________________
[समराइचकहा
तओ घेत्तूण एवं चित्तवट्टियं पुत्ववणियं च पाहुडं गया माहवीलयामंडवं मयणलेहा। 'कुसुमावलोपियसहि' त्ति परियणाओ मुणिऊण सायरमभिणंदिया कुमारेणं । तओ ससंभमं तस्स चलणजुयलं पणमिऊण भणियं मयणलेहाए---'महारायपुत्त ! 'चित्ताणुराई तुम' ति तओ चित्ताधुराइणीए अहं तुह पउत्तिनिमित्तं पेसिया रायधूयाए कुसुमावलीए, तहा सहत्यारोवियाणुराएण य एसा अहिणवुप्पन्ना पियंगुमंजरी नियनागवल्लीसमुप्पन्नदलमहग्धं च तंबोलं अहिणवुप्पन्नाणि य कक्कोलयफलाई 'एयाइं च किल इविसिट्ठाणं दिज्जंति, ता तुमं चैवं जोग्गो' ति कलिऊण पेसियाई सामिणीए, एसा वि चित्तगया रायहंसिया पावउ ते दंसणसुहेल्लि ति, भणिउमुवणीयाइं च तीए। तओ कुमारेण सहरिसयं गिहिऊण कया कण्णे पियंगुमंजरी आवीलं मोतूण, समाणियं च तंबोलं, अब्भहियजायहरिसेण पलोइया रायहंसिया, वाइयं च से अवस्थासूयगं उवरिलिहियं दुवईखंडं । तओ तंबोलसमाणणपज्जाउलवयणयाए' मयणवियारओ य परिखलंतविसयमहुरक्खरं भणियं च णेणअहो ! से चित्तकोसल्लं । अह किं पुण दंसणाओ चेव मुणिज्जमाणा वि अवत्था इमेण पुणरत्तोवन्ना
ततो गृहीत्वा एतां चित्रवतिका पूर्ववणितं च प्राभृतं गता माधवीलतामण्डपं मदनलेखा। 'कुसमावलीप्रियसखी' इति परिजनात् ज्ञात्वा सादरमभिनन्दिता कुमारेण । ततः सम्भ्रमं तस्य चरणयुगलं प्रणम्य भणितं मदनलेखया-'महाराजपुत्र ! 'चित्रानुरागी त्वम्' इति ततः चित्रानुरागिण्याऽहं तव प्रवृत्तिनिमित्तं प्रेषिता राजदुहित्रा कुसुमावल्या, तथा स्वहस्तारोपितानुरागेण च एषाऽभिनवोत्पन्ना प्रियगुमञ्जरी निजनागवल्लीसमुत्पन्नदलमहाघ च ताम्बूलमभिनवोत्पन्नानि च कल्लोलकफलानि ‘एतानि च किल इष्टविशिष्टेभ्यो दीयन्ते, ततस्त्वमेव योग्यः' इति कलयित्वा प्रेषितानि स्वामिन्या, एषाऽपि चित्रगता राजहंसिका प्राप्नोतु ते दर्शनसुखकेलिमिति भणित्वोपनीतानि च तया । ततः कुमारेण सहर्ष गृहीत्वा कृता कर्णे प्रियगुमञ्जरी आव्रीडां (ईषद्वीडां) मुक्त्वा, समानीतं च ताम्बूलम्, अभ्यधिकजातहर्षेण प्रलोकिता राजहंसिका, वाचितं च तस्या अवस्थासूचकमुपरि लिखितं द्विपदीखण्डम् । ततः ताम्बूलसमानयनपर्याकुलवदनाया मदनविकारतश्च परिस्खलदविषममधराक्षरं भणितं चानेन- 'अहो ! तस्याश्चित्रकौशल्यम् । अथ किं पुनदर्शनादेव
तदनन्तर इस कूची और पूर्ववर्णित उपहार को लेकर मदनलेखा माधवी लता के मण्डप में गयी। 'कुसुमावली की प्रियसखी है' ऐसा परिजनों से जानकर कुमार ने सादर अभिनन्दन किया। तब घबड़ाहट के साथ उसके धरणयुगल में प्रणाम कर मदनलेखा ने कहा, "महाराज-पुत्र ! आप चित्रानुरागी हैं अत: चित्रानुरागिणी राजपुत्री कुसुमावली ने मुझे आपके पास कुशल समाचार पूछने भेजा है। स्वामिनी ने प्रेमवश अपने हाथ से रखी नयी प्रियंगमंजरी, अपनी पान की लता से उत्पन्न श्रेष्ठ पत्ते तथा नये-नये उत्पन्न अशोक फल-ये. विशेष रूप से इष्ट व्यक्तियों के लिए ही दिये जाते हैं और इसके लिए तुम ही योग्य हो, ऐसा मानकर भेजा है । चित्र में लिखित यह राजहंसी भी तुम्हारे दर्शन-सुख की क्रीड़ा को प्राप्त करे" ऐसा कहकर मदनलेखा ने वे उपहार भेंट कर दिये । तब कुमार ने कुछ-कुछ लज्जा छोड़कर हर्षपूर्वक कान में प्रियंगुमंजरी धारण की। पान लाया गया। अत्यधिक हर्षित होकर राजहंसी को देखा और उसकी अवस्था के सूचक द्विपदीखण्ड को बाँचा । तब पान लेने से भरे हुए मुख वाले तथा कामविकार से लड़खड़ाते हुए विषम मधुर अक्षरों में इसने कहा, "अरे ! चित्र बनाने में उसका कौशल आश्चर्यजनक है ! देखने से ही अवस्था का भान हो रहा है। फिर केवल पुनरुक्ति का उपस्थापन
१. वयणेन ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org