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________________ चउत्यो भवो एस असंताहिओओ; जओ सच्चं पि परपीडाकरं त वत्तव्वं ति। एसा य वो सुती पइयपइयाभिहाणे चोरचोरभणणे य तत्तुल्लदोसया, सईभूया ए] वि सयासुद्धसहावा [ए] वि असइपयाभिहाणे अचोरचोरभणणेण य मिच्छाभिहाणाओ' दुगुणो दोसो त्ति। जं पुग 'जोवघाएण सग्गो' ति पल्वेसि एस विरुद्धोवएसो; जओ न जीवघाओ परलोए सुहफलओ होइ। भणियं च सयलेहि तित्थनायगेहिं । न हिंसियव्वाणि सव्वभूयाणि । अहवा जो कोहेणऽभिभूओ घायइ जीवे सया निरणुकम्पो । सो भवचारगवासं पुणो पुणो पावए बहुसो ॥३६६॥ अवि य जम्मंतरदिन्नस्स य फलसेसमिहेव पाविहिसि जम्मे। थेवरियहेहि वालय नवरमसंताहिओगस्स ॥३७०॥ मए भणियं-भयवं, केरिसो जम्मंतरविइण्णो असंताहिओगो, केरिसं वा तस्स फलमणहयं व्यसनप्राप्ते निरपराधेऽपि 'महाभुजङ्गान्' इति अभिलपसि, एषोऽसदभियोगः । यतः सत्यमपि परपीडाकरं न वक्तव्यमिति । एषा च वः श्रुतिः-पतितपतिताभिधाने चौरस्य चौरभणने च तत्तुल्यदोषता । 'जीवघातेन स्वर्गः' इति प्ररूपयसि एष विरुद्धोपदेशः, यतो न जोवधातः परलोके शुभफलदो भवति । भणितं च सकलैः तीर्थनायकैः-"न हिंसितव्यानि सर्वभूतानि । अथवा यः क्रोधेनाभिभूतो घातयति जीवान् सदा निरनुकम्पः । स भवचारकवासं पुनः पुनः प्राप्नोति बहुशः ॥३६६॥ अपिच जन्मान्तरदत्तस्य च फलशेषमिहेव प्राप्स्यसि जन्मनि । स्तोकदिवसैलिक ! नवरमसदभियोगस्य ॥३७०॥ मया भणितम्-भगवन् ! कीदृशो जन्मान्तरवितीर्णोऽसदभियोगः, कीदृशं वा तस्य फलपूर्वकृत कर्मों के फलवश दुःख को प्राप्त इन निरपराधों को महाभुजंग कह रहे हो, यह झूठा आरोप है, क्योंकि सत्य होने पर भी पीड़ादायक वचन नहीं बोलना चाहिए। हम लोगों की यह श्रुति है कि पतित को पतित कहने और चोर को चोर कहने में उसी के समान दोष है । सती और शुद्ध स्वभाव वाली को असती कहना और अचोर को चोर कहने में झूठ कथन करने के कारण दुगुना दोष है । और जो 'जीवहिंसा से स्वर्ग होता है' यह प्ररूपणा करते हो, यह विरुद्धोपदेश है ; क्योंकि जीवधात परलोक में शुभफल देने वाला नहीं होता है । समस्त तीर्थनायकों ने कहा है-"समस्त प्राणियों में किसी की भी हिंसा नहीं करनी चाहिए। अथवा जो निर्दयी क्रोध से अभिभूत होकर सदा जीवों का घात करता है वह अनेक बार संसार रूपी कारागार में पुन:-पुनः निवास प्राप्त करता है ॥३६॥ कहा भी है झूठ बोलने वाले हे बालक ! कुछ ही दिनों में दूसरे जन्मों के शेष कर्मफलों को यहीं इसी जन्म में प्राप्त करोगे ॥३७०॥ मैंने कहा-"भगवन ! दुसरे जन्म में कैसा झूठारोपण किया और उसका कैसा फल मैंने पाया अथवा कैसा फल शेष है ?" साधु ने कहा-सुनो! १. भिहाणे उ-क। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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