तरमनुभूय प्राणान् धारयामि । किं वा एकोदरनिवासिनेव वसुमतिना वियुक्तस्य प्राणैः। अथवा विचित्रा उठाकर विषम वायु(का प्रवाह)बढ़ने लगा । वज्र की वर्षा हुई। महावत के हट जाने पर अनियमित चाल के कारण जिस प्रकार मतवाला हाथी वश में नहीं रहता उसी प्रकार जहाज भी अनियमित गमन के कारण वश में नहीं रहा । जहाज चलाने वाले खिन्न हो गये। तब मैंने साहस कर सफेद वस्त्र (पाल) को बांधने बाली रस्सियों को तोड़ डाला, पाल बन्द हो गया। लंगर डाल दिये, फिर भी माल के भारी होने, समुद्र के क्षोभित होने, वज्र वर्षा (पत्थरों वगैरह की वर्षा) की उत्कटता, जहाज चलानेबालों की खिन्नता और कर्मपरिणाम की विचित्रता के कारण जहाज टूट गया । मृत्यु की अवस्था में जैसे बान्धव वियुक्त हो जाते हैं उसी प्रकार समस्त प्राणी वियुक्त हो गये । मुझे लकड़ी का टुकड़ा मिल गया। तब आयुशेष रह जाने के कारण तीन दिन-रात बिता कर लकड़ी के टकडे के सहारे किनारे पर आ लगा। अन्धकार की रेखा के समान वनपंक्ति दिखाई दी। मेरे हृदय से गहरी लम्बी साँस निकली। मैं समुद्र से उतरा, वस्त्रों को निचोड़ा, वस्त्र की पोटली में स्थित वस्त्ररत्ल नहीं भीगा । ओह इसका सामथ्र्य ! इस प्रकार मुझे विस्मय हुआ। तब थोड़ी दूर जाकर जामुन के एक वृक्ष के पास जा बठा । म सोचा-भाग्य की ये इच्छानुसार चेष्टाएँ हैं, यह वह कर्म की अचिन्तनीय शक्ति है, जो कि इस प्रकार की विश्वास न करने योग्य अवस्था का अनुभव करते हुए भी प्राण धारण कर रहा हूँ। सहोदर भाई के समान वसुभूति के अलग हो जाने पर प्राणों से क्या अर्थात् प्राण धारण करने से क्या लाभ ? अथवा कर्म का फल विचित्र है, दुःखी नहीं होना १. सीयवड़ो-के, २. गरुयाए-ख, ३. फलदयं-क, ४.तिमियंक, ५. "वासिणोके। Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमो भवोj ३७९ होयव्वं ति । दिवसनि सिसमा संजोयविओया; कयाइ सो वि एवं चेव कहंचि पाणे धारेइ ति। तओ खुहापिवासाभिभूओ उययफलनिमित्तं पयट्टो उत्तराहिमुहं । गओ थेवं भूमि । दिट्ठा य फणसकयलयसहयारसंछन्नकला तीरतरुकूसुमरयरंजियजला गिरनई। कया पाणवित्ती। चिट्ठमाणेण य सहयारपायवसमीवे गिरिनई पुलिणम्मि दिट्ठो पियाए चाडयं करेमाणो सारसजुवाणओ। सुमरियं विलासवईए। जाया मे चिता-- अहो णु खलु एए अदिट्ठबंधुविरहदुक्खा साहोणाहारपयारा अविनायजायणादीणभावा पास ट्ठियपणइणीपसंगदुल्ललिया असंजायमहावसणभया सुहं जीवंति मियपक्खिणो। एवं चितयंतस्स अस्थागरिसिहरमुवगओ सहस्सरस्सी, रयणुज्जोवो विय सीयलीहूओ आयवो। कयं मए विमलसिलायलम्मि पल्लवसणिज्ज । संपाडियं संझावस्सयं । चियसमए कओ देवयागुरुपणामो । णुवन्नो वामपासेणं । अहिणंदिओ कुसुमसुरहिणा मारुएणं । बहुदिवसखेयओ समागया मे निद्दा । अइक्कंता रयणी । विउद्धो नाणाविह विहंगमविरुयपाहाउएण। कहो देवयागुरुकर्मपरिणतिः, न विषादिना भवितव्यमिति । दिवसनिशासमौ संयोगवियोगी, कदाचित् सोऽपि एवमेव कथञ्चितत्प्राणान् धारयतीति। ततः क्षुत्पिपासाभिभूत उदकफलनिमित्तं प्रवृत्त उत्तराभिमुखम् । गतः स्तोकां भूमिम् । दृष्टा च पनसकदलसहकारसञ्छन्नकूला तीरतरुकुसुमरजोरञ्जितजला गिरिनदी। कृता प्राणवृत्तिः । तिष्ठता च सहकारपादपसमापे गिरिनदीपुलिने दृष्ट: प्रिवायाश्चाटुकं कुर्वन् सारसयुवा । स्मृतं च विलासवत्याः । जाता मे चिन्ता। अहो नु खल्वेते अदृष्टबन्धुविरहदुःखाः स्वाधीनाहारप्रचारा अविज्ञातयाचनादीनभावाः पार्श्वस्थितप्रणयिनीप्रसङ्गदुर्ललिता असञ्जातमहाव्यसनभयाः सुखं जीवन्ति मृगपक्षिणः । एवं चिन्तयतोऽस्तगिरिशिखरमुपगतः सहस्ररश्मिः, रत्नोड्योत इव शोतलोभूत आतपः । कृतं मया विमलशिलातले पल्लवशयनीयम् । सम्पादितं सन्ध्यावश्यकम्। उचितसमये कृतो देवतागुरुप्रणामः। निपन्नो (शयितः) वामपार्वेण । अभिनन्दितः कुसुमसुरभिना मारुतेन । बहदिवसखेदतः समागता मे निद्रा। अतिक्रान्ता रजनी। विबुद्धो नानाविधविहङ्गमविरुतप्राभाचाहिए । संयोग और वियोग रात्रि और दिन के समान हैं, कदाचित् वह भी इसी प्रकार प्राणों को धारण कर रहा होगा। अनन्तर भूख-प्यास से पीड़ित होकर जल और फल के लिए उत्तरदिशा की ओर गया। थोड़ी दूर चला। कटहल, केला, आम्रवृक्षों से जिसका तीर आच्छादित था और किनारे के वृक्षों के फूलों के पराग से जिसका जल रंगा हुआ था ऐसी पर्वतीय नदी देखी । आहार किया । आम के वृक्ष के समीप बैठते हुए पर्वतीय नदी के तट पर प्रिया की चाटकारी करते हुए सारस युवक (युगल) को देखा। मुझे विलासवती का स्मरण हो आया। मुझे चिन्ता उत्पन्न हई-ओह ! बन्धु के विरह सम्बन्धी दुःख को न देखकर (भोगकर) स्वाधीन आहार-विहार वाले, याचना और दीमभाव को न जानने वाले, समीप स्थित प्रिया के प्रसंग से नटखट तथा जिन्हें महान् आपत्ति का भय नहीं है, ऐसे ये पशुपक्षी सुखपूर्वक जीते हैं । (मेरे) ऐसा विचार करते हुए सूर्य अस्ताचल के शिखर पर चला गया, रत्न की प्रभा के समान प्रकाश शीतल हो गया। मैंने स्वच्छ शिलातल पर पत्तों की शय्या बनायी। सन्ध्याकालीन आवश्यक कार्य किये । उचित समय देव और गुरु को प्रणाम किया। बायीं करवट से सो गया। फूलों से सुगन्धित वायु ने अभिनन्दन किया। अनेक दिनों की थकावट के कारण मुझे नींद आ गयी। रात बीत गयी । अनेक प्रकार के पक्षियों की आवाज से युक्त प्रातः समय में जाग गया। देव तथा गुरु को प्रणाम किया। बन के मध्यभाग को देखने के Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० [ समराइच्चकही पणामो। पयट्टो काणणंतराई पुलोइउं । पे छमाणो य विचित्त काणणभाए पत्तो सुकुमारदालुयं अच्चंतसोमदंसणं गिरिसरियापुलिणं । विट्ठा य तत्थ सुपइट्ठियंगुलितला पसत्थलेहालंकिया तक्खणुट्ठिया चेव पयपंती। निरूविधा हरिसियमणेणं, विन्नाया य लहुयसुकुमारभावओ इस्थियाए इयं न उण' परिसस्स। लगो पयमग्गओ। दिवा य नाइदूरम्मि चेव सहिणवक्कलनिवसणा तवियर णयाबदायदे। हियर निभच्छिएण विय चलणतललग्गेण राएण अविभावियसिरागुप्फसंबाहेण मयणभवणतोरणेण वि जाणुजुयलेण रसगाकलावजोग्गेण विउलेणं नियंबभाएणं बहुदिवसोववासखिन्नेण विय किसयरेणं मझेणं सज्जणचित्तगंभीराए विय मयणरसकूवियाए नाहीए तवविणिज्जिएण विय मोहंधयारेण पुणो हिययप्पवेसकामेणं रोमलयामगोण सुकयपरिणामेहि विय समुन्नएहि पओहरेहि अहिणवुग्गयरत्तासोयलयाविन्भमाहिं वाहाहि कंबुपरिमंडलाए सिरोहराए पाडलकुसुमसन्निहेणं अहरेण अच्चंतसच्छविमलाहि कवोलवालीहि हरिणवहूक्यसंविभाएहि विय लोयहि पमाणजुत्तेणं नासियावंसेणं दीहपम्हलाहिं आयड्ढियकोडंडसन्निभाहिं भमुहाहि सुसिणिद्धदंसणेणं चंदसन्निभेण' तिकेन । कृतो देवतागुरुप्रणामः । प्रवृत्तः काननान्तराणि द्रष्टुम् । पश्यंश्च विचित्रान् कानन भागान् प्राप्तः सुकुमारबालुकमत्यन्तसौम्यदर्शनं गिरिसरित्पुलिनम् । दृष्टा च तत्र सुप्रतिष्ठिताङ्गलितला प्रशस्तरेखाऽलंकृता तत्क्षणोत्थितैव पदपंक्तिः। निरूपिता हृषितम् नसा, विज्ञाता च लघुकसुकुमारभावतः स्त्रिया इयं न पुनः पुरषस्य । लग्नः पदमार्गतः । दृष्टा च नातिदूर एव श्लक्ष्ण वल्कलनिवसना, तप्तकनकावदातदेहा हृदयनिभत्सितेनेव चरणतललग्नेन रागेण, अविभावितशिरागुल्फसम्बाधेन मदनभवनतोरणेनेव जानुयुगलेन, रसनाकलापयोग्येन विपुलेन नितम्बभागेन, बहुदिवसोपवासखिन्नेनेव कृशतरेण मध्येन, सज्जनचित्तगम्भीरयेव मदनरसकूपिक या नाभ्या तपोविनिजितेनेव मोहान्धकारेण पुनह दयप्रवेशकामेन रोमलतामार्गेण सुकृतपरिणामाभ्यामिव समुन्नताभ्यां पयोधराभ्याम्, अभिनवोद्गत रक शोकलताविभ्रमाभ्यां बाहुभ्याम्, कम्बुपरिमण्डलया शिरोधरया, पाटलाकुसुमसन्निभेन अधरेण, अत्यन्तस्वच्छविमलाभ्यां कपोलपालीभ्याम्, हरिणवधूकृतसंविभागाभ्यामिव लोचनाभ्याम्, प्रमाणयुक्तेन नासिवावंशेन, दीर्घपक्ष्मलाभ्यामाकृष्टकोदण्डसन्निभाभ्यां लिए चला गया। अनेक प्रकार के वन भागों को देखते हुए पर्वतीय नदी के तट पर आया। उस तट की बालुका कोमल थी, वह देखने में अत्यन्त सौम्य थी । वहाँ प, जिसमें अंगुलियों के तल भाग भली-भाँति प्रतिष्ठित थे, जो प्रशस्त रेखाओं से अलंकृत थी, ऐसी मानो उसी समय उठे हुए परों की पंक्ति को देखा । प्रहर्षितमन होकर (मैंने) देख। । छोटे और सुकुमार पदचिह्न होने के कारण जान लिया कि यह पदपंक्ति स्त्री की है, पुरुष की नहीं । पदचिह्नों पर चल पड़ा और थोड़ी दूर पर ही तपस्विकन्या देखी। वह चमकदार सुन्दर वृक्ष की छाल के वस्त्रों को पहिने हुए थी । ताये हुए सोने के समान स्वच्छ उसकी देह थी। पैरों में लगे हुए राग (महावर) से मानो वह हृदय के प्रति द्वेषभाव रख रही थी। जिनमें नाड़ियों और गांठों की रुकावट दिखाई नहीं पड़ती थी, ऐसी कामदेव के भवन के तोरण के समान दो जांघे थीं। करधनी के समूह के योग विस्तृत नितम्बभाग (कमर के पीछे का उभरा हुआ भाग) था। मानो बहुत उपवास के कारण खिन्न हो- ऐसा अत्यधिक पतला मध्यभाग (कमर) था। सज्जन के चित्त के समान गम्भीर, कामरस की कूपी (छोटा कुआँ) के समान नाभि थी। तप के द्वारा मोहरूपी अन्धकार को जीत लिये जाने पर रोम रूपी लता के मार्ग से पुनः प्रवेश करने की इच्छा वाले पुण्य परिणामों के समान समुन्नत दो स्तन थे । नयी उत्पन्न हुई लाल अशोकलता के विभ्रम वाली दो बाहुएँ थीं। शंख के आकार वाली गर्दन थी। गुलाब के फल के समान लाल अधर था। अत्यन्त स्वच्छ और निर्मल दोनों गाल थे। हरिणांगनाओं के द्वारा किये १. वण-क, २. थ बाहियाहि-क. ३. दुइयाद । Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमो भवो ३८१ निडा लवटेणं पट्टिदेससंठिएणं नियंबसुकयरवर णेण विय चवखुर सवाणुयारिणा कुडिलकेसकलावेण वामहत्थगहियछज्जिया दाहिणहत्थेण कुसुमावचयं करेंती तावसकन्नय ति। तं च ठूण चितियं मए-अहो वणवासदुक्ख नणुहवंतीए वि लायण'। उवगंतूणं च थेवभूमिभागं सविसेसं पुलइया लयाजालयंतरेणं जाव मोत्तूण वणवासवेसं सव्वं चेव विलासवईए अणुगरेइ त्ति । तओ सुमरणपवणसंधुक्किओ पज्जलिओ मे मणम्मि मयणाणलो। भरिया य तीए कुसुमाण छज्जिया। पयट्टा ताव वणाहिमुहं। तओ अहं निहिऊण मयणक्यिारं निग्गओ लयाजालयाओ', गओ तीए समीवं । पणमिऊण भणिया एसा--भयवइ, वड्ढउ ते तवोकम्मं । अहं खु पुरिसो सेयवियाए वत्थव्वओ तामलित्तीओ सीहलदीवं पयट्टो । अंतराले विवन्नं मे जाणवत्तं । अओ एगागी संवुत्तो। ता कहेउ भयवई, को पुण इमो पएसो, किं ताव जलनिहितडं, कि वा कोइ दीवो, कहिं वा तुम्हाणमासमपयं ति । तओ सा में दळूण निउंचियदिट्ठिपसरा दिसामंडलं पुलोएमाणी मंदवलियवितिरिच्छलोयणायाम ससज्झसा भ्र भ्याम, सुस्निग्धदर्शनेन चन्द्रसन्निभेन ललाटपट्टेन, पृष्ठदेशसंस्थितेन नितम्बसूकृतरक्षणेनेव सःश्रवानुकारिणा कुटिलकेशकलापेन, वामहस्तगृहीतछज्जिका (पुष्पकरण्डिका) दक्षिणहस्तेन मावाचयं कुर्वती तापसकन्यकेति । तां च दृष्ट्वा चिन्तितं मया- अहो ! वनवासदुःखमनूभवन्त्या अगि लावण्यम्। उपगत्य च स्तोकभूमिभागं सविशेष दृष्टा लताजालकान्तरेण यावन्मुक्त्वा वनवासवेशं सर्वमेव विलासवत्या अनुकरोतीति । ततः स्मरणपवनसन्धक्षितः प्रज्वलितो मे मनसि मदनानलः । भृता च तया कुसुमैः करण्डिका । प्रवृत्ता तावद् वनाभिमुखम् । ततोऽहं निगुह्य मदनविकारं निर्गतो लताजालकात्, गतस्तस्याः समीपम् । प्रणम्य भणितैषाभगवति ! वर्धतां ते तपःकर्म । अहं खलु पुरुषः श्वेतविकाया वास्तव्यः ताम्रलिप्तीतः सिंहलदो प्रवत्तः । अन्तराले विपन्नं मे यानपात्रम्, अत एकाकी संवृत्तः। ततः कथयतु भगवती, कः पूनरयं प्रदेशः, किं तावज्जलनिधितटं किंवा कोऽपि द्वीपः, कुत्र वा युष्माकमाश्रमपदमिति ? ततः सा मां दष्टवा निकुञ्चितदष्टिप्रसरा दिग्मण्डलं पश्यन्ती मन्दवलितवितिर्यग्लोचनायामं ससाध्व सेवक्षणमात्र. हुए भाग के समान दो नेत्र थे। प्रमाण से युक्त नाक थी। लम्बी बरौनियों वाली, खींचे हुए धनुष के सदृश दोनों । देखने में चन्द्रमा के समान चमकदार मस्तक था। पिछले भाग में स्थित नितम्बों की भली प्रकार से रक्षा करने के लिए सर्प का अनुसरण करने वाले कुटिल केशों का समूह था। बायें हाथ में वह फूलों की डलिया पकडे हए थी (तथा) दायें हाथ से फूल चुन रही थी। उसे देखकर मैंने सोचा--ओह ! वनवार भव करते हुए भी इसकी सुन्दरता आश्चर्यजनक है। थोड़ी दूर और चलकर लताओं के समूह के मध्य से विशेष रूप से देखा, बनवास के वेष को छोड़कर सब कुछ विलासवती के समान था। तब स्मरणरूपी वायु के द्वारा धौंकी हई अग्नि मेरे मन में जल उठी। उसने फूलों से डलिया भरी । वह वन की ओर चल पड़ी। तब मैं काम के विकार को छिपाकर लतासमूह से निकला, उसके पास गया। प्रणाम कर उससे कहा'भगवती ! तेरा तपःकर्म बढ़े। मैं श्वेतविका निवासी पुरुष हूँ, ताम्रलिप्ती से सिंहल द्वीप की ओर जा रहा था। बीच में मेरा जहाज टूट गया, अतः एकाकी हो गया । अतः सुन्दरी कहें-यह कोन-सा प्रदेश है ? क्या यह समुद्र का तट है अथवा कोई द्वीप है अथवा तुम्हारा आश्रम कहाँ है ?' तब वह मुझे देखकर दृष्टि के फैलाव का संकोच कर, आकाश की ओर देखती हुई मन्द घूमे हुए नेत्रों के विस्तार को तिरछाकर, घबड़ाहट के साथ क्षणभर १. लायण्णं अहरया-क, २. निगृहेऊण-क, ३. लयानो तामलित-ख । Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८२ [ समराइच्चकहा far खणमेतं अहोमुही ठिया अदिन्नपडिवयणा पट्टा तवोवणाहिमुहं । तओ 'जुवई तावसी एगागिणी य, ता कि इह इमीए, अन्नं कंचि पुच्छिस्सामि' त्ति चितिऊण नियत्तो अहं । पविट्ठो तं चैव सहावसुंदरं लयागहणं । चितियं च मए- पेच्छामि ताव, कहि पुण एसा वच्चइति । पुलोइउं पयत्तो । दिट्ठाय सविसेस मंथरा गईए वच्चमाणी । गया य थेवं भूमिभायं । मग्गओ पुलोइयं तीए । न दिट्ठो कोई सत्तो । तओ मोत्तूण कुसुमछज्जियं परिहियं पि पुणो परिहियं वक्कलं, परामुट्टो केसकलावो, मोडिया अंगाई, उब्वेल्लियाओ बाहुलयाओ, पयट्ट वियंभणं ति । तओ मए चितियं । अह कि पुण इमं अहवा किमणेण विरुद्धवत्युविसरणं आलोचिएणं । गओ गिरिनदं । कया पाणवित्ती | परिब्भमंतस्स काणणंतरे' अइक्कतो वासरो । पसुत्तो य पुव्वविहिणा । दिट्टो य जाममेत्तावसेसाए विहावरीए सुमिणओ । उवणीया मे कंचणपायवासन्नसंठियस्स दिव्वइत्थियाए सव्विन्दियमणोहराए कुसुममाला | भणियं च तोए-कुमार, एसा खु दिव्वकुसुममाला पुव्वनिव्वत्तिया चेव मए कुमारस्स उवणीया; ता गेहउ कुमारो । गहिया य सा मए, विइण्णा कंठदेसे । एत्थंतरम्मि वियंभिओ मोमुखी स्थिताऽदत्तप्रतिवचना प्रवृत्ता तपोवनाभिमुखम् । ततो 'युवतिः तापसी एकाकिनी च ततः किमिह अनया, अन्यं कञ्चित् प्रक्ष्यामि इति चिन्तयित्वा निवृत्तोऽहम् । प्रविष्टस्तदेव स्वभावसुन्दरं लतागहनम् । चिन्तितं च मया - पश्यामि तावत्, कुत्र पुनरेषा व्रजतीति । द्रष्टुं प्रवृत्तः । दृष्टा च सविशेषमन्थरया गत्या व्रजन्तो । गता च स्तोकं भूमिभागम् । मार्गतः प्रलोकितं तया । न दृष्टः कोऽपि सत्त्वः । ततो मुक्त्वा कुसुमकरण्डिकां परिहितमपि पुनः परिहितं वल्कलम्, परामृष्टः केशकलापः, मोटितान्यङ्गानि, उद्वेल्लिते बाहुलते, प्रवृत्तं विजृम्भणमिति । ततो मया । चिन्तितम् - अथ किं पुनरिदम्, अथवा किमनेन विरुद्धविषयेणालोचितेन । गतो गिरिनदीम् । कृता प्राणवृत्तिः । परिभ्रमतः काननान्तरेऽतिक्रान्तो वासरः । प्रसुप्तश्च पूर्वविधिना । दृष्टश्च याममात्रावशेषायां विभावर्यां स्वप्नः । उपनोता मे काञ्चनपादपासन्नसंस्थितस्य दिव्यस्त्रिया सर्वेन्द्रियमनोहरया कुसुममाला । भणितं च तया - कुमार ! एषा खलु दिव्यकुसुममाला पूर्वनिर्वर्तिता एव मया कुमारस्योपनीता, ततो गृह्णातु कुमारः । गृहीता च सा मया, वितीर्णा कण्ठदेशे । अत्रान्तरे विजृम्भितः सारसवः, विबुद्धोऽहं । नीचा मुख किये हुए खड़ी होकर, उत्तर दिये बिना तपोवन की मोर चल पड़ी। तब 'यह युवती तपस्विनी और फिर अकेली है । अतः इससे क्या, और किसी से पूछूंगा' - ऐसा सोचकर मैं रुक गया। मैं प्रकृति से सुन्दर उसी गहन लताओं में प्रविष्ट हो गया। मैंने सोचा - देखता हूँ यह कहाँ जाती है ? (मैं) देखने लगा । विशेष मन्दगति से चलती हुई उसे (मैंने) देखा। वह कुछ दूर गयी । जाते हुए उसने देखा, कोई भी प्राणी नहीं दिखाई दिया तब फूलों की डलिया को छोड़कर (रखकर) पहिने हुए भी वस्त्रों को पुनः पहिना, केशों के समूह को सँवारा अंगों को मोड़ा, भुजारूपलताओं को हिलाग और जंभाई लेने लगी। तब मैंने सोचा -- यह सब क्या है ? अथवा इस प्रकार विपरीत रूप से सोचने से क्या लाभ ? पर्वतीय नदी पर गया । आहार किया । जंगल के बीच में घूमते हुए दिन बीत गया । पहले के समान सोया । रात्रि के प्रहरमात्र शेष रह जाने पर मैंने स्वप्न देखा । स्वर्ण वृक्ष के समीप बैठी हुई दिव्यस्त्री मेरे लिए समस्त इन्द्रियों के लिए मनोहर फूलमाला लायी है । उस दिव्यस्त्री ने कहा'कुमार ! यह दिव्य पुष्पमाला है, मैंने इसे पहिले बनाया था और मैं कुमार के लिए लायी हूँ, अतः कुमार ग्रहण करें।' मैंने उसे लिया और कण्ठ में डाल लिया। इसी बीच सारसों की आवाज बढ़ने लगी, मैं सन्तुष्ट चित्त १. कि इमीए - ख, २. काणणंतरेसु – । Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमो भवो) सारसरवो, विउद्धो अहयं परितुट्ठो चित्तण।चितियं मए -आसन्नकन्नयालाहफलसूयएणं ति होयव्वमणेणं, अणुकुलो खु सउणसंघाओ, अचिरफलदायगो खु एस पुमिणओ, अरण्णं च एयं; ता न याणामो कहं भविस्सइ ति। एत्यंतरम्मि फुरियं मे दाहिणभुणाए लोयणेण य । तओ मए चितियं-न अन्नहा रिसिवयणं ति होयन्वमणेण । अणुकुलो सउणसंघाओ। न य मे विलासरायहाणि विलासवई वज्जिय अन्नकन्नालाहे वि बहुमाणो । भणियं च सुमिणयदेवयाए --- 'कुमार, एसा खु दिव्वकुसुममाला पुवनिव्वत्तिया चेव' । तओ न अन्ना दिव्वकुसुममालाए उवमाणसंगया, न अन्नाए पुवपरिचओ त्ति विलासवइलाहेण चेव होयव्वं ति । अणुहरइ य सा तावसी विलासवईए। विचित्ताणि य विहिणो विलसियाई । कयाइ स च्चेव' होज्ज ति। अन्नहा कहं तावसी, कहं मयणवियारो। किं च-जइ वि सा विलासवई, तहावि पडिवन्नवयाए विरुद्वो विसयसंगो। अहवा संपत्तदसणसुहस्स पिययमामग्गमणुगच्छमाणस्स वयधारगं पि मे सुंदरं चेव। एवं च चितयंतस्स अइक्कंता रयणी, उगओ अंसुमाली, घडियाइं रपणिविरहपीडियाई चक्कवायाई। परितुष्टश्चित्तेन । चिन्तितं मया-आसन्नकन्यकालाभफलसूचकेन [इति] भवितव्यमनेन, अनुकुल: खलु शकुनसङ्घातः, अचिरफलदायकः खल्वेष स्वप्नः । अरण्यं चैतत्, ततो न जानीमो कथं भविष्यतीति । अत्रान्तरे स्फुरितं मे दक्षिणभुजया लोचनेन च। ततो मया चिन्तितम्-नान्यथा ऋषिवचनमिति भवितव्यमनेन । अनुकलः शकुनसङ्घातः । न च मे विलासराजधानी विलासवती वजित्वाऽन्यकन्यालाभेऽपि बहुमानः । भणितं च स्वप्नदेवतया-'कुमार ! एषा खलु दिव्यकुसममाला पूर्वनिर्वतिता एव' ततो नान्या दिव्यकूसममालाया उपमानसङ्गता, न अन्याया: पूर्वपरिचय इति विलासवतीलाभेनैव भवितव्यमिति । अनुहरति च सा तापसी विलासवत्याः। विचित्राणि च विधेविलसितानि, कदाचित् सैव भवेदिति । अन्यथा कथं तापसी, कथं मदनविकारः ? किञ्च यद्यपि सा विलासवती तथापि प्रतिपन्नव्रतया विरुद्धो विषयसङ्गः । अथवा सम्प्राप्तदर्शनसुखस्य प्रियतमामार्गमनुगच्छतो व्रतधारणमपि मे सन्दरमेव । एवं च चिन्तयतोऽतिक्रान्ता र जनो, उद्गतोऽशमाली, घटिता रजनीविरहपीडिताश्चक्रवाकाः । वाला होकर जाग गया। मैंने सोचा शीघ्र ही कन्या का लाभ होना चाहिए -ऐसा इस स्वप्न से सूचित होता है, स्वप्न संयोग अनुकूल है । यह स्वप्न शीघ्र ही फल देने वाला है। यह जंगल है अतः नहीं जानता हूँ, कैसे होगा? इसी बीच मेरी दायीं भुजा और दायां नेत्र फड़क उठा। तब मैंने सोचा-ऋषि के वचन अन्यथा नहीं होते हैं, इसे पूर्ण होना चाहिए। शकुन का संयोग अनुकूल है। मेरा विलास की राजधानी विलासवती को छोड़कर अन्य कन्या की प्राप्ति होने पर भी अधिक सम्मान नहीं है। स्वप्न देवी ने कहा था---'कुमार! यह दिव्यपुष्पमाला है जो कि पहले ही बनायी गयी थी। अतः अन्य दिव्य पुष्पमाला के साथ उपमान की संगति नहीं है. अन्य का पूर्व परिचय भी नहीं है-इस प्रकार विलासवती का लाभ (प्राप्ति) ही होना चाहिए। वह तपस्विनी विलासवती के समान है । भाग्य की चेष्टाएँ विचित्र होती हैं, कदाचित् वही हो । अन्यथा कैसे तो तपस्विनी है कसे (उसमें) काम का विकार है ? दूसरी बात यह है कि यद्यपि वह विलासवती है फिर भी ब्रत ग्रहण करने के कारण उसकी विषयों के प्रति आसिक्त विरुद्ध है । अथवा दर्शन के सख को प्राप्त कर प्रियतमा के मार्ग का अनुसरण करते हुए व्रत धारण करना भी मेरे लिए सुन्दर (अच्छा) है। इस प्रकार विचार करते हुए रात बीत गयी, सूर्य निकल आया। रात्रि में विरह के कारण पीड़ित चक्रवाक मिल गये । १. सा चेव-क। Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४ [समराइच्चकहा तओ अहं उक्कडयाए रायस्स रम्मयाए काणणाणं विलोहणिज्जयाए सुमिणयस्स गहिओ कामजरएण पयत्तो तं तासि गवेसिउं। वग्गभट्ठस्स विय हरिणयस्स जूहभट्ठस्स विय गइंदस्स तम्पि चेव काणणंतरे भमंतस्स महय परिकिलेसेणं अइक्कंता कइवि दियहा। दिट्ठो माहवीलयालिगिओ सहयारो । उवविठ्ठो तस्स सपोवे । तं चेव मुद्धहरिणलोयणं चितयंतो चिट्ठामि जाव, सुओ मए सुकपत्ताणं मरमरारवो । वालिया सिरोहरा, वियारिया दिट्ठी। दिट्ठा य भइनिम्मिएणं निडालपुंडएणं उड्ढबद्धेण जडाकलावेण पुत्तंजीवयमालालंकिएणं दाहिणारेण वामहत्थगहियकमंडल महंतवक्कलनिवसणा बहुदिवससंचियतबायासेण अद्विचम्मावसेसेणं सरीरएणं अइक्कंतमज्झिम. वयसा तावसि त्ति । तओ तं दळूण गूहिओ मए मयणवियारो। पणमिया य सा । तओ विसेसेण मं पलोइऊण ईसिबाहोल्ललोयणाए भणियं तीए-रायपुत्त, चिरं जीवसु' ति। तओमए चितियं-कहं पुण एसा मं वियाणइ त्ति । अहवा विमलनाणनयणो चेव तवस्सियणो होइ; ता कि न याणइ ति। एत्थंतरम्मि पुणा भणियमिमीए-कुमार, उवविसम्ह'; अस्थि किंचि भणियव्वं तए सह । तओ मए ततोऽहमूत्कटतया रागस्य, रम्यतया काननानां विलोभनीयतया स्वप्नस्य गहीतो कामज्वरेण प्रवत्तस्तां तापसी गवेषयितुम् । वर्गभ्रष्टस्येव हरिणस्य, यूथभ्रष्टस्येव गजेन्द्रस्य, तस्मिन्नेव काननान्तरे भ्रमतो महता परिक्लेशेनातिकान्ताः कत्यपि दिवसा: । दृष्टो माधवीलताऽऽलिङ्गितः सहकारः। उपविष्टस्तस्य समीपे । तामेव मुग्धहरिणलोचनां चिन्तयन् तिष्ठामि यावत, श्रतो मया शष्कपत्राणां मर्मरारवः । वालिता शिरोधरा, वितारिता दृष्टि: । दृष्टा च भतिनिर्मितेन ललाटपण्डकेन ऊर्चबद्धेन जटाकलापेन पुत्रजीवकमालाऽलंकृतेन दक्षिणकरेण वामहस्तगृहीतकमण्डलमहदकलनिवसना बहदिवससञ्चिततप आयासेन अस्थिचविशेषेण शरीरकेन अतिक्रान्तमध्यमवयाः तापसीति । ततस्तां दष्टवा गढो मया मदनविकारः । पूणता न सा । ततोवि शेषेण मां दष्ट वा ईषदवाष्पार्द्रलोचनया भणितं तया-'राजपुत्र ! चिरं जोव' इति । ततो मया चिन्तितं-कथं पनरेषा मां विजानातीति । अथवा विमलज्ञाननयन एव तपस्विजनो भवति, ततः किं न जानातोति । अत्रान्तरे पनर्भणितमनया-कुमार!उपविशावः, अस्ति किञ्चिद् भणितव्यं त्वया सह । ततो मया 'यद् भगवत् अनन्तर राग की उत्कटता,जंगलों की रम्यता और स्वप्न की विलोभनीयता के कारण कामज्वर से यहण किया जाकर मैं उस तपस्वनी को खोजने के लिए चल पड़ा । समूह से भ्रष्ट हुए हरिण के समान अथवा समदाय से भ्रष्ट हुए हाथी के समान उसी जंगल में घूमते हुए बड़े क्लेश से कुछ दिन बिताये । (मुझे) माधवीलता से आलिंगित आम का वृक्ष दिखाई दिया। (मैं) उसके पास बैठ गया। जब मैं उसी भोले-भाले हरिण के समान नेत्रों वाली के विषय में सोचता हुआ बैठा था तभी मैंने सुखे पत्तों की मर्मर-ध्वनि सुनी। गर्दन मोड़ी, दृष्टि दौड़ायी, राख से ललाटपुग्ड्र रचे हुए, जटाजूट को ऊपर की ओर बाँधे, दायें हाथ में जियापोता की माला से अलंकृत, बायें हाथ में कमण्डलु धारण किये हुए, बड़े वल्कल वस्त्र को पहिने हुए, अनेक दिनों में संचित तपस्या के परिश्रम से जिसके शरीर में हड्डियां और चर्म मात्र शेष रह गया था और जो मध्यम अवस्था को पार कर गयी थी, ऐसी तपस्विनी को देखा । अनन्तर उसे देखकर मैंने काम विकार छिपा लिया। मैंने उसे प्रणाम किया। तब मुझे विशेषरूप से देखकर आंसुओं से कुछ गीले नेत्रों वाली होकर उसने कहा-'राजपुत्र ! चिरकाल तक जिओ।' तब मैंने सोचा-यह मुझे कैसे जानती है ? अथवा तपस्विजन निर्मल ज्ञानरूपी नेत्र वाले होते हैं इसलिए क्यों नहीं जानती होगी? इसी बीच तपस्विनी ने फिर कहा-'कुमार ! हम दोनों बैठे, तुम्हारे साथ कुछ 1. उवविससु-क। Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६५ पंचमो भवो] ज भयवई आगवेइ' ति भणिऊण पमज्जियं धरणिवठें। उवविट्ठा तावसी अहयं च । भणियं च तीए-कुमार, सुण- अस्थि इहेव भारहे वासे वेयड्ढो नाम पवओ। तत्थ गंधसमिद्धं नाम विज्जाहरपुर । ताथ सहस्सबलाभिहाणो राया होत्था, सुप्पमा से भारिया, तागं सुया अहं मयगजरो नाम । संपत्तजोव्वणा परिणीया विलासउरनयरसामिणो विज्जाहररिद स पुत्तेणं पव गगइणा। अइक्कतो य कोइ कालो विसयसुहमणुहवंताण। अन्नया य आग सजाणेणं याई नंदणवणं. पवत्ताई कोलि विचितकीलाहिं, जाव अयंडम्मि चेव निवडिओ कणयसिलासण ओ पवणगई, अणाचिक्खियपओयणं च सम्मिल्लियं तेण विणिज्जियकंदो दलसोहं लोयणजुयं पंपिया सिरोहरा, पव्वायं वयण कमलं । तओ असारयाए जीवलोयस्स पेच्छमाणीए चेद सो पंचसमगओ ति। तओ अहं अगाहा यि गहिया महासोएण, सोगाइरेयो य सारसी बिय अणिशरियं परिभमंती सहसा चेव निवडिया धरणिवठे, लद्धचेयणा य उप्पइउमारद्धा जाव न पसरइ मे गई । तओ सुमरिया नहंगणगामिणी विज्जा याज्ञापयति' इति भणित्वा प्रमाणितं धरणोपृष्ठम् । उपविष्टा तापसो अहं च। भणितं तयाकुमार ! शृणु अस्ति इहैव भारते वर्षे वैताढ्यो नाम पर्वतः । तत्र गन्धसमद्धं नाम विद्याधरपुरम । तत्र सहस्रवलाभिधानो राजाऽभवत । सुप्रभा तस्या भार्या । तयोः सुताऽह मदनमञ्जर । सम्प्राप्तयौवना परिणोता विलासपुरनगरस्वामिनो विद्याधरनरेन्द्रस्य पुत्रेण पवनगतिना। अतिक्रान्तश्च कोऽपि कालो विषयसुखमनुभवतः । अन्यदा चाकाशयानेन गतौ नन्दनवनम् । प्रवृत्तौ कोडितं विचित्रक्रीडाभिः, यावदकाण्डे एव निपतितः कनकशिलाऽऽसनात् पवनगतिः । अनाख्यातप्रयोजनं च सम्मिलितं तेन विनिजितकमलदलशोभं लोचन युगम्, प्रकम्पिता शिरोधरा, म्लानं वदनकमलम् । ततोऽसारतया जीवलोकस्य प्रेक्षमाणायामेव स पञ्चत्वमुपगत इति । ततोऽहमनाथेव गृहीता महाशोकेन । शोकातिरेकतश्च सारसोव अनिवारितं परिभ्रमन्तो सहसैव निपतिता धरणीपष्ठे । लब्धचेतना च उत्पतितुमारब्धा यावद न प्रसरति मे गतिः । ततः स्मता नभोऽङ्गगगामिनी विद्या, तथाऽपि बातचीत करनी है।' तब मैंने- 'भगवती जैसी आज्ञा दें-कहकर धरती साफ की। तापसी बैठ गयी और मैं भी बैठ गया । तपस्विनी ने कहा---'कुमार ! सुनो-- इसी भारतवर्ष में वैताढ्य नाम का पवंत है । वहाँ गन्धसमृदः नाम का विद्याधर नगर है। वहां सहस्रबल नाम का राजा हुआ है । उसकी पत्नी सुभा है । उन दोनों की मैं पदनमञ्जरी नाम की पुत्री हूँ। यौवनावस्था प्राप्त होने पर मेरा विवाह विलासपुर नगर के स्वामी विद्याधरराज के पुत्र पवनगति से हुआ। विषयसुख का अनुभव करते हुए कुछ समय बीत गया। एक बार विमान से हम दोनों नन्दनवन गये । जब नाना प्रकार के हेल खेलने लगे तब असमय में ही स्वर्णशिला के आसन से पवनगति गिर पड़ा। प्रयोजन को बिना कहे ही कमलपत्र की शोभा को जीतने वाले उसके नेत्रयुगल बन्द हो गये। गर्दन काँप उठी, मुखकमल फीका हो गया । तब संसार की असारता से देखते-देखते ही वह मृत्यु को प्राप्त हो गया। तब अनाथ के समान मुझे बहुत ज्यादा शोक ने ग्रहण कर लिया। शोकातिरेक से न रोकी गयी सारसी के समान घूमती हुई सहसा धरती पर गिर पड़ी। होश आने पर ऊपर जाना प्रारम्भ किया, किन्तु गति नहीं हुई। तब आकाश रूपी आंगन में चलने वाली विद्या Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८६ [समराइच्चकह तहावि न पसरईति । तओ मए चितियं - 'हा किमेयमवरं' ति जाव थेववेलाए समागओ तायबिहयहियभूओ पडिवन्नतावसवओ देवाणंदो नाम विज्जाहरो । भणियं च तेण - वच्छे मयणमंजरि, किमेयं ति । मए भणियं - भयवं, कयंतविलसियं । तेण भणियं - 'कहं विय' । मए भणियं - विवन्तो अज्जउत्त, न पहवह य नहगामिणी विज्जा । तओ बाहोल्ललोयणेण भणियं भयवया । वच्छ, अलं परिदेविएणं, ईइसो चेव एस संसारो। एवं च असारयं संसारस्स अद्ध्रुवयं जीवलोयस्स खणभंगुरयं संगमाणं चंचलयं इंदियाणं परिचितिऊण पवज्जंति पाणिणो सयलतेलोक्कपर मत्थबंधवं धम्मं । तओ मए 'एवमेयं' ति चितिऊण भणिओ - भयवं । करेहि मे अणुग्गहं वयपयाणेण । भयवया भणियं वच्छे, जुत्तमेयं, अह किं पुण ते नहगमण विज्जाभंसकारणं । मए भणियं - भयवं, न याणामि । तओ नाणावलोएण निरूवियं भयवया, भणियं च तेण वच्छे; सोयाभिभूयाए लंघियं सिद्धाययणकूडं; निवडियं च ते एयस्स चेव सिहरभाए कुसुमदामं, तन्निमित्तो ते विज्जाभंसो ति । भणि-भवं, अलमिहलोयमेत्तोवयारिणीहि विज्जाहि, करेहि मे अणुग्गहं वयपयाणेणं ति । न प्रसरतोति । ततो मया चिन्तितम् -' हा किमेतदपरम्' इति यावत् स्तोकवेलायां समागतः तातद्वितीयहृदयभूतः प्रतिपन्नतापसव्रतो देवानन्दों नाम विद्याधरः । भणितं च तेन - वत्से मदनमञ्जरि ! किमेतदिति । मया भणितम् - भगवन् ! कृतान्तविलसितम् । तेन भणितम्-'कथमिव' । मया भणितम् - विपन्नो मे आर्यपुत्रः न प्रभवति च नभोगामिनी विद्या । ततो वाष्पार्द्रलोचनेन भणितं भगवता । वत्से ! अलं परिदेवितेन, ईदृश एवैष संसारः । एतां चासारतां संसारस्य अध्रुवतां जीवलोकस्य, क्षणभङ गुरतां सङ्गमानां चञ्चलतातिन्द्रियाणां परिचिन्त्य प्रपद्यन्ते प्राणिनः सकलत्रैलोक्यपरमार्थं बान्धवं धर्मम् । ततो मया 'एवमेतद्' इति चिन्तयित्वा भणितो भगवान्कुरु मेऽनुग्रहं व्रतप्रदानेन । भगवता भणितम् - वत्से युक्तमेतद्, अथ किं पुनस्ते नभोगमन विद्या भ्रंशकारणम् ? मया भणितम् - भगवन् ! न जानामि । ततो ज्ञानावलोकेन निरूपितं भगवता, भणितं च तेन - वत्से ! शोकाभिभूतया लङ्घितं सिद्धायतनकूटम्, निपतितं च ते एतस्यैव शिखरभागे कुसुमदाम, तन्निमित्तस्ते विद्याभ्रंश इति । मया भणितम् - भगवन् ! अलमिहलोकमात्रोपकारिणीभि का स्मरण किया तो भी आगे न बढ़ सकी । तब मैंने सोचा - हाय ! अब और क्या होने वाला है ? (ऐसा सोच ही रही थी कि ) थोड़ी देर में पिता जी के दूसरे हृदय के समान देवानन्द नाम का विद्याधर, जिसने कि तापस के व्रत ग्रहण कर लिये थे, आया और उसने कहा - 'पुत्री मदनमञ्जरी ! यह क्या ?' मैंने कहा- 'भगवन् ! यम का विलास' । उसने पूछा- 'कैसे ?' मैंने कहा- 'मेरे आर्यपुत्र मृत्यु को प्राप्त हो गये हैं और आकाशगामिनी विद्या समर्थ नहीं है ।' तब आंसुओं से गीले नेत्रवाले भगवान् ने कहा - 'पुत्री ! दुखी मत होओ, यह संसार ऐसा ही है । इस संसार की असारता, जीवलोक की अनित्यता, संयोगों की क्षणभंगुरता और इन्द्रियों की चंचलता का विचारकर समस्त प्राणी तीनों लोकों के यथार्थरूप से बन्धुभूत धर्म की शरण में जाते हैं ।' तब मैंने 'ऐसा ही है' ऐसा सोचकर भगवान् से कहा- 'व्रत प्रदान कर मेरे ऊपर अनुग्रह करें ।' भगवान् ने कहा - 'पुत्री, यह ठीक । पुनः तुम्हारी आकाशगामिनी विद्या के नष्ट होने का क्या कारण है ?' मैंने कहा- 'भगवन् ! नहीं जानती हूँ ।' तब ज्ञाननेत्रों से भगवान ने देखा और उन्होंने कहा - 'पुत्री ! शोक से अभिभूत होकर सिद्धायतन कूट को लांघ दिया और इसी के शिखर पर पुष्पमाला गिर पड़ी, इस कारण तुम्हारी विद्या नष्ट हो गयी।' मैंने कहा'भगवन् ! इस लोक मात्र में उपकार करने वाली विद्या से बस हो ( अर्थात् ऐसी विद्या व्यर्थ है), व्रत प्रदान Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमी भयोj ३८७ तो भयवया पुच्छिऊण तायं संसिऊण नियमायारं तवप्पभावेण आणिऊण तावसीणमुचियमवगरणं एत्थ चेव दीवम्मि दिक्खिय म्हि भयवया। अइक्कतो कोइ कालो। अन्नया य कुसुमसामिहेयनिमित्तं गया समुद्दतीरं। दिट्ठा य तत्थ जलहिजलकल्लोलनोल्लिया मियंकलेहा विय देहप्पहाए समुज्जोवयंती तमुद्देसं फलहयदुइया कन्नय ति। एवं सोऊण, भो कुमार, वियंभिओ मे पमोओ। चितियं च मए-दोसइ मणोरहपायवस्स कुसुमग्गमो । तावसीए भणियं-तओ अहं गया तमुद्देस, विट्ठा य लायण्णसम्मावाओ 'जीवई' त्ति गम्ममाणा कन्नय त्ति । अन्भुक्खिया कमंडलुपाणिएणं, उम्मिल्लियं तोए लोयणजुयं, भणिया य सा मए-वच्छे धीरा होहि । तावसी खु अहं। तओ वाहणलभरियलोयणं पणमिया तीए । ससंभमं च उवविसिऊण खिज्जियं चित्तेणं, लक्खिओ से भावो। तओ मए चितियं-अहो से महाणुभावया; भवियवमिमीए महाकुलपसूयाए त्ति। उवणीयाइं च से फलाइं। अणिच्छमाणी वि य कराविया पाणवित्ति । नीया आसमपर्व, वंसिया कुलवइणो, पणमिओ तीए-भयवं, अहिणंदिया य भगवया। विद्याभिः, कुरु मेऽनुग्रहं व्रतप्रदानेनेति । ततो भगवता पृष्ट्वा तातं शंसित्वा निजमाचारं तपः प्रभावेण आनीय तापसीनामुचितमुपकरणमत्रैव द्वीपे दीक्षिताऽस्मि भगवता। अतिक्रान्तः कोऽपि कालः। अन्यदा च कुसुमसामिधेयनिमित्तं गता समुद्रतीरम् । दृष्टा च तत्र जलधिजलकल्लोलनोदिता (प्रेरिता) मृगाङ्कलेखेव देहप्रभया समुद्योतयन्ती तमुद्देशं फलकद्वितीया कन्यकेति। एतच्छ त्वा-भोः कुमार! विज़म्भितो मे प्रमोदः । चिन्तितं च मया दृश्यते मनोरथपादपस्य कुसुमोद्गमः। तापस्या भणितम्-ततोऽहं गता तमुद्देशम, दृष्टा च लावण्यसदभावाद त गम्यमाना कन्यकति। अभ्यक्षिता कमण्डलुपानायेन, उन्मोलिततया लोचनयूगं, भणिता च सा मया-वत्से ! धीरा भव, तापसी खल्वहम् । ततो वाष्पजलभतलोचनं प्रणता तया । ससम्भ्रमं चोपविश्य खिन्नं चित्तेन, लक्षितस्तस्या भावः। ततो मया चिन्तितम-अहो तस्या महानुभावता,भवितव्यमनया महाकुलप्रसूतयेति । उपनीतानि तस्याः फलानि । मनीच्छन्त्यपि च कारिता प्राणवृत्तिम् । नीताऽऽश्रमपदम्, दशिता कुलपतये, प्रणतस्तया भगवान्, अभिनन्दिता च भगवता। कर मेरे ऊपर अनुग्रह करो।' तब भगवान् ने पिता जी से पूछकर, अपने आचारों का उपदेश देकर तप के प्रभाव से तापसियों के उचित उपकरणों को लाकर इसी द्वीप में (मुझे) दीक्षा दे दी। कुछ समय बीत गया। एक बार फूल और समिधा के लिए समुद्रतट पर गयी। वहां पर समुद्र की लहरों से प्रेरित चन्द्रमा की रेखा के समान जिसके शरीर की प्रभा थी और जो उस स्थान को उद्योतित कर रही थी, ऐसी एक कन्या को लकड़ी के टुकड़े पर देखा। यह सुनकर, हे कुमार ! मेरा हर्ष बढ़ गया। मैंने सोचा'मनोरथरूपी वृक्ष का पुष्पोद्गम (फूलों का निकलना) दिखाई दे रहा है। तापसी ने कहा-'तब मैं उस स्थान पर गयी। मैंने उस कन्या को देखा। लावण्य के सद्भाव से जाना कि वह जीवित है और कुवारी है। कमण्डलु का पानी उस पर छिड़का। उसने नेत्रयुगल खोले और तब मैंने उससे कहा-'पुत्री ! धैर्य रखो, मैं तपस्विनी हूँ।' तब आँखों में आंसू भरकर उसने मुझे प्रणाम किया। घबड़ाहट के साथ खिन्न पिस से बैठ गयी । (मैंने) उसके भावों को देखा। तब मैंने सोचा-मोह ! इस कन्या की महानुभावता, यह किसी बड़े कुल में उत्पन्न हुई होना चाहिए । उसके लिए (म) फूल लायी। इच्छा न होते हुए भी उसे आहार कराया। (पश्चात् उसे) Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८६ [समराइयां कयं आवस्तयं, पुच्छिया य सा मए वच्छे, कुओ तुमं । तीए भणियं भयवइ, तामलित्तीओ । मए भणियं - का उण तुम, कहिं वा पट्टिय त्ति । तओ दीहदीहं नीससिय न जंपियमिमोए । तओ मए चितियं - महाकुलपसूया खु एसा; ता कहमेवमत्ताणं पयासेइ; ता कि एइणा; कुलवई पुच्छिस्सामि त्ति । अइक्कतो वासरो। कयं संझासमओचियमणुद्वाणं । गया। हं कुलवइसयासं । पणमिऊण पुच्छिओ भयवं कुलवई - भयवं, का उण एसा कन्नया, कहं वा इमं ईइसमवत्थंतरं पत्ता, कोइसो वा से विवाओ भविस्सs त्ति । तओ दाऊणमुवओगं विद्याणिऊण तवप्पहावेणं भणियं भयवया । सुण । तामलित्तीसामिणो ईसाणचंदस्स धूया खु एसा भक्तारसिणेहपराहीणयाए' इमं ईइस अवत्थंतरं पत्त त्ति । मए भणियं -- भयवं, किन्न एसा कन्नयति । भयवया भणियं -- कन्नया दव्वओ, न उण भावओ ति । मए भणियं - 'कहं विय' । भयवया भणियं-सुण T विट्ठो इमीए मयणमहूसवम्मि तीए चेव नयरीए सेयवियाहिवस्स जसवम्मणो पुतो सणंकुमारो नाम । [ मोयाविया णेण तक्कर । ते य कचि दिठि वचाविऊण बाबाइया से ताणकृतमावश्यकम्, पृष्टा च सा मया-वत्स ! कुतस्त्वम् ? तया भणितम् - भगवति ! तामलिप्तीतः । मया भणितम् - का पुनस्त्वम्, कुत्र वा प्रस्थितेति ? ततो दीर्घदीर्घ निःश्वस्य न जल्पितमनया | ततो मया चिन्तितम् - महाकुल प्रस्ता खल्वेषा, ततः कथमेवमात्मानं प्रकाशयति ? ततः किमेतेन, कुलपति प्रक्ष्यामीति । अतिक्रान्तो वासरः । कृतं सन्ध्यासमयोचितमनुष्ठानम् । गताऽहं कुलपतिसकाशम् ! प्रणम्य पृष्टो भगवान् कुलपतिः -भगवन् ! का पुनरेषा कन्यका, कथं वेदमीदृशमवस्थान्तरं प्राप्ता की दृशो वा तस्या विपाको भविष्यतीति । तता दत्त्वोपयोगं विज्ञाय तपःप्रभावेण भणितं भगवता - -शृणु तामलिप्तोस्वामिन ईशानवेन्द्रस्य दुहिता खल्वेषा भर्तृ स्नेहपराधीनतयां इदमोदृशमवस्थान्तरं प्राप्तेति । मया भणितम् भगवन् ! किन्नु एषा कन्यकेति ? भगवता भणितम् - कन्यका द्रव्यतो न पुनर्भावत इति । मया भणितम् - कथमिव ?' भगवता भणितम् - शृणु "दृष्टोऽनया मदनमधूत्सवे तस्यामेव नगर्या श्वेतविश्वाधिपस्य यशोवर्मणः पुत्रः सनत्कुमारो नाम । [मोचिता अनेन तस्कराः ते च कथञ्चिद् दृष्टि वञ्चयित्वा व्यापादितास्तस्य तातेन, आकणितं आश्रम में ले गये। कुलपति का दिखाया, उसने भगवान् को प्रणाम किया, भगवान् ने अभिनन्दन किया । आवश्यक कार्यों को किया। मैंने उससे पूछा - 'पुत्री ! तुम कहाँ से आ रही हो ?' उसने कहा- 'भगवती ! तामलिप्ती से ।' मैंने कहा – 'तुम कौन हो, कहाँ जा रही थी ?' तब लम्बी-लम्बी साँसे लेकर उसने कुछ नहीं कहा। तब मैंने सोचा - यह बड़े कुल में उत्पन्न हुई है, अतः इस प्रकार कैसे कहेगी ? अतः इससे क्या ? कुलपति से पूछूंगी। दिन बीत गया, सन्ध्याकालीन अनुष्ठानों को किया । में कुलपति के समीप गयी । प्रणाम कर भगवान् कुलपति से पूछा - 'भगवन् ! यह कन्या कौन है ? कैसे इस प्रकार की अवस्था को प्राप्त हुई है ? इसका क्या फल होगा ? तब ध्यान लगाकर तप के प्रभाव से जानकर भगवान् ने कहा- 'सुनो- यह तामलिप्ती के स्वामी ईशानचन्द्र की पुत्री है, पतिस्नेह की पराधीनता के कारण यह इस अवस्था को प्राप्त हुई है।' मैंने कहा'भगवन् ! क्या यह कन्या (कु. आरी) नहीं है ?' भगवान् ने कहा- 'कन्या द्रव्य से है, भाव से नहीं ।' मैंने कहा'कैसे ?' भगवान् ने कहा- 'सुनो उसी नगरी में इसने मदनमहोत्सव पर श्वेतविका के राजा यशोवर्मा के पुत्र सनत्कुमार को देखा। इस राजकुमार ने चोरों को छुड़ाया था । उन चोरों को राजकुमार के पिता ने ( पुत्र की) दृष्टि से ओझल कर मरवा 1. एयाए - क । २ परायत्तमाएक - Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमी भवो] मायण्णियं वयणममेण । तओ निग्गच्छिऊण तायज्जाओ कोवेणमागओ तामलित्ति । पडिपिछओ सबहमाणं ईसाणचंदेण । तओ वसंतसमए]' कोलानिमित्तं अणंगणंदणं उज्जाणं गच्छमाणो दिट्ठो इमीए, समुप्पन्नो य से तम्मि अणराओ। पडियन्नो तीए एस भत्ता मणोरहेहि न उण परिणीय त्ति। अइक्कतेसु कइवयदिणेसु जगराओ वियाणियभिभीए, जहा सो वावाइओ ति । तओ तन्नेहमोहियमणा 'अहं पि ख तम्मि चेव पिउवणे पंचत्तमवगयं पि तं पेच्छिऊण पाणे परिच्चयामि' ति चितिऊण अड्ढरत्तसमए पसुत्ते परियणे एगागिणी चेव निग्गया रायगेहाओ। ओइणा रायमगं, गहिया तक्करेहि, गेण्हिऊण आहरणयं विक्कीया बब्बरक गामिणो बयलसत्थवाहस्स हत्थे। पयट्टाविया तेण निययकलं । विवन्नं च तं जाणवत्तं, समासाइयं च इमीए इलहयं । तओ तिरत्तेण पत्ता इमं कलं' अवत्थं च । विवाओ उण, पाविऊण भत्तारं भुंजिऊण भोए परलोयसाहणेणं सफलं चेव माणुसत्तणं करिस्सइ त्ति । मए भणियं-- भयवं, किन्न वामाइओ से हिययवल्लहो। भयवया भणियं-आमं ति। वचनमनेन । ततो निर्गत्यता तार्यात् कोपेनागतो तामलिप्तीम् । प्रतीष्ट: सबहुमानमोशानचन्द्रेण । ततो वसन्तसमये] क्रीडानिमित्तमनङ्ग नन्दनमुद्यानं गच्छन् दृष्टोऽनया, समुत्पन्नश्च तस्यास्तस्मिन्न नुरागः । प्रतिपन्नश्च तया एष भर्ता मनोरथैर्न पुनः परिणीतेति । अतिक्रान्तेषु कतिपयदिनेषु जनरवाद् विज्ञातमनया, यथा स व्यापादित इति । ततः तत्स्नेहमोहितमना: 'अहमपि खलु तस्मिन्नेव पितृवने पञ्चत्वमुपगतमपि तं (भर्तारं) प्रेक्ष्य प्राणान् परित्यजाषि' इति चिन्तयित्वार्धरात्रसमये प्रसुप्ते परिजने एकाकिन्येव निर्गता राजगहात् । अवतीर्णा राजमार्गम् । गृहीता तस्करैः । गृहीत्वाऽऽभरणं विक्रीता बर्बरकुलगामिनोऽचलसार्थवाहस्य हस्ते। प्रवर्तिता तेन निजकुलम् । विपन्नं च तद् यानपात्रम् ।