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________________ ६१ बीओो भयो ] समेत्तेण दुवईखंडेण सूइया । मयणलेहाए भणियं - 'महारायउत्त ! न एसा सामिणीए सूइया, किंतु एयमालिहियं पेच्छिऊण मए कयं इमं दुवईखंडं' ति । कुमारेण भणियं - 'जुज्जइ पढमलिहियं दट्ठूण सहियाणं अवत्थाणुवायकरणं' ति । मग्गिया णेण पत्तछेज्जकत्तरी । कप्पिओ य नागवल्लीदले रायहंसियावत्थाणुरूवो वररायहंसओ, फुडक्खरा य एसा हिययसंवायण' निमित्तं गाह त्ति । जहामरिऊण न संपत्ती पियाए कलिऊण एस वरहंसो । धारेइ कह व पाणे अणुकूलनिमित्तजोएण ॥ १३० ॥ ओनिसिरोहराओ ओसारिऊण दिन्ना इमीए तिसमुद्दसारभूया पारिओसियं मुत्तावली, समप्पियं च नागवल्लीदलं । ईसि विहसिऊण भणिया य एसा, 'वत्तव्वा तुमए कुसुमावली । जहाअस्थि अम्हाणं दढं चित्ताणुराओ मुणियं तुमए इमं विन्नायं च अम्हेहि पिते चित्तकोसल्लं । ता पुणो' एवं चेव चित्ताणुराइणो जणस्स नियचित्तकोसल्लाइसएणं आणंद करिज्जासि' त्ति । तओ 'जं ज्ञायमानापि अवस्था अनेन पुनरुक्तोपन्यासमात्रेण द्विपदीखण्डेन सूचिता । मदनलेखया भणितम् - 'महाराजपुत्र ! न एषा स्वामिन्या सूचिता, किं तु एतदालिखितं दृष्ट्वा मया कृतमिदं द्विपदीखण्डमिति । कुमारेण भणितम् – 'युज्यते प्रथमलिखितं दृष्ट्वा सहृदयानामवस्थानुवादकरणमि'ति । मार्गिता तेन पत्रच्छेद्य कर्तरी । कल्पितश्च नागवल्लीदले राजहंसिकाऽवस्थानुरूपो वरराजहंसः, स्फुटाक्षरा चैषा हृदयसंवादननिमित्तं गाथेति । यथा - ततो निजशिरोधराद् अपसार्य दत्ताऽस्यास्त्रिसमुद्रसारभूता पारितोषिकं मुक्तावली, समर्पितं च नागवल्लीदलम् । ईषद् विहस्य भणिता चैषा, 'वक्तव्या त्वया कुसुमावली । यथा --- अस्ति अस्माकं दृढं चित्रानुरागः ज्ञातं त्वयेदम्, विज्ञातं चास्माभिरपि ते चित्रकौशल्यम् । तस्मात् पुनः पुनरेवमेव चित्रानुरागिणो जनस्य निजचित्रकौशल्यातिशयेन आनन्दं करिष्यसी'ति । ततो 'यद् महाराजपुत्र मृत्वा न सम्प्राप्तिः प्रियायाः कलयित्वा एष वरहंसः । धारयति कथमपि प्राणान् अनुकूल निमित्तयोगेन ॥ १३० ॥ करने वाले द्विपदीखण्ड से अवस्था के सूचन की क्या आवश्यकता थी ?" मदनलेखा ने कहा, "राजकुमार ! यह स्वामिनी की सूचना नहीं है किन्तु इस चित्र को देखकर मैंने यह द्विपदीखण्ड बनाया है ।" कुमार ने कहा, "सहृदयों के लिए पहले लिखी गयी चीज को देखकर अवस्था का कथन करना उचित ही है ।" उसने पत्ते में छेद करने वाली कैंची मँगायी । पान के पत्ते पर राजहंसी की अवस्था के अनुरूप उत्कृष्ट राजहंस बना दिया। स्पष्ट अक्षरों में हृदय को अभिव्यक्त करने वाली यह गाथा लिखी मरकर प्रिया की प्राप्ति नहीं होगी, ऐसा मानकर यह राजहंस अनुकूल निमित्त मिलने की आशा से किसी प्रकार प्राणों को धारण कर रहा है ॥ १३० ॥ अनन्तर अपने गले से निकालकर तीनों समुद्रों की सारभूत मोतियों की माला इसे उपहार में दी और पान की लता के पत्ते को भी समर्पित किया। कुछ हँसकर इससे कहा, "तुम कुसुमावली से कहना, हमारा चित्र प्रति दृढ़ अनुराग है, इसे तुमने जान लिया तथा हमने भी तुम्हारे चित्रकौशल को भली-भांति जान लिया । अतः चित्र के अनुरागी इस व्यक्ति को पुनः पुनः इसी प्रकार अपने चित्र की कुशलता के प्रकर्ष से आनन्दित करना ।" १. संठावण २. पुणो पुणो । " Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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