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________________ त्यो भयो] २६३ एवं चितिऊ' सो परिवायगरूवधारी भुयंगो करुणापवन्त्रेण मंतिणा सदाविऊण सविणयं भणिओ त्ति वेससहावविरुद्वेण तुज्झ चरिएण विम्हओ मज्झ । साहेहि ता फुडत्यं किमेयमवरोप्परविरुद्धं ॥ ३६४॥ एवं च भणियमेत्तेण भणियं परिव्वायएण । नत्थि खलु विसयलुद्धाणमवरोप्परविरुद्धं ति । अवि य एवं च चिन्तयित्वा परिव्राजकरूपधारी भुजङ्गः करुणाप्रपन्नेन मन्त्रिणा शब्दयित्वा सविनयं भणित इति जणणिजणयाण सुकयं न गर्णेति न बंधुमित्तसामीणं । विसयविसमोहियमणा पुरिसा पर लोगमग्गं च ॥ ३६५॥ एवं च सिटुमेत्ते भणियममच्चेण जुज्जए एयं । विन्नादरिद्दाणं न उणो तुमए सरिच्छाणं ॥ ३६६॥ ता साहेहि अवितहं परधणगहणस्स कारणं मज्झ । सलाणुवालणस्स य हिरियं मोत्तूण किं बहुणा ॥ ३६७॥ वेशस्वभावविरुद्धेन तव चरितेन विस्मयो मम । कथय ततः स्फुटार्थं किमेतद् अपरापरविरुद्धम् || ३६४|| एवं च भणितमात्रेण भणितं परिव्राजकेन - नास्ति खलु विषयलुब्धानामपरापरविरुद्धमिति । अपि च नहीं है । ऐसा सोचकर परिव्राजक रूपधारी चोर को बुलाकर करुणायुक्त मन्त्री विनय सहित बोला "वेश और स्वभाव के विरुद्ध तुम्हारे चरित्र से मुझे आश्चर्य है । अतः स्पष्ट रूप से कहो, यह बात परस्पर विरुद्ध क्यों है ? ॥ ३६४ ॥ ऐसा कहने मात्र से ही परिव्राजक ने कहा- “विषय के लोभी लोगों के लिए परस्पर विरुद्ध कोई बात जननीजनकानां सुकृतं न गणयन्ति न बन्धुमित्रस्वामिनाम् । विषयविषमोहितमनसः पुरुषाः परलोकमार्गं च ॥ ३६५॥ एवं च शिष्टमात्रे भणितममात्येन युज्यते एतत् । विज्ञानदरिद्राणां न पुनस्त्वया सदृशानाम् ॥३६६॥ ततः कथय अवितथं परधनग्रहणस्य कारणं मम । सकलानुपालनस्य च हियं मुक्त्वा किं बहुना ॥ ३६७॥ Jain Education International कहा भी है विषयरूपी विष से मोहित मन वाले पुरुष माता-पिता, पाप और परलोक को नहीं गिनते हैं ।" ऐसा कहने पर मन्त्री ने कहा - "ज्ञानहीन लोगों के लिए यह बात ठीक है, किन्तु आप जैसे लोगों के लिए ठीक कैसे है ? अतः दूसरे के धन को लेने का कारण मुझसे सही-सही कहो । अधिक कहने से क्या ? समस्त औपचारिकता और लज्जा को छोड़कर कहो ।। ३६५-३६७॥ १. एवं च चिन्तिऊण परिव्वाय गरूवधारणमुयङ्गो । करुणावन्नचितेग मतिगः सविग य भणियो ॥ इति ख ग पुस्तके For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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