समासादितं चानया फलकम् । ततस्त्रिरात्रेण प्राप्तेदं कूलमवस्थां च । विपाकः पुनःप्राप्य भर्तारं भुक्त्वा भोगान् परलोकसाधनेन सफलमेव मानुषत्वं करिष्यतीति । मया भणितम्-भगवन् ! किं न व्यापावितस्तस्या वल्लभः ? भगवता भणितम्-आममिति । मया चिन्तितम्-'शोभनं दिया, इस बात को इसने सुना । तब निकलकर यह आर्य पिता के प्रति क्रुद्ध होने के कारण तामलिप्ती माया ईशानचन्द्र ने इसे बड़े आदर से रखा । अनन्तर वसन्त समय में) क्रीड़ा के लिए अनंगनन्दन उद्यान को जाते हुए इसे राजपुत्री ने देखा और इसके ऊपर उसका प्रेम हो गया। उसने अपने) मनोरथों से इसे पति मान लिया, किन्तु विवाह नहीं हुआ। कुछ दिन बीत जाने पर मनुष्यों की बातचीत से इसे मालूम पड़ गया कि वह मार डाला गया। तब उसके स्नेह से मोहित मन वाली यह राजपुत्री भी उसो श्मशान में मृत्यु को प्राप्त उस स्वामी को देख प्राणों का परित्याग करूँगी, ऐसा सोचकर आधीरात के समय, जबकि परिजन सो रहे थे, अकेले ही राजमहल से निकल गयी । जब वह राजमार्ग पर पहुँची तो उसे चोरों ने पकड़ लिया। आभूषणों को लेकर बर्बर देश के किनारे जाने वाले अचल सार्थवाह (व्यापारी) के हाथ बेच दिया। वह अपने तट (निवास) की ओर (इसे) ले गया। वह जहाज नष्ट हो गया । इसे लकड़ी का टुकड़ा मिल गया। तब तीन रात्रियों में इस तट और अवस्था को प्राप्त हुई। इसका भावी परिणाम यह होगा कि यह पुनः पति को प्राप्त कर, भोगों को भोगकर परलोक के साधन द्वारा मनुष्य भाव को सफल करेगी।' मैंने कहा-'भगवन् ! क्या उसका पति मारा नहीं गया ?' भगवान् ने कहा-'हाँ !' मैंने सोचा-'ठीक हुआ।' १. अयं कोष्ठान्तर्गतः पाठः क. पुस्तक प्रान्त भागे एव, २. चिमीए-क, ३. कूल ईदसं (ईदिसि) अवक। Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मए चितियं-'सोहणं संजाय' हि । अवकतासा रयणी। बिइयदियहम्मि य भणिया मए सा-रायपुत्ति, परिच्चय विसायं अवलंबेहि दिई ईइसो एस संसारो। एत्थ खलु सुमिणयसंपत्तितुल्लाओ रिद्धीओ, अमिलाणकुसुममिव खणमेत्तरमणीयं जोव्वणं, विज्जुविलसियं पिर्व' दिट्ठनट्ठाई सुहाई, अणिच्चा पियजणसमागम ति। तीए भणियं-भयवइ; एवमेयं; ता करेहि मे पसायं वयप्पयाणेणं । मए भणियंरायपुत्ति, अलं तव वयगहणेणं। दुन्निवारणीओ पढमजोव्वणस्थस्स पाणिणो मयणबाणपसरो। पुच्छिओ य मए दिव्वनाणसूरो तुझ वुत्ततं सव्वं चेव भयवं कुलवई। साहिओ य तेण सेयवियाहिवसुयदसणाइआ। ता मा संतप्प, भविस्सइ तुह तेण समागमो, जीवइ खु सो दीहाउओ त्ति । तओ परिओसविम्हयसणाहं अच्चंतसोहणमणाचिक्खणीयं अवत्थंतरमुवगच्छिऊण संकप्पओ असंतं पि ओयारिऊण दिन्नं मम कडयजुयलं, पणामिओ य हारलयानिमित्तं सिरोहराए हत्थो, असंपत्तीए य तस्स समागयं से चित्तं, विलिया य एसा । तओ मए भणियं-- रायपुत्ति, अल संभमेणं, उचिया ख तुमं ईइसस्स तुठ्ठिदाणस्स । ता अमं तबर वयगहणेणं ति । तओ 'जं तुमं आणवेसि' ति पडिस्सुयं सजातम्' इति । अतिक्रान्ता सा रजनो। द्वितीयदिवसे च भणिता मया सा-राजपुत्रि ! परित्यज विषादम्, अबलम्बस्व धृतिम्, ईदृश एष संसारः। अत्र खलु स्वप्नसम्पत्तितुल्या ऋद्धयः, अम्लानकुसुममिव क्षणमात्र रमणायं योवनम्, वि द्विलसितमिव दृष्टनष्टानि सुखानि, अनित्याः प्रियजनसमागमा इति । तया भणितम्-भगवति । एवमेतद्, ततः कुरु मे प्रसादं व्रतप्रदानेन । मया भणितम्-राजत्रि ! अलं तव व्रतग्रहणेन । दुनिवारणीयः प्रथमयौवनस्थस्य प्राणिनो मदनवाणप्रसरः । पृष्टश्च मया दिव्यज्ञानसूरस्तव वृत्तान्तं सर्वमेव भगवान् कुलपतिः। कथितश्च तेन श्वतविकाधिपसुतदर्शनादिकः । ततो मा सन्तप्यस्व, भविष्यति तव तेन समागमः, जीवति खलु स दोर्घायुष्क इति । ततः परितोषविस्मयसनाथमत्यन्तशोभनमनाख्येयमवस्थान्तरमुपगत्य सङ्कल्पतोऽसदपि अवताय दत्तं मह्य कटकयुगलम्, अपितश्च हारलतानिमित्तं शिरोधरायां हस्तः । असम्प्राप्त्या च तस्य समागतं तस्याश्चित्तम्, व्यलीका चैषा। ततो मया भणितम्-राजपुत्रि ! अलं सम्भ्रमेण, उचिता खलुत्वमोदृशस्य तुष्टिदानस्य । ततोऽलं तव व्रतग्रहणेनेति । ततो 'यत् त्वमाज्ञापयसि' इति प्रतिश्रुतं वह रात बीत गयी। दूसरे दिन मैंने उस राजपुत्री से कहा-'राजपुत्री ! विषाद को छोड़ो, धैर्य धारण करो, यह संसार ऐसा ही है । इस संसार में ऋद्धियाँ स्वप्न की सम्पत्ति के तुल्य होती हैं, बिना मुरझाये हुए फूल के समान यौवन क्षणभर के लिए सुन्दर है, सुख बिजली की चमक के साथ देखते ही नष्ट हो जाते हैं, प्रियजनों के समागम अनित्य हैं। उसने कहा-'भगवती ऐसा ही है, अतः व्रतप्रदान द्वारा मेरे ऊपर कृपा करो।' मैंने कहा'राजपुत्री ! तेरे व्रत ग्रहण करने से कोई लाभ नहीं है । यौवन की प्रथम अवस्था में प्राणियों के कामबाण का विस्तार रोकना बहुत कठिन है । दिव्य ज्ञान के सूर्य भगवान् कुलपति से तेरा सब वृत्तान्त मैंने पूछा है । उन्होंने श्वेतविका के राजा के पुत्रदर्शन आदि वृत्तान्त को कहा है । अतः दुःखी मत हो तेरा उसके साथ समागम होगा । वह दीर्घायु जीवित है। तब सन्तोष और विस्मय से युक्त होकर अत्यन्त सुन्दर अनिर्वचनीय अवस्था को पाकर संकल्प न होने पर भी उतारकर उसने मुझे कड़े का जोड़ा दिया और हार-लता के लिए गर्दन में हाथ डाला। उसे जब पति की प्राप्ति नहीं हुई तब उसके मन में यह बात आयी कि यह झूठी है। तब मैने कहा-'राजपुत्री! घबराओ मत, तुम इस प्रकार सन्तोष दिलाने योग्य हो । तुम्हारा व्रतग्रहण करना ठीक नहीं है। तब 'जो आप १.विलसियाई पिव-क, २. ताव- । Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमी भवो] तोए। तावसकन्नओचिएणं च विहिणा अइक्कंतो कोइ कालो । अन्नया गओ य णे भयवं कलवई धम्मभाउयदसणत्थं सिद्धपव्वयं ति। जाव इओ अईयकइवयदिण मि गंतूण एसा कुसुमसामिहेयस्स अइक्कंताए उचियवेलाए मग्गओ पुलोएमाणी अणुफुसियकवोलतललग्गवाहजललवा सेयसलिलधोयगत्ता' खीरोयमहणतक्खणुठ्ठिया वियसिरी अरइपरिगया आगया आसमपयं । तओ मए पुच्छिया-रायपुत्ति, किमेयं' ति । तोए भणियं-अज्ज मए बन्धवाणं सुमरियं । मए भणियं-- परिच्चय विसायं, जाव कुलवई आगच्छइ तओ सो बन्धवाणं नेइस्सइ ति । पडिस्सुयं तोए । जाव तओ चेव दिवसाओ आरब्म मंदायरा देवयापूयाए अणुज्जुत्ता अतिहिबहुमाणे न करेइ कुसुमोच्चयं, न पणमइ हुयासणं, आलिहइ विज्जाहरमिहुणाई, पुलोएइ सारभजुयलाइं, करेइ मणोहवस्त वि मणोरहे जोव्वणवियारे, नियभत्तारगयइत्थिाणुरायपहाणपोराणियकहासुं च उवहइ परिओसं । तओ मए चितियं-अहो से वयविसेसेण उगगयं जोधगं, जोवणेणं मओ, मएण मयणो, मयणेणं विलासा, विलासेहि सव्वहा न सुलह निव्वियारं जोव्वर्णति । अवि यतया। तापसकायोचितेन च विधिनाऽतिक्रान्तः कोऽपि कालः । अन्यदा गतश्च अस्माकं भगवान कुलपतिधर्मभ्रातृदर्शनार्थ सिद्धपर्वतमिति । यावदितोऽतीतकतिपयदिने गत्वैषा कुसुमसामिधेयाय (कसूम-काष्टसमूहाय) अतिक्रान्तायामुचितवेलायां मार्गतः पश्यन्ती अनुप्रोञ्छितकपोलतललग्नवाष्पजनलवा स्वेदमलिलधौतगात्रा क्षीरोदमथनतत्क्षणादुत्थितेव श्रीरिवारतिपरिगताऽऽगताऽऽश्रमपदम्। ततो मया पृष्टा-'राजपुत्रि! किमेतद्' इति । तया भणितम्-अद्य मया बान्धवानां स्मतम् । मया भणितम्-परित्यज विषादम्, यावत्कुलपति रागच्छति, ततः स बान्धवान्, नेष्यतोति । पतिश्रुतं तया। यावत् तत एव दिवपादारभ्य मन्दादरा देवतापू नायामनुद्युक्तऽतिथिबहुमाने न करोति कमुमोच्चयम्, न प्रणमति हुताशनम्, आलिखति विद्याधरमिथनानि, पश्यति सारसयुगलानि, करोति मनोभवस्यापि मनोरथान् यौवनविकारान्, निजभर्तृगतस्त्र्यथनुरागप्रधानपौराणिककथासू च उद्वहति परितोषम् । ततो मया चिन्तितम्-अहो अस्या वयोविशेषेणोपागतं यौवनम, योवनेन मदः, मदेन मदनः; मदनेन विलासा:, विलासैः सर्वथा न सुलभं निर्विकारं यौवनमिति । अपि चआज्ञा दें' कहकर उसने स्वीकार किया। तापस कन्या के योग्य विधि से (उसने) कुछ समय व्यतीत किया। एक बार जब हमलोग कुलपति के भाई के दर्शन के लिए सिद्ध पर्वत पर गये हुए थे तभी अब से कुछ दिन पहिले यह फन और समिधा लेने के लिए गयी । उचित समय बीत जाने पर मार्ग को देखती हुई, गाल पर लगे हुए आंसुओं की बंदों को पोंछकर, पसीने के जल से शरीर धोकर क्षीरसागर के मन्थन से उसी समय उठी हुई लक्ष्मी के समान यह (अत्यन्त स्मरण करती हुई) अरति में डूबी हुई (अरति परिगता) आश्रम भूमि में आयी। तब मैंने पूछा- राजपुत्री ! यह क्या ?' उसने कहा-'आज मुझे वान्धवों की याद आ रही है।' मैंने कहा-'विषाद छोड़ । जब कुलपति आयेंगे तब वे बन्धुओं के पास ले जायेंगे।' उसने स्वीकार किया । उसी दिन से वह देवियों की पूजा में कम अनुराग करती है, अतिथि के सत्कार में नियुक्त नहीं होती है, फूलों को नहीं तोड़ती है, अग्नि को प्रणाम नहीं करती है। विद्याधरों के जोड़े बनाती है, सारस के जोड़ों को देखती है, कामदेव के भी मनोरथरूप यौवन के विकारों को करती है, अपने पति सम्बन्धी, स्त्रियों का अनुराग जिसमें प्रधान है, ऐसी पौराणिक कथाओं में सन्तोष धारण करती है।, अनन्तर मैंने सोचा-ओह ! इसकी अवस्थाविशेष से यौवन आया, यौवन से मद माया, मद से काम आया, काम से विलास बाये, विलास से यौवन सर्वथा विकाररहित होना सुलभ नहीं है। कहा भी है 1. "गंग-ख, 2. नहस्सा-क, ३. "जुयर्म-ख, ४. उपपई Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९२ [समकहा न य अत्थि नविय होही पाएणं तिहुयणम्मि सो जीवो। जो जोवणमणुपत्तो वियाररहिओ सया होइ ॥४५०।। ___ बिइयदियहमि य नागवल्लीलयालिगियं पूयपायवमवलोइऊण तयासन्नं च सहयरिचड़यम्मकारयं रायहंसं विहुणियकरपल्लवं बाहोल्ललोयणा नीससिऊण दोहदीहं निग्गा तवोवणाओ। तओ मए चितियं न सोहणो से आगारो । ता पेच्छामि ताव कहिं एसा वच्चइ ति। जाव य गेण्हिऊण छज्जियं गया कुसुमोच्चयभूमि, तरलतारय च पयत्ता पुलोइउं। तओ मए चितियं-कि पुण एसा पुलोएइ त्ति । जाव पुलोएमाणी य गया असोयवीहियं । कयलिवणंतरिया य ठिश से अहं मग्गओ। परुणा य सा । भणियं च तीए-भयवईओ वणदेवयाओ, एसो खु सो पएसो, जहिं अज्जउत्तेण तावसि त्ति कलिऊण सविणयं पणमिय म्हि, भणिया य–भयवइ, वड्ढउ ते तवोकम्मं, अहं खु पुरिसो सेयवि गावस्थव्वओ तामलित्तीओ सोहलदीवं पयट्टो । अंतराले विवन्नं जाणवत्तं, अओ एगाई संवत्तो। ता कहेउ भयवई, को पुण इमो पएसो; कि ताव जलनिहितडं, किं वा कोइ दीवो; कहिं वा तुम्हाण न चास्ति नापि च भविष्यति प्रायेण त्रिभुवने स जीवः । यो यौवनमनुप्राप्तो विकाररहितः सदा भवति ॥४५०॥ द्वितीयदिवसे च नागवल्लोलताऽऽलिङ्गितं पूगपादपमवलोक्य तदासन्नं च सहचरोचाटुकर्मकारकं राजहंसं विधुतकरपल्लवं वाष्पार्द्रलोचना निःश्वस्य दीर्घदीर्घ तपोवनात् । ततो मया चिन्तितम्-न शोभनस्तस्या आकारः । ततः पश्यामि तावत् कुत्रैषा व्रजतीति । यावच्च गहीत्वा पुष्पकरण्डिकां गता कुसुमोच्चयभूमिम्, तरलतारकं च प्रवृत्ता द्रष्टुम् । ततो मया चिन्तितम्-- कि पुनरेषा पश्यतीति ? यावत् पश्यन्ती च गताऽशोकवीथिकाम् । कदलीवनान्तरिता च स्थिता तस्या अहं मार्गतः । प्ररुदिता च सा । भणितं च तया-भगवत्यो वनदेवता:! एष खलु स प्रदेशः, यत्र आर्यपुत्रेण तापसीति कलयित्वा सविनयं प्रणताऽस्मि, भगिता -भगवति ! वर्धतां ते तपःकर्म अहं खलु पुरुषः श्वेतविकावास्तव्यः तामलिप्तीतः सिंहलद्वीपं प्रवृत्तः । अन्तराले विपन्न यानपात्रम्, अत एकाकी संवृत्तः । ततः कथयतु भगवतो, कः पुनस्यं प्रदेशः, किं तावज्जलनिधितटम, किं वा कोऽपि तीनों लोकों में प्राय: न तो कोई जीव हुआ है, न होगा जो यौवनावस्था को प्राप्तकर सदा विकाररहित हुआ हो ॥४५०॥ दूसरे दिन पान की बेल से आलिंगत सुपारी के वृक्षों को और उसके समीप प्रिया की चाटुकारी करते हुए राजहंस को देखकर, हाथ रूपी पल्लव को हिलाकर, आँसुओं से आर्द्रलोचन वाली होकर लम्बी-लम्बी साँसें लेती हुई तपोवन से निकल गयी । तब मैंने सोचा-उसकी आकृति ठीक नहीं है । अतः देखेंगी यह कहाँ जाती है । तब वह फूल की डलिया लेकर फूलों के संग्रह के स्थान पर गयी और चंचल नेत्रों से देखने लगी। तब मैंने सोचा यह क्या देख रही है ? फिर मैंने देखा कि वह अशोक वोथी में गयी। केले के वृक्षों के बीच मैं उसके मार्ग में छिप गयी। वह रोयी। उस कहा-'भगवती वनदेवियो ! यह वह प्रदेश है जहाँ आर्यपुत्र ने मुझे तापसी मानकर प्रमाम किया था और कहा था-भगवती ! तुम्हारा तप कर्भ बढ़े, मैं श्वेतविका का निवासी पुरुष हूँ, तामलिप्ती से सिंहल देश की ओर जा रहा था। इसी बीच जहाज टूट गया, अत: अकेला हो गया । अतः भगवती कहें, यह कौन-सा प्रदेश है ? क्या यह समुद्रतट है अथवा कोई द्वीप है, अथवा तुम्हारा आश्रम कहाँ है ? मैंने घबड़हाट १. न इव-क, २. चूप रायत्र.-ख, असोयपाय-क. ३. चाडुया मारयं-1, ४. नीलिप- । Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमो भवो ] ३१३ मासमपयं ति । मए पुण ससज्झसहिययाए न दिन्नं पडिवयणं वामयाए' सहावेण उक्कडयाए मयणस्स न तिष्णं मए जंपिउं । गया थेवं भूमिभायं । काऊण धीरथं पुलोएमाणीए न उवलद्धो य पिट्ठओ । ता न याणामि, कि उप्पेक्खेमि तं दीहाउयं, आउ हिययाओ मे विणिग्गओ, आउ पलोहेइ मं अज्जउत्तवेसे कोइ अमाणुसो, आउ सच्चयं चेव अज्जउत्तो त्ति । सत्रहा जं होउ तं होउ । न सक्कुणोमि पुणो पज्जलियमयणाणला अज्जउत्तविरहदुक्खं विसहिउं । ता एयाए अइमुत्तयलयाए उम्बंधिऊण वावामि अत्ताणयं । अप्पमत्ता होज्जह सरीरे अज्जउत्तस्स साहेज्जह य एवं वृत्तंतं जणणिनिविसेसाए अयारणवच्छलाए भयवईए । अहं पुण लज्जापरा होणयाए न सक्कुणोमि आचिविखउं ति । भणिऊण मारूढा वम्मीयसीहरं', निबद्धो लयापासओ । तओ मए चितियं - नत्थि दुक्करं मयणस्स । कओ तीए गुरुदेवाणं पणामो दिन्नो पासओ सिरोहराए, पवत्ता मेल्लिउं अप्पाणयं । एत्यंतरंम्भि परित्तायह त्ति भगती गया अहं तीए पासं । अवणीओ से पासओ, भणिवा यसा-रायउत्ति, जुत्त इमं लोयंतरपट्टाए वि अगापुच्छ्गं जगणितुल्लाए य मे पओयण कहणं ति । तओ हद्धी' सव्वं चैव द्वीप:, कुत्र वा युष्माकमाश्रमपदमिति । मया पुनः ससाध्वसहृदयया न दत्तं प्रतिवचनम्, वामतया स्वभावेन उत्कटतया मदनस्य न शक्तं मया जल्पितुम् । गता स्तोकं भूमिभागम् । कृत्वा धीरतां पश्यन्त्या च नोपलब्धश्च पृष्ठतः । ततो न जानामि - किमुपेक्षे तं दीर्घायुष्कम्, अथवा हृदयान्मे विनिर्गतः, अथवा प्रलोभयति मामार्यपुत्रवेशेण कोऽप्यमानुषः, अथवा सत्यमेवार्यपुत्र इति । सर्वथा यद् भवतु तद् भवतु । न शक्नोमि पुनः प्रज्वलित मदनानला पुत्रविरहदुःखं विसोढुम् । तत एतयाऽतिमुक्तलतया उद्बध्य व्यापादयाम्यात्मानम् । अप्रमत्ता भवेः शरीरे आर्यपुत्रस्य, कथयतं चैतं वृत्तान्तं जननीनिर्विशेषाया अकारणवत्सलाया भगवत्याः । अहं पुनर्लज्जापराधीनतया न शक्तोम्याख्यातुमिति । भणित्वारूढा वल्मीकशिखरम्, निबद्धोलतापाशः । ततो मया चिन्तितम्नास्ति दुष्करं मदनस्य । कृतस्तया गुरुदेवताभ्यः प्रणामः, दत्तः पाशः शिरोधरायाम्, प्रवृत्ता क्षेप्तुमात्मानम् । अत्रान्तरे परित्रायध्वमिति भगन्तो गताऽहं तस्याः पार्श्वम् | अपनीतस्तस्याः पाशः । भणिता च सा - राजपुत्रि ! युक्तं न्विदं लोकान्तरप्रवृत्तयाऽपि अनाप्रच्छनं जननीतुल्यायाश्च से युक्त हृदय वाली होकर उत्तर नहीं दिया । स्वभाव की विपरीतता और काम की उत्कटता के कारण मैं बोल नहीं सकी। थोड़ी दूर गयी । धैर्य धारण कर मैंने देखा, किन्तु ( वह ) प्राप्त नहीं हुआ । अत: नहीं जानती हूँ, उस दीर्घायु की क्यों उपेक्षा की अथवा वह मेरे हृदय से निकल गया अथवा कोई देवता मुझे आर्यपुत्र के वेष में प्रलोभन दे रहा है, अथवा सही रूप में आर्यपुत्र ही हैं । सर्वथा जो हो सो हो, कामरूपी अग्नि से जलायी हुई आर्यपुत्र के विरह रूपी दुःख को सहने में अब समर्थ नहीं हूँ । अतः इस अतिमुक्तक लता से बाँधकर आत्म-मरण करती हूँ ! आर्यपुत्र का शरीर अप्रमादी हो, इस वृत्तान्त को माता के समान अकारण प्रेम करने वाली भगवती से कह देना । मैं लज्जा से पराधीन होने के कारण नहीं कह सकती हूँ। ऐसा कहकर वह बाँवी के ऊपर चढ़ गयी, लताओं का पाश बाँधा । तब मैंने सोचा - कामदेव के लिए (कुछ भी कार्य ) कठिन नहीं है। उसने बड़ों और देवताओं को प्रणाम किया और गर्दन में पाशा डाल लिया। अपने आपको गिराने के लिए वह तैयार हो गयी । इसी बीच 'बचाओ' ऐसा कहती हुई मैं उसके पास पहुँची। उसका पाश हटाया। उससे कहा - 'राजपुत्री, दूसरे लोक को जाते हु भी माता के तुल्य मुझसे न पूछना और प्रयोजन न कहना क्या उचित है ?' तब 'हाय ! १. वायास । २. पुणो विख, ३. सिहरनिख ४ जुतमिमं जुतमिगं ख, ५. अड्डी क Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९४ [समराइमकहा एकाए आयणियं ति लज्जावणयवयणाए जंपियं तीए-भयवइ, न तए कुप्पियन्वं; लज्जा' य मे अवरझड । तओ मए भणियं-रायउत्ति, अलं कोवासंकाए, न कोवणो तवस्सिजणो होइ। साहेहि ताट, कि तए एत्थ अउव्वो कोइ अइही दिट्ठो त्ति । तीए भणियं-सुयं चेव भयवईए। मए भणियंराय उत्ति, धीरा होहि; अमोहवयणो खु भयवं कुलवई। ता अवस्समा सन्नं ते पियं भविस्सइ । ता एहि ताव, गच्छम्ह आसमपयं । तओ 'जं भयवई आणवेइ'त्ति पडिसुयं तीए। गयाओ अम्हे आसमपयं । पेसिया य मए तुझ अण्णेसणनिमित्तं मुणिकुमारया । अप्पमत्ता य पोराणियकहाविणोएण ठिया अहं रायउत्तिसमीवे । निवेइयं च मे मुणिकुमारएहि-'न अम्हेहिं दिट्टो' त्ति। तओ अहं रायउत्तिसमौवे निउंजिय सयलपरि पण 'न अन्लो से जीविओवाओ' ति विचितिऊण एनागिणी चेव तज्झ अन्नेसणनिमित्तं इह आगय म्हि । दंसिओ य मे तुम अवस्तकज्जविणिओगदक्खाए भवि. पवाए। ता एहि, गच्छम्ह आसमपयं; जीवावेहि तं कंठगयपाणं अबंधवं कन्नयं ति। तओ मए भणियं - 'जं भयवई आणवेइ' ति। गयाइं तवोवणं। पविट्ठा पढमं चेव तावसी, मे प्रयोजनाकथनमिति । ततो हा धिक, सर्वमेव एतयाऽऽकणितमिति लज्जावनतवदनया जल्पितं तया-भगवति ! न त्वया कुपितव्यम्, लज्जा च मेऽपराध्यति । ततो मया भणितम्-राजपत्रि ! अलं कोपाशङ्कया, न कोपनः तपस्विजनो भवति। कथय तावत् किं त्वयाऽत्र अपूर्वः कोऽपि अतिथिदंष्ट इति ? तया भणितम्-श्रुतमेव भगवत्या। मया भणितम्-राजपुत्रि! धीरा भव, अमोघवचनः खलु भगवान् कुलपतिः । ततोऽवश्यमासन्नं ते प्रियं भविष्यति । तत एहि तावत, गच्छाव माश्रमपदम् । ततो 'यद् भगवती आज्ञापयति' इति प्रतिश्रुतं तया । गते आवामाश्रमपदम् । प्रेषिताश्च मया तवान्वेषणनिमित्तं मुनिकुमारकाः । अप्रमत्ता च पौराणिककथाविनोदेन स्थिताऽहं राजपुत्रोसमीपे। निवेदितं च मे मुनिकुमारकैः-'नास्माभिर्दष्टः' इति । ततोऽहं राजपुत्रीसमीपे नियुज्य सफलपरिजनं 'नाम्यस्तस्पा जीवितोपायः' इति विचिन्त्य एकाकिन्येव तवान्वेषणनिमित्तमिहागताऽस्मि । दर्शितश्च मे त्वमवश्यकार्यविनियोगदक्षया । भवितव्यतया तत एहि, गच्छाव आश्रमपदम, जीवय तां कण्ठगतप्राणामबान्धवां कन्यकामिति ।। ततो मया भणितम्-'यद् भगवत्याज्ञापयति' इति । गतौ तपोवनम् । प्रविष्टा प्रथममेव धिक्कार है, इसने सब सुन लिया, इस प्रकार लज्जा से मुख नीचा कर उसने कहा - 'भगवती! आप कुपित न हों, ममसे लज्जा (यह) अपराध करा रही है। तब मैंने कहा-'राजपूत्री ! क्रोध की अशंका मत करो, तपस्वीजन क्रोधी नहीं होते हैं । तो कहो, क्या तुमने कोई अपूर्व अतिथि देखा है ?' उस राजपुत्री ने कहा- 'भगवती ने सुन ही लिया है।' मैंने कहा-'राजपुत्री ! धीर होओ, भगवान् कुलपति अमोघ वचन वाले होते हैं । अत: अवश्य ही निकट समय में तुम्हारा प्रिय होगा। तो आओ, आश्रम की ओर चलें। तब 'जो भगवती आज्ञा दें'-ऐसा कहकर उसने स्वीकृति दी। हम दोनों माधम में गये । मैंने तुम्हें ढूढ़ने के लिए मुनिकुमार भेजे । अप्रमादी होकर पौराणिक माओं से विनोद करती हुई मैं राजपुत्री के पास रही । मुनिकुमारों ने मुझसे निवेदन किया- 'हमलोगों को नहीं दिखाई दिये ।' तब मैं राजपुत्री के साथ समस्त परिजनों को नियुक्त कर 'उसके जीने का अन्य कोई उपाय नहीं है'-ऐसा सोचकर अकेली ही तुम्हें खोजने के लिए आयी हूँ । होनहार से तुम मुझे अवश्य ही कार्य के उपयोग में दक्ष दिखाई दिये। तो आओ, हम दोनों आश्रम की ओर चलें। बान्धवों से रहित कण्ठगत प्राण वाली उस कन्या को जिलाओ। तब मैंने कहा-'भगवती की जैसी आज्ञा' । हम दोनों तपोवन गये । पहले तपस्विनी प्रविष्ट हुई, बाद में १. लज्जा मे-छ। Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम भवो ] पच्छा य मुणिकुमारयाहूओ अहय ति । उवणीयं में आसणं । द्विा य मुणालियावलयहारमुग्वहंती नलिगिदलसत्थरगया विलासवई । सा य मं ठूण विलिया' मोत्तूण सत्यरं अम्भंतरं गया। उवविट्ठो य अहयं, संपाइओ अग्यो तीए वयंसियाहि तावसकुमारियाहि । तावसीसमाएसेणं च घेतूण चलणसोयं संठवेंती उत्तरिज्जं पुलोएमाणो वलियकंधरं दिसामुहाइं समागया विलासवई । सोचिया चलणा। एत्थंरम्मि ठिओ गगणमझयारी दिणयरो, जाओ य सनिओयतप्परो मुगिजणो, उवणीयाई फणसमाइयाई फलाइं, कया पाणवित्ती। आगया य तावसी । भणियं च तीए-रायपुत्त, तएजारिसाणं' आसमपयमागयाणं कंदफलमेत्ताहाराण पाणवित्ती। वक्कलनिवसणो य तावसजणो ता कि करेउ अतिहिसकारं । तं एसा विलासवई मम जीवियाओ वि वल्लहयरा पुत्वसंपाडिया चेव विहिणा पुणो मे संपाडिय त्ति । भणिऊण वक्कलंतपिहियाणणा रोविउ पयत्ता। तओ मए भणियं-भयवहा विइयसंसारसहावा चेव तुमं; ता किमयं ति। उवणीयं च से तावसकुमारियाए सविणयं वयणतो. यणसलिलं । सोचियं तीए वयणं, वक्कलंतेणमवमज्जिऊण उठ्यिा आसणाओ। स्यमेव होममंडवे. तापसी, पश्चाच्च मुनिकुमारकाहूतोऽहमिति । उपनीतं च मे आसनम्। दृष्टा च मृणालिकावलयन हारमुद्वहन्ती नलिनीदलस्रस्तरगता विलासवती । सा च मां दृष्ट्वा व्यलीका मुक्त्वा स्रस्तरमभ्यन्तरं गता। उपविष्टश्चाहम्, सम्पादितोऽस्तिस्या वयस्याभिः तापसकमारिकाभिः । तापसीसमादेशेन च गहीत्वा चरणशौचं संस्थापयन्ती उत्तरीयं पश्यन्ती वलितकन्धरं दिङ्मुखानि समागता विलासवती। शौचितौ चरणौ। अत्रान्तरे स्थितो गगनमध्यचारी दिनकर, जातश्च स्वनियोगतत्परो मुनिजनः । उपनीतानि पनसादिकानि फलानि, कृता प्राणवृत्तिः । आगता च तापसी । भणितं... च तया-राजपत्र ! त्वत्सदशानामाश्रमपदमागतानां कन्दफलमात्राहाराणां प्राणवत्तिः, वल्कलनिवसनश्च तापसजनः, ततः किं करोत्वतिथिसत्कारम् । तदेषा विलासवती मम जीविताशि वल्लभतरा पूर्वसम्पादितैव विधिना पुनर्मया सम्पादितेति । णित्वा वल्कलान्तपिहितानना गेदितु प्रवृत्ता । ततो मया भणितम्---भगवति ! विदितसंसारस्वभावा एव त्वम्, तत: वि मेतदिति । उपनीतं च तस्य तापसकुमारिकया सविनयं वदनशोचन(शुचिकरण)सलिलम् । शोचितं (शुचिकृतं) तया वदनम्, वल्लकलान्तेनावमार्य उत्थिताऽऽसनात् स्वयमेव होममण्डपे होमकुण्डे एव मङ्गलमिति कलयित्वा प्रज्वालितो हतवहः । निजकाभरणभूषिता समर्पिता मे विलासवती । गृहीता च सा मया मुनिकुमार के द्वारा बुलाया गया मैं प्रविष्ट हुआ। मेरे लिए आसन लाया गया । कमल नाल के घेरे के हार को धारण किये हुए कमलिनी के पत्तों के बिस्तर पर बैठी हुई विलासवती दिखाई दी । वह मुझे देखकर लज्जित होकर विस्तर छोड़कर चुपचाप भीतर चली गयी । मैं बैठ गया, उसकी (राजपुत्री की) सखी तापस कुमारियों ने अर्ध्य सम्पादन किया। तापसी की आज्ञा से पैर धोने का जल लेकर दुपट्ट' को धारण कर, गर्दन मोड़कर दिशाओं की ओर देखती हुई विलासवती आयी। दोनों चरण धोये । इसी बीच सूर्य मध्याकाश में विचरण करने लगा, मुनिजन अपने अपने कार्य में लग गये । कटहल आदि फल लाये गये, (मैंने) आहार किया। तापसी आयी और उसने कहा'राजपुत्र ! आप जैसे आश्रम में आये हुए व्यक्ति कन्दफल मात्र आहार कर रहे हैं, हमलोग वल्कलधारी तापसी हैं, अत: क्या अतिथिसत्कार करें? ये विलसवती मुझे प्राणों से भी अधिक प्यारी है। मैंने इसे पहले प्राप्त की हई धे से पुनः प्राप्त करा दी है-ऐसा कहकर वल्कल से मुंह ढककर रोने लगी। अनन्तर मैंने कहा---'भगवती। संसार के स्वभाव को जानती हो, अत: यह क्या ?' तापसी के लिए तापसकुमारी विनयपूर्वक मह धोने का जल लायी। उसने मुंह धोया, वस्त्र के छोर से पोंछकर आसन से उठ गयी। स्वयं ही उसने होममण्डप में होम १.विलियविलिया-क, २. तएरिसाणं-क, ३.-हारपाण--ख,४. पबत्ता-ख, ५. उवणीय ति-, ६.-मुहं मज्जिऊण । Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ [समराइचकहा होमम्मि चेव मंगलं ति कलिय पज्जालिओ हुयवहो । निययाहरणभूसिया समप्पिया मे विलासवई । गहिया य सा मए पढम हियएणं पच्छा करयलेणं । भमियाइं मंडलाइं । पमिया भयवई । तस्समाएसेणं च गयाइं अम्हे तोवणासन्नं चेव सुंदरवणं' नाम उज्जाणं । पुण समवाओ विय उऊणं निवासो विय गंधरिद्धीए कुलहरं विय वणस्सइणं आययणं विय मयरद्धयरस । तत्थ वि य कापूररससिच्चमाणमालईगुम्मवेढियं पविट्ठाई एलालयापिणद्धं हरिचंदणगहणं। तत्थ य महुयररुयगीयसणाहं मंदमलवाणिलवसनच्चिरीओ पियंगुमंजरीओ अन्ने य अउध्वविन्भमे लोयणसुहए तरुगणे पेच्छमाणाणमइक्कतो वासरो। विरइयं पल्लवसयणिज्ज । पसुत्ताइं च अम्हे । समुप्पन्नो वीसंभो । अइक्कंता रयणी । एवमणुदियहं चिट्ठताणं अइक्कतेसु य कइवयदिणेसु उवगयाइं अम्हे कुसुमसामिहेयस्स । गहियाई मए फलाई। विलासवई पुण पवणवसपकंपियाहिं सोउमल्ललोहेण विय परामुसिज्जमाणी वणलयाहिं उभिन्नकलियानियरेहिं च रोमंचिएहि विय पुलोइज्जमाणी तरुवरेहि कुसुमगंधलोहिल्लयाए य उवरि निवडमाणेणं भमरजालेण समत्तपओयणा वि अक्खित्तहियया 'एहि गच्छामो' ति प्रथमं हृदयेन पश्चात्करतलेन । भ्रमितानि मण्डलानि । प्रणता भगवती । तत्समादेशेन च गतावावां तपोवनासन्नमेव सुन्दरवनं नामोद्यानम् । तत् पुनः समवाय इव ऋतूनां निवास इव गन्धऋद्ध्याः कुलगृहमिव वनस्पतोनामायतनमिव मकरध्वजस्य । तत्रापि च कर्पूररससिच्यमानमालतागुल्मवैष्टितं प्रविष्टौ एलालतापिनद्धं हरिचन्दनगहनम् । तत्र च मधुकररुतगोतसनाथं मन्दमलयानिलबशनत्यन्ताः प्रियङगमजरोरन्याश्चापूवविभ्रमान लोचनसूखदान तरुगणान प्रेक्षमाणयोरतिक्रान्तो वासरः । विरचितं पल्लवशयनीयम । प्रसप्तौ चावाम। समत्पन्नो विश्रम्भः । अतिक्रान्ता रजन एवमनुदिवसं तिष्ठतोरतिक्रान्तेषु च कतिपयदिवसेषु उपगतावावां कुसुमसामिधेयाय (कुसुमकाष्ठसमूहाय) । गृहीतानि मया फलानि । विलासवती पुनः पवनवशप्रकम्पिताभिः सोकुमार्यलोभेनेव परामृश्यमाना वनलताभिरुद्भिन्नकलिकानिकरैश्च रोमाञ्चितैरिव प्रलोक्यमाना तरुवरैः कुसुमगन्धलाभितया चोपरि निपतता भ्रमरजालेन समाप्तप्रयोजनाऽप्याक्षिप्तहृदया 'एहि गच्छावः' कुण्ड में ही मंगल मानकर अग्नि जलायी । अपने आभरणों से भूषित विलासवती को मुझे समर्पित किया । पहले मैंने उसे हृदय से ग्रहण किया, बाद में हाथ से । फेरे हए। भगवती को प्रणाम किया । उसकी आज्ञा से हम दोनों तपोवन के समीपवर्ती सुन्दरवन नामक उद्यान में गरे । वह उद्यान ऋतुओं का भेला था, गन्धऋद्धियों का निवास था, वनस्पतियों का कुलगृह था और कामदेव का आयतन था! कपूर के रस से सींची हुई मालती के गुच्छे से वेष्टित इलायची को लता से लिपटे तथा हरिचन्दन से सबन था वह उद्यान । उस उद्यान में भौंरों के गीतों से युक्त, मन्द मलयवायु के वश नृत्य करती हुई प्रियं गुमंजरी और अपूर्व विभ्रमवाले नेत्रों को सुख देने वाले दूसरे वृक्षों को देखते हुए दिन व्यतीत हो गया। पत्तों की शैया बनायी। हम दोनों सो गए । (हम दोनों को एक दूसरे के प्रति) विश्वास उत्पन्न हुआ। रात बीती । इस प्रकार प्रतिदिन रहते हुए कुछ दिन बीत जाने पर हम दोनों फूल और समिधा लाने के लिए गये । मैंने फल लिये । विलासवती वाय के द्वारा कैंपायी हई वन की लताओं द्वारा सुकुमारता के लोभ से स्पर्श की जा रही थी। जिनमें कलियाँ प्रकट हो आयी हैं ऐसे वृक्षों के द्वारा मानो रोमांचित होकर देख जा रही थी। भौंरों का समूह फूलों की गन्ध के लोभ से ऊपर गिर रहा था। प्रयोजन समाप्त होने पर भी आकर्षित हृदय वाली होने के कारण 'आओ चलें' ऐसा मेरे द्वारा कहे जाने पर भी फूलों के संग्रह से विरत नहीं १. वणं उज्जाणं-क, २. प्रणेय'"ग, ३. वुण-क। Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमो भयो ] ३६७ ए भणियाविन विरमर कुसुमोच्चयस्स । तओ मए चितियं- 'नयणमोहणपडपाउरणेण विप्पभेमि एवं' ति समीवसंठिएणं चैव अपेच्छमाणीए पाउओ पडो । पुलोइयं च तीए, न दिट्ठो अहं । ओ' असंभवेण गमवियप्पस्स 'हा अज्जउत्त' त्ति भणमाणी निवडिया धरणिवट्टे । तओ मए 'हा किमेयमणुचिट्ठियं' ति चितिऊण मोतूण तं पडं कुमुयालयाभिहाणाओ विहंगगण कुलहराओ घेत्तण भणिपत्तं सोविऊण निच्छिदं पुडयं तं सलिलपुण्णं करिय समागओ हुलियं । परिसिता य जलेण सिमासासिया एसा । भणियं च तीए- 'अज्जउत्त, किमेयं' ति । मए भणियं किं तयं' । तीए भणियंएहि चैव न दिट्ठो मए तुमं ति, एहि चेव दिट्ठो, ता किसेयं ति । मए भणियं - 'न याणामो' त्ति | तीए भणियं - हा कहं न याणासि । समुत्पन्नं मे सज्झसं, ता साहेहि परमत्थं ति । तओ मए 'कायराणि इथिया हिमाणि मा अन्नहा संभावइस्सइ'त्ति चितिऊण साहिओ पडरयणवत्तंतो । विन्नासिओ य तीए, उवलद्धपच्चयाए य गहिओ पडो । एवं च वड्ढमाणाणुरायाण अइक्कंतो कोइ कालो । जाया य मे चिंता । 'गच्छामो सएस' इति मया भणिताऽपि न विरमति कुसुमोच्चयात् । ततो मया चिन्तितम् -' नयनमोहनपटप्रावरणेन विप्रलम्भयामि एताम्' इति समीपस्थितेनैव अप्रेक्षमाणायां प्रावृतः पटः । प्रलोकितं च तया, न दृष्टोऽहम् । ततोऽसम्भवेन गमनविकल्पस्य ' हा आर्यपुत्र' ! इति भणन्ती निपतिता धरणीपृष्ठे । ततो मया 'हाकिमेतदनुष्ठितम्' इति चिन्तयित्वा मुक्त्वा तं पटं कुमुदालयाभिधानाद् विहंङ्गगणकुलगृहाद् (सरसः) गृहीत्वा बिसिनीपत्रं स्यूत्वा निश्छिद्रपुटकं तं सलिलपूर्ण कृत्वा समागतः शीघ्रम् । परिषिक्ता च जलेन समाश्वासितैषा । भणितं च तया- 'आर्यपुत्र ! किमेतद्' इति । मया भणितम् - किं तद् । तया भणितम् - इदानीमेव न दृष्टो मया मया त्वमिति इदानीमेव दृष्टः, ततः किमेतदिति । मया भणितम् -' न जानीमः' इति । तया भणितम् - हा कथं न जानासि ? समुत्पन्न मे साध्वसम्, ततः कथय परमार्थमिति । ततो मया 'कातराणि स्त्रीहृदयानि माऽन्यथा सम्भावयिष्यति' इति चिन्तयित्वा कथितः पटरत्नवृत्तान्तः । विन्यासितश्च तथा उपलब्धप्रत्ययया च गृहीतः पटः । 1 1 एवं च वर्धमानानुरागयोरतिक्रान्तः कोऽपि कालः । जाता च मे चिन्ता । 'गच्छाव स्वदेशम्' हो रही थी । तब मैंने सोचा 'नयनमोहन वस्त्र आवरण से इसे हरता हूँ ।' ऐसा सोचकर समीप में स्थित रहने पर भी उसको न दिखाई देते हुए वस्त्र को ढक लिया । उसने देखा किन्तु में दिखाई नहीं दिया। तब जाने का संकल्प असम्भव होने के कारण - 'हाय आर्यपुत्र !' ऐसा कहती ई धरती पर गिर पड़ी। तब 'हाय' यह क्या किया ?' ऐसा सोचकर उस वस्त्र को छोड़कर कुमुदालय नाम के पक्षियों के कुलगृह (तालाब) से जल लेकर कमलिनी के पत्तों को सीकर, बिना छेद का दोना बनाकर उसे जल से भर शीघ्र आया। जल सींचने पर यह आश्वस्त हुई । उसने कहा- 'आर्यपुत्र ! यह क्या ? ' मैंने कहा- 'वह क्या ?' उसने कहा -: अभी-अभी तुम मुझे दिखाई नहीं दिये थे, अब दिखाई पड़ गये, अत: यह क्या है ?' मैंने कहा--'नहीं जानता हूँ ।' उसने कहा - 'हाय, कैसे नहीं जानते हो ? मुझे घबराहट हो रही है अत: सही बात कहो' । तब मैंने स्त्रियों के हृदय डरपोक होते हैं, अन्यथा न समझ ले' - ऐसा सोचकर वस्त्र रत्न का वृत्तान्त कह दिया। उसने धारण किया, विश्वस्त होने पर वस्त्र को ले लिया । इस प्रकार परस्पर अनुराग बढ़ते हुए कुछ समय बीत गया। मुझे चिन्ता उत्पन्न हुई । 