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________________ ८८ [समराइच्चकहा उवणिमंतिऊण कुसुमावलीदसणूसुथयाए अभिप्पेयागमणो चेव प्राणीओ सीहकुमारो । कओ से भोयणसंपायणाइनो उवयारो। पच्छा पविट्ठो भवणुज्जाणं । दिट्ठो य तेण गिहसारियारावमुहलो दक्खालयामण्डवो नववरो विव भारत्तपल्लवनिवसणोवसोहिरो असोयनिवहो, चडुलकलहंसचालिय' कमलो य भवणदीहियानलिणिवणसंडो, 'महुयर'परहुयारावमुहलो य सहयारनिकुठंबो, कुसुममहुपाणमुइयभमिरभमरालिपरियरियो य माहवीलयामंडवो, नागवल्लीनिवहसमालिगिओ य पूंगफलीपयरो सुयंधपरिमलावासियदिसामंडलो य कुंकुमगोच्छनियरो, महुरमारुयंदोलियो य लोयणसुहम्रो कयलीहरो त्ति । ठियो य माहवीलयामंडवम्मि । एत्थंतरम्मि य मयणलेहाए भणिया कुसुमावली-सामिणि ! महाणुभावाणं सुयणभावाओ पव्वनिवत्तिनो चैव संबंधो होइ । सो चेव उचियसंभासण-फुल्ल-तंबोलप्पयाणाइणा पयासिज्जइ त्ति। ता पेसेहि से सरीरपउत्तिपुच्छणापुत्वयं एयस्मि काले असंभावणिज्जभावं सहत्यारोवियभवनोद्यानम। ततः सादरमपनिमन्त्र्य कुसुमावलीदर्शनोत्सुकतयाऽभिप्रेतागमन एव आनीतः सिंहकूमारः। कृतः तस्य भोजनसम्पादनादिक उपचारः । पश्चात् प्रविष्टो भवनोद्यानम् । दुष्टश्च तेन गहसारिकारावमुखरो द्राक्षालतामण्डपो नववर इव आरक्तपल्लवनिवसनोपशोभितोऽशोकनिवहः, चटुलकलहंसचालितकमलश्च भवनदीपिकानलिनीवनखण्डः, मधुतरपरभृतारावमुखरश्च सहकारनिकुरम्बः, कुसुममधुपानमुदितभ्रमितृभ्रमरालिपरिचरितश्च माधवीलतामण्डपः, नागवल्लीनिवहसमालिङ्गितश्च पूगफलीप्रकरः, सुगन्धपरिमलावासितदिग्मण्डलश्च कुङ्कुमगच्छनिकरः, मधरमारुतान्दोलितं च लोचनसुभगं कदलीगृहकम् इति । स्थितश्च माधवीलता. मण्डपे। अत्रान्तरे च मदनलेखया भणिता कुसुमावली-स्वामिनि ! महानुभावानां सुजनभावात् पर्वनिर्वतित एव सम्बन्धो भवति । स एव उचितसम्भाषण-पुष्प-ताम्बूलप्रदानादिना प्रकाश्यते इति । तस्मात प्रेषय तस्य शरीरप्रवृत्तिपृच्छनापूर्वकमेतस्मिन् कालेऽसम्भावनीयभावस्वहस्तारोपितसिंहकमार आयेंगे।" यह सुनकर 'देवी की जैसी आज्ञा' कहकर हर्षपूर्वक दन्तवलभिका में गयी। इधर भवन के उद्यान की सजावट की गयी । तब सादर निमन्त्रित कर कुसुमावली के दर्शन की उत्सुकता से ही जिसका आगमन इष्ट था, ऐसा सिंहकुमार लाया गया। भोजनादि कराकर उसकी सेवा की गयी। अनन्तर भवन के उद्यान में प्रविष्ट हा। उसने पालतू मैनाओं की आवाज से गुंजित द्राक्षालता का मण्डप, नये दूल्हे के समान लाल-लाल पत्तों रूपी वस्त्रों से शोभित अशोक वृक्षों का समूह, चंचल हंसों से हिलाये-डुलाये जाते कमल तथा भवन की बावड़ियों की कमलिनियों का वन समूह, कोयलों के अतिमधुर शब्द से वाचालित आम्रवृक्षों का समूह, फूलों के मधुपान से प्रसन्न होकर भ्रमण करती हुई भ्रमरों की पंक्ति से परिचित माधवीलतामण्डप, पान की बेल-समूह से लिपटा हुआ सुपाड़ी के पेड़ों का समूह, सुगन्धित वायु से सुवासित दिशामण्डल और फूलों के गुच्छों का समूह तथा मधुर वायु से झूलता हुआ नेत्रों को सुन्दर लगने वाला कदलीगृह देखा। वह माधवी लता-मण्डप में ठहर गया। इसी बीच मदनलेखा ने कुसुमावली से कहा-"स्वामिनि ! महानुभावों का सम्बन्ध सज्जनता के कारण पहले से ही चला आता जैसा होता है। वही उचित वार्तालाप, फूल, पान आदि के प्रदान से प्रकट किया जाता है। अतः शरीर का हाल पूछने से पहले इस समय असम्भावनीय भावों वाली, अपने हाथ से लायी गयी प्रियंगुमंजरी १. कमलोयर भ०, 2. महुर । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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