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________________ २६६ मए, केरिस वा फलसेसं ति ? साहुणा भणियं -वच्छ सुण । अत्थि इहेव भारहे वासे उत्तरावहे विसए गज्जणयं नाम पट्टणं । तत्थ आसाढो नाम माहणो । रच्छुया से भारिया । ताणं इओ अतीयपंचमभवम्मि चंडदेवाभिहाणो' पुत्तो तुमं आसि । काराविओ dri, सुणाविओ सत्थाई आसाढेण । समुप्पन्नो ते विज्जाहिमाणो । ठिओ गज्जणयसामिणो वीरसेल्स समोवे, संपूइऔ तेज, विइण्णं जीवणं, बहु मन्नए राया । अइक्कंतो कोइ कालो । अन्नया य तम्मि चैव नयरे परिव्वायगभत्ता विणीयसेट्ठिस्स धूया बालविहवा वीरमई नाम; सा य अविवेयबहुलाए इत्थियाणं दुज्जयाए मोहस्स अहिलसणीयधाए विसयाणं वियारकुलहरयाए जोव्वणस्स अणवेक्खऊण नियकुलं अणालोचिऊण आयइं तन्नधरिवत्थव्वगसीहलाभिहाणेण मालागारेण समं पवसिय त्ति । इओ य तस्मि चेत्र दियहे तीसे चैव पूयणिज्जो ससमयायारपरिवालणरई जोगप्पा नाम परिव्वायगो, सो निस्संगयाए पव्वइयगाणं कज्जाभावेण य संसियव्वस्स अणाइक्खिऊण कस्सइ थासरं गओ त्ति । जाओ य लोयवाओ 'अहो वीरमई पवसिय त्ति । विन्नायं च तुमए परिव्वायय । मनुभूतं मया, कीदृशं वा फलशेषमिति ? साधुना भणितम् - शृणु ! अस्ति इहैव मारते वर्षे उत्तरापथे विषये गज्जनकं नाम पत्तनम् । तत्राषाढो नाम ब्राह्मणः । रच्छुका तस्य भार्या । तयोरितोऽतीत पञ्चमभवे चण्डदेवाभिधानः पुत्रस्त्वमासीः । कारितो वेदाध्ययनम् श्रावितः शास्त्राणि आषाढेन । समुत्पन्नस्ते विद्याभिमानः । स्थितो गज्जनकस्वामिनो वीरसेनस्य समीपे, सम्पूजितस्तेन, वितीर्णं जीवनम्, बहु मन्यते राज्ञा । अतिक्रान्तो कोऽपि कालः । अन्यदा च तस्मिन्नेव नगरे परिव्राजकभक्ता विनीतश्रेष्ठिनो दुहिता बालविधवा वीरमती नाम । सा च अविवेकबहुलतया स्त्रीणां दुर्जयतया मोहस्य, अभिलषणीयतया विषयाणां विकार कुल गृहतया यौवनस्य, अनपेक्ष्य निजकुलम्, अनालोच्यायति तन्नगरीवास्तव्यकसिंहलाभिधानेन मालाकारेण समं प्रोषितेति । इतश्च तस्मिन्नेव दिवसे तस्या एव पूजनीयः स्वसमयाचारपरिपालनरतिर्योगात्ना नाम परिव्राजकः । स निःसङ्गतया प्रब्रजितानां कार्याभावेन च शंसितव्यमनाख्याय कस्यचिद् स्थानेश्वरं गत इति । जातश्च लोकवादः - 'अहो वीरमती प्रोषिता ' -- इति । विज्ञातं त्वया परिव्राजक [ समराइच्चकहा इसी भारत वर्ष के उत्तरापथ में गजनक नाम का पत्तन ( नगर ) है । वही आषाढ़ नाम का ब्राह्मण था । उसकी पत्नी रच्छुका थी । तुम इससे पहले पाँचवें भव में चण्डदेव नाम के पुत्र थे । आषाढ़ ने तुम्हें विद्याध्ययन कराया, शास्त्र सुनवाये । तुम्हें विद्या का अभिमान हो गया । (तुम) गज्जनक स्वामी वीरसेन के पास रहे, उसने सत्कार किया, आजीविका दी, राजा बहुत मानने लगा । कुछ समय बीत गया । एक समय उसी नगर में परिव्राजकों की भक्त विनीत सेठ की बालविधवा पुत्री वीरमती थी । वह स्त्रियों में अविवेक की बहुलता होने के कारण, मोह को जीतना कठिन होने के कारण, विषयों की अभिलाषा से तथा यौवन विकारों का कुलगृह होने के कारण अपने कुल की अपेक्षा न कर भावी फल को न विचारकर उसी नगर में रहने वाले ' सिंहल' नामक माली के साथ भाग गयी । इधर उसी दिन उसकी कन्या का पूजनीय 'योगात्मा' नाम का परिव्राजक, जो कि अपने शास्त्रानुकूल आचरण के प्रव्रजितों की निरासक्ति तथा कार्य न होने के कारण अपना निश्चय किसी से कहे बिना ही स्थानेश्वर को गया । लोगों में चर्चा फैल गयी कि 'अरे, वीरमती भाग गयी ।' तुम्हें परिव्राजक के जाने की जानकारी हुई । तब आशय अशुद्ध होने और प्राणियों का पालने में रत था, १. चंददेवा कनक ! Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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