'हम दोनों १. तओ य संभमेणक, २. विहंगगभण- ख, ३. सलिणं पुण घेत्तूण मागओ-ख, ४ सित्ता पाणिएणंख, ५. एहिं दिट्ठो तुमं - ख । Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ [समराइचकहा साहियं विलासवईए। भणियं च तीए-अज्जउत्त, जं वो रोयइ त्ति । पुच्छिया तावसी । अणमयं तोए । कओ भिन्नपोयद्धओ। गया कइवि' दियहा। एत्थंतरम्मि समागया गालवाहियाए निज्जामया । दिट्ठा य ते मए । भणियं च तेहि-भो महापुरिस, महाकडाहवासिणा साणुदेवसत्थवाहेण मलयविसयपत्थिएणं दठण भिन्नपोयद्धयं पेसिया अम्हे । ता एहि गच्छम्ह । तओ भए भणियं-भद्दा, जायादुइओ' अहं । तेहि भणियं-न दोसो सो, सा वि पयट्टउ ति। तो आपुच्छिऊण तावसजणं अणुगम्ममाणो य तेण गओ जलनिहितडं। पणमिऊण तावसे जायादुइओ आरूढो गालवाहियं । पत्तो य जाणवत्तं बहमन्तिओ य सत्थवाहपुत्तेण । तओ मए 'इत्थियासहावओ घोरयाए महोयहिस्स पढममिलियाए विब्भमेण मा से पमाओ पडरयणम्मि भविस्सइ' त्ति चितिऊण गहियं पडरयणमप्पणा। अइक्कंता कइवि वासरा । अन्नया य जामावसेसाए रयणीए पासवणनिमित्तं उट्टिओ अहं सत्यवाहपत्तो य। एत्थंरम्मि चितियं सत्थवाहपुत्तेण-इमं ईइसं इत्थियारयणं, सव्वावराहच्छाइणी य सव्वरी; दुल्लहो य ईइसो अवसरो। ता घत्तिऊण महोयहिम्मि एवं अंगीकरेमि भयणमंजसं इत्थीरयणं ति कथितं विलासवत्यै । भणितं च तया-आर्यपुत्र ! यद् वो रोचते इति । पृष्ठा तापसी । अनुमतं तया। कृतः भिन्नपोतध्वजः । गता कत्यपि दिवसाः । अत्रान्तरे समागता लघुनौकाया निर्यामकाः। दृष्टाश्च ते मया । भणितं च तैः-भो महापुरुष ! महाकटाहवासिना सानुदेवसार्थवाहेन मलयविषयप्रस्थितेन दृष्ट्वा भिन्न पोतध्वज प्रेषिता वयम् । तत एहि, गच्छामः । ततो मया भणितम् - भद्रा ! जायाद्वितीयोऽहम् । तैर्भणितम्-न दोषः सः, साऽपि प्रवर्ततामिति । तत आपच्छ्य तापसजनमनुगम्यमानश्च तेन गतो जलनिधितटम् । प्रणम्य तापसान् जायाद्वितीय आरूढो लघुनावम् । प्राप्तश्च यानपात्रं बहुमानितश्च सार्थवाहपुत्रेण । ततो मया 'स्त्रीस्वभावतो घोरतया महोदधेः प्रथम मिलिताया विभ्रमेण मा तस्याः प्रमाव: पटरत्ने भविष्यति' इति चिन्तयित्वा गृहीतं पटरत्नमात्मना । अतिक्रान्ता: कत्यपि वासराः। अन्यदा च यामावशेषायां रजन्यां प्रस्रवणनिमित्त. मुत्थितोऽहं सार्थवाहपुत्रश्च । अत्रान्तरे चिन्तितं सार्थवाहपुत्रेण-इदमोदशं स्त्रीरत्नम, सर्वापराधच्छादनी च शर्वरी, दुर्लभश्च ईदृशोऽवसरः। ततः क्षिप्त्वा महोदधावेतमङ्गोकरोमि मदनमञ्जषां अपने देश चले' विलासवती से कहा । उसने कहा- -'आर्यपुत्र ! जैसा आपको अच्छा लगे ।' तापसी से पूछा। उसने अनुमति दे दी। टूटे हुए जहाज को बनाया। कुछ दिन बीत गये। इसी बीच छोटी नाव के चलाने वाले आये। वे मुझे दिखाई दिये। उन्होंने कहा---'हे महापुरुष ! महाकटाह द्वीप के निवासी सानुदेव नामक व्यापारी ने जो कि मलयदेश की ओर जा रहा था, टूटे जहाज को देखकर हम लोगों को भेजा। तो आओ, चलें ।' तब मैंने कहा-'भद्रो !मेरे साथ स्त्री है। उन्होंने कहा---'इसमें कोई दोष नहीं, वह भी चले। तब तापसियों से पूछकर समुद्र के तट पर आया। तापस भी साथ में आये । तापसों को प्रणाम कर पत्नी के साथ मैं छोटी-सी नाव पर सवार हो गया। जहाज पर पहुँचा। सार्थवाहपुत्र (वणिकपुत्र) ने अत्यधिक सत्कार किया । तब मैंने स्त्रीस्वभाव होने, समुद्र के भयंकर होने तथा प्रथम प्राप्ति से भ्रम होने के कारण उसका वस्त्ररत्न के विषय में प्रमाद न हो, ऐसा सोचकर वस्त्ररत्न को स्वयं ले लिया । कुछ दिन बीत गये । एक बार रात्रि के प्रहरमात्र शेष रह जाने पर मैं और वणिकपुत्र दोनों पेशाब के लिए उठे। इसी बीच सार्थवाहपुत्र वणिकपुत्र) ने सोचा यह इस प्रकार की स्त्रीरत्न है और समस्त अपराधों को ढकनेवाली रात्रि है तथा ऐसा अवसर दुर्लभ है । अतः १. कवइय-ख, २. जायादुतीमो-ख, ३. पढम मुणि याइ-ख, ४. मा से विभमेण न पडरयणं भबिस्सइ-क । Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमो भवो] संपाडेमि जहासमीहियं । हियए ववत्थाविय भणियं च तेण 'ठायसु तुम' ति । ठिओ अहं जाणवत्तणिज्जहए, पेल्लिओ य तेण निवडिओ संसारविसाले सायरे। समासाइयं च पुवभिन्नबोहित्थसंतियं फलहयं। लंघिओ जीवियसेसयाए पंचरत्तेणं जलनिहि। पत्तो मलयकूलं, उतिण्णो जलनिहोओ चितियं मए-अह किं पुण सत्थवाहपुत्तस्स मम वावायणपओयणं । नूणं विलासवइलोहो । ता मूढो खु सो वाणियओ अणभिन्नो विलासवइचित्तस्स । न खलु सा मम विओए पाणे धारेइ, विन्नायं पडयसंभमेण । विणा य तीए कि कज्जं मे निष्फलेण पाणसंधारणेणं। ता वावाए मि अत्ताणयं ति। चितिऊण निज्झाइयाओ दिसाओ, दिट्ठोय नाइदूरम्मि चेव थलसंठिओ नीवपायवो। तओ निव्वामि पिययमाविरहसंतावियं एत्थ उक्कलबंणेण अप्पाणयं ति चितिऊण पयट्टो नीवपायवसमीवं । दिट्टच नाइदूरम्मि चेव तीरतरुसंडमंडियं वियसियकमलसंघायसंछाइयमझभायं हसंतं विय कुमयगहि पलोयंतं विय कसणुप्पलविलासेहिं रुयंतं विय चक्कवायकूइएहिं गायंतं विय मुइयमहुय ररुएहि स्त्रीरत्नमिति सम्पादयामि यथासमीहितम् । हृदये व्यवस्थाप्य भणितं च तेन-'तिष्ठ त्वम' इति । स्थितोऽहं यानपात्रनियंहके, प्रेरितश्च तेन निपतितः संसारविशाले सागरे । समासादितं च पूर्वभिन्नबोहित्थसत्कं फलकम् । लङ्गितो जीवितशेषतया पञ्चरात्रेण जलनिधिः । प्राप्तो मलयालम. उत्तीर्णो जलनिधितः । चिन्तितं मया-अथ किं पुनः सार्थवाहपुत्रस्य मम व्यापादनप्रयोजनम् ? ननं विलासवतोलोभः । ततो मूढः खलु स वाणिजकोऽनभिज्ञो विलासवतीचित्तस्य । न खलु सा मम वियोगे प्राणान धारयति । विज्ञातं पटसम्भ्रमेण । विना च तया कि कार्य मे निष्फलेन प्राणसन्धारणेन । ततो व्यापादयाम्यात्मानमिति । चिन्तयित्वा निध्याता (अवलोकिता) दिशः । दटश्च नातिने एव स्थलसंस्थितो नीपपादपः । ततो निर्वापयामि प्रियतमावि रहसन्तापितमत्रोत्कलम्बनेनात्मानमिति चिन्तयित्वा प्रवृत्तो नोपपादपसमोपम् । दृष्टं च नातिदूरे एव तीरतरुषण्डमण्डितं विकसितकमलसङ्घातसञ्छादितमध्यभागं हसदिव कुमुदगणैः, विलोकयदिव कृष्णोत्पलविलासरुददिव चक्रवाककूजितैर्गायदिव मुदिमधुकररुतै त्यदिव कम्पमानवोचिहस्तैः कमल रजः इस व्यक्ति को समुद्र में फेंककर काम की मञ्जूषास्वरूप इस स्त्रीरत्न को अंगीकार कर इष्टकार्य को पूरा करूंगा।' हृदय में ऐसा निश्चय कर उसने कहा-'तुम बैठो। मैं जहाज पर बैठ गया। उसके द्वारा धक्का दिये जाने पर मैं संसार के विशाल सागर में गिर गया। मुझे पहले टूटे हुए जहाज का टुकड़ा मिल गया। आयु शेष रहने के कारण पाँच रात्रि में समुद्र पार कर लिया। मलय के तट पर आये (और) समुद्र से उतरे। मैंने सोच वणिकपत्र का मेरे मारने का क्या प्रयोजन है? निश्चित रूप से विलासवती का लोभ ही प्रयोजन हो सकता है वह वणिक मर्ख है, उसे विलासवती के चित्त की जानकारी नहीं है। मेरा वियोग हो जाने पर वह प्राण धारण नहीं कर सकेगी। वस्त्र के द्वारा अपने को छिपाकर (मैंने यह) जान लिया । उसके बिना मेरा प्राण धारण करना निष्फल है, अतः (मैं) अपने आपको मारता हूँ-ऐसा सोचकर दिशाओं की ओर देखा। समीप में ही पृथ्वी पर स्थित एक कदम का वृक्ष दिखाई दिया। प्रियतमा के विरह से दुःखी मैं अपने आपका इस वृक्ष पर फांसी लगाकर अन्त कर लूगा-ऐसा सोचकर कदम के वृक्ष के पास गया । समीप में ही बहुत बड़ा तालाब दिखाई दिया। उसका किनारा वृक्षों के समूह से मण्डित था । विकसित कमलों के समूह से उसका मध्य भाग आच्छादित था। मानो कुमुदों के समूह से वह हंस रहा था। नीलकमल के विलासों से मानो देख रहा था । चकवों की कूजन से मानो रो रहा था। प्रसन्न मन वाले भौंरों के गुनगुनाने से मानो गा रहा था। कांपती हुई लहरों रूपी हाथों से वह मानो नृत्य कर १. समीहियं ति । साहारा हियर भणियं तेण --के । २. फनयं-क, ३. वावाएमि पिययम विरहसंतावियं अप्पाणसं-ख । Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०० नच्चमाणं त्रिय हल्लंतवी इहत्थेहि कमलरयपिंजरजलं महासरं । दिट्ठो य तत्थ एक्को कलहंसो कहवि पिययमारहिओ । foresयारहिओ पुण इमेहि लिगेहि विन्नाओ ।।४५१ ।। - अवलोएइ दसदिसि एगानी तरलतारयं खिन्नो । कणं च कूजिऊणं खणमेत्त निच्चलो ठाइ || ४५२ ॥ पिययमसरिसं हंस दट्ठूणं हरिसिओ समल्लियइ । मुणिऊण य अन्नं तं नियत्तए नवर सविसायं ॥ ४५३ ॥ मरणावेसियचित्तो पज्जलियं हुयवहं व कमलवणं । पइसइ' मुणालखंड विसं व सो पेच्छए पुरओ' ||४५४|| fages taणापि कमलर उक्बुडियपंजरच्छायं । विरहाणलपज्जलि व मणहरं पेहुणकलावं ॥ ४५५ ।। मिउपवण हल्लायितलिणतरं गुच्छलंत सिसिरेहिं । सिच्चतो मुछिइ विवसो जलसीयरेहिं पि ॥ ४५६ ॥ पिञ्जरजलं महासरः । दृष्टश्च तत्रैकः कलहंसः कथमपि प्रियतमाविरहितः । प्रियदयितारहितः पुनरेभिलिङ्ग विज्ञातः ॥४५१ ।। अवलोकयति दश दिश एकाको तरलतारकं खिन्नः । करुणं च कूजित्वा क्षणमात्रं निश्चलस्तिष्ठति ॥४५२ ॥ प्रियतमासदृशी हंसीं दृष्ट्वा हृषितः समालीयते । ज्ञात्वा चान्यां तां निवर्तते नवरं सविषादम् ||४५३|| मरणाविष्टचित्तः प्रज्वलितं हुतवहमिव कमलवनम् । प्रविशति मृणालखण्डं विषमिव स प्रेक्षते पुरतः ॥। ४५४ ॥ विधुनाति पवना कम्पितकमल रजोमिश्रित पिञ्जरच्छायम् । विरहानलप्रज्वलितमित्र मनोहरं पिच्छकलापम् । ।४५५ ।। मृदुपवनप्रचालितचपलतरङ्गोच्छल च्छिशिरैः । सिच्यमानो मूर्च्छति विवशो जल सिकरैरपि ॥ ४५६ ।। रहा था और उसका जल कमल के पराग से पीला-पीला हो रहा था । उस सरोवर में एक राजहंस को प्रियतमा से रहित देखा । प्रियतमा से रहित से जाना जाता था । वह अकेला चंचल नेत्रों में खिन्न मन वाला होकर दशों दिशाओं में कूजन कर क्षणभर के लिए निश्चल होकर ठहर जाता था । प्रियतमा के समान हंसी को देखकर हर्षित समीप आ जाता था और दूसरी जानकर विषाद से युक्त हो उससे अलग हो जाता था । मरणाविष्ट चित्त-सा होकर जलती हुई अग्नि के समान कमलवन में प्रविष्ट होता था, और सामने के कमल के डण्डलों के समूह को वह विष के समान देख रहा था। वायु से कँपाये गये कमल की पराग से मिश्रित पीली कान्ति से मनोहर पंखों के समूह जो विरह की अग्नि में जल रहे हों - इस प्रकार कांप रहा था । कोमल वायु के द्वारा चलायी हुई चंचल तरंगों के उछलने से शीतल जलकणों से सींचा जाता हुआ भी विवश होकर मूर्च्छित हो जाता था ।।४५१-४५६ ।। १. कोमल, २. नवरंख, ३. निययकः । [ समराइच्चकहा था, यह उन चिह्नों देख रहा था । करुण Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०१ पंचमो भयो] वीइज्जतो य पुणो नलिणीपत्तेहिं चेयणं लहइ । दळूण नियं' छायं जलम्मि परिओसमुन्वहइ ॥४५७॥ तं पेच्छिऊण मज्झं जाया चिता कह णु एसो वि। पियविप्पओयदुहिओ विहिणा विडिज्जइ वराओ॥ ४५८ ॥ तेणेय पंडिया परिहरंति पेम्मं अहिं बिलगयं व । जाणंति जेण पियविप्पओयविसवेयमाहप्पं ॥ ४५६ ॥ इय जा चितेमि अहं ताव य कलहंसओ विहिवसेण । पत्तो परिन्भमंतो सरम्मि एक्कं सरुद्देस ॥ ४६० ॥ असणिभयविप्पणट्टा वियडं भमिऊण सरवरं तत्थ । कुवलयछायाए ठिया दिवा कलहंसिया तेण ॥ ५६१ ॥ विरहपरिदुब्बलंगी असमत्था कुइउ पि सोएण। दळूण य तं हंसो धणियं परिओसम वन्नो ॥ ४६२ ॥ वीज्यमानश्च पुनर्नलिनी पत्रैश्चेतनां लभते । दृष्ट्वा निजां छायां जले परितोषमृद्वहति ॥४५७।। तं प्रेक्ष्य मम जाता चिन्ता कथं नु एषोऽपि । प्रियविप्रयोगदुःखितो विधिना विगुप्यते (व्याकुलीक्रियते) वराकः ।। ४५८ ।। तेनैव पण्डिताः परिहरन्ति प्रेम अहिं विलगतमिव । जानन्ति येन प्रियविप्रयोगविषवेगमाहात्म्यम् ॥ ४५६ ॥ . इति यावच्चिन्तयामि अहं तावच्च कलहंसको विधिवशेन । प्राप्तः परिभ्रमन सरस्येकं शरोद्देशम ।। ४६० ॥ अशनिभयविप्रनष्टा विकटं भ्रान्त्वा सरोवरं तत्र । कुवलयच्छायायां स्थिता दृष्टा कलहंसिका तेन ॥ ४६१ ॥ विरहपरिदुर्बलाङ्गी असमर्था कृजितुमपि शोकेन। दृष्ट्वा च तां हंसो गाढं परितोषमापन्नः ॥ ४६२ ॥ पुन: कमलिनी के पत्तों के द्वारा हवा किया जाता हुआ होश में आ जाता था । जल में अपनी छाया को देखकर .. सन्तोष धारण कर लेता था। उसे देखकर मुझे चिन्ता हुई । बेचारा यह भी प्रिया के वियोग से दु:खी होकर .. कैसे विधि द्वारा व्याकुल किया जा रहा है ! जो प्रिय के वियोग रूपी विष के वेग के माहात्म्य को जानते है ही पण्डित सर्प के बिल में जाने के समान प्रेम से बचते हैं। इस प्रकार जब मैं विचार कर रहा था तब भाग्यवश कलहंस को तालाब के एक भाग में भ्रमण करते हुए हंसी प्राप्त हुई । उसने नीलकमल की छाया में स्थित बिजली की कौंध के भय से उस सरोवर में अत्यधिक घूमकर पक्षी हुई कलहंसी को देखा। वह विरह से दुर्बल अंगों वाली हो रही थी, शोक के कारण कूजन करने में भी असमर्थ थी। उसे देखकर हंस को बहुत अधिक सन्तोष हुआ।॥ ४५७-४६२ ।। १. नियय"क। Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ४०२ समराइन्धकहा वठूर्ण पियजायाघडियं कलहंसयं विहिवसेण । मझं पि सावय तओ मणम्मि चिता समुप्पन्ना ॥ ४६३ ॥ एवं जीवंताणं कालेण कयाइ होइ संपत्ती। जीवाण मयाणं पुण कत्तो दोहम्मि संसारे ॥ ४६४ ॥ पाणेसु धरतेसु य नियमा उच्छाहसत्तिममयंतो।। पावेइ फलं पुरिसो नियववसाधाणुरूवं तु ॥ ४६५ ॥ अन्नं च -विलासवईए वि साहिओ कुलबइणा विवाओ, जहा पाविऊग भत्तारं भुंजिऊण भोए परलोयसाहणेण सफलं चेव माणुसत्तणं करिस्सइ ति । ता न वावाएइ सा अत्ताणयं । विचित्ताणि य विहिणो विलसियाई । ता इमं ताव पत्तकालं, जं तीए गवेसणं ति । चितिऊण नारंगोवओरण कया पाणवित्ती। पयट्टो जलनिहितडेणं, गओ अद्धजोयणमेत्तं भूमिभागं । दिदै च वीईपणोल्लिज्जमागं समद्दतीरम्मि फलहयं । पयट्टो तस्स समीवं । पत्तं च तीरं। दिट्टा य तत्थलग्गा कंठगय पाणा विलासवई । हरिसिओ चित्तेणं, पच्चभिन्नाओ य अहं तीए । रोविउं पयत्ता, समासासिया मए दृष्ट्वा च प्रियजायाघटितं कलहंसकं विधिवशेन । ममापि श्रावक ! ततो मनसि चिन्ता समुत्पन्ना ॥ ४६३ ॥ एवं जीवतां कालेन कदाचिद् भवति सम्प्राप्तिः। जीवानां मृतानां पुनः कुतः दीर्घे संसारे ।। ४६४ ।। प्राणेष धरत्सु (विद्यमानेष) च नियमादुत्साहशक्तिममुञ्चन् । प्राप्नोति फलं पुरुषो निजव्यवसायानुरूपं तु ॥ ४६५ ॥ अन्यच्च-विलासवत्या अपि कथित: कुलपतिना विपाकः, यथा प्राप्य भर्तारं भुक्त्वा भोगान परलोकसाधनेन 'सफलमेव मानुषत्वं करि यतीति । ततो न व्यापादयति साऽऽत्मानम् । विचित्राणि च विधेविलसितानि । तत इदं तावतप्तकालं यत्तस्या गवेषणमिति । चिन्तयित्वा नारङ्गोपयोगेन कृता प्राणवृत्तिः । प्रवृत्तो जलनिधितटेन, गतोऽर्धयोजनमात्रं भूमिभागम् । दृष्टं च वोचिप्रणुद्यमानं समुद्रतीरे फलकम् । प्रवृत्तस्तस्य समीपम् । प्राप्तं च तोरम । दृष्टा च तत्रलग्ना कण्ठगताप्राणा विलासवती । हृष्टश्चित्तेन, प्रत्यभिज्ञातश्चाहं तया । रोदितं प्रवृत्ता, समाश्वासिता भाग्यवश प्रिया से मिले हुए कलहंस को देखकर, हे श्रावक! मेरे मन में भी चिन्ता उत्पन्न हई। इस प्रकार जीवित रहने पर कदाचित् मिलन हो जाय । मृत जीवों का दीर्घ संसार में पुनः मिलन कैसे हो सकता है ? प्राणों के विद्यमान रहने तथा नियम से उत्साह शक्ति को न छोड़ने पर पुरुष अपने निश्चय के अनुरूप फल को प्राप्त कर लेता है ।। ४६३-४६५ ।। और फिर कुलपति ने भी तो विलासवती से फल कहा है कि पति को प्राप्त कर, भोगों को भोगकर परलोक के साधन से मनुष्यभव को सफल करोगी । अतः वह आत्मघात नहीं करेगी। भाग्य की लीलाएँ विचित्र होती है, तो यह समय आ गया है जब कि मैं उसे ढूढू', ऐसा विचार कर नारंगी के उपयोग से आहार किया। समुद्र के किनारे गया । आधा योजन दूर गया और तरंगों से प्रेरित लकड़ी के टुकड़े को समुद्र के किनारे देखा । (मैं) उसके समीप गया। किनारे पर आया और उसमें लगी हुई कण्ठगत प्राण वाली विलासवती को देखा। मन में प्रसन्न हुआ और उसने मुझे पहिचान लिया । वह रोने लगी। मैंने उसे समझाया । देवी से पूछा-'यह कैसे Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमो भवो ] ४० ३ 1 पुच्छिया य 'देवि, किमेयं' ति । तीए भणियं - अज्जउत्त, सुण । मम मंदभागधेयाए अपुणे हिं निवडिए तुमम्मि अज्जउत्तसोएणं च अत्ताणयं समुहपवाहणुज्जए सत्यवाहे' तन्निवारणत्थं च सह मए आउलीहूए परियणे पहायाए रयणीए 'अवट्ट अवट्ट' त्ति वाहते कण्णहारे रज्जुपरिवत्तणुज्जएस निज्जामसुं अयंडम्म चेव गिरिसिहरनिवडियं पिव विवन्नं जाणवत्तं । विहडिओ जणो । अज्जउत्तअणुभावेण मम पुण्णोयएणं च समासाइयं मए फलहयं । लंघिओ जलनिही, दिट्ठो य तुमं ति । तओ मए चितियं - अहो मायासीलया अहो अकज्जसंकष्पपरिणामो सत्यवाहस्स । अहवा किमेत्य अच्छरियं । खलु अणुवायओ कज्जसिद्धी, अणुवायओ पावायरणं सुहाणं, जेण तत्थ पढमं चैव अत्तणो संकिलेसो पुणो य परपीडा । ता कहमेवंविहन्भासओ सुहपरिणामो । तहावि अविश्य सुहसाहणोवाया पयट्टति एत्य पाणिणो विप्पलद्धा मीण व्व गलसंपत्तितुल्लाए विवागदारुणाए सुहसंपत्तीए । एत्थंतरम्मि भणियं विलासवईए-अज्जउत्त, तुमं पुण कहं निवडिओ, कहं वा उत्तिष्णो ति । तओ 'न जुतं परदोसपडणं' ति चितिऊण जंपियं मए - देवि, पमायओ फेल्लुसिऊण' निवडिओ तद्द ससमासाइयमया, पृष्टा च 'देवि ! किमेतद्' इति । तया भणितम् - आर्यपुत्र ! शृणु । मम मन्दभागधेयाया अपुण्यनिपतिते वय आर्यपुत्रशोकेन चात्मानं समुद्रप्रवाहणोद्यते सार्थवाहे च तन्निवारणार्थं सह मया आकुलीभूते परिजने प्रभातायां रजन्यां 'अपवर्तय अपवर्तय' इति व्याहरति कर्णधारे रज्जुपरिवर्तनोद्यतेषु निर्यामकेषु अकाण्डे एव गिरिशिखरनिपतितमिव विपन्नं यानपात्रम् । विघटितो जनः । आर्यपुत्रानुभावेन मम पुण्योदयेन च समासादितं मया फलकम् । लङ्घितो जलनिधिः, दृष्टश्च त्वमिति । ततो मया चिन्तितम् - अहो मायाशोलता, अहो अकार्यसङ्कल्पपरिणामः सार्थवाहस्य । अथवा किमत्राश्चर्यमिति । न खल्वनुपायतः कार्यसिद्धिः, अनुपायतः पापाचरणं सुखानाम्, येन तत्र प्रथममेव आत्मनः संक्लेशः पुनश्च परपीडा । ततः कथमेवंविधाभ्यासतः शुभपरिणामः तथाप्यविदितसुखसाधनोपायाः प्रवर्तन्तेऽत्र प्राणिनो विप्रलब्धा मीना इव गलसम्प्राप्तितुल्यायां विपाकदारुणायां सुखसम्प्राप्तौ । अत्रान्तरे भणितं विलासवत्या - आर्यपुत्र ! त्वं पुनः कथं निपतितः कथं वोत्तीर्ण इति । ततो 'न युक्तं परदोषप्रकटनम्' इति चिन्तयित्वा जल्पितं मया-देवि ! प्रमादतः ( फेल्लु 1 हुआ ?' उसने कहा - 'आर्यपुत्र ! सुनो- मुझ मन्द भाग्यवाली के पापों से आपके गिर जाने पर आर्यपुत्र के शोक सं अपने को समुद्र में गिराने और वणिक् द्वारा रोकने को उद्यत होने पर परिजन आकुल हो गये। रात्रि के प्रभात रूप में परिणत होने पर 'पलटी-पलटो' इस प्रकार कर्णधार के कहने पर जब नाव चलाने वाले रस्सी परिवर्तन के लिए उद्यत हुए तब असमय में ही मानो पर्वत का शिखर गिरा हो, इस प्रकार जहाज नष्ट हो गया । मनुष्य अलगथलग पड़ गये। आर्यपुत्र के प्रभाव और पुण्योदय से मुझे एक लकड़ी का टुकड़ा मिल गया । मैंने समुद्र पार किया और तुम दिखाई दिये ।' तब मैंने सोचा - ओह, सार्थवाह की मायाशीलता और अकार्य करने के संकल्प का परिणाम आयुक्त है अथवा इसमें आश्चर्य क्या है ? बिना उपाय के कार्य की सिद्धि नहीं होती है। उपाय के न रहने पर सुखी व्यक्ति पापाचरण करते हैं जिससे प्रथम तो उन्हें स्वयं संक्लेश होता है, पुनः दूसरों को पीड़ा होती है । अत: इस प्रकार के अभ्यास से शुभ परिणाम कैसे हो सकता है ? तथापि सुख-साधनों के उपायों को न जानने वाले प्राणी धोखा दी गयी मछली के समान, गले की पकड़ के तुल्य जिसका फल भयंकर होता है ऐसे, सुख की प्राप्ति में प्रवृत्त होते हैं । इसी बीच विलासवती ने कहा- 'और तुम कैसे गिरे ? और कैसे समुद्र पार किया ?" अनन्तर दूसरे दोषों का प्रकट करना उचित नहीं है - ऐसा सोचकर मैंने कहा--' देवि ! प्रभाद से गिर पड़ा था । - १. " मंमि सत्यवाहपुत्ते य 'भम पत्ती होहि' ति भणन्ते तओ प्रणिच्छन्ती अहं" इति पाठः क — पुस्तकप्रान्तभागे एवं लिखित:, स च प्रक्षिप्त माभाति पूर्वापर संदर्भविरोधात् । 2. फेल्लिसिऊणक, फेलसिकणख । Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [समराइच्धकहां 4 पुच्च मिन्नवणफलहएणं च उत्तिण्णो म्हि। भइक्कंता काइ वेला। तीए भणियं - अज्जउत्त, तिसाभिभूय म्हि । मए भणियं-देवि, इओ नाइदूरम्मि चेष महतं सरवरं । ता एहि गच्छम्ह । पयट्टा विलासवई । समागया थेवं भूमिभागं । तओ एल्ययाए नियंबस्स खीणयाएं' समुद्दतरणेणं सोमालयाए देहस्स वीसत्थाए मम सन्निहाणेणं न सपके चंकमिउं' । तओ मए भणियं-देवि, चिट्ठाहि ताव तुमं नग्गोहपायवसमीवे, जाव संपाडेमि देचौए नलिणिपत्तणमुदयं ति । तोए भणियं - न मे तुह वयणदसणतण्हाओ बाहए सलिलतण्हा । मए मणियं-देवि, धीरा होहि; आगओ चेव अहयं ति। कयं च से पल्लवसयणिज्ज । समप्पिओ नयणमोहणो पडो । भणिया य एसा-देवि, बहुपच्चवायं अरण्णं, अओ एयपच्छाइयसरीराए चिट्ठियन्वं, जाव अहमागच्छामि त्ति । अबहुमयं पि हियएण अपडिकूलयाए पडिस्सुयं तीए । अहं गओ सरवरं। पहियमयगं नारंगफलाणि य । पयट्टो पडिवहेणं, समागओ तमुद्देसं । भणिया य एसा देवि, मुंच वयनमोहणं पश्यं, गेण्हाहि उदगं ति । जाव न वाहरइ ति, तओ मए भणियं-देवि, अलं परिहासेणं, सिऊण) सूत्वानिपतितस्तद्देशसमासादितपूर्व भिन्नवहनफलकेन चोत्तीर्णोऽस्मि । - अतिक्रान्ता काऽपि वेला । तया भणितम्- आर्यपुत्र ! तृषाऽभिभूताऽस्मि । मया भणितम्इतो नातिदूरे एव महत् सरोवरम् । तत एहि गच्छावः । प्रवृत्ता विलासवती । समागता स्तोकं ममिभागम। ततो गुरुतया नितम्बस्य क्षीणतया समुद्रतरणन सुकूमारतया देहस्य विश्वस्तया मम अन्निधानेन न शक्नोति चंक्रमितम। ततो नया भणितम-देवि ! तिष्ठ तावत्त्वं न्यग्रोधपादपसमीपे दावत सम्पादयामि देव्य नलिनीपत्रेणोदकामति । तया भणितम-~न मे तव वदनदर्शनतष्णाया बाधते सलिलतष्णा। मया भणितम्-देवि ! धीरा भव, आगट एवाहमिति । कृतं च तस्या, पल्लवशयनीयम् समर्पितो नयनमोहनो पट: । भणिता चैषा- देवि ! बहु प्रत्यवायमरण्यम्, अत एतत्प्रच्छादितशरीरया स्थातव्यम्, यावदहमागच्छामीति । अबहुम्तमपि हृदयेन अप्रतिकूलतया प्रतिश्रुतं तया । अहं गतः सरोवरम् । गृहीतमुदकं नारङ्गफलानि च । प्रवृत्तः प्रतिपथेन, समागतस्तसुद्देशम् । भणिता चैषादेवि ! मुञ्च नयनमोहनं पटम, गहाणोदकमिति । यावत व्याहरतीति,ततो मया भणितम्-देवि! अलं गिर पड़ने पर उस स्थान पर प्राप्त पहले टूटे हुए जहाज के टुव हे से समुद्र पार किया है।' र कुछ समय बीता। उसने कहा-'आर्य पुत्र! प्यास से अभिभूत हूँ।' मैंने कहा---'समीप में हो एक बड़ा जालाब है । तो आओ चलें ।' विलासवती चलने गी। थोड़ी दूर गयी । अनन्तर नितम्बों के भारी होने, समुद्र पार करने से दुबली होने, शरीर की सुकुमारता त पा मेरी समोपता के कारण चल न सकी। तब मैंने कहा'देवि ! तब तक तुम वटवृक्ष के पास बैठो जब तक मैं कमल-त्र में जल लेकर आता हूँ।' वह बोली-'तुम्हारे मुख-दर्शन की प्यास से (अधिक) जल की प्यास पीड़ा नहीं पहुंचाती।' मैंने कहा- 'देवि ! धैर्य धारण करो, मैं बस अभी आया।' उसके लिए पत्रों की शैया तैयार कर दी और नयनमोहन वस्त्र दे दिया। और उसस कहा-'देवि ! यह वन आपदाओं से भरा है इसलिए मेरे आने तक इसे शरीर पर ओढ़े रहना । न मानने पर भी हृदय की अप्रतिकूलता के कारण उसने स्वीकार कर लिया। मैं तालाब पर गया । जल और नारंगियों को लिया। लोट कर उस स्थान पर आया। इससे कहा--'देवि ! नयनमोहन वस्त्र को छोड़ो, जल ग्रहण करो।' जब वह नहीं बोली तो मैंने कहा- 'देवि ! परिहास मत करो, नयन मोहन वस्त्र को छोड़ो।' तब ९. सिमाय-क, 2. भणिय च णाए 'न सक्कुणामि चंकमिउ'-क, ३. चिट्ठ-क। Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमो भवो] मुंच नयणमोहणं पडयं । तहावि न वाहरइ । तओ मए चितियं-नणं नत्थि चेव इह देवी । अन्नहा दळूण मं कहं न अब्भु? इ, कहं वा न वाहरइ ति। तओ परामुट्ठो सत्थरो, नोवलद्धा य देवी । तओ आसंकियं मे हियएणं, फुरियं वामलोयणेणं, निवडियं च मे हत्थाओ पयत्तगहियं पि सोययं नलिणिवत्तं । विहायपराहीणो विय वुण्णवयणतरलच्छं 'देवि देवि' ति जपमाणो पवत्तो गवेसिउं । वालुयाथलीए य उवलद्धा अयगरघसणी' । वेवमाणहियओ पयट्टो तयणुसारेणं । दिट्ठो य तरुवरगहणे अइकसणदेहच्छ्वो विणितनयणविससिहाजालभासुरो नयणमोहणपडगसणवावडो महाकाओ अयगरो त्ति। तं च दळूण चितियं मए-हद्धो वावाइया देवी। तओ न जाणियं मए, कि दिवसो कि रत्ती कि उण्हं कि सीयं किं सुहं कि दुक्खं कि ऊसवो कि वसणं कि जीवियं कि मरणं किं गओ किं ठिओ त्ति; केवलमणाचिक्खणीयं अवत्थंतरं पाविऊण मुच्छानिमीलियनयणो निवडिओ धरणिव, विउत्तासवो विय ठिओ कंचि कालं। जलहिमारुयसमागमेणं च लद्धा चेयणा । चितियं मए -जाव एस अयगरो न देसंतरमवगच्छद, ताव चेव इमिणा अत्ताणयं खवावेमि । मयस्स वि बहुमओ चेव मे परिहासेन, मुञ्च नयनमोहनं पटम् । तथापि न व्याहरति । ततो मया चिन्तितम्-नूनं नास्त्येव इह देवी, अन्यथा दृष्ट्वा मां कथं नाभ्युत्तिष्ठति, कथं वा न व्याहरतोति । ततः परामष्ट: स्रस्तरः, नोपलब्धा च देवी । तत आशङ्कितं मे हृदयेन, स्फुरितं वामलोचनेन, निपतितं च मे हस्तात्प्रयत्नगृहीतमपि सोदकं नलिनीपत्रम् । विषादपराधीन इव भोतवदनतरलाक्षं 'देवि देवि' इति जल्पन् प्रवृत्तो गवेषयितुम् । वालुकास्थल्यां चोपलब्धाऽजगरघर्षणी । वेपमानहृदयः प्रवृत्तस्तदनुसारेण । दृष्टश्च तरुवरगहनेतिकृष्णदेहच्छविविनिर्यन्नयनविषशिखाज्वालाभासुरो नयनमोहनपटग्रसनव्यापतो महाकायोऽजगर इति । तं च दृष्ट्वा चिन्तितं सया-हा धिग, व्यापादिता देवी । ततो न ज्ञातं मया, किं दिवसः किं रात्रि:, किमुष्णं कि शीतम्, कि सुखं किं दुःखम्, किमुत्सवः किं व्यसनम्, कि जीवितं किं मरणम्, किं गतः किं स्थित इति । केवल सनाख्येयमवस्थान्तरं प्राप्य मर्छानिमीलितनयनो निपतितोधरणोपृष्ठे, वियुक्तासुरिव स्थितः कञ्चित्कालम् । जलधिमारुतसमागमेन च लब्धा चेतना। चिन्तितं मया-यावदेषोऽजगरोन देशान्तर नुपसर्पति तावदेवानेनात्मानं खादयामि । भी नहीं बोली। तब मैंने सोचा-निश्चित रूप से यहाँ देवी नहीं है, नहीं तो मुझे देखकर क्यों नहीं उठती है अथवा क्यों नहीं बोलती ? तब बिस्तर को खींचा, देवी नहीं मिली। उससे मेरा हृदय आशंकित हुआ, बायीं आँख फड़को, प्रयत्न से पकड़ा हुआ भी जलयुक्त कमलिनी का त्ता गिर पड़ा। विषाद से पराधीन भयभीत मुख वाला मैं चंचल नेत्रों से 'देवी ! देवी !' कहता हुआ ढढने लगा। बालू में अजगर की घिसावट मिली। जिसका हृदय काँप रहा था, ऐसा मैं उस निशान के अनुसार चल पड़ा। गहन वृक्ष पर एक अत्यन्त काले शरीर वाला, निकलते हुए नेत्रों के विष और चोटी की ज्वाला से भासुर, नयनमोहन वस्त्र को निगलने में लगा हुआ विशालकाय अजगर दिखाई दिया। उसे देखकर मैंने सोचा-हाय ! धिक्कार है, देवी मार डाली गयी । अनन्तर मुझे नहीं ज्ञात हुआ कि क्या दिन है और क्या रात्रि, क्या गर्मी हैं क्या शीत, क्या सुख है क्या दुःख, क्या उत्सव है क्या आपत्ति, क्या जीवन है और क्या मरण, क्या गत है क्या स्थित । केवल अकथनीय अवस्था को पाकर मूळ से नेत्र बन्द कर पृथ्वी पर गिर पड़ा, मानो प्राण निकल गये हों, ऐसा इस प्रकार कुछ समय तक पड़ा रहा । समुद्र की वायु के संसर्ग से चेतना प्राप्त हुई । मैंने सोचा--जब तक यह अजगर दूसरे स्थान पर नहीं खिसकता है तब तक इसे अपने आपको खिलाता हूँ। देवी का समागम मर . ...... वेहणी-क,"घसरणी-ख, २. गरुयतरुवर-ख, ३. गिलावेमि-क। . Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [समराइसकहा देवीसमागमो त्ति । गओ अयगरसमीवं । सो यमं दळूण कयावराहो विय कुपुरिसो संकुडिओ अयगरो। चितियं मए-मयस्स वि पिययमासमागमो दुल्लहो त्ति । तओ कहं अकुविओ ममं गहेऊणं एसो गसिस्सइ" ति आहो उत्तिमंगभाए अयगरो। भयकायरेणं च तेण निग्गिलिओ नयणमोहणो पडो, आबद्धा मंडली, निसामिओ फणामोओ। तओ पिययमागत्तसंगबहुमाणेण गहिओ पडो, विइण्णो वच्छत्थले । वितियं च मए--एयं चेव नयणमोहणं हियए दाऊण उक्कलंबणेण वावाएमि अत्ताणयं ति । गओ नग्गोहसमीवं, जत्थ पिययमा पसुत्ता आसि । निबद्धो पासओ, साहागएणं च निमिया सिरोहरा, विमुक्को अप्पा, निरुद्धो कंठदेसो। तओ भमियं विय काणणेहि, निवडियं विय नहंगजेणं, विणिग्गयाई, नयणाई अवसीयं सरीरये । अओ परमणाचिक्खणीयं अणणुभूयपुवं सम्मोहमणु थेववेलाए य सुमिणए विय दिट्ठो मए कमंडलपाणिएण ममं चेव गतसिंचणवावडो रिसी। समागया चेयणा ।चितियं च-हंत, धरणिगओ अहं, न विवन्नो चेव मंदपुण्णो त्ति । तओ परामुटु मे अंगमिसिणा। भणिओ य सो मए-भयवं कि तए वबसियं ति ! तेण भणियं-सुण । दिट्ठो तुम मृतस्यापि बहुमत एव मे देवोसमागम इति । गतोऽजग समोपम् । स च मां दृष्ट्वा कृतापराध इव कुपुरुषः संकुचितोऽजगरः । चिन्तितं मया- मतस्यापि प्रियतमासमागमो दुर्लभ इति । ततः 'कथमकुपितो मां गृहीत्वा प्रतिष्यति' इति आहत उत्तमाङ्गभागेऽजगरः । भयकातरेण च तेन निर्मिलितो नयनमोहनः पट:, आबद्धा मण्डली, निशामितः फणाभोगः । ततः प्रियतमागात्रसङ्गबहुमानेन गहीत: पटः, वितो? वक्षःस्थले । चिन्तितं च मया-एतमेव नयनमोहनं हृदये दत्त्वा उत्कलम्बनेन व्यापादयाम्यात्मानमिति । गतो न्यग्रोधसमोपम्, यत्र प्रियतमा प्रसुप्ताऽऽसीत् । निबद्धः पाशकः, शाखागतेन च न्यस्ता शिरोधरा, विमुक्त आत्मा, निरुद्धः कण्ठदेशः । ततः भ्रान्तमिव काननैः, निपतितमिव नभोऽङ्गणेन, विनिर्गत नयने, अवशीभूतं शरीरम् । अतः परमनाख्येयमननुभूतपूर्व सम्मोहमनुप्राप्तोऽस्मि । स्तोकवेलायां च स्वप्ने इव दृष्टो मया कमण्डलुपानीयेन ममैव गात्रसेचनव्याप्त ऋषिः । समागता चेतना, चिन्तितं च हन्त, धरणीगतोऽहम्, न विपन्न एव मन्दपुण्य इति । ततः परामृष्टं मेऽङ्गमषिणा । भणितश्च स मया-भगवन् ! कि त्वया व्यवसित. कर भी अभीष्ट है । अजगर के पास गया । वह मुझे देखकर अपराध किये हुए बुरे मनुष्य के समान संकुचित हो गया। मैंने सोचा-परकर भी प्रियतमा का समागम दुर्लभ है । बिना क्रुद्ध हुए कैसे मुझे ग्रहण करेगा ? ऐसा सोचकर अजगर के सिर पर चोट मारी। भय से दुखी होकर उसने नयनमोहन वस्त्र उगल दिया, दण्डली बाँध ली और फणों के विस्तार का संकोच कर लिया। अनन्तर प्रियतमा के शरीर की आसक्ति अभिमत होने से वस्त्र ले लिया और वक्षःस्थल पर डाल लिया। मैंने सोला-इसी नामोहन वस्त्र को हृदय से लगाकर अपने आपको फांसी लगाकर मर जाऊँ । वटवृक्ष के पास गया, जहां पर कि प्रियतमा सोयी हुई थी। रस्सियों को बाँधा, शाखा पर चढ़कर गर्दन रखी, अपने आपको छोड़ा, गला रंग गया । तब जंगल में घूमता हुआ-सा आकाशरूपी आँगन में गिरा हुआ-सा हो गया । मेरी दोनों आँखें निकल आ, शरीर वश में नहीं रहा । अतः जिसका पहले अनुभव नहीं हुमा था और जो अकथनीय थी ऐसी अवस्था का अनुभव करते हुए मूच्छित हो गया। थोड़े ही समय में स्वप्न में कमण्डलु के जल से मेरे शरीर का सिंचन रने में लगा हुआ-सा ऋषि मुझे दिखाई दिया। होश आया और (मैंने सोचा-'खेद है, मैं धरती पर हूँ, मन्द ण्य के कारण नहीं मरा। तब मेरे अंग को ऋषि ने छुआ। मैंने उनसे कहा-'भगवन् ! आपने यह क्या किया? उन्होंने कहा -'सुनो ! फूल और समिधा लाने के लिए आये १. तभो कुविएण चिय कह णामाकुविनो गसिस्सइ ति-८ । Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमो भयो] अत्तवावायणुज्जओ मए दूरदेसवत्तिणा कुसुमसामिहेयागाणं । तओ 'हा को पुण एसो सप्पुरिसनिदियं मग्गं पवज्जइ, किंवा से ववसायकारणं पच्छिऊण निवः रेमि एयं' ति चितिऊण पयट्रो तुरियतुरियं, जाव मुक्को तए अप्पा । तओ 'मा साहसं पा साहसं' ति भणमाणो तुरिययरं धाविओ पत्तो य नग्गोहसमीवं । एत्थंतरस्मि तुट्टो ते पासओ। निवडिओ धरणिवटु । तओ य सित्तो मए कमंडलपाणिएण, लद्धचेयणं मुणिऊण परामुट्ठच ते अंगं। एयं: ववसियं ति । ता आचिक्ख धम्मसील' कि पुण इमस्स ववसायस्स कारणं । तओ सविलिएणं जंपियं मए-भयवं, अलं मे ववसायकारणेणं । तेण भणियं-वच्छ, अलं ते लज्जाए। सव्वस्स जणणिभो तवस्सिजणो होइ । अमणियवत्तंतो य किमहं भणामि त्ति। ता आचिक्खउ भवं । तओ मए 'अकारणवच्छलो माणणीओ गिहिणो जइजणो त्ति चितिऊण साहिओ सेयवियानिग्गमणाइओ उक्कलबधावसाणो निययवृत्तन्तो। भणियं च तेणवच्छ, ईइसो एस संसारो । एत्थ खल सरयजलहरसमं जीवियं, कुसुमियतरुसमाओ रिद्धीओ, सुमिणओवभोयसरिसा विसयभोगा विओयावसाणाई पियजण समागमाई। ता परिच्चय इमं ववसायं ति । मिति । तेन भणितम्-शृण । दृष्टस्त्वमात्म व्यापादनो तो मया दूरदेशवतिना कुसुम-सामिधेया(काष्ठा)गतेन । ततो हा कः पुनरेष सत्पुरुषनिन्दितं मार्ग प्रपद्यते, किंवा तस्य व्यवसायकारणं पृष्ट्वा निवारयाम्येतम्' इति चिन्तयित्वा प्रवृत्तस्त्वरितत्वरितम, यावन्मुक्तस्त्वयाऽऽत्म। । ततो 'मा साहसं मा साहसं' इति भणन त्वरिततरं धावितः प्राप्तश्च न्यबोधसमीपम् । अत्रान्तरे त्रुटितस्ते पाशः । निपतितो धरणोपृष्ठे । ततश्च सिक्तो मया कमण्डलुपानीयेन । लब्धचेतनं ज्ञात्वा परामष्टं च तेऽङ्गम । एतन्मे व्यवसितमिति । तत आचक्ष्व धर्मशील ! किं पुनरस्य व्यवसायस्य कारणम् । ततः सव्यलीकेन जल्पितं मया-भगवन् ! अलं मे व्यवसाय कारणेन । तेन भणितम - वत्स ! अलं ते लज्जया, सर्वस्य जननीभूतः तपस्विजनो भवति, अज्ञातवृत्तान्तश्च किमहं भणामि इति । तत आचष्टां भवान् । ततो मया 'अकारणवत्सलो माननीयो गृहिणो यतिजन:' इति चिन्तयित्वा कथितः श्वेतविकानिर्गमनादिक उत्कलम्बनावसानो निजवत्तान्तः । भणितं व तेन वत्स ईदश एष संसारः। अत्र खलु शरज्जलधरसमं जीवितम्, कुसुमिततरुसमा ऋद्धयः, स्वप्नोपभोगसदृशा विषयभोगाः, वियोगावसानाः प्रियजनसमागमाः । ततः परित्यजेमं व्यवसायमिति । न परित्यक्तप्राणोऽपि जीवोsहुए मुझे आप दूर पर आत्मघात करने के लिए उद्यत दिखाई दिये। तब 'हाय, सत्पुरुषों के द्वारा निन्दित मार्ग को यह कौन प्राप्त हो रहा है ? इसके इस निश्चय का कारण क्या है ? ऐसा पूछकर रोकता हूँ'-ऐसा सोचकर जल्दी-जल्दी चला। तब तक तुमने अपने आपको को छोड़ दिया। तब 'बिना सोचे-समझे काम मत करो, बिना सोचे-समझे काम मत करो'-ऐसा कहते हुए शीघ्र ही दौड़कर वट वृक्ष के समीप आया । इसी बीच तुम्हारी रस्सी टूट गयी, (तुम) धरती पर गिर गये । तब मैंने कमण्डलु का जल सींचा। होश में आया जानकर तुम्हारे अंग को छुआ। यह मैंने किया। तो धर्मशील ! कहो- इस निश्चय का क्या कारण है ?' तब लज्जित होकर मैंने कहा'भगवन् ! मेरे निश्चय का कारण मत पूछो।' उन ऋषि ने कहा – 'वत्स ! लज्जा मत करो। तपस्वी जन सभी के लिए माता के समान होते हैं, वृत्तान्त न जानने पर मैं क्या कहूँ ? अत: आप बताइए।' तब मैंने 'माननीय यतिजन गृहस्थों पर अकारण प्रेम करने वाले होते हैं' - ऐसा कहकर श्वेतविका से निकलने से लेकर फांसी पर लटकने तक का वृत्तान्त बताया। उन ऋषि ने कहा-'वत्स ! यह संसार ऐसा ही है । इस संसार में जीवन शरत्कालीन मेष के समान है । ऋद्धियाँ पुष्पित वृक्ष के समान हैं, विषयभोग स्वप्न के उपभोग के समान हैं, प्रियजन के समागम का अन्त वियोग के रूप में होता है। अतः इस निश्चय को छोड़ो। प्राण देने पर भी जीव १.धम्मसीसया-क। Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०८ [समराइचकहा न परिच्चत्तपाणो वि जीवो अकाऊण कुसलसंचयं समोहियं संपावेइ ति। मए भणियं भयवं, एवमेयं; तहावि न सक्कुणोमि पिययमाविरहजलणजालावलीपरियरिओ' खणे खणे मरणाइरित्तं द्रुक्खमणुहविउं । ता अवस्सं मरणुज्जयस्स आचिक्ख भयवं, केण उण उवाएण इयाणि चेव मे लोयंतरगया वि पिययमाए संजोगो हवेज्ज त्ति । तेण भणियं-जइ एवं, ता सुण । अत्थि इहेच मलयपव्वए मणोरहापूरयं नाम सिहरं । तं च किल कामियं पडणं । ता एयमारुहिय काऊण जहोचियं पणिहाणं पाविहिसि समीहियं ति । तओ मए पणमिऊण चलणजुयलं पुच्छिओ इसी ... भयवं, कहि पुण तमुद्देसं मणोरहापूरयं ति । दंसियमणेण । पयट्टो अहयं, पत्तो तइयदियहे । आरूढो सप्पुरिसाहिमाणं व तुंगं सिहरं । ‘जम्मंतरे वि तीए समागमो हवेज्ज' ति भणिय कओ पणिही, विमुक्को अप्पा । 