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________________ २६४ एवं च भणिए भणियं परिव्वायएण निसुणसु अवहियमणसो वृत्तंतं मज्झ पुच्छिओ जो ते । तह सामि फुडत्थं जह कहियं ओहिनाणेणं ॥ ३६८ ॥ । अस्थि इहेव भरहम्मि पुंडो नाम जगवओ । तम्मि अमरावइसरिसं पुंडवद्धणं नाम नयरं । तत्थ अग्गवेसायणसगोत्तो सोमदेवो नामं माहणो । तस्स सुओ नारायणाभिहाणो अहं ति । तम्मि नयरे 'जीवधाएण सग्गो' त्ति कुसत्थं परूवेंतो चिट्ठामि जाव केइ पुरिसा समंतओ वुण्णवयणतरलच्छं पलोएमाणा चोर त्ति कलिऊण बज्झा निज्जति । ते य दट्ठण भणियं मए 'घाएह एए महाभुयंगे' त्ति । तओ तं मम वयणं सोऊण एक्केण साहुणा समुप्पन्नो हिनाणेण नाइदूरट्ठिएणेव जंपियमहो कट्ठमन्नाणं ति । तं च मे साहुवयणं सोऊण समुप्पन्ना चिंता । किमेएण मं उद्दिसिऊण पसंतरुवेणावि एयं जंपियं ति । तओ सो मए चलणेसु निवडिऊण पुच्छिओ 'भयवं किमन्नाणं' ति । तेण कहियं - सव्वसत्ताणसंता हिओ दाणं विरुद्धोवएसो य । मए भणियं को असताहिओओ को वा विरुद्धोवएसो त्ति ? साहुणा भणियं - जमे पुव्वकय कम्मपरिणइवसेण वसणपत्ते निरवराहे वि महाभुयंगे त्ति अहिलवसि' एवं च भणिते भणितं परिव्राजकेन 1 शृणु अवहितमना वृत्तान्तं मम पृष्टो यस्त्वया । तथा कथयामि स्फुटार्थं यथा कथितमवधिज्ञानेन ॥ ३६८ ॥ [ समराइचकहा अस्ति इहैव भारते पुण्ड्रो नाम जनपदः । तस्मिन् अमरावतीसदृशं पुण्ड्रवर्धनं नाम नगरम् । तत्राग्निवेश्यायनसगोत्रः सोमदेवो नाम ब्राह्मणः । तस्य सुतो नारायणदेवाभिधानोऽहमिति । तस्मिन् नगरे 'जीवघातेन स्वर्गः' इति कुशास्त्रं प्ररूपयन् तिष्ठामि, यावत् केचित् पुरुषाः समन्ततस्त्रस्तवदनतरलाक्षं प्रलोकमानाः 'चोरः ' - - इति कलयित्वा वध्या नीयन्ते । ताश्च दृष्टा भणितं मया 'घातयत एतान् महाभुजङ्गान्' - इति । ततस्तद् मम वचनं श्रुत्वा एकेन साधुना समुत्पन्नावधिज्ञानेन नातिदूरस्थितेनैव जल्पितम् - 'अहो कष्टमज्ञानम्' । तच्च मे साधुवचनं श्रुत्वा समुत्पन्ना चिन्ता । किमेतेन मामुद्दिश्य प्रशान्तरूपेणापि एतज्जल्पितमिति । ततः स मया चरणयोनिपत्य पृष्टः - भगवन् ! किमज्ञानमिति । तेन कथितम् - सर्वसत्त्वानामसदभियोगदानं विरुद्ध देशश्च । मया भणितम् - कोडस - दभियोगः को वा विरुद्धोपदेश इति साधुना भणितम् - यद् एतान् पूर्वकृतकर्मपरिणतिवशेन Jain Education International ऐसा कहने पर परिव्राजक ने कहा "मुझसे जो वृत्तान्त तुमने पूछा है-उसे ध्यान लगाकर सुनो। जैसा अवधिज्ञानी ने कहा है वैसा मैं स्पष्ट रूप से कहता हूँ ।" ॥ ३६८ ॥ इसी भारतवर्ष में पुण्ड्र नाम का जनपद है । उसमें अमरावती के वहाँ पर अग्निवेश्यायन गोत्र वाला सोमदेव नाम का ब्राह्मण था । उसका मैं हिंसा से स्वर्ग होता है । इस प्रकार कुशास्त्रों की प्ररूपणा करता हुआ में रहता था । तभी जिनका मुख चारों ओर से भयभीत था और जो चंचल नेत्रों वाले दिखाई दे रहे थे, ऐसे कुछ पुरुषों को 'चोर' ऐसा मानकर वध के लिए ले जाया जा रहा था।' उन्हें देखकर मैंने कहा - 'इन चोरों को मार डालो।' उस वचन को सुनकर समीपवर्ती एक अवधिज्ञानी साधु ने कहा - 'ओह, अज्ञान कष्टकारक है ।' उन साधु के वचन सुनकर मुझे चिन्ता इन्होंने मुझे लक्ष्य कर ऐसा क्यों कहा ? तब मैंने उनके चरणों उन्होंने कहा - 'समस्त प्राणियों पर झूठा आरोप लगाना और क्या है अथवा विरुद्ध उपदेश क्या है ?" साधु ने कहा - 'जो कि उत्पन्न हुई । इस प्रशान्त रूप वाले होने पर भी में गिरकर पूछा - 'भगवन् ! अज्ञान क्या है विरुद्ध उपदेश देना ।' मैंने कहा - 'झूठा आरोप ?' For Private & Personal Use Only समान पुण्ड्रवर्धन नाम का नगर था । नारायण पुत्र हूँ । उस नगर में 'जीव www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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