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________________ १०६ [ समराइच्च कहा तेण भणियं - 'वियारिया तुमं, मा दिट्ठ परिच्चइय अदिट्ठ े रई करेहि ।' मए भणियं - 'किमेत्थ दिट्ठ' नाम ?' पसुगणसाहारणा इमे विसया, पच्चक्खोवलब्भमाणसुहफलो य कहं अदिट्ठो धम्मो ति ? तओ सो एवम हिलप्पमाणो अहिययरं पओसमावन्नो । परिच्चत्तो य तेण मए सह संभोगो । वरिया य नागदेवाभिहाण सत्थवाहस्स धूया नागसिरी नाम कन्नगा, न संपाइया तायबहुमाणेणं नागदेवसत्थवाहेण । रुद्ददेवेण चिन्तियं । न एयाए जीवमाणीए अहं दारियं लहामि, ता वावाएमि एयं । तओ मायाचरिएणं कहिंचि घडगयमासीविसं काऊण संठविओ एगदेसे घडओ | अइक्कते पओससम ए संपत्ते य कामिणिजणसमागमकाले भणियाऽहं तेण - 'उवणेहि मे इमाओ नवघडाओ कुसुममालं' ति । तओ अहं तस्स मायाचरियमणववुज्झमाणा गया घडसमीवं । अवणीयं तस्स दुवारढक्कणं' धरणिमाउलिंगं । तओ हत्थं छोढूण गहिओ भुषंगो । डक्का अहं तेण । तओ तं ससंभ्रमं उज्झिऊण सज्झसभयवेविरंगी समल्लीणा तस्स समीवं । 'डक्का भुयंग मेणं' ति सिट्ठ रुद्ददेवस्स । नियडीपहाणओ य आउलीहूओ रुद्ददेवो । पारद्धो तेण निरत्थओ देव कोलाहली । एत्थंतरम्मि य सीइयं मे अगेहि, 1 वारिता त्वम् मा दृष्टं परित्यज्य अदृष्टे रतिमकार्षीः । मया भणितम् - 'किमत्र इष्टं नाम ? पशुगणसाधारणा हमे विषया:, प्रत्यक्षोपलभ्यमानसुखफलश्च कथमदष्टो धर्म' इति ? । ततः स एवमभिप्यमानोऽधिकतरं प्रद्वेषमापन्नः । परित्यक्तश्च तेन मया सह सम्भोगः । वृता च नागदेवाभिधानस्य सार्थवाहस्य दुहिता नागश्रीर्नाम कन्यका, न सम्पादिता तातबहुमानेन नागदेव सार्थवाहेन । रुद्रदेवेन चिन्तितम् -- न एतस्यां जीवन्त्यामहं दारिकां लभे । ततो व्यापादयामि एताम् । ततो मायाचरितेन कथंचिद् घटगतमाशीविषं कृत्वा संस्थापित एकदेशे घटकः । अतिक्रान्ते च प्रदोषसमये सम्प्राप्ते च कामिनीजनसमागमकाले भणिताऽहं तेन - उपनय मामस्माद् नवघटात् कुसुममालामिति । ततोऽहं तस्य मायाचरितमनवबुध्यमाना गता घटसमीपम् | अपनीतं तस्य द्वारच्छादनं धरणीमातुलिङ्गम् । ततो हस्तं क्षिप्त्वा गृहीतो भुजङ्गः । दष्टाहं तेन । ततस्तं ससम्भ्रममुज्झित्वा साध्वसभयवेपमानाङ्गी समालीना तस्य समीपम् । 'दष्टा भुजङ्गमेन' इति शिष्टं रुद्रदेवस्य । निकृतिप्रधानकश्च आकुलीभूतो रुद्रदेवः । प्रारब्धस्तेन निरर्थक एवं कोलाहलः । अत्रान्तरे च सन्नं गयी हो । प्रत्यक्ष को छोड़कर परोक्ष के प्रति प्रेम मत करो।” मैंने कहा, "प्रत्यक्ष क्या है ? ये विषय पशुओं में भी सामान्य रूप से पाये जाते हैं। जिसका प्रत्यक्ष सुखरूप फल प्राप्त होता है, ऐसा धर्म परोक्ष कैसे है ?" तब वह ऐसा कहे जाने पर मुझसे और अधिक द्वेष करने लगा । उसने मुझसे सहवास करना त्याग दिया । नागदेव नामक व्यापारी की पुत्री नागश्री नामक कन्या की उसने मांग की, किन्तु पिताजी के प्रति अत्यधिक सम्मान होने के कारण नागदेव व्यापारी ने वह कन्या उसे नहीं दी । रुद्रदेव ने सोचा, इसके जीवित रहते हुए मैं इस कन्या को नहीं पा सकता । अत: इसे मार देता हूँ। तब छलपूर्वक किसी प्रकार भयंकर सर्प को घड़े के अन्दर करके उसे एक कोने में रख दिया । सन्ध्या समय बीत जाने और कामिनी स्त्रियों के समागम का काल उपस्थित होने पर उसने मुझसे कहा, "मुझे इस नये घड़े में से फूलों की माला ला दो ।" तब में छलकपट को न समझकर घड़े के समीप गयी । घड़े का मुंह खोला । अनन्तर हाथ डालकर सर्प ले लिया। उसने मुझे डस लिया । तब घबड़ाहट के साथ उसे छोड़कर शीघ्र ही भय से करती हुई उसके पास गयी। 'सर्प ने काट खाया' ऐसा रुद्रदेव से कहा । कपट की प्रधानता से रुद्रदेव आकुल व्याकुल हो गया। उसने निरर्थक कोलाहल प्रारम्भ किया। इसी बीच मेरा अंग शून्य हो गया १. घट्टणं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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