'अहो पमाओ' ति भणमाणेण गयणयलचारिणा धुव्वंतचीणंसुएणं वामपासनिमियासिणा संभमोवयणवियलियमुंडमालेण चंदाणुगारिणा अच्चंतसोमदंसणेण पडिच्छिओ विज्जाहरेण, नोओ सहावसीयलं चंदकंतमणिसणाहं चंदणलयाहरयं । समासासिऊण भणिओ य तेण । भो महासत्त, किं कृत्वा कुशल संचयं समीहितं सम्प्राप्नोतीति । मया भणितम्-भगवन् ! एवमेतद्, तथाऽपि न शक्नोमि प्रियतमाविरहज्वलनज्वालावलिपरिवृतः क्षणे क्षणे मरणातिरिक्तं दुःखमनुभवितुम । ततोऽवश्यं मरणोद्यतस्याचक्ष्व भगवन् ! केन पुनरुपायेन इदानीमेव मे लोकान्तरगताया अपि प्रियतमाया: संयोगो भवेदिति । तेन भणितम्-यद्येवं ततः शृणु । अस्ति इहैव मलयपर्वते मनोरथापूरकं नान शिखरम् । तच्च किल कामितं पतनम् । तत एतदारुह्य कृत्वा यथोचितं प्रणिधानं प्राप्स्यसि समोहतमिति । ततो मया प्रणम्य चरणयुगलं पृष्ट ऋषिः-भगवन् ! कुत्र पुनस्तदुद्देशं मनोरथापूरकमिति । दर्शितमनेन । प्रवृत्तोऽहम्, प्राप्तस्तृतीय दिवसे । आरूढः सत्पुरुषाभिमानमिव तुङ्ग शिखरम् । 'जन्मान्तरेऽपि तया समागमो भवेद्' इति भणित्वा कृतःप्रणिधिः, विमुक्त आत्मा। 'अहो प्रमादः' इति भणता गगनतलचारिणा धूयमानचीनांशुकेन वामपार्श्वन्यस्तासिना सम्भ्रमावपतनविचलितमुण्डमालेन चन्द्रानुकारिणाऽत्यन्तसौम्य दर्शनेन प्रतीष्टो विद्याधरेण, नीतः स्वभावशीतलं चन्द्रकान्तमणिसनाथं चन्दनलतागहम् । समाश्वास्य भणितश्च तेन-भो महासत्त्व ! कि शुभकर्मों का संचय किये बिना इष्ट को नहीं प्राप्त करता है।' मैंने कहा-'भगवन् ! यह ठीक है किन्तु प्रियतमा की विरहरूपी अग्नि की ज्वाला में घिरकर मरण के अतिरिक्त प्रतिक्षण दु:ख को सहने में समर्थ नहीं हूँ। अतः अवश्य ही मरने के लिए उद्यत मुझसे भगवान कहें कि किस उपाय से इसी समय लोकान्तर को गयी हुई भी प्रियतमा का संयोग होगा।' उन्होंने कहा- 'यदि ऐसा है तो सुनो ! इसी मलयपर्वत पर 'मनोरथापूरक' नामका शिखर है। वहीं गिरने की कामना करनी चाहिए। इस पर चढकर यथोचित समाधि लगाकर इष्ट । करोगे।' तब मैंने दोनों चरणों में प्रणाम कर ऋषि से पूछा - 'भगवन् ! वह मनोरथापूरक स्थान कहाँ है ?' उन्होंने चल पड़ा। तीसरे दिन पहँचा । सत्पुरुष के अभिमान के समान ऊँचे शिखर पर चढ़ गया। 'दसरे जन्म में भी उसके साथ समागम हो' ऐसा कहकर समाधि लगायी (और) अपने आपको छोड़ दिया। 'ओह ! प्रमाद है'-ऐसा कहकर जो आकाश में विचरण कर रहा था, जो चीनीवस्त्र को फहरा रहा था, बायीं ओर जिसने तलवार रखी थी, घबड़ाहट से उतरने से जिसकी मुण्डमाला चंचल हो उठी थी, जो चन्द्र के समान अत्यन्त सौम्य दर्शन था, ऐसे विद्याधर ने पकड़ लिया (और वह) स्वभाव से शीतल, चन्द्रकान्तमणि से युक्त चन्दनलता-गृह में १. परियमो-क, 2. तमुद्देस-क, ३. ..... माणमिवोत्तुगं-छ । Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमो भवो ] ४०६. पुण ते अणन्मसरि सागिइपिसुगियमहापुरिसभावस्स इमं ईइस इयरपुरिसागुरूवं चेट्ठियं, कि बा एत्थ कारणं; साहेहि ताव, जइ अकहणीयं न होइ । मए भणियं-कि नाम परोवयारनिरयस्स दोसवज्जिणो विइयपाणिधम्मस्स सज्जणस्सावि अकहणीयं । ता सुणउ भद्दो। पिययमाविओयवावायणुज्जयस्स साहियं मे रिसिणा इमं मणोरहावूरयं कामियं पडणं । तओ 'जम्मंतरम्मि वि पिययमाजोओ हवेज्ज त्ति काऊण पणिहाणं विमक्को अप्पा । एयं मे एत्थ कारणं ति । तओ ईसि विहसिऊण भणियं विज्जाहरेण-अहो णु खलु नत्थि दुक्करं सिणेहस्स। सिणेहो हि नाम मूलं सव्वदुक्खाणं निवासो अविवेयस्स अग्गला निव्वईए बंधवो कुगइवासस्स पडिवक्खो कुसलजोयाणं देसओ संसाराडवीए वच्छलो असच्चववसायस्स । एएण अभिभया पाणिणो न गणंति आयइं, न जोयंति कालोचियं, न सेवति धम्मं, न पेच्छंति परमत्थं, महालोहपज्जरगया विय केसरिणो समत्था वि सीयंति त्ति। सविसओ वि एस एवं पावो, किमंग पुण अविसयो। ता परिच्चय इमं अविसयसिणेहं । आलोएहि विवेयदीवालोएण निन्नासिऊण मोहतिमिरं, कहं विचित्तकम्मपरिणामवसयाण जीवाणं पडणाणुपुनस्तेऽनन्यसदृशाकृतिपिशुनितमहापुरुषभावस्य इदमीदशभितरपुरुषानुरूपं चेष्टितम्, किंवाऽत्र कारणम्, कथय तावद यद्यकथनीयं न भवति । मया भणितम्-किं नाम परोपकारनिरतस्य दोषवजिनो विदितप्राणिधर्मस्य सज्जनस्याप्यकथनीयम्। तत: शृणोतु भद्रः । प्रियतमावियोगव्यापादनोद्यतस्य कथितं मे ऋषिणा इदं मनोरयापूरकं काभित पतनम् । ततो 'जन्मान्तरेऽपि प्रियतमायोगो भवेद्' इति कृत्वा प्रणिधानं विमुक्त आत्मा। एतन्मेऽत्र कारणमिति । तत ईषद् विहस्य भणितं विद्याधरेण - अहो नु खलु नास्ति दुष्करं स्नेहस्य । स्नेहो नाम मूलं सर्वदुःखानां निवासोऽविवेकस्य अर्गला निवतेः बान्धवः कुगतिवासस्य प्रतिपक्षः कुशलयोगानां देशकः संसाराटण्या वत्सलोऽसत्यव्यवसायस्य । एतेनाभिभूताः प्राणिनो न गणयन्त्यायतिम्, न पश्यन्ति कालोचितम, न सेवन्ते धर्मम्, न प्रेक्षन्ते परमार्थम, महालोहपञ्जरगता इव केसरिणः समर्था अपि सीदन्तीति। सविषयोऽपि एष एवं पापः, किमङ्ग पुनरविषय इति । ततः परित्यजेममविषयस्नेहम् । आलोचय विवेकदीपालोकेन निश्यि मोहतिमिरम्, कथं विचित्रकर्मपरिणामवशगानां जीवानां पतनानुभावत ले गया और आश्वासन देकर बोला-'हे महाप्राण ! अन्य पुरुषों में न पायी जाने वाली आकृति के कारण जिसका महापुरुषपना सूचित हो रहा है ऐसे आपकी अन्य साधारण लोगों जैसी क्यों चेष्टा है, इसका क्या कारण है. यदि अकथनीय न हो तो कहो।' मैंने कहा-'परोपकार में रत, दोषों से रहित, प्राणियों के धर्म को न जाननेवाले सज्जनों से भी न कहने योग्य कोई बात है ? अतः भद्र ! सुनिए । प्रियतमा के वियोग के कारण (अपने आपको समाप्त करने के लिए उद्यत मुझसे ऋषि ने कहा था कि यह 'मनोरथापरक' नामक इष्ट पतन-स्थान है। अतः सरे जन्म में भी प्रियतमा का संयोग हो, ऐसा सोचकर समाधि लगाकर अपने आपको छोड़ दिया। यही मेरा कारण है।' तब कुछ हंसकर विद्याधर ने कहा-'ओह ! स्नेह के लिए कुछ भी दुष्कर नहीं है । स्नेह सभी दुःखों का मूल, अविवेक का निवास, निर्वृत्ति की आगल, कुगति बास का बन्धु, शुभयोग का विरोधी. संमारपी वम का पथप्रदर्शक, असत्य कार्य का प्रेमी है। इसके वशीभूत होकर प्राणी न तो भावीफल को गिनते हैं, न समयोचित काय को देखते हैं, न धर्म का सेवन करते है, न परमार्थ को देखते हैं। खोहे के बड़े पिंजड़े में गये हुए सिंह के समान समर्थ होते हुए भी कापते हैं (कष्ट उठाते हैं)। विषययुक्त स्नेह का यह इस प्रकार का पाप है फिर भविषय स्नेह की तो बात ही क्या है ? अतः इस विषयस्नेह को त्यागो। विवेकरूपी दीपक के प्रकाश को देखकर मोहरूपी पन्ध कार का नाश करो। अनेक प्रकार के कर्मों के परिणामवश चुत हुए जीवों की एक गति भववा एक समागम .. Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१. [समराधकहा हावओ एगा गई संगमो वा । तहाकम्मारिइभावे य कि इमिणा संरंभेण'। अहिलसियसाहगोवाओ वि य न दाणसोलतवे मोत्तूण एत्थ दिट्ठो पर मत्थपेच्छएहि ति। अन्नं साहेमि अहं पच्चयजणयं तु सव्वसत्ताणं। जं वित्तं वणियाणं अच्चंतविरुद्धयं सोम ॥४६६।। नेहेण पओसेण य भिन्नं काऊण एत्थ पणिहाणं । जह तं भज्जुपईय' निहणगयं तं निसामेहि ॥४६७॥ अस्थि इह मलयविसए कणियारसिवं नाम सन्निवेसो । तत्थ सब्भिलओ' नाम गाहावई। तस्स नामओ वि अमणुन्ना सोहा नाम भारिया। सो वुश इमीसे जीवियाओ वि इट्टयरो। ताणं चं परोप्परं विओदसणे बहु मन्नंताणमइक्तो कोइ कालो। अन्नया य आयणियं तेणं मणोहरापूरयं कामियं पडणं । जायानियओ' आगंतणं मा मम जम्मंतरम्मि वि एसा भारिया हवेज्ज'त्ति काऊण पणिहाण विमुकतो अप्पा, मओ य सो। मुणिओ य एस वुत्तंतो भारियाए । गहिया सोएणं । आगया एका गतिः समागमो वा । तथाकर्मपरिणतिभावे च किभनेन संरम्भेण । अभिलषितसाधकोपायोऽपि च न दानशीलतपांसि मुक्त्वाऽत्र दृष्टः परमार्थप्रेक्षकरिति । अन्यत्कथयाम्यहं प्रत्यपजनकंत सर्वसत्त्वानाम। यद् वृत्तं वणिजोरत्यन्तविरुद्धकं सौम्य ! ॥४६६॥ स्नेहेन प्रद्वेषेण च भिन्न कृत्वाऽत्र प्रणिधानम् । यथा तद् भार्यापत्योनिधनगतं तद् निशामय ॥४६७॥ अस्तीह मलयविषये कणिकारशिवं नाम सन्नि वे शः । तत्र सब्भिलको नाम गहपतिः । तस्य नामतोऽपि अमनोज्ञा सिंहा नाम भार्या । स पुनरस्या जोवितादपोष्टतरः । तयोश्च परस्परं वियोगदर्शने बह मन्यतोरतिक्रान्तः कोऽपि काल: । अन्यदा चारुणितं तेन मनोरथापूरकं कामितं पतनम् । जायानिर्वेदतश्चागत्य 'मा मम जन्मान्तरेऽप्येषा भार्या . वेद्' इति कृत्वा प्रणिधानं विमुक्त आत्मा, मतश्च सः । ज्ञातश्चैष वृत्तान्तो भार्यया । गृहोता शोकेन । आगतेदं पतनम् । भर्तृस्नेहतः कृतस्तया कैसे हो सकता है ? तथा कर्म की परिणति होने पर इस प्रकार के कार्य से क्या लाभ है ? यहाँ अभिलषित वस्तु का साधक उपाय परमार्थदर्शी लोगों ने दान, शील के अतिरिक्त अन्य नहीं देखा। व्यापारी की अत्यन्त विरुद्ध जो घटना हुई है-हे सौम्य ! सभी प्राणियों को विश्वास दिलाने वाली उस घटना को मैं कहता हूँ। स्नेह और द्वेष से यहाँ ध्यान लगाकर जिस प्रकार वे पति-पत्नी निधन को प्राप्त हुए, उसे सुनो ॥४६६-४६७॥ इस मलय देश में 'कर्णिकार शिव' नामक सन्निवेश है। वहाँ पर सब्भिलक नाम का गहपति था। उसकी नाम से भी असुन्दर सिंहा' नामक पत्नी थी। वह सभिलक इसके लिए प्राणों से भी अधिक प्यारा था । उन दोनों का वियोग रहते हुए कुछ समय व्यतीत हुआ । एक बार सभिलक ने 'मनोरथापूरक' स्थान के विषय में सुना । पत्नी के प्रति विरक्ति होने के कारण 'दूसरे जन्म में भी यह मेरी भार्या न हो'-ऐसा सोचकर समाधि लगाकर (उसने) अपने आपको छोड़ दिया और वह मर गया । यह वृतान्त भार्या को १. समारंभेणं-क-द्ध । २. भज्जपईयं-ब । भज्जूपईयं-7। ३. सविसप्रो-ग । सभिलमोके । ४. पायामिवेएणं Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमो भवो ] ४११ इमं पडणं । भत्तार सिणेहओ कओ तीए पणिही 'जम्मंतरम्मि विसो चेव' मे भत्ता भवेज्ज' ति । forest अपा, मया य सा । परोप्परविरोहओ य तक्केमि न संपन्ना तेसि मणोरहा । ता किं एइणा तिविरहविण अणुट्टाणेणं । कहं कया वा पिययमाए विओओ संजाओ त्ति ता आचिक्ख एयं । तओ मए 'सुंदरं भणइ' त्ति चितिऊण साहिओ अयगरवृत्तंतो । तइयदियहो य इमस्स वत्तस्स । विज्जाहरेण भणियं - केदूरे वत्तं ति । मए भणियं-- अत्थि इओ दसह जोयणेहि । विज्जाहरेण भणियं - जइ एवं ता अलं विसाएण; न विवन्ना ते पिययमा । मए भणियं कहं विय । तेण भणियं--सुण, अत्थि अणेय विज्जाहरर्नारदम उलिमणिप्पभाविसर विच्छुरियपायपीढो चक्कसेणो नाम विज्जाहरवई । पारद्धं च तेण अपडियचक्काए महाविज्जाए साहणं । दुवालसमासिया से कया पुव्वसेवा । तओ अडयालीसजोयणं' काऊण खेत्तसुद्धि सव्वसत्ताणं दाऊणमभयदाणं 'सत्तरत्तं जाव रवा इह महापयत्तेगं हिंस' त्ति निरूविऊण निवसरीरभूए विज्जाहरे पहाणसिद्धिनिमित्तं एगागी चैव गेण्हिऊण फलिहमणिवलयं पविट्टो सिद्धिनिलयाभिहाणं मलयगिरिगुहं ति । पारद्धो तेण प्रणिधिः 'जन्मान्तरेऽपि स एव मे भर्ता भवेद्' इति । विमुक्त आत्मा, मृता च सा । परस्परविरोधतश्च तर्कयामि न सम्पन्ना तयोर्मनोरथाः । ततः किमेतेन युक्तिविरहितविषयेणानुष्ठानेन । कथ कदा वा प्रियतमाया वियोगः सञ्जात इति तावर् आचक्ष्व एतद् । ततो 'सुन्दरं भणति' इति चिन्तयित्वा कथितोऽजगरवृत्तान्तः । तृतीयदिवसश्चास्य वृत्तस्य । विद्याधरेण भणितम् - कियद्दूरे वृत्तमिति । या भणितम् - अस्ततो दशभिर्योजनैः । विद्याधरेण भणितम् - यद्येवं ततोऽलं विषादेन, न विपन्ना प्रियतमा । भया भणितम् - कथमिव । तेन भणितम् - शृणु । अस्ति अनेक विद्याधरनरेन्द्र मौलिमणिप्रभाविस र विच्छुरितपादपीठश्च क्रसेनो नाम विद्याधरपतिः । प्रारब्धं च तेनाप्रतिहतचक्राया महाविद्यायाः साधनम् । द्वादशमासिकी तस्याः कृता पूर्वसेवा । ततोऽष्टचत्वारिशद्योजनां कृत्वा क्षेत्रशुद्धि सर्वसत्त्वेभ्यों दत्त्वाऽभयदानं 'सप्तरात्रं यावद् रक्षितव्येह महाप्रयत्नेन हिंसा' इति निरूप्य निजशरीरभूतान् विद्याधरान् प्रधान सिद्धिनिमित्तं एकाक्येव गृहीत्वा स्फटिकमणिवलयं प्रविष्टः सिद्धिनिलयाभिधानां मलगिरिगुहामिति । प्रारब्धस्तेन सप्तलक्षिको मन्त्रजापः । पूर्णानि च तस्य - ज्ञात हुआ । उसे शोक हुआ। वह इस गिरने के स्थान पर आयी। पति के स्नेह से इसने समाधि लगायी । 'दूसरे जन्म में भी वही मेरा पति हो' इस प्रकार उसने ( भी ) अपने आपको छोड़ दिया और मर गयी । परस्पर विरोधी होने के कारण मैं सोचता हूँ उनके मनोरथ पूरे नहीं हुए । अतः युक्ति से रहित इस प्रकार के अनुष्ठान से क्या लाभ है ? कैसे और कब प्रियतमा का वियोग हुआ ? इसे कहो । तब 'सुन्दर (ठीक) कहता हैऐसा सोचकर अजगर का वृत्तान्त कह सुनाया। इस घटना को हुए आज तीसरा दिन है ।' विद्याधर ने कहा -- 'कितनी दूर घटना हुई ?' मैंने कहा - 'यहाँ से दस योजन दूरी पर ।' विद्याधर ने कहा- 'यदि ऐसा है तो विषाद मत करो, तुम्हारी प्रियतमा मरी नहीं है'। मैंने कहा - 'कैसे ?' उसने कहा - 'सुनो, अनेक विद्याधर राजाओं के मुकुटमणि की प्रभा के विस्तार से जिसका पादपीठ ( पैर रखने का पीढ़ा ) आच्छादित है - ऐसा चक्रसेन नामक विद्याधरों का स्वामी है । उसने अप्रतिहतचक्र नामक महाविद्या का साधन किया । बारह माह पहले उसकी सेवा की । अनन्तर अड़तालीस योजन की क्षेत्र - शुद्धि कर समस्त प्राणियों को अभयदान दिया । यहाँ पर महाप्रयत्न से सात रात्रि तक हिंसा से रक्षा करना चाहिए - ऐसा विचारकर प्रधान १. जेवक । २...लीसंख । ३. नियय ... ख । Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सम इन्वहां सत्तलक्खिओ मंतजावो । पूराणि य से समं पणइमणोरहेहिं अज्जेव सत्त राइंदियाइं, भबिस्सइ य सुए सामिणो विज्जासिद्धी । अओ अवगच्छामि, एइहमेत्तखेत्तमझगया न विवन्ना ते पिययमा; जओ उज्जत्ता सामिकज्जे बिज्जाहरा। तओ मए चितियं-एवमेयं जुत्तिसंगयं च । भन्महा कहं पडरयणपाउयाए केवलपडरयणगसणं, कहं वा तक्खणोवभुत्ताए तहा मंडलिकरणं अयगरस्स त्ति । चितिऊण भणिओ विज्जाहरो-भो महापुरिस, जइ एवं, ता पुज्जंतु ते मणोरहा । आसासिओ अहं भयवया, नियत्तिओ अकुसलवयसायाओ। ता चिट्ठ तुमं, अहं पुण गच्छामि पिययमं अन्नेसिउं । विज्जाहरेण भणियं-अलं किलेसेण । अहमेव कल्लं संपाडियदेवसासणो पडिपुण्णमणोरहो' सेसविज्जाहरेहितो उपलहिऊण' जट्ठियं वृत्तंतं पिययमं ते घडिस्सामि । तओ मए 'अलंधणीयषयणो सुहि त्ति चितिऊण 'जं तुम भणति' ति बहुमन्निओ विम्जाहरो। __ अइक्कंतो वासरो। अद्धजामावसेसाए रयणोए अयंडम्मि चेव उज्जोवियं(य)नहंगणं, संखुहियजलनिहि' पयंपियमहियल' गिजंतमंगलं च समागयं सुरविमाणागारमणुगरेंतं विज्जाहरविमाणं । समं प्रणयिमनोरथैरद्य व सप्त रात्रिदिवानि, भविष्यति च श्वा स्वामिनो विद्यासिद्धिः । अतोऽवगच्छामि एतावन्मात्रक्षेत्रमध्यगता न विपन्ना ते प्रियतमा, यत उद्युक्ताः स्वामिकार्ये विद्याधराः। ततो मया चिन्तितम्-एवमेतद् युक्तिसंगतं च । अन्यथा कथं पटरत्नप्रावृतायाः केवलपट रत्नग्रसनम्, कथं या तत्क्षणोपभुक्तायां तथा मण्डलाकरणमजगरस्येति। चिन्तयित्वा भणितो विद्याधरः । भो महापुरुष! यद्य वं ततः पूयन्तां ते मनोरथाः । आश्वासितोऽहं भगवता, निवतितोऽकुशलव्यवसायात् । ततस्तिष्ठ त्वम्, अहं पुनर्गच्छामि प्रियतमामन्वेषयितुम् । विद्याधरेण भणितम्-अलं क्लेशेन । अहमेव कल्ये सम्पादितदेवशासनः प्रतिपूर्ण मनोरथः शवविद्याधरेभ्य उपलभ्य यथास्थितं वृत्तान्तं ते प्रियतमां घटयिष्यामि । ततो मया ‘अलवनीयवचनः सुहृद्' इति चिन्तयित्वा 'यत्त्वं भणसि' इति बहुमानितो विद्याधरः। अतिक्रान्तो वासरः । अर्धयामावशेषायां रजन्यामकाण्डे एवोद्योतितनभोऽङ्गणम् संभोभितजलनिधि, प्रकम्पितमहीतलम्, गीयमानमङ्गलं च समागतं सुरविमानाकारमनुकुर्वद् सिद्धि के निमित्त अपने शरीरभूत विद्याधरों को नियुक्त कर अकेले ही स्फटिकमणिवलय लेकर सिद्धिनिलय नामक मलयगिरि की गुफा में प्रविष्ट हआ। उसने सात लाख मन्त्रों का जाप प्रारम्भ किया। उ प्रिय मनोरथों से युक्त सात रात-दिन आज ही पूर्ण हुए हैं। फल स्वामी को विद्यासिद्धि होगी। अतः मैं जानता हूँ कि इतने क्षेत्र के बीच तुम्हारी प्रियतमा नहीं मरी होगी, क्योंकि स्वामी के कार्य में विद्याधर उद्यत ये।' तब मैंने सोचा-'यह (बात तो) ठीक है और युक्तिसंगत है, अन्यथा वस्त्ररत्न से ढकी हुई होने पर कैसे केवल वस्त्ररत्न को निगला, उसी क्षण यदि खा ली गयी होती तो अजगर कैसे कुण्डली बांध सकता था-ऐसा सोचकर विद्याधर से कहा- महापुरुष ! यदि ऐसा है तो मेरे मनोरथ पूर्ण हों । भगवान ने मुझे अकुशल कार्यों से रहित होने का आश्वासन दिया था, अत आप ठहरें । मैं प्रियतमा को खोजने के लिए जाता हूँ।' विद्याधर ने कहा-'कले श मत करो। मैं ही कर महाराज की आज्ञापूर्ण होने पर पूर्णमनोरथ वाला होकर शेष विद्याधरों से सही वृत्तान्त प्राप्त कर तुम्हारी प्रियतमा को मिला दूंगा'। तब मैंने-'मित्र के वचनों का उल्लंघन नहीं करना चाहिए' .-ऐसा सोचकर 'जैसा आप कहें' कहकर विद्याधर का आदर किया। दिन बीत गया। जब रात्रि का आधा प्रहर मात्र शेष रह गया था तब असमय में ही आकाशरूपी आँगन को प्रकाशित करता, समुद्र को क्षोभित करता, पथ्वी को कम्पित करता तथा मंगल गीत गाता हुआ, देवताओं । ४. सुणहि-ख । ५. संखुहिओ जलनिही-क-ग । १. परिपुण्ण-क। २. उवलभिऊण-ख। ३.......मि त्ति- ६. पयिर्य महियल-क-ग । Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमी भयो तओ' संभंतो' उढिओ विज्जाहरो। भणियं च तेण - भो भो पेक्ख पेक्ख संसिद्धमहाविज्जस्स सामिणो चक्कसेणस्स रिद्धि । पेच्छमाणाण य वोलियं चडगरेणं, पभाया रयणी, उग्गओ अंसुमाली । तो यमं घेत्तण गओ चक्कसेणसमोवं निव्वुइकरं नाम मलयसिहरं । पणमिओ तेण विज्जाहरो सरो। विइण्णाई आसणाइं । उवविट्ठा अम्हे । साहिओ तेण मदीयवृत्तंतो चक्कसेणस्स । भणियं च तेणभो महापुरिस, मा संतप्प । अज्जेव ते पिययमं घडिस्सामि त्ति । एत्थंतरम्मि समागया दुवे विज्जाहरा। पणमिओ तेहिं चक्कसेणो । भणियं च एगेण। महाराय, देवसमाएसेणेव सयलजीवोवघायपरिरक्खणनिमित्तं भमंतेहि काणाणंतराइं एगम्मि उद्देसे दिट्ठा महाकायअयगरभएण मोत्तण उत्तरीयं 'हा अजउत्त, हा अज्जउत्त'त्ति भणमाणी [उट्ठिया पल्लवसयणीयाओ] पलायमाणा इत्थिया। निवडिऊण वावत्तिभीएहि गहिया य अम्हेंहिं, उवणीया मलयसिहरं, विमुषका य पल्लवसयणिज्जे। मच्छिया विय ठिया कंचि कालं । तओ भयवेविरंगी 'हा अज्जउत्त, हा अज्जउत्त' त्ति भणमाणी उट्रिया पल्लवसयणीयाओ । भणिया य अम्हेहि-सुंदरि, अलं ते भएण; साहेहि ताव, कहिं ते अज्जविद्याधरविमानम् । ततः सम्भ्रान्त उत्थितो विद्याधरः, भणितं च तेन-भो भोः ! प्रेक्षस्व प्रेक्षस्व संसिद्धमहाविद्यस्य स्वामिनश्चक्रसेनस्य ऋद्धिम् । प्रेक्षमाणयोश्चातिक्रान्तं चटकरेण (समहेन)। प्रभाता रजनी, उद्गतोऽशुमाली । ततश्च मां गृहीत्वा गतश्चक्रसेनसमीपं निर्वतिकरं नाम मलय. शिखरम् । प्रणतस्तेन विद्याधरेश्वरः । वितीर्ण आसने । उपविष्टावावाम । कथितस्तेन मदीयवत्तान्तश्चक्रसेनाय । भणितं च तेन-भो महापुरुष ! मा सन्तप्यस्व, अद्ये व ते प्रियतमां घट यिष्यामीति । अत्रान्तरे समागतौ द्वौ विद्याधरौ । प्रणतस्ताभ्यां चक्रसेनः । णितं चैकेन--महाराज ! देवसमादेशेनैव सकलजीवोपघातपरिरक्षणनिमित्तं भ्रमद्धयां काननान्तराणि एकस्मिन्नुद्देश दृष्टा महाकायाजगरभयेन मुक्त्वोत्तरीयं 'हा आर्यपुत्र ! हा अर्यपुत्र !' इति भणन्ती (उत्थिता पल्लवशयनीयात्) पलायमाना स्त्री। निपत्य व्यापत्तिभीताभ्यां गहोता चावाभ्याम, उपनीता मलयशिखरम् । विमुक्ता च पल्लवशयनीये। मूच्छितेव स्थिता कञ्चित्कालम् । ततो भयवेपमानाङ्गी 'हा आर्यपुत्र ! हा आर्यपुत्र' ! इति भणन्ती उत्थिता पल्लवशयनीयात् । भणिता चावाभ्याम् के विमान के आकार का अनुसरण करता हुआ विद्याधर का विमान आया । तब हड़बड़ाकर विद्याधर उठ गया और उसने कहा-'हे ! हे ! महाविद्या की सिद्धि किये हुए स्वामी चक्रसेन की ऋद्धि देखो।' हम दोनों के देखतेदेखते समूह चला गया। प्रभात हुआ, सूर्य निकला । तब मुझे लेकर (विद्याधर) चक्रसेन के पास निवृति कर नामक मलयपर्वत के शिखर पर गया। उसने विद्याधरों के स्वामी चक्रसेन को प्रणाम किया। दो आसन रखी गयीं। हम दोनों बैठ गये। उस विद्याधर ने मेरा वृत्तान्त चक्रसेन से कहा । उसने कहा-'हे महापुरुष ! दुःखी मत होओ। आज ही तुम्हारी प्रिततमा को मिला दगा ।' इसी बीच दो विद्याधर आये । उन दोनों ने चक्रसेन को प्रणाम किया। एक ने कहा---'महाराज ! महाराज की आज्ञा से ही समस्त जीवों की हिंसा से रक्षा के लिए जंगल में भ्रमण करते हुए एक स्थान पर महाकाय अजगर के भय से उत्तरीय को छोड़कर 'हा आर्यपुत्र ! हा आर्यपुत्र ।' कहकर (पत्तों की शय्या से उठ) भागती हई स्त्री दिखाई दी। उतरकर मरण के भय से हम दोनों में पकड़ लिया । मलयपर्वत के शिखर पर ले आये और पत्तों की शय्या पर छोड़ दिया। कुछ समय तक मूच्छितसी रही । अनन्तर भय से जिसके अंग काँप रहे थे ऐसी वह 'हा आर्यपुत्र ! हा आर्यपुत्र !' कहती हुई पत्र-शय्या १. नास्ति ख-पुस्तके । २. ससंभंतो-क । ३. मतीय-ख । ४. अयं पाठ क-पुस्तकप्रान्तभागे । Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४ [समराइज्यां उत्तो। तीए भणियं उदयस्त सरवरं गओ त्ति । तओ गविट्ठो तत्थ अम्हेहि, न उण उवलद्धो त्ति । साउण तओ चेव दिवसाओ अरम्भ अकयपाणवित्ती 'हा अज्जउत्त हा अज्जउत्त" त्ति-परायणा चिट्ठs | एवं सोऊण देवो पमाणं त्ति । तओ मं पुलोइऊण भणियं चक्कसेणेण । भद्द, निरूवेहि ताब, कि सा भवओपियमान वत्ति । तओ विज्जाहरदुइओ गओ चंदणवणाभिरामं मलयसाणुं । दिट्ठा य सयल क्लोववेया वि वीयचंद लेहागारमणुगारेंती' कंठगयजीविया विलासवई । ऊससियं मे हियएन । समाासिया एसा कारिया विज्जाहरोवणीएणं सर्याल दिओवयारिणा दिव्वाहारेण पाणविति । साहियं चक्कसेणस्स, जहा सच्चेव मे पिययम त्ति । चक्कसेणेण भणियं - सुंदरं जायं । भद्द भण, किं ते अवरं करणिज्जं करेमि ति । मए भणियं नत्थि अओ वि अवरं करणिज्जं ति । तेण भणियं -- भद्द, देहलक्खणेहतो चेवावगच्छामि, भवियव्वं तए विज्जाहरर्नारदेण । ता गेण्हाहि एयं महापुरिसववसायमेत्तसाहणं अजिवबलं नाम महाविज्जं ति । पाएणमविग्धसाहणा एसा परिणामफलदा य । तओ मए सुमरिऊण बालभावसाहियं संवच्छरियवयणं 'माणणीया महापुरिस' त्ति सुन्दरि ! अलं ते भयेन, कथय तावत् कुत्र ते आर्यपुत्रः । तया भणितम् - उदकाय सरोवरं गत इति । ततो गवेषितस्तत्रावाभ्याम्, न पुनरुप लब्ध इति । सा पुनस्तत एवं दिवसादारभ्य अकृतप्राणवृत्तिः 'हा आर्यपुत्र ! हा आर्यपुत्र' ! इति परायणा तिष्ठति । एतछत्वा देवः प्रमाणमिति । ततो मां प्रलोक्य भणितं चत्रसेनेन - भद्र ! निरूपय तावत् किं सा भवतः प्रियतमा नवेति । ततो विद्याधरद्वितीयो गतश्चन्दनवनाभिरामं मलयसानु । दृष्टा च सकलकलोपेताऽपि द्वितीया चन्द्रलेखाकारमनुकुर्वती कण्ठगतजीविता विलासवती । उच्छ्वसितं मे हृदयेन । समाश्वासितैषा, कारिता विद्याधरोपनीतेन सकलेन्द्रियोपकारिणा दिव्याहारेण प्राणवृत्तिम् । कथितं चक्रमेनाय यथा सैव मे प्रियतमेति । चक्रसेनेन भणितम् सुन्दरं जातम् । भद्र ! भण, किं तेऽपरं करणीयं करोमीति । मया भणितम् - नास्त्यतो अपरं करणोयमिति । तेन भणितम् - भद्र ! देहलक्षणेभ्य एवावयच्छामि भवितव्यं त्वया विद्याधरनरेन्द्रेण । ततो गृहागतां महापुरुषव्यवसाय मात्र साधनामजितबलां नाम महाविद्यामिति । प्रायेणाविघ्नसाधनेषा परिणामफलदा च । ततो मया स्मृत्वा बालभावकथितं सांवत् से उठ गयी । हम दोनों ने कहा- सुन्दरी ! भय मत करो, कहो तुम्हारे आर्यपुत्र कहाँ हैं ?' उसने कहा---' पानी के लिए तालाब को गये थे ।' तब वहाँ पर हम दोनों ने ढ़ाँढ़ा किन्तु वह प्राप्त नहीं हुआ। वह स्त्री उसी दिन से भोजन न कर 'हा आर्यपुत्र ! हा आर्यपुत्र ! ऐसा कहती हुई विद्यमान है । यह सुनकर 'महाराज प्रमाण हैं।' तब मुझे देखकर चक्रसेन ने कहा- 'भद्र! देखो ! ( क्या) वह तुम्हारी प्रियतमा है अथवा नहीं ?' तब विद्याधर के साथ चन्दनवन के समान सुन्दर मलयपर्वत पर गया और समस्त कलाओं से युक्त होते हुए भी द्वितीय चन्द्रमा की रेखा का अनुसरण करने वाली, कष्ठगत प्राणवाली विलासवती को देखा । मैंने हृदय से साँस ली । यह आश्वस्त हुई । विद्याधर के द्वारा लाये हुए समस्त इन्द्रियों के उपकारी दिव्य आहार का भोजन कराया । चक्रसेन से कहा कि ' वही मेरी प्रियतमा है ।' चक्रसेन ने कहा- 'अच्छा रहा। भद्र ! कहो, तुम्हारा और क्या कार्य करूँ ?' मैंने कहा - ' इससे भी दूसरा कारने योग्य कोई कार्य नहीं है ।' उसने कहा- 'भद्र ! शरीर के लक्षणों से ही जानता हूँ कि तुम विद्याधर राजा होगे । अतः महापुरुषों के कार्यमात्र का साधन करने वाली इस अजितबाला नामक विद्या को ले लो ।' यह विद्या विघ्न न होने का साधन और परिणाम में फल देने वाली है । तब बाल्यावस्था में कहे हुए 'माननीय महापुरुष' - - इस प्रकार के ज्योतिषी के वचनों का स्मरण कर विचारकर १. वुण -- क । २. कहि गओ कहि गओ त्ति । ३. ताय ति परायणाख । ४. पलोइऊणक | ५. चन्द'''–के । Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमो भवो ] चितिऊण जंपियं 'जं तुम भणसि' ति। तओ तेण विइण्णा विज्जा, साहिओ साहणोवाओ। तओ गएसु विजाहरेसु समुप्पन्ना मे चिता। सिद्धिखेत्तमेयं,' एयाई य अहं । ता कहं पुण विणा उत्तरसाहएण एवं पसाहेमि त्ति । सुमरियं च वसुभ इणो । एत्थंतरम्मि भवियन्क्यानिओएण सूययंतो विय महाविज्जासिद्धि तावसवेसधारी समागओ वसुभई। बाहोल्ललोयणं च सगग्गयक्खरं 'अहो देवपरिणामो' त्ति जंपमाणेण आलिगिओ अहमणेण । फिमेयं ति सवियक्केण पणमिओ सो मए देवीए य। 'वयस्स चिरं जीवसु, तुमं पि अविहवा होहि ति जंपियमणेण । वसुभइ ति पच्चभिन्नाओ मए सद्देणं । संपत्तो अहमणाचिक्ख गीयं परिओसं । आवंदबाहजलारियलोयणं दिन्नं से मए पल्लवासणं। संपाडिय देवीए चलणसोयं । काराविओ पाणवित्ति, पुच्छिओ वुत्तंतं । वयस्स, कहं पुण तुम निस्थिण्णो समुइं; किं वा पावियं तए; कुओ वा संपयं ति । वर भइणा भणियं । सुण---- विवन्ने जाणवत्ते संपत्ते तहाविहे फलए तओ फलह दुइओ भवियव्वयानिओएण पंचहि सरिकवचनं 'माननीया महापुरुषाः' इति चिन्तयित्वा जल्पितं यत्त्वं भणसि' इति । ततस्तेन वितीर्णा विद्या, कथितः साधनोपायः। ततो गतेषु विद्याधरेषु समुत्पन्ना मे चिन्ता-सिद्धिक्षेत्रमेतद्, एकाको चाहम्, ततः कथं पुनविना उत्तरसाधकेनैतां प्रसाधयामोति । स्मृतं च वसुभूतेः । अत्रान्तरे भवितव्यतानियोगेन सूचयन्निव महाविद्यासिद्धि तापसवेषधारी समागतो वसुभूतिः । वाष्पार्द्रलोचनं च सगद्गदाक्षरं 'अहो दैवपरिणामः' इति जल्पताऽऽलिङ्गितोऽहमनेन-किमेतदिति सवितर्केण पणतः स मया देव्या च । 'वयस्य ! चिरं जीव, त्वमपि अविधवा भव' इति जल्पितमनेन । वसुभूतिरिति प्रत्यभिज्ञातो मया शब्देन । सम्प्राप्तोऽनाख्यानोयं परितोषम् । आनन्दवाष्पजलभृतलोचनं दत्तं तस्मै मया पल्लवासनम् । सम्पादितं देव्या चरणशौचम् । कारितः प्राणवृत्तिम् । पृष्टो वृत्तान्तम् । वयस्य ! कथं पुनस्त्वं निस्तीर्णः समुद्रम्, किं वा प्राप्तं त्वया, कुतो वा साम्प्रतमिति । वसुभूतिना भणितम्-शृणु विपन्ने यानपात्रे सम्प्राप्ते तथाविधे फलके ततः फल कद्वितीयो भवितव्यतानियोगेन पञ्चभि कहा-'जैसा आप कहें।' तब चक्रकेतु ने विद्या दी, साधन करने का उपाय बताया। विद्याधरों के चले जाने पर मुझे चिन्ता उत्पन्न हुई-यह सिद्धि का क्षेत्र है और मैं अकेला हूँ। अत: दूसरे साधक के बिना कैसे इसको सिद्ध करू ! (मैंने) वसुभूति का स्मरण किया। इस बीच होनहार से मानो महाविद्या के नियोग को ही सूचित करता हआ तापस वेषधारी वसुभति आया। आँसुओं से गीले नेत्रों वाला होकर गदगद अक्षरों में 'ओह ! भाग्य का परिणाम'-ऐसा कहते हुए उसने मेरा आलिंगन किया। यह क्या हुआ-ऐसा विचार करते हुए मैंने और देवी ने उसे प्रणाम किया। मित्र ! चिरकाल तक जिओ. तम भी सौभाग्यवती होओ''वसुभूति है'-ऐसा मैंने शब्द (आवाज) से पहिचान लिया । मैं अनिर्वचनीय सन्तोष को प्राप्त हुआ। आनन्द के मांसू बौखों में भरकर मैंने उसे पत्तों का आसन दिया। देवी ने उसके चरण धोये । भोजन कराया । बसान्त पछा। मित्र ! तम समुद्र से कैसे पार हए ? तमने क्या पाया? (अर्थात तम कहाँ ठिकाने लगे?) बाजकल कहाँ हो ?' वसुभूति ने कहा- 'सुनो जहाज के नष्ट होने पर होनहार से लकड़ी का टुकड़ा प्राप्त कर उसके साथ पांच दिनों में समुद्र पार १ सिब"-। २. फलग-क। Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१५ दिणेहि घिऊण जलनिहिं लग्गो मलवकले, दिट्टो य समुद्दतडावलोयणगएणे तावसेणं । समासासिओ तेण भपि ओप-वच्छ, तवोवणं गच्छम्ह । गओ तवोवणं । दिट्रो कुलवई, वंदिओ सबहुमाण । काराविओ य तेणाहं पाणवित्ति। पुच्छिओ पच्छा 'वच्छ, कुओ भवं' ति । साहिओ से सयलवुत्तंतो। 'ईइसो एस संसारो' ति अगुसासिओ तेणं । तो भए चितियं । वयस्सविउत्तस्स' तवोवणं चेव रमणीयं । अलमन्नहिं गएण, अलं च सुविणयसमागमविन्भमे सुयणसंगमम्मि इमिणा संसारपरिकिलेसेणं ति । चितिऊण निवेइओ कुलवइणो निययाहिप्पाओ। भणियं च तेण-वच्छ, उचियमिणं; कि तु अइरोदा कम्मपरिणई दुप्परिच्चया सिणेहतंतवो, विसमाइं इंदियाइं, अब्भत्था विसया, दुप्परिच्चओ संसारपरिकि लेसो, विसमं मुणिजणचरियं, अब्भुवगयापालणं च अणत्थसंगयं परलोए लज्जावणिज्जयं इहलोयम्मि। ता नाऊणमचियमागमत्थं तुलिऊणमप्पाणय जज्जए संसारपरि। सचाओन उण अन्नह ति। अन्नं च । नाणओ अवगच्छामि, धरइ ते पियवयस्सो पाणे, भविस्सइ ते तह संगमो। ता इमं ताव एत्थ पत्तकालं, तवस्सिजणं चेव पज्जवासमाणो कंचि कालं चिट्रस त्ति। दिनर्लङ्घित्वा जलनिधि लग्नो मलयकले, दृष्टश्च समुद्रतटावलोकनगतेन तापसेन। समाश्वासितस्तेन भणित-वत्स ! तपोवनं गच्छावः । गतो तपोवनम् । दृष्टः कुलपतिः । वन्दितः सबहूमानम् । कारितश्च तेनाहं प्राणवृत्तिम् । पृष्ट: पश्चाद् 'वत्स ! कुतो भवान्' इति । कथितस्तस्मै सकलवृत्तान्तः 'ईदृश एष संसारः' इति अनुशिष्टस्तेन । ततो मया चिन्तितम् ---वयस्यवियुक्तस्य तपोवनमेव रमणीयम् । अलमन्यत्र गतेन, अलं च स्वप्नसमागमविभ्रमे सुजनसङ्गमेऽनेन संरपरिक्लेशेनेति । चिन्तयित्वा निवेदितः कुपतये निजाभिप्रायः । भणितं च तेन-वत्स ! उचितमिदम् ; किन्तु अतिरौद्रा कर्मपरिणतिः, दुष्परित्यजाः स्नेहतन्तवः, विषमाणीन्द्रियाणि, अभ्यस्ता विषयाः, दुष्परित्यजः संसारपरि क्लेशः, विषम मुनिजनचरितम्; अभ्युपगतापालनं चानर्थसङ्गतं परलोके लज्जनीयमिहलोके । ततो ज्ञात्वोचितागमार्थं तोल यित्वाऽऽत्मानं युज्यते संसारपरिक्लेशत्यागो न पुनरन्यथेति; अन्यच्च ज्ञानतोऽवगच्छामि, धरति ते प्रियवयस्य: प्राणान्, भविष्यति तेन तव सङ्गमः । तत इदं तावदत्र प्राप्तकालम्, तपस्विजनमेव पर्युपासमानः कञ्चित्कालं कर मलय के तट पर आ लगा और समुद्रतट देखने के लिए गये हुए तापस ने (मुझे) देख लिया। उसने आश्वासन दिया और कहा--'वत्स ! हम दोनों तपोवन को चलें ।' तपोवन को गया। कुलपति ने देखा । आदरपूर्वक (उनकी) वन्दना की। उन्होंने मुझे आहार कराया। बाद में पूछा - 'वत्स ! आप कहाँ से आये हैं ? (मैने) उनसे समस्त वृत्तान्त कहा। 'यह संसार ऐसा ही है'-इस प्रकार उन्होंने उपदेश दिया। तब मैंने सोचा'मित्र का वियोग होने पर तपोवन ही रमणीय है। दूसरी जगह जाना व्यर्थ है और स्वप्न के समागम के समान भ्रमरूा संसार के दुःख का कारण इष्ट संयोग व्यर्थ है-ऐसा सोचकर कूलपति से अपना अभिप्राय पा। कुलपति ने कहा-'वत्स ! यह ठीक है, किन्तु कर्म की परिणति अत्यन्त रौद्र है, स्नेह के तन्त कठिनाई से त्यागे जाते हैं, इन्द्रियां विषम हैं, विषयों का अभ्यास है, संसार का क्लेश कठिनाई से छोड़ा ज.ता है. मनिजनों का चरित्र विषम है, स्वीकार किये हए प्रण का पालन करना परलोक में अनर्थयुक्त और इस लोक में लज्जा के योग्य है। अतः योग्य शास्त्रों के अर्थ को जानकर अपने आपको तोलकर संसार के क्लेश का त्याग करना उचित है, दूसरे प्रकार से नहीं। दूसरी बात यह है कि 'ज्ञान से जानता हूँ कि तुम्हारा प्रिय मित्र जीवित है, इसके साथ तुम्हारा मिलाप होगा।' तो अब समय मा गया है, तपस्वीजन की ही कुछ समय १.वयंस-। २. "सरिसत-। ३.नमाइ परिनिट्ठा क-पुस्तकप्रान्तभागे । ४. गोरकम्म-म-ब । Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१७ पंचमो भवो ] वयणाओ तुह दंसण जायपच्चासो तवस्तिजणपज्जुवासणपरो ठिओ एत्तियं कालं । तइयदियहे य सुओं मए तावसेण कुलवइणो निवेइज्जमाणो तुज्झत्तो । कावसणे य 'सा चैव मे वयस्सओ संसिऊण कुलवणो अगुन्नविय कुलवई पयट्टो णोरहापूर संपत्तो य कल्लं । दिट्ठो य विज्जाहरो, पुच्छ ते पवृत्त । पुवबंधत्रेण विय निरवसेसा साहिया य तेण । तओ अहं भवंतमन्नेसमाणो इह आगओ । एस मे वृत्तंतो त्ति । तओमए चितियं । भवियव्वं विज्जासंस्थाए, अन्ना कहमयंडम्मि चेव वसुभूइणा सह समागमो | साहिओ से विज्जालंभवत्ततो । ईसि विहसिऊण भणियं च तेण भो वयंस, न अनहा संवच्छरियवयणं । विलासवइविज्जासंपत्तीओ चेवावगच्छामि, भवियव्यं तए विज्जाहरनरिदेण । ता करेहि समीहियं । तओ तम्मि चेव मलयस्तिरे पारद्ध पुव्वसेवा । अइक्कंता मोणव्वयसेवणाए परिमिय फलाहारस्स विसुद्धबंभयारिणो छम्मासः । समत्तो व्वसेवाकप्पो । भणिया विलासवई - देवि, धीरा हो । संपन्नं समीहियं कय जमिह दुबकरं । संप अहोरत्तसज्झं फलं ति । तोए भणियं तिष्ठेति । ततोऽहं मुनिवचनात् तव दर्शनजातप्रत्याशः तपस्विजनपर्युपासनपर स्थित एतावन्तं कालम् । ततोयदिवसे च श्रतो मया तापसेन कुपतये निवेद्यमानस्तव वृत्तान्तः । कथावसाने च ' स एव मे वयस्य:' इति शंसित्वा कुलपतयेऽनुनाप्य कुलपति प्रवृत्तो मनोरथापूरकं सम्प्राप्तश्च कल्ये । दृष्टश्च विद्याधरः । पृष्टश्च ते प्रवृत्तिम । पूर्वबान्धवेनेव निरवशेषा ( प्रवृत्तिः) कथिता च तेन । ततोऽहं भवन्तमन्वेषमाण इहागतः । एष मे वृत्तान्त इति । ततो मया चिन्तितम् - भवितव्यं विद्यासम्पदा, अन्यथा कथमकाण्डे एव वसुभूतिना सह समागमः । कथितस्तस्मै विद्यालाभ वृत्तान्तः । ईषद् विहस्य भणितं च तेन - भो वयस्य ! नान्यथा सांवत्सरिकवचनम् । विलासवती विद्यासम्पत्त्यै नवगच्छामि भवितव्यं त्वया विद्याधरनरेन्द्रेण । ततः कुरु समीहितम् । ततस्तस्मिन्नेव मलयशिखरे प्रारब्धा पूर्वसेवा | अतिक्रान्ता मौनव्रतसेवनया परिमितफलाहारस्य विशुद्धब्रह्मचारिणः षण्मारा । समाप्तः पूर्वसेवाकल्पः । भणिता विलासवती - देवि ! धीरा भव, सम्पन्नं समीहितम् । कृतं यदिह दुष्करम् । साम्प्रतमहोरात्रसाध्यं फलमिति । तया तक सेवा करते हुए ठहरो ।' तब मैं मुनि के वचनों के अनुसार आपके दर्शन की अभिलाषा से तपस्वियों की सेवा करता हुआ अभी तक ठहरा रहा । तीन दिन पहले मैंने तापस कुलपति द्वारा कहे जाते हुए तुम्हारे वृत्तान्त को सुना। कथा की समाप्ति पर 'वही मेरा प्रिय मित्र है' ऐसा कुलपति से कहकर कुलपति की आज्ञा से मनोरथ पूरक गया । वहाँ कल ही पहुँचा था (यहाँ ) विद्याधर दिखाई दिया । ( उससे ) तुम्हारे विषय में पूछा । पूर्वबान्धव के समान उसने आपके विषय में सब कुछ बता दिया। तब मैं आपको खोजता हुआ यहाँ आ गया । यह मेरा वृत्तान्त है । । अनन्तर मैंने विचार किया - यह विद्या प्राप्ति का होना ही है, अन्यथा असमय में ही वसुभति कैसे मिल सकता था ? मैंने वसुभूति से विद्यालाभ का वृत्तान्त कहा। कुछ हँसकर उसने कहा - 'हे मित्र ! ज्योतिषी के वचन अन्यथा नहीं होते हैं। विलासवती और विद्या की प्राप्ति से ही जान गया हूँ कि आप विद्याधर राजा होंगे । अतः इच्छित कार्य करो।' अनन्तर उसने मलयशिखर पर पूर्व सेवा आरम्भ की । मौनव्रत, परमित फलाहार और ब्रह्मचर्य का सेवन करते हुए छह माह बीत गये । पूर्वसेवा का नियम समाप्त हो गया । विलासवती से कहा - ' देवि ! धीर होओ, इष्टकार्य सम्पन्न हो गया। जो कार्य कठिन था वह कर लिया । अब Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [समराइज्यका ४१० पुज्जंतु मणोरहा अज्जउत्तस्स । तओ मए सा 'काय रहियया इत्थिय' ति ठविया नाइदूर देसवत्तिणीए मलयगिरिगुहाए । पारद्धा पहाणसेवा । उवणीयाई दसद्धवण्णाइं कुसुमाई । ठाविया देवया । विहिओ वसुभूई दिसावालो' । कओ पउमासणबंधो । निविट्ठाई मुद्दामंडलाई । पारद्धो सय साहस्सिओ मंतजावो । अइक्कंता काइ वेला । जाव हसियं विय नहंगणेण, गज्जियं वि अयाल मेहेहि', गुलुगुलियं विष समुद्देण, कंपियं विय' मेइणीए । तओ मए चितियं । पाविस्सइ भयं पिययमा । सुमरियं चक्क सेणवयणं 'न अन्नो विहीसियं मोत्तूण उवद्दवों" त्ति । पयट्टो मंतजावो । तओ थेववेलाए चेव दिट्ठो मए दंतग्गविभिन्नलंबमाणाहोरणो कण्णवालिलु ढियंकुसो अमरिसावेस कुंडलियकरो कर विक्खित्तसिसिरसीयरासारो आसारपयट्टमयवारिपरिमलो परिमलोबयंत महलमहुयरउलो उत्तरमेहो व्व गुलुगुलेंगे" 'हा अज्जउत्त हा अज्जउत्त'त्ति विलवंति विलासवइमइक्क मिऊण अत्तणो चेव समवयंतो मत्तवारणी । न बुद्धो य चित्तेण, अवगया विहीसिया । थेववेलाए य अइभीसणकसणवण्ण। सोयामणिफुलिंगलोयणा गलोलंबियकरचरणमाला रुहिरोल्लनरचम्मनिवसणा कवालचसएण रुहिरासवं पियंतो भणितम् - पूर्यन्तां मनोरथा आर्यपुत्रस्य । ततो मया सा 'कातरहृदया स्त्री' इति स्थापिता नातिदूरदेशवर्तिन्यां मलयगिरिगुहायाम् । प्रारब्धा प्रधानसेवा । उपनीतानि दशार्धवर्णानि कुसुमानि । स्थापिता देवता । विहितो वसुभूतिर्दिक्पालः । कृतः पद्मासनबन्धः । निविष्टानि मुद्रामण्डलानि । प्रारब्धः शतसाहस्रिको मन्त्रजापः । अतिक्रान्ता काऽपि वेला । यावद् हसितमिव नभोऽङ्गणेन गर्जितमिवाकालमेघैः गुडगुडितमिव समुद्रेण, कम्पितमिव मेदिन्या । ततो मया चिन्तितम् - प्राप्स्यति भयं प्रियतमा । स्मृतं चत्रसेनवचनं 'नान्यो विभीषिकां मुक्त्वा उपद्रवः' इति । प्रवृत्तो मन्त्रजापः । ततः स्तोकवेलायामेव दृष्टो मया दन्ताग्रविभिन्नलम्बमानाधोरणः कर्णपालिलुठिताकुशोऽमर्षावेशकुण्डलितकरः करविक्षिप्त शिशिरसोक रासार आसार प्रवृत्तमदवारिपरिमलः परिमलावपतन्मुखरमधुकरकुल उत्तरमेघ इव गुड्गुडायमानो 'हा आर्यपुत्र ! हा आर्यपुत्र !' इति विलपन्तीं विलासवतमतिक्रम्य आत्मन एव समुपयन् मत्तवारणः । न क्षुब्धश्च चित्तेन, अपगता विभीषिका । स्तोकवेलायां चातिभीषणकृष्णवर्णा सौदामिनिस्फुलिङ्गलोचना गलावलम्बितकरचरणमाला एक दिन रात्रि में ही फल की प्राप्ति हो जायगी । उसने कहा - 'आर्यपुत्र के मनोरथ पूरे हों ।' अनन्तर मैंने वह डरपोक हृदयवाली स्त्री है - ऐसा सोचकर समीपवर्ती मलयपर्वत की गुफा में उसे ठहरा दिया। प्रधान सेवा प्रारम्भ की । पाँच बर्ण के फूल लाया। देवी की स्थापना की । वसुभूति को दिक्पाल ( दिशा का अधिपति या रक्षक) बनाया। पद्माकार आसन बाँधा । मुखमण्डल को एकाग्र किया । एक लाख मन्त्र का जाप प्रारम्भ किया। कुछ समय बीता ( तभी ) आकाशरूपी आँगन मानो हँस पड़ा, वर्षाकालीन मेघों की मानो गर्जना हुई, समुद्र मानो गड़गड़ा गया, पृथ्वी मानो काँप गयी । तब मैंने सोचा - प्रियतमा भयभीत होगी । चक्रसेन का वचन याद आया- 'डर को छोड़कर अन्य कोई उपद्रव नहीं है ।' मन्त्र जाप में लग गया । अनन्तर कुछ ही समय में मैंने एक मतवाला हाथी देखा । वह हाथी दाँतों के अग्रभाग से महावत को चीरकर झुला रहा था उसके कानों में अंकुश लोट रहा था । क्रोधवश उसने सूड़ को लपेट लिया था । सूँड़ से छोड़े हुए ठण्डे जलकणों के समूह की वृष्टि कर रहा था । वर्षा से मद के जल की सुगन्धि फैल रही थी, सुगन्धि पर गिरते हुए भौरों का समूह गुंजार कर रहा था, उत्तरमेघ के समान गुडगुड शब्द कर रहा था, 'हा आर्यपुत्र ! हा आर्यपुत्र !' ऐसा विलाप करती हुई विलासवती को लांघकर अपनी ओर ही आ रहा था । मेरा चित क्षुब्ध नहीं हुआ । १. ठविया - क । २. वसुभूई दिसावालो कओ - ख । ३. पलय क । ४. पिवक । ५. दावेइख । ६. महयाउलो - क। ७. गुलगुलें तो - ख Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमो भवो ] ४१६ अट्टहासाणलेण नहंगणमुज्जोवयंती वामहत्थेण भयसंभंतलोयणं विलासवई गेव्हिऊण 'अरे रे विज्जाहरसंगदुब्बियड्ढ कावरिस कहि वच्चसि' ति जंपमाणी आगमणवेगाणिलनिवाडियसाहिजाला तुरियतुरियं अभिमुहमुवागच्छमाणी दिट्ठा मए दुट्ठपिसाइय ति । न खुद्धो हियएणं, उवसंता विहीसिया । थेववेला य अणभमेव गज्जियं मेहेहि, वरिसियं रुहिरधाराहि, फेक्कारियं सिवाह, धाहावियं' वेयालेहि, नच्चियं कबंधेहि, पज्जलंतनयणतारयाहि च उद्घकेसियाहि विमुक्कनिवसाि किलिकिलियं ड्राइणीहि । न खुद्धो चित्तेणं, पणट्ठा विही सिया । थेववेलाए य केणावि अमुणियं चेव पणट्ठचंददिवारे निरयघोरंधयारे पक्खित्तो महापायलभीसणे अयडे, विट्ठाओ य तत्थ भयस्व य भयंकरीओ वाढावियरालभीसह वयह कवालमालापरिगयाहि सिरोहराहि नाहिमंडल गए ह थणे हि पलंबमाणमहोपरीओ सूण सवविग्भमेहिं ऊरुएहिं तुंगतालखंध संठाणाहि जंघाहि निसियकप्पणीह नरकलेवरे विगत्तमाणीओ' जलतनयणतारयं च अइभीसणमिओ तओ पुलोएमाणीओ दुट्ठरक्खसीओ रुधिरार्द्रनरचर्मनिवसना कपाल चषकेन रुधिरासवं पिबन्ती अट्टहासानलेन नभोऽङ्गणमुद्योतयन्ती वामहस्तेन भयसम्भ्रान्तलोचनां विलासवती गृहीत्वा 'अरे रे विद्याधरसङ्गदुविदग्ध कापुरुष ! कुत्र व्रजसि ' इति जल्पन्ती आगमन वेगा निलनिपातितशाखिजाला त्वरितत्वरितमभिमुखमुपागच्छन्ती दृष्टा मया दुष्टपिशाचिकेति । न क्षुब्धो हृदयेन उपशान्ता बिभीषिका । स्तोकवेलायां चानभ्रमेव गर्जितं मेघः, वृष्टं रुधिरधाराभिः, फेत्कारितं शिवाभिः, धाहावितं (चित्कारित) वेताल, नर्तितं कबन्धैः, प्रज्वलन्नयनतारकाभिश्च ऊर्ध्व के शिकाभिर्विमुक्त निवसनाभिः किलिकिलितं डाकिनीभिः न क्षुब्ध - चित्तेन प्रणष्टा विभीषिका । स्तोकवेलायां च केनाप्यज्ञातमेव प्रनष्टचन्द्रदिवाकरे निरयघोरान्धकारे प्रक्षिप्तो महापातालभीषणेऽवटे । दृष्टाश्च तत्र भयस्यापि भयंकर्यो दाढाविकरालभीषणैर्वदनैः कपालमालापरिगताभिः शिरोधराभिर्नाभिमण्डल गतः स्तनैः प्रलम्बमानमहोदर्यः सुनाशवविभ्रमैरूरुभिः तुङ्गतालस्कन्धसंस्थानाभिर्जङ्घिकाभिर्निशितकर्तनीभिर्न रकलेवरान् विकर्तयन्त्यो ज्वलन्तयन आतंक दूर हुआ । थोड़ी ही देर में मुझे दुष्ट पिशाचिनी दिखाई दी । वह अत्यन्त भयंकर काले रंग की थी, बिजली के समान उसके नेत्रों से चिनगारी उठ रही थी, गले में हाथ-पैर की माला लटकी हुई थी, खून से भीगे हुए मनुष्य के चमड़े को पहिने हुई थी, कपालरूपी प्याले से वह खून का काढ़ा पी रही थी, अट्टहास रूरी अग्नि से आकाश रूपी आँगन को प्रकाशित कर रही थी, भय से घबराये हुए नेत्रों वाली विलासवती को बायें हाथ से पकड़ कर 'अरे रे विद्याधर के अनुरागी दुष्ट कायर पुरुष ! कहाँ जाते हो. ऐसा कहकर आगमन के वेग रूपी वायु से वृक्षसमूह को गिराती हुई शीघ्रातिशीघ्र सामने आ रही थी । ( मैं ) हृदय से क्षुब्ध नहीं हुआ, आतंक शान्त हुआ । थोड़ी देर में बिना बादल के ही मेघ गरजे, खून की धाराएँ बरसीं शृगालियों ने ध्वनि की, बेतालों ने चीत्कार किया, कबंध नाचने लगे, नेत्र की पुतलियों को जलाती हुई, ऊँचे केशों वाली, आभूषणों से रहित डाकिनियों ने किलकारी की। मेश चित्त क्षुब्ध नहीं हुआ, आतंक नष्ट हो गया। थोड़ी देर में किसी ने बिना जाने ही चन्द्र और सूर्य को नष्ट कर नरक के समान घोर अन्धकार वाले महान् पाताल के समान भयंकर कुएं में डाल दिया । वहाँ पर दुष्ट राक्षसियाँ दिखाई दीं। वे भय को भी भयकारी थीं । विकराल दाढ़ों के कारण उनका मुख भीषण था, कपालों की माला डाले हुए गर्दन वाली थीं, नाभि तक लटके हुए स्तनों वाली थीं, लटकता हुआ बड़ा भारी उनका पेट था । उनके ऊए श्मशान के शव का भ्रम पैदा कर रहे थे, ऊँचे ताड़ वृक्ष की शाखाओं के आकार वाली उनकी जांघें थीं, वे तीक्ष्ण कैंचियों से मनुष्य के कलेवरों १. धावियं क । २. निवसणं-ख । ३. किलिगिलियं । ४. विकल्पमाणीओ क । ५. सूजलंत - क 1 Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२० [ समराइच्चकहा 'हण हण छिंद छिंद भिंद भिंद' भणमाणीओ य धावियाओ अभिमुहं । न खुद्धो चित्तेणं पसंता विहोसिया । तओ अद्धजामावसेसाए जामिणीए समत्त पाए मंतजावे सुरहिकुसुमामोयगब्भिणो पवाइओ महुरमारुओ, निर्वाडिया कुसुमवुट्ठी, जय जय त्ति उट्ठिओ कलयलरवो, गाइयं किन्नरोहिं । तओ थेववेलाए चेव उज्जोवयंती नहंगणं अणेयदेवयापरिगया आगया अजियबल ति । दिट्ठा य सा मए— दित्ताणलस्स व सिहा पहासमिद्धि व्व सारयरविस्स । जोहा छणचंदस्स व वसंतकमलायर सिरि व्व ॥ ४६८ ॥ भणियं च तोए - अहो ते ववसाओ, अहो ते पोरुसं, अहो ते निच्छओ, अहो ते उवओगो सि । ता सिद्धा ते अहं । उवरम इओ ववसायाओ त्ति । तओ मए असमत्तकइवय मंतजावेण विहोसियासंका अपणमिण भयवइं समाणिओ मंतजावो, पण मिया य पच्छा । एत्थंतरम्मि - तारकं चातिभ षणमितस्ततः प्रलोकयन्तो दुष्टराक्षस्यो 'हत हत छिन्त छिन्त भिन्त भिन्त' इति भणन्त्यश्च धाविता अभिमुखम् । न क्षुब्धश्चित्तेन प्रशान्ता बिभीषिका । ततोऽर्धयामावशेषायां यामिन्यां समाप्तप्राये मन्त्रजापे सुरभि कुसुमामोदगर्भितः प्रवातो मधुरमारुतः, निपतिता कुसुमवृष्टिः, जय जय इत्युत्थितः कलकल रवः, गीतं किन्नरोभिः । ततः स्तोकवेलायामेव उद्योतयन्ती भोऽङ्गणमनेकदेवतापरिगताऽऽगताऽजितवलेति । दृष्टा च सा मया । दोप्तानलस्येव शिखा प्रभासमृद्धिरिव शारदरवेः । ज्योत्स्ना क्षणचन्द्रस्येव वसन्तकमलाकर श्रीरिव ॥ ४६८ ॥ भणितं च तया - अहो व्यवसायः, अहो ते पौरुषम्, अहो ते निश्चयः, अहो ते उपयोग इति । ततः सिद्धा तेऽहम् । उपरम इतो व्यवसाय दिति । ततो मयाऽसमाप्तकतिपय मन्त्रजापेन विभीषिकाशङ्कयाsप्रणम्य भगवतीं समाप्ता मन्त्रजापः । प्रणता च पश्चात् । अत्रान्तरे 1 को काट रही थीं, उनकी जलती हुई नेत्रों की तलियाँ थीं और वे अत्यन्त भयंकर थीं, इधर उधर देख रही थीं, 'मारो मारो, छेदो छेदो, भेदो भेदो' - इस कार कहती हुई दौड़ रही थीं । मेरा चित्त क्षुब्ध नहीं हुआ । आतंक शान्त हो गया । अनन्तर जब रात्रि का आधा प्रहर मात्र शेष रहा और मन्त्र का जाप समाप्तप्राय था तब सुगन्धित फूलों की गन्ध से भरी हुई मधुर वायु वही, फूल की वर्षा हुई, जय-जय का शब्द उठा और किन्नरियों ने गीत गाया । थंड़ी देर में ही आकाश रूपी आँगन को देवताओं से घिरी हुई 'अजितबला' आयी । उसे मैंने देखा - इस प्रकार के कोलाहल उद्योतित करती हुई अनेक प्रज्वलित अग्नि की तरह उसकी शिख शरत्कालीन सूर्य के समान उसकी प्रभा का विस्तार, मध्यरात्रि के चन्द्र की तरह उसकी चाँदनी (ज्योत्स्ना ) तथा वसन्तकालीन कमल समूह की शोभा की तरह उसकी शोभा थी ||४६८ ॥ उसने ( मुझसे ) कहा - 'ओह ! तुम्हारा प्रयत्न, पौष, निश्चय और उपयोग आश्चर्यजनक हैं, अतः मैं तुम्हें सिद्ध हैं, इस कार्य से विराम लो।' अन्तर मैंने कुछ मन्त्रों का जाप समाप्त न करने से आतंक की आशंका से भगवती को प्रणाम किये बिना मन्त्रों का जाप पूरा किया। बाद में प्रणाम किया । इसी बीच — Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२१ पंचमी भयो पहाणकायसंगया सुयंधगंधगंधिया। अवायमल्लमंडिया' पइण्णहारचंदिमा ॥४६६॥ लसंतहेमसुत्तया फुरंतआउहप्पहा । चलंतकण्णकुंडला जलंतसीसभूसणा ॥४७०॥ मिबद्धजोव्वणुद्धरा सुकंलकन्नसंगया। मियंकसोहियाणणा नवारविंदसच्छहा ॥४७१॥ समत्तलक्खणंकिया विचित्तकामरूविणो। समुद्ददुंदुहिस्सणा पणामसंठियंजली ॥४७२॥ समागया विज्जाहर त्ति । भणियं च देवयाए-पुत्तय, महापुरिसववसायगुणाणुरंजियं पडिवन्नभिच्चभावं पणमइ चंडसीहप्पमहं भवंतमेव विज्जाहरबलं । तओ मए 'एस भयवई पसाओ'त्ति भणिऊण समाइच्छिया विज्जाहरा। भणियं च देवयाए-पुत्तय, करेमि ते विज्जाहरनरिंदाहिसेयं । मए भणियं-करेउ प्रधान कायसंगता: सुगन्धगन्धगन्धिताः । अम्लानमाल्यमण्डिताः प्रकीर्णहारचन्द्रिकाः ॥४६९।। लसद्धेमसूत्रकाः स्फुरदायुधप्रभाः। चलकर्णकुण्डला ज्वलच्छीर्षभूषणाः ॥४७०॥ निबद्धयौवनोद्धराः सुकान्तकर्णसङ्गताः । मगाङ्कशोभितानना नकारविन्दसच्छया ।।४७१॥ समस्तलक्षणाङ्किता विचित्रकामरूपिणः । समुद्रदुन्दुभिस्वनाः प्रणामसंस्थिताञ्जलयः ।।४७२।। समागत विद्याधरा इति। भणितं च देवतया-पुत्रक ! महापुरुषव्यवसाय गुगानुरञ्जितं प्रतिपन्नभत्यभावं प्रणमति चण्डसिंहप्रमुखं भवन्तमेव विद्याधरवलम् । ततो मया 'एप भगवतीप्रसादः' इति भणित्वा समागता (सत्कृता) विद्याधराः । भणितं च देवतया--पुत्रक ! करोमि ते विद्याधरनरेन्द्राभिषेकम् । मया प्रधान शरीर से युक्त, सुगन्धित पदार्थों की गन्ध से सुगन्धित, बिना मुरझायी हुई माला से मण्डित, हारों की चांदनी को बिखेरते हुए, स्वर्णसूत्र से शोभायमान, आयुधों की प्रभा चमकाते हुए, चंचल कानों के कुण्डलों से युक्त, दीप्त शिरोभूषणों वाले, बँधे हुए यौवन से परिपूर्ण, सुन्दर कानों से युक्त, चन्द्रमा के समान शोभित मुखों वाले, नवीन कमल के समान कान्ति वाले, समस्त लक्षणों से अंकित नाना प्रकार के अभिलषित रूप वाले, समुद्र के समान दुन्दुभि का शब्द करते हुए, प्रणाम करने के लिए अंजलि बाँधे हुए विद्याधर आये। देवी ने कहा-'पुत्र ! महापुरुषों के कार्य रूपी गुणों से अनुरंजित, भृत्यभाव को प्राप्त हुए, चण्डसिंह प्रमुख विद्याधरों की सेना आपको ही प्रणाम करती है।' तब मैंने-'यह भगवती का प्रसाद', ऐसा कहकर विद्याधरों की अगवानी की। देवी ने कहा -'पुत्र ! तेरा 'विद्याधरों के राजा' पद पर अभिषेक करती हूं।' - १. मंडना-क । २, भयवती-ख । Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२२ [ समराइज्चकहा भयवई, किंतु देवीए वसुभइणो य पच्चक्खं ति। तओ सद्दाविओ वसुभई, जाव न जंपड त्तिः तओ निहालिओ, जाव न दीसइ त्ति। तओ आसंकियं मे हियएण। विज्जाहरसमेओ य नहंगणगमणेणं पयट्टो गवेसिउं । दिट्ठो य एगम्मि निगुंजे इओ तओ परिब्भमंतो वसुभई । सो य पेच्छिऊण अम्हे उभयकरगहियरुक्खसालो 'अरे रे दुविज्जाहरा, पियवयंसस्स जीवियाओ वि अब्भहिययरं देवि विलासवई अवहरिऊण कहिं गच्छसि'त्ति भणमाणो धाविओ अहिमुहं ति । तओ मए चितियं । अवहरिया देवी, अफलो मे परिस्समो। पुच्छिओ वसुभूई 'कहिं कहिं देवित्ति । तओ तेण विज्जाहरविप्पलद्धद्धिणा वाहिओ मे घाओ। वंचिओ सो मए अवहरिया य से साहा। तओ गेण्डिऊण नये 'वयस्स, अलमन्नहावियप्पिएण; साहेहि ताव, कहिं देवित्ति पुणो पुणो पुच्छिओ। तओ विसेसेण पउत्तलोयणवावारं मं पुलोइऊण भणियमणेण- भो वयस्स, सुण। पउत्तविज्जासाहणारंभे तमम्मि जाए अड्ढरत्तसमए समागयं विज्जाहरवंद्र, विहीसियासंकाए य अवमन्नियं तं मए । तओ थेववेलाए चेव 'हा अज्जउत्त, हा अज्ज उत्त'ति' आयण्णिओ देवीए सद्दो। आसंकियं मे हियएणं । दिटा भणितम-करोतु भगवती, किन्तु देव्या वसुभूतेश्च प्रत्यक्षमिति । ततः शब्दायितो वसुभूतिः, यावद् न जल्पतीति । ततो निभालितो यावद् न दृश्यते इति । तत आशङ्कितं मे हृदयेन । विद्याधरसमेतश्च नभोङ्गणगमनेन प्रवृत्तो गवेषयितुम् । दृष्टश्च एकस्मिन् निकुञ्ज इतस्ततः परिभ्रमन वसुभूतिः । स च प्रेक्ष्यास्मान् उभयकरगृहीतवृक्षशाख: 'अरे रे दुष्टविद्याधर ! प्रियवयस्यस्य जीवितादप्यधिकतरां देवों विलासवतीमपहृत्य कुत्र गच्छसि' इति भणन् धावितोऽभिमुखमिति । ततो मया चिन्तितम् -- अपहृता देवी, अफलो मे परिश्रमः । पृष्टो वसुभूतिः 'कुत्र कुत्र देवी' इति । ततस्तेन विद्याधरविप्रलब्धबुद्धिना वाहितो मे घातः । वञ्चितः स मया, अपहृता च तस्य शाखा। ततोगहीत्वा हस्ते 'वयस्य ! अलमन्यथा विकल्पितेन, कथय तावत् कुत्र देवी' इति पुनः पुनः पृष्टः । ततो विशेषेण प्रयुक्तलोचनव्यापारं मां प्रलोक्य भणितमनेन-भो वयस्य ! शृणु । प्रयुक्तविद्यासाधनारम्भे त्वयि जातेऽर्धरात्रसमये समागतं विद्याधरवन्द्रम् । बिभोषिकाशङ्कया चावमतं तन्मया। ततः स्तोकवेलायामेव 'हा आयपुत्र ! हा आर्यपुत्र ! इत्याणितो देव्याः शब्दः । आशङ्कितं मे हृदयेन । मैंने कहा- 'भगवती कीजिए, किन्तु वसुभूति के सामने कीजिए।' अनन्तर वसुभूति को बुलाया गया । (वह) नहीं बोला। तब देखा, दिखाई नहीं दिया। इससे मेरा हृदय आशंकित हो गया । विद्याधरों के साथ आकाश रूपी आँगन में ढढने के लिए चल पड़ा । एक निकुंज में इधर-उधर घूमता हुआ वसुभूति दिखाई दिया। वह हम लोगों को देखकर दोनों हाथों से वृक्ष की शाखा पकड़कर-'अरे रे दृष्ट विद्याधर ! प्रिय मित्र की प्राणों से भी अधिक प्यारी देवी विलासवती का आहरण कर कहां जाते हो ?' ऐसा कहता हुआ सामने दौडा । तब मैंने विचार किया-'देवी का अपहरण हो गया है, मेरा परिश्रम निष्फल हुआ । वसुभूति से पूछा'देवी कहाँ हैं ? कहाँ हैं ?' तब उसने विद्याधर को धोखा देने की बुद्धि से मेरे ऊपर प्रहार किया । उसे मैंने धोखा दिया (बचा लिया)और उसकी शाखा हर ली। तब हाथ में लेकर 'मित्र ! अन्यथा सोचने से क्या लाभ ? कहो, देवी कहाँ हैं?' इस प्रकार पुनः पुनः पूछा। तब विशेष रूप से दृष्टि डालकर मुझे देखकर इसने कहा'हे मित्र सुनो ! विद्या के साधन के कार्य में तुम्हारे लग जाने पर आधी रात का समय होने पर विद्याधरों का समूह आया । आतंक की अशंका से हमने उसका सम्मान किया। अनन्तर थोड़ी ही देर में 'हा आर्यपुत्र ! हा आर्यपुत्र !' ऐसा देवी का शब्द सुनाई पड़ा । मेरा हृदय आशंकित हो गया । मैंने विद्याधर के विमान में १. ति भणंतीए-ख। Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचमो भवो] ४२३ य विज्जाहरविमाणारूढा 'अज्ज वसुभूई परित्तायाहि परित्तायाहित्ति अक्कंदमाणी देवी। संभमविसेसओ संजायासंकेण निरूविया गुहाए जाव नस्थि । तओ विमाणाणुसारेणं धाविओ मग्गओ, न पावियं च विमाणं । अओ न याणामि; संपयं कहिं देवि त्ति । मए चितियं । विज्जाहरेण हरिया देवी। अत्थि य मे गयणगमणसत्ती। ता कहिं सो नइस्सइ। भणिओ य वसुभई-परिच्चय विसायं । सिद्धा मे अजियबला । ता थेवमेयं ति । एत्थंतरम्मि समागया विज्जा। भणियं च तीएवच्छ, किमयं ति । साहियो से वुत्तंतो । को पुण तुम' परिहवइ त्ति कुविया य एसा। पेसिया दिसो विसं तीए अन्नेसणनिमित्तं पवणगइप्पमुहा विज्जाहरा। विज्जासमाएसेण य ठिया अम्हे तहिं चेव मलयसिहरे । तइयदियहम्मि य समागओ पवणगई । भणियं च तेण। देव, उवलद्धा देवी। मए भणियं--कत्थ उवलद्ध ति । तेण भणियं-देव, सुण। अत्थि वेयड्ढपव्वए रहनेउरचक्कवालउरं नाम नयरं । तत्थ उवलद्ध त्ति । मए भणियं-कहं विय । तेण भणियं-देव, सुण। पत्थिओ देवसमाएसेणाहं परिन्भमंतोगओरहनेउरचक्कवालउरं नयरं। दिढेच तं सव्वमेव उद्विग्गजणवयं सवाय दष्टा च विद्याधरविमानारूढा 'आर्य वसुभते ! परित्रायस्व परित्रायस्व'. इत्याक्रन्दमाना देवी। सम्भ्रमविशेषतः सजाताशकेन निरूपिता गुहायां यावन्नास्ति । ततो विमानानुसारेण धावितो मार्गतः (पृष्ठतः), न प्राप्तं च विमानम् । अतो न जानामि साम्प्रतं कुत्र देवीति । मया चिन्तितम्विद्याधरेण इता देवी। अस्ति च मे गगनगमनशक्तिः , ततः कत्र स नेष्यति । भणितश्च वसभतिः । परित्यज विषादम, सिद्धा मेऽजितबला, ततः स्तोकमेतदिति । अत्रान्तरे समागता विद्या । भणितं च तया-वत्स ! किमेतदिति । कथितस्तस्यै वृत्तान्तः । 'क: पुनस्त्वां परिभवति' इति कुपिता चैषा। प्रेषिता दिशि दिशि तयाऽन्वेषणनिमित्तं पवनगतिप्रमुखा विद्याधराः। विद्यासमादेशेन च स्थिता वयं तत्रैव मलयशिखरे। तृतीयदिवसे च समागतः पवनगतिः। भणितं च तेन-देव ! उपलब्धा देवी। मया भणितम्-कुत्रोपलब्धेति । तेन भणितम्-देव ! शृणु। अस्ति वैताढ्यपर्वते रथनपुरचक्रवालपुरं नाम नगरम् । तत्रोपलब्धेति। मया भणितं--कथमिव । तेन भणितम्-देव! शृण । प्रस्थितो देवसमादेशेनाहं परिभ्रमन् गतो रथनपुरचक्रवालपुरं नगरम् । दृष्टं च तत्सर्वमेवोद्विग्नब्रज आरूढ़ 'आर्य वसुभूति ! बचाओ, बचाओ'-ऐसा चिल्लाती हुई देवी को देखा। घबड़ाहट विशेष से आशंका उत्पन्न हो जाने के कारण गुफा में देखा, (वह) नहीं दिखाई दी। अनन्तर विमान के पीछे भागा, किन्तु विमान प्राप्त नहीं हुआ । अतः नहीं जानता हूँ, इस समय देवी कहाँ हैं ? मैंने सोचा-विद्याधर ने देवी को हर लिया, मेरी आकाश में गमन करने की शक्ति है, अतः वह कहाँ ले जायगा ? वसुभूति से कहा-'विषाद छोड़ो, मुझे अपराजिता विद्या सिद्ध हुई है. अतः यह छोटी-सी बात है।' इसी बीच विद्या आयी। उसने कहा- 'वत्स ! क्या बात है?' उससे वत्तान्त कहा। 'कौन तम्हारा तिरस्कार करता है'.-ऐसा कहकर वह कूपित हई । उसने हर ति प्रमख विद्याधरों को भेजा। विद्या की आज्ञा से हम उसी मलयशिखर पर रहे । तीसरे दिन पवनगति आया। उसने कहा-'महाराज ! देवी प्राप्त हो गयीं। मैंने कहा 'कहाँ प्राप्त हुईं ?' उसने कहा'सुनो ! वैताढ्य पर्वत पर रथन पुरचक्रवालपुर नाम का नगर है, वहाँ पर उपलब्ध हुई। मैंने कहा- 'कसे ?' उसने कहा-'महाराज ! सुनो-~महाराज की आज्ञा से प्रस्थान कर घूमता हुआ रथनपूरचक्रवाल' पूर नगर गया। वहाँ पर सभी मनुष्यों को उद्विग्न देखा। समस्त आयतनों में पूजा, प्रार्थना की जा रही थी, चलते हुए Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [समराइच्चका - यणसंपाइयओवयारं भमंतसगडबलिसहस्ससंकुलं चच्चरसमारद्धविविहलक्खहोम च । तओ मए तत्थ पुच्छिओ एगो विज्जाहरो - भद्द, क्रिमेयं त्ति । तेण भणियं -- सामिणो दुन्नयप लस्स कुसुमुग्गमो ति । मए भणियं कहं विय । तेण भणिवं सुण । जत्थि एत्थ अनंगरई नाम विज्जाहरनयर सामी । तेण मयणवसवणा कस्सइ महापुरिसस विज्जासाहणुज्जयस्स अवहरिऊण पिययमा इहं आणीय ति । अणिच्छमाणि च तं बला गेण्हिउं पवत्तो। एत्यंतरम्मि 'कहा एस' ति अणवेक्खिऊण अहयं पवड्ढमाणको वाणलो 'अरे रे दुट्ठ विज्जाहरा, कहं नए जीवमाणम्मि मम जायं परिहवसि' त्ति 'को एत्थ चिट्ठ; अरे खग्गं खग्गं' ति भणमाणो उट्टओ अमरिसेण पयट्टो अहिमुहं । तओ 'पसीय उ देवो'त्ति जंपियं पवणगइणा । भणियं च तेण देव कहाणयमिणं; न उण केसरिकिसोरजायं पसज्भं सारमेओ अहिवइ । ता कहावसाणं पि ताव निस:मेउ देवो त्ति । तओ विलिऊण उवविट्ठो अहं पुणो । भणियं च तेण - बला गेण्हणपवतस् य 'असमओ' त्ति काऊण उवट्टिया महाकालिविज्जा । ४२४ सर्वायतनसम्पादितपूजोपचारं भ्रमच्छकटबलि सहस्रसंकुलं चत्वरसमारब्धविविधलक्षहोमं च । ततो मया तत्र पृष्टएको विद्याधरो - 'भद्र ! किमेतद्' इति । तेन भणितम् - स्वामिनो दुर्नयफलस्य कुसुमोद्गम इति । मया भणितम् - कथमिव । तेन भणितम् शृणु । अस्त्यत्र अनङ्गरतिर्नाम विद्याधरनगरस्वामी । तेन मदनवशवर्तिना कस्यचिद महापुरुषस्य विद्यासाधनोद्यतस्य अपहृत्य प्रियतमेहानीतेति । अनिच्छन्तीं च तां बलाद् ग्रहीत प्रवृत्तः । अत्रान्तरे 'कथा एपा' इत्यनवेक्ष्याहं प्रवर्धमानकोपाल: 'अरे रे दुष्ट विद्याधर ! कथं पयि जीवति मम जायां परिभवसि' इति 'कोऽत्र तिष्ठति अरे खङ्गं खड्गमिति भणन्नुत्थितोऽमर्षेण प्रवृत्तोऽभिमुखम् । ततः 'प्रसीदतु देवः' इति जल्पितं पवनगतिना । भणितं च तेन-देव ! कथानकमिदम् न पुनः केसरिकिशोर जायां प्रसह्य सारमेयो:भिभवति । ततः कथावसानमपि तावद् निशामयतु देव इति । ततो व्रीडित्वा उपविष्टोऽहं पुन: । भणितं तेन - बलाद्ग्रहणप्रवृत्तस्य च 'असमयः' इति कृत्वोपस्थिता महाकालीविद्या । सञ्जातो हजारों छकड़ों में देवताओं को उत्सर्ग करने की सामग्री भरी हुई थी और चौराहों पर अनेक प्रकार के लाखों होम प्रारम्भ किये गये थे। तब मैंने वहाँ एक विद्याधर से पूछा - 'भद्र ! यह क्या है ?' उसने कहा - 'स्वामी की दुर्नीति रूपी फल का पुष्पोद्गम ।' मैंने कहा - 'कैसे ?' उसने कहा 'सुनो, यहाँ पर अनंगरति नाम का विद्याधरों के नगर का स्वामी है। वह काम के वश हो विद्या साधने में उद्यत किसी महापुरुष की प्रियता को हरकर यहाँ ले आया । उसके न चाहने पर भी वह उसको बलात् पकड़ने लगा । इसी बीच की कथा यह है - ऐसा देखकर जिसकी क्रोध रूपी अग्नि बढ़ गयी है, ऐसा मैं अरे रे दुष्ट विद्याधर ! मेरे जीवित रहतेतू कैसे मेरी पत्नी का तिरस्कार कर रहा है ? यहाँ पर कौन है ? अरे तलवार, तलवार' - ऐसा कहते हुए मैं क्रोधवश उठ खड़ा हुआ और सामने चला गया । तब महाराज प्रसन्न होइए - ऐसा पवनगति ने कहा और उसने कहा - 'महाराज ! यह कथानक है, सिंह की किशोर पत्नी को ग्रहण करने में कुत्ता समर्थ नहीं होता है । अतः महाराज कथा का अवसान भी सुनें ।' तब मैं लज्जित होकर पुनः बैठ गया । पवनगति ने कहा- 'उस विद्याधर के बलात् ग्रहण करने में प्रवृत्त होने पर यह कोई तरीका नहीं है'-ऐसा मानकर महाकाली विद्या उपस्थित १. गहिउंक । २. पसीयर पसीयउ देवो ति । Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमो मयो] ४२५ संजाओ भूमिकंपो, निवडियाओ उक्काओ, समुब्भूओ निग्धाओ । भणिओ य तीए अणंगरई - भो भो न तं इमं संपत्तविज्जाहरनारदसद्दस्स कावुरिसचेट्ठियं । तओ नियत्तो सो इमाओ ववसायाओ काएण, न वुण चित्तेण । पयलियाए' य नयरदेवयाए पुणो नयरविणासो आसित्ति संजायसंकेहि पत्थुयं संतिगग्मं नायर एहि । तओ मए भणियं - कहिं पुण सा इत्थिया चिट्ठइ । तेण भणियं-नरिदभवणुज्जाणे सहयारपायवतले ति । तओ मए नाइदूरदेसवत्तिणा गयणयलसंठिएण निरूविया देवी । दिट्ठा य अणेय विज्जाहरी वंद्र मज्झगया वामकरयलपणा मियवयणकमल मुव्वहंति त्ति । आरक्खि विज्जाहर संबाहभावओ आणाएसओ य देवस्स न गओ तीए समीवं । आगओ' इहई एयं च सोऊण देवो पमाणं ति । तओ मए पुलइओ वसुभूई । भणियं च तेण -- भो वयस्स, इमं ताव एत्थ पत्तकालं । नयरदेवओवसेण लज्जिओ खुसो राया । ता पेसे हि से सामपुव्वगमेव देवीजायणनिमित्तं कंचि दूयं ति । तओ बंभयत्तेण भणियं - सदाराणयणे वि दूयसंपेसण मपुव्वो सामभेओ । समरसेणेण उत्तं- तस्स वि दूयसंपेसणं ति महंतो अणक्खो । वाउवेगेण भणियं-न संपन्नमहिलसियं । वाउमित्तेण भणियं देवो भूमिकम्प:, निपतिता उल्काः समुद्भूतो निर्घातः । भणितश्च तयाऽनङ्गरतिः भो भो न युक्तमिदं सम्प्राप्त विद्याधरनरेन्द्रशब्दस्य कापुरुषचेष्टितम् । ततो निवृत्तः सोऽस्माद् व्यवसायात् कायेन न पुनश्चित्तेन । प्रचलितायां (प्रज्वलितायां ? ) च नगरदेवतायां पुनर्नग रविनाश आसीदिति सञ्जाताशङ्खः प्रस्तुतं शान्तिकर्म नागरकैः । ततो मया भणितम् - कुत्र पुनः सा स्त्री तिष्ठति । तेन • भणितम् - नरेन्द्रभवनोद्याने सहकारपादपतले इति । ततो मया नातिदूरदेशवर्तिना गगनतलसंस्थितेन निरूपिता देवी । दृष्टा चानेकविद्याधरीवन्द्रमध्यगता वामकरतलन्यस्तवदनकमलमुद्वहन्तीति । आरक्षकविद्याधरसम्बाधभावतोऽनादेशतश्च देवस्य न गतस्तस्याः समीपम् । आगत इह । एतच्छ्र ुत्वा देवः प्रमाणमिति । ततो मया दृष्टो वसुभूतिः । भणितं च तेन - भो वयस्य ! इदं तावदत्र प्राप्तकालम् । नगरदेवतोपदेशेन लज्जितः खलु स राजा । ततः प्रेषय तस्य सामपूर्वकमेव देवीयाचननिमित्तं कञ्चिद् दूतमिति । ततो ब्रह्मदत्तेन भणितम् - स्वदारानयनेऽपि दूतसम्प्रेषणमपूर्वः सामभेद: । समरसेनेनोक्तम् - तस्यापि दूतसम्प्रेषणमिति महान् ( अणक्खो दे ) अपवादः । वायुवेगेन भणितम-न हुई। भूमि काँप उठी, उल्काएँ गिर पड़ीं, आँधी उठी । उस महाकाली विद्या ने अनंगरति से कहा- 'अरे ! विद्याधरों के राजा शब्द को प्राप्त हुए तुम्हें अर्थात् विद्याधरों के राजा होकर तुम्हें कायर पुरुषों जैसी चेष्टा करना उचित नहीं है । अतः वह इस कार्य से शरीर से अलग हो गया, चित्त मे नहीं। नगर देवी के चले जाने पर पुन: नगर विनाश की आशंका से नागरिकों ने शान्तिकर्म प्रस्तुत किया । तब मैंने कहा - 'वह स्त्री कहाँ है ?' उसने कहा- 'राजा के भवन के उद्यान में आम के वृक्ष के नीचे है ।' तब मैंने समीपवर्ती आकाश में स्थित होकर देवी को देखा । उसे अनेक विद्याधरियों के समूह के बीच बायीं हथेली पर मुखकमल को धारण किये हुए देखा । रखवाली करने वाले विद्याधरों की बाधा और महाराज का आदेश न होने के कारण मैं देवी के पास नहीं गया । (मैं) यहाँ पर चला आया । इसे सुनकर महाराज प्रमाण हैं - अर्थात् अब आप उपाय सोचिए ।' अनन्तर मैंने वसुभूति को देखा। उसने कहा - 'हे मित्र ! अब समय आ गया है । नगरदेवी के उपदेश से वह राजा लज्जित है । अतः देवी को मांगने के लिए किसी दून को सामपूर्वक भेजो।' तब ब्रह्मदत्त ने कहा'अपनी पत्नी को लाने के लिए भी दूत भेजना अपूर्व सामभेद है ।' समरसेन ने कहा- 'उसके लिए भी बहुत बड़ा अपवाद है ।' वायुवेग ने कहा - 'अभीष्ट कार्य सम्पन्न नहीं हुआ ।' बायु मित्र ने कहा - 'महाराज जानें।' १. पलिया – क । २. भागनो य Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२६ [समराइचकहा जाणइ ति। विहसियं चंडसोहेण, उन्नाडियं पिंगलगंधारेण, पयंपियंमयंगेण, नीससियं अमयप्पहेण, पचलियं देवोसहेण । तओ सुभडभावेण वीरेक्करसाणं अणभिमओ विविज्जाहराणं 'एस द्विइत्ति पडिबोहिऊण ते पवणगई चेव विसज्जिओ दूओ त्ति । भणिओ य एसो -भद्द, वत्तवो तए स विज्जाहरनरिंदो । जं खलु अयसस्स कारयं अत्तणो हारयं धिईए वारयं लोयस्स हासयं सत्तुणो आणंदयं उभयलोयविरुद्धं च, तं कहं सप्पुरिसो समाय रइ। विरुद्धं च परदारहरणं । ता परिच्चय एवं असव्ववसायं, पेसेहि मे जायं ति। अपडिवज्जमाणे य वत्तन्वा तए देवी, जहा 'नकायवो तए खेओ, उवलद्धा तुमं ति; अवस्सं थोवदिणभंतरे मोयावेमि'। तओ 'जं देवो आणवेइति भणिऊण गओ पवणगई। बिइयदियहे य आगओ। भणियं च तेण-देव, भणिओ जहाइट देवेण सो विज्जाहराहमो। न पडिवन्नं च देवसातणं । भणियं च तेण-कहं धरणिगोयरो वि मे 'परिच्चय एयं असव्ववसायं' ति आणं पेसेड। तान पेसेमि से जायं। साहेऊ जस्स साहियव्वं ति। देवीए य विन्नत्तं। अज्ज उत्तस्स घरिणिसदं वहंतीए को महं खेओ त्ति । तओ एवं सोऊण खुहिया विज्जाहरभडा। गरुयवियंभसम्पन्नमभिलषितम् । वायुमित्रेण भणितम्-देवो जानातीति । विहसितं चण्डसिंहेन, उन्नाटितं पिङ्गल गान्धारेण, प्रकम्पितं मतङ्गेन, निःश्वसितममृतप्रभेण, प्रचलितं देवर्षभेण । ततः सुभटभावेन वोरैकरसानामनभिमतोऽपि विद्याधराणाम् ‘एषा स्थितिः' इति प्रतिबोध्य तान् पवनगतिरेव विजितो दूत इति । भणितश्चैषः - भद्र ! वक्तव्यस्त्वया स विद्याधरनरेन्द्रः। यत् खल्वयशसः कारकमात्मनो हारकं धृत्या वारकं लोकस्य हासकं शत्रोरानन्दकमुभयलोकविरुद्धं च, तत्कथं सत्पुरुषः समाचरति । विरुद्धं च परदारहरणम् । ततः परित्यजैतमसद्व्यवसायम्, प्रेषय मे जायामिति । अप्रतिपद्यमाने च वक्तव्या त्वया देवी, 'यथा न कर्तव्यस्त्वया खेदः, उपलब्धा त्वमिति, वश्यं स्तोकदिनाभ्यन्तरे मोचयामि' । ततो 'यद् देव आज्ञापयति' इति भणित्वा गतः पवनगतिः । द्वितीयदिवसे चागतः । भणितं च तेन-देव ! भणितो यथादिष्ट देवेन स विद्याधराधमः । न प्रतिपन्नं च देवशासनम् । भणितं च तेन, कथं धरणीगोचरोऽपि मे परित्यजैतमसयवसायम्' इति आज्ञां प्रेषयति । ततो न प्रेषयामि तस्य जायाम् । कथयतु यस्य कथयितव्यमिति । देव्या च चण्डसिंह हंसा, पिंगलगान्धार ने हर्षद्योतक आवाज की, मातंग काँपा, अमृतप्रभ ने लम्बी सांस ली, देवर्षभ हिल गया। अनन्तर सभट होने के कारण वीरों की एक राय न होने पर भी 'विद्याधरों की यह स्थिति है' इस प्रकार उन्हें प्रतिबोधित कर पवनगति को ही दूत के रूप में भेजा। इससे कहा-'भद्र ! उस विद्याधर राजा से कहना कि अयशकारी, अपने को हटाने वाले, धैर्य से रोके जाने वाले, लोगों द्वारा हँसी किये जाने वाले, शत्रु को आनन्द देने वाले, दोनों लोकों के विरुद्ध आचरण को सज्जन पुरुष कैसे करते हैं और परस्त्री का हरण करना विरुद्ध है। अत: इस असत्कार्य को छोड़ो, मेरी पत्नी को भेज दो। न प्राप्त होने पर तुम देवी से कहना कि खेद नहीं करें, तुम मिल गयी हो, अवश्य ही कुछ दिन में छड़ा लूगा । तब 'जो महाराज आज्ञा दें'-ऐसा कहकर पवनगति चला गया और दूसरे दिन (लौट) आया। पवनगति ने कहा ---'महाराज ! उस विद्याधराधम से जैसा महाराज ने कहा था, वैसा कहा किन्तु (उसने) महाराज की आज्ञा नहीं मानी और उसने कहा-कैसे भूमिगोचरी होने पर भी इस असत्कार्य को छोड़ो-ऐसी आज्ञा भेजता है। अतः उसकी पत्नी नहीं भेजूगा। जो कुछ कहना हो, कहें ।' देवी ने कहा है कि 'आर्यपुत्र की गृहिणी' शब्द को धारण करते हुए मुझे क्या खेद है ? अनन्तर १. न चलियं-क । २. कारणं-ख । ३. परसागपणं किं पुण हरणं पि-क। Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२७ पंचमो भवो ] माणामरिसविसेसेण हुंकारियं बंभवत्तेण, रणरसुच्छाह पुलइएण अप्फालिओ भुओ समरसेणेण, रोसरज्जंतनयणतारया भिउडीविसेसभीसणा खग्गरयणम्मि निवाइया दिट्ठी वाउवेगेण, रिउपहारविसमं उन्नामियं वच्छत्थलं वाउमित्तेण, कोवाणलज लिएणं पिव अंधारियं मुहं चंडसीहेणं, उव्वेल्लिउद्धबाहुजुयलं वियंभियं पिंगलगंधारेण, पर्यं पयमहिहरं समाहयं धरणियलं मयंगण, आसन्नसमर परिआ सफुरियनयणमुहेण आससियं अमियप्पण, नीसेसभरियगिरिगुहाकंदरं हसियं देवोसहेणं । तओ मए भणियंआसन्नविणिवाओ पणट्ठबुद्धिविहवो य सो तवस्सी' । ता अलं तम्मि संरंभेण । चिट्ठह तुम्भे । अहं पुण खग्गदुइओ' चेव इओ गच्छिऊण दंसेमि से भूमिगोयरपरक्कमं ति । विज्जाहरेहि भणियंदेव, असमत्यो खु सो देवस्स भिच्चपरक्कमं पि पेक्खिउं, किमंग पुण' देवपरक्कम ति । एत्थंतरम्मि मिलियं विज्जाहरबलं । उवणीयं मे विमाणं, अजियबलपवत्तिओ उवारूढो वसुविज्ञप्तम्–आर्यपुत्रस्य गृहिणीशब्दं वहन्त्याः को मम खेद इति । तत एतच्छ्र ुत्वा क्षुब्धा विद्याधरभटाः । गुरुविजृम्भमाणामर्षविशेषेण हुङ्कारितं ब्रह्मदत्तेन, रणरसोत्साहपुलकितेनास्फालितो भुजः समरसेनेन, रोषरज्यमाननयनतारका भृकुटिविशेषभीषणा खड्गरत्ने निपातिता दृष्टिर्वायुवेगेन, रिपुप्रहारविषममुन्नामितं वक्षःस्थलं वायुमित्रेण, कोपानलज्वलितेनेवान्धकारितं मुखं चण्डसिन, उद्वेलितोर्ध्वबाहुयुगलं विजृम्भितं पिङ्गलगान्धारेण, प्रकम्पितमहीधरं समाहतं धरणीतलं मतङ्गन, आसन्नसमरपरितोषस्फुरितनयनमुखेन । श्वसितममृतप्रभेण, निःशेषभृतगिरिगुहाकन्दरं हसितं देवर्षभेण । ततो मया भणितम् - - आसन्नविनिपातः प्रनष्टबुद्धिविभवश्च स तपस्वी । ततोऽलं तस्मिन् संरम्भेण । तिष्ठत यूयम् । अहं पुनः खड्गद्वितीय एव इतो गत्वा दर्शयामि तस्मै भूमिगोचरपराक्रम - मिति । विद्याधरैर्भणितम् - देव! असमर्थः खलु स देवस्य भृत्यपराक्रममपि प्रेक्षित् किमङ्ग पुनर्देवपराक्रममिति । अत्रान्तरे मिलितं विद्याधरबलम् । उपनीतं मे विमानम्, अजितबलाप्रवर्तित उपारूढो वसु इसे सुनकर विद्याधर योद्धा क्षुब्ध हो गये । जिसे अत्यधिक क्रोध उत्पन्न हुआ है, ऐसे ब्रह्मदत्त ने हुंकार की । समरसेन ने रण के उत्साह से पुलकित होकर भुजाएँ हिलायीं, रोष से जिसके नेत्रों की पुतलियाँ लाल हो गयी थीं ऐसे वायुवेग ने भौंह विशेष से भीषण होकर खड्गरत्न पर दृष्टि डाली । शत्रुओं के ऊपर प्रहार करने में जो प्रचण्ड था ऐसे वायुमित्र ने वक्षःस्थल ऊँचा किया । क्रोधरूपी अग्नि से जले हुए के समान चण्डसिंह ने मुँह को अन्धकारित किया, भुजायुगल को उछालकर पिंगलगान्धार ने जँभाई ली । पर्वतों को कँपाते हुए मतंग ने पृथ्वी पर चोट पहुँचायी । समीपवर्ती युद्ध के सन्तोष से जिसके नेत्र और मुँह स्फुरित हो रहे थे, ऐसे अमृतप्रभ ने आश्वासन दिया । समस्त पर्वत, गुफाओं और कन्दराओं को देवर्षभ ने हँसी से भर दिया। तब मैंने कहा - 'उस बेचारे का मरण समीप है और ( उसका ) बुद्धि तथा वैभव नष्ट हो गया है । अत: क्रोध करना व्यर्थ है । आप सब लोग ठहरो । मैं तलवार के साथ ही यहाँ से जाकर उसे भूमिगोचरी का पराक्रम दिखलाऊँगा ।' विद्याधरों ने कहा -- 'वह महाराज के भूत्य (सेवक ) के भी पराक्रम को देखने ( सहने) में असमर्थ है, महाराज के पराक्रम का तो कहना ही क्या ?" इसी बीच विद्याधरों की सेना आ मिली । मेरा विमान लाया गया । अजितबला विद्या के द्वारा चलाये १. रिवु ख। २. उन्नाडिय - ख । ३. वसीओ क । ४. दुतिम्रोख । ५. पेच्छिउं । ६. कि पुण ७. उवणयंत्र । ८. पवत्तियं उ-ख । Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ [ समराइच्च कहा भइसमेओ विमाणे । समाहयाई समरमंगलतूराई' । अणुगूलमास्यंदोलिर विमाणधयवडं चलियं विज्जाहरबलं । समुग्घुट्टो जयजयसद्दो, निवडिया कुसुमबुट्टी, समुब्भूओ आणंदो । आगासगमणेणं च पेच्छमानो नाणाविहगामागरनगरसयसोहियं महिमंडल अजायपरिस्समो रणरसुच्छाहेण थेबवेलाए चेव पत्तो वेदपव्वयं । अजियबलाएसओ य आवासिओ हेटुओ । कओ तिरत्तोववासो, सव्वविज्जाणं च संपाडिया पूयाओ । मेत्तिमुवगया मे मेसविज्जाहरा । मुणियं अणंगरइणा अवज्जाविल सिएणं । पेसिओ तेण दुम्मुही नाम सेणावई, समागओ महया विज्जाहरबलेणं । आगयं परबलं ति उद्धाइओ' अम्हाण सेन्नम्म कलयलो । आह्या समरभेरी । पवत्ता सन्नज्झिउं विज्जाहरा । गहियं मे खग्गरयणं । एत्यंत रम्मि समागओ' टूओ । भणियं च तेण - भो भो पवन्नभूमिगोयर भिच्च भावा विज्जाहरमडा, निसामेह सेणावइसासण । पेसिओ अहं अगर इसेणावइणा दुम्मुहाभिहाणेणं । भणियं च तेण -- अत्थि तुम्हाणं अइभूमिगयमोहाणं अपरिहयसासणेण देवेण अणंगरइणा सह समरसद्धा, पयट्टा य तुम्भे देवरायहाणि । ता कि इमिणा किलेसेण । सज्जा होह । समाणेमि अहं देवस्स एगभिच्चो एत्थेव भूतिसमेत विमाने । समाहतानि समरमङ्गलतूर्याणि । अनुकूल मारुतान्दोलयद्विमानध्वजपटं चलितं विद्याधरबलम् । समुद्बुष्टो जयजयशब्दः, निपतिता कुसुमवृष्टिः, समुद्भूत आनन्दः । आकाशगमन च प्रक्षमाणा नानाविधग्रामाकरनगरशतशोभितं महीमण्डलमजात परिश्रमो रणरसोत्साहेन स्तोकवेलायामेव प्राप्तो वैताढ्य नवर्तन् । अजित बलादेशतश्चावासितोऽधः । कृतस्त्रिरात्रोपवासः, सर्वविद्यानां च सम्पादिताः पूजाः । मैत्रीमुपगता मे शेषविद्याधराः । ज्ञातमनङ्गरतिनाऽवज्ञा विलसितेन । प्रेषितस्तेन दुर्मुखो नाम सेनापतिः, समागतो महता विद्याधरबलेन । आगतं परबलमित्युद्धावितोऽस्माकं सैन्ये कलकलः । आहता समरभेरो । प्रवृत्ताः सन्नद्धु विद्याधराः । गृहोतं मया खङ्गरत्नम् । अत्रान्तरे समागतो दूतः । भणितं च तेन - भो भोः प्रपन्नभूमिगोचरभृत्यभावा विद्याधरभटाः ! निशामयत सेनापतिशासनम् । प्रेषितोऽहमनङ्गरतिसेनापतिना दुर्मुखाभिधानेन । भणितं च तेन - अस्ति युष्माकमतिभूमिगत मोहानामप्रतिहतशासनेन देवेन अनङ्गरतिना सह समरश्रद्धा, प्रवृत्ताश्च यूयं देवराजधानीम् । ततः किमनेन क्लेशेन । सज्जा भवत । समापयाम्यहं हुए विमान पर वसुभूति के साथ चढ़ गया। मंगल बाजे बजाये गये । अनुकूल वायु से विमानों की ध्वजाओं के वस्त्र हिलाते हुए विद्याधरों की सेना चली । 'जय जय' शब्द की घोषणा हुई, फूलों की वर्षा हुई, आनन्द छा गया । आकाशगमन से अनेक प्रकार के सैकड़ों ग्राम, आकर तथा नगरों से शोभित पृथ्वी मण्डल को देखते हुए रण के उत्साह से जिन्हें परिश्रम नहीं हुआ था - ऐसे सब लोग वैताद्यपर्वत पर पहुँचे । अजितबला विद्या के आदेश से ठहर गये । तीन रात का उपवास किया और समस्त विद्याओं की पूजा की। शेष विद्याधर मेरे मित्र हो गये । अनंगरति को अवज्ञा की लीला ज्ञात हुई। उसने दुर्मुख नामक सेनापति को भेजा । सेनापति बहुत बड़ी विद्याधर की सेना के साथ आया । 'शत्रु सेना आयी है, यह जानकर हमारी सेना में कलकल शब्द उठा। समरभेरी बजायी गयी । विद्याधर युद्ध करने के लिए तैयार हो गये। मैंने खड्गरत्न ग्रहण किया । इसी बीच दूत आया । उसने कहा - 'हे हे भूमिगोचरी के सेवकपने को प्राप्त विद्याधर योद्धामो ! सेनापति की आज्ञा सुनो। मुझे अनंगरति के दुर्मुख नामक सेनापति ने भेजा है । सेनापति ने कहा है- भूमिगोचरी के प्रति अत्यन्त मोह वाले आप लोगों की अप्रतिहत शासन वाले महाराज अनङ्गरति के साथ युद्ध करने की इच्छा है और आप महाराज की राजधानी को जा रहे हैं । अतः इस क्लेश से नया अर्थात् यह क्लेश व्यर्थ है। तैयार हो जाओ। महाराज का १. समायं समरमंगलतुरं ख २ उठाइयो । ३. से समाख । Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२६ पंचमो भवो) तुम्हाणं दिगह ति । एयं च सोऊण 'नाणंगरई आगओ' ति मुक्कं मए खग्गरयणं' मउलियं विज्जाहरबलं । सेणावई आगओ त्ति, अहं पि इहई सेणावइ ति उढिओ चंडसीओ । भगियं च तेग -देव, देहि आणंति। पेक्खंतु देवस्स भिच्चविलसियं विज्जाहरभडा । तओ मए 'उचियमेयं ति चितिऊण दिन्नं कंठकुसुमदामं । पणामपुव्वयं गहियं च ण, ठावियमुत्तिमंगे। धाविओ दुम्मुहबलाभिमुहं । ठिओ अहं विमाणे सह विज्जाहरेहिं । आगया समरपेक्खगा सुरसिद्धा अच्छराओ य । पवत्तमाओहणं । मेहजालेण विय ओत्थयं अंबरयलं सरजालेण, निग्घाया विय पडंति खग्गप्पहारा, आहम्मति विज्जाहरभडा मिलिया य नायगा। तओ जंपियं चंडसीहेण-- अरे रे दुरायार, अग्गओ होहि । अहं चंडसीहो, तुमं दुम्महो त्ति । समागओ एसो। लग्गं गयाजुद्ध। दिग्नो पहारो दुम्मुहेण, पडिच्छिओ चंडसीहेण । तओ रोसायंबलोयणेणं 'कोइसो तुह [वि दिन्नो हवइ] पहारो, सहसु मे संपर्य' त्ति भगमाणेण दिन्नो से उत्तिमंगे, विदारियं च [से उत्तिमंगं) । जाओ विहलंघलो यसो मुक्करहिरुग्गारं निवडिओ धरणिवट्ठ । भग्गं दुम्मुहबलं । उग्घुट्टो जयजयरवो। विमुक्कं सुरसिद्धहि उवरि देवस्यैक भत्योऽत्रैव युष्माकं विग्रहमिति । एतच्च श्रुत्वा 'नानङ्गरतिरागतः' इति मुक्तं मया खङ्गरत्नम, मुकूलितं विद्याधरबलम् । सेनापतिरागत इति, अहमपीह सेनापतिरित्युत्थितश्चण्डसिंहः । भणितं च तेन-देव ! देहि आज्ञप्तिमिति । प्रेक्षन्तां देवस्य भृत्यविल सितं विद्याधरभटाः। ततो मया 'उचितमेतद्' इति चिन्तयित्वा दत्तं कण्ठकुसुमदाम। प्रणामपूर्वकं गहीतं च तेन, स्थापितमुत्तमाङ्गे । धावितो दुर्मुखबलाभिमुखम् । स्थितोऽहं विमाने सह विद्याधरैः । आगताः समरप्रेक्षकाः सुरसिद्धा अप्सरसश्च । प्रवृत्तमायोधनम् । मेघजालेनेवावस्तृतमम्बरतल शरजालेन, निर्घाता इव पतन्ति खङ्गप्रहाराः, आहन्यन्ते विद्याधरभटाः, मिलिताश्च नायकाः । ततो जल्पितं चण्डसिंहेन । अरे रे दुराचार ! अग्रतो भव, अहं चण्डसेनस्त्वं दुर्मुख इति । समागत एषः । लग्नं गदायुद्धम् । दत्तः प्रहारो दुर्मुखेन, प्रतोष्टश्चण्डसिंहेन । ततो रोषाताम्रलोचनेन 'कोदशस्तव [अपि दत्तो भवति] प्रहारः, सहस्व मे साम्प्रतम्' इति भणता दत्तस्तस्योतमाङ्गे, विदारितं च (तस्योत्तमाङ्गम)। जातो विह्वलाङ्गश्च स मुक्तरुधिरोद्गारं निपतितो धरणीपृष्ठे । भग्नं दुर्मुखबलम् । उख़ुष्टो जयजयएक ही सेवक मैं यहीं तुम्हारे शरीर को समाप्त करता हूँ।' यह सुनकर 'अनंगरति नहीं आया है', यह सोचकर मैंने खड्गरत्न छोड़ा । विद्याधरों की सेना ठहर गयी । सेनापति आ गया, मैं भी यहाँ सेनापति हूँ, ऐसा कहकर चण्डसिंह उठा । उसने कहा-'महाराज ! आज्ञा दीजिए । महाराज के सेवक विद्याधर योद्धा की लीला देखिए।' तब मैंने 'ठीक है' -- ऐसा सोचकर गले की माला दे दी । उसने प्रणामपूर्वक ले ली और सिर में डाल ली । वह दमख की सेना की ओर दौडा। में विद्याधरों के साथ विमान में ठहरा रहा । यद्ध को देखने वाले देव. सित और अप्सराएं आयीं। युद्ध शुरू हुआ। आकाश मण्डल बाणों के समूह से मेघों के समूह जैसा व्याप्त हो गया। वज्रपात के समान तलवारों के प्रहार पड़ने लगे : विद्याधर योद्धा आहत होने लगे, नायक मिल गये । अनन्तर चण्डसिंह ने कहा - 'अरे रे दुराचारी ! आगे होओ, मैं चण्डसेन हूँ, तू दुर्मुख है।' 'यह आया।' गदायुद्ध शुरू हो गया। दुर्मुख ने प्रहार किया, चण्डसेन ने रोक लिया । अनन्तर रोष से लान नेत्र वाले चण्डसेन ने-'तुम्हारा दिया हुआ प्रहार कैसा है, अब मेरा सहन करो'--ऐसा कहकर उसके सिर पर प्रहार किया और उसके सिर को फाड़ दिया । वह विह्वल अंगों वाला हो गया और खून का वमन छोड़ता हुआ धरती पर गिर पड़ा। दुर्मुख की सेना भाग गयी। जय-जय शब्द की घोषणा हुई । देवताओं और सिद्धों ने चण्डसिंह के ऊपर फूलों की वर्षा की। १. इह उ--के । २. देह आणत्ति - क । ३. देवभिच्चस्स-क । ४. ठविय'"-ख । ५. विज्जाहरा । ६. ख-पुस्तके नास्ति । ७, तेण इत्यधिकः पाठः ख-पुस्तके । Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समराहच्चकहा चंडसीहस्स कुसुमवरिसं । तओ विणिज्जिए सेणावइम्मि चडिओ अहं' वेयडपवयं, गओ रहने उरचक्कवालउरविसयं । पेसिया मए अणंगर इसमीवं दुवे विज्जाहर। । भणिया य एए-भजह तं अणंगरइं, नहा किमणेण अप्पोययमीणचेट्टिएण; मोतूणरज्ज तवोवणं वा जाहि, ममासमकोहिंधणुप्पन्नसत्थाणलग्गाहुई चा हवाहि त्ति । गया ते मम चरणजुयलं वंदिउं। आगया थेववेलाए। भणियं च तेहिदेव, अणुचिट्ठियं देवसासणं अम्हेहि । भणिओ जहाइट्ठमेव देवेण अणंगरई। कुविओ य एसो। समाहयं धरणिविठं । अरे धरणिगोयर, अहं तव सत्थाणलग्गाहुई हवामि' न उण तुमं ममं ति; ता कि एइणा, थेवमेत्थमंतरं ति । भणिऊण समाइट्ठं च तेण। देह सन्नाहभेरि रएह' सगडवहं; अइभूमिमागओ धरणिगोयरो त्ति । तओ आया भेरी, निसामिओ भेरीरवो अणेगहा सेणिगेहिं । पढम भयहित्थलोयहिं कुपुरिसेहि: आसन्नविरहूसुयगलंतबाहाहिं सेणाभडीहिं. चिररूढफुडियवणकंदरेहि रणरहसुन्भिज्जमाणपुलएहि सामिसुकयपडिमोयणासयण्हेहिं सुहडेहि,पढमरणदसणूसुएहि रायकुमारेहि, रवः । विमुक्तं सुरसिद्धरुपरि चण्डसिंहस्य कुसुमवर्षम् । ततो विनिजिते सेनापती आरूढोऽहं वैताढ्यपर्वतम्, गतो रथनूपुरचक्रवालपुरविषयम् । प्रेषितो मयाऽनङ्गरतिसमीपं द्वो विद्याधरौ। भणितो चेतौ-भणत तमनङ्गरतिम्, यथा किमनेन अल्पोदकमीनचेष्टितेन, मुक्त्वा राज्यं तपोवनं वा याहि, ममासमक्रोधेन्धनोत्पन्नशस्त्रानलाग्रहुतिर्भवेति । गतौ तौ मम चरणयुगलं वन्दितुम । आगतौ स्तोकवेलायाम्। भणितं च ताभ्याम्-देव ! अनुष्ठितं देवशासनमावाभ्याम् । भणितो यथादिष्टमेव देवेनानङ्गरतिः । कुपितश्चैषः । समाहतं धरणीपृष्ठम् । अरे धरणीगोचर ! अहं तव शस्त्रानलाग्राहुतिर्भवामि न पुनस्त्वं ममेति, ततः किमेतेन, स्तोकमत्रान्तरमिति । भणित्वा समादिष्टं च तेन । दत्त सन्नाहभेरीम्, रचयत शकटव्यूहम् । अतिभूमिमागतो धरणीगोचर इति । तत आहता भेरी, निाश मितो भेरीरवोऽनेकधा सैनिकः (श्रेणिगैः ?) । प्रथमं भयत्रस्तलोचनः कापुरुषः, आसन्नविरहौत्सुक्यगल द्वाष्पाभिः सेनाभटोभिः, चिररूढस्फुटितवणकन्दरै रणरभसोदभिद्यमानपुलकैः स्वामिसुकृतप्रतिमोचनासतृष्णः सुभटैः, प्रथमरणदर्शनोत्सुकैः राजकुमारैः: निजतब सेनापति को जीत लेने पर हम वैताढ्य पर्वत पर आरूढ़ हुए और रथनूपुरचक्रवाल देश को गये। मैंने अनंगरति के पास दो विद्याधर भेजे। इन दोनों से कहा-'अनंगरति से कहो कि थोड़े जल में मछली की चेष्टा के समान चेष्टा करना व्यर्थ है। राज्य को छोड़ कर या तो तपोवन में जाओ अथवा मेरे विषम क्रोधरूपी इंधन से उत्पन्न शस्त्ररूपी अग्नि की आहति होओ।' वे दोनों मेरे चरणयुगल की वन्दना कर गये। थोडीही देर में लोट आये । उन दोनों ने कहा- 'महाराज ! आपकी आज्ञा का पालन हम दोनों ने कर दिया। जैसा महाराज ने आदेश दिया था वैसा अनंगरति से कह दिया। वह कुपित हो गया। पृथ्वी को दबाकर 'अरे भूमिगोच तुम्हारे शस्त्ररूपी अग्नि की ज्वाला में आहुति होऊँगा, तुम मेरे शस्त्ररूपी अग्नि की ज्वाला में आहुति नहीं होगे ? अतः इससे क्या, थोड़ी ही देर है-' ऐसा कहकर उसने आज्ञा दी-'युद्ध की भेरी बजाओ, शकटव्यूह की रचना करो। भूमिगोचर पृथ्वी का अतिक्रमण कर आया है।' अनन्तर भेरी बजायी गयी, अनेक प्रकार के सैनिकों (श्रेणी के लोगों) ने भेरी का शब्द सुना । पहले भय से त्रस्त नेत्रों वाले कायर पुरुषों ने सुना, (अनन्तर' समीप में विरह की उत्सुकता के कारण आँसू छोड़ने वाले सैनिकों ने सुना, (अनन्तर) जिनका खुले हुए घाव का गड्ढा भर गया है और रण के वेग से जिन्हें रोमांच हो आया है तथा स्वामी के उपकारों का बदला चुकाने के इच्छुक सुभटों ने सुना । (अनन्तर) पहले-पहले रण के लिए उत्सुक राजकुमारों ने (पश्चात्) अपने कार्य का सम्पादन 1. है-ख । २. होमिक । ३. वुण-के । ४. भणिया य एते, देहि-ख । ५. रएहि-ख । Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमो भयो] नियोगसंपायणतुरिएहि निओयकारीहिं। पवत्तं सन्नझिउं अणंगरइबलं । दित्तोसहिपरिगया विय सेलकूडा ढोइज्जंति कंचणसन्नाहा, दुज्जणवाणीओ विअ भेयकरीओ आणीयंति भल्लीओ जमजोहासन्निगासाओ सुहडजणरुहिरलालसाओ सुबहुजणजीवियहरीओ पायडिज्जति असिलट्ठीओ, वेसित्थियाओ विय एणनिबद्धाओ वि पयइकूडिलाओ धणहीओ, खलजणालावा विय मम्मघट्टणसमत्था य नाराया, असणिलयासन्निगासाओ य गयाओ। एवं च उवणीयमाणेहि समरोवगरणेहि केणावि "पियय मापओहरफंसरुभओ' त्ति न कओ सन्नाहो सरीरम्मि, अन्नेण समरसुहबद्धराएण थोरंसुयं असई रुयंती विन गणिया पिययमा, अन्नेण तक्खणसिढिलवलया वियलियकंचिदामा नयणनिग्गयवाहसलिला मंगलविलक्खहसिएहि अवहीरयंती गाढसंतावं 'एसो अहं आगओ' त्ति समासासिया पिययमा, अन्नस्स गमणुस्सुयस्स पाणभरियं वड्यं पियावयणसमप्पियं पीयमाणं पि तीए सुट्ट्यरं भरियमंसुएहिं, अन्नाए य निग्गच्छमाणे पिययमे मुच्छाए चेव दंसिओ अणुराओ। एवं च वदमाणे अणंगरइबले समागया अम्हे । संपयं देवो पमाणं ति । नियोगसम्पादनत्वरितैनियोगकारिभिः। प्रवृत्तं सन्नद्धमनङ्गरतिबलम्। दिप्तौषधिपरिगता इव शैलकूटा ढोक्यन्ते काञ्चनसन्नाहाः, दुर्जनवाण्य इव भेदकर्य आनीयन्ते भल्लयः, यमजिह्वासन्निकाशाः सुभटजनरुधिरलालसाः सुबहुजनजीवितहर्यः प्रकट्यन्तेऽश्लिष्टयः, वेश्यास्त्रिय इव गुणनिबद्धा अपि प्रकृतिकुटिला धनुषः । खलजनालापा इव मर्मघट्टनसमर्थाश्च नाराचाः, अशनिलतासन्निकाशाश्च गदाः । एवं चोपनीयमानैः समरोपकरणः केनापि 'प्रियतमापयोधरस्पर्शरोधकः' इति न कृतः सन्नाहः शरीरे, अन्येन तत्क्षणशिथिलवलया विचलितकाञ्चीदामा नयननिर्गतवाष्पसलिला मङ्गलविलक्षहसितैरवघोरयन्ती गाढसन्तापं 'एषोऽहमागतः' इति समाश्वासिता प्रियतमा, अन्यस्य गमनोत्सुकस्य पानभृतं वर्तकं (वटाका) प्रियावदनसमर्पितं पीयमानमपि तया सुष्ठुतरं भृतमश्रुभिः । अन्यया च निर्गच्छति प्रियतमे मूर्च्छयैव दर्शितोऽनुरागः । एवं च वर्तमानेऽनङ्गरतिबले समागता वयम् । साम्प्रतं देवः प्रमाणमिति। करने के लिए शीघ्रता करने वाले कार्यरत लोगों ने सुना-अनंगरति की सेना युद्ध करने के लिए तैयार होने लगी। दीप्त औषधियों से घिरे हुए पर्वतशिखरों के समान स्वण के कवच ढोके जा रहे थे, दुर्जनों की वाणी के समान छेद करने वाले भाले लाये जा रहे थे, योद्धाओं के खून की लालसा वाली यम की जीभ के समान बहुत से अच्छे लोगों के जीवन को हरने वाली सुन्दर तलवारें प्रकट की जा रही थीं। वेश्या स्त्रियाँ गुणी व्यक्ति के संसर्ग होने पर भी जिस प्रकार स्वभाव से कुटिल होती हैं, उसी प्रकार धनुष डोरी से बंधे होने पर भी प्रकृति से कुटिल थे। दुष्टजनों की वाणी जिस प्रकार मर्म को छेदन करने में समर्थ होती है, उसी प्रकार बाण मर्मवेदन करने में समर्थ थे। गदाएँ वज्रलता के समान थीं। इस प्रकार युद्ध के उपकरण लाये जाने पर किसी ने प्रिया के स्तनों के स्पर्श में रुकावट डालने वाला है-ऐसा सोचकर शरीर में वज्र धारण नहीं कि उसी क्षण जिसका कंगन ढीला पड़ गया था, करधनी खिसकने लगी थी, आँखों से आंसू निकल रहे थे, मंगल हेतु विलक्षण हंसी हंसती हुई जो गाढ़ सन्ताप की अवहेलना कर रही थी, ऐसी प्रियतमा को 'यह में आ गया'-ऐसा कहकर आश्वासन दिया । जाने के इच्छुक (किसी) दूसरे के द्वारा मद्यपूर्ण पात्र (वड्ढय) प्रिया के मुख को समर्पित किये जाने पर और उसे पी लेने पर भी उसने उसे पूरी तरह आँसुओं से भर दिया । किसी दूसरी स्त्री ने प्रियतम के जाने पर मूर्छा द्वारा ही आना अनुराग दिखलाया। अनंगरति की ऐसी स्थिति में रहते हुए हम लोग आ गये। अब महाराज प्रमाण है। Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [समका तओ मए भणियं - ताडेह समरसन्नाहभरि आएससमणंतरं च ताडिया समरभासुरेण । सा य कुवियकत हुंकारसन्निहा वज्जपहारफुट्ट तगिरिसद्दभीसणा पलयज नयणायसरिसं गज्जिउं पवत्ता । समरसाहसरसियाणं च समुट्टओ कलयलरवो विज्जाहर भडाणं । तओ नीयमाणविलेवर्ण' दिज्जमाणसुरहिकुसुममालं पिज्जमानपवरासवं हसिज्ज माणवल्लहं संमाणिज्जमागसुहडं आलोइज्ज माणसन्निज् वणिज्ज माणपडिवक्खं सज्जिज्जमानविमाणं उब्भिज्जमाणभडइंधं दिज्जमाणपडायं पलं बिज्ज माणचामरं वज्झमाणकिणीजालं रइज्जमाणवूहविसेसं मंडिज्माणायवत्तं संपाडिज्जमाणगमणमंगलं उग्घो सिज्जमा गजयजयसद्दं सुणिज्जमानपुण्णाहघोस आबूरिज्जमाणरायंगणं पवट्टमाणकलयलं पहाव परियणं अम्हाणं पि सन्नद्धं बलं ति । उप्पइया विज्जाहर भडा, पर्यालियाणि विमाणाणि, निवेसिया पउमवू हरयणा । ठिओ वूहस्स अग्गओ चंडसीहो, वामपा से समरसेणो, दक्खिणेण देवोस हो, पछिमेण मयंगो, मज्झे पिगलगंधारो । अहं पिय विसाणारूढो वाउवेगप्यमुदिज्जाहर राय परियओ ४३२ ततो मया भणितम् ताडयत समरसन्नाहमेरोम् । आदेशसमनन्तरं च ताडिता समरभासुरेण । सा च कुपितकृतान्तहुङ्कारसन्निभावज्रप्रहारस्फुट गिरिशब्दभीषणा प्रलयजलदनादसदृशं गर्जितुं प्रवृत्ता । समरसाहस रसिकानां च समुत्थितः कलकलरवो विद्याधरभटानाम् । ततो नीयमानविलेपनं दीयमानसुरभिकुसुममालं पीयमानप्रवरासवं हास्यमानवल्लभं सम्मान्यमानसुभटम् आलोक्यमानसान्निध्यं वर्ण्यमानप्रतिपक्षं सज्यमानविमानम् उद्भिद्यमानभटचिह्न दीयमानपता कं प्रलम्ब्य मानचामरं बध्यमानकिङ्किणीजालं रच्यमानव्यूहविशेषं मण्ड्यमानातपत्रं सम्पाद्यमानगमनमङ्गलम् उद्घोष्यमानजय जयशब्दं श्रूयमाणगुण्याह (वाद्य) घोपम् आपूर्यमाणराजाङ्गणं प्रवर्तमानकलकलं प्रधावमानपरिजन मस्माकमपि सन्नद्धं बलमिति । उत्पतितः विद्याधरभटाः, प्रचलितानि विमानानि निवेशिता पद्मव्यूहरचना । स्थितो व्यहस्याग्रतश्चण्डसिंहः, वामपार्श्वे समरसेनः, दक्षिणेन देवर्षभः पश्चिमेन मतङ्गः, मध्ये पिङ्गलगान्धारः । अहमपि च विमानारूढो वायुवेगप्रमुख विद्याधरराज अनन्तर मैंने कहा - 'युद्ध करने की भेरी बजाओ !' आदेश के अनन्तर समर को द्योतित करने वाली भेरी बजायी गयी । वह भेरी कुपित यम के हुंकार के समान वज्र के प्रहार से फटे हुए पर्वतों के शब्द के समान और प्रलयकाल के मेघों के शब्द के समान गरजने लगी । युद्ध में साहस दिखलाने के रसिक विद्याधर योद्धाओं का कलकल शब्द उठा । अनन्तर हमारी भी सेना सन्नद्ध हो गयी। उस समय विलेपन लाये जा रहे थे, सुगन्धित फूलों की मालाएँ दी जा रही थीं, उत्कृष्ट मद्य पिया जा रहा था, प्रेमी हँस रहे थे, योढाओं का सम्मान किया जा रहा था । सान्निध्य दिखाई दे रहा था, प्रतिपक्ष का वर्णन किया जा रहा था, विमान सजाये जा रहे थे, योद्धाओं के चिह्न प्रकट हो रहे थे, पताकाएँ फहरायी जा रही थीं, चंवर लटकाये जा रहे थे, कंगन का समूह बांधा जा रहा था। व्यूह विशेषों की रचना की जा रही थी, छत्रों की शोभा की जा रही थी, प्रयागकालीन मंगल किया जा रहा था। 'जय जय' शब्द की घोषणा की जा रही थी, पुण्याह नामक वाद्य का शब्द सुनाई दे रहा था। राजा का आँगन भरा जा रहा था, कलकल शब्द हो रहा था और सेवक दौड़ रहे थे । विद्याधर योद्धा उड़े, विमान चले, कमलव्यूह की रचना की गयी । व्यूह के आगे चण्ड सिंह खड़ा हो गया, वायीं ओर समरसेन, दाहिनी ओर देवर्षभ, पश्चिम की ओर मतंग और बीच में पिंगल गान्धार खड़े हो गये। मैं भी विमान पर आरूढ़ हुआ वायुवेग प्रमुख विद्याधर राजाओं से घिरा होकर आकाश मार्ग में १. समररसहरितियागं क । २ दी माण ... ३. अलोनिजमनि । ४ । पुष्पुयविसेसं५. पुन्नाह निधो का ६. वायुवेगक, ख । - ख । Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमो भयो] ४३३ ठिओगय गमग । तओ आसन्नीहूयं अगंगरइबलं । पुच्छि भो मए परबलराईणं नामाइं अमियगई। भणियं च तेण-देव तुंडे ठिओ सपडवूहस्स कंचणदाढो, वामपासे असोओ, दक्खिणे कालसीहो', मझे विरूवो, पिट्ठओ अणंगरई । तओ परबलदंसणपहढं पयलियं चंडसीहबलं । पुरओ से ठियं जुद्धसज्जं कंचणदाढसेन्नं । तओ वज्जंतसमरतरं वग्गंतविज्जाहरं उग्घोसिज्जंतपुवपुरिसगोत्तं मच्चतसोहनायं सन्भवडियं जुद्धं । तत्थ खलसमिद्धीओ विय अहयाओ निवडंति भल्लीओ, कालरत्ति दिठ्ठिसन्निगासा' अइंति नाराया जममहिमसिंगतुल्लाओ पडंति गयाओ, लहुइयअसणिमाहप्पा' वियंभंति मोग्गरा, अद्ध चंदछिन्नाणि उप्पायमंडलाणि विय गलंति आयवत्ताणि । तओ सोणि रसित्तमहियलं विज्जाहरसीससंकुलं बहुपडियकबंधभीसणं निबडमाणपहरणसद्दालं सन्नाहनिवडियासिसंभूयहुयवहजालाउलं च जायं महासमरं ति । लग्गा दो वि नायगा। असिसत्तिकंतचक्केहि आवडियं पहाणजद्धं । तओ कंचि वेलं जज्झिऊण विसण्णो चंडसीहो आहओ कंचणदाढेण निडालवढे खग्ग रयणेण, निवडिओ य एसो। उठ्ठिओ अणंगरइबले विसमतूरनिग्घोससणाहो उद्दामकलयलो। भग्गंपरिवतः स्थितो गगनमार्गे। तत आसन्नीभूतमनङ्गरतिबलम् । पृष्टो मया परबलराजानां नामानि अमितगतिः । भणितं च तेन-देव !तुण्डे (मुखे) स्थितः शकटव्यहस्य काञ्चनदंष्ट्रः, वाम पार्वेऽशोकः, दक्षिणे कालसिंहः, मध्ये विरूपः, पृष्ठतोऽनङ्गरतिः । ततः परबलदर्शनप्रहृष्टं प्रचलितं चण्डसिंहबलम् । पुरतस्तस्य स्थितं युद्धसज्जं काञ्चनदंष्ट्रसैन्यम् । ततो वाद्यमानसमरतूर्ये ल्गद्विद्याधरम उद्घोष्यमानपूर्वपुरुषगोत्रं मुच्यमानसिंहनादं समापतितं युद्धम् । तत्र खलसमद्धय इवासुखदा निपतन्ति भल्ल्यः, कालरात्रिदृष्टिसन्निकाशा आयान्ति नाराचाः, यममहिषशृङ्गतुल्याः पतन्ति गदाः, लघुकृताशनिमाहात्म्या विज़म्भन्ते मुद्गराः, अर्धचन्द्रछिन्नानि उत्पातमण्डलानीव गलन्ति आतपत्राणि । ततः शोणितसिक्तमहीतलं विद्याधरशीर्षसंकलं बहुपतितकबन्धभीषणं निपतत्प्रहरणशब्दवत् सन्नाहनिपतितासिसम्भूतहुतवहज्वालाकुलं च जातं महासमरमिति । लग्नौ द्वावपि नायको। असि-शक्ति-कुन्त- चरापतितं प्रधानयुद्धम् । ततः काञ्चिद् वेलां युवा विषण्णश्चण्डसेन आहतः काञ्चनदंष्ट्रेण ललाटपट्ट खड्गरत्नेन, निपतितश्चैषः । उत्थितोऽनङ्गरतिबले विषमतूर्यनिस्थित हो गया। अनन्तर अनंगरति की सेना आ गयी। मैंने शत्रु-सेना के राजाओं के नाम अमितगति से पूछे । उसने कहा-'महाराज ! शकटव्यूह के मुख पर कांचनदंष्ट्र स्थित है, बायीं ओर अशोक, दक्षिण की ओर कालसिंह, बीच में विरूप और पीछे अनंगरति स्थित है । अनन्तर शत्रु-सेना को देख हर्षित हुई चण्डसिंह की सेना चल पड़ी। उसके सामने युद्ध के लिए सजी कांचनदंष्ट्र की सेना थी। अनन्तर युद्ध शुरू हो गया। उस समय युद्ध के बाजे बजाये जा रहे थे, विद्याधर उछल रहे थे। पूर्व पुरुषों के नामों की घोषणा हो रही थी तथा सिंहनाद किया जा रहा था । वहाँ पर दुष्टजनों की समृद्धि के समान दुःखदायी भाले गिर रहे थे । कालरात्रि के नेच के समान बाण आ रहे थे। यम के भैंसे के सींगों के समान गदाएँ पड़ रही थीं। वज के माहात्म्य को तिरस्कृत करते हुए मुद्गर बढ़ रहे थे । आधे चन्द्रमा के समान टूटे उत्पात-मण्डल के समान छत्र गिर रहे थे । अनन्तर बहुत बड़ा युद्ध हुआ । उसमें रक्त से धरती सींची गयी थी। वह युद्धक्षेत्र विद्याधरों के सिरों से व्याप्त था । बहुत से गिरे हुए धड़ों से भयंकर था और गिरी हुई गाड़ी के शब्द के समान कवच पर पड़ी हुई तलवार से उत्पन्न अग्नि की ज्वालाओं (चिनगारियों) से व्याप्त था। दोनों नायक युद्ध करने में लग गये । तलवार, शक्ति, भाला और चक्रों से प्रधान युद्ध हुआ । कुछ समय युद्ध कर कांचनदंष्ट्र के द्वारा खड्गरत्न से मस्तक पर आघात पहुंचाया हुआ चण्डसिंह आहत हो गया और गिर गया। भयंकर बाजों के शब्द के साथ अनंगरति की सेना में उत्कट १, कालजीहो-ख । २. ""संगासा-क । ३. लघुइयास"-क। Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૪ [ समराइच्चर हां चंडसीसेन्नं । उट्ठियं अगंगरइबनं । वो अहं समरसेव्यमुह विज्जाहरनरिदसहिओ धाविओ अहिमुहं अगरइबलस्स । अबडियं तेण समं महसमरं मुक्कतियसकुसुमोहं । भिडसंघडिय डोहसंकुलं तक्खणं चेव ॥४७३॥ आण्णावदियजीव कोडिचन कलियचाव मुक्के हि । अप्ण्णं गयणयनं सरेहि घणजलहरेहिं व ॥ ४७४॥ अन्नोन्नावडणखणखणंतक 'वाल निवहसंजणिओ । तडिनियरो व्व समंता विषय रिओ सिहिफुलिंगोहो || ४७५ ॥ । - मट्ठा य विमाणाणं खुरुप्पनिय देहि तक्खणं छिन्ना । सरघणजालं तरिया धवलध्या रायहंस व्व ॥ ४७६ ॥ कुंग्गभिन्ननिद्ददप्पियविज्याहरी ससंघाया । वरिसंति रुहिरवरिसं भयजणया पलयमेह व्व ॥ ४७७ ।। र्घोषसनाथ उद्दामकलकलः । भग्नं चण्डसिंह सैन्यम् । उत्थितमनङ्गरतिबलम् । ततोऽहं समरसेनप्रमुखविद्याधरनरेन्द्रसहितो धावितोऽभिमुखमनङ्गरतिबलस्य । आपतितं तेन समं महासमरं मुक्तत्रिदृशकुसुमोघम् । प्रतिभट संघटितभटौघसंकुलं तत्क्षणमेव ॥ ४७३॥ आकर्षित जीवाकोटिचको कृतचापमुक्तैः । आक्रान्तं गगनतलं शरैर्घन जलध रैरिव ॥ ४७४॥ अन्योन्यापतन खणखणायमानकर वालनिवह सञ्जनितः । तडिन्निकर इव समन्ताद् विस्फारितः शिखिस्फुलिङ्गौघः ॥४७५।। नष्टाश्च विमानानां क्षरप्रनिवतैस्तत्क्षणं छिन्नाः । शरघनजालान्तरिता धवलध्वजा राजहंसा इव ॥ ४५६ ॥ कुन्ताग्रभिन्ननिर्दयदर्पितविद्याधरेशसंघाताः । वर्षन्ति रुधिरवर्ष भयजनकाः प्रलयमेघा इव ॥ ४७७ कलकल शब्द उठा । चण्डसिंह की सेना नष्टभ्रष्ट हो गयी । अनंगरति की सेना बढ़ी। अनन्तर में समरसेन - प्रमुख विद्याधर राजाओं के साथ अनंगरति की सेना के सामने दौड़ा । उसके साथ ( मेरा ) महायुद्ध हुआ । देवताओं ने फूल बरसाये । उसी क्षण योद्धागण प्रतिपक्षी योद्धाओं से भिड़ गये । कान तक खींची हुई धनुष की प्रत्यंचा के कारण चक्रीकृत धनुष से आकाश को व्याप्त करने वाले मेघों के समान बाण छोड़े गये। एक-दूसरे पर छोड़ी हुई तलवारों का समूह बिजलियों के समूह के समान खन-खन शब्द करने लगा और उनसे अग्नि की चिनगारियों का समूह निकलने लगा । उस समय बाणरूपी बादलों के बीच राजहंसों के समान सफेद ध्वजाएँ विमानों के निचले भाग से कट गयीं और नष्ट हो गयीं । कुन्तों के अग्रभाग से कटे हुए निर्दय और घमण्डी विद्याधर राजाओं के समुदाय प्रलयकालीन मेघों के समान भयकारक विर की वर्षा करने लगे ।।४७३- ४७७ ॥ Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमो भवो ] मेल्लंति सोहनाए सत्तीओ भिडिमाल चक्काई । अन्नोन्नरणरसुग्गयपुलया दप्पुद्धरं सुहडा ॥ ४७८ ॥ एवं च वट्टमाणे महासमरे दिट्टो मए अणंगरई, भणिओ य एसो - भो भो विज्जाहरीसर, किमेहि वावाइएहिं विज्जाहर भडेहि, तुज्भं ममं च विबाओ; ता इओ एहि । तओ सो विहसिऊण चलिओ मे अहिं । भणियं च णेण - अरे धरणिगोयर, कोइसो तुज्झ मए सह विवाओ । कि सुओ ae सरिसियालाण विवाओ त्ति । मए भणियं - कि इमिणा जंविएणं । समागया नियाणवेला', ता भणिति एए समरसहासया सुरसिद्धविज्जाहरा, जो एत्थ सियालो, जो वा केसरि ति । एत्थंतरम्मि विइण्णो सुरसिद्धविज्जाहरेहि साहुवाओ । ओसरियाई बलाई । ठिया सयरववहारसहासया विज्जाहरनरिंदा', अम्हे वि गयगचारिणो । मुक्कं च णेण ममोवरि असणिवरिसं, वारियं च तं चम्मरयणेण भवईए । ठिया अदूरे फुरंतकरवालभासुरा विज्जुसंगया दिय मेहावली वामपासम्म भयवई । मए भणियं - भो भो विज्जा हरीसर, नियाणमेयं । ता कि इमिणा मायाजुज्झिएण, नियबलेण जुज्झामो मुञ्चन्ति सिंहनादान् शक्तो भिन्दिपालचक्राणि । अन्योन्यरण रसोद्गतपुलका दर्पोद्धुरं सुभटाः ॥ ४७८ ॥ एवं च वर्तमाने महासमरे दृष्टो मयाऽनङ्गरतिः, भणितश्चैषः - भो भो विद्याधरेश्वर ! किमेतैर्व्यापादितैविद्याधरभटैः, तव मम च विवादः, तत इत एहि । ततः स विहस्य चलितो मेऽभिमुखम् । भणितं च तेन - अरे धरणीगोचर ! कीदृशस्तव मया सह विवादः । किं श्रुतस्त्वया केसरिशृगालयोविवाद इति । मया भणितम् - किमनेन जल्पितेन । समागता निदानवेला, ततो भणिष्यन्त्येते समरसभासदः सुर-सिद्ध विद्याधराः योऽत्र शृगालो यो वा केसरीति । अत्रान्तरे वितीर्णः सुरसिद्ध विद्याधरैः साधुवादः । अपसृतानि बलानि । स्थिताः समरव्यवहारसभासदो विद्याधरनरेन्द्राः, आवामपि गगनचारिणी । मुक्तं च तेन ममोपरि अशनिवर्षम्, वारितं च तच्चर्मरत्नेन भगवत्या । स्थिता अदूरे स्फुरत्करवालभासुरा विद्युत्संगतेव मेघावली वामपार्श्वे भगवती । मया भणितम् - भो भो विद्याधरेश्वर ! निदानमेतत् ततः किमनेन मायायुद्धेन, निजबलेन युध्याव इति । ४३५ एक-दूसरे के प्रति युद्ध करने के रस से जिन्हें रोमांच उत्पन्न हो गया है, ऐसे दर्द से भरे हुए योद्धा लोग शक्ति, भिन्दिपाल, चक्र और सिंहनाद छोड़ने लगे ॥ ४७८ ॥ जब ऐसा युद्ध हो रहा था तभी मुझे अनंगरति दिखाई दिया । मैंने उससे कहा- 'हे हे विद्याधराधीश ! इन विद्याधर योद्धाओं को मारने से क्या लाभ ? तुम्हारा और मेरा विवाद है, अतः इधर आओ ।' तब वह हँसकर मेरी ओर चलने लगा। उसने कहा- अरे भूमिगोनर ! तेरा मेरे साथ सिंह और सियार के बीच विवाद सुना है ?' मैंने कहा - 'ऐसा कहने से क्या लाभ? अतः युद्ध के सभासद् ये देवता, सिद्ध तथा विद्याधर कहेंगे जो यहाँ पर शृगाल होगा बीच सुर, सिद्ध और विद्याधरों ने सराहना की । सेनाएँ दूर हट गयीं । समव्यवहार के सभासद् विद्याधर राजा और गगनचारी हम दोनों स्थित हो गये । उसने मेरे ऊपर अग्नि की वर्षा छोड़ी। भगवती ने चर्मरत्न से उसे रोक लिया । समीप में ही चमकती हुई तलवार के समान देदीप्यमान बिजली के साथ बायीं ओर भगवती ने मेघों का समूह खड़ा कर दिया। मैंने कहा - 'हे हे विद्याधरों के स्वामी ! यह निर्णय है अतः इस माया-युद्ध से क्या लाभ? १. निहसवेला - क । २. विज्जाहरिदा - ख । ३. य समोवे - क | कैसा विवाद है ? क्या तूने निर्णय का समय आ गया और जो सिंह होगा।' इसी Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३६ [ समराइच्चकहा त्ति । पडिवन्नं च तेण । आहओ अहं सत्तीए उरे । पहारवियणाउरो निवडिओ धरणिव? । उट्ठाइओ' कलयलरवो, किलिगिलियं अणंगर इबलेण। अमरिसबसेण उढिओ अहयं । रोसफुरियाहरं च मए वि आहओ गयाए अणंगरई, भिन्नसिरत्ताणमत्थगो निवडिओ धराए । उट्ठाइओ कलयलरवो, निवारिभो सो मए। गो तस्स समोवं । सनासातिऊण उद्याविभो एसो । लग्गो य सो ममं बाहुजुज्झेण । तओ दप्पुद्धरा विय वसहा पवणया विय जलहरा मत्ता विय दिसागया तहा संपलग्गा दुवे वि अम्हे, जहा रहिरधारापरिसित्तगत्ताणं पहारसंचुण्णियमउडाणं च म लक्खिओ विसेसो अम्हाणं सुरसिद्धविज्जाहरेहिं । तओ मए विज्जा लाइरेगेण विणिज्जिओ अणंगरई । उग्घोसिओ जयजयसद्दो सुरसिद्धविज्जाहरेहि, विमुक्कं च णे उवरि कुसुमवरिसं, समाहयं जयतूरं । तओ मए दिज्जमाणं पि रज्ज अणिच्छिऊण गओ तवोवणमणंगरई। अहमवि य सयलविज्जाहरिदसमुइओ पविट्ठो नयरं। दिट्ठा य विरहपरिदुब्बलंगी आणंदबाहोल्ललोयणा देवी । ईसि विहसियं मए । विलिया य एसा स्वविरहयक्खित्तहियएहिं पणमिया विज्जाहरिददेहिं । कयाओ नयरववत्थाओ । अहिसित्तो अहयं उभयबलप्रतिपन्नं च तेन । आहतोऽहं शक्त्या उरसि । प्रहारवेदनातुरो निपतितो धरणीपृष्ठे। उत्थितः कलकलरव:, किलिकिलितमनङ्गरतिबलेन । अमर्षवशेनोत्थितोऽहम् । रोषस्फुरिताधरं च मयाऽपि आहतो गदयाऽनङ्गरतिः, भिन्न शिरस्त्राणमस्तको निपतितो धरायाम् । उत्थितः कलकलरवः, निवारितः स मया । गतस्तस्य समीपम् । समाश्वास्य उत्थापित एषः । लग्नश्च स मया बाहुयुद्धेन । ततो दर्पोक्षुराविव वृषभौ पवनहताविव जलधरौ मत्ताविव दिग्गजो तथा संप्रलग्नौ द्वावप्यावाम्, यथा रुधिरधारापरिसिक्तगात्रयोः प्रहारसंचणितमुकुटयोश्च न लक्षितो विशेष आवयोः सुर-सिद्धविद्याधरैः। ततो मया विद्याबलातिरेकेण विनिजितोऽनरङ्गरतिः। उद्घोषितो जयजयशब्दः सुरसिद्ध-विद्याधरैः, विमुक्तं च ममोपरि कुसुमवर्षम्, समाहतं जयतूर्यम् । ततो मया दीयमानमपि राज्यमनिष्ट्वा गतः तपोवनमनङ्गरतिः । अहमपि च सकलविद्याधरसमुदितः प्रविष्टो नगरम् । दृष्टा च विरहपरिदुर्बलाङ्गी आनन्दवाष्पार्द्रलोचना देवी। ईषद् विहसितं मया । वीडिता चैषा रूपविस्मयाक्षिप्सहृदयैः प्रणता विद्याधरेन्द्र : । कृता नगरव्यवस्थाः। अभिषिक्तोऽहमुभय बलविद्याधरेश्वरैस्तत्र अपनी शक्ति से युद्ध करो।' उसने स्वीकार किया। मेरे वक्षःस्थल पर शक्ति की चोट लगी। प्रहार की वेदना से आतर होकर धरती पर गिर गया। इलकल शब्द उठा, अनंगरति की सेना किलकारी मारने लगी। क्रोधवश में उठा । रोष से जिसके अधर फड़क रहे थे, ऐसे मैंने भी गदा से अनंगरति पर चोट पहुंचायी। उसका शिरस्त्राण और मस्तक भिद गया (और वह) पृथ्वी पर गिर पड़ा। कलकल शब्द उठा, वह मैने रोका । (मैं) उसके समीप गया । आश्वासन देकर उसे उठाया । वह मेरे साथ बाहु युद्ध करने लगा। अनन्तर घमण्ड से भरे हुए दो बैलों के समान, वायु से ताड़ित दो मेघों के समान, दो मतवाले हाथियों के समान हम दोनों उस प्रकार युद्ध में लग गये कि खून की धारा से दोनों के शरीर सिंच गये, प्रहार से दोनों के मुकुट चूर्ण दो गये तथा देवता, सिद्ध और विद्याधों को हम दोनों में भेद दिखाई नहीं दिया । अनन्तर मैंने विद्याबल की अधिकता से अनंगरति को जीत 'लया। सुर, सिद्ध और विद्याधरों ने 'जय-जय' शब्द की घोषणा की और मेरे ऊपर फूलों की वर्षा छोड़ी, जीत के बाजे बजाये। अनन्तर मेरे द्वारा दिये गये राज्य को भी न लेकर अनंगरति तपोवन को चला गया । मैं भी समस्त विद्याधरों के साथ प्रसन्न होता हुआ नगर में प्रविष्ट हुआ और विरह से दुर्बल अंगों वाली, आनन्द के आँसुओं से गीले नेत्रों वाली देवी को देखा। मैं कुछ मुस्कराया । रूप और विस्मय से आक्षिप्त हृदय वाले विद्याधर राजाओं ने लज्जाशील इस देवी विलासवती को प्रणाम किया। नगर की व्यवस्था की। दोनों १. उद्धाइओ-ख । २. वराओ-क । ३. हलाए विय-के। | Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमो भवो ] विज्जाहरीसरे हि तत्थ रज्जे । ठावियाओ नीईओ । वीणा इव दिया । तओ समं कइवय विज्जाहरेहिं विलासवईए य गओ गुरुजणवंसणत्थं । बंदिया तेसि चलणा । जणिओ विभूइदंसणेण आणंदो । विलासवईनिग्गमणदुहिओ य सिद्धाएसमुनियसयल वृत्तंतो तप्पभूइ कुविओ अणंगवईए गंतूण सविनयं पसाइओ ईसाणचंदो | एवं गमिऊण कइवयदिय समागओ नियय रज्जे । अइक्कंतो कोइ कालो रज्जसुहह्मणुहवंतस्स । अन्नयाय मेरु व्व तुंग्याए घणतमालभमररंजणस रिसदेहच्छवी एरावणसरिसो चउदंतमुसलो रिमामावसेसाए रयणीए विट्ठो विलासवईए सुहपसुत्ताए सुमिणयम्मि सयललक्खणोवबेओ वयणेमुयरं पविसमाणो महागइंदो त्ति । सुहपडिबुद्धा एसा, साहिओ य हरिसवसुप्फुल्ललोयणाए देवीए ममं । भणिया एसा मए - सुन्दरि, सयलविज्जाहरनमिओ विज्जाहरचक्कबट्टी पुत्तो ते भविस्सइ । परियमिमी तयप्पभिदं विसेसेण तिवग्गसंपायणरयाए अइक्कंता नव मासा अद्धट्टमाणि य इंदियाणि । तओ सुपसत्थतिहिमुहुत्ते जाओ सुओ । वद्धाविओ अहं मंजरियाभिहाणाए दासचेडीए । ४३७ राज्ये । स्थापिता नीतयः । व्यतिक्रान्ताः कतिपयदिवसा । ततः समं कतिपयविद्याधरैविलासवत्या च गतो गुरुजनदर्शनार्थम् । वन्दितास्तेषां चरणाः । जनितो विभूतिदर्शनेनानन्दः । विलासवती निर्गमनदुःखितश्च सिद्धादेशज्ञातसकलवृत्तान्तस्तत्प्रभृति कुपितोऽनङ्गवत्यै गत्वा सविनयं प्रसादित ईशानचन्द्रः । एवं गमयित्वा कतिपयदिवसान् समागतो निजराज्ये । अतिक्रान्तः कोऽपि कालो राज्य सुखमनुभवतः । अन्यदा च मेरुरिव तुङ्गतया घन-तमाल-भ्रमराञ्जनसदृश देहच्छविरैरावणसदृशश्चतुदन्त मुशलश्चरमयामावशेषायां रजन्यां दृष्टो विलासवता सुखप्रसुप्तया स्वप्ने सकललक्षणोपेतो वदनेनोदरं प्रविशन् महागजेन्द्र इति । सुखप्रतिबुद्धेषा कथितश्व हर्षवशोत्फुल्ललोचनया देव्या मम । भणितैषा मया - सुन्दरि ! सकलविद्याधरनतो विद्याधरचक्रवर्ती पुत्रस्ते भविष्यति । | प्रतिश्रुतमनया । तत्प्रभृति विशेषेण त्रिवर्गसम्पादन रतायाऽतिक्रान्ता नव मासा अर्धाष्टमानि च रात्रिदिवानि । ततः सुप्रशस्त तिथिमुहूर्ते जातः सुतः । वर्धापितोऽहं मञ्जरिकाभिधानया दासचेटया । दत्तं पारितोषि सेनाओं के विद्याधर राजाओं ने उस राज्य पर मेरा अभिषेक किया, नीतियाँ स्थापित कीं । कुछ दिन बीत गये । अनन्तर कुछ विद्याधरों और विलासवती के साथ गुरुजनों के दर्शन के लिए गया । उनके चरणों की वन्दना की। विभूति के दर्शन से उन्हें आनन्द हुआ । विलासवती के निर्गमन से दुःखित सिद्धादेश से समस्त वृत्तान्त को जानने वाले और तभी से अनंगवती से कुपित (महाराज) ईशानचन्द्र को विनयपूर्वक जाकर प्रसन्न किया । इस प्रकार कुछ दिन बिताकर अपने राज्य में आये । राज्य-सुख का अनुभव करते हुए कुछ समय बीता । एक बार सुखपूर्वक सोयी हुई विलासवती ने रात्रि का अन्तिम प्रहर शेष रह जाने पर, स्वप्न में समस्त लक्षणों से युक्त हाथी, मुंह में प्रवेश करता हुआ देखा। वह हाथी ऊंचाई में मेरु के समान था । उसके शरीर को शोभा घन, तमाल, भौंरे अथवा अंजन के समान थी और ऐरावत के समान उसके चार बड़े-बड़े दांत थे । विलासवती सुखपूर्वक जाग गयी, हर्षवश विकसित नेत्रों वाली देवी (महारानी) ने मुझसे कहा। मैंने उसे बताया-'सुन्दरी ! समस्त विद्याधरों के द्वारा नत तुम्हारा विद्याधर चक्रवर्ती पुत्र होगा ।' उसने स्वीकार किया । उसी समय से विशेष रूप से धर्म, अर्थ और काम के सम्पादन में रत रहते हुए इसके नव माह साढ़े आठ रात्रि-दिन व्यतीत हो गये । अनन्तर शुभ तिथि और मुहूर्त में पुत्र उत्पन्न हुआ। मंजरिका नामक दासी ने मुझे बधाई Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ समराइच्चकहा ४३८ दिन्नं पारितोसियं । कारावियं बद्धावण्यं जाव संपन्नो मासो ति । अजियबलापभावेण पाविया रालच्छित्ति' काऊण अणाए चेव उवलद्धो' क्यं च से नामं अजियबलो ति । पत्तो कुमार भावं । एत्थंतरमि समुन्ना मे चिंता को दाणि कालो अम्मापिईणं' विद्वाणं ति । दुप्पडियाराणि अम्मापियरो लोयमि भवंति । अन्नं च । किं ताए रिद्धीए सेसफणारयणलाभतुल्लाए, जा सुयणेहि न भुत्ता, जा न य दिट्ठा खलयणेहिं । ता सम्बं पुच्छिऊण विज्जाहरनरिंदे अजियबलं भयवई च गच्छामि सदेति चितिऊण संपाडियं समोहियं । अमणुन्नियं च तेहि । निरुविऊण कोट्टवालं देवोसहं' निग्गओ राया मया चडगरण, अजियबलविउब्विए तेलोक्कविम्हयजणए विमाणमारूढो विलासवइसमेओ कुमार अजियबलेण य । इवयदिय हेहि पत्तो सेयवियं, आवासिओ सव्वरिउसमूह सन्निहे उज्जाणे, पेसिओ मए पवगगई निवेइउं तायस्स, पविट्ठो पडिहारसंसइओ तायस्यासं निवेइयं कथंजलिउडेण ममागमणं । तओ आणंदबाहजलभरियलोयणो कंटइयसव्वंगों उट्ठओ महाराओ; निग्गओ सयलं कम् | कारितं वर्धापनकं यावत्सम्पन्नो मास इति । अजितबलाप्रभावेण प्रापिता राज्यलक्ष्मीरिति कृत्वा अनयैवोपलब्ध (इति) कृतं च तस्य नाम अजितबल इति । प्राप्तः कुमारभावम् । अत्रान्तरे समुत्पन्ना मे चिन्ता - इदानीं कालो मातापितृणां दृष्टानामिति । दुष्प्रतिकाराश्च मातापितरो लोके भवन्ति । अन्यच्च किं तथा ऋद्धया शेषफणा रत्नलाभतुल्यया, या सुजनैर्न भुक्ता, या न च दृष्टा खलजनैः । ततः सम्यक् पृष्ट्वा विद्याधरनरेन्द्रान् अजितबलां भगवतीं च गच्छामि स्वदेशमिति चिन्तयित्वा सम्पादितं समोहितम् । अनुमतं च तैः । निरूप्य कोट्टपालं देवर्षभं निर्गतो राजा महता चटकरेण (आडम्बरेण ), अजितबलाविकुर्वितं त्रैलोक्यविस्मयजनकं विमानमारूढो विनासतासमेतः कुमाराजितबलेन च । कतिपयदिवसैः प्राप्त श्वेतविकाम् । आवासितः सर्वर्तुसमूहन्तिभ उद्याने प्रषितो मया वनगतिनिवेदयितुं त तस्य । प्रविष्टः प्रतोहार संसूचितः तातसकाशम् । निवेदितं कृताञ्जलिपुटेन ममागमनम् । तत आनन्दवाष्पजलभृतलोचनः कण्टकितसर्वाङ्ग उत्थिता महाराजः निर्गतः सक नान्नाःपुरामात्य- महासामन्त- नागरैश्च परिधृतः । दी। (मैंने) पारितोषिक दिया। एक मास होने पर महोत्सव कराया । अजितबला के प्रभाव से राजलक्ष्मी पायी । इस कारण इसी से ही प्राप्त हुआ है-ऐसा मानकर उसका नाम 'अजितबल' रखा । ( वह) कुमारावस्था को i प्राप्त हुआ। इसी बीच मुझे चिन्ता उत्पन्न हुई। इस समय माता-पिता के दर्शन का कौन-सा काल है ? लोक मातापिता का प्रतिकार करना कठिन है। दूसरी बात यह है कि सर्प के फण में रत्न होने के तुल्य उस ऋद्धि से क्या लाभ जिसका भोग सज्जनों ने नहीं किया और जिसे दुष्टों ने नहीं देखा । अतः विद्याधर राजाओं तथा भगवती अजितबला से भलीभाँति पूछकर अपने देश को जाऊँगा - ऐसा सोचकर इष्टकार्य किया। उन्होंने अनुमति दे दी । देवर्षभ को कोट्टपाल ( नगररक्षक) नियुक्त कर बड़े ठाठ-बाट के साथ राजा, अजितबला द्वारा विक्रिया से निर्मित तीनों लोकों को विस्मय में डालने वाले विमान पर आरूढ़ हो कुछ दिनों में श्वेतविका पहुँच गया । जिसमें सभी ऋतुएं विद्यमान थीं, ऐसे उद्यान में ठहर गये। मैंने पवनगति को पिता से निवेदन करने के लिए भेजा । प्रतीहार से अनुमति लेकर पिता के पास गया। हाथ जोड़कर अपने आने का निवेदन किया । तब आनन्द के आँसू आंखों में भरकर समस्त जंगों में रोमांच उत्पन्न हुए महाराज उठे और समस्त अन्तःपुर १. पारिया रायउलव्वित्ति - ख २ उवलद्धो जाओ मे पुत्ता- ख । ३. प्रम्माविऊणक । ४. दुष्पडियारा य मायापियरो भवन्ति लोयम्मिक । ५. फणाजाल क । ६. देोषयं क । ७. निवेइओ - ग । Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमो भवो ] ४३६ तेउरअमच्चमहासामंतनायरेहि य परिहरिओ। पच्चोणि गंतू । निवडियाइं चलणेसु अम्मा पिईण अम्हे। परुन्नं च पभयमभयवग्गेहि'। समासासिपाई कहकहवि अम चमहासामंतेहिं । तओ पवेसियाई राइणा महाविभूईए [सेयवियं । जणणिजणयाण निययदंसगेण आणंदो कुमारेण कओ। तओ महाविभूइए अइक्कंतो कोइ कालो तायसगासे चिट्ठतस्स । तओ पंचतमुवगएतु काऊण जणणिजणएसु रज्जाभिसेयं नियाणुजस्स कित्तिनिलयाभिहाणस्स गओ वेयड् पदयं । पट्टिो रहनेउरचक्कवालपुरं। अइक्कंतो कोइ कालो। एत्थरम्मि आगओ भयवं बहुसीसपरिवारो संपुग्णसमर गुणहरो चउन जसंगओ चित्तंगओ न म विज्जाहरसमणगो त्ति । आयण्णिओ मए परियणाओ। निगाओ अहं जयवंतदंसणवडियाए । वंदिओ भयवं। धम्मलाहिओ भयवया । भणियं च तेण --भो भो विज्जाहरीसर, पाक्यिं तए फलं पुवभागधेयाणं; ता इमं विद्याणिऊग पुणो वि कुसलपक्खे मई करेहि ति।सए भणियं-कोइसो कुसलपक्खो त्ति । आचिक्खिओ भयवयापसमसंवेगमूलो जिणदेसिओ धम्मो। परि ओ अम्हाणं, पडिवन्न सम्मत्तं, पच्चोणि (दे०) सन्मखं गत्वा निपतिताश्चरणयोर्मातापितृ णां वरम् । प्ररुदितं च प्रभूतमभयवगैः। समाश्वासिताः कथं कथमपि अमात्य-महासामन्तैः । तत प्रवेशिता राज्ञा महाविभूत्या [श्वेतविकाम् । जननीजनकयोश्च निजदर्शनेनानन्दः कुमारेण कृतः । ततो महाविभूत्या] त्यतिक्रान्तः कोऽपि कालः तातसकाशे तिष्ठतः । ततः पञ्चत्वमपगतयोर्जननी नकयो: कृत्वा राज्याभिषेकं निजानुजस्य कीर्तिनिलयाभिधानस्य गतो वैताढ्यपर्वतम् । प्रविष्टो र नपुरचऋवालपुरम् । अतिक्रान्तः कोऽपि कालः। ___ अत्रान्तरे आगतो भगवान् बहुशिष्यपरिवारः सम्पूर्णश्नमणगुणधरश्चतुर्ज्ञानसङ्गनश्चित्राङ्गदो नाम विद्याधरश्रमणक इति । आकर्णितो मया परिजनात् । निर्गतोऽहं भगवदर्शनवत्तितया । वन्दितो भगवान् । धर्मलाभितो भगवता। भणितं च तेन-भो भो विद्याधरेश्वर । प्राप्तं त्वया फलं पूर्वभागधेयानाम, तत इदं विज्ञाय पुनरपि कुशलपक्षे मतिं कुर्विति । मया भणितम-कीदशः कुशलपक्ष इति । आख्यातो भगवता (रमसंवेगमलो जिनदेशितो धर्मः । परिणतोऽस्माकम, प्रतिपन्नं महामात्य, महासामन्त और नागरिकों के साथ निकले। हम लोग समीप पहुँचकर माता-पिता के चरणों में झक गये । दोनों तरफ से लोग खूब रोये। अमात्य और महासामन्तों ने जिस किसी प्रकार आश्वासन दिया। तब महाविभूति के साथ राजा ने (श्वेतविका में) प्रवेश कराया, [कुमार ने अपने माता-पिता को दर्शन देकर आनन्दित किया, अनन्तर महाविभूति से माता-पिता के स्वर्गवास के बाद अपने कीर्तिनिलय नामक छोटे भाई का राज्य पर अभिषेक कर वैताढ्य पर्वत पर गया । रथनूपुरचक्रवाल नगर में प्रविष्ट हुआ। कुछ समय बीत गया। इसी बीच बहुत से शिष्यों के साथ श्रमण के सम्पूर्ण गुणों के धारी, चार ज्ञानों से युक्त, चित्रांमद नाम के विद्याधर श्रमण भगवान् आये । मैंने सेवकों से सुना। भगवान् के दर्शन करने के लिए मैं निकला। भगवान की वन्दना की । भगवान् ने धर्म-लाभ दिया और कहा–'हे विद्याधरेश्वर ! तुमने पूर्वजन्मों के भाग्यों का फल पा लिया है। अतः इसे जागकर पुनः शुभपक्ष में बुद्धि लगाओ ' मैंने कहा---'कैसा शुभ पक्ष ?' भगवान् ने कहा-'परमवैराग्य का मूल जिनोपदिष्ट धर्म ।' हमारी परिणति हुई, सम्यक्त्व हुआ, अणुव्रतों को धारण किया। .. बहूय"-क । २. कहकर वि समासासियोई-,३. "अन्नया कन्तूण तामलित्ति (त्ति) वि(ला)सव इनिग्गमणदुहिमो सिद्धाएमक्यणमणिप-गयलवुत्तंतो तयपभिई कुविओ प्रणंगवईए गंतूण सविणयं पसाइओ इसाणचंदो कुमारेण । एवं सो गमिऊण तत्थ कइ(व)यदियहे समागमो णो वि तायनगरि रि), ठिमी तत्य कइवि दियेहि" इत्यधिकः पाठः कपुस्तके । ४. "गणहरो-क । Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४० [समराइज्यकहा गहियाई अणुयाई। पुच्छिओ भयव वितंगओ - भयवं अह कि पुग मए पुवमायरियं, जस्स इमो विचित्तो' पिययमाविरहजलणसंतावो परिणामो त्ति । भयवया भणियं--सुण । अत्थि इहेव भारहे वासे कंपिल्लं नाम नयरं । तत्थ चंदउत्तो नाम नरवई होत्था । जगसुंदरी से भारिया। ताणं सुओ रामगुत्तो नाम तुमं ति । एसा य ते उत्तरावहरीसरतारापीढधूया हारप्पहा नाम पिययम त्ति । कयं च तुमए इमीए सह विसयसुहमणुहवंतेण अणाभोगओ इमं । उव. ट्ठिए वसंतसमए गयाइं तुम्हें कोलिउँ भवणुज्जाणं । पवत्ता य कीला, मज्जियाई भवणदोहियाए। उवट्टियाइं तीरसंठिएसु कयलीहरएसु । उवणीयं कुंकुमविलेवणं । कओ अंगराओ। एत्थंतरम्मि समागयं हंसमिहुणयं । तओ कोउगेण सरसकुंकुमविलित्तहत्थेण गहिया तए हंसिया इयरीए हंसओ ति । जणियं तेसि विरहदुक्खं । फसलियाणि कुंकुमराएण। विमुक्काणि थेववेलाए । पयट्टाणि अन्नोन्नं गवेसिउं। कुंकुमायसंगेग चक्कवायासंकाए दसणे वि परोप्परं न पच्चभिजाणियमणेहि । विरहवेयणाउराइं च ववसियाई मरणं । पवाहिओ दोहि पि तेहि गेहदीहियाए अप्पा। निरुद्ध नीसासं च सम्यक्त्वम्, गृहीतान्यणुव्रतानि । पृष्टो भगवान् चित्राङ्गदः--भगवन् ! अथ किं पुनर्मया पूर्वमाचरितम्, यस्यायं विचित्रः प्रियतमाविरहज्वलनसन्तापः परिणाम इति । भगवता भणितम्-शृणु।। ___अस्ती व भारते वर्षे काम्पिल्यं नाम नगरम् । तत्र चन्द्रगुप्तो नाम नरपतिभवत् । जगत्सुन्दरी तस्य भार्या । तयोः सुतो रामगुप्तो नाम त्वमिति । एषा च ते उत्तरापथनरेश्वरतारापीठदुहिता हारप्रभा नाम प्रियतमेति । कृतं च त्वयाऽनया सह विषयसुखमनुभवताऽनाभोगत इदम् । उपस्थिते वसन्तसमये गतौ युवां क्रीडितु भवनोद्यानम्। प्रवृत्ता च क्रीडा, मज्जिती भवनदीपिकायाम् । उपस्थितौ तोरसंस्थितेषु कदलीगृहेषु । उपनीतं कुंकुमविलेपनम् । कृतोङ्गरागः । अत्रान्तरे समागतं हंसमिथुनकम् । ततः कौतुकेन सरस कुंकुमविलिप्तहस्तेन गृहीता त्वया हंसिका इतरया हंसक इति । जनितं च तयोविरहदुःखम् । [फसलियाणि' (दे.)] शृङ्गारितौ कुकुमरागण । विमुक्तौ स्तोकवेलायाम्। प्रवृत्तौ अन्योन्यं गवेषयितुम् । कुकुमरागसंगेनचक्रवाकाशङ्कया दर्शनेऽपि परस्परं न प्रत्यभिज्ञातमाभ्याम् । विरहवेदनातुरौ च व्यवसितोमरणम् । प्रवाहितो द्वाभ्यामपि ताभ्यां गृहदाधिकायाभगवान चित्रांगद से पूछा-'भगवन् ! मैंने पहले क्या किया था, जिसका प्रियतमा के विरहरूप अग्नि के सन्ताप के समान यह फल हुआ। भगवान ने कहा-'सुनो इसी भारत देश में काम्पिल्य नाम का नगर है। वहाँ पर चन्द्रगुप्त नाम का गजा हुआ । उसकी पत्नी जगत्सुन्दरी थी। उन दोनों के तुम रामगुप्त नामक पुत्र थे । उत्तरापथ के राजा तारापीठ की यह पुत्री हारप्रभा तुम्हारी पत्नी थी। तुमने इसके साथ विषयसुख का अनुभव करते हुए इसके प्रति असावधानी की। वसन्त का समय उपस्थित होने पर तुम दोनों क्रीड़ा के लिए भवन के उद्यान में गये। दोनों क्रीड़ा करने में प्रवृत्त हुए और भवन की बावड़ी में स्नान किया। दोनों बावड़ी के किनारे कदलीगृह में उपस्थित हुए। केसर का लेप लाया गया। अंगराग (शरीर में चन्दनादि का विलेपन) किया। इसी बीच हंस का जोड़ा आया। तब कौतुक से सरस कुंकुम से लिप्त हाथ से तुमने हंसी और दूसरी (तुम्हारी पत्नी) ने हंस को पकड़ लिया। उन दोनों को विरह का महंचाया, दोनों का केसर के रंग से श्रृंगार किया। थोड़ी देर में दोनों को छोड़ दिया। दोनों एक-दूसरे को खोजने लगे। केसर के रंग के कारण चकवे की आशंका से दिखाई देने पर भी दोनों ने एक-दूसरे को नहीं पहिचाना । विरहवेदना से दोनों ने मरण का निश्चय किया। दोनों ने उसी बावड़ी में अपने आपको प्रवाहित कर दिया १. विवित्तो-क-ग, २. उदिए -का । ३. "महया विभूतीए" इत्यधितः -पुस्तके । ४. तुम्भे-क, । ५. समगु-~। प. TOHN" Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमो भवो] निम्बुड्डाणि जलमज्झे । तओ दुप्परिच्चययाए जोवियस्स भवियव्वयाए पियसंगमस्स अचितसत्तीए कम्मुणो अवगीयकुंकुमरायं' कंठगयपाणाणि उब्बुड्डाणि सहसा। जायं परोप्परदसणं । पच्चभिन्नायाणि अन्नोन्नं । एयं तए आयरियं, एयइयवरं च जं बद्धं कम्मयं, तस्स एसो परिणामो ति। तओ मए चितियं । अहो अप्पं नियाणं महंतो विवाओ त्ति । ता अलमणेयदुक्खसंबड्ढएण इमिणा पयासेण । पवज्जामि भयवओ समीवे समगत्तणं ति। भणिओ य भयवं चित्तंगओ। भयवं, विरत्तं मे चित्तं इमिणा नियचरियसवणेण । ता करेहि मे अणुग्गहं, उत्तारेहि इमाओ भवाडवीओ, देहि मज्झं समणलिगं । पडिवन्नं भयवया। तओ अहं नियसुयाजियबलस्स दाऊण रज्जं अघोसणापुव्वयं दवाविऊण य महादाणं महया विभईए वसुभूइणा देवीए य पहाणपरियणेण य समेओ पवन्नो समणत्तणं । ता एय मे विसेसकारणं ति। तओ जयकुमारेण भणियं-भयवं, सोहणं विसेसकारणं । धण्णो तुमं । अह कहं पुण भवाइ. मात्मा । निरुद्धनिश्वासं च निमग्नौ जलमध्ये । ततो दुष्परित्यजतया जीवितस्य भवितव्यतया प्रियसङ्गमस्य अचिन्त्यशक्त्या कर्मणीऽपनीतकुकुमरागं कण्ठगतप्राणौ उन्मग्नी सहसा। जातं परस्परदर्शनम् । प्रत्यभिज्ञातावन्योन्यम् । एतत्त्वयाऽऽचरितम्, एतद्व्यतिकरं च यद् बद्धं कर्म, तस्यैष परिणाम इति । ततो मया चिन्तितम्-अहो अल्पं निदानम्, महान् विपाक इति । ततोऽलमनेकदुःखसंवर्धनानेन प्रयासेन । प्रपद्ये भगवतः समीपे श्रमणत्वमिति । भणितश्च भगवान् चित्राङ्गदः--भगवन् ! विरकां मे चित्तमनेन निजचरितश्रवणेन । ततः कुरु मेऽनुग्रहम्, उत्तारय अस्या भवाटवोतः । देहि मह्य श्रमणलिङ्गम् । प्रतिपन्नं भगवता । ततोऽहं निजसुताजितबलाय दत्त्वा राज्यमाघोषणापूर्वकं दापयित्वा च महादानं महता विभूत्या वसुभूतिना देव्या च प्रधानपरिजनेन च समेतः प्रपन्नः श्रमणत्वम् । तत एतन्मे विशेषकारणमिति । ततो जयकुमारेण भणितम्-भगवन् ! शोभनं विशेषकारणम्, धन्यस्त्वम्, अथ कथं पुनर्भ और सांस रोककर जल में डूब गये। अनन्तर प्राण त्यागना कठिन होने से प्रियसंगम की होनहार से, कर्म की अचिन्त्य शक्ति से केसर का रंग निकल जाने पर कण्ठगत प्राण दोनों सहसा ऊपर आ गये । परस्पर देखा, एक दूसरे को पहिचान लिया। यह तुमने किया था, इस घटना से जो कर्म तुमने बांधा था, उसका यह परिणाम है।' तब मैंने सोचाओह ! थोड़ा-सा कारण था, फल बहुत बड़ा मिला। अतः अनेक दु:ख को बढ़ाने वाला यह परिश्रम व्यर्थ है। भगवान के समीप श्रमणत्व को प्राप्त होता हूँ। चित्रांगद भगवान से कहा-'भगवन् ! मेरा चित्त अपने इस चरित के सुनने से विरक्त हो गया है, अत: मुझ पर अनुग्रह करो। इस संसाररूपी वन से मुझे पार करो। मुझे श्रमण दीक्षा दो।' भगवान् ने स्वीकार किया। मनन्तर मैं अपने पुत्र अजितबल को राज्य देकर और घोषणापूर्वक महादान देकर बड़ी विभूति के साथ वसुमती देवी और प्रधान परिजनों के साथ श्रमण हो गया । तो यह मेरा विशेष कारण है।' अनन्तर जयकुमार ने कहा-'भगवन् ! विशेष कारण सुन्दर है, आप धन्य हैं । (कृपया यह बतलाइए) १. अवणीयं-क, अवणीयो कुकुमरायो-ख । Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४२ [समराइचकहा वीओ उत्तरणं, उत्तिण्णाण वा कत्थ गमणं ति । भयवया भणियं-सुण । एत्थ अडवी दुविहा, दवाडवी भावाडवी य । ताथ दवाडवोए ताव उदाहरणं । जहा कुओ वि य नयराओ कोइ सत्थवाहो पुरंतरं गंतुकामो घोसणं कारेई 'जो मए सह अमुगं पुरं गच्छइ, तमहं निद्देसकारिणं अविग्घेण पावेमित्ति'। निसामिऊण तमाघोसणं पयट्टा तेण सह बहवे सत्थिया। तओ सो तेसि पंथदोसगुणे कहेइ। भो भो सत्थिया, एत्य खलु एगो पंथो उज्जुिओ, अवरो मणागमणुज्जुओ, तत्थ जो सो अणज्जओ, तेण सुहयरं गम्मइ, परं बहुणा य कालेण, पज्जते वि उज्जयं ओयरिऊण इच्छियपुरं पाविज्जइ । जो पुण उज्जुओ, तेण दुक्खयरेण गम्मइ लहं च पाविज्जइ, जम्हा सो अतीव विसमो संकडो य । तत्थ खलु ओयारे चेव अच्चंतभीसणा अहिलसियपुरसंपत्तिविग्घहेयवो दुवे वर्षासंघा परिवसंति । ते य ओयरि चेव नो पयच्छति । तओ ते पुरिसयारेण उद्धंसिऊण ओरियन्वं । ओइण्णाण वि य ताव अणुवति । जाव अहिलसियपुरसमीवं । उम्मग्गलग्गं च पाणिणं वावाएंति; मग्गलग्गस्स य न पहवंतित्ति । रुक्खा य एत्थ एगे मणोहरा सिणिद्धपत्तला सुरहिकुसुमसोहिया सीयलच्छाया, अन्ने य वाटवीत उत्तरणम्, उत्तीर्णानां वा कुत्र गमनमिति । भगवता भणितम्-शृण । अत्राटवी द्विविधा, द्रव्याटवी भावाटवी च । तत्र द्रव्याटव्यां तावदुदाहरणम् । यथा कुतोऽपि च नगरात् कोऽपि सार्थवाहः पुरान्तरं गन्तुकामो घोषणं कारयति 'यो मया सहामुकं पुरं गच्छति तमहं निर्देशिकारिणमविघ्नेन प्रापयामि' इति । निशम्य तदाघोषणं प्रवृत्तास्तेन सह बहवः साथिकाः । ततः स तेभ्यः पथदोषगुणान् कथयति-भो भो: साथिका: ! अत्र खल्वेकः पन्था ऋजकः, अपरो मनागनजुकः । तत्र यः सोऽनजकः तेन सूखतरं गम्यते, परं बहुना च कालेन, पर्यन्नेऽपि ऋजुकमवतीर्य ईप्सितपुरं प्राप्यते । यः पुनऋजुकस्तेन दुःखतरेण गम्यते, लघु च प्राप्यते, यस्मात् सोऽतीव विषम सङ्कटश्च । तत्र खल्वतारे एवात्यन्त भीषणावभिलषितपुरसम्प्राप्तिविघ्नहेतु द्वौ व्याघ्रसिंहौ परिवसतः । तो चावतरितुमेव न प्रयच्छतः । ततस्तौ पुरुषकारेण उद्ध्वस्यावतरितव्यम् । अवतीर्णानामपि च तावदनुवर्तेते यावदभिलषितपुरसमीपम् । उन्मार्गलग्नं च प्राणिनं व्यापादयतः, मार्गलग्नस्य च न प्रभवत इति । वृक्षाश्चात्र एके मनोहरा: स्निग्धपत्राः सुरभिकुसुमशोभिता: शोनलच्छायाः, अन्ये च परिशटितपाण्डुपत्राः कुसुमसंसार रूपी वन को कैसे पार किया जा सकता है और पार हुओं का कहाँ गमन होता है ?' भगवान् ने कहा - 'वन दो प्रकार के होते हैं-द्रव्यवन और भाववन । द्रव्यवन का उदाहरण देते हैं जैसे किसी नगर से कोई व्यापारी दूसरे नगर को जाने की इच्छा करता हआ घोषणा कराता है जो मेरे साथ अमूक नगर को जायेगा उस निर्देश कारी को मैं बिना विघ्न के पहुंचा दूंगा।' उसकी घोषणा सुनकर बहुत से व्यापारी तैयार हो गये । तब वह उनसे रास्ते के दोष-गुणों को कहता है--हे हे व्यापारियो ! यहाँ पर एक पथ सरल है, एक थोड़ा कठिन है । उसमें जो कठिन है, उससे सुखपूर्वक गमन होता है, किन्तु बहुत काल में अन्त में सरल मार्ग को पाकर अभीष्ट को प्राप्त होते हैं। जो सरल है, उससे दःखपूर्वक जाया जाता है, किन्त जल्दी ही पहुंच जाते हैं। (दुःख पूर्वक गमन इसलिए होता है, क्योंकि वह अत्यन्त विषम और संकीर्ण है। उसमें उतरते ही अभिलषित नगर प्राप्ति में विघ्न के कारण अत्यन्त भीषण दो व्याघ्र-सिंह हैं । वे उतरने ही नहीं देते हैं तब पुरुषार्थ के द्वारा उन्हें नष्ट कर प्रयत्नपूर्वक उतरना चाहिए ।पार करने वालों के वे तब तक पीछे लगे रहते हैं जब तक अभिलषित पुर के समीप न आ जाओ। उन्मार्गगामी पुरुष को ये मार डालते हैं, मार्ग में जाने वाले को मारने में ये समर्थ नहीं होते हैं ? यहाँ वृक्ष भी कुछ मनोहर, चिरुने पत्तों वाले, सुगन्धित फूलों से सुशोभित और शीतल छाया वाले हैं, १. पराणेमिक । २. दुक्खयर-क। Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमो भवो' परिसडि पंडुपत्ता कुसुमपलविविज्जिया अमणोहरा य । तत्थ पढमाणं छाया वि विणासकारणं, कि पुण परिभोगोत्ति । न तेसु वीसमियव्वं, इयरेसु, महत्तमेत्तं वीस मियव्वं ति। मणोहररूवधारिणो महुरवयणा य एत्थ मग्गतडट्ठिया बहवे पुरिसा हक्कारेंति 'एह भो सत्थिया एह, एवं पि तं पुरं गम्मइ' त्ति । तेसि वयणं न सोयव्वं । सुसत्थिया उण मुहुत्तमेत्तमवि' काल खणवि न मोत्तव्वा। एपाइणो नियमा भयं । दुरंतो य थेवो दवग्गी अप्पमत्तेहि उल्ह'वेयव्वो, अणोल्हविज्जंता नियमेण डहइ । पुणो य दुग्गो उच्चो य पव्वओ, सो वि उवउत्तेहिं लंघियव्वो; अलंगणे य नियमा मरिज्जइ । तओविक महंती अइगविलगव्वरा' वंसकुडंगी, सा वि य दुययरं वोलेयव्वा। संठियाणं च तीए समोवे अणेए उवहवा । तओ अणंतरं च लहुओ खड्डोलओ। तस्स समीवे मणोरहो नाम बंभणो निच्चमेव परिवसइ। सो भणइ–भो भो सत्थिया, मणायं पूरेह५ एयं, तओ गमिस्सह ति। तस्स नो सोयव्वं वयणं, अवगणिऊण गंतव्वं । न खल सो परियव्वो । सो खु पूरिज्जमाणो महल्लयरो हवइ, थाओ य पडिभंसइ । फलाणि य णं एत्थ दिव्वाणि पंचप्पयाराणि नेत्ताइसुहयराणि किपागाणं, न पेक्खियव्वाणि, नवा भोत्तव्वाणि । बावीसं च णं एत्थ घोरा फलविवजिता अमनोहराश्च । तत्र प्रथमानां छायाऽपि विनाशकारणम्, कि पुनः परिभोग इति । न तेषु विश्रमितव्यम्, इतरेषु मुहूर्तमात्रं विश्रमितव्यमिति । मनोहररूपधारिणो मधुरवचनाश्चात्र मार्गतटस्थिता बहवः पुरुषा आकारयन्ति 'एत भोः सार्थिका एत, एवमपि तत्पुरं गम्यते' इति । तेषां वचनं न श्रोतव्यम् । सुसार्थिकाः पुनर्मुहूर्तमात्रमपि कालं क्षणमपि न मोक्तव्याः। एकाकिनो नियमाद् भयम् । दुरन्तश्च स्तोको दवाग्निरप्रमत्तैविध्यापितव्यः, अविध्याप्यमानो नियमेन दहति । पुनश्च दुर्ग उच्चश्च पर्वतः सोऽपि उपयुक्तैर्लवितव्यः, अलङ्घने च नियमाद् म्रियते । ततोऽपि च महती अतिगुपिल (गहन)-गह्वरा वंशकुडङ्गी, साऽपि च द्रुततरमतिक्रमितव्या। संस्थितानां च तस्याः समोपेऽनेक उपद्रवाः । ततोऽनन्तरं च लघुको गर्तालयः । तस्य समीपे मनोरथो नाम ब्राह्मणो नित्यमेव परिवसति । स भणति-भो भोः सार्थिकाः ! मनाक पूरयत एतम्, ततो गमिष्यथेति । तस्य नो श्रोतव्यं वचनम्, अवगणय्य गन्तव्यम् । न खल स पूरयितव्यः। स खल पूर्यमाणो महत्तरो भवति, पथश्च परिभ्रश्यति । फलानि चात्र दिव्यानि पञ्चप्रकाराणि नेत्रादिसुखकराणि किंपा. न्य (मार्ग के वथा) सडे हए, पीले पत्तों वाले, फल और फलों से रहित तथा अमनोहर हैं। उनमें से पहिले वृक्षों की छाया भी विनाशकारी है, परिभोग की तो बात ही क्या है। उनमें विश्राम नहीं करना चाहिए मनोहर रूप के धारी और मधुरवचन बोलने वाले (इस) मार्ग-स्थित बहुत से पुरुष बुलाते हैं-हे व्यापारियो, आओ आओ, इस प्रकार भी उस नगर को जाया जाता है । उनके वचन नहीं सुनना चाहिए। अच्छे व्यापारियों को मुहूर्त्तमात्र, क्षण भर के लिए भी नहीं छोड़ना चाहिए। अकेले व्यक्ति के लिए नियम से भय होता है। कठिनाई से अन्त की जाने वाली थोड़ी-सी दावाग्नि अप्रमादियों को बुझा देना चाहिए , न बुझाये जाने पर निश्चित रूप से जलाती है। पुनः दुर्ग और ऊँचा पर्वत मिलेगा, उसे भी उपयुक्त उपायों द्वारा नियमतः लाँघना चाहिए, न लांघने पर नियम से मरण होता है । अनन्तर बहुत बड़ी अत्यन्त गहन कोटर वाली बांस की जाली मिलेगी, उसे भी शीघ्रता से लांघ जाना चाहिए। उसके समीप खड़े होने पर अनेक उपद्रव होते हैं। इसके बाद छोटा-सा गर्तालय है ।उसके समीप मनोरथ नाम का ब्राह्मण नित्य ही रहता है। वह कहता है- 'हे व्यापारियो ! जरा इसको पूर दो, तब जाओ।' उस ब्राह्मण के वचन नहीं सुनना, न मानकर चले जाना । उसे पूरा मत करना। पूरे जाने पर वह और भी बड़ा हो जाता है और रास्ता नष्ट होता जाता है । यहाँ पर दिव्य, पांच प्रकार के, नेत्रादि को सुख देने वाले १. कंचि-क। २. अोल्ह-ग। ३.५ इगु विला-क। ४. नास्ति ख-पुस्तके । ५. पूरेहि-ख। ६. गमिस्ससि-ख । ७. अवम्निऊण-ख,८. पलिबिह-ख, Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [समरामकहा महाकाया' कराला पिसाया खणं खणमाहिद्दवन्ति । ते वि य ण गणेयव्वा । भत्तपाणं च एत्थ विभागओ परिभुज्जमाणमईव विरसं दुल्लहं च हवइ ति [विवागआ उणमईव सरसं जहा बालस्स य जवाभेसजं] । तत्थ न विसाइणा होयव्वं । अपयाणयं न कायव्वं ति, रयणीए वि जामदुयं नियमेण वहियव्वं । एवं च गच्छमाहि देवाणुप्पिया, खिप्पमेवाडवी घिज्जइ, चित्ता य तमेगंतदोगच्च वज्जियं निवुइपुरं पाविज्जइ ति। तत्थ न होंति पुणो केइ किलेसोबद्दवा। एस दिटुंतो, इमो उण उणओ। एत्थ सत्थवाहो तिलोचितामणी सुरासुरपूइओ अरहा। घोसणं तु अक्खेवणिविखेवणिसंवेयणिनिव्वेयणिलक्खणा धम्मकहा। सत्थिया य संसाराडविलंघणेण निव्वुइपुरपत्थिया जीवा अडवो पुण नारयतिरियमणुयदेवगइलक्खणो संसारो। उज्जयपंथो साहुधम्मो; मणागमणुज्जुओ सावधम्मो, सो वि य पज्जते साहुधम्मफलो चेव इच्छिज्जइ। न य भावओ अपडिवन्नसाहुधम्मा संसारावि लंघेति । इच्छियपुरं पुण जम्मजरामरणरोगसोगाइउवद्दवरहियं सिवपुरं । बग्घसिंघा य मोक्खविग्घहेयवो रागदोसा। अभिभया य हि पाणिणो पेच्छमाणा वि माइंदजालसरिसं जीव कानाम्, न प्रेक्षितव्यानि न वा भोवतव्यानि । द्वाविंशतिश्चात्र घोरा महाकायाः करालाः पिशाचाः क्षणं क्षणमभिद्रवन्ति । तेऽपि च न गणयितव्याः । भक्तपानं चात्र विभागतः परिभज्यमानमतीव विरसं दुर्लभं च भवतीति (विपाकतः पुनरतीव सरसं यथा बालस्य च इन्द्रयवभैषज्यम्)। तत्र न विषादिना भवितव्यम् । अप्रयाणकं न कर्तव्यमिति । रजन्यापि यामदुगं नियमेन वोढव्यम् । एवं च गच्छद्भिः देवानुप्रिया: ! क्षिप्रमेवाटवो लंध्यते, लङ्गित्वा च तदेकान्तदौर्गत्यजितं निर्व तिपुरं प्राप्यते इति । तत्र न भवन्ति पुनः केऽपि क्लेशोपद्रवाः । एष दष्टान्तः, अयं पुनरुपनयः। अत्र सार्थवाहस्त्रिलोकचिन्तामणिः सुरासुरपूजितोऽर्हन् । घोषणं तु आक्षेपणी-विक्षेपणी-संवेदनी-निवेदनीलक्षणा धर्मकथा। साथिकाश्च संसाराटवालङ्घनेन निवंतिपुरप्रस्थिता जीवाः । अटवी पुन र कतिर्यग्मनुजदेवगतिलक्षणः संसारः । ऋजुकपन्थाः साधुधर्मः मनागनजुक: श्रावकधर्मः, सोऽपि च पर्यन्ते साधुधर्मफल एव इष्यते । न च भावतोऽप्रतिपन्नसाधुधर्मा संसाराटवीं लङ्घन्ते । इप्सितपुरं पुनर्जन्मजरामरणरोगशोकाद्युपद्रवरहितं शिवपुरम् । व्याघ्रसिंहौ च मोक्षविघ्नहेतू रागद्वेषौ । अभिभूताश्च ताभ्यां किंपाकों के फल हैं। न तो उन्हें देखना चाहिए, न खाना चाहिए। यहां पर घोर, बड़े शरीर वाले बाईस भयंकर पिशाच हैं जो क्षण-क्षण पर आक्रमण करते रहते हैं। उन्हें भी नहीं गिनना (मानना) । बाँटकर खाया जाने वाला भोजन-पान अत्यन्त नीरस और दुर्लभ होता है । (इसका विपक अत्यन्त सरस होता है जैसे बालक के लिए इन्द्रजव औषधि सरस होती है ।) वहाँ पर विषादी मत होना। यात्रा से विरत मत हो जाना। रात्रि में भी दो प्रहर नि म से चलना। इस प्रकार चलने पर हे देवानुप्रियो ! शीघ्र ही वन लाँघ जाओगे और लांघकर उस एकान्त दुर्गति से रहित निवृत्तिपुर में पहुँचोगे। वहाँ पर पुनः कोई क्लेश तथा उपद्रव नहीं होंगे। यह दृष्टान्त है, पुनः यह उपनय है । यहाँ पर व्यापारी तीनों लोकों के चिन्तामणि सुर और असुरों से पूजित अर्हन्तदेव हैं । घोषणा आक्षेपणी, विक्षेपणी, संवेदनी और निवेदनी लक्षण वाली धर्म-कथाएं हैं। व्यापारियों का समूह यहाँ संसार रूप वन को लांघकर मोक्षपुरी को जाने वाले जीव हैं । जंगल नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देवगति लक्षण वाला संसार है सीधा (सरल) पथ साधु धर्म है, थोड़ा कठिन मार्ग श्रावक धर्म है , उसके भी अन्त में साधु धर्मरूपी फल इष्ट है । भाव से साधुधर्म को न प्राप्त करने वाले जीव संसारवन को पार नहीं करते हैं। अभीष्टपुर जन्म, बुढ़ापा, मरण, रोग, शोक आदि उपद्रवों से रहित मोक्ष नगर है। व्याघ्र, सिंह के रूप में मोक्ष जाने में विघ्न उपस्थित १. महाक राला-क-ख । २. नास्ति ख-पुस्तके, ३. लंघेइत्ति-ख, विलंघेति-क। Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमी भयो लोयं न चएंति परिवज्जिउं परम यसाहयं समणत्तणं। पवन्नवयाणं पि य एए असंपत्त केवलभावाणं न मुयंति मग्गं, विमुक्कजिणवयणमग्गे अहिहवंति जीवे न उण इयरे त्ति । मणोरमरुक्खच्छायाओ सपडिबंधाओ थोपसुपंडयसंसत्ताओ वसहीओ।परिसडियपंडुपत्ताओ य अणवज्जवसहीओ। मग्गतडत्था य हक्कारणपुरिसा परलोयविरुद्धोवएसदायगा पासत्थाई अकल्लाणमित्ता, सुसत्थिया उण अद्वारससीलंगसहस्सधारिणो समणा। दवग्गी कोहो, पवओ माणो, वंसकुडंगी माया, खड्डोलओ लोहो । मणोरहबंभणो इच्छाविसेसो, थेवपूरणे वि इमस्स अपज्जवसाणगमणं। किपागफलाणि सहादओ विसया । सोओण्हखुहापिवासाइया य बावीसं परीसहा पिसाया। विरसं भोयणं अणवज्ज महयरवित्तीए एसणिज्ज । अपयाणयं सया अप्पमाओ। जामदुयगमणं च सज्झायकरणं । एवं च वट्टमाणेहि देवाणुप्पिया, सिग्यमेव भवाडवी लंधिज्जइ, लंघिता य तमेगंतमणाबाहं सिवपुरं पाविज्जइ ति। तओ संजायसम्मत्तदेसविरइपरिणामेण भणियं जयकुमारेण-भय, एवमेयं न अन्नहा । प्राणिनः प्रेक्षमाणा अपि मृगेन्द्रजालसदशं जीवलोकं न शक्नुवन्ति प्रतिपत्त परमपदसाधकं श्रमणत्वम्। प्रपन्नवतानामपि चेतौ असम्प्राप्तकेवलभावनानां न मुञ्चतो मार्गम, विमुक्तजिनवचनमार्गान अभिभवतो जीवान् न पुनरितरानिति । मनोरमवृक्षच्छायाः सप्रतिबन्धः स्त्रीपशुषण्डकसंसक्ता वसतयः। परिशटितपाण्डुपत्राश्चानवद्यवसतयः। मार्गतटस्थाश्च आकारणपुरुषाः परलोक विरुद्धोपदेशदायकाः पार्श्वस्थादयोऽकल्याणमित्राणि, सुसाथिका: पुनरष्टादशशोलाङ्गसहस्रधारिणः धमणाः। दावाग्निः क्रोधः, पर्वतो मानः, वंशकुडङ्गी माया, गर्तालयो लोभः । मनोरथब्राह्मण इच्छाविशेष:, स्तोकपूरणेऽपि अस्य (गर्तालयस्य) अपर्यवसानगमनम् । किपाकफलानि शब्दादयो विषयाः। शीतोष्णक्षतपिपासादयश्च द्वाविंशतिः परिषहा पिशाचाः । विरसं भोजनमनवद्यं मधुकरवृत्त्या एषणीयम् । अप्रयाणकं सदाऽप्रमादः । यामद्विकगमनं च स्वाध्यायकरणम् । एवं च वर्तमानैर्देवानुप्रिय ! शीघ्रमेव भवाट वो लङ्घयते, लङ्घित्वा च तदेकान्तमनाबाधं शिवपुरं प्राप्यते इति । ततः सजातसम्यक्त्वदेशविरतिपरिणामेन भणितं जयकुमारेण-भगवन् ! एवमेतद् नान्यथा। करने वाले राग-द्वेष हैं। उन दोनों से अभिभूत हुए प्राणी मृगेन्द्रजाल के समान संसार को देखते हुए भी परमपद साधक श्रमणत्व को पाने में समर्थ नहीं होते हैं। व्रत धारण करने पर भी ये दोनों केवल भाव को न प्राप्त करने वालों के मार्ग को नहीं छोड़ते हैं, जिन्होंने जिन-मार्ग को छोड़ दिया है, उन्हीं जीवों को पराजित करते हैं, दूसरों को नहीं। मनोरम वृक्षों की छाया रुकावट से युक्त स्त्री, पशु, नपुंसकों के साथ निवास करना है। पीले और सड़े पत्ते निर्दोष निवास हैं । मार्ग के किनारे के बुलाने वाले पुरुष परलोक के विरुद्ध उपदेश देने वाले पार्श्वस्थ आदि अकल्याण मित्र हैं। अच्छे व्यापारी अठारह हजार शील के भेदों को धारण करने वाले श्रमण हैं । दावानल क्रोध है, पर्वत मान है, वंशकुडंगी (बांस की जाली) माया है, गर्तालय लोभ है। मनोरथ करने वाला ब्राह्मण इच्छा विशेष है, थोड़ा भरने पर भी इस गर्तालय का अन्त नहीं आयेगा। किंपाक फल शब्दादि विषय हैं। शीत, उष्ण, प्यास आदि बाईस परीषह पिशाच हैं । नीरस और निर्दोष भोजन की मधुकरी वृत्ति से कामना करनी चाहिए। सदा न गमन अप्रमाद है। दो प्रहर चलना स्वाध्याय करना है। इस प्रकार चलने पर हे देवानप्रिय ! शीघ्र ही संसाररूपी वन पार हो जाता है और इसे पारकर वह एकान्त, अनाबाध मोक्ष प्राप्त होता है। ___ अनन्तर, सम्यक्त्व के देशविरति रूप परिणाम जिसके उत्पन्न हुए हैं ऐसे जयकुमार ने कहा-'भगवन् ! 1, सणंकुमारं-ख। Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४६ (समराहचकहा गहियाई । अणुव्वयाइं पविट्ठो नार। कओ से पिउणा जुवरज्जाहिसेओ। पचत्तो सेविउ भयवंतं सणंकुमारायरियं । वित्तो मासकप्पो । गओ भयवं। एत्थंतरम्मि सो धणसिरीजीवनारओ तओ नरयाओ उव्वट्टिऊण संसारमाहिडिय अणंतरजम्मम्मि य तहाविहं कपि अामनिज्जरं पाविऊण मओ समाणो समुप्पन्नो इमस्स चेव जयकुमारस्स भाउयत्ताए त्ति। जाओ कालक्कमेण, पइट्ठावियं च से नाम विजओ त्ति । पत्तो कुमारभावं। कल्लहो जयकुमारस्स, अवल्लहो जयकुमारो विजयस्स' । एवं च अइक्कंतो कोइ कालो। अन्नया असारयाए संसारस्स निरवेक्खयाए मच्चुणो विचित्तयाए कम्मपरिणामस्स सपज्जवसाणयाए जम्मणों पंचत्तमुवगओ राया। अहिसित्तो रंज्जम्मि सामंतमंडलेण जयकुमारो।जिओ य पओसेण पलायमाणो रज्जट्टिई काऊण बद्धो रचितएहिं जाओ य से जणणीए सोओ। अन्नया य अत्याइयामंडवगयस्स राइणो आगया समुद्दवीई विय मुत्तानियरवाहिणी पाउससिरी विय समुगहीतान्यणवतानि । प्रविष्टो नगरोम् । कुतस्तस्य पित्रा यौवराज्याभिषेकः । प्रवत्तः सेवित भगवन्तं सनत्कुमाराचार्यम् । वृत्तो मासकल्पः । गतो भगवान् । अत्रान्तरे स धनश्रीजीवनारकस्ततो नारकादुद्वत्य संसारमाहिण्ड्य अनन्त रजन्मनि च तथाविधां कामपि अकामनिर्जरां प्राप्य मृतः सन् समुत्पन्नोऽस्यैव जयकुमारस्य भ्रातृतयेति । जातः कालक्रमेण । प्रतिष्ठापितं च तस्य नाम विजय इति । प्राप्तः कुमारभावम् । वल्लभो जयकुमारस्य, अवल्लभो जय कमारो विजयस्य । एव चातिक्रान्तः कोऽपि काल: । अन्यदाऽसारतया संसारस्य निरपेक्षतया मृत्योविचित्रतया कर्मपरिणामस्य सपर्यवसानतया जन्मनः पञ्चत्वमुपगतो राजा। अभिषिको राज्ये सामन्तमण्डलेन जयकुमारः । विजयश्च प्रद्वेषण पलायमानो राज्यस्थिति कृत्वा बद्धो राज्य चिन्तकैः । जातश्च तस्य जनन्या: शोकः । अन्यदा चास्थानिकामण्डपगतस्य राज्ञ आगता समुद्रवीचिरिव मुक्तानिक रवाहिनो, प्रावटोरिव समुन्नतपयोधरा यह ऐसा ही है, अन्य प्रकार का नहीं।' वह) अणुव्रत ग्रहण कर (अनन्तर) नगर में प्रविष्ट हुआ। उसके पिता ने उसका युवराज पद पर अभिषेक किया। (वह) भगवान् सनत्कुमार आचार्य की सेवा करने लगा। माह भर का नियम पूरा हुआ। भगवान् प्रस्थान कर गये। इसी बीच वह धनश्री का जीवनारकी उस नरक से निकलकर, संसार में भ्रमणकर, अनन्तर जन्म में किसी प्रकार अकामनिर्जरा मरकर इसी जयकुमार के भाई के रूप में आया। कालक्रम से उत्पन्न हआ। उसका नाम विजय रखा गया। वह कुमारावस्था को प्राप्त हुआ । जयकुमार का वह प्रिय था, किन्तु विजय को जयकुमार अप्रिय था। इस प्रकार कुछ समय बीता । एक बार संसार की असारता, मृत्यु की निरपेक्षता, कर्मपरिणति की विचित्रता तथा जन्म की समाप्तियुक्तता से राजा मृत्यु को प्राप्त हुआ। सामन्तसमूह ने राज्य पर जयकुमार का अभिषेक किया। विजय द्वेषवश भागने लगा। राज्य की स्थिति कर (उसे) राज्य के चिन्तकों ने बांध लिया। उसकी माँ को शोक हुआ। एक बार जब राजा सभामण्डप में बैठा हुआ था, तब प्रतीहारी आयी । वह प्रतीहारी मोतियों के समूह को वहन करने वाली समुद्र की तरंगों की भांति मोतियों के समूह को धारण किये हुए थी। समुन्नत पयोधरों (मेघों) वाली वर्षा ऋतु की शोभा की तरह वह उन्नत पयोधर (स्तनों) वाली थी। चन्दन की गन्ध को वहन करने वाली मलय की मेखला की तरह वह प्रतीहारी भी चन्दन की गन्ध को वहन कर रही थी। वसन्तलक्ष्मी के समान सुदर पत्र १. एयस्स-क । २. जंतुणो-क ३. अन्नत्थ वच्चमाणो-क। Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमो भवो ] ४४७ ओहरा मलय मेहला विय चंदणगंधवाहिणी वसंतलच्छी विय रुइरपत्ततिलयाहरणा' पडिहारी । ती यदुहाविरिक्कसंघडियकमल संपुडेण विय मत्थयावस्थिएण अंजलिगा पणामं काऊण विणत्तो राया । देव एसा खु ते जणणी केणावि कारणेण देवदंसण महिलसंती पडिहारभूमीए चिट्ठइ । तओ ससंभ्रमं 'चिट्ठह तुम्भे' त्ति भणंतो रामसंघायं उट्टिओ राया । गओ दुवारभागं । पणमिआ जगणी, भणिया य-अंब, किं न सद्दाविओ अहं, किंवा आगमण ओयणं । तओ परुइया एसा । भणियं च ण-अंब, किं निमित्तमिमं । तीए भणियं -ज - जाय, सुयसिणेह संवड्ढियसोयाणलवियारो'; ता देहि मे पुतजीवियं । राइणा भणियं - अंब, कुओ भयं कुमारस्स । तीए भणिय - जाय, ठिई एसा पयापरिवालज्जया नरवईणं, जं पडिवक्खभूओ महया जत्तेण रविखज्जइ । तओ सो कुमारो 'मा अन्नसामंतपयारिओ संपयं अद्दिविस्सइ' त्ति गहिओ रज्जचितएहि, अणुमयं च मे एयं । कि पुग जहा तस्स सरीरे पाओ न हवइ, तहा तए जइयव्वं ति । राइणा भणियं - अंब, कि पडिवक्खभूओ मे कुमारो; जइ एवं ता को उण सपक्खो त्ति । ता किं एइणा । एहि, अमितरं पविसम्ह । पविठ्ठो राया । उव 1 मलयमेखलेव चन्दनगन्धवाहिनी वसन्तलक्ष्मीरिव रुचिरपचतिलकाभरणा प्रतीहारी । तया च द्विधाविरिक्त (विभक्त) सङ्घटित कमलसम्पुटेनेव मस्तकावस्थितेन अञ्जलिना प्रणामं कृत्वा विज्ञप्तो राजा । देव ! एषा खलु ते जननी केनापि कारणेन देवदर्शनमभिलषन्ती प्रतिहारभूमौ तिष्ठति । ततः सम्भ्रमं तिष्ठत यूयम्' इति भणन् राजसङ्घातमुत्थितो राजा । गतो द्वारभागम् । प्रणता 'जननी भणिताच - अम्ब ! किं न शब्दयितोऽहम्, किं वाऽऽगमनप्रयोजनम् । ततः प्ररुदितैषा । भणितं च तेन - अम्ब ! किं निमित्तमिदम् । तया भणितम् - जात ! सुतस्नेहसंवर्धितशोकानलविकारः, ततो देहि मे पुत्रजीवितम् । राज्ञा भणितम् - अम्ब ! कुतो भयं कुमारस्य । तया भणितम् -- जात ! स्थितिरेषा प्रजापरिपालनोद्यतानां नरपतीनाम्, यत्प्रतिपक्षभूतो महता यत्नेन रक्ष्यते । ततः स कुमारो ' मा अन्य सामन्तप्रतारितः साम्प्रतमभिद्रविष्यति' इति गृहीतो राज्यचिन्तकैः, अनुमतं च मयैतद् । किं पुनर्यथा तस्य शरीरे प्रमादो न भवति तथा त्वया यतितव्यम् । राज्ञा भणितम् - अम्ब ! किं प्रतिपक्षभूतो मे कुमार:, यद्येवं ततः कः पुनः स्वपक्ष इति । ततः किमेतेन । एहि, अभ्यन्तरं प्रविशावः । तिलक और आभरणवाली थी अर्थात् जिस प्रकार वसन्तलक्ष्मी सुन्दर पत्ते और तिलकवृक्ष रूपी आभरण से युक्त होती है, उसी प्रकार वह भी सुन्दर पत्र रचना और तिलक से अलंकृत थी । उसने मस्तक पर रखे हुए, दो भागों में विभक्त मिले हुए कमल के सम्पुट के समान हाथ जोड़कर, प्रणाम कर राजा से निवेदन किया- "महाराज ! आपकी माता किसी कारण आपके दर्शन की अभिलाषा करती हुई द्वारभूमि पर खड़ी हैं ।" तब शीघ्र ही, 'आप लोग ठहरिए' कहता हुआ राजा राजसमूह के साथ उठ खड़ा हुआ । द्वार पर गया । माता को प्रणाम किया और कहा, 'माता ! मुझे क्यों नहीं बुला लिया अथवा आने का क्या प्रयोजन है ?' तब वह रोने लगी । उसने कहा'माता ! किस कारण से रो रही हो ?' वह बोली - 'पुत्र ! अतः मुझे पुत्र का जीवन दो ।' राजा ने कहा, 'माता ! कुमार तत्पर राजाओं की ऐसी स्थिति है कि वे से ठगाया गया इस समय भाग न जाय' इसकी अनुमति दे दी। अधिक क्या ? जिससे उसके शरीर में प्रमाद न हो, वैसा आप यत्न करें ।' राजा ने कहा'माता ! क्या कुमार मेरा प्रतिपक्षी है ? यदि ऐसा है तो स्वपक्ष कौन है ? अतः इससे क्या ? आओ, भीतर प्रवेश पुत्र- स्नेह से बढ़े शोकाग्निरूप विकार से रो रही हूँ को कैसा भय ?' उसने कहा - 'पुत्र ! प्रजा- पालन में प्रतिपक्षी की बड़े यत्न से रक्षा करते हैं । अतः इस कारण राज्य की चिन्ता करने वालों ने उसे - 1. रुइरेयत्ति तिलपापहरणा । २ किनिमितो एस सोभो । ३. वसवदिनो एसो सोमानल कुमार 'अन्य सामन्तों पकड़ लिया और मैंने Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४० ( समसपहा णीयं से जणगीए आसगं । उवविठा य एसा । भणियं च ण----भो भो महतया, आणेह इह कुमारं। गया कुमाराणयगनिमित्तं रायपुरिसा । चितियं च राइणा । अहो णु खलु ईइस इमं रज्ज, ज स्स कए महं अणाचिक्खियकारणंतरमवलंबिऊण एवं पि वसियं महंतएहि ति । ता कि एइणा बंधुजणस्स वि अणिव्वुइकरेण विहलकिलेसायासमेत्तेण परमपमाएक्कहेउणा विवागदारुणेणं रज्जेणं । एत्थं पि बहुमाणो अविइयसंसारसरूवाणं जीवाणं । अओ देमि इमं कुमारस्स, अवणेमि सुयसिणेहसंवढियसोयाणलवियारमंबाए । एत्थंतरम्मि पुव्वकयकम्मदोसेणं राइणो उवरि वहपरिणामपरिणओ आणिओ कुमारो। दिट्ठो राइणा, सबहुमाणं च ठविओ सीहासणे। आणाविया सुगंधोदयभरिया कणयकलसा । गहिओ राणा सयमेव एक्को, गहिया य अन्ने पहाणसामंतेहि। अहिसित्तो कमारो। भणियं च णण-भो भो सामंता भो भो महंतया, एस भे राय त्ति । एढा नवज्जा राइणा सेससामंतएहि य । तओ चलणेसु निवडिऊण पुच्छिया अंबा-अंब, अवि अवगओते सोयाणलो। तओ महापुरिसचरियविम्हयक्खित्तहिययाए भणियमंबा ए-जाय, कहमेवं अवेइ; न खलु इंधणेहितो चेव अवगमो सोयाणलस्स प्रविष्टो राजा । उपनीतमथ जनन्या आसनम् । उपविष्टा चैषा। भणितं च तेन--भो भो महान्तः, आनयतेह कुमारम् । ताः कुमारानयनमिमित्तं राजपुरुषाः । चिन्तितं च राज्ञा-अहो नु खल्वोदशमिदं राज्यम्, यस्य कृते महद् अनाख्यातकारणान्तरमवलम्ब्य एतदपि व्यवसितं महभिरिति । ततः किमेतेन बन्धुजनस्याप्यनिवतिकरेण विफलक्लेशायासमात्रेण परमप्रमादैकहेतुना विपाकदारुणेन राज्येन । अत्रापि बहुमानोऽविदितसंसारस्वरूपाणां जीवानाम् । अतो ददामीदं कुमाराय, अपनयामि सुतस्नेहसंवर्धितशोकानल विकारमम्बायाः । अत्रान्तरे पूर्वकृतकर्मदोषेण राज्ञ उपरिवधपरिणामपरिणत आनीतःकुमारः। दृष्टो राज्ञा, सबहुमानं च स्थापितः सिंहासने। आनायिता सुगन्धोदकभताः कनककलशाः । गृहोतो राज्ञा स्वयमेव एकः, गहोताश्चान्ये प्रधानसामन्तः । अभि. षिक्तः कुमारः । भणितं च तेन-भो भोः सामन्तः, भो भो महान्ता:, एष युष्माकं राजेति। क्षिप्ता (णवज्जा दे ) नमस्या राज्ञा शेषसामन्तैश्च । ततश्चरणयोर्निपत्य पृष्टाऽम्बा । अम्ब-अप्यपगतस्ते कानलः। ततो महापूरुषचरितविस्मयाक्षिप्तहृदयया भणितमम्बया-जात ! कथमेवमति, न राजा प्रविष्ट हआ। माता मासन लायी और बैठ गयी। राजा ने कहा -... 'हे हे प्रधानपुरुषो ! कुमार को यहां लाओ।' कुमार को लाने के लिए राजपुरुष गये। राजा ने सोचा-'ओह ! यह राज्य ऐसा है कि जिसके लिए बडे अकथनीय कारण का अवलम्बन लेकर प्रधानपुरुषों ने यह भी किया। अतः बन्धुजनों को भी अशान्ति फलरहित क्लेश और परिश्रम वाले, परम प्रमाद का एकमात्र कारण तथा परिणाम में दारुण इस राज्य से ग्या लाभ? संसार के स्वरूप को न जानने वाले जीव इसका भी आदर करते हैं। अतः इसे कुमार को देता है. पत्रस्नेह से जिसकी शोकरूपी अग्नि बढ़ रही है, ऐसे माता के विकार को दूर करता हूँ। इसी बीच पूर्वकृत कर्म के दोष से गजा का वध करने के भाव से भरा हुआ कुमार आया। राजा ने देखा और सम्मानपूर्वक सिंहासन पर बैठाया। मगधि के जल से भरे हुए स्वर्णकलश मंगवाये। राजा ने स्वयं एक लिया, दूसरे प्रधान सामन्तों ने भी लिये । कुमार का अभिषेक किया। उसने कहा, हे हे सामन्तो ! हे हे प्रधानपुरुषो! यह तुम्हारा राजा है।' राजा ने नमस्कार किया शेष सामन्तों ने भी नमस्कार किया । अनन्तर चरणों में गिरकर जयकुमार ने माता से पूछा, 'माता जी ! आपकी शोकरूपी अग्नि दूर हो गई ?' तब महापुरुष के चरित से विस्मित एवं आकृष्ट हृदय वाली माता ने कहा, १..."अणोवेक्खि अ.."-क। २. सुयंधो "-ख, सुगंधतोय."-क। Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमो भयो] राणा भणियं - अंब, कि पुण एत्थ कारणं ति नावगच्छामि । तोए भणियं - जाय, सुण । महामिसभूयं खु एयं रज्जं । एयबहुमाणेण य कुणिमगिद्धा इव मंडला अपरमत्यपेच्छिणो कावरिसा न गणेति सुकयं, म जाति उचियं, न पेच्छंति आयइं; विसयविसमोहियमणा सव्वहा तं तमायरंति, जेण साहीणे सग्गनिव्वाणगमणसाहणे अचितचितामणिरयणभूए मणुयत्ते निरयमेव गच्छंति ति । महापुरिसोय तुमं ति कज्जओऽवगच्छामि। एसो उण ते भाया कयाइ न एवंविहो हवेज्ज त्ति । अकल्लाणमित्तवं च राया हवइ । तस्सखल अणारिया विसयलो लुयत्तणेण कहं नाम अम्हे पिया भविस्सामो । तओ 'देस इण एस विसयसाहणं धणं' ति करेंति अकरणिज्जं, जंपंति अजंपियव्वं, पवत्तंति उभ्यलोगविरुद्धे, नियसंति धम्मववसायाओ । तओ सो सयं पि पावकम्मो पावकम्मेहि य पवत्तिओ, नत्थि तं जं न सेवइ । अओ जमासंकियमि मस्स, तं इमाओ नियमेण ते संभावेमि । ता कहं सोयाणलो मे अवेहति । राइणा भणियं - अंब, अलमासंकाए । सत्थो खु कुमारो | अहवा किमणेण । पवज्जामि अंबाए अणुनाओ सजीव निव्वुइकारयं समणत्तणं ति । तीए भणियं - जाय, अलं ते समणत्तणेणं । पयं परि खलु ईन्धनेभ्य एवापगमः शोकानलस्य । राज्ञा भणितम् - अम्ब! किं पुनरत्र कारणमिति नावगच्छामि । तया भणितम् — जात, शृणु । महाऽऽमिषभूतं खल्वेतद् राज्यम् । एतद्बहुमानेन च कुणिमगृद्धा इव मण्डला (काका) अपरमार्थप्रेक्षिणः कापुरुषा न गणयन्ति सुकृतम्, न जानन्त्युचितम्, न प्रेक्षन्ते आयतिम् विषयमोहितमनसः सर्वथा तत्तदाचरन्ति येन स्वाधीने स्वर्गनिर्वाणगमनसाधने अचिन्त्यचिन्तामणिरत्नभूते मनुजत्वे निरयमेव गच्छन्तीति । महापुरुषश्च त्वमिति कार्यंतोऽवगच्छामि । एष पुनस्ते भ्राता कदाचिन्न एवंविधो भवेदिति । अकल्याणमित्रवश्च राजा भवति । तस्य खल्वनार्या विषयलोलुपत्वेन 'कथं नाम वयं प्रिया भविष्यामः, ततो दास्यति नः (एष) विषयसाधनं धनम्' इति कुर्वन्त्यकरणीयम्, जल्पन्त्यजल्पितव्यम्, प्रवर्तन्ते उभय लोकविरुद्धे, निवर्तन्ते धर्मव्यवसायात् । ततः स स्वयमपि पापकर्मा पापकर्मभिश्च प्रवर्तितो नास्ति तद् यन्न सेवते । अतो यदाशङ्कितमस्य तदस्माद् नियमेन ते सम्भावयामि ततः कथं शोकानलो मेऽपतीति । राज्ञा भणितम् - अम्ब ! अलमाशङ्कया । स्वस्थः खलु कुमारः । अथवा किमनेन । प्रपद्येऽम्बयाऽनुज्ञातः ४४६ 'पुत्र ! कैसे दूर हो ? शोकरूपी अग्नि ईंधन से दूर नहीं होती है ।' राजा ने कहा, 'यहाँ पर क्या कारण है, मैं नहीं समझ पा रहा हूँ !' माता ने कहा, 'पुत्र ! सुनो यह राज्य बड़े मांस के समान है। इसके प्रति आदरभाव रखने के कारण मुर्दा खाने वाले गिद्ध और कौओं के समान, परमार्थ को न देखने वाले कायरपुरुष अच्छे कार्य को नहीं गिनते हैं, उचित को नहीं जानते हैं, भावी फल को नहीं देखते है। विषयरूपी विष से मोहित मन वाले सर्वथा उस प्रकार का आचरण करते हैं जिससे स्वाधीन, स्वर्ग और निर्वाण के गमन का साधन, अचिन्त्य चिन्तामणि के समान मनुष्यभव पाकर भी नरक में हो जाते हैं । 'तुम महापुरुष हो' ऐसा मैं कार्य से जानती है। तुम्हारा यह भाई कदाचित् इस प्रकार का न हो । राजा अकल्याण-मित्र होता है । विषयलोलुपी ने अनार्य 'हम कैसे प्रिय होंगे, (जिससे हमें ) यह विषयों का साधनभूत धन देगा' ऐसा सोचकर अकरणीय ( कार्य ) करते हैं, न बोलने योग्य (बातों) को बोलते हैं, इहलोक और परलोक के विरुद्ध प्रवृत्ति करते हैं । धर्मकार्य से दूर रहते हैं । तब वह पापकर्मा स्वयं भी पापकर्मों के द्वारा प्रवर्तित होकर ऐसी कोई वस्तु या विषय नहीं, जिसका वह सेवन नहीं करता है। इसके विषय में जो आशाएँ हैं उन सबकी इसमें नियम से सम्भावना करती हूँ । अतः मेरी शोकरूपी अग्नि कैसे दूर हो सकती है ?' राजा ने कहा- 'माता! आशंका मत करो। माता की अनुमति से समस्त जीवों को सुख देने वाला श्रमणत्व प्राप्त कुमार स्वस्थ है । अथवा इससे क्या करता हूँ।' उसने ( माता ने कहा, 'पुत्र, Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५० [समराइचकहा वालेहि, एयस्स वि य करेहि जवरज्जाहिसेयं ति। राइणा भणियं। अंब, तायपसायलालियाओ धन्नाओ पयाओ। निउत्तो य एयासि परिवालणे कुमारो। कयरज्जाहिसेयस्स य विरुद्धो जुवरज्जाहिसेओ। जिणधम्मबोहेण विरत्तं च मे चित्तं संसारवासाओ। ता कि बहुणर। फरेउ पसायं अंबा, पवज्जामि अह समणत्तणं ति। भणिऊग निवडिओ चलणेसु ।तीए भणियं--जाय, जे ते रोयइ; किंतु अहं पि पडिवज्जामि त्ति । राइणा भणियं --अंब, पयइनिपुणे संसारे जुत्तमेयं । एत्थ खलु सव्वे सपज्जवसाणा निचया, पडणंता उस्सेहा, विओयपज्जवसागा संजोया, मरणतं जीवियं । अकयसुकयकम्माण य दारुणो विवाओ, दुल्लहं च मणुयत्ते जिणिदवयणं । ता किच्चमेयमंबाए वि। भणिओ य कुमारो-वच्छ, तायपसायलालियाओं पयाओ; तंतहा चेट्ठियव्वं, जहा पयाओ केणइ उवद्दवेण न सुमरेंति तायस्स । परिच्चइयत्वं कुमारचेट्ठियं, अवलंयव्वं रायरिसिवरियं, न मइलियन्वो पुव्वपुरिसविढत्तो जसो । किं बहुणा । जहा सुलद्ध मिह माणुसत्तणं हवइ, तहा कायव्वं ति। भणिया य रज्जचितया सामंता य । तुहि पि उचियं नियविवेगरस सरिसं तायपसायाणं अणुरूवं महाकुलस्स सकलजीवनिर्वतिकारकं श्रमणत्वमिति । तया भणितम-जात ! अलते श्रमणत्वेन । प्रजा परिपालय एतस्यापि च कुरु यौवराज्याभिषेकमिति। राज्ञा भणितम् -अम्ब ! तातप्रसादलालिता धन्याः प्रजाः । नियुक्तश्चैतासां परिपालने कुमारः। कृतराज्याभिषेकस्य च विरुद्धो यौवराज्याभिषेकः । जिनधर्मबोधेन विरक्तं च मे चित्तं संसारवासात्, ततः किं बहुना। करोतु प्रसादमम्बा, प्रपद्येऽहं श्रमणत्वमिति । भणित्वा निपतितश्चरणयोः तया भणितम-जात: ! यत्ते रोचते, किन्त्वहमपि प्रतिपद्ये इत। राज्ञा भणितम्-अम्ब ! प्रकृतिनिर्गणे संसारे यक्तमेतद् । अत्र खल सर्वे सपर्यवसाना निचया:, पतनान्ता उत्सेधाः, वियोगपर्यवसाना: संयोगा:, मरणान्तं जीवितम् । अकृतसुकृतकर्मणां च दारुणो विपाकः । दुर्लभं च मनुजत्वे जिनेन्द्रवचनम। ततः कृत्यमेतदम्बाया अपि । भणितश्च कमार:--वत्स ! तातप्रसादलालिता: प्रजाः, ततथा चेष्टितव्यं यथा प्रजाः केनचिदुपद्रवेण न स्मरन्ति तातस्य । परित्यक्तव्यं कुमारचेष्टितम्, अवलम्बितव्यं राजर्षिचरितम्, न मलिनयितव्यं पूर्वपुरुषाजितं यशः । किं बहुना, यथा सुलब्धमिह मानुषत्वं भवति तथावर्तव्यमिति । भणिताश्च राज्यचिन्तकाः सामन्ताश्च । युष्माभिरपि उचितं निजविवेकस्य सदशं तातप्रसादानामनरूपं महाकलस्य वद्धिकारक तुम श्रमणत्व ग्रहण मत करो अर्थात श्रमण मत बनो । प्रजा का पालन करो, इसका भी युवराज पद पर अभिषेक करो।' राजा ने कहा, 'माता ! पिताजी की कृपा से लालित प्रजाएं धन्य हैं और इनकी रक्षा करने के लिए कुमार को नियुक्त किया है । किये हुए राज्याभिषेक वाले का युटराज पद पर अभिषेक विरुद्ध है । जिनधर्मरूपी बोध से मेरा चित्त संसार में निवास करने से विरक्त है, अतः अधिक कहने क्या, म.ता जी, कृपा करो, मैं श्रमणत्व को प्राप्त होऊँगा'-- ऐसा कहकर चरणों में गिर गया। माता ने कहा-'पुत्र ! जो तुम्हें रुचिकर लगे। किन्तु मैं भी दीक्षा धारण करूंगी।' राजा ने कहा, 'माता ! स्वभाव से गुणहीन इस संसार में यह ठीक है । इस संसार में सारे पदार्थों का समूह विनाशशील है, शरीरों का अन्त में पतन होता है। संयोग का अन्त वियोग में होता है और जीवन भी मरणान्त है । अकृत और सुकृत कर्मों का विपाक दारुण है । मनुष्यभव प्राप्त होने पर भी जिनेन्द्र भगवान् के वचन दुर्लभ हैं । अत: माता के लिए भी दीक्षा धारण करना योग्य है' और कुमार से कहा, 'वत्स ! पिता जी के स्वभावानुसार मालित प्रजा के प्रति उसी प्रकार की चेष्टाएँ करना ताकि प्रजा को किसी उपद्रव से पिता का स्मरण न करना पड़े। कुमारचेष्टाओं को छोड़कर राजर्षि के चरित का अवलम्बन करना। पूर्वपुरुषों के द्वारा प्रजित यम को मलिन नहीं करना। अधिक कहने से क्या, जैसे यह मनुष्यभव सफल हो वैसा (प्रयत्न) करना।' राजचिन्तकों और सामन्तों से कहा, 'आप लोग भी अपने विवेक के योग्य, पिताजी के अच्छे स्वभाव के Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमो भवो ] જર્મ विद्विकारयं किती हियं पयाकुमाराणं उभयलोयसुहावहं चेट्ठियव्वं ति । तत्थ के हिंचि इहसावेक्खहिं भणियं - महाराय, कोइसा अम्हाणं महारायविरहियाणं दुवे वि लोया । तहावि जं देवो आणवे । अपsिहसासणो देवो । के अम्हे समीहियंत रायकरणस्स विसेसओ परलोयमग्गे । तओ अहिदिऊण एवं तेसि वयणं उट्टिओ राया । पयट्टी सणकुमारायरियसमीवं । एत्थंतर म्म समागओ गुरुपवत्तिकहणनिउत्तो सिद्धत्यो नाम बम्भणो । भणियं च तेण - देव, संसिद्धा ते मणोरहा । इहेवागओ भगवं सणकुमारायरिओ, आवासिओ तेंदुगुज्जाणे एयं च सोऊण हरिसिओ राया। सत्तट्ठ वा पयाणि गंतून तप्पएसट्ठिएणेव पडिलेहिय महियलं समुल्लसियरोमंचं ' धरणिनिहियजाणुकरयलेणं वंदिओ णेण, वंदिऊण पयट्टो भयवंतदंसणवडियाए । विन्नत्तो महंतयसासंतेहि । देव, संन्नं चेव समीहियं देवस्स । ता एत्थेव पसत्थतिहिकरणमुहुत्तजोए पव्वइस्सइ देवो । पडियं राइणा । गओ गुरुसमीवं । इयरेहि पि विजयं भणिऊण दावावियं महादाणं, काराविया सव्वाय पूया | अन्नया य पसत्थे तिहिकरणमुहुत्तजोए समारूढो रहवरं परियरिओ रायलोएण हितं प्रजाकुमारयोरुभयलोकसुखावहं चेष्टितव्यमिति । तत्र कैश्चिदिहलोक सापेक्षैर्भणितम् - महाराज ! कीदृशौ अस्माकं महाराजविरहितानां द्वावपि लोकौ तथाऽपि यद्देव आज्ञापयति । अप्रतिहतशासनो देवः । के वयं समीहितान्त रायकरणस्य विशेषतः परलोकमार्गे । तवोऽभिनन्द्य एतत्तेषां वचनमुत्थितो राजा । प्रवृत्तः सनत्कुमाराचार्य समीपम् । अत्रान्तरे समागतो गुरुप्रवृत्तिकथननियुक्तः सिद्धार्थो नाम ब्राह्मणः । भणितं च तेन - देव । संसिद्धास्ते मनोरथाः । इहैवागतो भगवान् सनत्कुमाराचार्यः । आवासितस्तिन्दुकोद्याने । एतच्च श्रुत्वा हृष्टो राजा । सप्ताष्ट वा पदानि गत्वा तत्प्रदेशस्थितनैव प्रतिलेख्य महीतलं समुल्लसितरोमाञ्चं धरणोनिहितजानुक्ररतलेन वन्दितस्तेन । वन्दित्वा प्रवृत्तो भगवद्दर्शनवृत्तितया । विज्ञप्तो महत्कसामन्तः - देव । सम्पन्नमेव समीहितं देवस्य । ततोऽत्रैव प्रशस्ततिथिकरण मुहूर्त योगे प्रव्रजिष्यति देवः । प्रतिश्रुतं राज्ञा । गतो गुरुस नोपम् । इतरैरपि विजयं भणित्वा दापितं महादानम्, कारिता सर्वायतनेषु पूजा । अन्यदा च प्रशस्ते तिथिकरणमुहूर्तयोगे समारूढो रथवरं परिवृतो राज समान, महान् कुल के अनुरूप, कीर्ति की वृद्धि करने वाली, प्रजा और कुमार दोनों के लिए हितकारी, उभयलोक के लिए सुख प्रदान अरने वाली चेष्टाएँ करें ।' वहाँ पर कुछ इहलोक सापेक्ष लोगों ने कहा, 'महारज ! महाराज से रहित हमारे दोनों लोक कैसे हितकारी हो सकते हैं ? तथापि जो महाराज आज्ञा दें । महाराज की आज्ञा का उल्लंघन नहीं किया जा सकता । हम लोग इष्ट कार्य में विघ्न डालने वाले भला कौन होते हैं, विशेषत. परलोक मार्ग में ?' अनन्तर उनके इन वचनों का अभिनन्दन कर राजा उठ गया और सनत्कुमार आचार्य के समीप गया । इसी बीच गुरु का समाचार देने में नियुक्त सिद्धार्थ नामक ब्राह्मण आया। उसने कहा, 'महाराज ! आपके मनोरथ सिद्ध हुए । भगवान् सनत्कुमार आचार्य यहीं आये हुए हैं, तिन्दुक नामक उद्यान में ठहरे हुए हैं ।' यह सुनकर राजा प्रसन्न हुआ । सात आठ कदम चलकर उसी स्थान पर खड़े होकर, पृथ्वी का निरीक्षण कर, प्रकट रोमांचों वाला होकर, पृथ्वी पर घुटने टेककर, हथेलियों से उसने नमस्कार किया । नमस्कार कर भगवान् के दर्शन की वृत्तिरूप से प्रवृत्त हुआ । महासामन्तों ने निवेदन किया, 'महाराज ! आपकी इच्छा पूर्ण हो गयी । अतः यहीं उत्तम तिथि, करण और मुहूर्त योग में महाराज प्रब्रजित होंगे राजा ने स्वीकार किया । ( वह) गुरु के समीप गया । दूसरों ने भी विजय से कहकर बहुत दान दिलाया, समस्त आयतनों में पूजा करायी । एक बार उत्तम तिथि, करण और मुहूर्त योग में रथ पर आरूढ़ होकर राजाओं द्वारा घिरे हुए, ईप्सित वस्तु के दान की घोषणा १. रोमचेणख । ? Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [समराहचकहा घोसिज्जमाणाए वरवरियाए पूरेतो अस्थिजणमणोरहे 'अहो अच्छरीयमहो उत्तिमपुरिसचेट्टियं' ति भणमाणेहि पुलोइज्जमाणो नायरेहि 'अणाहा कायंदी, अयालो य एसो पध्वज्जाए ति जंपमाणीहि सदुक्खं कहकवि दिस्समाणो नायरियाहिं वज्जन्तेण पुण्णाहतूरेण पढ़तेहिं मंगलाई' बंदिवं हि पच्वज्जनिमित्तं निग्गओ नयरीओ राया। पत्तो तेंदुगुज्जाणं । पव्वइओ एसो सणंकुमारायरियसमीवे सह जणणीए पहाणपरियणेण य । कचि वेलं चिट्ठिऊण य वंदिऊण य भयवंतं बाहोल्ललोयणा पविट्ठा कायंदि रायनायरया। अन्नया य समत्ते मासकप्पे विहरिओ भयवं । अहिज्जयं च सत्तं जयाणगारेण । तओ निरइयारं सामण्णमणुवालेतस्स अइक्कंतो कोइ कालो।। इओय 'नवावाइयो पव्वइओ'त्ति जाओ से मच्छरो विजयस्स । पेसिया यणेण कुओइ कालाओ इमस्स नियपच्चयपुरिसा वावायगा । तेहि चिय किनिमित्तं अणिमित्तवावायणं' अवावाइऊण वावाइयो'त्ति निवेइयं विजयस्स । परितुट्ठो खु एसो। अन्नया य 'कयाइ कस्सइ मं दळूण हवेज्ज जिणधम्मपडिबोहोत्ति अवस्सभवियव्वयानिओएण अणुन्नविय गुरुं कइवयसुसाहपरिवारिओ सयलोकेन उदघोष्यमाणया वरवरिकया पूरयन् अथिजनमनोरथान् 'अहो आश्चर्यमहो उत्तमपुरुषचेष्टितम्' इति भणभिः प्रलोक्यमानो नागरकैः 'अनाथा काकन्दी, अकालश्चैष प्रव्रज्यायाः' इति जल्पन्ताभिः सदुःखं कथं कथमपि दृश्यमानो नागरिकाभिः, वाद्यमानेन पूर्णाहतूर्येण पठद्भिमंडलानि वन्दिबन्द्रः प्रव्रज्यानिमित्तं निर्गतो नगर्या राजा। प्राप्तस्तिन्दुकोद्यानम् । प्रवजित एष सनत्कुमाराचार्यसमोपे सह जनन्या प्रधानपरिजनेन च । कांचिद् वेलां स्थित्वा च वन्दित्वा च भगवन्तं वाष्पाद्रलोचनाः प्रविष्टाः काकन्दी राजनागरकाः। अन्यदा च समाप्ते मासकल्पे विहृतो भगवान । अधीतं च सूत्रं जयानगारेण । ततो निरतिचारं श्रामण्यमनुपालयतोऽतिक्रान्तः कोऽपि कालः । इतश्च व्यापादितः प्रवजितः' इति जातश्चाथ मत्सरो विजयस्य । प्रेषिताश्च तेन कृतश्चिकालादस्य निजप्रत्ययितपुरुषा व्यापादकाः। तैरेव किं निमित्तमनिमित्तं व्यापादनम्' इत्यव्यापाद्य 'व्यापादितः इति निवेदितं विजयाय । परितुष्टः खल्वेषः । अन्यदा च 'कदाचित् कस्यचिद् मां दष्टवा भवेद् जिनधर्मप्रतिबोधः' इत्यवश्यभवितव्यतानियोगेनानुज्ञाप्य गुरुं कतिपयसुसाधुपरिवृतः के साथ याचकों के मनोरथ पूर्ण करते हुए, 'ओह ! उत्तम पुरुषों की चेष्टाएँ आश्चर्यकारक हैं," ऐसा कहते हुए नागरिकों द्वारा देखा जाता हुमा राजा प्रव्रज्या के लिए नगर से निकला। उस समय नागरिकाएँ काक हो गयीं, 'यह प्रव्रज्या का समय नहीं है'-ऐसा कहती हुई उसे जिस किसी प्रकार देख रही थीं। पूरी तरह से आहत कर बाजे बजाये जा रहे थे तथा बन्दियों का समूह मंगलपाठ कर रहा था। राजा तिन्दुक उद्यान में आया। माता और प्रधान परिजनों के साथ यह सनत्कुमार आचार्य के पास प्रवजित हो गया। कुछ समय तक ठहरकर और भगवान् की वन्दना कर, आँखों में आंसू भरकर राज्य के नागरिक काकन्दी में प्रविष्ट हुए । एक बार एक माह का नियम समाप्त होने पर भगवान् विहार कर गये। जयमुनि ने सूत्र पढ़ा। अनन्तर निरतिचार यतिधर्म का पालन करते हुए कुछ समय बीत गया। इधर 'यह मारा नहीं गया, प्रवजित हो गया'-इस कारण विजय को द्वेष हुआ। कुछ समय बाद इसने मारने के लिए अपने विश्वस्त पुरुष भेजे । उन्होंने बिना कारण मारने से क्या लाभ ? ऐसा सोचकर बिना मारे ही 'मार दिया, ऐसा विजय से निवेदन किया । यह सन्तुष्ट हो गया। एक बार 'कदाचित् मुझे देखकर किसी को जिनधर्म का बोध हो'-इस प्रकार अवश्य घटित होने वाली भवितव्यता के कारण गुरु की आज्ञा लेकर कुछ १. मंगलपाढ़एहि-क । २. पश्वइओ य-क। Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमो भवो ] ४५३ जालोयणनिमित्त कार्यदि चेव गओ जयाणगारो। निवेइयं राइणो कुविओ एसो तेसि वावायगपुरिसाणं । सद्दाविया णेणं पुच्छिया य । अरे' कत्थ वा कहं वा तुम्भेहि सो समणगरूवधारी वेरिओ मे वावाइओ त्ति । तओ तेहिं विन्नायतयागमणेहि भणियं--देव, नंदिवद्धणे सन्निवेसे । केसालंकारविगमेग न पच्चभिन्नाओ अम्हेहि। तओ पुच्छिओ तत्थ एगो समणगो 'कहिं कयमो वा एत्थ जओ' त्ति। तेण भणियं--एत्थ नागदेवहरए जो एस झाणमुवगओ त्ति। तओ 'सुन्नमेव तमुज्जाणं' ति गंतूण वावाइओ अम्हेहि । राइणा भणियं-अन्नो कोइ तवस्सी तुम्भेहि वावाइओ, सो उण महापावो इहागओ ति । तेहिं भणियं-देव, न सम्म वियाणामो। राइणा भणियं-fक गयं एत्थ संपयं वावाएस्सामों' । पडिस्सुयं च हिं । निग्गओ य एसो नियमंदिराओ' भयवंतवंसणनिमित्तं । विद्रो ण भयवं वंदिओ य । धम्मलाहिओ य भयवया । कहिओ से सव्वन्नुभासिओ धम्मो न विरत्तो एसो संसारवासाओ त्ति मुणिओ से अहिप्पाओ। भणिओ य एसो-महाराय, अवगयं चेव तए एयं, जहा कम्मपरिणामफलं संसारियाण सत्ताणं सुहं दुक्खं च । सव्वे य सत्ता सुहं अहिलसंति, न दुक्खं । मलं स्वजनालोकननिमित्तं काकन्दीमेव गतो जयाऽनगारः । निवेदितं राज्ञे। कुपित एष व्यापादकपरुषेभ्यः। शब्दायतास्तेन पृष्टाश्च-अरे कुत्र वा कथं वा यष्माभिः स श्रमणकरूपधारी वैरिको मे व्यापादित इति । ततस्तैर्विज्ञाततदागमनैर्भणितम्-देव ! नन्दिवर्धने सन्निवेशे । केशालङ्कारविगमेन न प्रत्यभिज्ञातोऽस्माभिः। ततः पृष्ट एकः श्रमणकः 'कुत्र कतमो वाऽत्र जय'इति । तेन भणितम्अत्र नागदेवगहे य एष ध्यानमुपगत इति । ततः 'शून्यमेव तदुद्यानम्' इति गत्वा व्यापादितो ऽस्माभिः । राज्ञा भणितम्-अभ्यः कोऽपि तपस्वी युष्माभिव्यापादितः, स पुनमहापाप इहागत इति । *णितम-देव ! न सम्यग विजानीमः। राज्ञा भणितम्-कि गतम्, अत्र साम्प्रतं व्यापादयिष्यामः । प्रतिश्रुतं च तैः । निर्गत एष निजमन्दिराद् भगवद्दर्शननिमित्तम् । दृष्टस्तेन भगवान वन्दितश्च । धर्मलाभितश्च भगवता । कथितश्च तस्मै सर्वज्ञभाषितो धर्मः । न विरक्त एष संसारवासा. दिति ज्ञातस्तस्याभिप्रायः । भणितश्चैष:-महाराज ! अवगतमेव त्वयैतद्, यथा कर्मपरिणामफल सांसारिकानां सत्वानां सुखं दुःखं च । सर्वे च सत्त्वा सुखमभिलषन्ति, न दुःखम् । मूलं पुनरस्य धर्मः। अच्छे साधुओं के साथ अपने लोगों को देखने के लिए जयमुनि काकन्दी गये । राजा से निवेदन किया गया। राजा विजय मारनेवाले पुरुषों पर कूपित हआ। उसने बुलाया और पूछा, 'अरे ! कहाँ पर और कैसे तम लोगों ने श्रमणरूपधारी उस मेरे वैरी को मार डाला था?' अनन्तर उन्होंने मुनि महाराज का आगमन जानकर कहा, 'महाराज! नन्दिवर्धन सन्निवेश में। केश और अलंकारों से रहित होने के कारण हम लोग नहीं पहिचान सके। अनन्तर एक श्रमण से पूछा, 'जय कहाँ पर हैं और क्या कर रहे हैं !' उसने कहा, 'इस नागदेवगह में ध्यान लगाये हुए हैं।' अनन्तर 'उद्यान शून्य ही है' ऐसा जानकर हम लोगों ने जाकर मार डाला।' राजा ने कहा, 'तुम लोगों ने कोई अन्य ही तपस्वी मार डाला। वह महापापी तो यहां आया है।' उन्होंने कहा, 'महाराज ! हम लोग ठीक तरह से नहीं जानते हैं ।' राजा ने कहा, क्या गया (बिगड़ा), अभी मार डालो।' उन्होंने स्वीकार किया। यह (विजय) अपने मन्दिर से भगवान के दर्शन के लिए निकला। उसने भगवान् को देखा और वन्दना की । भगवान् ने धर्मलाभ दिया। उसे सर्वज्ञभाषित धर्म सुनाया। यह संसारवास से विरक्त नहीं है-इस प्रकार उसका अभिप्राय जान लिया । जय ने कहा, 'महाराज ! यह तो आप जानते ही हैं कि सांसारिक प्राणियों के कर्म परिणाम का फल सुख और दुःख होता है । सभी प्राणी सुख की इच्छा करते हैं, दुःख की १."हरे-क । २. नियहीए-क । Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५४ [ समराइच्चकहा पुज इमस्स धम्मो तस्स परिणामो सुरुवया पियसमागमसुहाई सोहग्गं अरोगया बिउलाय भोया । ता अवलंबेहि सयलसोक्ख निहाणभूयं धम्मं आयरसु मेति, वट्ट े हि दाणं, करेहि सव्वसत्तेसु दयं ति । विजण चिति । समुपनं इमस्स मरण यं, अओ एवं भणाइ । ता कहि वच्चइति । चितिऊण भणियं च णेण - भयवं, जं तुमं आणवेसि अन्नं च, जयप्पभूइमेव पडिवन्नो तुमं बीयरागभासियं धम्मं तपभूइमेव आढत्तं मए इमं । भयवया भणियं सोहणं कथं तए । तओ कंचि वेलं पज्जुवासिऊण पविट्ठो नयर । चितियं च णेण । अज्जेव एयं दुरायारं वावाएमि । पसंते वि भयवंते पुव्वकयकिलिट्ठकम्मपरिणई चेवेत्थ कारणं विजयस्स । भणियं च असं मायणे जो उ होइ परिणामो । सो संकिलट्ठकम्मरस कारणं जमिह पाएण ॥ ४७६ ॥ समागया रयणी । भणिया य राइणा पुव्वपेसिया वावायगपुरिया । अरे अज्जं तं दुरायारं arateमोति । पस्यमणेहिं । अत्थमिओ मियंको । कइवयपुरिसपरिवारिओ गओ जयाणगारतस्य परिणामः सुरूपता प्रियसमागमसुखानि सौभाग्यमरोगता विपुलाश्च भोगाः । ततोऽवलम्बस्व सकल सौख्यनिधानभूतं धर्मम् आचर मैत्रीम्, वर्तय दानम्, कुरु सर्वसत्त्वेषु दयामिति । विजयेन चिन्तितम् - समुत्पन्नमस्य मरणभयम्, अतः एवं भणिति । तत कुत्र व्रजति ? इति चिन्तयित्वा भणितं च तेन - भगवन् ! यत्त्वमाज्ञापयसि । अन्यच्च यत्प्रभृत्येव प्रतिपन्नस्त्वं वीतरागभाषितं धर्मं तत्प्रभृत्येवारब्धं मयेदम् । भगवता भणितम् - शोभनं कृतं त्वया । ततः काञ्चिद् वेलां पर्युपास्य प्रविष्टो नगरीम् । चिन्तितं च तेन - अद्यैव एतं दुराचारं व्यापदयामि । प्रशान्तेऽपि भगवति पूर्वकृतक्लिष्टकर्म परिणतिरेवात्र कारणं विजयस्य । भणितं च अतिसंक्लिष्टकर्मानुवेदने यस्तु भवति परिणामः । स संक्लिष्टकर्मणः कारणं यदिह प्रायेण ॥ ४७६ ॥ समागता रजनी | भणिताश्च राज्ञा पूर्वप्रेषिता व्यापादकपुरुषाः । अरे अद्य तं दुराचारं व्यापादयाम इति । प्रतिश्रुतमेभिः । अस्तमितो मृगाङ्गः । कतिपय पुरुषपरिवृतो गतो जयानगार नहीं । सुख का मूल धर्म है । उसका फल सुरूपता, प्रिय समागम का सुख, सौभाग्य, अरोगता और विपुल भोग हैं । अतः समस्त सुख के निधानभूत धर्म का अवलम्बन करो, मंत्री का आचरण करो, दान दो, समस्त प्राणियों पर दया करो ।' विजय ने सोचा -- ( इसे ) मरण का नय हो रहा है, इसलिए ऐसा कर रहा है । अत: कहाँ जाता है ? ऐसा सोचकर उसने कहा, 'भगवन् ! जैसी आप आज्ञा दें। दूसरी बात यह है कि जबसे आप वीतराग कहा, 'तुमने ठीक किया ।' भाषित धर्म को प्राप्त हुए हैं, तब से मैंने धर्म का आरम्भ कर दिया है ।' भगवान् ने अनन्तर कुछ समय तक उपासना कर नगरी में प्रविष्ट हुआ और उसने ( विजय ने सोचा- आज ही इस दुराचारी को मार डालूँगा । भगवान् के शान्त होने पर भी विजय के पूर्वकृत क्लेशजनक कर्मों के परिमाम का ही यहाँ कारण था । कहा भी है अत्यन्त संक्लिष्ट कर्म का अनुभव करने में जो परिणाम होता है वह प्रायः क्लेशजनक कर्मों के कारण ही होता है । ४७६ ॥ रात आयी । राजा ने पहले भेजे हुए मारने वाले पुरुषों से कहा- 'अरे ! आज उस दुराचारी को मार डालेंगे।' इन्होंने स्वीकार किया । चन्द्रमा अस्त हो गया था । कुछ पुरुषों के साथ विजय जयमुनि के पास गया । १. श्रारोग्यया - ख । २. दवावेहि-क । ३. जयव्य । नइमेव क । ४. तयप्पभिइमेव । ५. हरे क । Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचमो भवो] ४५५ समीवं विजओ। दिट्ठो य णेण निवायसरणपदीवो व्व सज्झाणसंगओ भयवं-- तिव्वाणुहावकसाओदएणं च कड्ढियं मंडलग्गं । अहिययरं गहिओ कसाएहिं । अवगया सुकयवासणा, पवत्तो महामोहो आगलिओ तिव्वकम्मपरिणईए। पवड्ढमाणकोवाणलेग पहओ सिरोहराए, एगपहारेणेव पाडियं उत्तिमंगं । 'विजयकुमारो चेव एसो' त्ति 'अहो विचित्तया जीवचरियाणं, अचितणीया कम्मुणो गई' त्ति चितऊण अवगया साहुणो। ___ भयवं पुण गंभीरयाए आसपास विसुद्धयाए मेत्तीए' अचलिययाए झाणस्स निम्ममयाए सरीरे भाविययाए जिणवयस्स खीणप्पाययाए पावकम्मणो वि सुद्धयाए लेसाभावस्स थिरयाए संजमधिईए आसन्नयाए परमपयस्स अपरिवडियसुहपरिणामो चइऊग देहं समुप्पन्नो आगयाभिहाणे देवलोए सिरिप्पहे विमाणे अट्ठारससागरोवमाऊ वेमाणिओ त्ति । विजयओ वि य तं वावाइऊण महाणभावं कयकिच्चं मन्नमाणो अप्पाणं पविट्ठो नरिं । सेससाहुणो वि गोसे गया सणंकुमारायरियसमीवं । साहिओ सयलवुत्तंतो आयरियस्स । सुसीसो त्ति काऊणमणन्नसरिसं कयं परिदेवणं गुरुणा । इयरो समीपं विजयः। दृष्टस्तेन निवातशरणप्रदीप इव सद्ध्या नसङ्गतो भगवान् । तीव्रानुभावकषायोदयेन च कृष्टं मण्डलायम्। अधिकतरं गृहीतः कषायैः । अपगता सुकृतवासना, प्रवृत्तो महामोहः, (आसगलिओ दे.) आक्रान्तः तीव्रकर्मपरिणत्या । प्रवर्धमानकोपानलेन प्रहतः शिरोधरायाम् । एकप्रहारेणैव पातितमुत्तमाङ्गम् । 'विजयकुमार एषः' इति अहो विचित्रता जीवचरितानाम्, अचिन्तनीया कर्मणो गतिः' इति चिन्तयित्वाऽपगता: साधवः। भगवान् पुनर्गम्भीरतयाऽऽशयस्य विशुद्धतया मैत्र्या अचलिततया ध्यानस्य निर्ममतया शरीरे भविततया जिनवचनस्य क्षीणप्रायतया पापकर्मणो विशुद्धतया लेश्याभावश्य स्थिरतया संयमधृत्या आसन्नतया परमपदस्य अपरिपतितशुभपरिणामश्च्युत्वा देहं समुत्पन्न आनताभिधाने देवलोके श्रीप्रभे विमाने अष्टादशसागरोपमायूष्को वैमानिक इति । विजयोऽपि च तं व्यापाद्य महानुभावं कृतकृत्यं मन्यमानं आत्मानं प्रविष्टो नगरीम् । शेषसाधवोऽपि प्रातर्गताः सनत्कुमाराचार्यसमीपम् । कथितः सकलवृत्तान्त आचार्याय । सुशिष्य इति कृत्वाऽनन्यसदृशं कृतं परिदेवनं गुरुणा। उसने वायुरहित स्थान की शरण में गये हुए दीपक के समान भगवान् को सद्ध्यान से युक्त देखा। तीव्र निश्चय और कषाय के उदय से तलवार खींची । कषायवश बड़े जोर से पकड़ी। पुण्य का संस्कार नष्ट हो गया, महामोह प्रवृत्त हुआ । तीव्र कर्म की परिणति से (वह) आक्रान्त हो गया। बढ़ी हुई क्रोधरूपी अग्नि से (उसने) गर्दन पर प्रहार किया। एक प्रहार से ही सिर को गिरा दिया। 'यह विजयकुमार है । जीवों के चरित्र की विभिन्नता पाश्चर्यमय है । कर्म की गति अचिन्तनीय है' - ऐसा सोचकर साधु चले गये। पुनः आशय की गम्भीरता, मैत्री की विशुद्धता, ध्यान की एकाग्रता, शरीर के प्रति निर्ममत्व, जिनवचनों का भाव, पापकर्म की क्षीणप्रायता, लेश्यापरिणाम की विशुद्धता, संयमधारण की स्थिरता, परमपद (मोक्ष) की समीपता से पतित न होकर शुभ परिणामों से देह छोड़कर आनत नामक स्वर्गलोक के 'श्रीप्रभ' विमान में अठारह सागर की आयु वाले वैमानिक देव हुए । विजय भी उन महानुभाव को मारकर अपने-आपको कृतकृत्य मानता हुआ नगरी में प्रविष्ट हुआ। शेष साधु भी सनत्कुमार आचार्य के पास गये। समस्त वृत्तान्त आचार्य से कहा । 'सुशिष्य था' -ऐसा मानकर गुरु ने अनन्यतुल्य उसके प्रति दुःख मनाया। विजय राजा भी उसी समय से महान् पाप के १. निव्वायसरणपईवो-क। २."सन्ना-क । ३. जीवाणमुवरिमैत्तीए-क । ४. भावणाए । Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५६ वि य विजयतरवई तयप्पभूइमेव महया पावोदएण समुप्पन्नमहावाहिवेयणो 'जओ वावाइओं' ति एइहमेत्तेणमप्पाणं कयत्यं मन्नमाणो अहाउयं पालिऊण दुक्खमच्चुणा मओ समाणो उप्पन्नो पंकप्पहाए पुढवीए दससागरोवमाऊ महाघोरनारओ ति । ॥ पंचमं भवग्गहणं समत्तं ॥ इतरोऽपि च विजयनरपतिस्तत्प्रभृत्येव महता पापोदयेन समुत्पन्नमहाव्याधिवेदनो 'जयो व्यापा. दितः' इति एतावन्मात्रेणात्मानं कृतार्थ मन्यमानो यथायुष्क पालयित्वा दुःखमृत्युना मतः सन्नुत्पन्नः पङ्कप्रभायां पृथिव्यां दशसागरोपमायुको महाघोरनारक इति । इति श्रीयाकिनीमहत्तरासूनु-परमगुणानुरागि-परमसत्यप्रियश्रीहरिभद्राचार्यविरचितायां समरादित्यकथायां संस्कृतानुवादे पञ्चमभवग्रहणं समाप्तम् ।। उदय से, जिसे महान् व्याधि उत्पन्न हो गयी है-ऐपा होता हुआ, 'जय मारा गया' इतने मात्र से ही अपने आपको कृतार्थ मानकर, आयु पूरी कर दुःखपूर्ण मृत्यु से मरकर, पंकप्रभा पृथ्वी में दश सागर की आयु वाला महाघोर नारकी हुआ। इस प्रकार याकिनी महत्तरा के पुत्र, परमगुणों के अनुरागी, सत्यप्रिय श्री हरिभद्राचार्यविरचित समरादित्य कथा का पांचवां भवग्रहण समाप्त हुआ। Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डॉ. रमेशचन्द्र जैन जन्म : 1946 में, मड़ावरा ग्राम (जिला ललितपुर, उत्तरप्रदेश) में । शिक्षा : आरम्भिक शिक्षा जन्मस्थान में प्राप्त करने के पश्चात्, श्री स्याद्वाद महाविद्यालय एवं काशी हिन्दु विश्वविद्यालय, वाराणसी में अध्ययन । विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन से पी-एच. डी. तथा रुहेलखण्ड विश्वविद्यालय से डी. लिट्. । कार्यक्षेत्र : 1969 से वर्द्धमान (नातकोत्तर) महाविद्यालय बिजनौर के संस्कृत विभाग में अध्यापन । सम्प्रति विभागाध्यक्ष । प्रकाशित रचनाएँ : 'पद्मचरित में प्रतिपादित भारतीय संस्कृति', 'अहिच्छत्र की पुरा सम्पदा', 'पावन तीर्थ हस्तिनापुर' आदि । 'समराइच्चकहा' के अतिरिक्त 'समाधितन्त्र' तथा 'इष्योपदेश' का सम्पादन एवं 'आराधना-कथाप्रबन्ध', 'भावसंग्रह', 'सुदर्शनचरित' और 'पाश्र्वाभ्युदय' का अनुवाद । अब तक एक दर्जन से अधिक छात्र-छात्राओं का पी-एच.डी. के लिए शोध-निर्देशन | लगभग सात वर्ष से 'पार्श्व-ज्योति' पाक्षिक का सम्पादन । भारतवर्षीय दिग. जैन शास्त्रीय परिषद्, स्याद्वाद शिक्षण परिषद् से सम्मानित एवं पुरस्कृत । प्राकृत शोध संस्थान वैशाली की अधिष्ठात्री समिति एवं नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ प्राकृत स्टडीज एण्ड रिसर्च, श्रवणबेलगोला के डाइरेक्टर्स बोर्ड के सदस्य तथा अन्य अनेक संस्थाओं से सम्बद्ध । www.jalnelibrary.org Education International Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय ज्ञानपीठ उद्देश्य ज्ञान की विलुप्त, अनुपलब्ध और अप्रकाशित सामग्री का अनुसन्धान और प्रकाशन तथा लोक-हितकारी मौलिक-साहित्य का निर्माण स्थापक (स्व.) साहू शान्तिप्रसाद जैन (स्व.) श्रीमती रमा जैन अध्यक्ष श्री अशोक कुमार जैन भारतीय ज्ञानपीठ 18, इंस्टीट्यूशनल एरिया, लोदी रोड, नई दिल्ली-110003 / vain Education International For private & Personal Use Only anelibrary.org