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________________ वीवोभवो। १०५ हवामो त्ति । जाव तत्थ अहाकप्पविहारेण विहरमाणा विविहतवखदियदेहा सुयरयणपसाहिया रूवि व्व सासणदेवधा समागया बालचन्दा नाम गणिणि त्ति । दिशा य सा मए 'सुरकुलाओ माइकुल"महिगच्छन्तीए विहारनिग्गमपएसे । तं च मे दळूण समुप्पन्नो पमोओ, वियसियं लोयणेहि, पणटुं पावणं, ऊससियमंहि, वियंभियं धम्मचित्तेणं । तओ मए नाइदूरओ चेव विणयरइयकरयलंजलीए सबहुमाणमभिवंदिया भयवई । तीए वि य दिन्नो सयलसुहसरस वीयभूओ धम्मलाभो त्ति । जायाओ य मे तं पइ अईव भत्तिपीईओ। पुच्छिओ य मए भयवईए पडिस्सओ, साहिओ साहुणीहिं । तओ अहं जहोचिएण विहिणा पज्जुवासिउं पवत्ता। साहिओ मे भयवईए कम्मवणदावाणलो दुक्खसेलवज्जासणी सिवसुहफलकप्पपायवो वीयरागदेसिओ धम्मो। तओ कम्मक्खओवसमभावओ पत्तं सम्मत्तं, भाविओ जिणदेसिओ धम्मो, विरत्तं च मे भवचारयाओ चित्तं । तओ य सो रुहदेवो कम्मदोसेण पओसं काउमारद्धो। भणियं च तेण - 'परिच्चय एवं विसयसुहविग्घकारिणं धम्मं ।' तओ मए भणियं 'अलं विसयसुहेहिं । अइचंचला जीवलोयठिई,दारुणो य विवाओ विसयपमायस्स।' इति । यावत् तत्र यथाकल्पविहारेण विहरन्ती विविधतपःक्षपितदेहा श्रुतरत्नप्रसाधिता रूपिणीव शासनदेवता समागता बालचन्द्रा नाम गणिनीति । दृष्टा च सा मया श्वसुरकुलाद् मातकुलमभिः गच्छन्त्या विहारनिर्गमप्रदेशे । तां च मम दृष्ट्वा समुत्पन्नः प्रमोदः, विकसितं लोचनाभ्याम्; प्रनष्टं पापेन, उच्छ्वसितमङ्गः, विजम्भितं चित्तेन । ततो मया नातिदूरत एव विनयरचितकरतलाञ्जल्या सबहुमानमभिवन्दित! भगवती । तयाऽपि च दत्तः सकलसुखसस्यबीजभूतो धर्मलाभ इति । जाताश्च मे तां प्रति अतीवभक्तिप्रीतयः। पृष्टश्च मया भगवत्याः प्रतिश्रयः । कथितः साध्वीभिः । ततोऽहं यथोचितेन विधिना पर्युपासितुं प्रवृत्ता। कथितश्च मह्य भगवत्या कर्मवनदावानलो दुःखशैलवज्राशनिः शिवसुखफल कल्पपादपो वीतरागदेशितो धर्मः । ततः कर्मक्षयोपशमभावतः प्राप्तं सम्यक्त्वम्, भावितो जिनदेशितो धर्मः; विरक्तं च मे भवचारकात् चित्तम् । ततश्च स रुद्रदेवः कर्मदोषेण प्रद्वेष कर्तमारब्धः। भणितं च तेन- 'परित्यज एतं विषयसुखविघ्नकारिणं धर्मम्' ततो मया भणितम्-'अलं विषयसुखैः, अतिचञ्चला जीवलोकस्थितिः, दारुणश्च विपाको विषयप्रमादस्य । तेन भणितम् - विप्र. विषय-सुख का अनुभव किया। वहां पर इच्छानुसार विहार करती हुई बालचन्द्रा नामक गणिनी (प्रधान साध्वी) आयी। उसका शरीर अनेक प्रकार के तपों से क्षीण हो रहा था। वह मानो शास्त्ररूपी रत्न से सजायी गयी शरीर. धारी शासनदेवी थी। उसे मैंने श्वसुर के कुल से माता के कुल को जाते हुए रास्ते में देखा । उसे देखकर मुझे हर्ष हमा और मेरे दोनों नेत्र खिल गये,पाप नष्ट हो गया, शरीर में रोमांच हो माया और धर्ममय चित्त खिल उठा। तब मैंने पास से विनयपूर्वक हाथ जोड़कर सम्मानपूर्वक भगवती को नमस्कार किया। उसने भी समस्त सुखों का बीजभूत धर्मलाभ दिया । मेरे मन में उसके प्रति अत्यन्त भक्ति और प्रीति उत्पन्न हुई और भगवती से प्रतिश्रय (निवास स्थान) पूछा । साध्वियों ने बतलाया (कहा) । तब मैं यथोचित विधि से उनकी उपासना करने में प्रवृत्त हुई। भगवती ने मुझसे कर्मरूपी वन के लिए दावानल के समान, दुःखरूपी पर्वत के लिए वज्र के समा न तथा मोक्षसुखरूपी फल के लिए कल्पवृक्ष के समान वीतराग के द्वारा निरूपित धर्म कहा । तब कर्मों के क्षयोपशम के कारण मुझे सम्यक्त्व की प्राप्ति हुई और मैंने जिनेन्द्र भगवान् के द्वारा प्ररूपित धर्म की भावना की। संसाररूपी कारागार से मेरा चित्त विरक्त हो गया। तब वह रुद्रदेव कर्म के दोष के कारण मुझसे द्वेष करने लगा। उसने कहा-"विषयसुख में विघ्न डालने वाले इस धर्म का परित्याग कर दो।" तब मैंने कहा, "विषयसुख से बस कर संसार की स्थिति अत्यन्त चंचल है । विषयों के कारण प्रमाद करने का फल दारुण है।" उसने कहा, "तुम ठगी १. नाइकुल -ग। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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