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________________ वीओ भयो ] पियं मंजरीकरणावयंसं कोमलनागवल्लीदलसणाहं य तम्बोलं अहिणवुष्पन्नाणि य कवकोलयफलाई नियकलाको सल्लपि सुणगं च किंचि तहारूवं अच्छेरयभूयं ति । तओ कुसुमावलाए भणियं पिसह ! ते पsिहायइ, तं सयं चेव अणुचिट्टउ पियसही ।' तओ मयणलेहाए वणियासमुग्गय चित्तवट्टियं च उवणेऊण भणिया कुसुमावली- 'सामिणि ! चित्ताणुराई खु सो जणो ; ता आलिहउ एत्थ सामिणी समाणवर हंसयवित्तं तद्दंसणूसुयं च रायहंसिय' ति । तओ मुणियमयणलेहाभिप्पायाए इस विऊिण आलिहिया तीए जहोवइट्ठा रायहंसिया । मयणलेहाए वि य अवस्थास्यगं से लिहियं इमं उवरि दुवईखंडं । जहा - अहिणवनेहनिन्भरुक्कंठियनिरुपच्छाय' वर्याणिया । सरसमुणालवलय' गासम्म वि सइ मंदाहिलासिया ॥ १२८ ॥ दाहिणपवणविहुयकमलायरए वि अदिन्नदिया । पियसंगमकए न उत्तम्मइ कहं वररायहंसिया ॥ १२६ ॥ प्रियङ्गुमञ्जरीकर्णावतंसं कोमलनागवल्लीदलसनाथं च ताम्बूलमभिनवोत्पन्नानि च कक्कोलकफलानि निकला कौशल्यपि शुनकं किञ्चित् तथारूपमाश्चर्यभूतमिति । ततः कुसुमावल्या भणितम् - 'यत् प्रियसखि ! तव प्रतिभाति तत स्वयमेवानुतिष्ठतु प्रियसखी ।' ततो मदनलेखया वर्णिका समुद्रकं चित्रवर्तिकां चोपनीय भणिता कुसुमावली - 'स्वामिनि ! चित्रानुरागी खलु सः जनः तत आलिखतु अत्र स्वामिनी समानवरहंसवियुक्ता तद्दर्शनोत्सुकां च राजहंसिकामिति । ततो ज्ञातमदनलेखाभिप्रायया ईषद् विहस्य आलिखिता तया यथोपदिष्टा राजहंसिका । मदनलेखयाऽपि चावस्था सूचकं तस्य लिखितमिदमुपरि द्विपदीखण्डम् । यथा- अभिनव स्नेहनिर्भ रोत्कण्ठित निरुपच्छाय वदनीया । सरसमृणालवलयग्रासेऽपि सदा मन्दाभिलाषिका ॥ १२८ ॥ दक्षिणपवनविधूतकमलाकरेऽपि अदत्तदृष्टिका | प्रियसङ्गमकृते नोत्ताम्यति कथं वरराजहंसिका ? ॥१२६॥ ८६ की कान की बाली, कोमल पान की बेल से युक्त पान, सद्यः उत्पन्न अशोक वृक्ष का फल अथवा अपनी कलाकौशल को सूचित करने वाली कुछ इसी प्रकार की आश्चर्यकारक वस्तु भेजिए ।" तब कुसुमावली ने कहा, "प्रियसखि ! तेरी सूझबूझ है अतः प्रियसखी ही स्वयं इस कार्य को सम्पन्न करे ।" तब मदनलेखा ने रंगों का डिब्बा तथा कूची लाकर कुसुमावली से कहा, "स्वामिनि ! वह व्यक्ति चित्रों का प्रेमी है अतः स्वामिनी इसमें समान श्रेष्ठ हंस से वियुक्त उसके दर्शन की उत्सुक राजहंसी बनाएँ ।" तब मदनलेखा का अभिप्राय जानकर कुछ मुसकराकर उसने कहने के अनुसार राजहंसी बनायी । मदनलेखा ने भी उसके ऊपर कुसुमावली की अवस्था की सूचना देने वाला द्विपदीखण्ड लिखा Jain Education International "नवीन स्नेह से अत्यधिक उत्कण्ठित फीके मुख वाली, सरस कमलनाल के समूह को निगलती हुई ये सदा मन्द अभिलाषा वाली, दक्षिण वायु के द्वारा कमल समूह को हिलाये जाने पर भी उस ओर दृष्टि न डालने वाली श्रेष्ठ राजहंसी प्रिय के साथ संगम के लिए क्यों न लालायित हो ?” १२८ - १२६॥ १. पव्वाय, 2. दलय । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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